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भूमिका
कहना चाहिये। साक्षात् ब्रह्म की प्राप्ति के लिए देह से मुक्त होने के साधन के माने ही ब्रह्मचर्य है। भीष्म आखिर में ऐसे ब्रह्मचारी बने थे और महान् ज्ञानी हुए, फिर भी वे पहले वैसे नहीं थे। शुक के समान वे प्रारम्भ से प्रादर्श ब्रह्मचारी नहीं थे। आजकल कुछ लोगों का देशचर्य या स्वराज-चर्य चलता है और वे उसे बहुत अच्छी तरह से निभाते भी हैं। परन्तु फिर भी उसको ब्रह्मचर्य नहीं कहा जा सकता। उनमें से कई ऐसे होते हैं जो देशचर्य को बाद में ब्रह्मचर्य में परिवर्तित कर देते है।
भूदान यज्ञ ऐसा कोई कार्य नहीं है कि जिसके लिए विद्यार्थी को आमरण, पाजीवन ब्रह्मचारी रहने की आवश्यकता हो ।...ब्रह्मचर्य को जिसे अन्दर से प्रेरणा होती है उसे बाहर से कोई निमित्त मिल जाता है तो वह उसका लाभ उठाता है। भीष्म और गान्धीजी के साथ भी यही हुआ था। गान्धीजी ने सामान्य जन-सेवा के खयाल से ब्रह्मचर्य का प्रारम्भ किया और अच्छे ब्रह्मचर्य में उसकी परिणति की। तो भूदान यज्ञ अगर किसी के लिए वैसा निमित्त बन जाता है तो वह उसका लाभ उठा सकता है परन्तु खास इस काम के लिए ब्रह्मचर्य-व्रत लेने की कोई जरूरत नहीं है।
२—कुछ लोग–'संयम से संतति-नियमन करो', ऐसा प्रतिपादन करते हैं। लेकिन यह ठीक नहीं। संयम का अपना स्वतंत्र मूल्य है। संतति कम करने के लिए संयम को न खपाइये ।...संयम से आनन्द मिलता है; इसलिए संयमी होने को लोगों से कहिए। उसके लिए भौतिक नफा-नुकसान न सिखाइये। सर जैन आगम में सर्व प्राणातिपात विरमण, सर्व मृषावाद विरमण, सर्व अदत्तादान विरमण, सर्व मैथुन विरमण, सर्व परिग्रह विरमण और सर्व-रात्रि भोजन विरमण-इन प्रतिज्ञाओं को ग्रहण करने के बाद साधक का प्रात्म-तोष इस प्रकार प्रकट होता है : “इन पांच महाव्रत और छ रात्रि-भोजन विरमण को मैंने आत्म-हित के लिए ग्रहण किया है।" इससे स्पष्ट है कि महाव्रतों के-जिनमें ब्रह्मचर्य महाव्रत भी हैग्रहण का हेतु जैन आगमों में भी 'पात्महित' ही बताया गया है । 2वैदिक संस्कृति में भी ब्रह्मचर्य का उद्देश्य यही कहा गया है। ब्रह्मचर्य का उद्देश्य क्या होना चाहिए, यह उपनिषद् के निम्न वार्तालाप से प्रकट होगा : एक "हम आत्मा को जानना चाहते हैं जिसे जानने पर जीव सम्पूर्ण लोकों और समस्त भोगों को प्राप्त कर लेता है"-ऐसा निश्चय कर देवताओं का राजा इन्द्र और असुरों का राजा विरोचन ये दोनों परस्पर स्पर्धा से हाथों में समिधाएं लेकर प्रजापति के पास आए। और बत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्यवास किया। ..
प्रजापति ने कहा-"ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तुम किस चीज की इच्छा करते हो?"
इन्द्र और विरोचन बोले : “जो आत्मा पाप-रहित, जरा-रहित, मृत्यु-रहित, शोक-रहित, क्षुधा-रहित, तृषा-रहित, सत्यकाम और सत्यसंकल्प है उसका अन्वेषण करना चाहिए और उसे विशेषरूप से जानने की इच्छा करनी चाहिए, यह आपका वाक्य है। आत्मा को जानने की इच्छा से हम यहाँ ब्रह्मचर्यवास में हैं।"
प्रजापति ने कहा- "यह जो नेत्रों में दिखायी देता है-प्रात्मा है । यह अमृत है, यह अभय है, यह ब्रह्म है।"
उपर्युक्त वार्तालाप में ब्रह्मचर्य का उद्देश्य प्रात्म-प्राप्ति बतलाया गया है। साथ ही यह भी बता दिया गया है कि आत्मा ब्रह्मचर्य से ही प्राप्त होती है। यह ही बात जैन धर्म में संयम रूप ब्रह्मचर्य के उद्देश्य और फल के सम्बन्ध में कही गयी है।
जैन आगम दशवकालिक सूत्र में कहा है : "निश्चय ही आचार-समाधि के चार भेद हैं । यथा(१) इहलोक के लिए प्राचार का पालन न करे। (२) परलोक के लिए प्राचार का पालन न करे। (३) कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लाघा के लिए प्राचार का पालन न करे। (४) अरिहंत-निर्दिष्ट हेतु निर्जरा-प्रात्म-शुद्धि के सिवा अन्य किसी प्रयोजन के लिए प्राचार का अनुष्ठान न करे।"
इससे भी स्पष्ट है कि साधक के लिए ब्रह्मचर्य का हेतु पात्म-हित, प्रात्म-शुद्धि ही हो सकता है। १-दशवकालिक ४.६:
इच्चेइयाई पञ्च महब्वयाईराईभोयणवेरमणछट्ठाई अत्त-हियट्टयाए उवसंपज्जित्ताणं विहरामि। २-छान्दोग्योपनिषद् ८.७ : ६.४ ३-दशवकालिक ६.४.५:
चउब्विहा खलु आयार-समाही भवइ, तं जहा-नो इहलोगट्टयाए आयारमहिद्वेज्जा, नो परलोगट्टयाए आयारमहि?ज्जा, नो कित्तिवाण-सह-सिलोगट्ठाए आयारमहि?ज्जा, नन्नत्थ आरहतेहि हेहि आयारमहिढेज्जा चउत्थं पयं भवइ ।
हा गया हा
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