Book Title: Prakrit Swayam Shikshak
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Bharati Academy
Catalog link: https://jainqq.org/explore/002253/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकत स्वयं-शिक्षक डॉ. प्रेम सुमन जैन SUF प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादक : साहित्यवाचस्पति म. विनयसागर प्राकृत स्वयं-शिक्षक खण्ड १ प्राकृत भारती पुष्प-३ प्रोफेसर प्रेम सुमन जैन . आचार्य, जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग अधिष्ठाता, कला महाविद्यालय सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर ना प्राकृत भारती अकादमी जयपुर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: देवेन्द्रराज मेहता प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर प्रथम संस्करण १९७९ पुनर्मुद्रित संस्करण १९८२ तृतीय संस्करण १९९८ मूल्य : १०.०० रुपये © सर्वाधिकार प्रकाशकाधी० प्राप्ति स्थान : - प्राकृत भारती अकादमी १3-ए. मेन मालवीय नगर, जयपुर-३०२०१७ (राज.) दूरभाष-५२४८२७, ५२४८२८ लेजरटाईपसैटिंग : कम्प्यू प्रिन्टस, जयपुर-३ दूरभाष:३२३४५६ मुद्रक : पॉपुलर प्रिन्टर्स मोती डूंगरी रोड, जयपुर-302 004 दूरभाष : 606883, 606591 PRAKRIT SVAYAM SHIKSHAK (Grammar) by Prem Suman Jain/Jaipur/1979 Reprint in 1982 Third Edition,1998 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्राकृत भाषा एवं साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन एवं प्राकृत भाषा का प्रचार तथा प्रसार प्राकृत भारती अकादमी का प्रमुख उद्देश्य है। इसी दिशा में प्राकृत स्वयं - शिक्षक खण्ड १ का इस संस्थान की तरफ से प्रकाशन करने में अत्यधिक प्रसन्नता है। प्रोफेसर जैन प्राकृत के प्रमुख विद्वान् हैं। इस क्षेत्र में उनके विस्तृत ज्ञान एवं अनुभव का लाभ प्राकृत के पाठकों को उपलब्ध होगा। उन्होंने प्राकृत के सीखने-सिखाने में एक वैज्ञानिक एवं नवीनतम शैली का प्रयोग इस पुस्तक में किया । साधारणतया प्राकृत, संस्कृत की मदद से सीखी - सिखाई जाती रही है । इस पुस्तक की विशेषता यह है कि सामान्य हिन्दी जानने वाला पाठक भी बिना किसी कठिनाई के प्राकृत स्वयं सीख सकता है। नई प्रणाली के उपरान्त भी लेखक ने प्राकृत व्याकरण की परम्परा को पृष्ठभूमि में बनाये रखा है। इस तरह संस्थान का उद्देश्य एवं पाठकों की उपयोगिता के संदर्भ में यह एक बहुत ही समसामयिक प्रकाशन कहा जा सकता है। संस्थान इस पुस्तक के लेखक के प्रति विशेष आभार प्रकट करता है कि प्राकृत के क्षेत्र में एक बहुत बड़ी कमी को उन्होंने यह पुस्तक लिखकर पूरा. किया है। प्रस्तुत पुस्तक की प्रथमावृत्ति सन् १९७६ में प्रकाशित की गई थी किन्तु अल्पकाल ही में इसकी समस्त प्रतियाँ बिक गईं और जैन साधु समाज तथा सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के छात्रों व अन्य पाठकों की मांग इसके लिए नियमित रूप से बनी रही, अतः संस्थान द्वारा १६८२ में इनका पुनमुद्रण किया, किन्तु यह संस्करण भी शीघ्र ही बिक गया। अब इस बहु उपयोगी पुस्तक का तृतीय • संस्करण प्रकाशित किया जा रहा है। पुस्तक को और अधिक उपयोगी बनाने के लिये इसके लेखक प्रोफेसर प्रेम सुमन जैन ने 'प्राकृत भाषा : स्वरूप एवं विकास' पर एक आलोचनात्मक लेख और प्राकृत के प्रमुख वैयाकरणों का संक्षिप्त परिचय इस संस्करण में और जोड़ दिया है। [iii] Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशा है इस नवीन संस्करण के माध्यम से प्राकृत भाषा को सीखने और समझने की दिशा को गति मिलेगी तथा सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर के समान अन्य विश्वविद्यालयों में भी इस भाषा के पठन-पाठन का कार्यक्रम प्रारम्भ किया जाएगा, जिससे कि इस भाषा में निबंद्ध साहित्य अधिक से अधिक प्रकाश में आ सकेगा। ... प्रस्तुत संस्करण के मुद्रण में इस संस्थान के निदेशक एवं जैन साहित्य के विशिष्ट विद्वान् साहित्य वाचस्पति महोपाध्याय श्री विनयसागर जी तथा सदस्य श्री ओंकारलालजी मेनारिया ने मनोयोग पूर्वक कार्य किया उसके लिये संस्थान उनका भी आभारी है। साहित्य-वाचस्पति म. विनयसागर निदेशक, + प्राकृत भारती अकादमी जयपुर देवेन्द्रराज मेहता प्राकृत भारती अकादमी जयपुर [iv] Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ( प्रथम संस्करण ) विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों एवं अनुसन्धान के क्षेत्र में विगत कुछ वर्षों में प्राकृत भाषा एवं साहित्य को विशेष महत्व प्राप्त होने लगा है। परिणाम स्वरूप राजस्थान के विविद्यालय में भी विभिन्न स्तरों पर प्राकृत के पठन-पाठन का शुभारम्भ हुआ है। उदयपुर विश्वविद्यालय के जैन विद्या विभाग में इस समय बी. ए., एम. ए., डिप्लोमा एवं सर्टिफिकेट पाठ्यक्रमों में प्राकृत भाषा का शिक्षण हो रहा है। प्रसन्नता की बात है कि महाराष्ट्र एवं गुजरात के माध्यमिक शिक्षा बोर्डों की तरह राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, अजमेर ने भी सैकण्डरी परीक्षा में १६८० से प्राकृत को एक वैकल्पिक विषय के रूप में स्वीकार किया है। इससे राजस्थान में प्राकृत के पठन-पाठन को बहुत बलं मिलेगा। प्राकृत के शिक्षण की ये सब व्यवस्थाएँ तभी कारगर हो सकती हैं जब सरल-सुबोध शैली में प्राकृत भाषा का कोई व्याकरण उपलब्ध हो तथा आधुनिक अभ्यास पद्धतियों से युक्त प्राकृत की पाठ्य-पुस्तकें प्रकाशित हों। इस दिशा में प्राकृत विद्वानों का प्रयत्न अभी नगण्य ही कहा जायेगा। प्राकृत व्याकरण की जो : पुस्तकें वर्तमान में उपलब्ध हैं वे परम्परागत होने से संस्कृत भाषा को मूल में रखकर प्राकृत सीखने-सिखाने का प्रयत्न करती हैं, इससे प्राकृत का कभी स्वतंत्र भाषा के रूप में अध्ययन नहीं किया गया। प्राकृत स्वयं समृद्ध होते हुए भी नगण्य बनी रही। - प्राय: यह मिथ्या धारणा प्रचलित हो गयी कि संस्कृत में निपुणता प्राप्त किये बिना प्राकृत नहीं सीखी जा सकती। संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश ये सब भाषाएँ एक दूसरे के ज्ञान में पूरक अवश्य हैं, किन्तु इनका शिक्षण और मनन स्वतंत्र रूप से भी किया जा सकता है। तभी उनकी समृद्धि का उचित मूल्यांकन हो सकता है। किन्तु इसके लिए आवश्यक है कि प्राकृत-शिक्षण का सरलतम एवं सारगर्भित मार्ग प्रशस्त हो.। प्राकृत के विद्वान् शोघ-अनुसंधान के कार्यों के अतिरिक्त प्राकृत भाषा एवं उसकी पाठ्य-पुस्तकों के निर्माण में भी थोड़ा श्रम और समय लगायें। ___प्राकृत भाषा के प्रचार-प्रसार को दृष्टि में रखते हुए विगत वर्षों में हमने कतिपय सोपान पार किये हैं। १६७३ में आदर्श साहित्य संघ, चूरू से हमारी प्राकृत-चयनिका प्रकाशित हुई। १६७४ में प्राकृत काव्य-सौरभ एवं अपभ्रंश काव्यधारा प्रकाश में आयी। इनसे पाठ्यक्रम के अन्य उद्देश्य तो पूरे हुए, किन्तु वह संतोष नहीं हुआ, जो प्राकृत भाषा के शिक्षण के लिए आवश्यक था। १६७८ में तीर्थंकर' मासिक में प्राकृत सीखें के पाठ धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुए (अब पुस्तिका रूप में [v] Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशित)। उसका यह परिणाम हुआ कि प्राकृत के कई प्रेमियों ने मुझे प्राकृत भाषा की और अधिक सरल - सुबोध पुस्तक लिखने की प्रेरणा दी। उदयपुर के मेरे विद्वान मित्र डॉ. कमलचंद सोगाणी मुझसे घंटों इस सम्बन्ध में चर्चा करते कि प्राकृत सिखाने. की कोई नयी शैली निकालो। उनके साथ विभिन्न भाषाओं के व्याकरणों की कई पुस्तकें देखी गयीं किन्तु प्राकृत भाषा के अनुरूप एक नयी शैली ही तय करनी पड़ी; जिसमें सीखने वाले पर कम से कम रटाने आदि का भार पड़े। वह अभ्यास से ही बहुत कुछ सीख जाये । उस नवीन शैली का आकार रूप है - प्रस्तुत - प्राकृत स्वयं-शिक्षक खण्ड १। प्राकृत स्वयं - शिक्षक खण्ड १ में यह मानकर प्राकृत का अभ्यास कराया गया है कि सीखने वाले को प्राकृत बिल्कुल नहीं आती। संस्कृत से वह परिचित नहीं है।. अतः उसे प्राकृत के सामान्य नियमों का ही विभिन्न प्रयोगों और चार्टो द्वारा अभ्यास कराया गया है। सर्वनाम, क्रिया, संज्ञा आदि के नियम पाठों के अन्त में दिये गये हैं ताकि सीखने वाले के अभ्यास में बाधा न पहुँचे। प्राकृत वैयाकरणों के मूलसूत्र नियमों में नहीं दिये गये हैं क्योंकि प्राकृत के प्रारम्भिक विद्यार्थी का शिक्षण उनके बिना भी हो सकता है। · इस पुस्तक में इस बात का ध्यान भी रखा गया है कि पाठक जिन प्राकृत शब्दों, क्रियाओं, अव्ययों एवं सर्वनामों से परिचित हो चुका है उन्हीं का अभ्यास करे। • उसने शब्दकोष या क्रियाकोश से जो नयी जानकारी प्राप्त की है, उसका अभ्यास वह आगे के पाठ द्वारा करता है। इसी तरह आगे के पाठों में उसे पीछे सीखे गये पाठों का भी अभ्यास करने को कहा गया है। इस तरह उसका अर्जित ज्ञान ताजा बना रहता है। पूरी पुस्तक के अभ्यास कर लेने पर पाठक लगभग ६०० प्राकृत शब्दों, २०० क्रियाओं, ५० अव्ययों, १०० विशेषण शब्दों, ५० तद्धित शब्दों तथा प्रमुख सर्वनामों के प्रयोग का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। प्राकृत में शब्दरूपों एवं क्रियारूपों में विकल्पों का प्रयोग बहुत होता है। प्राकृत जनभाषा होने से यह स्वाभाविक भी है। इस पुस्तक में पाठक को प्रायः शब्द या क्रिया के एक ही रूप का ज्ञान कराया गया है ताकि वह प्राकृत भाषा के मूल स्वरूप को पहिचान जाय । विकल्प रूपों का अध्ययन वह बाद में भी कर सकता है। इस अध्ययन की रूपरेखा भी प्रस्तुत पुस्तक में दे दी गयी है। पुस्तक के अन्त में प्राकृत के गद्य-पद्य पाठों का संकलन दिया गया है। इस संकलन में जो वैकल्पिक रूप प्रयुक्त हुए हैं उन्हें एक साथ संकलन के पूर्व दे दिया गया है और उनके सामने पाठक ने जिन प्राकृत रूपों की जानकारी प्राप्त की है वे दे दिये गये हैं। इस चार्ट से पाठक आसानी से समझ लेता है कि कमलानि के स्थान पर कमलाई, गच्छइ के स्थान पर गच्छेइ, जाणिऊण के लिए णच्चा आदि के प्रयोग भी प्राकृत में होते हैं। संकलन पाठ बी. ए. एवं डिप्लोमा के पाठ्यक्रम को ध्यान में रखकर दिये गये हैं तथा उनके शब्दार्थ देकर पाठों को समझने में सरलता प्रदान की गयी है। इस तरह इस पुस्तक में थोड़े [vi] · Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में सरल ढंग से प्राकृत भाषा को हृदयंगम कराने का विनम्र प्रयत्न किया गया है। वस्तुतः प्राकृत का पूरा ज्ञान तो उसके साहित्य के अनुशीलन और मनन से ही आ सकता है। प्राकृत स्वयं-शिक्षक खण्ड २ में प्राकृत के वैकल्पिक और आर्ष प्रयोगों का विस्तार से वर्णन होगा। अर्धमागधी, मागधी, शौरसेनी आदि प्रमुख प्राकृतों का यह हिन्दी में प्रामाणिक व्याकरण होगा। इसके अभ्यास से प्राकृत आगम एवं व्याख्या साहित्य का अध्ययन सुगम हो सकेगा। प्राकृत-शिक्षण के प्रयत्न का तीसरा सोपान है-हिन्दी प्राकत व्याकरण। इस व्याकरण में पहली बार प्राकत के प्राचीन व्याकरणों की सामग्री को व्यवस्थित एवं सुबोध शैली में प्रस्तुत किया जा रहा है। इसमें प्राकृत वैयाकरणों के सूत्र भी संदर्भ में दिये जायेंगे एवं प्राकृत के वर्तमान ग्रंथों से उदाहरण एवं प्रयोग आदि देने का प्रयत्न रहेगा। ये दोनों पुस्तकें यथाशीघ्र प्राकृत के जिज्ञासु पाठकों के समक्ष पहुँचाने का प्रयास है। आभार : प्राकृत स्वयं-शिक्षक के इन तीनों खण्डों के स्वरूप एवं रूपरेखा आदि को निखारने में जिन विद्वानों का परामर्श एवं प्रोत्साहन मिला है उनमें प्रमुख हैंआदरणीय डॉ० कमलचंद सोगाणी (उदयपुर), डॉ. जगदीश चंद्र जैन (बम्बई), पं० दलसुख भाई मालवणिया (अहमदाबाद), डॉ० आर. सी. द्विवेदी (जयपुर), डॉ० गोकुलचंद्र जैन (बनारस) एवं डॉ० नेमीचंद जैन (इन्दौर)। इन सबके सहयोग के लिए मैं आभारी हूँ और कृतज्ञ हूँ उन समस्त प्राचीन एवं अर्वाचीन प्राकृत भाषा के लेखकों का, जिनके ग्रंथों के अनुशीलन से. प्राकृत-व्याकरण सम्बन्धी मेरी कई गुत्थियाँ सुलझी हैं तथा पाठ-संकलन में जिनसे मदद मिली है। प्राकृत भाषा के मर्मज्ञ मुनिजनों के आशीष का ही यह फल है कि प्राकृत के पठन-पाठन की दिशा में कुछ प्रयत्न हो पा रहा है। उनके प्राकृत अनुराग को सादर प्रणाम है। :: पुस्तक के प्रकाशन की व्यवस्था आदि में राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान के सकिय सचिव श्री मान् देवेन्द्रराज मेहता, संयुक्त सचिव महोपाध्याय विनयसागर एवं फ्रैण्ड्स प्रिण्टर्स एण्ड स्टेशनर्स जयपुर के प्रबन्धकों का जो सहयोग मिला है उसके लिए मैं इन सब का हृदय से आभारी हूँ। .... अन्त में अपनी धर्मपत्नी श्री मती सरोज जैन के प्रति आभार प्रकट करता हूँ जिनके सहयोग से मुझे अध्ययन–अनुशीलन के लिए पर्याप्त समय प्राप्त हो जाता है। अग्रिम आभार उन जिज्ञासु पाठकों एवं विद्वानों के प्रति भी है जो इस पुस्तक को गहरायी से पढ़कर मुझे अपनी प्रतिक्रिया, सम्मति आदि से अवगत करायेंगे तथा इसके संशोधन-परिवर्द्धन में वे समभागी होंगे। 'समय' २६, सुन्दरवास (उत्तरी) प्रेम सुमन जैन उदयपुर १ अगस्त, १६७६ [vii] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय संस्करण प्राकृत स्वयं - शिक्षक (खण्ड १) का पुनर्मुद्रित संस्करण (१६८२ ) की प्रतियाँ थोड़े ही समय में समाप्त हो गयीं, इसके लिए प्रकाशक और पाठकों का लेखक आभारी है। प्राकृत भाषा अध्ययन के प्रति अभिरुचि बढ़ रही है, यह संतोषप्रद है । माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, अजमेर द्वारा राजस्थान के स्कूलों में प्राकृत भाषा' विषय प्रारम्भ हो चुका है। उससे प्राकृत सीखने के नये आयाम खुलेंगे। इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु लेखक ने 'प्राकृत काव्य-मंजरी' एवं 'प्राकृत गद्य-सोपान' ये दो पुस्तकें और तैयार की थीं। प्राकृत के जिज्ञासु पाठकों ने इन्हें भी स्नेह के साथ अपनाया है। ऐसी पुस्तकें पाठकों तक पहुँचाने में प्राकृत भारती लगन के साथ जुटी हुई है, इसके लिए उसके कार्यकर्ताओं को बधाई है। विगत वर्षों में कई विश्वविद्यालयों एवं परीक्षा बोर्डों के पाठ्यक्रमों में इस प्राकृत स्वयं - शिक्षक को स्वीकृत किया गया है। अतः उसकी आवश्यकता की दृष्टि से इस तृतीय संस्करण के आरम्भ में 'प्राकृत भाषा: स्वरूप एवं विकास' शीर्षक से प्राकृत के उद्भव, भेद-प्रभेद, विकास आदि पर संक्षेप में प्रकाश डाला गया है। इसी में प्राकृत - शिक्षण के लिए कुछ सुझाव भी प्रस्तुत किये हैं, जिनका प्रयोग हम यहाँ कक्षाओं में कर रहे हैं। और उनका संतोष जनक परिणाम प्राप्त हो रहा है। आशा है, इससे प्राकृत के शिक्षण को एक नयी दिशा मिलेगी। इस संस्करण में प्राकृत के प्रमुख वैयाकरण' शीर्षक से प्राकृत व्याकरण शास्त्र की परम्परा का परिचय दिया गया है। सूक्ष्म अध्येता पाठकों के अध्ययन को इससे गति मिलेगी। विद्वानों एवं प्राकृत के जिज्ञासु पाठकों के सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी, ताकि आगे के संस्करण को और उपयोगी बनाया जा सके। प्राकृत-शिक्षण और उसके अध्ययन के विभिन्न आयामों के साथ जुड़े हुए सभी महानुभावों एवं मित्रों के प्रति सादर आभार । २६, विद्या विस्तार कालोनी सुंदरवास (उत्तरी) उदयपुर- ३१३००१ श्रुत पंचमी, १० जून १६६७ [ viii ] प्रेम सुमन जैन Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्राकृत भाषा : स्वरूप एवं विकास के प्रमुख वैयाकरण २. प्राकृत ३. सर्वनाम पाठ. १–६ . पाठ १० पाठ ११ ४. क्रियाएँ पाठ पाठ पाठ पाठ पाठ पाठ पाठ पाठ ५. संज्ञा शब्द पाठ पाठ पाठ पाठ पाठ पाठ पाठ पाठ : पाठ ४५-४८ : पाठ ४६ : पाठ ५०-५३ : पाठ ५४ : पाठ ५५-५८ : १२ १३ १४ ত १५ १६ : २२ : : १७- १९ : २०-२१ : अनुक्रम २३-२८ : २६ ३०-३३ : ३४. : : ( अहं अम्हे, तुमं, तुम्हे, सो, ते, सा, ताओ, इमो आदि ) नियम (सर्वनाम, क्रिया - अभ्यास ) अभ्यास (क्रिया, संज्ञा, अव्यय) वर्तमानकाल भूतकाल 'अस धातु एवं सम्मिलित अभ्यास भविष्यकाल प्रथमा विभक्ति (पु०, स्त्री०, नपुं०) नियम (प्रथमा विभक्ति, स्त्री०, नपुं०) द्वितीया विभक्ति नियम (द्वितीया ) ३५-३८ : तृतीया विभक्ति ३९ : नियम (तृतीया) ४०-४३ : चतुर्थी विभक्ति ४४ इच्छा / आज्ञा सम्बन्ध कृदन्त, हेत्वर्थ कृदन्त, अभ्यास नियम (क्रियारूप, मिश्रित अभ्यास ) अभ्यास (क्रियाकोश, शब्दकोश, अव्यय ) नियम (चतुर्थी) पंचमी विभक्ति नियम (पंचमी) षष्ठी विभक्ति नियम (षष्ठी) सप्तमी विभक्ति [ ix ] पृष्ठ १-२० २१-२६ २-१० ११-१२ १३ 1 १४-१५ १६-१७ १८- १६ २०-२१ २२-२३ २४-२६ २७-२६ ३०-३१ ३२- ३७ ३८. ३६-४५ ४६ ४७-५३ ५४ ५५-६१ ६२ ६३-६६ ७० ७१-७७ ७८ ७६-८५ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४-६८ : ११५-११७ .. ११८ पाठ ५६ : नियम (सप्तमी एवं मिश्रित अभ्यास) ८६-८७ पाठ ६०-६२ : सम्बोधन . ८८-६० पाठ ६३ : नियम (संबोधन तथा चार्ट सर्वनाम एवं ६१-६३. संज्ञा शब्द) ६. संज्ञार्थक क्रियाएँ पाठ ६४-६७ : पु०, स्त्री०, नपुं० एवं अन्य संज्ञाएँ ७. विशेषण पाठ ६८-७१ : गुणवाचक, तुलनात्मक, संख्यावाचक तथा प्रकार एवं क्रमवाचक विशेषण ६६-१०५ पाठ ७२-७४ : कृदन्त-विशेषण १०६-११० पाठ ७५ : तद्धित विशेषण ११५–११२ क्रियारूप एवं कृदन्त विशेषण चार्ट ११३-११४. ८. कर्मणि प्रयोग पाठ ७६ : कर्मवाच्य (सामान्य क्रियाएँ) पाठ ७७ : भाववाच्य (सामान्य क्रियाएँ) पाठ ७८ : नियम (कर्मवाच्य- भाववाच्य) . ११६ पाठ ७६ : कृदन्त प्रयोग (कर्म एवं भाव वाच्य) १२०-१२९ पाठ ८० : नियम (वाच्य कृदन्त प्रयोग एवं. .. ___ कर्मणि प्रयोग चार्ट) १२२–१२३ ६. प्रेरणार्थक क्रिया-प्रयोग पाठ ८१-८४ : प्रेरक सामान्य क्रियाएँ, कृदन्त क्रियाएँ, प्रेरक वाच्य प्रयोग तथा प्रेरणार्थक क्रिया के अन्य प्रयोग . १२४-१३३ पाठ ८५ : नियम (प्रेरणार्थक क्रियाएँ एवं चार्ट) १०. क्रियातिपत्ति के प्रयोग ___ पाठ ८६ : नियम (क्रियातिपत्ति प्रयोग-वाक्य) . १३४-१३५ ११. संधि-प्रयोग पाठ ८७ : विभिन्न संधि प्रयोग १३६-१३६ १२. समास पाठ ८८ : विभिन्न समास-प्रयोग १३८-१३६ १३. वैकल्पिक प्रयोग ___ पाठ ८६ : पाठ संकलन के वैकल्पिक प्रयोग १४०-१४४ १४. पाइय-पज्ज-गज्ज-संगहो १४५-१६५ १५. शब्दार्थ १६६-२०७ संदर्भ-ग्रन्थ २०८ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा: • स्वरूप एवं विकास प्राकृत : भारतीय आर्य भाषा भाषाविदों ने भारत-ईरानी भाषा परिचय के अन्तर्गत भारतीय आर्य शाखा परिवार का विवेचन किया है। प्राकृत इसी भाषा परिवार की एक आर्य भाषा है। विद्वानों ने भारतीय आर्यशाखा परिवार की भाषाओं के विकास के तीन युग निश्चित किये हैं: १. प्राचीन भारतीय आर्यभाषाकाल (१६०० ई. पू. से ६०० ई. पू. तक) २. मध्यकालीन आर्यभाषाकाल (६०० ई. पू. से १००० ई. तक) एवं ३. आधुनिक आर्यभाषाकाल (१००० ई. से वर्तमान समय तक) प्राकृत भाषा का इन तीनों कालों से किसी न किसी रूप में सम्बन्ध बना हुआ है। वैदिक भाषा प्राचीन आर्य भाषा है। उसका विकास तत्कालीन लोक-भाषाओं से हुआ है। भाषाविदों ने प्राकृत एवं वैदिक भाषा में ध्वनितत्त्व एवं विकास-प्रक्रिया की दृष्टि से कई समानताएँ परिलक्षित की हैं। अतः ज्ञात होता है कि वैदिक भाषा और प्राकृत के विकसित होने का कोई एक लौकिक समान धरातल रहा है। किसी जनभाषा के समान तत्त्वों पर ही इन दोनों भाषाओं का भवन निर्मित हुआ है, किन्तु आज उस आधारभूत भाषा का कोई साहित्य या बानगी हमारे पास न होने से. केवल हमें वैदिक भाषा और • प्राकृत के साहित्य में उपलब्ध समान भाषा-तत्त्वों के अध्ययन पर ही निर्भर रहना पड़ता है। इससे इतना तो स्पष्ट हैं कि वैदिक भाषा के स्वरूप को अधिक उजागर करने के लिए . प्राकृत भाषा का गहन अध्ययन आवश्यक है। प्राकृत भाषा का स्वरूप भी बिना वैदिक भाषा को जाने समझे स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। फिर भी दोनों स्वतंत्र और समर्थ भाषाएँ हैं, इस कथन में कोई विरोध नहीं आता। बोलचाल की भाषा अथवा कथ्य भाषा प्राकृत का वैदिक भाषा के साथ जो सम्बन्ध था, उसी के आधार पर साहित्यिक प्राकृत भाषा का स्वरूप निर्मित हुआ है। अतः वैदिक युग से लेकर महावीर युग तक की प्राकृत भाषा ने तत्कालीन साहित्य को भी अवश्य प्रभावित किया होगा। यदि वैदिक ऋचाओं, उपनिषदों, महाभारत और आदि रामायण तथा पालि, प्राकृत आगमों की भाषा का तुलनात्मक अध्ययन किया जावे तो कई मनोरंजक तथ्य प्राप्त हो सकेंगे। इसी कड़ी को ध्यान में रखते हुए प्रसिद्ध भाषाविद् वाकरनागल ने कहा है- “प्राकृतों का अस्तित्व निश्चित रूप से वैदिक बोलियों के साथ-साथ वर्तमान था, - इन्हीं प्राकृतों से परवर्ती साहित्यिक प्राकृतों का विकास हुआ है। १. एलटिंडिश्चे ग्रामेटिक-वाकरनागल (१८९६-१९०५) पृ १८ आदि Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनभाषा मातृभाषा प्राकृत भाषा अपने जन्म से ही जनसामान्य से जुडी हुई है । ध्वन्यात्मक और व्याकरणात्मक सरलीकरण की प्रवृत्ति के कारण प्राकृत भाषा लम्बे समय तक जन-सामान्य. के बोल-चाल की भाषा रही है। प्राकृत की आदिम अवस्था का साहित्य या उसका बोल-चाल वाला स्वरूप तो हमारे सामने नहीं है, किन्तु चह जन-जन तक पैठी हुई थी । “महावीर, बुद्ध तथा उनके चारों ओर दूर-दूर तक के विशाल जन समूह को मातृभाषा के रूप में प्राकृत उपलब्ध हुई । इसीलिए महावीर और बुद्ध ने जनता के सांस्कृतिक उत्थान के लिए प्राकृत भाषा का आश्रय लिया, जिसके परिणाम स्वरूप दार्शिनक, आध्यात्मिक, सामाजिक आदि विविधताओं से परिपूर्ण आगमिक एवं त्रिपिटक साहित्य के निर्माण की प्रेरणा मिली।' इन महापुरुषों ने इसी प्राकृत भाषा के माध्यम से तत्कालीन समाज के विभिन्न क्षेत्रों में क्रान्ति की ध्वजा लहरायी थी । इससे ज्ञात होता है कि तब प्राकृत मातृभाषा के रूप में दूर-दूर के विशाल जनसमुदाय को आकर्षित करती रही होगी। जिस प्रकार वैदिक भाषा को आर्य संस्कृति की भाषा होने का गौरव प्राप्त है, उसी प्रकार प्राकृत भाषा को आगम-भाषा एवं आर्य भाषा होने की प्रतिष्ठा प्राप्त है 1 प्राकृत जन-भाषा के रूप में इतनी प्रतिष्ठित थी कि उसे सम्राट् अशोक के समय में राज्यभाषा होने का गौरव प्राप्त हुआ है और उसकी यह प्रतिष्ठा सैंकड़ों वर्षों तक आगे बढ़ी है। अशोक ने भारत के विभिन्न भागों में जो राज्यादेश प्रचारित किये थे उसके लिए उसने दो सशक्त माध्यमों को चुना। एक तो उसने अपने समय की जनभाषा प्राकृत में इन अभिलेखों को तैयार कराया ताकि वे जन-जन तक पहुँच सकें और दूसरे उसने उन्हें पत्थरों पर खुदवाया ताकि वे सदियों तक अहिंसा, सदाचार, समन्वयं का संदेश दे सकें। इन दोनों माध्यमों ने अशोक को अमर बना दिया है। देश के अन्य नरेशों ने भी प्राकृत में लेख एवं मुद्राएँ अंकित करवायीं । ई. पू. ३०० से लेकर ४०० ईस्वी तक इन सात सौ वर्षों में लगभग दो हजार लेख प्राकृत में लिखे गये हैं । यह सामग्री प्राकृत भाषा के विकास क्रम एवं महत्त्व के लिए ही उपयोगी नहीं है, अपितु भारतीय संस्कृति के इतिहास के लिए भी महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है । अभिव्यक्ति का माध्यम प्राकृत भाषा क्रमशः विकास को प्राप्त हुई है। वैदिक युग में वह लोकभाषा थी । उसमें रूपों की बहुलता एवं सरलीकरण की प्रवृत्ति थी। महावीर युग तक आते-आते प्राकृत ने अपने को इतना समृद्ध और सहज किया कि वह अध्यात्म और सदाचार की भाषा बन सकी। इससे प्राकृत के प्रचार-प्रसार में गति आयी । वह लोक के साथ-साथ साहित्य के धरातल को भी स्पर्श करने लगी । इसीलिए उसे राज्याश्रय और स्थायित्वं प्राप्त हुआ । १. द्रष्टव्य — “प्राकृत शिक्षण की दिशाएँ” – डॉ. कमलचंद सोगाणी एवं डॉ. प्रेम सुमन जैन का लेख (प्राकृत एवं जैनागम विभाग, संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा १९८१ में आयोजित यू. जी. सी. सेमीनार में पठित) । [२] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में प्रतीत होता है कि प्राकृत भाषा गाँवों की झोंपड़ियों से राजमहलों की सभाओं तक समादृत होने लगी थी, अतः वह अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम चुन ली गयी थी। महाकवि हाल ने इसी समय प्राकृत भाषा के प्रतिनिधि कवियों की गाथाओं का गाथाकोश (गाथासप्तशती) तैयार किया, जो ग्रामीण जीवन और सौन्दर्य-चेतना का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। प्राकृत भाषा के इस जनाकर्षण के कारण कालिदास आदि महाकवियों ने अपने नाटक ग्रन्थों में प्राकृत भाषा बोलने वाले पात्रों को प्रमुख स्थान दिया। नाटक समाज का दर्पण होता है। जो पात्र जैसा जीवन जीता है, वैसा ही मंच पर प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता है। समाज में अधिकांश लोग दैनिक जीवन में प्राकृत भाषा का प्रयोग करते थे। अतः उनके प्रतिनिधि पात्रों ने भी नाटकों में प्राकृत के प्रयोग से अपनी पहिचान बनाये रखी। अभिज्ञानशाकुन्तलं की ऋषिकन्या शकुन्तला, नाटककार भास की राजकुमारी वासवदत्ता, शूद्रक की नगरवधू वसन्तसेना, तथा प्रायः सभी नाटकों के राजा के मित्र, कर्मचारी आदि पात्र प्राकृत भाषा का प्रयोग करते देखे जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि प्राकृत जन-समुदाय की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी। वह लोगों के सामान्य जीवन की अभिव्यक्ति करती थी। इस तरह प्राकृत ने अपना नाम सार्थक कर लिया था। प्राकृत स्वाभाविक वचन-व्यापार का पर्यायवाची शब्द बन गया था। समाज के सभी वर्गों द्वारा स्वीकृत भाषा प्राकृत थी। इस कारण प्राकृत की शब्द-सम्पत्ति दिनोंदिन बढ़ रही थी। इस शब्द- ग्रहण की प्रक्रिया के कारण एक ओर प्राकृत ने भारत की विभिन्न भाषाओं के साथ अपनी घनिष्ठता बढ़ायी तो दूसरी ओर वह जीवन और साहित्य की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बन गयी। • काव्यात्मक सौन्दर्य . . : - लोक भाषा जब जन-जन में लोकप्रिय हो जाती है तथा उसकी शब्द- सम्पदा बढ़ . जाती है तब वह काव्य की भाषा बनने लगती है। प्राकृत भाषा को .यह सौभाग्य दो तरह से प्राप्त है। प्राकृत में जो आगम ग्रंथ, व्याख्या-साहित्य, कथा एवं चरितग्रंथ आदि लिखे गये उनमें काव्यात्मक सौन्दर्य और मधुर रसात्मकता का समावेश है। काव्य की प्रायः सभी विधाओं–महाकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तककाव्य आदि, को प्राकृत भाषा ने समृद्ध किया है। इस साहित्य ने प्राकृत भाषा को लम्बे समय तक प्रतिष्ठित रखा है। अशोक के शिलालेखों के लेखन-काल से आज तक इन अपने २३०० वर्षों के जीवन काल में प्राकृत भाषा ने अपने काव्यात्मक सौन्दर्य को निरन्तर बनाये रखा है। - प्राकृत भाषा की इसी मधुरता और काव्यात्मकता का प्रभाव है कि भारतीय काव्यशास्त्रियों ने काव्य के अपने लक्षण-ग्रन्थों में प्राकृत की सैकड़ों गाथाओं के उद्धरण दिये हैं। अनेक सुभाषितों को उन्होंने इस बहाने सुरक्षित किया है। ध्वन्यालोक की टीका में अभिनवगुप्त ने प्राकृत की जो गाथाएँ दी हैं उनमें से एक उक्ति द्रष्टव्य है१. प्राकृत पुष्करिणी-डॉ. जगदीशचंद्र जैन [३] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्दमऊएहिं णिसा, णलिनी कमलेहिं कुसुमगुच्छेहिं लआ । हंसेहिं सरहसोहा, कव्वकहा सज्जणेहिं करइ गरुड़ । (२-५० टीका ) . - रात्रि चंद्रमा की किरणों से, नलिनी कमलों से, लता पुष्प के गुच्छों से, हंसों से (और) काव्यकथा सज्जनों से अत्यन्त शोभा को प्राप्त होती हैं । शरद् अलंकारों के प्रयोग में भी प्राकृत गाथाएँ बेजोड़ हैं। प्रायः सभी अलंकारों के उदाहरण प्राकृत काव्य में प्राप्त हैं । अलंकारशास्त्र के पंडितों ने अपने ग्रंथों में प्राकृत गाथाओं को उनके अर्थ-वैचित्र्य के कारण भी स्थान दिया है। एक-एक शब्द के कई अर्थ प्रस्तुत करने की क्षमता प्राकृत भाषा विद्यमान है । गाथासप्तशती में ऐसी कई गाथाएँ हैं जो शृंगार और सामान्य दोनों अर्थों को व्यक्त करती हैं । अर्थान्तरन्यास प्राकृत काव्य का प्रिय अलंकार है । सरस्वतीकण्ठाभरण का एक उदाहरण द्रष्टव्य है— ते विरला सप्पुरिसा, जे अभणन्ता घडेन्ति कज्जालावे । थोअ च्चिअ ते वि दुमा, जे अमुणिअ कुसुमणिग्गमा देन्ति फलं ॥ (स. कं. ४-१६२; सेतुबन्ध ३ - ६ ) जो बिना कुछ कहते हुए ही काम बना देते हैं वे सत्पुरुष विरले हैं। वे वृक्ष भी थोड़े ही (है), जो फूलों के निकलने को न जानते हुए फल देते हैं । “इस प्रकार काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते समय आनन्दवर्धन, भोजराज, मम्मट, विश्वनाथ, पंडितराज जगन्नाथ आदि अलंकारिकों द्वारा काव्य-लक्षणों के उदाहरणों के लिए प्राकृत पद्यों को उद्धृत करना प्राकृत के साहित्यिक सौन्दर्य का परिचायक है । " इस प्रकार वैदिक युग, महावीर युग एवं उसके बाद के विभिन्न कालों में प्राकृत भाषा का स्वरूप क्रमशः स्पष्ट हुआ है और उसका महत्त्वं विभिन्न क्षेत्रों में बढ़ा है । भारतीय भाषाओं के आदिकाल की जन- भाषा से विकसित होकर प्राकृत स्वतंत्र रूप से विकास को प्राप्त हुई । बोलचाल और साहित्य के पद, पर वह समान रूप से प्रतिष्ठित रही है। उसने देश की चिन्तनधारा, सदाचार और काव्य-जगत् को अनुप्राणित किया है, अत: प्राकृत भारतीय संस्कृति की संवाहक भाषा है । प्राकृत ने अपने को किसी घेरे में कैद नहीं किया। इसके पास जो था उसे वह जन-जन तक बिखेरती रही और जनसमुदाय में जो कुछ था उसे वह बिना हिचक ग्रहण करती रही। इस तरह प्राकृत भाषा सर्वग्राह्य और सार्वभौमिक भाषा है। प्राकृत के स्वरूप की ये कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जो प्राचीन समय से आज तक लोक-मानस को प्रभावित करती रहीं हैं । वैदिक भाषा और प्राकृत प्राकृत भाषा के स्वरूप को प्रमुख रूप से तीन अवस्थाओं में देखा जा सकता है। वैदिक युग से महावीर युग के पूर्व तक के समय में जन-भाषा के रूप में जो प्राकृत “प्राकृत शिक्षण की दिशाएँ” – वही । १. [ ४ ] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचलित थी उसे प्रथम स्तरीय प्राकृत कहा जा सकता है। महावीर युग में ईसा की द्वितीय शताब्दी तक आगम-ग्रंथों, शिलालेखों एवं नाटकों आदि में प्रयुक्त भाषा को द्वितीय स्तरीय प्राकृत नाम दिया जा सकता है और तीसरी शताब्दी के बाद ईसा की छठी-सातवीं शताब्दी तक प्रचलित एवं साहित्य में प्रयुक्त प्राकृत को तृतीय स्तरीय प्राकृत कह सकते हैं। इन तीनों स्तरों की प्राकृत के स्वरूप को संक्षेप में समझने के लिए पहले वैदिक भाषा और प्राकृत के सम्बन्ध को समझना होगा। प्राकृत की मूल भाषा वैदिक युग के समकालीन प्रचलित एक जन-भाषा थी। उसी से वैदिक एवं प्राकृत भाषा का विकास हुआ। अतः उस मूल लोकभाषा में जो विशेषताएँ थीं वे दाय के रूप में वैदिक भाषा और प्राकृत को समान रूप से मिली है। प्रथम स्तरीय प्राकृत के स्वरूप को जानने के लिए वैदिक भाषा में प्राकृत के जो तत्त्व होते हैं, उनका गहराई से अध्ययन किया जाना आवश्यक है। । यद्यपि प्रथम स्तरीय प्राकृत का साहित्य अनुपलब्ध है, तथापि महावीर युगीन द्वितीय स्तरीय प्राकृत की प्रवृत्तियों के प्रमाण वैदिक भाषा (छान्दस्) के साहित्य में प्राप्त होते हैं। डॉ. गुणे के अनुसार-“प्राकृतों का अस्तित्व निश्चित रूप से वैदिक बोलियों के साथ-साथ विद्यमान था। वस्तुतः ऋग्वेद की भाषा में भी कुछ सीमा तक हमें प्राकृतीकरण देखने को मिलता है। आधुनिक भाषाविदों की व्याख्या के अनुसार यह मूल प्राकृत भाषाओं के कारण है जो कि प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (छान्दस्) की बोलियों के साथ-साथ उस समय निश्चित रूप से प्रचलित थीं जबकि वैदिक सूक्त रचे जा रहे थे। यहाँ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि साहित्यिक छान्दस् की जन-भाषा में छान्दस् भाषा और प्राकृत के तत्त्व मिले-जुले रूप में उपस्थित थे। यही कारण है कि ऋग्वेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण आदि • छान्दस् साहित्य में प्राकृतीकरण के तत्त्व उपस्थित हैं। छान्दस् साहित्य में शब्दों के प्राकृतीकरण के साथ-साथ प्राकृत के व्याकरणात्मक तत्त्व भी महावीर युगीन प्राकृत के अनुसार प्राप्त होते हैं। इसीलिए डॉ. पिशेल ने भी कहा है-"सब प्राकृत भाषाओं का वैदिक व्याकरण और शब्दों का नाना स्थलों में साम्य है। विद्वानों ने इन निष्कर्षों के परिप्रेक्ष्य में हमने अपने उपर्युक्त लेख में वैदिक भाषा में प्राकृत के जिन तत्त्वों की जानकारी १. . द्रष्टव्य-"वैदिक भाषा में प्राकृत के तत्त्व"-डॉ. प्रेम सुमन जैन एवं डॉ. उदयचंद जैन का लेख (प्राकृत एवं जैनागम विभाग, संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा १९८१ में आयोजित यू. जी. सी. सेमिनार में पठित) तुलनात्मक भाषा-विज्ञान- डॉ. पी. डी. गुणे, पृ. १५३ ।। प्राकृत भाषाएँ और भारतीय संस्कृति में उनका अवदान-डॉ. कत्रे, पृ. ५९ 'प्राकृत शिक्षण की दिशाएँ"-डॉ. के. सी. सोगाणी एवं डॉ. प्रेम सुमन जैन का पूर्वोल्लिखित लेख। प्राकृत भाषाओं का व्याकरण-डॉ. पिशेल (अनु), पृ. ८ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरि वायु . रोम लोम अमत्त महि मही सुवर्ग पुव्वं बद दी है, उनमें से कुछ यहाँ द्रष्टव्य हैं। वैदिक भाषा के शब्दों के मूल संदर्भ उस लेख से ज्ञात किये जा सकते हैं। १. समान स्वर-व्यंजन - वैदिक भाषा और प्राकृत के स्वर तथा व्यंजनों के प्रयोग में कई साम्य देखे जाते हैं। यथा वैदिक भाषा अर्थ प्राकृत वैदिक भाषा अर्थ प्राकृत हरी हरी देवो देव दे वो । दूलह दुर्लभ दूलह ण नहीं . वायू वायू लोम • अमत्र अमात्य अक्ष (आँख) अच्छ महि सूर्य सुज्ज स्वर्ग सुवग्ग पुव्व पूर्व पितर पिता पिअर उच्चा ऊँचा उच्चा बुंद महा महान् ___महा. गेह गेह पक्क पका हुआ पक्क सेन्य सैन्य जज्ञ : यज्ञ जण्ण लवण लोण देवेहि देवों के द्वारा देवेहिः.. २. शब्दरूपों में समानता प्राकृत में कारकों की कमी तथा उनका आपस में प्रयोग प्रायः देखा जाता है। वैदिक भाषा में भी यह प्रवृत्ति उपलब्ध है। नाम रूपों में प्रयुक्त कई प्रत्यय दोनों भाषाओं में समान हैं। दोनों में कुछ शब्द विभक्ति रहित भी प्रयुक्त होते हैं। वैदिक भाषा में प्राकृत की तरह द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग भी पाया जाता है। कुछ समान : शब्द और सर्वनाम आदि इस प्रकार हैं :- ' (क) समान शब्द वैदिक भाषा . अर्थ - प्राकृत रायो • रायो छाग बकरा छाग जाया जाया पिप्पलं पीपल पिप्पलं लोण राजा पलि . पवित्र - पू (ख) समान सर्वनाम 'सो मो मैं हम अहं मो. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे लिए मुझ में तुम तुमको (ग) समान अव्यय यहाँ 可响西可强可旋阿阿 अथवा नहीं मारता है दह दह पाहि नमस्कार कया कब आणिं इस समय दाणि जहि जहाँ जहि (घ) समान क्रियारूप . हनति हनति, हणइ भेदति भेदन करता है भेदति मरते मरता है मरते गच्छहि जाओ गच्छहि जलाओ पाहि पिओ करना चर चलना - मुंच छोड़ना ... इसी तरह प्राकृत एवं वैदिक भाषा के संधि रूपों में भी कई समानताएँ देखने को मिलती है। कृदन्त दोनों में समान हैं। इस तरह ये कुछ नमूने के तौर पर वे विशेषताएँ हैं, जिनकी ओर विद्वानों की दृष्टि जानी चाहिए। इससे यह स्पष्ट है कि वैदिक भाषा और प्राकृत किसी एक मूल जनभाषा के धरातल पर ही आगे चलकर 'विकसित हुई हैं। किसी एक भाषा को भी पूरी तरह समझने के लिए दूसरी भाषा का ज्ञान करना आवश्यक है। अतः प्राकृत भाषा का अध्ययन और पठन-पाठन प्राचीन भारतीय आर्यभाषा वैदिक भाषा के लिए कितना उपयोगी है, यह स्वयं समझा कर कर चर मुंच जा सकता है। प्राकृत भाषा के व्याकरण सम्बन्धी नियम स्वतंत्र आधार को लिये हुए हैं तथा जन-भाषा में प्रयोगों की बहुलता को भी उसने सुरक्षित रखा है। प्राकृत ने अपने इन्हीं तत्त्वों के अनुरूप कुछ ऐसे नियम निश्चित कर लिये, जिनसे वह किसी भी भाषा के शब्दों को प्राकृत रूप देकर अपने में सम्मिलित कर सकती है। यही प्राकृत भाषा की सजीवता और सर्वग्राह्यता कही जा सकती है। इसी प्रवृत्ति का प्रयोग करते हुए प्राकृत कवियों ने अपने काव्य साहित्य को विभिन्न शब्द-भण्डारों से समृद्ध किया है कोई भी प्रवाहमान [७] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा प्राकृत की इस प्रवृत्ति से अछूती नहीं है। वैदिक युग से महावीर युग तक प्रचलित प्राकृत भाषा के स्वरूप को पुनर्जीवित करने के लिए एक ओर वैदिक भाषा में प्रयुक्त प्राकृत तत्त्वों की गहरायी से खोजबीन करनी होगी तो दूसरी ओर इस अवधि के अन्य उपलब्ध साहित्य का भाषा की दृष्टि से पुनर्मूल्यांकन करना होगा। विकास के चरण महावीर युग से ईसा की दूसरी शताब्दी तक प्रचलित साहित्यिक (द्वितीय स्तरीय) प्राकृत के भाषा प्रयोग एवं काल दृष्टि से तीन भेद किये जा सकते हैं (क) आदि युग, (ख) मध्य युग और, (ग) अपभ्रंश युग। . . . आदि-युग प्राकृत भाषा जन-भाषा थी। अतः उसमें कुछ समय के उपरान्त जन-बोलियों की विविधता के कारण नये-नये परिवर्तन आते रहे हैं, किन्तु फिर भी कुछ विशेषताएँ समान बनी रही हैं। इस दृष्टि से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि महावीर के समय से . सम्राट् कनिष्क के समय तक जिस प्राकृत भाषा का प्रयोग हुआ वह प्रायः एक -सी थी.। उसमें प्राचीन प्रयोगों की बहुलता थी। अतः ई. पू. छठी शताब्दी से ईसा की द्वितीय शताब्दी तक प्राकृत में लिखे गये साहित्य की भाषा को आदि-युग अथवा प्रथम युग की प्राकृत कहा जा सकता है। इस प्राकृत के प्रमुख पाँच रूप प्राप्त होते हैं-(१) आर्ष प्राकृत.. (२) शिलालेखी, प्राकृत (३) निया प्राकृत, (४) प्राकृत धम्मपद की भाषा और (५) अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत। आर्ष प्राकृत . द्वितीय स्तरीय प्राकृत का सब से प्राचीन लिखितरूप शिलालेखी प्राकृत में मिलता है। किन्तु शिलालेख लिखे जाने के पूर्व ही बुद्ध और महावीर ने अपने उपदेशों में जन-भाषा प्राकृत का प्रयोग प्रारम्भ कर दिया था, जिसका. आगम साहित्य के रूप में आकलन परम्परा द्वारा बाद में किया गया है। आगमों की इस प्राकृत को पालि और अर्ध-मागधी नाम से जाना गया है। अतः रचना की दृष्टि से पालि, अर्ध-मागधी आदि आगमिक प्राकृत को शिलालेखी प्राकृत से प्राचीन स्वीकार किया जा सकता है। इस प्राचीनता और दो महापुरुषों द्वारा प्रयोग किये जाने की दृष्टि से आगमों की भाषा को आर्ष प्राकृत कहना उचित है। (क) पालि-भगवान् बुद्ध के वचनों का संग्रह जिन ग्रन्थों में हुआ है, उन्हें त्रिपिटक कहते हैं। इन ग्रंथों की भाषा को पालि कहा गया है। पालि भाषा का गठन तत्कालीन विभिन्न बोलियों के मिश्रण से हुआ माना जाता है, जिसमें मागधी प्रमुख थी। पालि भाषा की जो विशेषताएँ हैं, उनमें अधिकांश प्राकृत तत्त्व हैं, अतः पालि को प्राकृत भाषा का ही एक प्राचीन रूप स्वीकार किया जाता है। पालि भाषा बुद्ध के उपदेशों और तत्सम्बन्धी साहित्य तक ही सीमित हो गयी थी। इस रुढ़िता के कारण पालि भाषा से आगे चलकर [८] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य भाषाओं का विकास नहीं हुआ, जबकि प्राकृत की सन्तति निरन्तर बढ़ती रही । किन्तु पालि का साहित्य पर्याप्त समृद्ध है । अतः प्राचीन भारतीय भाषाओं को समझने के लिए पालि भाषा का ज्ञान आवश्यक है | (ख) अर्धमागधी - आर्ष प्राकृत के अन्तर्गत पालि के अतिरिक्त अर्धमागधी और शौरसेनी प्राकृत भी आती है । यह मान्यता है कि महावीर ने अर्धमागधी भाषा में उपदेश दिये थे। उन उपदेशों को अर्धमागधी और शौरसेनी प्राकृत में संकलित किया गया। प्राचीन आचार्यों ने मगध प्रान्त के अर्धांश भाग में बोली जाने वाली भाषा को अर्धमागधी कहा है। कुछ विद्वान् इस भाषा को अर्धमागधी इसलिए कहते हैं कि इसमें आधे लक्षण मागधी प्राकृत के और आधे अन्य प्राकृत के पाये जाते हैं । वस्तुतः पश्चिम में शूरसेन (मथुरा) और पूर्व में मगध के बीच इस भाषा का व्यवहार होता रहा है। अतः इसे अर्धमागधी कहा गया होगा । इस भाषा का समय की दृष्टि से ई. पू. चौथी शताब्दी तय किया जाता है । (ग) शौरसेनी - शूरसेन (व्रजमण्डल, मथुरा के आसपास) प्रदेश में प्रयुक्त होने वाली जनभाषा को शौरसेनी प्राकृत के नाम से जाना गया है। अशोक के शिलालेखों में भी इसका प्रयोग है। अतः शौरसेनी प्राकृत भी महावीर युग में प्रचलित रही होगी, यद्यपि उस समय का कोई लिखित शौरसेनी ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है । किन्तु उसी परम्परा में प्राचीन आचार्यों ने षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों की रचना शौरसेनी प्राकृत में की है और आगे भी कई शताब्दियों तक इस भाषा में ग्रन्थ लिखे जाते रहे हैं। अशोक के अभिलेखों में शौरसेनी के प्राचीन रूप प्राप्त होते हैं। नाटकों में पात्र शौरसेनी भाषा का प्रयोग करते हैं, अतः प्रयोग की दृष्टि से अर्धमागधी से शौरसेनी प्राकृत व्यापक मानी गयी है। इसका - प्रचार मध्यदेश में अधिक था । २. शिलालेखी. प्राकृत • शिलालेखी प्राकृत के प्राचीनतम रूप अशोक के शिलालेखों में प्राप्त होते हैं । ये शिलालेख ई. पू. ३०० के लगभग देश के विभिन्न भागों में अशोक ने खुदवाये थे । इससे यह स्पष्ट है कि जन-समुदाय में प्राकृत भाषा बहु- प्रचलित थी और राजकाज में भी उसका प्रयोग होता था। अशोक के शिलालेख प्राकृत भाषा की दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण हैं ही, साथ ही वे तत्कालीन संस्कृति के जीते-जागते प्रमाण भी हैं। अशोक ने छोटे-छोटे वाक्यों में कई जीवन-मूल्य जनता तक पहुंचाये हैं। वह कहता है १. पालि साहित्य का इतिहास - डाँ. भरतसिंह उपाध्याय “भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्मं आइक्खई" - समवायांगसुत्त - सू. ९८ ." मगहद्ध विसयभासानिबद्धं अर्द्धमागही ” – निशीथचूर्णि प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचात्मक इतिहास - डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री, पृ. ३५ [ ९ ] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणानां साधु अनारम्भो, अपव्ययता अपभाण्डता साधु । (तृतीय शिलालेख) (प्राणियों के लिए की गयी अहिंसा अच्छी है, थोड़ा खर्च और थोड़ा संग्रह अच्छा सव पासंडा बहुसुता च असु, कल्याणागमा च असु । (द्वादश शिलालेख) (सभी धार्मिक सम्प्रदाय (एक दूसरे को ) सुनने वाले हों और कल्याण का कार्य करने वाले हों।) सम्राट अशोक के बाद लगभग ईसा की चौथी शताब्दी तक प्राकृत में शिलालेख लिखे जाते रहे हैं, जिनकी संख्या लगभग दो हजार है। खारवेल का हाथी गुफा शिलालेख उदयगिरि एवं खण्डगिरि के शिलालेख तथा आन्ध्र राजाओं के प्राकृत शिलालेख साहित्यिक और इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। प्राकृत भाषा के कई रूप इनमें उपलब्ध हैं। खारवेल के शिलालेख में उपलब्ध नमो अरहंतानं नमो सवसिधानं. पंक्ति में प्राकृत के नमस्कार मंत्र का प्राचीन रूप प्राप्त होता है। सरलीकरण की प्रवृत्ति का भी ज्ञान होता है। भारतवर्ष (भरधवस) शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख इसी शिलालेख की दशवीं पंक्ति में मिलता है। इस तरह प्राकृत के शिलालेख भारत के सांस्कृतिक इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रदान करते हैं। . . ३. निया प्राकृत प्राकृत भाषा का प्रयोग भारत के पड़ोसी प्रान्तों में भी बढ़ गया था। इस बात का पता निय प्रदेश (चीनी, तुर्किस्तान) से प्राप्त लेखों की भाषा से चलता है, जो प्राकृत भाषा से मिलती-जुलती है। निया प्राकृत का अध्ययन डॉ. सुकुमार सेन ने किया है, जिससे ज्ञात होता है कि इन लेखों की प्राकृत भाषा का सम्बन्ध दरदी वर्ग की तोखारी भाषा के साथ है। अतः प्राकृत भाषा में इतनी लोच और सरलता है कि वह देश-विदेश की किसी भी भाषा से अपना सम्बन्ध जोड़ सकती है। ४. धम्मपद की प्राकृत भाषा . पालि भाषा में लिखा हुआ धम्मपद प्रसिद्ध है। किन्तु प्राकृत भाषा में लिखा हुआ एक और धम्मपद भी प्राप्त हुआ है, जिसे बी. एम. बरुआ और एस. मित्रा ने सन् १९२१ में कलकत्ता से प्रकाशित किया है। यह खरोष्ठी लिपि में लिखा गया था। इसकी प्राकृत का सम्बन्ध पैशाची आदि प्राकृत से है। ५. अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत। __ आदि युग की प्राकृत भाषा का प्रतिनिधित्व लगभग प्रथम शताब्दी के नाटककार अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत भाषा भी करती है। अर्धमागधी, शौरसेनी और मागधी १. द्रष्टव्य-पालि प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं का व्याकरण-डॉ. सुकुमार सेन २. ए कम्पेरेटिव ग्रामर ऑफ मिडिल इन्डोआर्यन-डॉ. सेन ३. प्राकृत भारती के पुष्प-७० के रूप में सन् १९९० में प्रकाशित हो चुका है। [१०] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत की विशेषताएँ इन नाटकों में प्राप्त होती हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि इस युग में प्राकृत भाषा का प्रयोग क्रमशः बढ़ रहा था और आगम ग्रन्थों की भाषा कुछ-कुछ नया स्वरूप ग्रहण कर रही थी। मध्ययुग ईसा की दूसरी से छठी शताब्दी तक प्राकृत भाषा का प्रयोग निरन्तर बढ़ता रहा। अतः इसे प्राकृत भाषा और साहित्य का समृद्ध युग कहा जा सकता है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इस समय प्राकृत का प्रयोग होने लगा था। महाकवि भास ने अपने नाटकों में प्राकृत को प्रमुख स्थान दिया। कालिदास ने पात्रों के अनुसार प्राकृत भाषाओं के प्रयोग को महत्त्व दिया। इसी युग के नाटककार शूद्रक ने विभिन्न प्राकृतों का परिचय कराने के उद्देश्य से मृच्छकटिक प्रकरण की रचना की। यह लोकजीवन का प्रतिनिधि नाटक है, अतः उसमें प्राकृत के प्रयोगों में भी विविधता है। इसी युग में प्राकृत में कथा, चरित, पुराण एवं महाकाव्य आदि विधाओं में ग्रन्थ लिखे गये। उनमें जिस प्राकृत का प्रयोग हुआ उसे सामान्य प्राकृत कहा जा सकता है, क्योंकि तब तक प्राकृत ने एक निश्चित स्वरूप प्राप्त कर लिया था, जो काव्य-लेखन के लिए आवश्यक था। प्राकृत के इस साहित्यिक स्वरूप को महाराष्ट्री प्राकृत कहा गया है। इसी युग में गुणाढ्य ने बृहत्कथा नामक कथा-ग्रन्थ प्राकृत में लिखा, जिसकी भाषा पैशाची कही गयी है। इस तरह इस युग के साहित्य में प्रमुख रूप से जिन तीनं प्राकृत भाषाओं का प्रयोग हुआ है वे हैं-१. महाराष्ट्री. २. मागधी .: और ३. पैशाची। इन तीनों माकृतों का स्वरूप प्राकृत के वैयाकरणों ने अपने व्याकरण-ग्रन्थों में स्पष्ट किया है। (क) महाराष्ट्री प्राकृत • जिस प्रकार स्थान भेद के कारण शौरसेनी आदि प्राकृतों को नाम दिये जाते हैं उंसी तरह महाराष्ट्र प्रान्त की जनबोली से विकसित प्राकृत का नाम महाराष्ट्री प्रचलित हुआ है। इसने मराठी भाषा के विकास में भी योगदान किया है। महाराष्ट्री प्राकृत के वर्ण अधिक कोमल और मधुर प्रतीत होते हैं, अत: इस प्राकृत का काव्य में सर्वाधिक प्रयोग हुआ है। ईसा की प्रथम शताब्दी से वर्तमान युग तक इस प्राकृत में ग्रन्थ लिखे जाते रहे हैं। प्राकृत वैयाकरणों ने भी महाराष्ट्री प्राकृत के लक्षण लिखकर अन्य प्राकृतों की केवल विशेषताएँ गिना दी हैं। - (ख) मागधी मगध प्रदेश की जनबोली को सामान्य तौर पर मागधी प्राकृत कहा गया है। .. - मागधी कुछ समय तक राजभाषा थी, अतः इसका सम्पर्क भारत की कई बोलियों के साथ हुआ। इसीलिए पालि अर्धमागधी आदि प्राकृतों के विकास में मागधी प्राकृत को मूल माना जाता है। इसमें कई लोक-भाषाओं का समावेश था। मागधी का प्रयोग अशोक के [११] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलालेखों में हुआ है और नाटककारों ने अपने नाटकों में इसका प्रयोग किया है, किन्तु इसका कोई स्वतंत्र ग्रन्थ प्राप्त नहीं हुआ है। (ग) पैशाची प्राकृत देश के उत्तर-पश्चिम प्रान्तों के कुछ भाग को पैशाच देश कहा जाता था। वहाँ पर विकसित इस जनभाषा को पैशाची प्राकृत कहा गया है। यद्यपि इसका कोई एक स्थान नहीं है। विभिन्न स्थानों के लोग इस भाषा को बोलते थे। प्राकृत भाषा से समानता होने के कारण पैशाची को भी प्राकृत का एक भेद मान लिया गया है। इस भाषा में बृहत्कथा नामक पुस्तक लिखे जाने का उल्लेख है, किन्तु वह मूल रूप में प्राप्त नहीं है। उसके रूपान्तर प्राप्त हैं, जिनसे मूल गन्थ का महत्त्व सिद्ध होता है। इस प्रकार मध्ययुग में प्राकृत भाषा का जितना अधिक विकास हुआ, उतनी ही उसमें विविधता आयी, किन्तु साहित्य में प्रयोग बढ़ जाने के कारण विभिन्न प्राकृतें महाराष्ट्री प्राकृत के रूप में “एकरूपता को ग्रहण करने लगीं।" प्राकृत के वैयाकरणों ने साहित्य के प्रयोगों के आधार पर महाराष्ट्री प्राकृत के व्याकरण के कुछ नियम निश्चित कर दिये। उन्हीं के अनुसार कवियों ने अपने ग्रन्थों में महाराष्ट्री प्राकृत का प्रयोग किया। इससे प्राकृत भाषा में स्थिरता तो आयी, किन्तु उसका जन-जीवन से सम्बन्ध दिनोंदिन घटता चला गया। वह साहित्य की भाषा बनकर रह गयी। अतः जनबोली का स्वरूप उससे कुछ भिन्नता लिए हुए प्रचलित होने लगा, जिसे भाषाविदों ने अपभ्रंश भाषा नाम दिया है। एक तरह से प्राकृत ने लगभग ६-७ वीं शताब्दी में अपना जनभाषा अथवा मातृभाषा का स्वरूप अपभ्रंश को सौंप दिया। यहाँ से प्राकृत भाषा के विकास की तीसरी अवस्था प्रारम्भ हुई। ६. प्राकृत एवं अपभ्रंश प्राकृत एवं अपभ्रंश इन दोनों भाषाओं का क्षेत्र प्रायः एक जैसा था तथा इनमें साहित्य लेखने की धारा भी समान थी। विकास की दृष्टि से भी दोनों भाषाएँ जनबोलियों से विकसित हुई हैं। व्याकरण की भी बहुत कुछ इनमें समानता है, किन्तु इस सब से प्राकृत और अपभ्रंश को एक नहीं माना जा सकता। दोनों की स्वतंत्र भाषाएँ हैं। दोनों की अपनी अलग पहिचान है। प्राकृत में सरलता की दृष्टि से जो बाधा रह गयी थी, उसे अपभ्रंश भाषा ने दूर करने का प्रयत्न किया। कारकों, विभक्तियों, प्रत्ययों के प्रयोग में अपभ्रंश निरन्तर प्राकृत से सरल होती गयी है।' अपभ्रंश, प्राकृत और हिन्दी भाषा को परस्पर जोड़ने वाली कड़ी है। वह आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं (राजस्थानी, गुजराती, मराठी आदि) की पूर्ववर्ती अवस्था है। अपभ्रंश भाषा में छठी शताब्दी से १२वीं शताब्दी तक पर्याप्त साहित्य लिखा गया है। १. २. अपभ्रंश भाषा का अध्ययन-डॉ. वीरेन्द्र श्रीवास्तव अपभ्रंश भाषा और साहित्य-डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन [१२] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____महाकवि स्वयंभू अपभ्रंश का आदिकवि कहा जा सकता है। इसके बाद महाकवि रइधू तक कई महाकवियों ने इस भाषा को समृद्ध किया है। अपभ्रंश भाषा प्राकृत भाषा के विकास की तीसरी अवस्था मानी जाती है। ईसा की छठी शताब्दी से लगभग बारहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश का उत्कर्ष युग रहा। इस बीच प्राकृत भाषाओं में भी काव्य लिखे जाते रहे, किन्तु जनबोली के रूप में अपभ्रंश प्रयुक्त होती रही। इस तरह एक ही समय में समानान्तर रूप से प्रचलित इन दोनों भाषाओं में कई समानताएँ एकत्र होती रहीं। भाषा के सरलीकरण की प्रवृत्ति को अपभ्रंश ने प्राकृत से ग्रहण किया और कई शब्द तथा व्याकरणात्मक विशेषताएँ भी उसने ग्रहण की। इन सब प्रवृत्तियों को अपभ्रंश ने अपनी अंतिम अवस्था में क्षेत्रीय भाषाओं को सौंप दिया। इस तरह अपभ्रंश भाषा का महत्त्व प्राकृत और. आधुनिक भारतीय भाषाओं के आपसी सम्बन्ध को जानने के लिए आवयश्क अर्थ घडइ प्राकृत और आधुनिक भाषाएँ भारतीय आधुनिक भाषाओं का जन्म उन विभिन्न लोकभाषाओं से हुआ है, जो प्राकृत व अपभ्रंश से प्रभावित थीं, अतः स्वाभाविक रूप से ये भाषाएँ प्राकृत व अपभ्रंश से कई बातों में समानता रखती हैं। व्याकरणात्मक संरचना और काव्यात्मक विधाओं का अधिकांश भाग प्राकृत की प्रवृत्तियों पर आधारित है। इसके अतिरिक्त शब्द समूह की समानता भी ध्यान देने योग्य है। कुछ प्रमुख भाषाओं के उदाहरण यहाँ द्रष्टव्य हैंराजस्थानी · . प्राकृत राजस्थानी बनाता है जाचइ जाचै मांगता है खण्डइ तोड़ता है धारइ धारता है बीहइ किया होसइ जोहर जोहर बलिदान कउण कुण कौन सीक - सीक विदाई 1001 खांडे डरता है कीदो होगा १. पउमचरिउ की भूमिका- डॉ. एच. सी. भायाणी अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध-प्रवृत्तियाँ-डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री द्रष्टव्य-प्रासीडिंग्स् आफ द सेमिनार इन प्राकृत स्टडीज-सं. आर. एन. डाण्डेकर द्रष्टव्य-लेखक की “प्राकृत अपभ्रंश तथा अन्य भारतीय भाषाएँ” नामक पुस्तक ३. ४. [१३] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लीट गुजराती प्राकृत गुजराती अर्थ ओइल्ल ओलवु ओढ़नी कटु कठु बदनाम गाहिल्ल गहिल मन्दबुद्धि कुक्कडी कूकड़ी मुर्गी मडय मडु मृत लीटी रेखा मैथिली प्राकृत मैथिली " अर्थ कच्चहरिअ कचहरी अदालत . कद्दम कादों कीचड़ लोहार लोहर लुहार सिक्खल सिक्करी सांकल टिलक टिकुली तिलक .. गोआल गोआर ग्वाला .. उड़िया . प्राकृत उड़िया अर्थ मुह मुह : मुंह सही . सही नाह . . नाथ अग्गि सवत्ति सावत सौत . - बुन्देली प्राकृत चंगेड़ा चंगेरी डलिया चुल्लि चूला चूल्हा छेलि . छिरिया बकरी डगलआ इंगला ढेला ढोर . ढोर । पशु तित्त तीतो नाहर नाहर शेर बाग्गुर बगुर समूह सुहाली सुंहारी प्राकृत और मराठी का सम्बन्ध बहुत पुराना है। महाराष्ट्री प्राकृत ने मराठी भाषा के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है, अतः दोनों भाषाओं का अध्ययन एक दूसरे के लिए पूरक है। दक्षिण भारत की अन्य भाषाओं में भी प्राकृत के कई शब्द प्राप्त होते हैं। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं LErk Exaks #l FEFFFFFFFFFFFFF#. सखी नाह अगि आग बुन्देली गीला पुड़ी [१४] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी कन्नड़ प्राकृत उक्खल कहारो bite teele H कुहाड चाउला चोक्ख झाडं डाली पोट्टली. सलोणा प्राकृत गार चिक्खल्ल जल्ल तुंड तक्क तूलि दद्दर वाउल्ल सुह प्राकृत अलग्ग कुरर कोट्ट देसिय पल्लि पुल्लि हिन्दी ओखली कहार कुहाड़ा चांवल चोखा झाड़ डाली पोटली सलोना मराठी गार चिखल [१५] जाल ढेंकू तोंड ताक तूली दादर बाहुली सून कन्नड़ ओलग आधुनिक भाषाओं के विकास क्रम की अंतिम अवस्था हिन्दी भाषा है | हिन्दी का प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं से गहरा सम्बन्ध है, क्योंकि हिन्दी जनभाषा और साहित्य दोनों की भाषा है। अतः उसने प्राचीन जनभाषा प्राकृत आदि से कई प्रवृत्तियाँ ग्रहण की हैं। प्राकृत के अध्ययन से हिन्दी के कई शब्दों का सही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। • कुछ शब्द द्रष्टव्य हैं : कुरी कोटे देशिक पल्ली पुलि प्राकृत उल्लुट्टं कोइला खड्डा चारों अर्थ पत्थर कीचड़ शरीर का मेल खटमल छइल्लो डोरो भल्ल पत्तल बड्डा मुँह मठा सूती चादर सीढ़ी गुड़िया बहू अर्थ सेवा करना भेड़ किला पथिक गाँव बाघ हिन्दी उलटा कोयला खड्डा चारा छैला डोरा भला पतला बड़ा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत सी हिन्दी की क्रियाएँ भी प्राकृत की हैं, जिनमें शब्द एवं अर्थ की समानता है। यथा प्राकृत उड्ड कुद्द चुक्क छुट्ट देख डंस १. हिन्दी उड़ना कूदना चूकना छूटना देखना डंसना प्राकृत कड्ढ कुट्ट चमक्क भुल्ल बुज्झ हिन्दी काढ़ना भूलना बूझना लुक्क लुकना इस प्रकार प्राकृत भाषा का विकास किसी क्षेत्र या काल विशेष में आकर रुक नहीं गया है, अपितु प्राकृत ने प्रत्येक समय की बहुप्रचलित जनभाषा के अनुरूप अपने स्वरूप को ढाल लिया है। अर्थात् उस जनभाषा की संरचना, शब्द- सम्पत्ति एवं साहित्य के विकास में प्राकृत ने अपनी प्रवृत्तियाँ समर्पित कर दी हैं । यहीं कारण है कि प्राकृत देश की इन सभी भाषाओं से अपना सम्बन्ध कायम रख सकी है। अतः प्राकृत के अध्ययन एवं शिक्षण से देश की विभिन्न भाषाओं के प्रचार- प्रसार को बल मिलता है। देश की अखण्डता और चिन्तन की समन्वयात्मक प्रवृत्ति प्राकृत भाषा के माध्यम से दृढ़ की जा सकती है, किन्तु इसके लिए प्राकृत भाषा के शिक्षण की सही दिशाएँ खोजनी होंगी । • कूटना चमकना प्राकृत-शिक्षण' प्रश्न यह है कि प्राकृत भाषा का शिक्षण कैसे हो ? उत्तर में यह कहा जा सकता है कि इसका शिक्षण उसी तरह होना चाहिए जिस तरह हम किसी अपरिचित वस्तु का शिक्षण कराते हैं । यह बात सरलतया समझी जा सकती है कि हम अपरिचित का शिक्षण अपरिचित से नहीं कर सकते। यदि हम परिचित का सम्बन्ध अपरिचित से जोड़ दें तो अपरिचित धीरे-धीरे परिचित की कोटि में आ जायगा । भाषा शिक्षण के संदर्भ में भी हम यह कह सकते हैं कि यदि परिचित भाषा से अपरिचित भाषा का सम्बन्ध क्रमानुसार जोड़ दिया जाय तो अपरिचित भाषा परिचित भाषा बन जायेगी और तब यह कहा जा सकेगा कि एक नयी भाषा सीख ली गयी। मान लीजिए, हमें तमिल भाषा का शिक्षण उत्तरी भारत के कालेजों में करना है । हमें इसके लिए क्या पद्धति अपनानी होगी ? वास्तव में इसके शिक्षण के लिए हमें भली प्रकार से परिचित किसी भाषा अथवा मातृभाषा का माध्यम ही अपनाना होगा । माध्यम के चुनाव में गलती करने पर तमिल भाषा का सीखना [ १६ ] द्रष्टव्य- “प्राकृत शिक्षण की दिशाएँ" - डॉ. कमलचंद सोगाणी एवं डाँ. प्रेम सुमन जैन का लेख (प्राकृत एवं जैनागम विभाग, संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा १९८१ में आयोजित यू. जी. सी. सेमीनार में पठित) । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोझिल हो जायगा और वह भाषा भली प्रकार नहीं सीखी जा सकेगी। एक दृष्टि से मातृ-भाषा के माध्यम से ही नयी भाषा को सिखाया जाना चाहिए। इसी बात को हम प्राकृत शिक्षण के संदर्भ में कह सकते हैं। प्राकृत का शिक्षण मातृ-भाषा के माध्यम से किया जाना चाहिए। इससे हम सहजरूप से परिचित मातृ-भाषा से अपरिचित प्राकृत भाषा को सीख सकेंगे। जहाँ हमारी मातृभाषा हिन्दी है वहाँ प्राकृत भाषा का शिक्षण हिन्दी के माध्यम से होना चाहिए। हम सभी जानते हैं कि भाषा का व्याकरण से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। व्याकरण भाषा को एक स्वरूप प्रदान करती है। यह बात प्राकृत के लिए भी उतनी ही सच है जितनी किसी अन्य भाषा के लिए। वर्तमान में बोलचाल की भाषा का प्रयोग तो व्याकरण के शिक्षण के बिना भी संभव है, किन्तु प्राचीन जनभाषा प्राकृत का सही स्वरूप तो उसके सही ढंग से किये गये शिक्षण से ही प्रकट हो सकेगा। तभी प्राकत एक स्वतंत्र और समृद्ध भाषा के रूप में सीखी जा सकेगी। इसके लिए निम्नांकित शिक्षण-सोपानों को अपनाना जरूरी है १. प्राकृत भाषा के शिक्षण के लिए प्राकृत व्याकरण का शिक्षण विशेष महत्त्व रखता है। अभी तक प्रचलित शिक्षण पद्धति में प्रायः प्राकृत व्याकरण के सूत्रों को रटाने, शब्दरूपों एवं क्रियारूपों को स्मरण कराने पर अधिक जोर दिया जाता रहा है। इससे भाषा की पकड़ नहीं आती। अतः यदि छात्रों को पहले व्याकरण के मूलभूत सिद्धान्त, प्रत्यय, विभक्ति-प्रयोग आदि का अभ्यास कराया जाय और उसके बाद उनके सीखे गये ज्ञान को सूत्रों से जोड़ दिया जाय तो वे प्राकृत्त के स्वरूप को हृदयंगम कर लेंगे। अतः प्राकृत व्याकरण-शिक्षण में विस्तार से संक्षेप की ओर जाने की प्रवृत्ति शिक्षार्थियों को सूत्रज्ञान का अधिक लाभ दे सकेगी। ..: २. विभक्ति ज्ञान, शब्दरूप, क्रियारूप आदि रटने से स्थायी नहीं होते, अपितु • इससे विभिन्न रूपों में भ्रान्ति पैदा हो जाती है। इसके स्थान पर यदि पहले उपयोगी वाक्यों के प्रयोग द्वारा शिक्षार्थी को प्रत्येक रूप का बार-बार अभ्यास कराया जाय तथा एक ही विभक्ति के विभिन्न रूपों को एक साथ रखकर उनकी तुलना करायी जाय तो वह शीघ्र ही मूल शब्द और विभक्ति-प्रत्यय को पहिचानने लगेगा। इसके बाद उसे व्याकरण के उन नियमों का ज्ञान कराया जाय जो शब्द और प्रत्यय को जोड़ने में सहायक हैं। प्रसतुत प्राकृत स्वयं-शिक्षक (खण्ड-१) में इसी पद्धति को अपनाया गया है। प्रयोग के अभ्यास से व्याकरण के नियमों तक शिक्षार्थी को ले जाने का यह विनम्र प्रयास है। ३. प्राकृत शिक्षण के लिए पाठ्यक्रम में निर्धारित प्राकृत साहित्य का भी उपयोग किया जा सकता है। साहित्य के पाठों का केवल भावार्थ या आशय समझाकर ही शिक्षण न किया जाय, अपितु पाठ के शब्दार्थ और शब्द-स्वरूप पर विशेष ध्यान [१७] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिया जाय। इससे छात्र व्याकरण का अभ्यास साहित्य-पठन में ही करता चलेगा। इस प्रक्रिया में समय अधिक लग सकता है। अत: पाठ्यक्रम में पाठों की संख्या कम रखी जा सकती है, किन्तु जितने भी पाठ पढ़ाये जाँय, वे भाषाज्ञान को बढ़ाने वाले हों, इस पर जोर दिया जाय। भाषा सीख लेने पर छात्र साहित्य को स्वयं पढ़ने का प्रयत्न कर सकता है। ४. साहित्य-शिक्षण में भाषा-विश्लेषण के लिए भी चार्टों का प्रयोग किया जा सकता है। चार्ट का स्वरूप निम्न प्रकार का हो सकता है। इस चार्ट द्वारा विद्यार्थी स्वयं शब्दकोष के माध्यम से प्राकृत गाथाओं या गद्यांशों का विश्लेषण कर ले या उसे शिक्षक द्रारा करा दिया जाय तो छात्र का व्याकरण ज्ञान पुष्ट हो जायेगा। .. भाषा-विश्लेषण के इस चार्ट का प्रयोग जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, में शोध-कार्यों एवं प्राकृत-अध्ययन के लिए किया जा रहा है। उसके अच्छे परिणाम प्राप्त हुए हैं। इन चार्टों को भरने वाला शिक्षार्थी तो लाभान्वित होता ही है, साथ ही वह चार्ट आगे के अध्येताओं के लिए भी भाषा-शिक्षण के रिकार्ड के रूप में काम आता है। इससे प्राकृत भाषा के विभिन्न प्रयोगों से सम्बन्धित निष्कर्ष निकालने में भी मदद मिलती है। पठनीय गाथा है अमयं पाइयकव्वं पढ़िउं सोउं अ जे ण आणंति । कामस्स तत्ततन्ति कुणंति ते कहं ण लज्जत्ति ॥ इसका विश्लेषण चार्ट में इस प्रकार किया जायेगा :-- १. “प्राकृत शिक्षण की दिशाएँ”–पूर्वोक्त लेख में दिया हुआ चार्ट [१८] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ | संज्ञा | मूल | अर्थ | विशे. मूल | अर्थ | कृदन्त | मूल | अर्थ | क्रिया | मूल | अर्थ | सर्वनाम | मूल अर्थ अव्यय अर्थ संधि एवं समास [१९] समास) तत्त गाथा पाइअ- पागय प्राकृत | अमय | अमय अमृत पढिउं | पढ पढ़ना |आणं- आण जानना जे स तंती = कव्वं कव्व काव्य (द्वि. (सक) . ति (सक) (प्रबव) । तत्ततंती सप्तशती (द्वि. (नप) त त(पु) वे कह क्यों (षष्ठी तत्पुरुष ए.व) सोउं सुअ सुनना ब. व) (प्रबव) ।२ कामस्स काम सुन्दर ण नहीं पाइअस्स कव्वं (अनि पाइय-कव्वं यमित) (ष. त. पु. कुणंति कुण करना समास) (अपु) (सक) ए. व) तंती चिन्ता लज्ज- लज्ज लज्जा तन्ति (स्त्री) (चर्चा) ति (अक) करना (अपु) विशेष-'पाइअ' यद्यपि विशेषण है, किन्तु भाषा, व्याकरण एवं काव्य के साथ प्रयुक्त होने पर पाइअ को संज्ञा माना गया है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. उपर्युक्त प्रक्रिया से जब विद्यार्थी प्राकृत व्याकरण के प्रायः सभी नियमों एवं प्रयोगों से परिचित हो जाय तब उसके इस विस्तृत ज्ञान का व्याकरण के सूत्रों के माध्यम से संक्षेपीकरण करना है। इससे वह व्याकरण की सम्पूर्ण प्रक्रिया को सूत्र-संकेतों के माध्यम से प्रयोग करने में सक्षम होगा। इस पद्धति से छात्र को सूत्र-ज्ञान की उपयोगिता ज्ञात होगी। फलस्वरूप सूत्र उसे स्वयं ही कण्ठस्थ हो जावेंगे; क्योंकि सूत्रों में समाये हुए सभी कार्यों का वह बहुत प्रयोग कर चुका है। ऐसे विद्यार्थी के लिए शिक्षक को सूत्रों का ज्ञान नई पद्धति, चार्ट आदि के द्वारा कराना होगा। यथा-उसे बताना होगा कि सूत्र का निर्माण कैसे हुआ है? उसमें संधि, समास आदि क्या है ? सूत्र में व्याकरण के किन प्रत्ययों और विभक्तियों का संकेत है? तथा वह सूत्र आगे-पीछे व्याकरण-ज्ञान में कहाँ-कहाँ. काम आता है? इत्यादि। प्राकृत शिक्षण के इन सोपानों को यदि प्रारम्भिक कक्षाओं में सावधानी और परिश्रम पूर्वक अपनाया गया तो प्राकृत भाषा के विकास के लिए इससे दूरगामी एवं सार्थक परिणाम सामने आयेंगे। तब प्राकृत भाषा कई घेरों को छोड़कर उस जन-समुदाय के पास पहुंच सकेगी, जहाँ वह शताब्दियों तक व्याप्त और समादृत रही है। प्राकृत भाषा: के पठन-पाठन से प्राकृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं का ज्ञान रखने वाले एक ऐसे उत्साही समाज का सृजन होगा जो भारतीय संस्कृति की समन्वयात्मक छवि को उजागर करेगा एवं :. ग्रन्थ भण्डारों में छिपी देश की अमूल्य सम्पदा को विश्व के सामने प्रकट कर सकेगा। प्राकृत के एक कवि का यह कथन प्राकृत भाषा के महत्त्व को प्रकट कर देता है। पर-उवयार-परेणं सा भासा होई एत्य भणियव्वा। . जायइ जाए विबोहो सव्वाण वि बालमाइणं ॥ (परोपकार में तत्पर लोगों के द्वारा इस (संसार) में वह भाषा पढ़ने योग्य होती है, जिसके द्वारा सभी (विद्वानों) के लिए एवं अल्पबुद्धि वालों के लिए भी ज्ञान प्राप्त होता है। १. “प्राकृत शिक्षण की दिशाएँ”–प्राकृत शिक्षण की अन्य दिशाओं के लिए इस लेख को विस्तार से देखें। [२०] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत के प्रमुख वैयाकरण : उपलब्ध प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ सभी संस्कृत में लिखे गये हैं। प्राकृत वैयाकरणों एवं उनके ग्रन्थों का परिचय डॉ. पिशल ने अपने ग्रंथ में दिया है। डौल्ची नित्ति ने अपनी जर्मन पुस्तक "ले ग्रामेरिया प्राकृत" (प्राकृत के वैयाकरण) में आलोचनात्क शैली में प्राकृत के वैयाकरणों पर विचार किया है। इधर प्राकृत व्याकरण के बहुत से ग्रंथ छपकर प्रकाश में भी आये हैं। उनके सम्पादकों ने भी प्राकृत वैयाकरणों पर कुछ प्रकाश डाला है। इस सब सामग्री के आधार पर प्राकृत वैयाकरणों एवं उनके उपलब्ध प्राकृत व्याकरणों का परिचयात्मक मूल्यांकन हमने अन्यत्र किया है। उसकी संक्षिप्त जानकारी यहाँ प्रस्तुत हैं। (१) आचार्य भरत : प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में जिन संस्कृत आचार्यों ने अपने मत प्रकट किये हैं, इनमें भरत सर्व प्रथम हैं। प्राकृत वैयाकरण मार्कण्डेय ने अपने प्राकृत-सर्वस्व के प्रारम्भ में अन्य प्रचीन प्राकृत वैयाकरणों के साथ भरत को स्मरण किया है। भरत का कोई अलग प्राकृत व्याकरण नहीं मिलता है। भरतनाट्यशास्त्र के १७वें अध्याय में ६ से २३ श्लोकों में प्राकृत व्याकरण पर कुछ कहा गया है। इसके अतिरिक्त ३२वें अध्याय में प्राकृत के बहुत से उदाहरण उपलब्ध हैं; किन्तु स्रोतों का पता नहीं चलता है। डॉ. पी. एल. वैद्य ने त्रिविक्रम के प्राकृतशब्दानुशासन व्याकरण के १७वें परिशिष्ट में भरत के श्लोकों को संशोधित रूप में प्रकाशित किया है, जिनमें प्राकृत के कुछ नियम वर्णित हैं। डॉ वैद्य ने उन नियमों को भी स्पष्ट किया है। भरत ने कहा है कि प्राकृत में . . कौन से स्वर एवं कितने व्यंजन नहीं पाये जाते । कुछ व्यंजनों का लोप होकर उनके केवल स्वर बचते हैं। यथा.. . वच्चंति कगतदयवा लोपं, अत्थं च से वहति सरा। - खघथधमा उण हत्तं उति उत्थं अमुचंता ॥८॥ ... प्राकृत की सामान्य प्रवृत्ति का भरत ने अंकित किया है कि शकार का सकार एवं नकार सर्वत्र णकार होता है। यथा-विष विस, शंका संका आदि। इसी तरह ट ड, ठ ढ, १. द्रष्टव्यः ई. बी. कावेल का मूल लेख तथा उसका अनुवाद-“प्राकृत व्याकरण” संक्षिप्त परिचय, भारतीय साहित्य, १० अंक ३-४, जुलाई-अक्टूबर १९६५ जैन संस्कृत -प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा, छापर, १९७७ ... .. २.. [२१] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पव, ड ल, च य, थ ध, पफ, आदि परिवर्तनों के सम्बन्ध में संकेत करते हुए भरत ने उनके उदाहरण भी दिये हैं तथा श्लोक १८ से २४ तक में उन्होंने संयुक्त वर्णों के परिवर्तनों को सोदाहरण सूचित किया है और अन्त में कह दिया है कि प्राकृत के ये कुछ सामान्य लक्षण मैंने कहे हैं। बाकी देशी भाषा में प्रसिद्ध ही हैं, जिन्हें विद्वानों को प्रयोग द्वारा जानना चाहिए— एवमेतन्मया प्रोक्तं किंचित्प्राकृतलक्षणम् । शेषं देशीप्रसिद्धं च ज्ञेयं विप्राः प्रयोगतः ॥ प्राकृत व्याकरण सम्बन्धी भरत का यह शब्दानुशासन यद्यपि संक्षिप्त है, किन्तु महत्त्वपूर्ण इस दृष्टि से है कि भरत के समय में भी प्राकृत व्याकरण की आवश्यकता अनुभव की गयी थी। हो सकता है, उस समय प्राकृत का कोई प्रसिद्ध व्याकरण रहा हो अतः भरत ने केवल सामान्य नियमों का ही संकेत करना आवश्यक समझा है। भरत के ये व्याकरण के नियम प्रमुख रूप से शौरसेनी प्राकृत के लक्षणों का विधान करते हैं। (२) चण्ड - प्राकृतलक्षण : प्राकृत के उपलब्ध व्याकरणों में चंडकृत प्राकृतलक्षण सर्व प्राचीन सिद्ध होता है । भूमिका आदि के साथ डॉ. रुडोल्फ होएर्नले ने सन् १८८० में बिब्लिओथिका इंडिया में कलकत्ता से इसे प्रकाशित किया था।' सन् १९२९ में सत्यविजय जैन ग्रंथमाला की ओर.. से यह अहमदाबाद से भी प्रकाशित हुआ है । इसके पहले १९२३ में भी देवकीकान्त ने इसको कलकत्ता से प्रकाशित किया था । ग्रंथ के प्रारम्भ में वीर (महावीर ) को नमस्कार किया गया है तथा वृत्ति के उदाहरणों में अर्हन्त (सू. ४६ व २४ ) एवं जिनवर (सूत्र ४८ ) का उल्लेख है। इससे वह जैनकृति सिद्ध होती है । ग्रंथकार ने वृद्धमत के आधार पर इस ग्रंथ के निर्माण की सूचना दी है, जिसका अर्थ यह प्रतीत होता है कि चण्ड के सम्मुख कोई प्राकृत व्याकरण अथवा व्याकरणात्मक मतमतान्तर थे । यद्यपि इस ग्रंथ में रचना काल सम्बन्धी कोई संकेत नहीं है, तथापि अन्तःसाक्ष्य के आधार पर डॉ. हीरालाल जैन ने इसे ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी की रचना स्वीकार किया है। प्राकृतलक्षण में चार पाद पाये जाते हैं । ग्रंथ के प्रारम्भ में चंड नें प्राकृत शब्दों के तीन रूपों - तद्भव, तत्सम एवं देश्य – को सूचित किया है तथा संस्कृतवत् तीनों लिंगों और विभक्तियों का विधान किया है । तदनन्तर चौथे सूत्र में व्यत्यय का निर्देश करके प्रथमपाद के ५ वें सूत्र से ३५ सूत्रों में स्वर परिवर्तन, शब्दादेश और अव्ययों का विधान है। तीसरे पाद के ३५ सूत्रों में व्यंजनों के परिवर्तनों का विधान है। प्रथम वर्ण के स्थान पर तृतीय का आदेश किया गया एकं > एगं, १. २. यथा— पिशाची > विसाजी, कृतं > कदं आदि । द्रष्टव्य; “द प्राकृतलक्षणम् एण्ड चंडाज् ग्रैमर आफ द एशिएन्ट प्राकृत " जैन, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ. १८२ । [२२] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन तीनों पादों में कुल ९९ सूत्र हैं, जिनमें प्राकृत व्याकरण समाप्त किया गया है। होएनल ने इतने भाग को ही प्रामाणिक माना है। किन्तु इस ग्रंथ की अन्य चार प्रतियों में चतुर्थपाद भी मिलता है, जिसमें केवल ४ सूत्र हैं। इनमें क्रमशः कहा गया है-१. अपभ्रंश में अधोरेफ का लोप नहीं होता, २. पैशाची में र् और स् के स्थान पर ल और न् का आदेश होता है, ३. मागधी में र् और स् के स्थान पर ल और श् का आदेश होता है तथा ४. शौरसेनी में त के स्थान पर विकल्प से द आदेश होता है। इस तरह ग्रंथ के विस्तार रचना और भाषा स्वरूप की दृष्टि से चंड का यह व्याकरण प्राचीनतम सिद्ध होता है। परवर्ती प्राकृत वैयाकरणों पर इसके प्रभाव स्पष्ट रूप से देखे जाते हैं। हेमचंद्र ने भी चंड से बहुत कुछ ग्रहण किया है। (३) वररुचि-प्राकृत प्रकाश : ___प्राकृत वैयाकरणों में चण्ड के बादं वररुचि प्रमुख वैयाकरण है। प्राकृतप्रकाश में वर्णित अनुशासन पर्याप्त प्राचीन है। अतः विद्वानों ने वररुचि को ईसा की चौथी शताब्दी के लगभग का विद्वान् माना है। विक्रमादित्य के नवरत्नों में भी एक वररुचि थे। वे सम्भवतः प्राकृतप्रकाश के ही लेखक थे। छठी शताब्दी से तो प्राकृतप्रकाश पर अन्य विद्वानों ने टीकाएं लिखना प्रारम्भ कर दी थीं। अत: वररुचि ने ४-५ वीं शताब्दी में अपना यह व्याकरण ग्रंथ लिखा होगा। प्राकृतप्रकाश विषय और शैली की दृष्टि से प्राकृत का महत्त्वपूर्ण व्याकरण है। प्राचीन प्राकृतों के अनुशासन की दृष्टि से इसमें अनेक तथ्य उपलब्ध होते है। प्राकृतप्रकाश में कुल बारह परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद के ४४ सूत्रों में स्वरविकार एवं स्वरपरिवर्तनों का निरूपण है। दूसरे परिच्छेद के ४७ सूत्रों में मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप का विधान है तथा इसमें यह भी बताया गया है कि शब्दों के • असंयुक्त व्यंजनों के स्थान पर विशेष व्यंजनों का आदेश होता है। यथा- (१) प 'के स्थान पर व-शाप > सावो; (२) न के स्थान पर ण-वचन> वअण; (३) श, ष के स्थान पर, स-शब्द > सद्दो, वृषभ> वसहो आदि। तीसरे परिच्छेद के ६६ सूत्रों में संयुक्त व्यंजनों के लोप, विकास एवं परिवर्तनों का अनुशासन है। अनुकारी, विकारी और देशज इन तीन प्रकार के शब्दों का नियमन चौथें परिच्छेद के ३३ सूत्रों में हुआ है। यथा १२वें सूत्र मोविन्दुः में कहा गया है कि अंतिम हलन्त म् को अनुस्वार होता है-वृक्षम् > वच्छं, भद्रम् > भदं आदि। पांचवें परिच्छेद के ४७ सूत्रों में लिंग और विभक्ति का अनुशासन दिया गया है। सर्वनाम शब्दों के रूप और उनके विभक्ति प्रत्यय छठे परिच्छेद के ६४ सूत्रों में वर्णित हैं। आगे सप्तम परिच्छेद में तिङन्तविधि तथा अष्टम में धात्वादेश का वर्णन है। प्राकृत का धात्वादेश सम्बन्धी प्रकरण तुलनात्मक दृष्टि से विशेष महत्त्व का है। नवमें परिच्छेद में अव्ययों के अर्थ एवं प्रयोग दिये गये हैं। यथा-णवर: केवले ॥७॥-केवल अथवा [२३] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकमात्र के अर्थ में णवर शब्द का प्रयोग होता है । उदाहरणार्थ – एसो णवर कन्दप्पो, एसा णवर सा रई । इत्यादि । यहाँ तक वररुचि ने सामान्य प्राकृत का अनुशासन किया है। इसके अनन्तर दसवें परिच्छेद के १४ सूत्रों में पैशाची भाषा का विधान है । १७ सूत्र वाले ग्यारहवें परिच्छेद में मागधी प्राकृत का तथा बारहवें परिच्छेद के ३२ सूत्रों में शौरसेनी प्राकृत का अनुशासन है । प्राकृत व्याकरण के गहन अध्ययन के लिए वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश एवं उसकी टीकाओं का अध्ययन नितान्त अपेक्षित है। महाराष्ट्री के साथ मागधी, पैशाची एवं शौरसेनी का, इसमें विशेष विवेचन किया गया है। प्राकृतप्रकाश की इस विषयवस्तु से स्पष्ट है कि वररुचि ने विस्तार से प्राकृत भाषा के रूपों को अनुशासित किया है। चंड के प्राकृतलक्षण का प्रभाव वररुचि पर होते हुए भी कई बातों में उनमें नवीनता और मौलिकता है। (४) सिद्ध हैमशब्दानुशासन : प्राकृत व्याकरणशास्त्र को पूर्णता आचार्य हेमचंद्र के सिद्धहैमशब्दानुशासन से प्राप्त हुई है। प्राकृतं वैयाकरणों की पूर्वी और पश्चिमी दो शाखाएं विकसित हुई हैं। पश्चिमी शाखा के प्रतिनिधि प्राकृत वैयाकरण हेमचंद्र हैं (सन् १०८८ से ११७२ ) । इन्होंने विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रंथ लिखे हैं । इनकी विद्वत्ता की छाप इनके इस व्याकरण ग्रंथ पर भी है । इस व्याकरण का अनेक स्थानों से प्रकाशन हुआ है। हेमचंद्र के इस व्याकरण ग्रंथ में आठ अध्याय हैं। प्रथम सात अध्यायों में उन्होंने संस्कृत व्याकरण का अनुशासन कियाहै, जिसकी संस्कृत व्याकरण के क्षेत्र में अलग महत्ता है। आठवें अध्याय में प्राकृत व्याकरण का निरूपण है। उसकी संक्षिप्त विषयवस्तु द्रष्टव्य है । आठवें अध्याय के प्रथम पाद में २७१ सूत्र हैं। इनमें संधि, व्यजनान्त शब्द, अनुस्वार, लिंग, विसर्ग, स्वर - व्यत्यय और व्यंजन- व्यत्ययं का, विवेचन किया गया है। इस पाद का प्रथम सूत्र अथ प्राकृतम् प्राकृतं शब्द को स्पष्ट करते हुए यह निश्चित करता है कि प्राकृत व्याकरण संस्कृत के आधार पर सीखनी चाहिये । द्वितीय सूत्र बहुलम् द्वारा हेमचंद्र ने प्राकृत के समस्त अनुशासनों को वैकल्पिक स्वीकार किया है। इससे स्पष्ट है कि हेमचंद्र ने केवल साहित्यिक प्राकृतों को, अपितु व्यवहार की प्राकृत के रूपों को ध्यान में रखकर भी अपना व्याकरण लिखा है । इस पद के तीसरे सूत्र आर्षम् ८ ११ । ३ द्वारा ग्रंथकार ने आर्षप्राकृत में भेद स्पष्ट किया है। इसके आगे के सूत्र स्वर आदि का अनुशासन करते हैं । जिस बात को प्राचीन वैयाकरण चंड, वररुचि आदि ने संक्षेप में कह दिया था, हेमचंद्र ने उसे ने केवल विस्तार से कहा है, अपितु अनेक नये उदाहरण भी दिये हैं । इस तरह प्राकृत भाषा के विभिन्न स्वरूपों का सांगोपांग अनुशासन हेमव्याकरण में हो सका है । ' भायाणी,“प्राकृतव्याकरणकारों (गुजराती), भारतीयविद्या, जुलाई” ९४३, पृ., ४०१-१६ [ २४ ] १. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयपाद के २१८ सूत्रों में संयुक्त व्यंजनों के परिवर्तन, समीकरण, स्वर भक्ति, वर्णविपर्यय, शब्दादेश, तद्धित, निपात और अव्ययों का निरूपण है। यह प्रकरण आधुनिक भाषाविज्ञान की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। हेमचंद्र ने संस्कृत के कई द्व्यर्थ वाले शब्दों को प्राकृत में अलग- अलग किया है, ताकि भ्रान्तियाँ न हों । संस्कृत अर्थ समय भी है और उत्सव भी । हेमचन्द्र ने उत्सव अर्थ में छणो (क्षण:) और समय अर्थ में खणो (क्षणः) रूप निर्दिष्ट किये हैं । इसी तरह हेम ने अव्ययों की भी विस्तृत सूची इस पाद में दी है। क्षण शब्द का तृतीयपाद में १८२ सूत्र हैं, जिनमें कारक, विभक्तियों, क्रियारचना आदि सम्बन्धी नियमों का कथन किया गया है। शब्दरूप क्रियारूप और कृत प्रत्ययों का वर्णन विशेष रूप से ध्यातव्य है । वैसे प्राकृतप्रकाश के समान ही इसका विवेचन हेम ने किया है, कारक व्यवस्था पर अच्छा प्रकाश डाला है। हेमप्राकृत व्याकरण का चतुर्थ पाद विशेष महत्त्वपूर्ण है । इसके ४४८ सूत्रों में शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश प्राकृतों का शब्दानुशासन प्रन्थकार ने किया है। इस पाद में धात्वादेश की प्रमुखता है । संस्कृत धातुओं पर देशी अपभ्रंश धातुओं का आदेश किया है । यथा-संस्कृत कथ्, प्राकृत-कह को बोल्ल, चव, जंप आदि आदेश । मागधी, शौरसेनी एवं पैशाची का अनुशासन तो प्राचीन वैयाकरणों ने भी संक्षेप में किया था। हैम ने इनको विस्तार से समझाया है। किन्तु इसके साथ ही चूलिका पैशाची की विशेषताएं भी स्पष्ट की हैं। इस पाद के ३२९ सूत्र से ४४८ सूत्र तक उन्होंने अपभ्रंश व्याकरण पर पहली बार प्रकाश डाला हैं। उदाहरणों के लिए जो अपभ्रंश के दोहे दिये हैं, वे अपभ्रंश साहित्य की अमूल्यनिधि हैं। आचार्य हेम के समय तक प्राकृत भाषा का बहुत अधिक विकास हो गया था । इस भाषा का विशाल साहित्य भी था । अपभ्रंश के भिन्न रूप प्रचलित थे । अतः हेमचंद्र ने प्राचीन वैयाकरणों के ग्रन्थों का उपयोग करते हुए भी अपने व्याकरण में बहुत-सी बातें नयी और विशिष्ट शैली में प्रस्तुत की हैं। . आचार्य हेमचंद्र ने अपने प्राकृतव्याकरण पर " तत्त्वप्रकाशिका ” नाम सुबोध - वृत्ति (बृहत्वृत्ति) भी लिखी है। मूलग्रंथ को समझने के लिए यह वृत्ति बहुत उपयोगी है इसमें . अनेक ग्रंथों से उदाहरण दिये गये हैं । एक लघुवृत्ति भी हेमचंद्र ने लिखी है, जिसको “प्रकाशिका” भी कहा गया है । यह सं. १९२९ में बम्बई से प्रकाशित हुई है। हेमप्राकृतव्याकरण पर अन्य विद्वानों द्वारा भी टीकाएं लिखी गई हैं। (५) पुरुषोत्तम - प्राकृतानुशासन : हेमचंद्र के समकालीन एक और प्राकृत वैयाकरण हुए हैं पुरुषोत्तम । ये बंगाल के निवासी थे । अतः इन्होंने प्राकृत व्याकरणशास्त्र की पूर्वीय शाखा का प्रतिनिधित्व किया है। पुरुषोतम १२वीं शताब्दी के वैयाकरण हैं। उन्होंने प्राकृतानुशासन नाम का प्राकृत व्याकरण लिखा है। यह ग्रंथ १९३८ में पेरिस से प्रकाशित हुआ है। एल. नित्ती डौल्ची [ २५ ] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने महत्त्वपूर्ण फैन्च भूमिका के साथ इसका सम्पादन किया है। १९५४ में डॉ. मनमोहन घोष ने अंग्रेजी अनुवाद के साथ मूल प्राकृतानुशसन को “प्राकृतकल्पतरु” के साथ (पृ. १५६-१६९) परिशिष्ट १ में प्रकाशित किया है। प्राकृतानुशासन में तीन से लेकर बीस अध्याय हैं। तीसरा अध्याय अपूर्ण है। प्रारम्भिक अध्यायों में सामान्य प्राकृत का निरूपण है। नौवें अध्याय में शौरसेनी तथा दसवें में प्राच्या भाषा के नियम दिये हैं। प्राच्या को लोकोक्ति-बहुल बनाया गया है। ग्याहरवें अध्याय में अवन्ती और बारहवें में मागधी प्राकृत का विवेचन है। इसकी विभाषाओं में शाकारी, चांडाली, शाबरी और टक्कदेशी का अनुशासन किया गया है। उससे पता चलता है कि शाकारी में “क” और टक्की में उद् की बहुलता पाई जाती है। इसके बाद अपभ्रंश में नागर, ब्राचड, उपनागर आदि का नियमन है। अन्त में कैकय, पैशाचिफ और शौरसेनी पैशाचिक भाषा के लक्षण कहे गये हैं। (६) त्रिविक्रम-प्राकृतशब्दानुशासन : त्रिविक्रम १३वीं शताब्दी के वैयाकरण थे। उन्होंने जैनशास्त्रों का अध्ययन किया था तथा वे कवि भी के। यद्यपि उनका कोई काव्यग्रंथ अभी उपलब्ध नहीं है । त्रिविक्रम ने “प्राकृतशब्दानुशासन” में प्राकृत सूत्रों का निर्माण किया है तथा उनकी वृत्ति भी लिखी प्राकृत पदार्थसार्थप्राप्त्यै निजसूत्रमार्गमनजिंगमिषताम्। वृत्तियथार्थ सिद्धचै त्रिविक्रमेणागमक्रमात्क्रियते ॥९। इन दोनों का विद्वत्तापूर्ण सम्पादन व प्रकाशन डा. पी. एल. वैद्य ने सोलापुर से १९५४ में किया है। यद्यपि इससे पूर्व भी मूलग्रंथ का कुछ अंश १८९६ एवं १९१२ में प्रकाशित हुआ था किन्तु यह ग्रंथ को पूरी तरह प्रकाशं में नहीं लाता था। अतः वैद्य ने कई पाण्डुलिपियों के आधार पर ग्रंथ का वैज्ञानिक संस्करण प्रकाशित किया है। इसके पूर्व वि. सं. २००७ में जगन्नाथ-शास्त्री होशिंग ने भी मूलग्रंथ और स्वोपज्ञवृत्ति को प्रकाशित किया था। इसमें भूमिका संक्षिप्त है, किन्तु परिशिष्ट में अच्छी सामग्री दी गई है। प्राकृतशब्दानुशासन में कुल तीन अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में ४-४ पाद हैं। पूरे ग्रंथ में कुल १०३६ सूत्र हैं। यद्यपि त्रिविक्रम ने इस प्रथ के निर्माण में हेमचंद्र का ही अनुकरण किया है, किन्तु कई बातों में नयी उद्भावनाएं भी हैं। प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय अध्याय के प्रथम पाद में प्राकृत का विवेचन है। तीसरे अध्याय के दूसरे पाद में शौरसेनी (१-२६), मागधी (२७-४२)पैशाची (४३-६३) तथा चूलिका पैशाची (६४-६७) का अनुशासन किया गया है। ग्रंथ के इस तीसरे अध्याय के तृतीय और चतुर्थ पादों में अपभ्रंश का विवेचन है। १. प्राकृत ग्रामर आफ त्रिविक्रम, सोलापुर १९५४ [२६] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिविक्रम ने अपने प्राकृत व्याकरण में ह, दि, स और ग आदि नयी संज्ञाओं का निरूपण किया है। तथा हेमचंद्र की अपेक्षा देशी शब्दों का संकलन अधिक किया है। हेमचंद्र ने एक ही सूत्र में देशी शब्दों की बात कही थी, क्योंकि उन्होंने “देशीनाममाला” अलग से लिखी है। जबकि त्रिविक्रम ने ४ सूत्रों में देशी शब्दों का नियमन किया है। प्राकृतशब्दानुशासन में अनेकार्थ शब्द भी दिये गये हैं । यह प्रकरण हेम की अपेक्षा विशिष्ट है । प्राकृतशब्दानुशासन पर टीकाएं : त्रिविक्रम के इस ग्रंथ पर स्वयं लेखक की वृत्ति के अतिरिक्त अन्य दो टीकाएं भी लिखी गई हैं। लक्ष्मीधर की " षड्भाषाचंद्रिका" एवं सिंहराज का “प्राकृतरूपावतार” त्रिविक्रम के ग्रंथ को सुबोध बनाते हैं । (१) षड्भाषांचंद्रिका : लक्ष्मीधर ने अपनी व्याख्या लिखते हुए कहा है कि त्रिविक्रम के ग्रन्थ को सरल करने के लिए यह व्याख्या लिख रहा हूँ। जो विद्वान मूलग्रंथ की गूढ़ वृत्ति को समझना चाहते हैं वे उसकी व्याख्यारूप " षड्भाषांचंद्रिका” को देखें वृतिं त्रैविक्रमीगूढ़ां व्याचिख्या सन्ति ये बुधाः । षड्भाषाचंद्रिका तैस्तद् व्याख्यारूपा विलोक्यताम् || वस्तुतः लक्ष्मीधर ने त्रिविक्रम के ग्रंथ को सिद्धान्त कौमुदी के ढ़ंग से तैयार किया है तथा उदाहरण प्राकृर्त के अन्य काव्यों से दिये हैं । प्रस्तुत ग्रंथ में प्राकृत महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिकापैशाची और अपभ्रंश इन छह भाषाओं का विस्तार पूर्वक विवेचन किया है। आगे चलकर इन छह भाषाओं के विवेचन के लिए अन्य कई ग्रंथ भी लिखे गये हैं । उनमें भामकवि - " षड् भाषा - चंद्रिका", दुर्गणाचार्य - " षड् भाषारूपमालिका " ·तथा ’षड्भाषांमंजरी”, “षड्भाषासुवन्तादर्श”, “षड्भाषाविचार ” आदि प्रमुख हैं । (२) प्राकृतरूपावतार : सिंहराज (१५वीं शताब्दी) ने त्रिविक्रम प्राकृत व्याकरण को कौमुदी के ढ़ंग से “प्राकृतरूपावतार” में तैयार किया है। इसमें संक्षेप में संज्ञा, संधि, समास, धातुरूप, तद्धित आदि का विवेचन किया गया है।' संज्ञा और क्रियापदों की रूपावली के ज्ञान के लिए “प्राकृतरूपावतार" कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । कहीं-कहीं सिंहराज ने हेम और त्रिविक्रम से भी अधिक रूप दिये है। रूप गढ़ने में उनकी मौलिकता और सरसता है । (७) क्रमदीश्वर - संक्षिप्तसार : हेमचंद्र के बाद के वैयाकरणों में क्रमदीश्वर का प्रमुख स्थान है। उन्होंने “ संक्षिप्तसार” नामक अपने व्याकरण ग्रंथ को आठ भागों में विभक्त किया है। प्रथम सात हुश द्वारा सम्पादित, प्रका. रॉयल एशियाटिक सोसायटी, सन् १९०९ । १. [२७] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यायों में संस्कृत एवं आठवें अध्याय “प्राकृतपाद" में प्राकृत व्याकरण का अनुशासन किया है। ग्रन्थ के इस स्वरूप में ही क्रमदीश्वर हेमचंद्र का अनुकरण करता है । अन्यथा प्रस्तुतीकरण और सामग्री की दृष्टि से उनमें पर्याप्त भिन्नता है । वस्तुतः वररुचि के “प्राकृतप्रकाश और संक्षिप्तसार" में बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध दिखायी देता है। किन्तु कई स्थलों पर क्रमदीश्वर ने अन्य लेखकों की सामग्री का भी उपयोग किया है। लास्सन ने क्रमदीश्वर के इस ग्रंथ पर अच्छा प्रकाश डाला है । " प्राकृतपाद” का सम्पूर्ण संस्करण राजेन्द्रलाल मिश्र ने प्रकाशित कराया था तथा १८८९ में कलकत्ता से इसका एक नया संस्करण भी प्रकाशित हुआ था । (८) मार्कण्डेय - प्राकृतसर्वस्व : प्राकृत व्याकरणशास्त्र का " प्राकृतसर्वस्व " एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसके ग्रंथकार मार्कण्डेय प्राच्य शाखा के प्रसिद्ध प्राकृतवैयाकरण थे । १९६८ में प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी अहमदाबाद से प्रकाशित संस्करण में मार्कण्डेय की तिथि १४९० -१५६५ ई. स्वीकार की गयी तथा ग्रंथकार और उनकी कृतियों के सम्बन्ध में विस्तार से विचार किया गया है। मार्कण्डेय ने प्राकृत भाषा के चार भेद किये हैं— भाषा, विभाषा, अपभ्रंश और पैशाची। भाषा के पाँच भेद हैं- महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी । विभाषा के शकारी, चाण्डाली, शबरी, अभीरी और ढक्की ये पाँच भेद हैं। अपभ्रंश के तीन भेद हैं— नागर, ब्राचड और उपनागर तथा पैशाची के कैकई, पांचाली आदि भेद हैं। इन्हीं भेदोपभेदों के कारण डा. पिशल ने कहा है कि महाराष्ट्री जैन, महाराष्ट्री अर्धमागधी और जैनशौरसेनी के अतिरिक्त अन्य प्राकृत बोलियों के नियमों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मार्कण्डेय कवीन्द्र का प्राकृतसर्वस्वं बहुत मूल्यवान है । • प्राकृतसर्वस्व के प्रारम्भ आठ पादों में महाराष्ट्री प्राकृत के नियम बतलाये गये हैं । इनमें प्रायः वररुचि का अनुसरण किया गया है। नौवें पाद में शौरसेनी और दसवें 1 पाद में प्राच्या का नियमन है । विदूषक आदि हास्य पात्रों की भाषा को प्राच्या कहा गया है। ग्यारहवें पाद में अवन्ती वाल्हीकी का वर्णन है । बारहवें में मागधी के नियम बताये गये हैं । अर्धमागधी का उल्लेख इसी पाद में आया है। इस प्रकार ६ से १२ पादों को भाषा विवेचन का खण्ड कहा जा सकता है । १३वें से १६ वें पाद तक विभाषा का अनुशासन किया गया है । शकारी, चाण्डाली शाबरी आदि विभाषाओं के नियम एवं उदाहरण यहाँ दिये गये हैं । एक सूत्र में ओड्री (उडिया) विभाषा का कथन है तथा एक में आभीरी का । ग्रंथ के १७वें १८ वें पाद में अपभ्रंश भाषा का तथा १९ वें और २० वें पाद में पैशाची भाषा का नियमन हुआ है। अपभ्रंश के उदाहरण स्वरूप कुछ दोहे भी दिये गये हैं । इस तरह मार्कण्डेय ने अपने समय तक विकसित प्रायः सभी लोक भाषाओं द्रष्टव्य, आचार्य के. सी. “प्राकृतसर्वस्व " भूमिका । १. [ २८ ] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को जिनका प्राकृत से घनिष्ठ सम्बन्ध था, अपने व्याकरण में सम्मिलित करने का प्रयत्न किया है। . मार्कण्डेय ने प्राचीन वैयाकरणों के सम्बन्ध में भी कई तथ्य प्रस्तुत किये हैं। इनमे से शाकल्य एवं कौहल निश्चित रूप से प्राकृत के प्राचीन वैयाकरण रहे होंगे, जिनके प्राकृत सम्बन्धी नियमन से प्राकृत व्याकरणशास्त्र समय-समय पर प्रभावित होता रहा है। यद्यपि अभी तक इनके मूल ग्रंथों का पता नहीं चला है। इस तरह मार्कण्डेय का “प्राकृतसर्वस्व” कई दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। पश्चिमीय प्राकृत भाषाओं की प्रवृत्तियों के अनुशासन के लिए जहाँ हेमचंद का प्राकृत व्याकरण प्रतिनिधि ग्रंथ के रूप में प्रसिद्ध है, वहाँ पूर्वीय प्राकृत वैयाकरणों के सम्बन्ध में डॉ. सत्यरंजन बनर्जी ने अपनी पुस्तक में पर्याप्त प्रकाश डाला है। प्राकृत व्याकरण-शास्त्र के इतिहास में लगभग २-३री शताब्दी से १५-१६वीं शताब्दी तक में हुए इन प्रमुख प्राकृत वैयाकरणों के ग्रंथों से स्पष्ट है कि प्राकृत भाषा के विभिन्न पक्षों पर विधिवत् प्रकाश डाला गया है। प्राकृत भाषा के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से १६वीं से २० वीं शताब्दी तक अनेक प्राकृत के व्याकरण ग्रन्थ लिखे गये हैं। इन्हें दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। (१) १६वीं से १८वीं शताब्दी तक के परम्परागत प्राकृत व्याकरण तथा (२) १९वीं-२० वीं शताब्दी के आधुनिक सम्पादन से युक्त प्राकृत-व्याकरण । इनका परिचय विद्वानों ने प्रस्तुत किया है। बनर्जी, एस. आर. “द ईस्टर्न स्कूल आफ प्राकृत प्रेमिरियन्स”, कलकत्ता, १९६४ जैन भागचन्द्र “आधुनिक युग में प्राकृत व्याकरण- शास्त्र का अध्ययन-अनुसंधान", [२९] Page #41 --------------------------------------------------------------------------  Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत स्वयं-शिक्षक खण्ड १ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ उदाहरण वाक्य : ___अहं = मैं अहं नमामि = मैं नमन करता हूँ। अहं पढामि = मैं पढ़ता/पढ़ती हूँ। अहं जाणामि = मैं जानता/जानती हूँ। अहं चिंतामि = मैं चिंतन करता हूँ। अहं इच्छामि = मैं इच्छा करता हूँ। अहं सुणामि = मैं सुनता/सुनती हूँ। अहं पासामि = मैं देखता/देखती हूँ। अहं भुंजामि = मैं भोजन करता हूँ। अहं पिबामि = मैं पीता/पीती हूँ। अहं चलामि = मैं चलता/चलती हूँ। अहं गच्छामि = मैं जाता/जाती हूँ। अहं भमामि = मैं घूमता/घूमती हूँ। अहं धावामि = मैं दौड़ता/दौड़ती हूँ। अहं णच्चामि = मैं नाचता/नाचती. हूँ। . अहं खेलामि = मैं खेलता/खेलती हूँ। अहं जयामि = मैं जीतता/जीतती हूँ। अहं हसामि = मैं हँसता/हँसती हूँ। अहं सेवामि = मैं सेवा करता हूँ। . अहं सयामि = मैं सोता/सोती हूँ। अहं लिहामि = मैं लिखता/लिखती हूँ। प्राकृत में अनुवाद करो मैं दौड़ता हूँ। मैं जानती हूँ। मैं नमन करता हूँ। मैं सुनती हूँ। मैं पीता हूँ। मैं घूमती हूँ। मैं हँसती हूँ। मैं इच्छा करता हूँ। मैं नाचती हूँ। मैं जीतता हूँ। प्रयोग वाक्य : अत्थ = यहाँ अहं अत्थ पढामि = मैं यहाँ पढ़ता/पढ़ती हूँ। तत्थ = वहाँ अहं तत्थ खेलामि = मैं वहाँ खेलता/खेलती हूँ। सइ = एक बार अहं सइ भुंजामि = मैं एक बार भोजन करता हूँ। . मुहु = बार-बार अहं मुह चिंतामि = मैं बार-बार चिंतन करता हूँ। सया = सदा अहं सया सेवामि = मैं सदा सेवा कस्ती हूँ। दाणिं = इस समय अहं दाणिं सयामि = मैं इस समय सोता/सोती हूँ। सणिअं= धीरे अहं सणिअंचलामि = मैं धीरे चलता/चलती हूँ। झत्ति = शीघ्र अहं झत्ति गच्छामि = मैं शीघ्र जाता/जाती हूँ। अग्गओ= आगे अहं अग्गओ पासामि = मैं आगे देखता/देखती हूँ। ण = नहीं अहं ण लिहामि __= मैं नहीं लिखता/लिखती हूँ। प्राकृत में अनुवाद करो : मैं एक बार पढ़ता हूँ। मैं वहाँ भोजन करती हूँ। मैं इस समय खेलता हूँ। मैं यहाँ रहती हूँ। मैं आगे देखता हूँ। . प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ उदाहरण वाक्य : अम्हे = हम दोनों/हम लोग अम्हे नमामो = हम नमन करते हैं। अम्हे पढामो = हम पढ़ते/पढ़ती हैं। अम्हे जाणामो = हम जानते/जानती हैं। अम्हे चिंतामो = हम चिंतन करते हैं। अम्हे इच्छामो = हम इच्छा करते हैं। अम्हे सुणामो = हम सुनते/सुनती हैं। अम्हे पासामो = हम देखते/देखती हैं। अम्हे भुंजामो = हम भोजन करते हैं। अम्हे पिबामो = हम पीते/पीती हैं। अम्हे चलामो = हम चलते/चलती हैं। अम्हे गच्छामो = हम जाते/जाती हैं। अम्हे भमामो = हम घूमते/घूमती हैं। अम्हे धावामो = हम दौड़ते/दौड़ती हैं। अम्हे णच्चामो = हम नाचते/ नाचती हैं। अम्हे खेलामो = हम खेलते/खेलती हैं। अम्हे जयामो = हम जीतते/जीतती हैं। अम्हे हसामो = हम हँसते/हँसती हैं। अम्हे सेवामो = हम सेवा करती हैं। अम्हे सयामो = हम सोते/सोती हैं। अम्हे लिहामो = हम लिखते/लिखती हैं। प्राकृत में अनुवाद करो : हम दौड़ते हैं। हम जानती हैं। हम नमन करते हैं। • हम सुनती हैं। हम पीते हैं। हम घूमती हैं। हम हँसते हैं। . हम इच्छा करते हैं। हम नाचती हैं। हम जीतते हैं। प्रयोग-वाक्य : . . . अम्हे अत्थ पढामो हम यहाँ पढ़ते हैं। अम्हे तत्थ खेलामो हम वहाँ खेलते हैं। अम्हे सइ भुंजामो हम एक बार भोजन करती हैं। अम्हे मुह चिंतामो हम बार-बार चिंतन करते हैं। अम्हे सया सेवामो हम सदा सेवा करते हैं। अम्हे दाणिं सयामो हम इस समय सोती हैं। अम्हे सणिअं चलामो हम धीरे चलते हैं। अम्हे झत्ति गच्छामो हम शीघ्र जाते हैं। अम्हे अग्गओ पासामो = हम आगे देखते हैं। अम्हे ण लिहामो ___हम नहीं लिखते हैं। प्राकृत में अनुवाद करो : हम बार-बार चिंतन करती हैं। हम सदा सेवा करती हैं। हम इस समय सोते हैं। हम धीरे चलते हैं। हम आगे देखते हैं। खण्ड १ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ उदाहरण वाक्य : तुम = तुम तुमं नमसि = तुम नमन करते हो। तुमं पढसि = तुम पढ़ते/पढ़ती हो। तमं जाणसि = तुम जानते/जानती हो। तुम चिंतसि = तुम चिंतन करते हो। तुम इच्छसि = तुम इच्छा करते/करती हो। तुमं सुणसि = तुम सुनते/सुनती हो। तुमं पाससि = तुम देखते/देखती हो। तुमं भुंजसि = तुम भोजन करते हो। तुमं पिवसि = तुम पीते/पीती हो। तुम चलसि = तुम चलते/चलती हो। ... तमं गच्छसि = तुम जाते/जाती हो। तुम भमसि = तुम घूमते/घूमती हो।' तुमं धावसि = तुम दौड़ते/दौड़ती हो। तुमं णच्चसि = तुम नाचते/नाचती हो। तुमं खेलसि = तुम खेलते/खेती हो। तुमं जयसि = तुम जीतते/जीतती हो। तुमं हससि = तुम हँसते/हँसती हो। तुमं सेवसि = तुम सेवा करती हो। : तुमं सयसि = तुम सोते/सोती हो। तुमं लिहसि = तुम लिखते/ लिखती.. . हो। ... प्राकृत में अनुवाद करो : तुम दौड़ते हो। तुम जानती हो। तुम नमन करते हो। तुम सुनती हो। तुम पीते हो। तुम घूमती हो। तुम हँसती हो। तुम इच्छा करते हो। तुम नाचती हो। तुम जीतते हो। प्रयोग वाक्य : तुमं अत्थ पढसि = तुम यहाँ पढ़ते हो। तुमं तत्थ खेलसि । तुम वहाँ खेलते हो। , तुमं सइ भुंजसि = तुम एक बारभोजन करते हो। तुमं मुह चिंतसि तुम बार-बार चिंतन करते हो। तुमं सया सेवसि = तुम सदा सेवा करती हो। तुमं दाणिं सयसि = तुम इस समय सोते हो। तुमं सणिअं चलसि = तुम धीरे चलती हो। तुमं झत्ति गच्छसि = तुम शीघ्र जाते हो। तुमं अग्गओ पाससि = तुम आगे देखते हो। तुमं ण लिहसि = तुम नहीं लिखते हो। प्राकृत में अनुवाद करो : तुम एक बार पढ़ते हो। तुम वहाँ भोजन करती हो। तुम इस समय खेलते हो। तुम यहाँ स्हते हो। तुम आगे देखते हो। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ उदाहरण वाक्य : तुम्हे = तुम दोनों/तुम सब तुम्हे नमित्था = तुम दोनों नमन करते हो। तुम्हे पढित्था = तुम सब पढ़ते/पढ़ती हो । तुम्हे जाणित्था = तुम सब जाते हो। तुम्हे चिंतित्था = तुम दोनों चिंतन करते हो। तुम्हे इच्छित्था = तुम सब इच्छा तुम्हे सुणित्था = तुम सब सुनते/सुनती हो। करते हो। तुम्हे पासित्था = तुम सब देखते हो। तुम्हे भुंजित्था = तुम सब भोजन करते हो। तुम्हे पिवित्था = तुम दोनों पीते हो। तुम्हे चलित्था = तुम सब चलते/चलती हो । तुम्हे गच्छित्था = तुम जाते/जाती हो। तुम्हे भमित्था = तुम घूमते/घूमती हो। तुम्हे धावित्था = तुम सब दौड़ते हो। तुम्हे णच्चित्था = तुम सब नाचते हो।' तुम्हे खेलित्था = तुम सब खेलती हो। तुम्हे जयित्था = तुम दोनों जीतते हो। तुम्हे हसित्था = तुम सब हँसते हो। तुम्हे सेवित्था = तुम सेवा करते हो। तुम्हे सयित्था = तुम सोते/सोती हो। तुम्हे लिहित्था = तुम सब लिखते हो। प्राकृत में अनुवाद करो : ____ तुम सब दौड़ते हो। तुम सब जानती हो। तुम सब नमन करते हो। तुम दोनों सुनती हो। तुम दोनों पीते हो। तुम सब घूमते हो। तुम सब हँसती हो। तुम सब इच्छा करते हो। तुम सब नाचते हो। तुम सब जीतते हो। प्रयोग वाक्य : - तुम्हे अत्थ पढित्था तुम सब यहाँ पढ़ते हो। तुम्हे तत्थ खेलित्था तुम सब वहाँ खेलते हो। तुम्हे सइ भुंजित्था तुम दोनों एक बार भोजन करती हो। तुम्हे मुह चिंतित्था तुम सब बार-बार चिंतन करते हो। तुम्हे सया सेवित्था तुम सब सदा सेवा करती हो। तुम्हे दाणिं सयित्था तुम दोनों इस समय सोती हो। तुम्हे सणिअं चलित्था तुम सब धीरे चलते हो। तुम्हे झत्ति गच्छित्था = तुम दोनों शीघ्र जाती हो। तुम्हे अग्गओ पासित्था = तुम सब आगे देखते हो। तुम्हे ण लिहित्था _ = तुम सब नहीं लिखते हो। प्राकृत में अनुवाद करो : तुम सब बार-बार चिंतन करती हो। तुम दोनों सदा सेवा करती हो। तुम सब इस समय सोते हो। तुम दोनों धीरे चलते हो। तुम सब आगे देखते हो। खण्ड १ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ उदाहरण वाक्य : सो नमइ = वह नमन करता है । सो जाणइ = वह जानता है । 1 सो इच्छइ = वह इच्छा करता है सो पासइ = वह देखता है। सो पिवइ = वह पीता है । सो गच्छइ = वह जाता 1 सो धावइ = वह दौड़ता है । सो खेलइ = वह खेलता है । सो हसइ = वह हँसता है । सो सयइ = वह सोता है | प्राकृत में अनुवाद करो : प्रयोग वाक्य : सो अत्थ पढइ सो तत्थ खेल वह दौड़ता है। वह जानता है। वह नमन करता है। वह सुनता है। हँसता है। वह इच्छा करता है । वह पीता है। वह घूमता है। वह नाचता है। वह जीतता है। वह सो सइ भुंजइ सोहुचि सो सया सेवइ सो दाणि स सो सणिअं चल सो झत्ति गच्छ सो अग्गओ पास सोण लिह प्राकृत में अनुवाद करो : = = = ५. = वह (पुल्लिंग) सो पढइ = वह पढ़ता है । सो चिंतइ = वह चिंतन करता सो सुइ = वह सुनता है । सो भुंजइ = वह भोजन करता है । . सो चलइ = वह चलता है । = सो भमइ = वह घूमता है। सो णच्चइ = वह नाचता है । - सो जयइ = वह जीतता है । सो सेवइ = वह सेवा करता है । सो लिइ = वह लिखता है । वह यहाँ पढ़ता है । वह वहाँ खेलता है । . वह एक बार भोजन करता है 1 वह बार-बार चिंतन करता है। वह सदा सेवा करता 1 वह इस समय सोता है । वह धीरे चलता है । वह शीघ्र जाता है । वह आगे देखता है। वह नहीं लिखता है । वह एक बार पढ़ता है। वह वहाँ भोजन करता है I वह इस समय खेलता है। वह यहाँ रहता है। वह आगे देखता है। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , पाठ उदाहरण वाक्य : ते वे दोनों/वे सब (पुल्लिग) ते नमन्ति = वे दोनों/सब नमन करते हैं। ते पढन्ति = वे दोनों/सब पढ़ते हैं। ते जाणन्ति = वे जानते हैं। ते चिंतन्ति = वे चिंतन करते हैं। ते 'इच्छन्ति = वे इच्छा करते हैं।' ते सुणन्ति = वे सुनते हैं। ते पासन्ति = वे सब देखते हैं। ते भुंजन्ति = वे भोजन करते हैं। ते पिवन्ति = वे दोनों पीते हैं। ते चलन्ति = वे सब चलते हैं। ते गच्छन्ति = वे जाते हैं। ते भमन्ति= वे सब घूमते हैं। ते धावन्ति = वे सब दौड़ते हैं। ते णच्चन्ति = वे सब नाचते हैं। ते खेलन्ति = वे. दोनों खेलते हैं। ते जयन्ति = वे दोनों जीतते हैं। ते हसन्ति = वे सब हँसते हैं। . ते सेवन्ति = वे सेवा करते हैं। ते सयन्ति = वे सब सोते हैं। ते लिहन्ति = वे सब लिखते हैं। प्राकृत में अनुवाद करो : वे सब दौड़ते हैं। वे सब जानते हैं। वे दोनों नमन करते हैं। वे सब सुनते हैं। वे पीते हैं। वे सब घूमते हैं। वे दोनों हँसते हैं। वे इच्छा करते हैं। वे सब जीतते हैं। प्रयोग वाक्य : ते अत्थ पढन्ति वे सब यहाँ पढ़ते हैं। तें तत्थ खेलन्ति वे सब वहाँ खेलते हैं। ते सइ भुंज़न्ति वे दोनों एक बार भोजन करते हैं। ते मुह चिंतन्ति वे सब बार-बार चिंतन करते हैं। ते सया सेवन्ति वे सदा सेवा करते हैं। ते दाणं सयन्ति वे सब इस समय सोते हैं। . ते सणिअं चलन्ति = वे दोनों धीरे चलते हैं। ते झत्ति गच्छन्ति = वे सब शीघ्र जाते हैं। ते अग्गओ पासन्ति = वे सब आगे देखते हैं। ते ण लिहन्ति वे दोनों नहीं लिखते हैं। प्राकृत में अनुवाद करो : वे सब बार-बार चिंतन करते हैं। वे दोनों सदा सेवा करते हैं। ... वे सब इस समय सोते हैं। वे दोनों धीरे चलते हैं। वे सब आगे देखते हैं। खण्ड १ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ उदाहरण वाक्य: सा वह (स्त्री) सा नमइ = वह नमन करती है। सा पढइ = वह पढ़ती है। सा जाणइ = वह जानती है। सा चिंतइ = वह चिंतन करती है। सा इच्छइ= वह इच्छा करती है। सा सुण्इ = वह सुनती है। सा पासइ = वह देखती है। सा भुंजइ = वह भोजन करती है। .. सा पिवइ = वह पीती है। सा चलइ = वह चलती है। सा गच्छइ = वह जाती है। सा भमइ = वह घूमती है। . सा धावइ = वह दौड़ती है। सा णच्चइ = वह नाचती है। .. सा खेलइ = वह खेलती है। सा जयइ = वह जीतती है। .... सा हसइ = वह हँसही है। सा सेवइ = वह सेवा करती है। .. . सा सयइ = वह सोती है। सा लिहइ = वह लिखती है। .. प्राकृत में अनुवाद करो : वह दौड़ती है। वह जानती है। वह नमन करती है। वह सुनती है। . वह पीती है। वह घूमती है। वह हँसती है। वह इच्छा करती है। . वह नाचती है। वह जीतती है। . प्रयोग वाक्य: सा अत्थ पढइ वह यहाँ पढ़ती है। सा तत्थ खेलइ वह वहाँ खेलती है। सा सइ भुंजइ वह एक बार भोजन करती है। सा मुह चिंतइ वह बार-बार चिंतन करती है। सा सया सेवइ वह सदा सेवा करती है। सा दाणिं सयइ वह इस समय सोती है। सा सणिअंचलइ वह धीरे चलती है। सा झत्ति गच्छइ वह शीघ्र जाती है। सा अग्गओ पासइ वह आगे देखती है। सा ण लिहइ वह नहीं लिखती है। प्राकृत में अनुवाद करो : वह एक बार पढ़ती है। वह वहाँ भोजन करती है। वह इस समय खेलती है। वह यहाँ दौड़ती है। वह आगे देखती हैं। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पाठ उदाहरण वाक्य: ताओ= वे दोनों/वे सब (स्त्री) ताओ नमन्ति = वे दोनों नमन करती हैं। ताओ पढन्ति = वे सब पढ़ती हैं। ताओ जाणन्ति = वे सब जानती हैं। ताओ चिंतन्ति = वे चिंतन करती हैं। ताओ इच्छन्ति = वे इच्छा करती हैं। ताओ सुणन्ति = वे सब सुनती हैं। ताओ पासन्ति = वे सब देखती हैं। ताओ भुंजन्ति = वे भोजन करती हैं। ताओ पिवन्ति = वे दोनों पीती हैं। ताओ चलन्ति = वे सब चलती हैं। ताओ गच्छन्ति = वे सब जाती हैं। ताओ भमन्ति = वे घूमती हैं। ताओ धावन्ति = वे दोनों दौड़ती हैं। ताओ णच्चन्ति = वे सब नाचती हैं। ताओ खेलन्ति = वे सब खेलती हैं। ताओ जयन्ति = वे दोनों जीतती हैं। ताओ हसन्ति = वे हँसती हैं। ताओ सेवन्ति = वे सेवा करती हैं। ताओ सयन्ति = वे सब सोती हैं। ताओ लिहन्ति = वे लिखती हैं। प्राकृत में अनुवाद करो : वे सब दौड़ती हैं। वे सब जानती हैं। वे दोनों नमन करती हैं। वे सब सुनती हैं। वे दोनों पीती हैं। वे सब घूमती हैं। वे हँसती हैं। वे इच्छा करती हैं। वे सब नाचती हैं। वे सब जीतती हैं। प्रयोग वाक्य : ताओ अत्थ पढन्ति वे सब यहाँ पढ़ती हैं। ताओ तत्थ खेलन्ति वे सब वहाँ खेलती हैं। ताओ सइ भुंजन्ति वे. दोनों एक बार भोजन करती हैं। ताओ मुहु चिंतन्ति । वे बार-बार चिंतन करती हैं। ताओ सया सेवन्ति वे सब सदा सेवा. करती हैं। ताओ दाणिं सयन्ति वे इस समय सोती हैं। ताओ सणिअं चलन्ति वे दोनों धीरे चलती हैं। ताओ झत्ति गच्छन्ति वे सब शीघ्र जाती हैं। ताओ अग्गओ पासन्ति = वे सब आगे देखती हैं। ताओ ण लिहन्ति = वे नहीं लिखती हैं। प्राकृत में अनुवाद करो : वे सब बार-बार चिंतन करती हैं। वे दोनों सदा सेवा करती हैं। वे सब इस समय सोती हैं। वे धीरे चलती हैं। वे दोनों वहाँ खेलती हैं। खण्ड १ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ (पु) इमो = यह इमे = ये को= कौन, के= कौन (स्त्री) इमा= यह इमाओ = ये का= कौन, . काओ= कौन उदाहरण वाक्य : एकवचन बहुवचन इमो नमइ = यह नमन करता है। इमे नमन्ति = ये नमन करते हैं। ... इमो गच्छइ = यह जाता है। इमे गछन्ति = ये जाते हैं। .. इमो पढइ = यह पढ़ता है। इमे पढन्ति = ये पढ़ते हैं। इमा णच्चइ = यह नाचती है। इमाओ णच्चन्ति = ये नाचती हैं। ... इमा धावइ = यह दौड़ती है। इमाओ धावन्ति = ये दौड़ती हैं। इमा खेलइ = यह खेलती है। इमाओ खेलन्ति = ये खेलती हैं। को हसइ = कौन हँसता है? के हसन्ति = कौन हँसते हैं ? . को जाणइ = कौन जानता है? के जाणन्ति = कौन जानते हैं? को सीखइ= कौन सीखता है? के सीखन्ति = कौन सीखते हैं? का णच्चइ =कौन नाचती है? काओ णच्चन्ति = कौन नाचती हैं? का सेवइ = कौन सेवा करती है? काओ सेवन्ति = कौन सेवा करती हैं? का पढइ = कौन पढ़ती है? काओ पढन्ति = कौन पढ़ती हैं? प्राकृत में अनुवाद करो : कौन देखता है? यह पीता है। ये सोते हैं। कौन लिखता,है। यह घूमती है। कौन चलता है? ये भोजन करती हैं। यह सुनता है। कौन जानती हैं? ये जीतते हैं ।यह नमन करता है। कौन इच्छा करता है? यह दौड़ता है। प्रयोग वाक्य : इमो अत्थ पढइ = यह यहाँ पढ़ता है। को तत्थ भुंजइ = कौन वहाँ भोजन करता है? इमे अत्थ खेलन्ति = ये यहाँ खेलते हैं। इमाओ सणियं चलन्ति ___ = ये धीरे चलती हैं। के ण लिहन्ति = कौन नहीं लिखते हैं? इमा तत्थ गच्छइ = यह वहाँ जाती है। काओ अग्गओ पासंति = कौन आगे देखती है? का ण चिंतइ = कौन नहीं सोचती है? प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १० नियम : सर्वनाम (प, स्त्री.) प्रथमा विभक्ति सर्वनाम' (पु, स्त्री.) : नि. १. : प्राकृत में अम्ह (मैं) एवं तुम्ह (तुम) सर्वनाम के रूप पुल्लिंग एवं स्त्रीलिंग में एक समान बनते हैं। प्रथमा विभक्ति में इनके रूप इस प्रकार याद करलें : एकवचन : . अहं तुम बहुवचन : सर्वनाम (मु.) : नि. २. : 'त' (वह) सर्वनाम के प्रथमा विभक्ति एकवचन में 'सो' तथा बहुवचन में 'ते' रूप बन जाता है। नि. ३. : 'इम' (यह) सर्वनाम के प्रथमा विभक्ति एकवचन में 'ओ' तथा बहुवचन में 'ए' प्रत्यय लगकर ये रूप बनते हैं इमो, इमे। नि. ४. : 'क' (कौन) सर्वनाम के प्रथमा विभक्ति ए.व. में 'ओ' तथा बव. में 'ए' - प्रत्यय लगकर ये रूप बनते हैं-को, के। सर्वनाम (स्त्री.) : नि. ५. : 'ता' (वह) सर्वनाम के प्रथमा विभक्ति ए.व. में 'सा' रूप तथा ब.व. में '.. 'ओ' प्रत्यय लगकर ताओ रूप बनता है। नि. ६. : 'इमा' (यह) सर्वनाम के प्रथमा विभक्ति ए.व. तथा ब.व. में ये रूप बनते - हैं-इमा इमाओ। • नि. ७. : 'का' (कौन) सर्वनाम के प्रथमा विभक्ति ए.व. तथा बव. में ये रूप बनते हैं-का, काओ। निर्देश : पिछले पाठों में आपने प्राकृत के कुछ प्रमुख सर्वनामों, क्रियाओं तथा .. . अव्ययों की जानकारी प्राप्त की। इनके रूप इस प्राकर याद करलेंसर्वनाम · · प्रथम पुरुष मध्यम पुरूष अन्य पुरुष (पु.) (स्त्री.) एकवचन : अहं तुमं सो, इमो, को सा, इमा, का . बहुक्चन : अम्हे तुम्हे ते, इमे, के ताओ, इमाओ, काओ १. प्राकृत में सर्वनामों के अन्य रूप भी प्रयुक्त होते हैं, जिनका विवेचन आगामी प्राकृत स्वयं शिक्षक खण्ड 2 में किया जावेगा। यहाँ सर्वनाम के एक रूप को ही प्रयुक्त किया गया है। खण्ड १ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाएँ' : बहुवचन नामो (प्र. पु.) (म. पु.) नमित्या (अ. पु.) नमइ नमन्ति निर्देश : इसी प्रकार निम्न क्रियाओं के रूप बनेंगे। इनको तीन पुरुषों एवं दोनों वचनों में लिखकर अभ्यास कीजिए क्रियाकोश : नम= नमन करना : 1. पढ = पढ़ना १२ जाण = जानना चिंत = चिंतन करना इच्छ= इच्छा करना सुण = सु पास = देखना भुंज = भोजन करना यथा : उपयुक्त अव्यय लिखो (ग) इमो .. के. सो. अव्यय : 1 नि. ८. : जिन शब्दों के रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता उन्हें अव्यय कहते हैं अत्थ = यहाँ, सया= सदा, ण= : पिव = पीना चल = चलना गच्छ = जाना भम = घूमना धाव = दौड़ना उपयुकत सर्वनाम लिखो : पढन्ति ...च्छामो नमस ... पवित्था पढइ | ..खेलन्ति भुं । एकवचन नमामि नमसि णच्च = नाचना खेल = खेलना - अभ्यास - नहीं, झति = शीघ्र आदि । जय = जीतना हस = हँसना' सेव = सेवा करना सय = सोना.. लिह = लिखना वसं= रहनी बंध = बाँधना उपयुक्त क्रियारूप लिखो : (ख) सा. अहं. ताओ. ताओ. अम्हे. (हस) । (धाव)। (णच्च) । (इच्छ) । । पासामो । लिहन्ति । प्राकृत में क्रियाओं के अन्य रूप भी प्रयुक्त होते हैं, जिनका विवेचन आगामी प्राकृत स्वयं शिक्षक खण्ड 2 में किया जावेगा। यहाँ क्रियाओं के एक रूप को ही प्रयुक्त किया गया है । प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ११ गिण्ह निर्देश : आगे के क्रिया-पाठों के अभ्यास के लिए निम्न सभी क्रियाओं, संज्ञाओं एवं अव्ययों को याद करलें। अकारान्त क्रियाएँ : पास = देखना कर = करना गच्छ जाना ग्रहण करना इच्छ इच्छा करना नम नमन करना खेल खेलना जाण जानना पढ = पढ़ना धाव = दौड़ना ___ =. सुनना हस = हँसना भुंज = भोजन करना णच्च = नाचना पुच्छ = पूछना सेव = सेवा करना कह • = कहना सय = सोना खण = खोदना अच्च = पूजा करना आ, ए एवं ओकारान्त क्रियाएँ : . दा = देना पा = पीना गा = गाना ठहरना खा = खाना ले जाना झा = ध्यान करना हो = होना कर्म-संज्ञाएँ : विज्जालयं = विद्यालय = कथा चित्तं = चित्र पत्तं . = पण्हें दव्वं कज्ज = कार्य कन्दुअं गेंद गीत शास्त्र रोटिअं रोटी पोत्थ = पुस्तक फलं = फल. जलं = पानी अप्पं = आत्मा ___ = दूध वत्थं = वस्त्र वागरणं __= व्याकरण पुण्णं = पुण्य जसं यश धन गीअं सत्थं दुद्ध अव्यय : पइदिण = प्रतिदिन अज्ज = आज कल्ल = कल अवस्स = अवश्य अंत बहि कि कत्थ = भीतर = बाहर = क्या = कहाँ . Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १२ (क) अकारान्त क्रियाएँ : वर्तमानकाल. एकवचन बहुवचन अहं पासामि = मैं देखता हूँ। अम्हे पासामो = हम सब देखते हैं। तुमं पाससि = तुम देखते हो। तुम्हे पासित्था = तुम सब देखते हो। सो पासइ = वह देखता है। ते पासन्ति = वे देखते हैं। उदाहरण वाक्य: अहं विज्जालयं गच्छामि मैं विद्यालय जाता हूँ। तुमं जसं इच्छसि तुम यश को चाहते हो। सो तत्थ कन्दुअं खेलइ वह वहाँ गेंद खेलता है। अम्हे वागरणं पढामो हम व्याकरण पढ़ते हैं। तुम्हे सत्थं सुणित्था तुम सब शास्त्र सुनते हो। ते अत्थ भंजति वे यहाँ भोजन करते हैं। सा किं करइ? वह क्या करती है? . सा पत्तं लिहइ वह पत्र लिखती है। ताओ कहं कहन्ति =. वे (स्त्रियाँ) कथा कहती हैं। ते पण्हं पुच्छन्ति = वे प्रश्न पूछते हैं। प्राकृत में अनुवाद करो : . .हम सब नमन करते हैं। वह धन ग्रहण करता है। तुम क्या करते हो? मैं पुस्तक पढ़ता हूँ। वे सब वहाँ दौड़ते हैं। वह यहाँ नाचती है। तुम सब प्रतिदिन सेवा करते हो। वे (स्त्रियाँ) आत्मा को जानती हैं। वह वहाँ खेलता है। वे भीतर पूजा करते हैं। क्रियाकोश : भण = कहना आगच्छ = आना पेस = भेजना कीण = खरीदना जिण = जीतना बीह = डरना कंद = रोना पाल = पालन करना जिंघ = सूंघना सीख = सीखना अड = घूमना घोस= घोषणा करना गम = व्यतीत होना जंप = बोलना घाय = मारना दह = जलना चिट्ठ = बैठना णिम्म = बनाना छुट्ट = छूटना तुल = तौलना निर्देश : इन क्रियाओं के तीनों पुरुषों और दोनों वचनों में वर्तमान काल के रूप लिखो और वाक्यों में उनका प्रयोग करो। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) आ ए एवं ओकारान्त क्रियाएँ : एकवचन अहं दामि = मैं देता हूँ। तुमं दासि = तु देते हो। सो दाइ = वह देता है। बहुवचन अम्हे दामो = हम देते हैं। तुम्हे दाइत्था = तुम देते हो। ते दान्ति = वे देते हैं। उदाहरण वाक्य : . - अहं गीअं गामि मैं गीत गाता हूँ। तुमं तत्थ ठासि तुम वहाँ ठहरते हो। ... सो फलं खाइ वह फल खाता है। ते किं णेति . वे क्या ले जाते हैं? अहं अप्पं झामि मैं आत्मा को ध्याता हूँ। अम्हे दुद्धं पामो = हम सब दूध पीते हैं। तत्थ किं होई = वहाँ क्या होता है ? प्राकृत में अनुवाद करो : __मैं वहाँ ठहरता हूँ। तुम यहाँ गाते हो। वह इस समय ध्यान करता है। वे नहीं देते हैं। हम सब वहाँ ले जाते हैं। तुम. सब यहाँ खाते हो। यहाँ क्या होता है ? मैं धन देता हूँ। अभ्यास E . की पूर्ति कीजिए : ... पेस)। अहं.............(बीह)। ...भण)। (जिण)। --(सीख)। -कहामि। ...खाअइ। णेति। आगच्छसि। कीणइ। ..कन्दामो। जिंघामि। ...पालित्था। पासि। .........णच्चन्ति। ................होइ। ... . तत्थ. . - खण्ड १ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १३ (क) अकारान्त क्रियाएँ : भूतकाल एकवचन बहुवचन अहं पासीअ = मैंने देखा। अम्हे पासीअ हम सबने देखा। तुमं पासीअ = तुमने देखा। तुम्हे पासीअ= तुम सबने देखा। सो पासीअ = उसने देखा। ते पासीअ= उन सबने देखा। उदाहरण वाक्य : अहं तत्थ गच्छीअ = मैं वहाँ गया। . . . तुमं दव्वं इच्छीअ = तुमने धन को चाहा। सो कल्ल कन्दअं खेलीअ = उसने कल गेंद खेली। अम्हे पोत्थअं पढ़ी = हम सबने पुस्तक पढ़ी। तुम्हे अज्ज सत्थं सुणीअ = तुम सबने आज शास्त्र सुना। ते रोदिअं भुंजीअ = उन्होंने रोटी खायी। सा कज्जं करीअ = उस (स्त्री) ने कार्य किया। सो वागरणं लिहीअ = उसने व्याकरण लिखी। ते कहं कहीअ ___ = • उन्होंने कथा कही। . अम्हे अज्ज पण्हं पुच्छीअ = हमने आज प्रश्न पूछा। .. प्राकृत में अनुवाद करो : तुम सबने नमन किया। उसने धन ग्रहण किया। तुमने क्या किया? मैंने पुस्तक पढ़ी। हम सब वहाँ दौड़े। वह (स्त्री) कल नाची। उन्होंने सेवा नहीं की। उन (स्त्रियों) ने नहीं जाना । उसने गेंद खेली। उन्होंने प्रतिदिन पूजा की। क्रियाकोश : फास= छूना उड़े = उड़ना गज्ज = गर्जना जग्ग= जागना थुण = स्तुति करना तर = तैरना . कलह = झगड़ना कस्स= जोतना लज्ज= लजाना खम = क्षमा करना. जण= उत्पन्न करना जूर = खेद करना ढक्क= ढकना दूस = दूषण लगाना तक्क= तर्क करना पचपकाना दरिस = दिखलाना पहर = प्रहार करना तिप्प = संतुष्ट होना पत्थर = बिछाना निर्देश : इन क्रियाओं के तीन पुरुषों एवं दोनों वचनों में भूतकाल के रूप लिखो और उनका वाक्यों में प्रयोग करो। प्राकृतं स्वयं-शिक्षक Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) आ, ए एवं ओकारान्त क्रियाएँ : • एकवचन बहुवचन .. .. अहं दाही = मैंने दिया। अम्हे दाही = हम सब ने दिया। तुमं दाही = तुमने दिया। तुम्हे दाही = तुम सब ने दिया। सो दाही = उसने दिया। ते दाही = उन्होंने दिया। उदाहरण वाक्य : __ अहं कल्ल गीअं गाही = . मैंने कल गीत गाया। तुमं तत्थ ठाही = तुम वहाँ ठहरे। सो राटिअं खाही = उसने रोटी खायी। - सा अप्पं झाही उस (स्त्री) ने आत्मा को ध्याया। • ते किं णेही वे क्या ले गये? अम्हे दुद्धं पाही - हमने दूध पीया। तत्थ किं होही . = वहाँ क्या हुआ? प्राकृत में अनुवाद करो : वह कहाँ ठहरा? तुमने यहाँ गीत गाया। उसने कल ध्यान किया। उन्होंने धन नहीं दिया। हम सब ने यहाँ दूध पीया । तुम वस्त्र वहाँ ले गये। कल यहाँ क्या हुआ? मैंने यहाँ रोटी खायी। अभ्यास रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : (क) अहं... थुण)। सो तत्थ. -(कलह)। . ते वत्थं- --(किण)। सा ण.....- (लज्ज)। (ख) . ME -----कस्सी । --- -.तरी। .....फासी। झत्ति जग्गी। ण खमी। ------झाही। ...लिही। | the EEEEE . ...भुंजी। ताओ....----- -पुच्छी। अम्.....----.सुणा। तुम....---कलही। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १४ अस धातु विद्यमान होना : वर्तमानकाल एकवचन बहुवचन (प्र.पु) अहं अम्हि = मैं हूँ। अम्हे म्हो = हम हैं। (मपु) तुमं असि = तुम हो। तुम्हे थ= तुम सब हो। (अपु) सो अत्थि = वह है। ते संति = वे हैं। भूतकाल एकवचन बहुवचन . अहं अहेसि/आसि = मैं था। अम्हे अहेसि/आसि= हम थे। तुमं अहेसि/आसि = तुम थे। तुम्हे अहेसि/आसि = तुम सब थे। . सो अहेसि/आसि = वह था। ते अहेसि/आसि = वे सब थे। . .. उदाहरण वाक्य : . अहं अत्थ अम्हि = . मैं यहाँ हूँ। तुमं तत्थ असि . तुम वहाँ हो। सो कत्थ अस्थि वह,कहाँ है। अहं तत्थ अहेसि मैं वहाँ था। सो तत्थ ण आसि वह वहाँ नहीं था। ते कल्ल तत्थ अहेसि . वे सब कल वहाँ थे। सो अत्थ अस्थि = वह, यहाँ है। सा तत्थ अस्थि - = वह (स्त्री) वहाँ है। ताओ कत्थ संति = . वे स्त्रियाँ कहाँ हैं? ते अत्थ संति = वे यहाँ हैं। प्राकृत में अनुवाद करो : वहाँ पुस्तक है। यहाँ दूध है। मैं वहाँ हूँ। वह कहाँ है? वे सब यहाँ. थे। तुम वहाँ थे। हम सब यहाँ हैं। वह वहाँ नहीं है। तुम यहाँ नहीं थे। क्या वह वहाँ था? वह स्त्री कहाँ थी? हिन्दी में अनुवाद करो : अत्थ विज्जालयं अत्थि। तत्थ चित्तं नत्थि। पत्तं कत्थ आसि? सो तत्थ अहेसि । ते अत्थ ण संति। ताओ कत्थ आसि। तुम्हे तत्थ त्था। अम्हे कल्ल तत्थ अहेसि । अहं अत्थ अम्हि। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभ्यास .....तत्थ भुंजइ। .....ण गच्छामो। ----........तत्थ खेलित्था। . रिक्त स्थान भरिए : (क) सर्वनाम : . ...............अत्थ पढामि । .....----------सया णच्चंति । .............सणिय चलसि । (ख) अव्यय : अहं.............भुंजामि। ...........खेलइ। .. अम्हे.. ...............पासामो। (ग) क्रिया (वर्तमान) : सो कन्दुअं..... सा कन्दु - .....! ताओ कह.............! तुम्हे पइदि............। अहं गीअं..........। ' (घ) क्रिया (भूतकाल) : . ते वागरणं सा कल्ल.. तुमं दुद्धं..... ........। ते......... तुम........ तुम्हे........ गच्छन्ति। ...सेवसि। ...सयित्था। अम्हे वागरणं. ते पण्हं. अहं अत्थ.. सो अप्पं. अम्हे रोटिअं...... अहं पोत्थअं.... तुम्हे दव्वं......................... | .: हिन्दी में अनुवाद करो : .: अम्हे दाणिं सयामो। तुमं आगओ पाससि। सा मुहु चिंतइ। ते सइ ण भुंजन्ति । ताओ क़त्थ वसन्ति ? काओ अत्थ पढन्ति । तुम्हे सत्थं सुणित्था। तुमं तत्थ ण ठासि । ते पोत्थअं फासीअ। अहं अप्पं झाही। क्रियाकोश : कडू = खींचना विरम= अलग होना छिन्न = काटना संचय = इकट्ठा करना तूस = संतुष्ट होना सज्ज = सजाना दुह = दुहना सिह = चाहना पत्थ = प्रार्थना करना सोह = शोभित होना निर्देश : इन क्रियाओं के वर्तमान एवं भूतकाल के रूप बनाकर वाक्यों में प्रयोग . .. करो। - खण्ड १ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १५ (क) अकारान्त क्रियाएँ : भविष्यकाल एकवचन बहुवचन अहं पासिहिमि = मैं देखूगा। अम्हे पासिहामो = हम देखेंगे। तुमं पासिहिसि = तुम देखोगे। तुम्हे पासिहित्था = तुम सब देखोगे। सो पासिहिइ = वह देखेगा। ते पासिहिंति = वे देखेंगे। उदाहरण वाक्य अहं विज्जालयं गच्छिहिमि = मैं विद्यालय जाऊँगा। ... तुमं दव्वं इच्छिहिसि = तुम धन चाहोगे। सो तत्थ कन्दुअं खेलिहिइ . = वह वहाँ गेंद खेलेगा। अम्हे अवस्स पोत्थअं पढिहामो = हम अवश्य पुस्तक पढ़ेंगे। . तुम्हे पइदिण सत्थं सुणिहित्था _ = तुम लोग प्रतिदिन शास्त्र सुनोगे। ते तत्थ किं भुंजिहिंति = वे वहाँ क्या खायेंगें?... सा किं कज्जं करिहिइ = वह क्या कार्य करेगी? सो पोत्थअं लिहिहिइ = वह पुस्तक लिखेगा। ते अज्ज कहं कहिहिति . = वे आज कथा कहेंगे। अम्हे वागरणं पुच्छिहामो = हम व्याकरण पूछेगे। प्राकृत में अनुवाद करो : तुम सब नमन करोगे। वह धन ग्रहण करेगा। तुम वहाँ क्या करोगे? मैं आज पुस्तक पढूंगा। हम वहाँ दौड़ेंगे। वह (स्त्री) आज नाचेगी। वे अवश्य सेवा करेंगे। वे (स्त्रियाँ) क्या जानेंगी? वह प्रतिदिन गेंद खेलेगा। वे वहाँ पूजा करेंगे। क्रियाकोश : पड = गिरना हिंस= हिंसा करना हिण्ड = घूमना रूस क्रोधित होना । तव = तप करना धर = पकड़ना मुच्छ = मूर्छित होना मग्ग = मांगना धोव = धोना मुंच = छोड़ना पविस = प्रवेश करना फल= फलना पलाय = भाग जाना बोह = समझना फुल्ल = फूलना भंज = तोड़ना पीस = पीसना बोल्ल= बोलना पेच्छ = देखना मन्न = मानना निर्देश : इन क्रियाओं के तीनों पुरुषों और दोनों वचनों में भविष्यकाल के रूप लिखो और उनका वाक्यों में प्रयोग। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) आ, ए एवं ओकारान्त क्रियाएं : एकवचन बहुवचन . अहं दाहिमि = मैं दूंगा। अम्हे दाहामो = हम देंगे। तुमं दाहिसि = तुम दोगे। तुम्हे दाहित्था = तुम सब दोगे। सो दाहिइ = वह देगा। ते दाहिति= वे देंगे। उदाहरण वाक्य : अहं तत्थ गीअं गाहिमि / मैं वहाँ गीत गाऊंगा। 'तुमं अत्थ ठाहिसि तुम यहाँ ठहरोगे। सो रोटिअं खाहिइ. वह रोटी खायेगा। सा अप्पं झाहिइ वह आत्मा का ध्यान करेगी। ते संत्थं णेहिंति वह शास्त्र ले जायेंगे। अम्हे दुद्धं पाहामो हम दूध पीयेंगे। तत्थ किं होहिइ. वहाँ क्या होगा? प्राकृत में अनुवाद करो : वह कहाँ ठहरेगा। तुम आज गीत गाओगे। वह प्रतिदिन ध्यान करेगा। वे विद्यालय को धन देंगे। हम सब वहाँ दूध पीयेंगे। तुम वहाँ पुस्तक ले जाओगे। वहाँ क्या होगा? मैं यहाँ रोटी खाऊँगा। अभ्यास (ख) ..... रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : .....(पड)। ...(तव)। (धोव)। ...(मग्ग)। (धर)। धेणुं (गाय) दुहिहिइ। जिणिहिमि। खमिहित्था। .ण हिंसिहामो। ..सिहिहिसि। ...होहिइ। -भुंजिहिति। पढिहिमि। _मग्गहिसि। लिहिहिइ। पडिहामो। -दुहिहिति। तम........ खण्ड १ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १६ (क) अकारान्त क्रियाएँ : इच्छा/आज्ञा एकवचन बहुवचन अहं पासमु = मैं देखू। अम्हे पासमो = हम सब देखें। तुमं पासहि = तुम देखो। तुम्हे पासह = तुम सब देखो। सो पासउ = वह देखे। ते पासंतु = वे सब देखें। उदाहरण वाक्य : अहं विज्जालयं गच्छम मैं विद्यालय जाऊँ। तमं दव्वं इच्छहि तुम धन को चाहो। सो अत्थ न खेलउ वह यहाँ न खेले। अम्हे अज्ज वागरणं पढमो — हम आज व्याकरण पढ़ें। तुम्हे तत्थ सत्थं सुणह तुम सब वहाँ शास्त्र सुनो। : ते तत्थ 'भुंजंतु. वे वहाँ भोजन करें। . . सा अत्थ कज्ज करउ वह (स्त्री) यहाँ कार्य करे। सा पत्तं लिहउ वह पत्र लिखे। ताओ अत्थ कहं कहंतु वे (स्त्रियाँ) यहाँ कथा कहें। । ते वागरणं पुच्छंतु __= वे व्याकरण पूछे। प्राकृत में अनुवाद करो : . . हम सब नमन करें। वह धनं ग्रहण करे। तुम आज कार्य करो। मैं पुस्तक को पहूँ । वे सब वहाँ न दौड़े। वह (स्त्री) यहाँ नाचे। तुम सब प्रतिदिन सेवा करो। वे (स्त्रियाँ) यह न जानें। वह प्रतिदिन वहाँ खेले। वे भीतर पूजा करें। क्रियाकोश : होना रम . = रमण करना ताड = पीटना विहर · = विहार करना. हण मारना सद्दह = श्रद्धान करना बढ़ना निन्द = निन्दा करना गुंथ = गूंथना लंभ = प्राप्त करना मना करना तिम्म = भीगना साह = कहना लंघ = लांघना अच्छ = ठहरना सक्क = समर्थ होना . . अक्कोस = आक्रोश करना सर = याद करना आसंक = संदेह करना हरिस = खुश होना निर्देश : इन क्रियाओं के तीनों पुरुषों एवं दोनों वचनों में विधि (इच्छा) और आज्ञा के रूप लिखो तथा उनका वाक्यों में प्रयोग करो। हव प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) आकारान्त एकारान्त एवं ओकारान्त क्रियाएँ : एकवचन बहुवचन . अहं दामु = मैं हूं। अम्हे दामो = हम सब दें। तुमं दाहि = तुम दो। तुम्हे दाह = तुम सब दो। सो दाउ = वह दे। ते दांतु = वे सब दें। उदाहरण वाक्य : अहं तत्थ गीअं गामु मैं वहां गीत गाऊँ। 'तुमं अत्थ ठाहि तुम यहाँ ठहरो। सो पइदिण रोटिअं खाउ = । वह प्रतिदिन रोटी खावे। सा अप्पं झाउ . वह (स्त्री) आत्मा का ध्यान करे। ते चित्तं णेन्तु वे चित्र ले जाएँ। अम्हे दुद्धं पामो हम दूध पीयें। अज्ज तत्थ किं होउ आज वहाँ क्या हो? अत्थ गीउं ण गाहि = यहाँ गीत न गाओ। प्राकृत में अनुवाद करो : . वह कहाँ ठहरे। तुम आज गीत गाओ। वह प्रतिदिन ध्यान करे। वे धन दें। हम सब आज दूध न पीयें। तु वहाँ पुस्तक ले जाओ। आज वहाँ क्या हो? क्या मैं यहाँ .रोटी खाऊँ। पायो अभ्यास (ख)... रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : - . (क) सो ण.. हण)। तुर्म पइदिश... वड्ड)। .. . तत्थ कि............ --(हव)। -(ताड)। ... सा....- (गुंथ)। तत्थ रमउ। -अत्थ विहरंतु। ----सद्दहमु। .....ण निन्दमो। ....जसं लंभह । . 3. सेवंतु । चिट्ठ। ताओ... ___ अम्हे...... ... _णच्च्मो । सा...... ----------पाहि। तुम्हे...... ...ठाउ। झाह। खण्ड १ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ लिहिऊण सम्बन्ध कृदन्तं पासिऊण = देखकर करिऊण करके.. गच्छिऊण जाकर गिहिऊण ग्रहणकर इच्छिऊण इच्छाकर नमिऊण - नमनकर खेलिऊण खेलकर जाणिऊण जानकर पढिऊण पढ़कर धाविऊण दौड़कर .. सुणिऊण सुनकर हसिऊण हँसकर भुजिऊण भोजनकर णच्चिऊण नाचकर लिखकर सेविऊण सेवाकर पुच्छिऊण पूछकर सयिऊण सोकर : कहिऊण कहकर अच्चिऊण = . पूजाकर दाऊण देकर णेऊण ले जाकर गाऊण गाकर पाऊण पाकर खाऊण खाकर ठाऊण ठहरकर : झाऊण ध्यानकर ' होऊण होकर प्रयोग वाक्य : सो चित्तं पासिऊण लिहइ . वह चित्र को देखकर लिखता है। तुमं विज्जालयं गच्छिऊण पढसि = तुम विद्यालय जाकर पढ़ते हो। अहं जसं इच्छिऊण सेवामि = मैं यश की इच्छाकर सेवा करता हूँ। अम्हे पढिऊण खेलामो । = हम सब पढ़कर खेलते हैं। तुम्हे भुंजिऊण सयिहित्था . = तुम सब भोजन करके सोओगे। ते लिहिऊण पुच्छिहिति वे लिखकर पूछेगें। सा धाविऊण नमीअ उसने दौड़कर नमन किया। सो तत्थ ठाऊण अच्चीअ = उसने वहाँ ठहरकर पूजा की प्राकृत में अनुवाद करो : मैं हँसकर नमन करता हूँ। वह जानकर क्या करेगा? तुम देखकर पढ़ो। हम सब ध्यानकर पूजा करेंगे। वे सब व्याकरण पढ़कर क्या करेंगे? वह नाचकर सो गयी। मैंने वहाँ जाकर पत्र लिखा। वह पुस्तक पढ़कर प्रश्न पूछे । हिन्दी में अनुवाद करो : सो पुच्छिऊण जंपइ । ते अच्छिऊण आगच्छीअ। अम्हे पोत्थअं कीणिऊण पढामो । तुमं जिणिऊण जूरसि । अहं तुलिऊण पेसामि । सा दहिऊण कंदइ । प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैं १८ हेत्वर्थ कृदन्त पासिउं = देखने के लिए करिउं = करने के लिए गच्छिउं` = जाने के लिए गिहिउं = ग्रहण करने के लिए इच्छिउं = इच्छा करने के लिए नमिउं = नमन करने के लिए खेलिउ = खेलने के लिए जाणिउं = जानने के लिए पढिउँ = . पढ़ने के लिए धाविउं = दौड़ने के लिए सुणिउं = सुनने के लिए हसिउं = हँसने के लिए भुजिउं = भोजन के लिए . णच्चिउं के नाचने के लिए लिहिउं • = लिखने के लिए सेविउं = सेवा करने के लिए पुच्छिउं = पूछने के लिए सयिउं = सोने के लिए . कहिउं = कहने के लिए अच्चिउं = पूजा करने के लिए दाउं = देने के लिए - णे ले जाने के लिए गाउं = गाने के लिए पीने के लिए खाउं = खाने के लिए ठाउं = ठहरने के लिए झाउं __ = . . ध्यान करने के लिए होउं = होने के लिए प्रयोग वाक्य : अहं पढिउं विज्जालयं गच्छामि . = मैं पढ़ने के लिए विद्यालय जाता हूँ। : तुमं खेलिउं तत्थ गच्छीअ . = तुम खेलने के लिए वहाँ गये। सो पुण्णं करिउं अच्चिहिइ = वह पुण्य करने के लिए पूजा करेगा। ते धणं दाउं इच्छंति = वे धन देने के लिए इच्छा करते हैं। अम्हे लिहिउं पढीअ = हम सब ने लिखने के लिए पढ़ा है। • तुम्हे नमिउं धावीअ = तुम सब नमन करने के लिए दौड़े। ... . सा गाउं पुच्छइ . = वह गाने के लिए पूछती है। सो दुद्ध पाउं इच्छइ = वह दूध पीने के लिए इच्छा करता है। प्राकृत में अनुवाद करो : .. वह खेलने के लिए वहाँ जाये। तुम चित्र देखने के लिए जाओगे। क्या मैं पढ़ने के लिए जाऊँ? वे सब पूजा करने के लिए वहाँ ठहरते हैं। हम सब कार्य करने के लिए वहाँ गये। वह गाने के लिए इच्छा करती है। तुम सब यहाँ क्या कहने के लिए ठहरे हो? मैं भोजन करने के लिए वहाँ जाऊँगा। हिन्दी में अनुवाद करो : । सो तविउं पुच्छइ। ते धोविउं वत्थं ऐति। सा पीसिउं तत्थ गच्छइ । . अहं मुचिउं भणामि। अम्हे बोहिउं आगच्छीअ। खण्ड १ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ अभ्यास निर्देश : इन नियमों के सम्बन्ध कृदन्त के रूप बनाइये और उनका वाक्यों में प्रयोग कीजिए:(क) रंज = आसक्त होना गण = गिनना वंच = ठगना उज्जम = प्रयत्न करना उवदिस = उपदेश देना आदिस = . . आज्ञा देना.... अवगण = अपमान करना उट्ठ . = उठना .. फाड़ = फाड़ना लव = कहना मोत्त = छोडना दट्र = देखना. निर्देश : इन क्रियाओं के हेत्वर्थ कृदन्त के रूप बनाइये और उनका वाक्यों में प्रयोग कीजिए.सिंच = सींचना परिहा = पहिनना आणे = ले आना ठव . = स्थापना करना . चक्ख स्वाद लेना . वस . . = । रहना वण्ण = वर्णन करना वह वहना निमंत = निमन्त्रण करना सिव्व = सीना अहं. (दट्ठ) कहिहिमि । तुम..... (गण) गिण्हहि । सो वत्थं...._(फाड) णेही। तुम्हे..... (मोत्त) न गच्छिहिमि ।। तुम्हे.... -हिण्ड) सयित्था। (ग) सम्बन्ध कृदन्त की क्रियाएँ बनाकर भरिए : सो... (वंच) गच्छी। ....रंज) भमंति। ------------अवगुणं खामइ । --(उ8) दुद्धं पाइ। अम्हे........(उज्जम) भुंजामो। (घ) हेत्वर्थ कृदन्त को क्रियाएँ बनाकर भरिए : सो जलं...- (सिंच) पुच्छइ। ते...........(वष्ण) लिहन्ति। सा फलं.........(आणे) गच्छीअ। सो... ......(वस) पुच्छी। सो वत्थं.........(सिव्व) आणेइ। अहं...- (चक्ख) भुंजामि। अम्. ... (निमंत) गच्छामो। सो वत्थं... --(परिहा) गच्छइ। अहं चित्तं.... ......(ठव) अम्हि। अहं अत्थ......... -(वस) ठाहिमि। २६ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठः २० . . न्ति नियम : क्रियारूप क्रिया-प्रत्यय : नि. ९ : मूल क्रिया या शब्द में जो अन्य अक्षर या स्वर जुड़ते हैं उन्हें प्रत्यय कहा जाता है। यथा-"पासइ" क्रिया के रूप में "पास" मूल क्रिया है एवं “इ” प्रत्यय . है। इसी तरह प्रत्येक काल की क्रियाओं के अलग-अलग प्रत्यय होते हैं, जो सभी क्रियाओं में प्रयोग व काल के अनुसार जुड़ते रहते हैं। वर्तमानकाल : . एकवचन बहुवचन . मि (म. पु) - सि इत्था (अ. पु) नि. १०. : प्र. पु. के प्रत्यय मि, मो क्रिया में जुड़ने के पूर्व क्रिया के 'अ' को दीर्घ आ हो जाता है। यथा- पास + मि = पास् + आ + मि = पासामि, पास + मो = पासामो भूतकाल : नि. ११. : भूतकाल में सभी अकारान्त क्रियाओं में तीनों पुरुषों एवं दोनों वचनों में 'ईअ' प्रत्यय जुड़ता है। यथा-पास + ईम = पासी। .नि. १२. : आ, ए एवं ओकारान्त क्रियाओं में सी, ही, हीअ प्रत्यय जुड़ते हैं। किन्तु . . प्रस्तुत पुस्तक में 'ही' प्रत्यय वाले रूप प्रयुक्त हुए हैं। यथा-दा + ही . . दाही, णे + ही = णेही। भविष्यकाल नि. १३. : भविष्यकाल की क्रियाओं में कई प्रत्यय जुड़ते हैं। किन्तु यहाँ निम्न एक प्रत्यय को ही प्रयुक्त किया गया है। इस प्रत्यय के जुड़ने के पूर्व क्रिया के 'अ' को 'इ' हो गया है। यथा- पास् + इ + हिमि = पासिहिमि। एकवचन बहुवचन (प्र. पु) . हिमि हामो (म. पु) हिसि हित्था (अ. पु) · इच्छा (विधि) / आज्ञा : नि. १४. : विधि एवं आज्ञा वाली क्रियाओं में निम्न प्रत्यय जुड़ते हैं: हिंति .. .... (म. पु) (अ. पु) खण्ड १ २७ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्ध कृदन्त : नि. १५. : जब कर्ता एक कार्य को समाप्त कर दूसरा कार्य करता है तो पहले किये गये कार्य के लिए सम्बन्ध कृदन्त का व्यवहार होता है 1 नि. १६. : क्रिया से सम्बन्ध कृदन्त रूप बनाने के लिए प्राकृत में तुं, तूण आदि आठ. प्रत्यय लगते हैं। यहाँ केवल 'तूण' प्रत्यय प्रयुक्त हुआ है (ऊण) प्रत्यय लगाने के पूर्व क्रियाओं के 'अ' को 'इ' हो जाता 1 । तण यथा पास + इ + ऊण = पासिऊण (देखकर) नि. १७. : आ, ए एवं ओकारान्त क्रियाओं में 'ऊण' प्रत्यय हैं। यथा-दा + ऊण = दाऊण, णे + ऊण होऊण । हेत्वर्थ कृदन्त : नि. १८. : जब कर्ता किसी अभीष्ट कार्य के लिए कोई दूसरी क्रिया करता है तो वहाँ अभीष्ट कार्य को सूचित करने के लिए हेत्वर्थ कृदन्त का प्रयोग होता है। नि. १९. : इस अभीष्ट कार्य वाली क्रिया में तुं (उं) प्रत्यय जुड़ जाता है, तथा अकारान्त क्रियाओं के 'अ' को 'इ' हो जाता है । यथा निर्देश : मूल क्रिया पास गच्छ सुण पास् + इ + उं = पासिउं (देखने के लिए)। उपर्युक्त पाठों के क्रिया-कोश में आपने जो नयी क्रियाएँ सीखी हैं, उनके विभिन्न कालों में रूप लिखिए और उनका एक चार्ट बनाइये । यथा २८ क्रियाओं का परिचय दीजिए : पढिहि भुंजउ मऊण व. पासइ हसि जंपहि कीणित्था पढमु भू. पासीअ लगाकर रूप बनाये जाते = = णेऊण हो + ऊण = भवि. मूल क्रिया पढ पासिहिइ आज्ञा स.कृ. हे. कृ पासउ काल पुरुष भविष्य अन्य पुरुष पासिऊण पासिउं वचन एक वचन प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २१ मिश्रित अभ्यास हिन्दी में अनुवाद करो : सो भणिहिइ। सो ताडी। - अहं चित्तं पेसिहिमि। अहं दव्वं लंभीअ। तुमं वागरणं सीखिहिसि। तत्थ किं हवीअ? ते अज्ज आगच्छिहिति ।. ते ण सद्दही। अम्हे वत्थं कोणामो। तुमं जलं सिंचहि। सा तत्थ कलहइ। . अहं फलं चक्खमु। ताओ लज्जंति। . सा वत्थं सिव्वउ। अहं थुणामि। ते तत्थ वसन्तु। सो पडिऊण उट्ठइ। . सो उवदिसिउं भणइ। . अहं वत्थं धोविऊण गच्छामि। अहं हिण्डिउं गच्छामि । ते मग्गिऊण जंति। ते दट्ठिउं आगच्छीअ । अम्हे रूसिंऊण गच्छीअ। सो चित्तं फाडिउं ण गच्छिहिइ । __प्राकृत में अनुवाद करो : . ..... . वह कल रोया। तुम प्रतिदिन बढ़ते हो। मैं नहीं डरूँगा। वह यहाँ विहार करता है। वे पालन करेंगे। वे निन्दा नहीं करते हैं। तुम अवश्य जीतोगे। वस्त्र यहाँ लाओ। वह वस्त्र को छूती है। तुम यहाँ रहो। ... मैं वहाँ तैरता हूँ। तुम वस्त्र पहिनो।.. वे यहाँ जोतते हैं। वे निमन्त्रण करें। वहाँ वह गर्जता है। मैं यहाँ आसक्त होता हूँ। वह गाय (घेणु) दुहेगी। वह अपमान नहीं करता है। में वहाँ तप करूँगा। वे सदा प्रयत्न करते हैं। वे हिंसा नहीं करते हैं। वह आज्ञा देता है। तुम सब धन को चाहते हो। वे वहाँ खुश होंगे। खण्ड १ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २२ निर्देश: संज्ञा शब्दों के आगामी पाठों के अभ्यास के लिए निम्नलिखित क्रियाओं, संज्ञाओं एवं अव्ययों को याद करलें । क्रियाकोश : अभिरुय ३० उप्पन्न मोड चिण जाय जुज्झ झर दुगुञ्छ शब्दकोश : गुण जण पुल्लिंग शब्द अग्गि जम्म जीव = = अवगुण आवण = देस दोस तड तन्तु तिलय तेअ पइ पंडिअ परिग्गह परिणअ सामि = = = = = = = = = = अच्छा लगना उत्पन्न होना मोड़ना चुनना पैदा होना युद्ध करना झरना घृणा करना अग्नि अवगुण दुकान गुण लोग जन्म जीव तट धागा तिलक तेज देश दोष पति पंडित परिग्रह विवाह स्वामी णीसर पच्चाअ पराजय मुण पसंस रोअ लिप्प विक्कीण पव्वअ पाइय पासाय पीअ भंडाआर भमर भिच्च मंदिर महुर मुक्ख मुल्ल ॐ रग रत्त ववहार वाउ विणय संजम पंथ = = |||||||||||||||||||||||| निकलना विश्वास करना हारना जानना प्रशंसा करना. पसन्द करना लिप्त होना बेचना पर्वत प्राकृत महल पीला भंडार भौंरा नौकर मंदिर मधुर मूर्ख कीमत रंग लाल व्यापार हवा विनय संयम रास्ता प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काला लावण्ण = लावण्य वर = अच्छा विचित्त = विचित्र संवेयण = संवेदन संग्गहण = संग्रह सच्च = सत्य सच्छ = स्वच्छ सट्ट = शठता समप्पण = समर्पण सम्माण = सम्मान सर = तालाब सासण = शासन धैर्य प्राण तारे नपुंसक लिंग.शब्द : अण्णाण = अज्ञान अभिहाण = नाम आकड्डण = आकर्षण उववण = उपवन कसिण = घय घी जीवण . जीवन धिज्ज तिण तृण (घास) णाण ज्ञान बर्तन पाण रज्ज __ = राज्य . स्त्रीलिंग शब्द : ... आसत्ति = . आसक्ति खमा = क्षमा . तारगा = भत्ति . = भक्ति भासा = . भाषा । रज्जु = . रस्सी अव्यय अणेअ = अनेक अम्मो = आश्चर्य अलं = बस अवस्स अवश्य इस प्रकार एगया = . एक बार कल्ल ___= . कल कहिं = कहाँ किं. केरिसो = कैसा केवल = केवल खिप्पं = पुणो = फिर से लआ = लता लज्जा = लज्जा विज्जा = विद्या सड्डा = श्रद्धा सत्ति = शक्ति सोहा = शोभा . जं . = .जो जहा = जैसे जहिं = जहाँ जाव = जब तक तहा = उस प्रकार से तहिं = वहाँ तारिसो = वैसा तब तक दुट्ट = खराब धुवं = निश्चय तओ = उसके बाद पच्छा = बाद में . पुव्व = पहले क्यों शीघ्र खण्ड १ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २३ अर्थ छत्तो अकारान्त संज्ञा शब्द (पुल्लिग) : प्रथमा विभक्ति शब्द एकवचन बहुवचन बालअ बालक बालओ बालआ पुरिस = आदमी पुरिसो पुरिसा छत्त = छात्र .छत्ता सीस = शिष्य सीसो सीसा - णर = मनुष्य णरो .. णरा ... उदाहरण वाक्य : एकवचन बालओ सीखइ बालक सीखता है। पुरिसो दाणिं लिहइं = आदमी इस समय लिखता है। छत्तो पण्डं पुच्छइ = ___ छात्र प्रश्न पूछता है। : सीसो सया झाइ शिष्य सदा ध्यान करता है। णरो दव्वं गिण्हइ = मनुष्य धन ग्रहण करता है। बहुवचन बालआ सीखन्ति बालक सीखते हैं। पुरिसा दाणिं लिहन्ति = आदमी इस समय लिखते हैं। छत्तो पण्हं पृच्छन्ति छात्र प्रश्न पूछते हैं। सीसो सया झान्ति = शिष्य सदा ध्यान करते हैं। णरा दव्वं गिण्हन्ति = मनुष्य धन ग्रहण करते हैं। शब्दकोश (पु.) : राजा मेह = बुद्धिमान . मिअ योद्धा सीह - = सिंह · = देवता मोर = मोर आयरिअ आचार्य चोर = चोर प्राकृत बनाओ : - राजा पालन करता है। बुद्धिमान पुस्तक पढ़ता है। योद्धा जीतता है। देवता सन्तुष्ट होता है। आचार्य कथा कहता है। बादल गरजता है। मृग डरता है। सिंह वहाँ रहता है। मोर नाचता है। चोर यहाँ आता है। निर्देश : इन्हीं वाक्यों की बहुवचन में प्राकृत बनाइए। निव बुह भड प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २४ प्रथमा विद्वान् कवी कुलपति इकारान्त एवं उकारान्त संज्ञा शब्द (पु.) : अर्थ एकवचन बहुवचन सुधि = सुधी सुधिणो कवि = कवि कविणो कुलवइ = कुलवई कुलवइणो सिसु = बच्चा सिसू सिसुणो साहु = साधु साहू साहुणो उदाहरण वाक्य : एकवचन सुधी उवदिसइ विद्वान् उपदेश देता है। कवी पत्तं लिहई कवि पत्र लिखता है। कुलवई दव्वं गिण्हई = . कुलपति धन ग्रहण करता है। सिसू तत्थ खेलइ. = . बच्चा वहाँ खेलता है। साहू पण्हं पुच्छइ = साधु प्रश्न पूछता है। बहुवचन सुधिणो उवदिसन्ति विद्वान उपदेश देते हैं। कविणो लिहन्ति कवि लिखते हैं। कुलवइणो किं गिण्हन्ति = कुलपति क्या ग्रहण करते हैं? सिसुणो तत्थ खेलन्ति :: = बच्चे वहाँ खेलते हैं। साहुणो किं पुच्छन्ति = साधु क्या पूछते हैं? शब्दकोश (पु.) : सेट्टि · = सेठ नाणि = ज्ञानी -हत्थि = हाथी . पक्खि = पक्षी • जोगि = योगी उदहि = समुद्र तरु = वृक्ष मुणि = मुनि भिक्खु = भिक्षु धणु = धनुष 'सवस्सि. = तपस्वी . पिउ = पिता पसु = पशु भूवइ = राजा पहु = स्वामी बाहु = भुजा गहवइ . = मुखिया रिउ = शत्रु फरसु= कुल्हाड़ा प्राकृत में अनुवाद करिए : तपस्वी कहाँ तप करता है? राजा क्रोध नहीं करता है। मुखिया प्रशंसा करता है। ज्ञानी लिप्त नहीं होता है। पक्षी प्रतिदिन उड़ता है। शत्रु निन्दा करता है। धनुष टूटता . है। वृक्ष गिरता है। निर्देश : इन्हीं वाक्यों के बहुवचन में प्राकृत के वाक्य बनाइये। गुरु = खण्ड १ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ नियम : प्रथमा (पु. संज्ञा शब्द) नि. २०. : पुरुषवाचक संज्ञा शब्दों में अकारान्त शब्द के आगे प्रथम विभक्ति में (क) एकवचन में 'ओ' प्रत्यय लगता है। जैसे- . पुरिस = पुरिसो, णर = णरो, देव = देवो आदि। (ख) बहुवचन में 'आ' प्रत्यय लगता है। जैसे पुरिस = पुरिसा, णर = णरा, देव = देवा आदि। ... नि. २१. : इकारान्त शब्दों के आगे प्रथमा विभक्ति में (क) एकवचन में 'ई' प्रत्यय लगता है। अतः शब्द की 'इ' दीर्घ 'ई' हो जाती है। जैसे–कवि = कवी, सेट्ठि = सेट्ठी, हस्थि = हत्थी, आदि। .. (ख) बहुवचन में शब्दों के साथ ‘णो' जुड़ जाता है। जैसे कवि = कविणो, सेट्ठि = सेट्ठिणो, हत्थि = हथिणो, आदि । नि. २२. : उकारान्त शब्दों का 'उ' प्रथमा एकवचन में (क) दीर्घ 'ऊ' हो जाता है। जैसे-, .. सिसु = सिसू, विउ = विऊ, साहु = साहू, आदि। (ख) उकारान्त बहुवचन में शब्द के साथ ‘णो' जुड़ जाता है। जैसेसिसु = सिसुणो, विउ = विरुणो, साहु = साहुणो, आदि। __ अभ्यास हिन्दी में अनुवाद करो : निवो खमीअ। मेहा गज्जन्ति । मोरा णच्चन्ति । देवा तूसीअ । भूवइणो भणिहिइ । मुणिणो ण हिंसीअ । पक्खिणो उड्डेहिति । नाणी सया जिणइ । पहू पसंसइ । रिउणो निन्दिहिति । गुरुणो कहं भणीअ। पिऊ तत्थ णच्चिहिइ । प्राकृत में अनुवाद करो : मृग काँपता है। सिंह गर्जन करेगा। आचार्य उपदेश देंगे। योद्धा वहाँ लड़े। कुलपति प्रश्न पूछेगा। तपस्वी ने वहाँ तप किया। मुखिया वहाँ रहते हैं। प्राणी उत्पन्न होंगे। वे आज वृक्षों को काटेंगे। तुम धनुष तोड़ो। पशु वहाँ जायेंगे। 1. प्राकृत वैयाकरणों ने प्राकृत शब्दों के एकवचन एवं बहुवचन में कई प्रत्ययों का विकल्प से विधान किया है। किन्तु इस पुस्तक में सरलता की दृष्टि से केवल एक-एक प्रत्यय का ही प्रयोग किया गया है। यही दृष्टिकोण आगे की सभी विभक्तियों में रखा गया है। ३४ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २६ अर्थ एकवचन बालाओ आकारान्त संज्ञा शब्द (स्त्री.) : बहुवचन बाला बालिका बाला माआ = माता माआ माआओ सुण्हा = बहू सुण्हा सुहाओ माला __= . माला माला मालाओ उदाहरण वाक्य: एकवचन बाला वड्डइ बालिका बढ़ती है। माआ अच्चइ माता पूजा करती है। सुण्हा लज्जइ बहू लजाती है। माला सोहइ माला शोभित होती है। बहुवचन बालाओ वडन्ति बालिकाएं बढ़ती हैं। माआओ अच्चन्ति माताएं पूजा करती हैं। सुण्हाओ लज्जन्ति बहुएं लजाती हैं। मालाओ सोहन्ति __= . मालाएं शोभित होती हैं। . शब्दकोश (स्त्री.) : विज्जुला = बिजली . कमला = लक्ष्मी सरिआ = गोवा = ग्वालिन ' नावा = नाव छालिया = बकरी कन्ना . = कन्या । भज्जा = पत्नी धूआ = पुत्री निसा. = रात्रि प्राकृत में अनुवाद करो : बिजली चमकती है। नदी बहती है। नाव तैरती है। कन्या कहती है। पुत्री गीत गाती है। लक्ष्मी यहाँ आती है। ग्वालिन दूध दुहती है। बकरी डरती है। पत्नी वस्त्र सीती • है। रात्रि बीतती है। निर्देश : इन्हीं वाक्यों की बहुवचन में प्राकृत बनाइए। नदी खण्ड १ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २७ इ, ई, उ एवं ऊकारान्त संज्ञा शब्द (स्त्री.) : अर्थ जुवइ = • नदी शब्द युवति एकवचन जुवई नई.. नई साडी प्रथमा. बहुवचन जुवईओ नईओ साडीओ धेणूओ बहूओ सासूओ : साडी गाय घेणू धेणु . = बहू सासू = उदाहरण वाक्य: बहू सासू एकवचन जुवई पइदिणं अच्चइ = युवति प्रतिदिन पूजा करती है। नई सणिअं वहडू = नदी धीरे बहती है। साडी सोहइ साड़ी अच्छी लगती है। धेणू दुद्धं दाइ गाय दूध देती है। बहू सया सेवइ = बहू सदा सेवा करती है। सासू वत्थं कीणइ = सास वस्त्र खरीदती है। बहुवचन , जुवईओ पइदिणं अच्चन्ति = युवंतियाँ प्रतिदिन पूजा करती हैं। नईओ सणिअं वहन्ति = नदियाँ धीरे बहती हैं। साडीओ सोहन्ति = साड़ियाँ अच्छी लगती हैं। घेणूओ दुद्धं दान्ति = गायें दूध देती हैं। बहूओ न सेवन्ति = बहुएं सेवा नहीं करती हैं। . सासूओ न लज्जन्ति = ‘सास नहीं लजाती है। शब्दकोश (स्त्री.) : कुमारी = कुंआरी धाई = धाय - . बहिणी = बहिन लच्छी = लक्ष्मी इत्थी = स्त्री नडी = नटी (नर्तकी) रत्ति = रात्रि मऊरी = मोरनी दासी = नौकरानी विज्जु = बिजली निर्देश : इन शब्दों के एकवचन और बहुवचन में प्राकृत के वाक्य बनाइए। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ: अ, इ एवं उकारान्त संज्ञा शब्द (नपुं. ) : अर्थ शब्द णयर फल पुप्फ फूल कमल = कमल घर खेत खण्ड १ सत्थ वारि दहि वत्थु सर्वनाम (नपुं.) इम त उदाहरण वाक्य : : = नगर ||||||||||||||||||| = फल = = घर = = = = || || = = = खेत, मैदान एकवचनइमं यरं अस्थि तं फलं अस्थि पुप्फं अि कमलं अस्थि घरं अत्थि खेत्तं अस्थि सत्थं अत्थि वारिं अस्थि दहिं. अतिथ वयुं = शास्त्र पानी दही वस्तु = यह वह = = = घर है। = खेत है। 1 = = • यह नगर है । = = = फूल है । कमल है। शास्त्र है। पानी है। एकवचन णयरं ही है। वस्तु है। फलं पुप्फं कमलं वह फल है सद्द सुह दुह रिण घरं खेतं सत्यं वारिं हिं वत्युं इमं । = = - बहुवचन णयराणि फलाणि पुप्फाणि कमलाणि घराणि खेत्ताणि सत्याणि वाणि दही वत्थूणि शब्द सुख दुःख कर्ज इमाणि ताणि बहुवचन इमाणि णयराणि संति = ये नगर हैं । ताणि फलाणि संति = वे फल हैं। = फाति फूल हैं। कमलाणि संति = कमल हैं। घर हैं। खेत हैं। घराणि संति खेत्ताणि संति सत्थाणि संति वारीणि संति शास्त्र हैं। पानी हैं। 1 दहीणि संति थूणि संत ही हैं। वस्तुएं हैं। शब्दकोश (नपुं. ) : भय भय सर = तालाब सअड गाड़ी सच्च कव्व = काव्य धण = धन सत्य = निर्देश : इन शब्दों के नपुं. एकवचन एवं बहुवचन में प्राकृत के वाक्य बनाइये | = २८ = = = = = प्रथमा कम्म कर्म वण जंगल = = ३७ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ २२ नियम : प्रथमा (स्त्री, नपुं.) स्त्रीलिंग शब्द : नि. २३. : (क) स्त्रीलिंग आकारान्त शब्द प्रथमा विभक्ति में एकवचन में यथावत् रहते हैं। उनमें कोई प्रत्यय नहीं जुड़ता। जैसे-बाला = बाला, सुण्हा = सुण्हा इत्यादि। . . __ (ख) बहुवचन में शब्द के आगे 'ओ' प्रत्यय जुड़ता है। . . . . जैसे-बाला = बालाओ, सुण्हा = सुहाओ आदि। . .' नि. २४. : इकारान्त शब्दों की 'इ' प्रथमा विभक्ति : (क) एकवचन में दीर्घ 'ई' हो जाती है। यथा-जुवइ = जुवई आदि। तथा ईकारान्त शब्द यथावत् । रहते हैं। जैसे-नई = नई साडी = साडी आदि। . . . (ख) बहुवचन में दीर्घ 'ई' होकर 'ओ' प्रत्यय जुड़ता है। जैसे-जुवइ = जुवईओ, नई = नईओ, साडी = साडीओ आदि। . नि. २५. : (क) उकारान्त शब्द प्रथमा विभक्ति.एकवचन में दीर्घ 'ऊ' वाले हो जाते हैं। यथा-घेणु = घेणू, सासू = सासू आदि। , (ख) बहुवचन में इनमें दीर्घ 'ऊ' होकर 'ओ' प्रत्यय लगता है। .. यथा-धेणु = घेणूओ, सासु = सासूओ आदि । नपुंसकलिंग शब्द : नि. २६. : (क) नपुंसकलिंग के अ, इ एवं उकारान्त शब्दों के आगे प्रथमा विभक्ति में एकवचन में अनुस्वार () प्रत्यय लगता है। जैसे-नयर = णयर, वारि = वारिं, वत्थु = वत्यु आदि । (ख) बहुवचन में अ, इ एवं उ दीर्घ हो जाते हैं तथा ‘णि' प्रत्यय जुड़ता है। जैसे–णयर = णयराणि, वारि = वारीणि, वत्थु = वत्यूणि आदि। (ग) नपुं. सर्वनामों में भी यही प्रत्यय लगते हैं। यथा-इम = इमं, त = तं, इम = इमाणि, त = ताणि। ' हिन्दी में अनुवाद करो तत्थ विज्जुला चमक्की। छालियाओ कत्थ गच्छन्ति । दासी पइदिणं सेविहिइ । तत्थ नडीओ णच्चीअ। सअडाणि सन्ति । रिणं अत्थि। धूआओ तत्थ पढन्ति । भारिया वत्थं कीणिहिइ । कुमारीओ अच्चन्ति । सुहाणि सन्ति । प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ३० सर्वनाम (पु, स्त्री.) : द्वितीया = को एकवचन अर्थ -बहुवचन अर्थ ममं = मुझको अम्हे = हम सब/हम दोनों को तुमं = तुमको तुम्हे = तुम सब/तुम दोनों को तं = उसको ते = उन सब/उन दोनों को तं = उसको ताओ = उन सब/उन सब को इमं = इसको इमे = इनको/इन दोनों को इमं = इसको इमाओ = इनको/इन दोनों को कं = किसको के = किनको/किन दोनों को (स्त्री) कं = किसको काओ = किनको/किन दोनों को उदाहरण वाक्य : एकवचन ते ममं पासन्ति = वे मुझको देखते हैं। अहं तुमं जाणामि . = मैं तुमको जानता हूँ। तुमं तं पुच्छसि = तुम उसको पूछते हो। सो तं पासइ = . वह उसको (स्त्री) देखता है। अहं इमं नमामि · = मैं इसको नमन करता हूँ। बहुवचन ते अम्हे पासन्ति = वे हम सैंबको देखते हैं। __अहं तम्हे जाणामि = मैं तुम सबको जानता हूँ। तुमं ते पुच्छसि = तुम उन सबको पूछते हो। सो ताओ नमइ = वह उन सबको (स्त्री) नमन करता है। .. . अहं इमे नमामि = मैं इनको नमन करता हूँ। तुमं काओ पाससि = तुम किन (स्त्रियों) को देखते हो? प्राकृत में अनुवाद करो : मैं तुमको देखता हूँ। बालक मुझको जानता है। राजा उसको पूछता है। वह हम सबको नमन करता है। तुम हम दोनों को देखते हो। वह तुम सबको जानता है। मैं तुम दोनों को नमन करता हूँ। तुम उस (स्त्री) को देखते हो। साधु उन सबको जानता है। कुलपति उन दोनों को पूछता है। तुम उन सब (स्त्रियों) को जानते हो। मैं उन दोनों (स्त्रियों) को देखता हूँ। खण्ड १ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ अ,इ, एवं उकारान्त संज्ञा शब्द (पु.) : शब्द बालअ पुरिस ४० छत्त ཝཱ णर सुधि कवि कुलवइ सिसु साहू उदाहरण वाक्य : एकवचन पिऊ बालअं पालइ पहू पुरिसं पेसइ गुरू छतं वदिस आयरिओ सीसं खमइ द्वितीया एकवचन भूवई रं बंध निवो सुधि जाणइ सो कवि पास कुलवई को ण जाणइ माआ सिसुं गिण्हइ बुहा साहुं पुच्छन्ति बालअं पुरिसं छत्तं सी परं सुधिं कवि कुलवई सिसुं साहूं = = = ३१ द्वितीया बहुवचन बालआ पुरिसा छत्ता सीसा = णरा सुधिणो कविणो कुलवइणों ससुणो 1 पिता बालक को पालता है स्वामी आदमी को भेजता है । गुरु छात्र को उपदेश देता है । आचार्य शिष्य को क्षमा करता राजा मनुष्य को बाँधता है । 15. है 1 नृप बुद्धिमान को जानता है 1 वह कवि को देखता है। कुलपति को कौन नहीं जानता है ? माता बच्चे को लेती है । बुद्धिमान् साधु को पूछते हैं। प्राकृत में अनुवाद करो : वह बालक को जानता है। मैं आदमी को देखता हूँ । गुरु शिष्य को उपदेश देता है । वे मनुष्य को बाँधते हैं। बालक देव को नमन करते हैं। राजा योद्धा को बाँधता है । वह कुलपति को नहीं जानता है। आचार्य तपस्वी को जानते हैं। माता शिशु को पालती को कौन नहीं जानता है ? । साधु प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य : पिऊ बालआ पालइ पहू पुरिसा पेस गुरु छत्ता उवदिस 'आयरिओ सीसा खमइ बंध भूव निवो सुधिणो जाणइ सो कवि पास कुलवणो ण जाणइ माआ सिसुणो गिण्हइ बुहा साहुणो पुच्छन्ति शब्दकोश (पु.) : उवज्झाय बहुवचन (पु.) इंद अज्ज समण जीव खण्ड १ = उपाध्याय इन्द्र सज्जन श्रमण जीव = प्राकृत में अनुवाद करो : मैं बालकों को जानता हूँ। वह आदमियों को देखता है। साधु शिष्यों को उपदेश देता है। राजा मनुष्यों को बाँधता है। कन्यायें देवताओं को नमन करती हैं। शत्रु योद्धाओं को जीतता है। वे कुलपतियों को जानते हैं। राजा कवियों को पूछता है । माता शिशुओं को पालती है। विद्वानों को कौन नहीं जानता है ? = पिता बालकों को पालता है । स्वामी आदमियों को भेजता है । गुरु छात्रों को उपदेश देता है । आचार्य शिष्यों को क्षमा करता है । राजा मनुष्यों को बाँधता है । नृप विद्वानों को जानता है । वह कवियों को देखता है। कुलपतियों को कौन नहीं जानता है ? माता बच्चों को लेती है । विद्वान् साधुओं को पूछते हैं । चाइ मंति गुरु बंधु || || || || || पुत्र त्यागी मन्त्री गुरु भाई प्राकृत अनुवाद करो : तुम उपाध्याय को नमन करो। वह इन्द्र को देखे । तुम सब सज्जन को नमन करो। वह श्रमण को न छुए। जीव को न मारो। पुत्र को पालो । वे त्यागी को पूछें। तुम मन्त्री को न भेजो। वह गुरु को क्रोधित न करे। तुम भाई को क्षमा करो । निर्देश : इन्हीं वाक्यों के बहुवचन द्वितीया में प्राकृत में अनुवाद करो । ४१ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ द्वितीया = को आ, इ ई उ एवं ऊकारान्त संज्ञा शब्द (स्त्री.) : शब्द द्वितीया एकवचन बालं बहुवचन बाला बालाओ माआ माअं सुण्हा सुण्हं माला मालं जुवइ नई माआओ सुहाओ मालाओ जुवईओ . नईओ साडीओ बहूओ घेणूओ सासूओ in. साडी सासू सासु उदाहरण वाक्य: एकवचन . माआ बालं इच्छइ माता बालिका को चाहती है। धूआ माअं नमइ पुत्री माता को नमन करती है। सा सुण्हं जाणइ वह बहू को जानती है। Filenceblent स्त्री माला को धारण करती है। भूवई जुवई पासइ राजा युवती को देखता है। भडो नई तरह ... योद्धा नदी को तैरता है। सुण्हा साडिं इच्छइ ___ बहू साड़ी को चाहती है। सो बहुं पुच्छइ . . वह बहू को पूछता है। .. णरो धेणुं गिण्हइ मनुष्य गाय को ग्रहण करता है। जुवई सासुं नमइ युवती सास को नमन करती है। प्राकृत अनुवाद करो : मैं बालिका को देखता हूँ। माता बहू को जानती है। पुत्री माला को धारण करती है। वह साड़ी को चाहती है। सासु बहू को क्षमा करती है। बहू सास को नमन करती है। राजा माला को धारण करता है। युवती गाय को देखती है। साड़ी को कौन नहीं चाहती है? बहू को कौन जानता है ? प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य : बहुवचन (स्त्री.) माआ बालाओ पेसइ = माता बालिकाओं को भेजती है। धूआ माआओ नमइ = लड़की माताओं को नमन करती है। ताओ सुण्हाओ जाणन्ति = वे बहुओं को जानती हैं। इत्थीओ मालाओ धारन्ति स्त्रियाँ मालाओं को धारण करती हैं। भूवई जुवईओ पासइ राजा युवतियों को देखता है। भडो नईओ तरइ योद्धा नदियों को पार करता है। सुण्हाओ साडीओ इच्छन्ति = बहुएं साड़ियों को चाहती हैं। सासू बहूओ पुच्छइ सास बहुओं को पूछती है। णरों धेणूओ गिण्हइ = मनुष्य गायों को लेता है। जुवईओ सासूओ नमन्ति = युवतियाँ सासों को नमन करती हैं। प्राकृत में अनुवाद करो : . वह बालिकाओं को देखती है। मैं कन्याओं को जानता हूँ। माता बहुओं को पूछती है। पुत्रियाँ मालाओं को धारण करती हैं। साड़ियों को कौन नहीं चाहती हैं? सासें बहुओं को क्षमा करती हैं। बहू सासों को जानती है। युवती गायों को देखती है। योद्धा युवतियों को देखता है। नदियों को कौन पार करता है? शब्दकोश : (स्त्री.) ..निसा = रात्रि तरुणी = जवान स्त्री दिसा. = दिशा साहुणी = . साध्वी - गिरा = वाणी पहवी = पृथ्वी अच्छरसा = ' अप्सरा सिप्पी = सीपी आणा = आज्ञा वावी = वापी प्राकृत में अनुवाद करो : वह रात्रि को देखता है। मैं पूर्व दिशा को जाऊंगा। वह वाणी को सुने । हम सब अप्सरा को देखें। तुम उस आज्ञा को मानो। वह तरुणी को वस्त्र देता है। तुम साध्वी को नमन करो। उसने पृथ्वी को देखा। वह सीपी को लेता है। मैं वापी को बाँधता हूँ। निर्देश : इन वाक्यों का बहुवचन (द्वितीया) में प्राकृत में अनुवाद करो। - खण्ड १ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ अ, इ एवं उकारान्त संज्ञा शब्द (नपुं.) : शब्द द्वितीया का एकवचन णयर णयरं फल फलं पुप्फ पुष्पं कमल. द्वितीया = को बहुवचन णयराणि फलाणि पुप्फाणि कमलाणि घराणि । खेत्ताणि सत्थाणि कमलं घर घरं खेत खेत्तं सत्थ सत्यं वारिं वारीणि वारि दहि वत्थु . दहीणि वत्थूणिः सर्वनाम (नपुं.) : . . . इमं = इमाणि तं = 'ताणि . उदाहरण वाक्य : एकवचन पुरिसो तं णयरं गच्छइ ___ = आदमी उस नगर को जाता है। बालओ इदं फलं इच्छइ = . बालक इस फल को चाहता है। अहं पुष्पं पासामि = मैं फूल को देखता हूँ। सो कमलं गिण्हइ ___ = . वह कमल को लेता है। सेट्ठि घरं गच्छइ सेठ घर को जाता है। णरो खेत्तं कस्सइ मनुष्य खेत को जोतता है। छत्तो सत्थं पढइ छात्र शास्त्र को पढता है। कन्ना वारं पिबइ कन्या पानी को पीती है। सुण्हा दहिं खाइ बहू दही को खाती है। . . साहू वत्थु ण इच्छइ = साधु वस्तु को नहीं चाहता है । प्राकृत में अनुवाद करो : ___ बालक नगर को जाता है। तुम कल को चाहते हो। पुरुष फूल को देखता है। कन्या दही को खाती है। विद्वान् घर को जाता है। युवती कमल को लेती है। छात्र खेत को जोतता है। बालिका पानी को पीती है। बहू शास्त्र पढ़ती है। मुनि वस्तु को नहीं चाहता है। ४४ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य : प्राकृत = भूवई इमाणि णयराणि जयइ = बालओ ताणि पुप्फाणि इच्छइ : अहं फलाणि भुंजामि पुरसो कमलाणि गिues सो घराणि पासइ रो खेत्ता िकस्सइ सीसो सत्थाणि पढइ नई वारीणि गिues कन्ना दहीणि पासइ वत्थूणि कोण इच्छइ करो : में अनुवाद मनुष्य नगरों को देख्ता है । वह फलों को खाता है । मैं फूलों को ग्रहण करता बालिका कमलों को देखती है। युवतियाँ घरों को जाती हैं। आदमी खेतों को जोतते. । छात्र शास्त्रों को पढ़ते हैं। स्त्रियाँ पानी को लाती हैं। कन्याएं दही को देखती हैं। साधु वस्तुओं को नहीं चाहता है । . शब्दकोश (नपुं. ) : नयण हियय मित्तं चारित पाव बहुवचन ( नपुं.) In खण्ड १ : राजा इन नगरों को जीतता है । बालक उन फूलों को चाहता है । मैं फलों को खाता हूँ । आदमी कमलों को लेता है । वह घरों को देखता है । मनुष्य खेतों को जोतता है । शिष्य शास्त्रों को पढ़ता है । नदी पानी को ग्रहण करती है । कन्या दही को देखती है । वस्तुओं को कौन नहीं चाहता है ? आंख हृदय मित्र चारित्र पाप कुल अमिअ विस अट्ठि अंसु = प्राकृत में अनुवाद करो सन्तुष्ट वह आंख को खोलता है । मैं हृदय को जानता हूँ। वह मित्र को करे । हम सब चारित्र को पालें । तुम सब पाप मत करो। पिता कुल को पूछता है। कौन अमृत को नहीं चाहता है ? शिव विष को पीता है। वह हड्डी को त्यागता है । वह आंसू को गिराता है। निर्देश इन वाक्यों का बहुवचन ( द्वितीया) में : प्राकृत वंश अमृत विष में अनुवाद ड्ड आंसू करो 1 ४५ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ३४ नियम : द्वितीया (पु, स्त्री., नपुं.) : सर्वनाम : नि. २७ : (क) द्वितीया विभक्ति के एक वचन में अम्ह का ममं तथा तुम्ह का तुम रूप बनता है। बहुवचन में प्रथम विभक्ति के समान अम्हे और तुम्हे रूप बनता है। (ख) पल्लिग सर्वनाम त.इम.एवं क में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में अनस्वार (') लग जाता है । बहुवचन में प्रथम विभक्ति के समान रूप बनते हैं। . (ग) स्त्रीलिंग सर्वनाम ता, इमा, का द्वितीया विभक्ति एकवचन में ह्रस्व हो जाते हैं तब उनमें अनुस्वार ()लगता है और उनके रूप पुल्लिग सर्वनामों के समान बनते हैं। यथा-तं, इमं, कं । बहुवचन में इन स्त्री. सर्वनामों के रूप प्रथम विभक्ति के समान बनते हैं । यथा-ताओ, इमाओ, काओ। पुल्लिंग शब्द : नि. २८ : पुल्लिंग 'अ', 'इ' एवं उकारान्त शब्दों के आगे द्वितीया विभक्ति में (क) एकवचन में अनुस्वार (') प्रत्यय लगता है । जैसे—बालअ = बालअं, सुधि ___सुधिं, सिसु = सिसु आदि। . (ख) बहुवचन में अकारान्त शब्दों के आगे दीर्घ 'आ' लग जाता है। जैसे-बालअ = बालआ, पुरिस = पुरिसा, आदि। (ग) इकारान्त तथा उकारान्त शब्दों के आगे णो' प्रत्यय लग जाता है। ___ जैसे-सुधि = सुधिणो, सिसु = सिसुणो, आदि । स्त्रीलिंग शब्द : नि. 29 : स्त्रीलिंग आ, इ, ई, उ एवं ऊकारान्त शब्दों के आगे द्वितीया विभक्ति (क) एकवचन में अनुस्वार () प्रत्यय लगता है एवं शब्द के अन्त के आ, ई तथा ऊ हस्व हो जाते हैं । जैसे- बाला = बालं, नई = नई,बहू = बहुं आदि। (ख) बहुवचन में आ,इ,ई,उ एवं ऊकारान्त शब्दों के आगे 'ओ' प्रत्यय लगता है। जैसे—बाला= बालाओ, नई = नईओ,बहू = बहूओ, आदि नपुंसकलिंग शब्द : नि. 30 : नपुसंकलिंग अ, इ, एवं ऊकारान्त शब्दों एवं सर्वनामों के रूप द्वितीया विभक्ति के एकवचन एवं बहुवचन में प्रथमा विभक्ति के समान ही होते हैं। यथाए. व.-णयर, वारिं, वत्थु, इम, तं, ब. व.-णयराणि, वारीणि, वत्थूणि, इमाणि, ताणि . ४६ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ३५ बहुवचन । तेहि = सर्वनाम (पुं, स्त्री.) तृतीया = के द्वारा साथ, से एकवचन अर्थ अर्थ ... मए = मेरे द्वारा अम्हेहि = हमारे/हम दोनों के द्वारा .. तुमए = तेरे द्वारा तुम्हेहि = तुम्हारे/तुम दोनों के द्वारा (पु) तेण = उसके द्वारा उनके/उन दोनों के द्वारा ताए = उसके द्वारा ताहि = उसके/उन दोनों के द्वारा (पु) इमेण = इनके द्वारा इमेहि = इन सबके द्वारा (स्त्री) इमाए = इनके द्वारा इमाहि = इन सबके द्वारा (पु) • केण= किनके द्वारा केहि = किन सबके द्वारा (स्त्री) काए = किनके द्वारा काहि = किन सबके द्वारा उदाहरण वाक्य : एकवचन इदं कज्जं मए होइ = यह कार्य मेरे द्वारा होता है। तं कज्जं तुमए होइ = वह कार्य तेरे द्वारा होता है। इदं कज्ज तेण होइ = यह कार्य उसके द्वारा होता है। तं कज्ज ताए होइ = यह कार्य उस (स्त्री) द्वारा होता है। तं कज्ज इमिणा होइ . = यह कार्य इसके द्वारा होता है। . इदं कज्ज काए होइ • = यह कार्य किस (स्त्री) द्वारा होता है। बहुवचन इमाणि कज्जाणि अम्हेहि होन्ति = ये कार्य हमारे द्वारा होते हैं। ताणि कज्जाणि तुम्हेहि होन्ति = ये कार्य तुम्हारे द्वारा होते हैं। इदं दुक्खं तेहि होइ. = यह दुख उनके द्वारा होता है। तं सुक्खं ताहि होइ = वह सुख उनके (स्त्री) द्वारा होता है। तं कज्ज इमेहि होइ = वह कार्य इन सबके द्वारा होता है। :.'. तं दुक्खं काहि होइ = वह दुख किन (स्त्रियों) के द्वारा होता है? प्राकृत में अनुवाद करो : यह सुख मेरे द्वारा होता है। यह कार्य तेरे द्वारा होता है। यह कार्य उसके द्वारा होता है। वे कार्य हमारे द्वारा होते हैं। यह कार्य तुम दोनों के द्वारा होता है। यह कार्य उन दोनों के द्वारा होता है। ये कार्य उन स्त्रियों के द्वारा होते हैं। यह दुःख उस स्त्री के द्वारा होता है। यह कार्य उन दोनों स्त्रियों के द्वारा होता है। वे कार्य तुम सबके द्वारा होते हैं। ये कार्य किन सबके द्वारा होते हैं? खण्ड १ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ३६ छत्त सुधीहिं. अ, इ एवं उकारान्त संज्ञा शब्द (पु.) तृतीया = के द्वारा, साथ से तृतीया-एकवचन बहुवचन बालअ बालएण कालएहि पुरिस पुरिसेण पुरिसेहि छत्तेण छत्तेहि सीस सीसेण सीसेहि णर णरेण ‘णरेहि .... सुधि सुधिणा कवि कविणा कवीहि .. कुलवइ कुलवइणा कुलवईहि सिसु सिसुणा सिसूहि... साहू साहुणा साहूहि उदाहरण वाक्य : एकवचन • अहं बालएण सह गच्छामि = मैं बालके के साथ जाता हूँ। . बालओ पुरिसेण सह वसइ = बालक आदमी के साथ रहता है। इदं कज्जं छत्तेण होइ = . यह कार्य छात्र के द्वारा होता है। साहू सीसेण सह भुंजइ = साधु शिष्य के साथ भोजन करता है। ताणि कज्जाणि नरेण होन्ति = . वे कार्य मनुष्य के द्वारा होते हैं। तं कज्जं सुधिणा होइ = . वह कार्य विद्वान् के द्वारा होता है। कविणा कज्ज होइ = कवि के द्वारा कार्य होता है। निवो कुलवइणा सह गच्छइ = राजा कुलपति के साथ जाता है। माआ सिसुणा सह वसइ = माता बच्चे के साथ रहती है। सीसो साहुणा सह पढइ = शिष्य साधु के साथ पढ़ता है। प्राकृत में अनुवाद करो : वह बालक के साथ रहता है। मैं आदमी के साथ जाता हूँ। ये कार्य शिष्य के द्वारा होते हैं। साधु छात्र के साथ भोजन करता है। वह कार्य मनुष्य के द्वारा होता है। वे कार्य विद्वान के द्वारा होते हैं। राजा कवि के साथ रहता है। कुलपति के द्वारा वह कार्य होता है। माता बच्चे के साथ जाती है। वे साधु के साथ जाते हैं। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य : बहुवचन (पु.) अहं बालएहि सह गच्छामि = मैं बालकों के साथ जाता हूँ बालओ पुरिसेहि सह वसइ = बालक आदमियों के साथ रहता है। इमाणि कज्जाणि छत्तेहि होन्ति = । ये कार्य छात्रों के द्वारा होते हैं। साहू सीसेहि सह भुंजइ = साधु शिष्य के साथ भोजन करता है। ताणि कज्जाणि णरेहि होन्ति = वे कार्य मनुष्यों के द्वारा होते हैं। तं कज्जं सुधीहि होइ = वह कार्य विद्वानों के द्वारा होता है। कवीहि कज्ज होइ - कवियों के द्वारा कार्य होता है। निवो कुलवईहि सह गच्छइ =. राजा कुलपतियों के साथ जाता है। माआ सिसूहि सह वसइ = माता बच्चों के साथ रहती है। सीसो साहूहि सह पढइ = शिष्य साधुओं के साथ पढ़ता है। प्राकृत में अनुवाद करो': . - वह बालकों के साथ रहता है। मैं आदमियों के साथ जाता हूँ। ये कार्य शिष्यों के द्वारा होते हैं। साधु छात्रों के साथ भोजन करता है। वह कार्य मनुष्यों के द्वारा होता है। वे कार्य विद्वानों के द्वारा होते हैं। राजा कवियों के साथ रहता है। यह कार्य कुलपतियों के द्वारा होना है। माता बच्चों के साथ जाती है। वे साधुओं के साथ रहते शब्दकोश (पु.) : .. कर = हाथ केसरि = . सिंह कण्ण = कान मणि = . .. दंत = दाँत । फणि = साँप चक्खु = आंख दंड = लाठी ध्वजा प्राकृत में अनुवाद करो : - यह हाथ से पुस्तक लेता है। मैंने कान से शब्द सुना। तुमने दाँत से रोटी खायी। उसनें भाले से साँप को मारा। हम लाठी से लड़ेंगे। सिंह के साथ कौन रहेगा। मणि से प्रकाश होता है। साँप के साथ वह नहीं रहेगा। वह आंख से चित्र देखता है। ध्वजा से घर शोभित होता है। निर्देश : इन्हीं वाक्यों का बहुवचन (तृतीया) में प्राकृत में अनुवाद करो। - केउ = खण्ड १ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ आ, इ, ई, उ एवं ऊकारान्त संज्ञा शब्द (स्त्री.) शब्द बाला माआ सुहा माला सासू उदाहरण वाक्य : जुवइ नई साडी बहू एकवचन सा बालाए सह गच्छइ अहं माआए विणा ण भुंजामि . इमाणि कज्जाणि सुहाए होन्ति मालाए परिणओ होइ पुरिसो जुवईए सह बसइ यरं नईए विणा ण सोहइ इत्थी साडी सोहइ सासू बहूए सह कलहइ सह निवो गच्छ प्राकृत ५० तृतीया एकवचन बालाए माआए सुहाए मालाए जुवईए नई बहूए धेणूए सासूए = = = = = = तृतीया = ३७ के द्वारा, साथ, से बहुवचन बालाहि माआहि मालाहि जुवईहि नईहि. साडीहि • बहूहि .हि : सासूहि सासूए सह सुण्हा वसई में अनुवाद करो : मैं बालिका के साथ भोजन करता हूँ। वह माता के बिना नहीं खाता है । यह कार्य बहू के द्वारा होता है । बहू सास के साथ झगड़ती है । मैं गाय के साथ जाता हूँ । बहू साड़ी के बिना अच्छी नहीं लगती है । स्त्री माला से शोभित होती है। नदी के साथ नगर होता है। युवती के साथ राजा जाता है। उसे बहू से सुख होता है । वह बालिका के साथ जाती है। मैं माता के बिना नहीं खाता हूँ । ये कार्य बहू के द्वारा होते हैं । माला से विवाह होता है । आदमी युवती के साथ रहता है। नगर नदी के बिना अच्छा नहीं लगता है । स्त्री साड़ी के द्वारा शोभित होती है । सास बहू के साथ झगड़ती है । गाय के साथ राजा जाता है । सास के साथ बहू रहती है । प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य : बहुवचन (स्त्री.) सा बालाहि सह गच्छइ = वह बालिकाओं के साथ जाती है। बालओ माआहि विणा ण भुंजइ = बालक माताओं के बिना नहीं खाता है। ताणि कज्जाणि सुण्हाहि होन्ति= वे कार्य बहुओं के द्वारा होते हैं। परिणओ मालाहि होइ = | विवाह मालाओं से होता है। सो जुवईहि सह ण वसइ = वह युवतियों के साथ नहीं रहता है। ‘णयरं नईहि विणा ण सोहइ = नगर नदियों के बिना शोभित नहीं होता है। इत्थी साडीहि सोहइ = स्त्री साड़ियों से अच्छी लगती है। सांसू बहूहि सह कलहइ = सास बहुओं के साथ झगड़ती है। सो धेहि सह गच्छइ = वह गायों के साथ जाता है। सुण्हा सारांहि विणा ण वसइ = बहू सासों के बिना नहीं रहती है। प्राकृत में अनुवाद करो : वह बालिकाओं के साथ नाचती है। हम माताओं से क्या सुनते हैं? बहुओं से घर शोभित होता है। माताओं से बच्चे खेलते हैं। युवतियों के साथ राजा जाता है। देश नदियों से समृद्ध होता है। साड़ियों से स्त्रियाँ शोभित होती हैं। सासों के बिना घर अच्छा नहीं लगता है। • शब्दकोश (स्त्री.) : . . णासा = अंगुली = उंगली .: जीहा जीभ असी = तलवार कला = कला मेंहदी = मेंहदी ससा . = बहिन पसाहणी = णणंदा = ननद चंचु = . चोंच .. प्राकृत में अनुवाद करो : वह नाक से फूल सूंघे । तुम जीभ से फल चखते हो। स्त्री कला के साथ शोभित होती है। वह बहिन के साथ आज जायेगा। युवती ननद के बिना नहीं रहती है। वह उंगली से फूल को छूती है। हम तलवार से हिंसा नहीं करेंगे। स्त्रियाँ मेंहदी से पैर रंगती हैं। मैं कंघी से केश सम्हारता हूँ। पक्षी चोंच से अन्न चुगता है। . निर्देश : इन वाक्यों का बहुवचन (तृतीया) में प्राकृत में अनुवाद करो। नाक कंघी खण्ड १ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ३८ अ, इ एवं उकारान्त संज्ञा शब्द (नपुं.) शब्द णयरेण णयर फल पुप्फ कमल तृतीया = के द्वारा, साथ, से तृतीया एकवचन बहुवचन णयरेहि फलेण फलेहि पुप्फेण पुप्फेहि कमलेण कमलेहि घरेण घरेहि. खेत्तेण • खेत्तेहि सत्थेण सत्थेहि वारिणा वारीहि दहिणा वत्थुणा वत्थूहि घर सत्थ वारि दहि वत्थु उदाहरण वाक्य : दहीहि एकवचन . णयरेण विणा समिद्धी ण होइ = नगर के बिना समृद्धि नहीं होती है। सो फलेण विणा ण भुंजइ = वह फल के बिना भोजन नहीं करता है। पुप्फेण अच्चा होइ फूल के द्वारा पूजा होती है। कमलेण सरं सोहइ कमल से तालाब शोभित होता है। घरेण विणा सुहं णत्थि = घर के बिना सुख नहीं है। खेत्तेण विणा सस्सो ण होइ = . खेत के बिना फसल नहीं होती है। सत्थेण पंडिओ होइ = शास्त्र से पंडित होता है। वारिणा विणा जीवणं णत्थि = पानी के बिना जीवन नहीं है। अहं दहिणा सह भुंजामि = मैं दही के साथ भोजन करता हूँ। वत्थुणा परिग्गहो होइ = वस्तु से परिग्रह होता है। . प्राकृत में अनुवाद करो : राजा नगर से शोभित होता है। मैं फल के साथ भोजन करता हूँ। फूल से लता अच्छी लगती है। कमल के बिना सरोवर अच्छा नहीं लगता है। शास्त्र के बिना आदमी मूर्ख होता है। खेत से घर शोभित होता है। वह पानी के बिना भोजन नहीं करता है। वे दही के साथ भोजन करते हैं। वस्तु के बिना समृद्धि नहीं होती है। घर के बिना जीवन नहीं है। ८० प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य : बहुवचन (नपुं.) 'णयरेहि विणा समिद्धी ण होइ = नगरों के बिना समृद्धि नहीं होती फलेहि विणा सो ण भुंजइ = फलों के बिना वह नहीं खाता है। पुप्फेहि अच्चा होइ = फूलों से पूजा होती है। कमलेहि सरोवरो सोहइ = कमलों से सरोवर शोभित होता है। घरेहि रक्खा होइ घरों से रक्षा होती है। खेत्तेहि विणा सस्सो ण होइ = खेतों के बिना फसल नहीं होती है। सत्थेहि को पंडिओ होइ = शास्त्रों से कौन पंडित होता है? वारिहि वाहीओ होन्ति = पानी से बीमारियाँ होती हैं। दहीहि सह अम्हे भुंजामो = दही के साथ हम भोजन करते हैं। वत्थूहि सुहं ण होइ = वस्तुओं से सुख नहीं होता है। प्राकृत में अनुवाद करो :. नगरों में व्यापार होता है। वह फलों के साथ भोजन करता है। फूलों से माला बनती है। घरों के बना जीवन नहीं है। फूलों से लता अच्छी लगती है। कमलों से पूजा होती है। शास्त्रों के बिना ज्ञान नहीं होता है। खेतों से किसान समृद्ध होता है। वस्तुओं के बिना घर नहीं बनता है। शब्दकोश (नपुं.) . . . .., कुंडल = . कुण्डल बीअ = बीज दुग्ग = . किला तण = तृण (घास) भायण = अखेिं = . आंख .. कट्ठ = लकड़ी जाणु = घुटना आउह. = महु = शहद प्राकृत में अनुवाद करो : ... बहू कुण्डल से शोभित होती है। नगर किला से अच्छा लगता है। वह बर्तन के बिना भोजन नहीं करता है। मैं लकड़ी से तैरता हूँ। वह शस्त्र से युद्ध करता है। किसान बीज से खेती करता है। बगीचा घास से शोभित होता है। आंख के बिना जीवन नहीं है। बालक घुटनों से चलता है। वह शहद के साथ रोटी खाता है। निर्देश : इन्हीं वाक्यों का बहुवचन (तृतीय) में प्राकृत में अनुवाद करो। बर्तन शस्त्र खण्ड १ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ नियम : तृतीया (पु., स्त्री, नपं.) सर्वनाम : नि. ३१ : (क) तृतीया के एकवचन में अम्ह का मए एवं तुम्ह का तुमए रूप बनता है। बहुवचनः . - में इनमें एकार तथा 'हि' प्रत्यय जुड़ जाता है । यथा-अम्हेहि तुम्हेहि । (ख) पुल्लिग सर्वनाम त,इम,क में तृ.वि.एकवचन में एकार तथा 'ण' प्रत्यय जुड़कर तेण, इमेण एवं केण रूप बनते हैं । बहुवचन में एकार एवं 'हि' प्रत्यय जुड़कर तेहि इमेहि एवं केहि रूप बनते हैं। (ग) स्त्रीलिंग सर्वनाम ता,इमा एवं का में तृ.वि.एकवचन में 'ए' प्रत्यय तथा बहुवचन में 'हि' प्रत्यय जुड़कर इस प्रकार रूप बनते हैं ए.व.: ताए, इमाए, काए । ब.व. : ताहि इमाहि, काहि । पुल्लिंग शब्द : नि. ३२ : पुल्लिंग अकारान्त शब्दों के आगे तृतीया विभक्ति में- . . . (क) एकवचन में 'ण' प्रत्यय लगता है तथा शब्द के 'अ' को 'ए' हो जाता है। जैसे-बालअ> बालए + ण = बालएण, पुरिस > पुरिसेण, आदि। .. इकारान्त एवं उकारान्त पु. शब्दों के आग ‘णा' प्रत्यय लगता है। जैसे-सुधि = सुधिणा, सिसु = सिसुणा, आदि। (ग) बहुवचन में अकारान्त शब्दों के 'अ' के 'ए' होता है तथा 'हि' प्रत्यय लगता - है।जैसे-बालअ = बालए + हि = बालएहि, पुरिस = पुरिसेहि, आदि। (घ) बहुवचन में इकारान्त एवं उकारान्त पु. शब्दों के 'इ' एवं 'उ' दीर्घ 'ई'.'' हो. जाते हैं तथा 'हि' प्रत्यय लगता है। सुधि = सुधी + हि = सुधीहि, सिसु = सिसूहि, आदि । स्त्रीलिंग शब्द : नि. ३३ : स्त्रीलिंग के 'आ', 'ई', ऊकारान्त शब्दों के आगे तृतीया विभक्ति में (क) एकवचन में 'ए' प्रत्यय लगता है। जैसे-बाला = बालए, नई = नईए, बहू = बहूए, आदि। . (ख) बहुवचन में 'आ','ई', ऊकारान्त शब्दों में 'हि' प्रत्यय लगता है। ___ जैसे-बाला = बालाहि, नई = नईहि, बहू = बहूहि, आदि। . (ग) इ एवं उकारान्त शब्द दीर्घ हो जाते हैं तब उनमें 'ए' या 'हि' प्रत्यय लगता है। नपुंसकलिंग शब्द : नि. ३४ : नपुंसकलिंग के 'अ', 'इ' एवं उकारान्त शब्दों के रूप तृतीया विभक्ति के एकवचन एवं बहुवचन में पुल्लिंग शब्दों के समान ही बनते हैं। नि. ३५ : नपुं. सर्वनामों (इदं, तं) के तृतीया से सप्तमी विभक्ति तक के रूप पुल्लिग सर्वनामों के समान बनते हैं। ५४ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ .. ४० अर्थ तुम्हाण सर्वनाम : ___चतुर्थी = के लिए एकवचन बहुवचन मज्झ मेरे लिए अम्हाण हम सब/हम दोनों के लिए तुज्झ तुम्हारे लिए तुम सब/तुम दोनों के लिए तस्स उनके लिए ताण उनके/उन दोनों के लिए ताअ उसके लिए ताण उस/उन दोनों (स्त्री) के लिए (पु) इमस्स. इसके लिए इमाण इनके लिए (स्त्री) इमाअ इसके लिए इमाण इनके लिए (पु) कस्स किसके लिए काण किनके लिए (स्त्री) काअ किसके लिए काण किनके लिए उदाहरण वाक्य: एकवचन इदं कमलं मज्झ अस्थि = यह कमल मेरे लिए है। तं पुष्पं तुज्झ अस्थि - = वह फूल तेरे लिए है। तं फलं तस्स. अस्थि - = वह फल उसके लिए है। इदं घरं ताअ अस्थि . = यह घर उस (स्त्री) के लिए है। इदं चित्तं इमस्स अत्थि · = यह चित्र इसके लिए है। • तं वत्थं काअ अस्थि = वह वस्त्र किसके (स्त्री) लिए है। बहुवचन 'इमाणि सत्थाणि अम्हाण सन्ति = ये शास्त्र हमारे लिए हैं। -ताणि फलाणि तुम्हाण सन्ति = वे फल तुम सबके लिए हैं। ___ इदं दुद्धं ताण अस्थि = यह दूध उनके लिए है। ..इमाणि वत्थूणि ताण सन्ति = ये वस्तुएं उन स्त्रियों के लिए हैं। .... - इमाणि चित्ताणि इमाण सन्ति = ये चित्र इनके लिए हैं। . ताणि वत्थाणि काण सन्ति = ये वस्त्र किनके (स्त्रियों) लिए हैं ? • प्राकृत में अनुवाद करो : .. यह वस्तु मेरे लिए है। वह घर उसके लिए है। यह दूध तुम्हारे लिए है। वे फल हम सबके लिए हैं। यह फूल उस स्त्री के लिए है। ये वस्तुएं हम दोनों के लिए हैं। ये कमल तुम सबके लिए हैं। यह घर उन दोनों स्त्रियों के लिए है। ये शास्त्र इन सबके लिए हैं। यह फल तुम दोनों के लिए है। यह जल उन सब स्त्रियों के लिए है। यह वस्तु किन दोनों के लिए है? खण्ड १ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ४१ शब्द छत्त सीसस्स णर णराण ... सुधि सुधीण कवीण । सिसु . साह अ, इ एवं उकारान्त संज्ञा शब्द (पु.) चतुर्थी = के लिए चतुर्थी एकवचन बहुवचन बालअ बालअस्स बालआण पुरिस पुरिसस्स पुरिसाण छत्ताण . सीस सीसाण णरस्स सुधिणो कवि कविणो कुलवइ कुलवइणो कुलवईण सिसुणो सिसूणं साहुणो साहूण उदाहरण वाक्य : एकवचन अहं बालअस्स फलं दामि = . मैं बालक के लिए फल देता हूं। इदं पुष्पं पुरिसस्स अत्थि यह फूल आदमी के लिए है। तं सत्थं छत्तस्स अत्थि यह शास्त्र छात्र के लिए है। इदं घरं सीसस्स अत्थि यह घर शिष्य के लिए है। सो णरस्स वत्थूणि दाइ = वह मनुष्य के लिए वस्तुएं देता है। निवो सुधिणो धणं दाइ = राजा विद्वान् के लिए धन देता है। सा कविणो कमलं दाइ वह कवि के लिए कमल देती है। ते कुलवइणो नमन्ति वे कुलपति को नमन करते हैं। इदं दुद्धं सिसुणो अत्थि = यह दूध बच्चे के लिए है। ते साहुणो भोअणं दांति = वे साधु के लिए भोजन देते हैं। प्राकृत में अनुवाद करो : यह दूध बालक के लिए है। मैं आदमी के लिए फूल देता हूँ। वह घर छात्र के लिए है। वह बच्चे के लिए फल देता है। मैं शिष्य के लिए शास्त्र देता हूँ। यह वस्तु मनुष्य के लिए है। है। वह धन विद्वान् के लिए है। राजा कवि के लिए धन देता है। यह कमल कुलपति के लिए है। हम साधु के लिए नमन करते हैं। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य : बहुवचन (पु.) अहं बालआण फलाणि दामि = मैं बालकों के लिए फल देता हूं। इमाणि पुष्पाणि पुरिसाण सन्ति = ये फल आदमियों के लिए हैं। ताणि सत्थाणि छत्ताण सन्ति = वे शास्त्र छात्रों के लिए हैं। इदं घरं सीसाण अत्थि यह घर शिष्यों के लिए है। सो णराण वत्थूणि दाइ = वह मनुष्यों के लिए वस्तुएं देता है। निवो सुधीण धणं दाइ राजा विद्वानों के लिए धन देता है। सा कवीण कमलाणि दाइ = वह कवियों के लिए कमल देती है। ते कुलंवईण नमन्ति वे कुलपतियों को नमन करते हैं। इदं दुद्धं सिसूण अस्थि यह दूध बच्चों के लिए है। ते साहूण भोअणं दान्ति = वे साधुओं के लिए भोजन देते हैं। प्राकृत में अनुवाद करो': . यह दूध बालकों के लिए है। मैं आदमियों के लिए फूल देता हूँ। यह वस्तु छात्रों के लिए है। वह बच्चों के लिए फल देता है। मैं शिष्यों के लिए शास्त्र देता हूँ। यह घर मनुष्यों के लिए है। वह धन विद्वानों के लिए है। ये चित्र कवियों के लिए हैं। तुम सब कुलपतियों के लिए, नमन करते हो। वह साधुओं के लिए नमन करता है। शब्दकोष (पु.) : . . . .: वणिअ = . . बनियां किसाण = किसान गोव = ग्वाला वानर = . बन्दर . सेवअ. = नौकर हंस = - हंस . समिय = मजदूर जोगि = योगी . . . वेज्ज = वैद्य जंतु = प्राणी प्राकृत में अनुवाद करो ...यह धन बनिये के लिए है। यह रोटी ग्वाले के लिए है। यह दही नौकर के लिए है। यह पानी मजदूर के लिए है। यह फल वैद्य के लिए है। यह खेत किसान के लिए है। वह जल बन्दर के लिए है। वह दूध हंस के लिए है। यह शास्त्र योगी के लिए है। यह फूल प्राणी के लिए है। निर्देश : इन वाक्यों का बहुवचन (चतुर्थी पु) में भी प्राकृत में अनुवाद कीजिए। खण्ड १ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ FEE जुवइ बहूण सासू आ, ई, उ एवं अकारान्त संज्ञा शब्द (स्त्री.) : चतुर्थी = के लिए चतुर्थी एकवचन बहुवचन बाला बालाअ बालाण माआ. माआअ माआण सुण्हा सुण्हाअ सुण्हाण मालाअ मालाण जुवईआ जुवईण नईआ नईण. साडीआ साडीण बहूए धेणूए धेणूण सासूए सासूण उदाहरण वाक्य: एकवचन , सो बालाअ फलं दाइ = · वह बालिका को फल देता है। अहं माआअ धणं दामि मैं माता के लिए धन देता हूं। सासू सुण्हाअ साडिं दाइ . = सास बहू के लिए साड़ी देती है। . सिसू मालाअ कन्दइ = बच्चा माला के लिए रोता है। जुवईआ साडी रोयइ युवती के लिए साड़ी अच्छी लगती है। नईआ जलं वहइ नदी के लिए पानी बहता है। पुरिसो साडीआ धणं दाइ = आदमी साडी के लिए धन देता है। सासू बहूए उवदिसइ सास बहू के लिए उपदेशं देती है। सो धेणूए धणं दाइ वह गाय के लिए धन देता है। इदं वत्थु सासूए अत्थि = यह वस्तु सास के लिए है। प्राकृत में अनुवाद करो : यह फूल बालिका के लिए है। यह कमल माता के लिए है। मैं बहू के लिए साड़ी देता हूँ। तुम माला के लिए रोते हो। यह साड़ी युवती के लिए है। राजा नदी के लिए धन देता है। वह स्त्री साड़ी के लिए रोती है। यह माला बहू के लिए है। वह घर गाय के लिए है। बहू सासु को नमन करती है। ५८ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य : बहुवचन (स्त्री.) अहं बालाण फलाणि दामि = मैं बालिकाओं के लिए फल देता हूँ। ते माआण पुष्पाणि दांति = वे माताओं के लिए फूल देते हैं। सासू सुण्हाण साडीओ दाइ - सास बहूओं के लिए साड़ियाँ देती है। सिसू मालाण कन्दइ बच्चा मालाओं के लिए रोता है। साडी जुवईण रोयइ साड़ी युवतियों के लिए अच्छी लगती है। जलं नईण वहइ पानी नदियों के लिए बहता है। पुरिसो साडीण धणं दाइ आदमी साड़ियों के लिए धन देता है। सासू बहूण उवदिसइ सास बहूओं के लिए उपदेश देती है। सो धेणूण धणं दाइ = वह गायों के लिए धन देता है। इदं वत्थु सासूण अत्थि = यह वस्तु सासों के लिए है। प्राकृत में अनुवाद करो : ये चित्र बालिकाओं के लिए हैं। वे कमल माताओं के लिए हैं। मैं बहूओं के लिए वस्त्र देता हूँ। तुम मालाओं के लिए क्यों रोते हो? वे साड़ियाँ युवतियों के लिए हैं। राजा नदियों के लिए धन देता है। साड़ियों के लिए कौन स्त्री रोती है? यह घर . बहूओं के लिए है। गायों के लिए कौन पानी देता है ? तुम सब सासों के लिए नमन करते हो। .. शब्दकोश (स्त्री.) : .: मेहंला = करधनी जणणी = माता .. जत्ता = यात्रा खिड़की = खिडकी सहा. = सभा भित्ती = दीवाल चडआ = चिड़िया समणी = साध्वी फलिहा = . खाई गउ = गाय -- प्राकृत में अनुवाद करो : यह फूल करधनी के लिए है। यह पुस्तक यात्रा के लिए है। यह वस्त्र सभा के लिए है। वह फल चिड़िया के लिए है। यह पानी खाई के लिए है। यह साड़ी माता के लिए है। वह धन खिड़की के लिए है। यह वस्तु दीवाल के लिए है। वह वस्त्र साध्वी • के लिए है। यह पानी गाय के लिए है। . निर्देश : इन्हीं वाक्यों का बहुवचन (चतुर्थी स्त्री) में प्राकृत में अनुवाद कीजिए। खण्ड १ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ४३ फल अ इ एवं उकारान्त संज्ञा शब्द (नपुं.) : चतुर्थी एकवचन णयर णयरस्स फलस्स पुण्फ पुष्फस्स कमल कमलस्स घर घरस्स खेत्तस्स सत्थ सत्थस्स वारि वारिणो दहि दहिणो वत्थुणो उदाहरण वाक्य : . चतुर्थी = के लिए बहुवचन । णयराण फलाण पुप्फाण कमलाण. . घराण .. खेत्ताण सत्थाण . वारीण .. दहीण... वत्थूण : वत्थु .. .. एकवचन. णिवो णयरस्स धणं दाइ = · राजा नगर के लिए धन देता है। सिसू फलस्स कंदइ = बच्चा फल के लिए रोता है। सा पुष्फस्स सिहइ = वह फूल की चाहना करती है। . तं जलं कमलस्स अत्थि = वह जल कमल के लिए है। इदं वत्थु घरस्स अत्थि = यह वस्तु घर के लिए है। इदं वारिं खेत्तस्स अत्थि = यह पानी खेत के लिए है। अहं सत्थस्स सिहामि = मैं शास्त्र की चाहना करता हूँ। इमो तडाओ वारिणो अत्थि = यह तालाब पानी के लिए है। इदं पत्तं दहिणो अस्थि = यह पात्र (बर्तन) दही के लिए है। सो वत्थुणो धणं दाइ = वह वस्तु के लिए धन देता है। प्राकृत में अनुवाद करो : ___ यह धन नगर के लिए है। वह फल के लिए धन देता है। मैं फूल की चाहना करता हूँ। बच्चा कमल के लिए रोता है। यह पानी घर के लिए है। राजा खेत के लिए धन देता है। यह बर्तन दही के लिए है। वह दही की चाहना करता है। यह घर शास्त्र के लिए है। यह धन वस्तु के लिए है। ६० प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य: बहुवचन (नपुं.) णिवो णयराण धणं दाइ = राजा नगरों के लिए धन देता है। सिसू फलाण कंदइ बच्चा फलों के लिए रोता है। सा पुष्फाण सिहइ वह फूलों की चाहना करती है। तं जलं कमलाण अस्थि = वह जल कमलों के लिए है। इमाणि वत्थूण घराण सन्ति = ये वस्तुएं घरों के लिए हैं। इदं वारिं खेत्ताण अत्थि = यह पानी के खेतों के लिए है। सो सत्थाण सिहइ वह शास्त्रों को चाहता है। इमो.तडाओ वारीण अत्थि = यह तालाब पानी के लिए है। इदं पत्तं दहीण अस्थि यह बर्तन दही के लिए है। . ते वत्थूण धणं दांति = वे वस्तुओं के लिए धन देते हैं। प्राकृत में अनुवाद करो : यह धन नगरों के लिए है। वह फलों के लिए धन देता है। मैं फूलों को चाहता हूँ। बच्चे कमलों के लिए रोते हैं। यह पानी घरों लिए है। राजा खेतों के लिए धन देता है। वे बर्तन पानी के लिए हैं। यह घर शास्त्रों के लिए है। वह धन वस्तुओं के लिए मदद = किंवाड़ छाता शब्दकोष (नपुं.) : . अन्न = अनाज कंचण = कँगना .... लोण = नमक कंवाड़ •= - वसन = वस्त्र छत्त = . . उत्तरीय = दुपट्टा तिण = घास - कंचुअ = कुरता सिर = सिर प्राकृत में अनुवाद करो : - यह पानी अनाज के लिए है। वह नमक के लिए झगड़ता है। वह वस्त्र के लिए वहाँ. जायेगी। ये स्त्रियाँ दुपट्टे के लिए वस्त्र खरीदती हैं। मैं कुरते के लिए धन माँगता हूँ। वह कॅगना के लिए क्रोध करती है। यह किंवाड़ के लिए लकड़ी है। तुम छाते के लिए क्यों रोते हो? यह खेत घास के लिए है। यह छाता सिर के लिए है। निर्देश : इन वाक्यों का बहुवचन (चतुर्थी नपुं) में प्राकृत में अनुवाद कीजिए। खण्ड १ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ४४ नियम : चतुर्थी (पु, स्त्री, नपुं.) सर्वनाम : नि. ३६ : (क) चतुर्थी विभक्ति के एकवचन में अम्ह का मज्झ और तुम्ह का तुज्झ रूप बनता है । बहुवचन में आकार एवं 'ण' प्रत्यय जुड़कर अम्हाण एवं तुम्हाण रूप बनते हैं (ख) पुल्लिग सर्वनाम त,इम,क में चतुर्थी ए.व.में ‘स्स' प्रत्यय जुड़कर तस्स, इमस्स एवं कस्स रूप बनते हैं। बहुवचन में आकार एवं 'ण" प्रत्यय जुड़कर ताण, इमाण एवं काण रूप बनते हैं। (ग) स्त्रीलिंग सर्वनाम ता,इमा, का में चतुर्थी एकवचन में 'अ' प्रत्यय तथा बहुवचन में 'ण' प्रत्यय जुड़कर इस प्रकार रूप बनते हैं। एवच. : ताअ, इमाअ, काअ । बव.: ताण, इमाण, काण। पुल्लिंग शब्द : नि. ३७ : (क) पु. अकारान्त संज्ञा शब्दों के आगे चतुर्थी विभक्ति एकवचन में ‘स्स' प्रत्यय लगता है । जैसे—पुरिस = पुरिसस्स,णर = णरस्स, छत्त = छत्तस्स आदि। .. (ख) पु. इकारान्त एवं उकारान्त शब्दों के आगे ‘णो' प्रत्यय लगता है। जैसे-सुधि = सुधिणो, कवि = कविणो, सिसु = सिसुणो आदि। नि. ३८ : बहुवचन में चतुर्थी के पुल्लिंग शब्दों के 'अ', 'इ', 'उ' दीर्घ हो जाते हैं तथा अन्त में 'ण' प्रत्यय लगता है। जैसे पुरिस = पुरिसाण, सुधि = सुधीण, सिसु = सिसूण आदि । स्त्रीलिंग शब्द : नि. ३९ : (क) स्त्री. आकारान्त शब्दों के आगे चतुर्थी विभक्ति में एकवचन में 'अ' प्रत्यय लगता है । जैसे—बाला = बालाअ,सुण्हा = सुण्हाअ,माला = मालाअ आदि । (ख) स्त्री. इ, ईकारान्त शब्दों के आगे 'आ' प्रत्यय लगता है। यथा-जुवइ = जुवईआ, नई = नईआ,साड़ी = साडीआ आदि। (ग) स्त्री.,उ उकारान्त शब्दों के आगे 'ए' प्रत्यय लगता है । यथा-घेणु = घेणुए, बहू = बहूए, सासू = सासूए आदि। नि. ४० : स्त्री. सभी शब्दों के आगे चतुर्थी विभक्ति में बहुवचन में 'ण' प्रत्यय लगता है। जैसे—बाला = बालाण, जुवइ = जुवईण, घेणु = घेणूण, आदि। नपुंसकलिंग शब्द : नि. ४१ : नपुं. के शब्द के रूप चतुर्थी विभक्ति के एकवचन एवं बहुवचन में पुल्लिंग शब्दों जैसे बनते हैं। जैसे-ए.व. : णयरस्स, वारिणो, वत्थुणो। बव. : णयराण, वारीण, वत्थूण । प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ | ४५ तुम्हाहितो ELLER इनसे सर्वनाम : पंचमी = से एकवचन अर्थ बहुवचन ममाओ मुझसे अम्हाहितो हम से/हम दोनों से तुमाओ तुझसे तुम से/तुम दोनों से (पु) · ताओ उससे ताहिंतो उन से/उन दोनों से (स्त्री) तत्तो उससे ताहितो उन सब/उन दोनों से (पु) इमाओ इससे इमाहितो (स्त्री) इमत्तो • इससे इमाहितो (पु) कामो किससे केहितो किनसे (स्त्री) कत्तो किसस किससे काहिंतो किनसे उदाहरण वाक्य : . . एकवचन ..... सो ममाओ फलं गिण्हइ = . वह मुझसे फल ग्रहण करता है। अहं तुमाओ कमलं गिण्हामि = मैं तुझसे कमल लेता हूँ। तुमं ताओ बीहसि . = तुम उससे डरते हो। अहं तत्तो दुगुञ्छामि . = मैं उस स्त्री से घृणा करता हूँ। सो इमाओ धणं गिण्हइ = वह इससे धन ग्रहण करता है। तुमं काओ बीहसि = तुम किससे डरते हो? बहुवचन सो अम्हाहिंतो विरमा वह हमसे दूर होता है। • अहं तुम्हाहिंतो धणं गिण्हामि = मैं तुम लोगों से धन लेता हूँ। सिसू ताहिंतो बीहइ बच्चा उनसे डरता है। . सांसू ताहिंतो दुगुञ्छइ = सास उन स्त्रियों से घृणा करती है। सो इमाहिंतो फलं गिण्हइ = वह इनसे फल लेता है। -- ते केहिंतो विरमंति = वे किनसे दूर होते हैं? प्राकृत में अनुवाद करो : युवती मुझसे घृणा करती है। वह तुमसे डरता है। मैं उससे धन लेता हूँ। बच्चा . उस स्त्री से फल लेता है। वह पुरुष हम दोनों से दूर होता है। मैं तुम सबसे डरता हूँ। ... तुम उन दोनों से घृणा करते हो। मैं उन स्त्रियों से कमलों को ग्रहण करता हूँ। - खण्ड १ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ४६ अ इ एवं उकारान्त संज्ञा शब्द (पु.) : पंचमी एकवचन बालअ बालअत्तो पुरिस पुरिसत्तो छत्त छत्तत्तो सीस सीसत्तो णरत्तो सुधि कवित्तो कुलवइ · पंचमी = से ... बहुवचन बालआहिंतो .. पुरिसाहितो छत्ताहितो सीसाहितो णराहिंतो सुधीहितो कवीहितो कुलवईहितो सिसृहितो साहूहितो सुधित्तो कवि सिसु कुलवइत्तो सिसुत्तो . • साहुत्तो साहु उदाहरण वाक्य : एकवचन . पुरिसो बालअत्तो पोत्थअं मग्गइ = आदमी बालक से पुस्तक माँगता है। सो पुरिसत्तो धणं गिण्हइ वह आदमी से धन लेता है। अहं छत्तत्तो फलं णेमि = मैं छात्र से फल ले जाता हूँ। साहू सीसत्तो सत्थं मग्गइ = साधु शिष्य से शास्त्र माँगता है। .. णिवो णरत्तो चित्तं गिण्हइ = राजा मनुष्य से चित्र ग्रहण करता है। .. मुक्खो सुधित्तो बीहइ . = मूर्ख विद्वान् से डरता है। छत्तो कुलवइत्तो पोत्थअंगिण्हइ = छात्र कुलपति से पुस्तक लेता है। कवित्तो कव्वं उप्पन्नइ कवि से काव्य उत्पन्न होता है। जणओ सिसुत्तो विरमइ = पिता बच्चे से दूर होता है। सीसो साधुत्तो पढइ = शिष्य साधु से पढ़ता है। प्राकृत में अनुवाद करो : वह बालक से फल लेता है। बच्चा आदमी से डरता है। गुरु छात्र से पराजित होता है (पराजयइ)। राजा शिष्य से पुस्तक माँगता है। वह मनुष्य से धन लेता है। बच्चा विद्वान् से फल लेता है। वे कुलपति से डरते हैं। मूर्ख कवि से घृणा करता है। वह बच्चे से फूल लेता है। हम साधु से पढ़ते हैं। ६४ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य : बहुवचन (पु.) सो बालआहिंतो पुष्पाणि मग्गइ = वह बालकों से फूल माँगता है। अहं पुरिसाहितो धणं गिण्हामि = मैं आदमियों से धन लेता हूँ। पुरिसो छत्ताहिंतो पोत्थआणि णेइ = आदमी छात्रों से पुस्तकें ले जाता है। साहू सीसाहिंतो सत्थं मग्गइ = साधु शिष्यों से शास्त्र माँगता है। णिवो णराहिंतो चित्ताणि गिण्हइ = राजा मनुष्यों से चित्र लेता है। मुक्खो सुधीहितो ण बीहइ = मूर्ख विद्वानों से नहीं डरता है। छत्ता कुलवईहितो बीहन्ति = छात्र कुलपतियों से डरते हैं। कव्वाणि कवीहिंतो उप्पन्नति =. काव्य कवियों से उत्पन्न होते हैं। पिउ सिंसहिंतो विरमइ = पिता बच्चों से दूर होता है। सीसा साहूहितो पढन्ति = शिष्य साधुओं से पढ़ते हैं। प्राकृत में अनुवाद करो : .. - मैं बालकों से गैंद माँगता हूँ। वह आदमियों से डरता है। गुरु छात्रों से पराजित होता है। वे शिष्यों से पुस्तकें लेते हैं। पशु मनुष्यों से डरता है। मूर्ख विद्वानों से घृणा करते हैं। कुलपतियों से कौन नहीं डरता है? राजा कवियों से धन माँगता है। माता बच्चों से दूर नहीं होती है। वे साधुओं से उपदेश सुनते हैं। शब्दकोश (पु.) : • रुक्ख = पेड़ थण = तंडुल . = चाँवल ओटु = ओठ णेउर : गाम पाडल . . = . गुलाब . घड = घड़ा __ = बेटा दीवअ = प्राकृत में अनुवाद करों : .. पेड़ से पत्ता गिरता है। चाँवल से पानी बहता है। नूपुर से शब्द निकलता है। गुलाब से सुगन्ध आती है। पुत्र से पिता पराजित होता है। स्तन से दूध झरता है। ओठ से खून गिरता है। गाँव से आदमी आता है। घड़े से पानी गिरता है। दीपक से क्या गिरता है? निर्देश : इन वाक्यों का बहुवचन (पंचमी पु) में भी प्राकृत में अनुवाद कीजिए। नूपुर F दीपक खण्ड १ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ४७ सुण्हाहितो . माला जुवईहितो' साडितो . . धेणु . आ इ ई उ एवं ऊकारान्त संज्ञा शब्द (स्त्री.) पंचमी = से शब्द पंचमी एकवचन बहुवचन बाला बालत्तो बालाहितो माआ माअत्तो माआहितो सुण्हा सुण्हत्तो मालत्तो . . मालाहिंतो जुवइ जुवइत्तो नइत्तो नईहितो साडीहितो बहुत्तो बहूहितो : धेणुतो धेहितो. सासू सासुत्तो सासूहितो उदाहरण वाक्य : एकवचन सो बालत्तो मालं गिण्हइ = यह बालिका से माला लेता है। माअत्तो सिसू उप्पन्नइ . माता से बच्चा. उत्पन्न होता है। सासू सुण्हत्तो धणं मग्गइ = सास बहू से धन माँगती है। . मालत्तो सुयंधो आयइ माला से सुगन्ध आती है। सो जुवइत्तो दुगुञ्छइ __वह युवती से घृणा करता है। नइत्तो वारिं णेमि मैं नदी से पानी ले जाता हूँ। साडित्तो वारिं पडइ साड़ी से पानी गिरता है। सा बहुत्तो पढइ वह बहू से पढ़ती है। तुमं घेणुत्तो दुद्धं दुहसि = तुम गाय से. दूध दुहते हो। सा सासुत्तो साडि मग्गइ = वह सास से साड़ी माँगती है। प्राकृत में अनुवाद करो : माता बालिका से फूल माँगती है। वह माता से डरता है। बहू से बच्चा उत्पन्न होता है। मैं युवती से पढ़ती हूँ। वह नदी से पानी ले जाता है। माला से पानी गिरता है। साड़ी से सुगन्ध आती है। वह सास से घृणा करती है। मैं गाय से दूध दुहता हूँ। बहू सास से धन लेती है। ६६ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य : बहुवचन (स्त्री.) अहं बालाहिंतो मालाओ गिण्हामि = मैं बालिकाओं से मालाएँ लेता हूँ। सिसूओ माआहिंतो उप्पन्नति = बच्चे माताओं से पैदा होते हैं। मालाहिंतो सुयंधो आयइ । = मालाओं से सुगन्ध आती है। सासू सुण्हाहिंतो धणं मग्गइ = सास बहुओं से धन माँगती है। ते जुवईहिंतो ण दुगुञ्छन्ति । = वे युवतियों से घृणा नहीं करते हैं। अहं नईहिंतो वारिं णेमि = मैं नदियों से पानी लाता हूँ। साडीहिंतो जलं पडइ = साड़ियों से पानी गिरता है। ताओ बहूहिंतो पढन्ति = वे (स्त्रियाँ) बहुओं से पढ़ती हैं। सो घेणूहितो दुद्धं दुहइ = वह गायों से दूध दुहता है। सा सासूहिंतो वत्थं मग्गइ । = वह सासों से वस्त्र माँगती है। प्राकृत में अनुवाद करो : . वह बालिकाओं से फूल माँगती है। बच्चे माताओं से नहीं डरते हैं। सास बहुओं से घृणा नहीं करती है। वे स्त्रियाँ नदियों से पानी लाती हैं। बहुओं से बच्चे पैदा होते हैं। बच्चे युवतियों से पढ़ते हैं। मालाओं से पानी गिरता है। साड़ियों से सुगन्ध आती है। बहुएँ सासों से डरती हैं। ग्वाला गायों से दूध नहीं दुहता है। सास बहुओं से धन ग्रहण करती है। . . . शब्दकोश (स्त्री.) : ... भाउजाया भौजाई कयली = • माउसिआ = मौसी जाई. = चमेली पेडिआ = पेटी . पुत्ति = पुत्री रच्छा . _ = गली की धलि = धूल महुमक्खिया मधुमक्खी सिप्पि सीपी प्राकृत में अनुवाद करो : .. वह भौजाई से रोटी माँगता है। वे मौसी से धन लेते हैं। तुम पेटी से वस्त्र निकालते हो। उस गली से कौन जाता है? धूल से क्या पैदा होता है? केले से पत्ते गिरते हैं। चमेली से सुगन्ध आती है। वह पुत्री से क्या लेता है? वे मधुमक्खी से डरते हैं। सीपी से मोती पैदा होता है। निर्देश :- इन्हीं वाक्यों का बहुवचन (पंचमी स्त्री) में प्राकृत में अनुवाद करो। केला धुमक्खा खण्ड १ ६७ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ४८ णयर णयराहिंतो घर घराहितो. खेत्त सत्थाहिंतो' . दहि . अ, इ, एवं उकारान्त संज्ञा शब्द (नपुं.) : पंचमी = से शब्द पंचमी एकवचन बहुवचन णयरत्तो फल फलतो फलाहितो पुष्फ पुप्फत्तो पुप्फाहितो कमल कमलत्तो ... कमलाहिंतो . घरत्तो खेत्तत्तो खेत्ताहितो सत्थ सत्थत्तो वारि वारित्तो वारीहितो.. दहित्तो दहीहितो वत्थु वत्थुत्तो वत्थूहितो उदाहरण वाक्य : एकवचन बालओ णयरत्तो दूरं गच्छइ = बालक नगर से दूर जाता है। फलत्तो रसं उप्पन्नइ = . फल से रस उत्पन्न होता है। .. पुष्फत्तो सुबंधो आयइ फूल से सुगन्ध आती है। कमलत्तो वारिं पडइ कमल से पानी गिरता है। .. सो घरत्तो धणं णेइ वह घर से धन ले जाता है। .. खेत्तत्तो धनं उप्पन्नइ खेत से धान्य उत्पन्न होता है। सो सत्थत्तो विरमइ वह शास्त्र से दूर रहता है। वारित्तो कमलं णिस्सरइ = पानी से कमल निकलता है। दहित्तो घयं जायइ दही से घी बनता है। अहं तत्तो वत्थुत्तो दुगुञ्छामि = मैं उस वस्तु से घृणा करता हूँ। प्राकृत में अनुवाद करो : ___ वह आदमी नगर से जाता है। मैं पानी से डरता हूँ। तुम दही से घृणा करते हो। फल से सुगन्ध आती है। वह खेत से धन प्राप्त करता है। मैं घर से वस्तु ले जाता हूँ। वह उस वस्तु से दूर रहता है। कमल से सुगन्ध नहीं आती है। बच्चा पानी से नहीं निकलता है। वह दही से घी निकालता है। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य: बहुवचन (नपुं.) णयराहिंतो गामं दूरं अत्थि = नगरों से गाँव दूर है। फलाहिंतो रसो जायइ = फलों से रस पैदा होता है। पुप्फाहिंतो सुयंधो आयइ = फूलों से सुगन्ध आती है। कमलाहिंतो जलं पडइ = कमलों से पानी गिरता है। घराहिंतो सो अन्नं मग्गइ = घरों से वह अन्न माँगता है। खेताहिंतो धन्नं उप्पन्नइ = खेतों से धान्य उत्पन्न होता है। सत्थाहिंतो सो विरमइ = शास्त्रों से वह अलग रहता है। वारीहिंतो कमलाणि णिस्सरंति = पानी से कमल निकलते हैं। दहीहिंतो घयं जायइ दही से घी पैदा होता है। वत्थूहितो ते सया विरमंति = वस्तुओं से वे सदा दूर रहते हैं। प्राकृत में अनुवाद करो : वे आदमी नगरों से दूर आते हैं। ये पानी से डरते हैं। फलों से सुगन्ध आती है। वे खेतों से अन्न प्राप्त करते हैं। हम घरों से वस्तुएँ ले जाते हैं। कमलों से कौन डरता है ? फूलों से धूलि गिरती है। वह शास्त्रों से पत्र खींचता है। मैं वस्तुओं से घृणा नहीं करता हूँ। वे दही से घी निकालते हैं। शब्दकोश (नपुं.) : काणण= पंजर = पिंजड़ा कप्पास= तेल = विजण = चंदण = चंदन जाण = वाहन (गाड़ी) चम्म = . चमड़ा छिद्दय = छेद (बिल) प्राकृत में अनुवाद करो : ... जंगल से कौन जाता है? कपास से धागा निकलता है। पंखे से हवा आती है। चंदन से सुगन्ध आती है। चमड़े से दुर्गन्ध निकलती है। पिंजरे से पक्षी उड़ता है। तेल से. सुगन्ध नहीं आती है। घोंसले से पक्षी नहीं जाता है। वाहन से कौन उतरता है? छेद से साँप निकलता है। .. निर्देश :- इन्हीं वाक्यों का बहुवचन (पंचमी नपुं) में प्राकृत में अनुवाद करो। कपास पंखा णेड • = घौंसला खण्ड १ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ नियम : पंचमी (पु., स्त्री. नपुं.) सर्वनाम : नि. ४२ : (क) पंचमी विभक्ति के एकवचन में अम्ह का ममाओ एवं तुम्ह का तुमाओ रूप बनता है। बहुवचन में आकार एवं 'हितो' प्रत्यय जुडकर अम्हार्हितो एवं तुम्हाहिंतो रूप बनते हैं । ४९ (ख) पुल्लिंग सर्वनाम त, इम, क में पंचमी के एकवचन में इन शब्दों के दीर्घ होने के बाद 'ओ' प्रत्यय जुड़ता है। यथा— ताओ, इमाओ, काओ । बहुवचन में 'हितो' प्रत्यय जुड़ता है । यथा-ताहितो, इमाहितो, काहितो । ७० (ग) स्त्रीलिंग सर्वनाम ता, इमा, का पंचमी के एकवचन में ह्रस्व हो जाते हैं तथा उनमें 'तो' प्रत्यय जुडता है। यथा - तत्तो, इमत्तो, कत्तो । बहुवचन में 'हितो' जुड़कर पुल्लिंग के समान रूप बन जाते हैं। यथा-ताहितो, इमाहितो, काहिंतो । - पुल्लिंग शब्द : नि. ४३ : (क) सभी अ, इ एवं उकारान्त पुल्लिंग शब्दों के आगे पंचमी विभक्ति एकवचन में 'तो' प्रत्यय लगता है । जैसे पुरिस = पुरिसतो, सुधि = सुधित्तो, सिसु = सिसुत्तो आदि । (ख) पंचमी बहुवचन में सभी पुल्लिंग शब्द के अ, इ एवं उ दीर्घ हो जाते हैं। उसके बाद 'हिंतो' प्रत्यय लगता है। जैसे पुरिस = पुरिसाहितो, सुधि = सुधीहिंतो, सिसु = सिसूहिंतो । स्त्रीलिंग शब्द : नि. ४४ : (क) सभी आ, ई, ऊकारान्त स्त्री. शब्द पंचमी एकवचन में ह्रस्व हो जाते हैं। उसके बाद 'तो' प्रत्यय लगता है। जैसे बाला = बालत्तो, नई = नइतो, बहू = बहुत्तो । (ख) पंचमी बहुवचन में सभी स्त्री. शब्द दीर्घ होते हैं तथा उनमें 'हितो' प्रत्यय लगता है । जैसे - बालाहितो, नईहिंतो, बहूहिंतो आदि । नपुंसकलिंग शब्द : नि. ४५ : पंचमी के एकवचन एवं बहुवचन में नपुंसकलिंग शब्दों के रूप उपर्युक्त पुल्लिंग शब्दों के समान ही बनते हैं जैसे वारित्तो वारीहिंतो ए.व. ―णयरत्तो ब.व. - णयराहिंतो वो । वत्थूहिंतो । प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ. सर्वनाम : एकवचन अर्थ मज्झ मेरा तेरा तुज्झ तस्स उसका ताअ (एकवचन बहुवचन) बहुवचन अम्हाण तुम्हाण ताण ताण उसका इसका इसका किसका (स्त्री.) काअ किसका उदाहरण वाक्य : इमस्स इमाअ कस्स साताअ धूआ अस्थि सो इमस्स पुत्तो अस्थि • इमा काअ साडी अत्थि खण्ड १ - तं मज्झ पुत्थअं अत्थि तुझ अथि सो तस्स भ्रायरो गच्छ‍ इमाण इमाण काण काण एकवचन = = = = षष्ठी = ५० बहुवचन ताणि पुत्थआणि अम्हाण सन्ति इमाणि खेत्ताणि तुम्हाण सन्ति सो ताण जणओ अत्थि सा ताणं बहिणी अत्थि = इमाण पुत्ता सन्ति इमाणि पोत्थआणि काण सन्ति = प्राकृत में अनुवाद करो : वह मेरा भाई है । वह तेरी पुस्तक है। यह उसकी बहिन है। यह साड़ी उस स्त्री की है। वे दोनों खेत किसके हैं? ये पुस्तकें तुम दोनों की हैं। यह लड़की किनकी बहिन है ? यह घर उनका है। यह उस स्त्री की सास है। ये मालाएँ इन दोनों स्त्रियों की है। यह हम दोनों की माता है। यह तुम सबका धन है । = अर्थ हमारा / हम दोनों का तुम्हारा / तुम दोनों का उनका / उन दोनों का उन सब / उन दोनों का इन सबका इन सबका किनका किनका का, के, की वह मेरी पुस्तक है। - यह तेरा कमल है। वह उसका भाई जाता है । वह उस स्त्री की लड़की है। वह इसका पुत्र है। यह किस स्त्री की साड़ी है ? ये पुस्तकें हमारी हैं। तुम सबके हैं। वह उन सबका पिता है । वह उन सब (स्त्रियों) की बहिन है । इनके पुत्र हैं। ये पुस्तकें किन स्त्रियों की हैं ? ७१ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ कुलवईण सिसुणो अ, ई एवं उकारान्त संज्ञा शब्द (पु.) : षष्ठी = का, के, की षष्ठी एकवचन बहुवचन बालअ बालअस्स बालआण पुरिस पुरिसस्स पुरिसाण छत्त छत्तस्स छत्ताण सीस सीसस्स सीसाण .णर णरस्स णराण सुधि सुधिणो सुधीण कवि कविणो कवीण कुलवइ कुलवइणो सिसु सिसूण साहु . साहुणो साहूण उदाहरण वाक्य: एकवचन इदं पोत्थअं बालअस्स अस्थि .. यह पुस्तक बालक की है। इमो पुरिसस्स सिसू अत्थि यह आदमी का बच्चा है। इदं छत्तस्स घरं अत्थि . यह छात्र का घर है। तं सत्थं सीसस्य अत्थि वह शास्त्र शिष्य का है। णरस्स जम्मो सेट्ठो अस्थि = . मनुष्य का जन्म श्रेष्ठ है। सुधिणो णाणं वड्डइ विद्वान् का ज्ञान बढ़ता है। सो कविणो सम्माणं करइ वह कवि का आदर करता है। अत्थ कुलवइणो सासणं अत्थि . = . यहाँ कुलपति का शासन है। सिसुणो जणओ गच्छइ = बच्चे का पिता जाता है। इमो साहुणो सीसो अत्थि = यह साधु का शिष्य है। प्राकृत में अनुवाद करो : बालक का पिता जाता है। यह पुस्तक आदमी की है। यह छात्र का कार्य है। वह शिष्य का घर है। यह मनुष्य का मित्र है। वह विद्वान् की पुत्री है। कवि का काव्य उत्तम है। हम कुलपति का सम्मान करते हैं। बच्चे की माता जाती है। यह साधु का शास्त्र है। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य : बहुवचन (पु.) इमाणि पोत्थआणि बालआण सन्ति = ये पुस्तकें बालकों की हैं। इदं घरं पुरिसाण अस्थि = यह घर आदमियों का है। तं विज्जालयं छत्ताण अत्थि = वह विद्यालय छात्रों का है। तानि सत्थाणि सीसाण सन्ति = ये शास्त्र शिष्यों के हैं। णराण जम्मो सेट्ठो अत्थि = मनुष्यों का जन्म श्रेष्ठ है। सुधीण णाणं बड्डइ = विद्वानों का ज्ञान बढ़ता है। सो कवीण सम्माणं करइ = वह कवियों का सम्मान करता है। इमे कुलवईण पुत्ता सन्ति . = ये कुलपतियों के पुत्र हैं। इदं सिसूण उववणं अत्थि = यह बच्चों का उपवन है। साहूण के सीसा सन्ति । = साधुओं के कौन शिष्य हैं ? प्राकृत में अनुवाद करो: यह बालकों का पिता जाता है। उन आदमियों की ये पुस्तकें हैं। यह कार्य छात्रों का है। वह शिष्यों का घर है। इन मनुष्यों का कौन मित्र है? वह विद्वानों की सभा है। कवियों के काव्यं कौन पढ़ता है? हम कुलपतियों के शिष्य हैं। इन बच्चों की माता वहाँ रहती है। यह साधुओं का शास्त्र है। शब्दकोश (पु.) : ... : बैल खत्ति = क्षत्रिय ___ = चूहा . नाणि = ज्ञानी कबोअ ___ = कबूतर करेणु = हाथी पाचअ . = = रसोइआ · मच्चु = मृत्यु बिच्छु = बिच्छू . प्राकृत में अनुवाद करो : ...'. यह बैल की रस्सी है। वह चूहे का बिल है। यह कबूतर का पिंजड़ा है। यह - रसोइए का पुत्र है। वह बाजार का मार्ग है। यहाँ क्षत्रिय का राज्य है। वह ज्ञानी का घर - है। इस हाथी का कौन मालिक है? उसकी मृत्यु का विश्वास मत करो। यह बिच्छू का बिल है। निर्देश : इन्हीं वाक्यों का बहुवचन (षष्ठी पु) में भी प्राकृत में अनुवाद करो। वसह मूसिअ बाजार खण्ड १ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५२ आ, इ ई उ एवं ऊकारान्त संज्ञा शब्द (स्त्री.) षष्ठी एकवचन बाला बालाअ माआ माआअ सुण्हा सुण्हाअ माला माला जुवइ जुवईआ नईआ साडीआ बहूए षष्ठी = का, के, की बहुवचन बालाण माआण सुण्हाण मालाण जुवईण : नईण साडीण बहू बहूण धेणूण घेणूए सासू • सासूए सासूण उदाहरण वाक्य: एकवचन इदं वत्थं बालाअ अत्थि ' = यह वस्त्र बालिका का है। इमो पुत्तो माआअ अस्थि यह पुत्र माता का है। सुण्हाअ अभिहाणो कमला अत्थि .. बहू का नाम कमला है। मालाअ रंगं पीअं अस्थि माला का रंग पीला है। सो जुवईआ भायरो अस्थि . = . वह युवती का भाई है। इदं नईआ वारिं अत्थि यह नदी का पानी है। इमो साडीआ आवणो अस्थि यह साड़ी की दुकान है। इदं बहुए घरं अस्थि - यह बहू का घर है। धेणूए दुद्धं महुरं होइ गाय का दूध मीठा होता है। इदं वत्थू सासूए अत्थि यह वस्तु सास की है। प्राकृत में अनुवाद करो: ____ बालिका का नाम मधु है। यह माता की पुत्री है। यह साड़ी बहू की है। वह माला की दुकान है। यह युवती का पति है। यह नदी का तट है। साड़ी का रंग पीला है। यह सास का घर है। यह गाय का मालिक (स्वामी) है। यह पुस्तक बहू की है। ७४ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य : बहुवचन (स्त्री.) इमाणि वत्थाणि बालाण सन्ति = ये वस्त्र बालिकाओं के हैं। इमाण माआण पुत्ता कत्थ सन्ति = इन माताओं के पुत्र कहाँ हैं ? इमाण बहूण किं घरं अत्थि = इन बहुओं का कौन घर है? ताण मालाण किं मोल्लं अस्थि = उन मालाओं का क्या मोल है? सो जुवईण भायरो अस्थि = वह युवतियों का भाई है। इदं नईण वारिं अत्थि = यह नदियों का पानी है। इमो साडीण आवणो अस्थि = यह साड़ियों की दुकान है। बहूण तं घरं अत्थि = बहुओं का वह घर है। धेणूण दुद्धं महुरं होइ = गायों का दूध मीठा होता है। इमाण सासूण बहूओ कत्थ सन्ति = इन सासों की बहुएँ कहाँ हैं? प्राकृत में अनुवाद करो : . उन बालिकाओं का नाम क्या है? उन माताओं के वस्त्र कहाँ है? ये बहुओं की साड़ियाँ हैं। वह मालाओं की दुकान है। इन युवतियों के पति यहाँ नहीं हैं। नदियों का पानी स्वच्छ होता है। उन साड़ियों का मालिक कौन है? बहुओं के पिता वहाँ जाते हैं। गायों का घर कहाँ है? हमारी सासों के पुत्र कहाँ हैं। शब्दकोश (स्त्री.) : . .., हलिद्दा . = दिट्ठि = = मिट्टी .नीइ = नीति .: कीडिया चींटी रस्सि = .. कुंचिया . = चाबी डाली = .. भासा . = भाषा सखी प्राकृत में अनुवाद करो : ... हल्दी का रंग पीला होता है। मिट्टी का घड़ा अच्छा होता है। यह चींटी का बिल है। इस चाबी का रंग कैसा है? यह प्राकृत भाषा की पुस्तक है। यह उसकी दृष्टि का दोष है। यह हमारी नीति का फल है। उस डोरी का रंग लाल है। इस डाली का पत्ता पीला है। मेरी सखी का घर वहाँ है। निर्देश : इन वाक्यों का बहुवचन (षष्ठी स्त्री) में भी प्राकृत में अनुवाद करो। हल्दी मट्टिआ ka शाखा भासा सही खण्ड १ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ अ, इ, एवं उकारान्त संज्ञा शब्द (नपुं.) शब्द णयर फल पुप्फ कमल घर ७६ खेत्त सत्थ वारि दहि वत्थु उदाहरण वाक्य : षष्ठी एकवचन णयरस्स फलस्स पुप्फस्स कमलस्स घरस्स खेत्तस्स सत्यस्स वारिणो दहिणा वत्थुणो एकवचन सो रस्स णिवो अत्थि इमो फलस्स रुक्खो अत्थि = = = = षष्ठी = बहुवचन णयराण फलाण पुप्फाण कमलाण घराण खेत्ताण सत्थाण वारीण दहीण वत्थूण ५३ इमा पुप्फस्स ल अत्थि इदं कमलस्स पुष्पं अत्थि सो घरस्स सामी अत्थि तं खेत्तस्स वारिं अस्थि सो सत्थस्स पंडिओ अस्थि इमा वारिणो नई अस्थि इदं दहिणो पत्तं अस्थि सो वत्थुणो वावारं करे इ प्राकृत में अनुवाद करो : यह नगर का आदमी है। वह फल की दुकान है। यह फूल की शोभा है। वह कमल का सरोवर है। वह घर का नौकर है। मैं खेत का मालिक हूँ। वहाँ शास्त्र का मन्दिर है। वहाँ पानी की नदी नहीं है। दही का मूल्य क्या है ? वस्तु का संग्रह अच्छा नहीं है। = वह नगर का सजा है । यह फल का वृक्ष है 1 यह फूल की ता है 1 यह कमल का फूल है । वह घर का स्वामी है। वह खेत का पानी है। का, के, की वह शास्त्र का पण्डित है । यह पानी की नदी है। यह दही का बर्तन है । वह वस्तु का व्यापार करता है । प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य : बहुवचन (नपुं.) . ताण णयराण णिवो को अत्थि= उन नगरों का राजा कौन है ? इमो फलाण रसो अत्थि = यह फलों का रस है। इमा पुप्फाण लआ अत्थि = यह फूलों की माला है। इमा कमलाण माला अस्थि = । यह कमलों की माला है। ताण घराण को सामी अत्थि = उन घरों का कौन मालिक है? खेत्ताण वारं वहइ = खेतों का पानी बहता है। सो सत्थाण पंडिओ णत्थि = वह शास्त्रों का पण्डित नहीं है। इमा वारीण नई अत्थि =. यह पानी की नदी है। तं दहीण पत्तं अस्थि = वह दही का बर्तन है। इमो वत्थूण आवणो अत्थि = वह वस्तुओं की दुकान है। प्राकृत में अनुवाद करो : . नगरों की शोभा राजा है। फलों की दुकान यहाँ नहीं है। वह फूलों की माला गुंथती है। यह कमलों का तालाब है। वह उन घरों का नौकर है। तुम इन खेतों के स्वामी हो। वहाँ शास्त्रों का भण्डार है। पानी का रंग विचित्र है। इन दहियों का घी कौन बेचेगा? उन वस्तुओं का संग्रह मत करो। शब्दकोश (नपुं.) : . - चिन्तण . = विचार महाणस = रसोइघर . आयास आकाश उवहाण = तकिया .. हिम बर्फ तंबोल' = पान ... हेम . =, स्वर्ण मोत्तिय = मोती . . . हिरण्ण .. = चाँदी, सोना जउ = लाख प्राकृत में अनुवाद करो : ... यह विचार. का अन्तर है। वे आकाश के तारे हैं। यह बर्फ का पहाड़ है। वह सोने का कँगना है। यह चाँदी का नूपुर है। यह रसोईघर का बर्तन है। वह तकिया का कपास है। यह पान की दुकान है। वह मोती की माला है। यह लाख का भवन है। निर्देश : इन्हीं वाक्यों का (बहुवचन षष्ठी) में भी प्राकृत में अनुवाद करो। ७७ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५४ तुज्झ ताण ताण नियम : षष्ठी (पु., स्त्री., नपुं.) नि. ४६ : प्राकृत में षष्ठी विभक्ति में सभी सर्वनाम तथा संज्ञा शब्द चतुर्थी विभक्ति के समान ही प्रयुक्त होते हैं। यथासर्वनाम : - ए. व.-मज्झ तस्स इमस्स कस्स ब. व.-अम्हाण तुम्हाण इमाण काण (स्त्रीलिंग) ए. व. ताअ इमाअ का ब. व. इमाण काण . पुल्लिंग शब्द : नि. ४७ : (क) पु. अकारान्त संज्ञा शब्दों के आगे षष्ठी विभक्ति एकवचन में ‘स्स' प्रत्यय लगता है । जैसे पुरिस = पुरिसस्स, णर = णरस्स, छत्त = छत्तस्स, आदि। .. . (ख) पु. इकारान्त एवं उकारान्त शब्दों के आगे ‘णो' प्रत्यय लगता है। ... जैसे-सुधि = सुधिणो, कवि = कविणो, सिसु = सिसुणो, आदि। ... __ (ग) बहुवचन में षष्ठी के पुल्लिंग शब्दों के 'अ','इ','' दीर्घ हो जाते हैं तथा अन्त में 'ण' प्रत्यय लगता है। जैसे पुरिस = पुरिसाण, सुधि = सुधीण, सिसु = सिसूण, आदि । स्त्रीलिंग शब्द : नि. ४८ : (क) स्त्री. आकारान्त शब्दों के आगे षष्ठी विभक्ति में एकवचन में 'अ' प्रत्यय लगता जैसे—बाला = बालाअ, सुण्हा = सुण्हाअ, माला = मालाअ, आदि। .. (ख) स्त्री., इ, ईकारान्त शब्दों के आगे 'आ' प्रत्यय लगता है । यथा जुवइ = जुवईआ, नई = नईआ, साडी = साडीआ, आदि। . (ग) स्त्री, उ,ऊकारान्त शब्दों के आगे 'ए' प्रत्यय लगता है। यथा घेणु = घेणूए, बहू = बहूए, सासू = सासूए, आदि। (घ) स्त्री.सभी शब्दों के आगे षष्ठी विभक्ति में बहुवचन में 'ण' प्रत्यय लगता है । जैसे-बाला = बालाण, जुवइ = जुवईण, धेणू = घेणूण आदि। नि. ४९ : स्त्री. इकारान्त एवं उकारान्त शब्दों में दीर्घ होने के बाद प्रत्यय लगता है। यथा-जुवइ = जुवई + आ घेणू + ए आदि। नपुंसकलिंग शब्द : नि. ५० : नपुं. के सभी शब्दों के रूप षष्ठी विभक्ति में एकवचन एवं बहुवचन में पुल्लिंग शब्दों जैसे बनते हैं। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ सप्तमी = में, पर सर्वनाम : एकवचन अम्हम्मि तुम्हम्मि तम्मि अर्थ मुझ में बहुवचन अम्हेसु तुम्हेसु तुझ में हम सबमें/हम दोनों में तुम सबमें/तुम दोनों में उनमें/उन दोनों में उनमें/उन दोनों में (स्त्री) उसमें उसमें इस में तेसु तासु इन सब में इस में (पु) इमम्मि इमाए कृम्मि (स्त्री) काए उदाहरण वाक्य : किस में किस में इमेसु इमासु केसु कासु इन सब में किन में किन में एकवचन अम्हम्मि जीवणं अत्थि = मुझ में जीवन है। तुम्हम्मि पाणा सन्ति = . तुझ में प्राण है। तम्मि सत्ति अस्थि = उसमें शक्ति है। ताए लावण्णं अत्थि = । उस स्त्री में सौन्दर्य । इमम्मि वाउ नत्थि . = इसमें हवा नहीं है। काए लज्जा अस्थि किस (स्त्री) में लज्जा है? बहुवचन अम्हेसु पाणा सन्ति हम सबमें प्राण हैं। तुम्हेसु अवगुणा सन्ति तुम दोनों में अवगुण हैं। तेसु खमा वसइ उनमें क्षमा रहती है। तासु सद्धा निवसइ उनमें (स्त्रियों में) श्रद्धा निवास करती है। इमेसु पाणा ण सन्ति इनमें प्राण नहीं हैं। कासु लज्जा ण अत्थि = किन स्त्रियों में लज्जा नहीं है। प्राकृत में अनुवाद करो : ___ मुझ में शक्ति है। तुझ में सौन्दर्य है। उसमें जीवन है। इस स्त्री में क्षमा रहती है। हम सब में अवगुण हैं। तुम दोनों में प्राण हैं। उन सब में शक्ति है। किन दोनों ... स्त्रियों में सौन्दर्य है? हम दोनों में जीवन है। तुम सब में क्षमा रहती है। उन सब स्त्रियों : में लज्जा है। उन दोनों में शक्ति है। खण्ड १ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ अ, इ ई, उ एवं ऊकारान्त संज्ञा शब्द (स्त्री.) : सप्तमी एकवचन बालअ बालए पुरिसे छत्त सप्तमी = में, पर बहुवचन बालएसु पुरिसेसु पुरिस. छतेसु सीस सीसेसु •णरेसु णर सुधि कवि कुलवइ सिसु सुधिम्मि कविम्मि कुलवइम्मि सिसुम्मि साहुम्मि सुधीसु कवीसु कुलवईसु सिसूसु साहूंसु साहु उदाहरण वाक्य: एकवचन बालए सच्चं अत्थि • बालक में सत्य है। पुरिसे सटुं अस्थि आदमी में शठता है। छत्ते विनयं नत्थि · छात्र में विनय नहीं है। सीसे विनयं अत्थि शिष्य में विनय है। णरे सत्ती अस्थि ____ = . मनुष्य में.शक्ति है। सुधिम्मि बुद्धी अस्थि विद्वान् में बुद्धि है। कविम्मि संवेयणं अत्थि कवि में संवेदन है। कुलवइम्मि सद्धा अत्थि =. कुलपति में श्रद्धा है। सिसुम्मि अण्णाणं अत्थि = बच्चे में अज्ञान है। साहुम्मि तेओ अत्थि = साधु में तेज है। प्राकृत में अनुवाद करो : विनय बालक में है। सत्य छात्र में है। शिष्य में श्रद्धा है। मनुष्य में जीवन है। आदमी में अवगुण है। कवि में बुद्धि है। कुलपति में ज्ञान है। विद्वान् में क्षमा है। साधु में शक्ति है। बच्चे में प्राण है। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य : बहुवचन (पु.) केसु बालएसु सच्चं अस्थि = किन बालकों में सत्य है ? इमेस पुरिसेस सटुं णत्थि = इन आदमियों में शठता नहीं है। तेसु छत्तेसु विनयं अत्थि = उन छात्रों में विनय है। सीसेसु णाणं अस्थि शिष्यों में ज्ञान है। इमेसु णरेसु सत्ती अस्थि = इन मनुष्यों में शक्ति है। सुधीस सया बुद्धी वसइ = विद्वानों में सदा बुद्धि रहती है। तेसु कवीसु संवेयणं अत्थि = उन कवियों में संवेदन है। कुलवईसु संजमो अत्थि = कुलपतियों में संयम है। तेस सिसूस अण्णाणं अत्थि = उन बच्चों में अज्ञान है। . प्राकृत में अनुवाद करो : - बालकों में विनय है। उन छात्रों में सत्य है। किन मनुष्यों में जीवन है? उन आदमियों में अवगुण हैं। कवियों में सदा बुद्धि नहीं रहती है। कुलपतियों में हमारी श्रद्धा है। उन विद्वानों में क्षमा है। किन साधुओं में तुम सबकी भक्ति है। उन बच्चों में प्राण शब्दकोश (पु.) . तिल = ... बंभयारि = ब्रह्मचारी . गब्भ = . आहार = भोजन बंसअ = उदहि = समुद्र ऊँट भाणु ' = . सूर्य जर = बुखार सव्वण्णु = सर्वज्ञ काय = मठ = मठ पोक्खर = कोस = खजाना अंक = पासाय = महल . प्राकृत में अनुवाद करो : तिलों में तेल है। गर्भ में प्राणी है। बाँसुरी में छेद है। माँ की गोद में बच्चा है। ब्रह्मचारी में शक्ति है। नदियों का पानी समुद्र में एकत्र होता है। सूर्य में अग्नि होती है। सर्वज्ञ में ज्ञान है। महल में राजा रहता है। ऊँट पर योद्धा बैठता है। निर्देश : इन्हीं वाक्यों का बहुवचन (सप्तमी) में प्राकृत में अनुवाद करो। शरीर तालाब गोद खण्ड १ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५७. आ इ ई, उ एवं ऊकारान्त संज्ञा शब्द (स्त्री.) : शब्द सप्तमी एकवचन बाला बालाए माआ माआए सुण्हाए माला मालाए सप्तमी = में, पर बहुवचन बालासु माआसु सुण्हा सुण्हासु मालासु जुवईसु । जुवईए नईए नईसु. साडी साडीए साडीसु .. बहूए धेणूए घेणूसु सासू सासूए सासूसु उदाहरण वाक्य: एकवचन . बालाए लज्जा अस्थि बालिका में लज्जा है। माआए समप्पणं अत्थि माता में समर्पण है। सुण्हाए विनयं अत्थि बहू में विनय है। मालाए पुष्पाणि सन्ति माला में फूल हैं। जुवईए लावण्णं अत्थि युवती में सौन्दर्य है। नईए नावा सन्ति नदी में नावें हैं। साडीए पुष्पाणि सन्ति साड़ी में फूल हैं। बहूए सद्धा अत्थि बहू में श्रद्धा है। धेणूए दुद्धं अत्थि गाय में दूध है। सासूए गुणा सन्ति सास में गुण हैं। प्राकृत में अनुवाद करो : नदी में पानी है। साड़ी में फूल हैं। माला में सुगन्ध है। बहू में गुण हैं। युवती में लज्जा है। बालिका में अज्ञान है। माता में धैर्य है। सास में ज्ञान है। गाय में प्राण हैं। बहू में जीवन है। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य : तासु बालासु लज्जा अत्थि सुहासु विनयं हवइ = इमासु मालासु पुप्फाणि सन्ति : कासु जुवईसु लावण्णं णत्थि नई नावा तरन्ति साडीसु पुप्फाणि ण सन्ति बहूसु सया लज्जा वसइ कासुं धेणूसु दुद्धं अत्थि सासू गुणा वन्ति संझा निसा वाया प्राकृत में बहुवचन (स्त्री.) = = खपंड १ = = प्राकृत में अनुवाद करो : उन नदियों में आज पानी है । किनकी साड़ियों में फूल हैं ? इन मालाओं में के फूल हैं। उनकी बहुओं में सौन्दर्य है। उन बालिकाओं में अज्ञान है। बच्चों की माताओं में लज्जा नहीं होती है। सास की गायों में दूध नहीं है । बहुओं की श्रद्धा सासों में है। गुलाब शब्दकोश (स्त्री.) : भुक्खा = तिसा भूख . प्यास संध्या रात्रि वाणी = = = उन बालिकाओं में लज्जा है । बहुओं में विनय होती है। इन मालाओं में फूल हैं। किन युवतियों में सौन्दर्य नहीं है ? नदियों में नावें तैरती हैं । साड़ियों में फूल नहीं हैं। बहुओं में सदा लज्जा रहती है । किन गायों में दूध हैं ? सासों में गुण होते हैं । कलिआ चंदिया सति पंति पुहवी - = करो : अनुवाद भूख में रोटी अच्छी लगती है। प्यास में नदी का पानी भी अच्छा लगता • सन्ध्या में आकाश में लालिमा होती है। रात्रि में आकश में तारे होते हैं। किनकी वाणी मैं कली चाँदनी स्मृति कतार पृथ्वी है 1 अमृत "है? उन कलियों में सुगन्ध नहीं है । वे चाँदनी में सदा बाहर घूमते हैं । हमने पिता की स्मृति में विद्यालय स्थापित किया । विद्यालय में बच्चे कतार में खड़े होकर प्रार्थना करते हैं। इस पृथ्वी पर अनेक वस्तुएँ हैं । 333 ८३ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ५८ अ इ एवं उकारान्त शब्द (नपुं.) : सप्तमी एकवचन णयर णयरे फल सप्तमी = में, पर . बहुवचन णयरेसु फलेसु पुष्फ पुप्फे पुप्फेसु . कमल कमले कमलेसु घरे घरेसु : घर खेत खेते वारीसु दहीसुं वत्थूसु खेत्तेसु सत्य सत्थे सत्येसु वारिम्मि दहिम्मि वत्थुम्मि उदाहरण वाक्य: एकवचन अहं णयरे वसामि मैं नगर में रहता हूँ। फले रसं अत्थि फल में रस है। पुष्फे सुयंधो पत्थि · फूल में सुगन्ध नहीं है। कमले भमरो अस्थि कमल पर. भौंरा है। घरे जणा णिवसन्ति घर में लोग रहते हैं। खेत्ते घेणू अस्थि = . खेत में गाय है। सत्थे विज्जा वसइ शास्त्र में विद्या रहती है। . वारिम्मि नावा चलन्ति = . पानी पानी . पानी पर नावें चलती हैं। दहिम्मि घअं अत्थि = दही में घी है। . वत्थुम्मि पाणा ण सन्ति = वस्तु में प्राण नहीं हैं। प्राकृत में अनुवाद करो : राजा नगर में रहता है। फूल में रस है। फल में सुगन्ध नहीं है। घर में गाय है। खेत में आदमी है। पानी में जीव है। शास्त्र में ज्ञान है। दही में पानी है। कमल में पत्ते हैं। वस्तु में मेरी आसक्ति नहीं है। ८४ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य : बहुवचन (नपुं.) अम्हे तेसु णयरेसु वसामो = हम उन नगरों में रहते हैं। इमेसु फलेसु रसं णत्थि = इन फलों में रस नहीं है। केसु पुप्फेसु सुयंधो अत्थि = किन फूलों में सुगन्ध है? तेसु कमलेसु भमरा सन्ति = उन कमलों पर भौरे हैं। इमेसु घरेसु णरा निवसन्ति = इन घरों में मनुष्य रहते हैं। ताण खेत्तेसु जलं णत्थि = उनके खेतों में पानी नहीं है। सत्थेसु णाणं होइ = शास्त्रों में ज्ञान होता है। नईण वारीसु नावा तरन्ति = नदियों के पानी में नावें तैरती हैं। ताण पत्ताण दहीसु घअं अत्थि = उन बर्तनों के दही में घी है। इमेसु वत्थूसु पाणा ण सन्ति __ = इन वस्तुओं में प्राण नहीं हैं। प्राकृत में अनुवाद करो : राजा उन नगरों में घूमता है। उपवन के फूलों में सुगन्ध होती है। उनके घरों में गायें हैं। तालाब के कमलों में रस है। जंगल के खेतों में घास उत्पन्न होती है। शास्त्रों .. में इस संसार का वर्णन है। उन वस्तुओं में किसकी आसक्ति है ? शब्दकोश (नपुं.) : भाल . . = . ललाट विहाण = . . पगरक्ख . . = जूता मसाण = मरघट आभरण गहना वेसम्म विषमता रूप सागय स्वागत अंडय = अंडा .साहस = साहस . . .प्राकृत में अनुवाद करो : उसके ललाट पर तिलक है। मेरे जूते में मिट्टी है। उसके गहने में मोती है। किसके रूप में आकर्षण है? उस अंडे में प्राणी है। प्रभात में चिड़िया उड़ती है। मरघट में शान्ति होती है। विषमता में देश सुख प्राप्त नहीं करता है। हम उनके स्वागत में यहाँ हैं। साहस में शक्ति होती है। निर्देश : इन्हीं वाक्यों का बहुवचन (सप्तमी) में प्राकृत में अनुवाद करो। प्रभात खण्ड १ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ नियम : सप्तमी (पु, स्त्री, नपुं.) : सर्वनाम : नि. ५१ : (क) सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अम्ह एवं तुम्ह में तथा पुल्लिंग त, इम, क सर्वनाम में 'म्मि' प्रत्यय लगता है। बहुवचन में इनमें एकार होकर 'सु' प्रत्यय लगता है । यथाए.व. : अम्हम्मि, तुम्हम्मि, तम्मि, इमम्मि, कम्मि । बव. : अम्हेसु, तुम्हेसु, तेसु, इमेसु, - केसु । (ख) स्त्रीलिंग सर्वनाम ता, इमा एवं का में सप्तमी के एकवचन में 'ए' प्रत्यय तथा बहुवचन में 'सु' प्रत्यय लगता है। यथा ए.व. : ताए, इमाए, काए। बव. : तासु, इमासु, कासु। पुल्लिंग शब्द : नि. ५२ : (क) अकारान्त पुल्लिंग शब्दों के आगे सप्तमी विभक्ति एकवचन में 'ए' प्रत्यय लगता है जो शब्द 'ए' की मात्रा के रूप में (') प्रयुक्त होता है। जैसे पुरिस = पुरिसे, छत्त = छत्ते, सीस = सीसे, आदि। (ख) बालअ शब्द में 'ए' प्रत्यय लगने से बालए रूप बनता है। (ग) इ एवं उकारान्त पु. शब्दों में 'म्मि' प्रत्यय लगने से इस प्रकार रूप बनते हैं सुधि = सुधिम्मि, सिसु = सिसुम्मि, आदि। नि. ५३ : (क) अकारान्त पु. शब्दों के 'अ' को बहुवचन में 'ए' हो जाता है तथा उसके बाद . 'सु' प्रत्यय लगता है। जैसे-पुरिस = पुरिसेसु, छत्त = छत्तेसु, आदि । (ख) इ एवं उकारान्त पु. शब्द बहुवचन में दीर्घ हो जाते हैं फिर उनमें 'स' प्रत्यय लगता है । जैसे—सुधि-सुधी + सु = सुधीसु, सिसु = सिसूसु।। स्त्रीलिंग शब्द : नि. ५४ : (क) आ, ई, ऊकारान्त स्त्री. शब्दों के आगे सप्तमी एकवचन में 'ए' प्रत्यय लगता है । जैसे—बाला = बालाए, साडी = साडीए, बहू = बहूए । (ख) इ एवं उकारान्त स्त्री. शब्द दीर्घ हो जाते हैं तब उनमें 'ए' प्रत्यय लगता है। जैसे-जुवइ = जुवईए, धेणु = घेणूए, आदि। .. नि. ५५ : स्त्री. सभी शब्द सप्तमी बहुवचन में दीर्घ आ, ई, ऊ वाले होते हैं, जिनके आगे 'सु' प्रत्यय लगता है। जैसे—बाला = बालासु, जुवइ = जुवईसु, घेणु = घेणूसु, सासू = सासूसु, आदि। नपुंसकलिंग शब्द : नि. ५६ : सप्तमी एकवचन और बहुवचन में नपुं. शब्दों के रूप पु. शब्दों की तरह बनते हैं। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभक्ति अभ्यास हिन्दी में अनुवाद करो : सो ममं पासइ । अहं ताओ नमामि । तुम इन्दं नमहि। जीवा मा हणउ । ते बंधुणो खमन्तु । सो अज्ज अच्छरसं पासिहिइ। तुम्हे पावाणि मा करह । तं दुक्खं ताहि होइ। अहं हत्थेण पत्तं लिहामि । सा जीहाए फलं चक्खउ। पक्खी चंचुए अन्नं चिणिहिइ । तं वत्थं काण अस्थि । सेवआण किं अत्थि? अहं समणीण वत्थाणि दाहिमि । सो अन्नस्स धणं मग्गइ। अहं कवाडस्स कटुं संचामि। सिसू ममाओ बीहइ। अहं ताहिंतो पुष्पाणि गिण्हामि। रुक्खहिंतो पत्ताणि पडन्ति । सिप्पिहिंतो मोत्तिआणि जायन्ति । सा पेडिआहितो वत्थाणि गिण्हइ । ते मज्झ भायरा सन्ति । तानि पोत्थआणि काण सन्ति । अत्थ खत्तीणं रज्जं अस्थि । तं मोत्तिआण माला काअ अत्थि? तेस कायेस् पाणा सन्ति । मढेसुं छत्ता वसन्ति । अम्हे चंदिआए निसाए भमाओ। प्राकृत में अनुवाद करो : वे किसको पूछते. हैं ? मन्त्रियों को कौन देखता है? वह वाणी को सुनता . . है। वे आँसुओं को गिराती हैं । यह कार्य किसके द्वारा होता है ? वे आँखों ... से पुस्तक को देखते हैं। वह कुण्डलों से शोभित होती है। बच्चे घटनों • से चलेंगे। वह तलवार से हिंसा नहीं करेगा। ये कमल हमारे लिए हैं। प्राणियों के लिए अन्न है। यात्रा के लिए धन कहाँ है? यह धन सभा के लिए है। ये फल वैद्य के लिए हैं। मैं उन स्त्रियों से फूल लेता हूँ। गाय के थनों से दूघ झरता है। गलियों से कौन नहीं जाता है ? वे चूहों के छेद हैं। हम मिट्टी की गाड़ी देखते हैं। तकिये की रुई कौन निकालता है? सोने के मृग को किसने मारा? तुम इन खेतों के स्वामी हो। समुद्रों में जल है । तुम्हारी वाणी में अमृत है। कलि में सुगन्ध नहीं होती है। विषमता ... में सुख नहीं होता है। उसकी गहनों में आसक्ति नहीं है। खण्ड १ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६० सम्बोधन अ, इ एवं उकारान्त संज्ञा शब्द (पु.) : शब्द सम्बोधन एकवचन बालअ बालओ पुरिस पुरिसो बहुवचन : बालआ पुरिसा छत्त छत्तो छत्ता .. सीस सीसा सुधि सुधी कुलवई साहु साहुणो. सीसो णर णरा सुधिणो कवि कवी कविणो कुलवइ कुलवइणो सिसु सिस . . . सिसूणो . , साहू उदाहरण वाक्य : बालओ ! पोत्थअं पढहि = हे बालक, पुस्तक पढ्ने। छत्ता ! विज्जालयं गच्छह = हे. छात्रों, विद्यालय जाओ.. सधी ! तत्थ उपदिसहि = • हे विद्वान्, वहाँ उपदेश दो। । कविणो ! अत्थ कव्वं पढह = हे कवियों, यहाँ काव्य पढ़ो। सिस ! मा कन्दहि = हे बच्चे, मत रोओ। साहुणो ! दाणं गिण्हह हे साधुओं, दान ग्रहण करो। प्राकृत में अनुवाद करो : हे आदमी, पाप मत करो। हे शिष्यों, शास्त्र लिखो। हे मनुष्य, धन की इच्छा मत करो। हे कवि, गीत गाओ। हे बच्चों, वहाँ नाचो। हे साधु, वस्तुओं को संचित मत करो। शब्दकोश (पु.) : निव = . राजा . तवस्सि = तपस्वी ___ बुद्धिमान गहवई = मुखिया भड ___ = योद्धा रिसि =ऋषि आयरिअ आचार्य गुरु = गुरु = बादल रिउ = शत्रु निर्देश : इन शब्दों के सम्बोधन एकवचन और बहुवचन में रूप लिख कर प्राकृत में उनके वाक्य बनाओ। बुंह मेह प्राकृत स्वय-शिक्षक Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६१ बाला नई साडी आ, इ ई उ एवं ऊकारान्त संज्ञा शब्द (स्त्री.) : सम्बोधन = हे! सम्बोधन एकवचन बहुवचन 'बाला बालाओ माआ माआ माआओ सुण्हा सुण्हा सुहाओ माला माला मालाओ जुवइ जुवइ जुवईओ नईओ साडि साडीओ बहू बहूओ घेणूओ सासू सासूओ उदाहरण वाक्य : गला ! विज्जालयं गच्छहि = हे बालिके, विद्यालय जाओ। सुण्हाओ ! ते नमह . = हे बहुओं, उनको नमन करो। जुवइ ! कज्ज झत्ति करहि = हे युवति, कार्य शीघ्र करो। माआओ ! सिसुणो पालह = हे माताओं, बच्चों को पालो। सासु ! ममं वत्थं दाहि = हे सास, मुझे वस्त्र दो। ... बालाओ ! तत्थ खेलह = हे बालिकाओं, वहाँ खेलो। प्राकृत में अनुवाद करो: .:. हे बहू, उसको भोजन दो। हे युवतियों, वहाँ नृत्य करो। हे माता, इनकी रक्षा करो। हे सासों, बहुओं की निन्दा मत करो। हे बहुओं, उनकी सेवा करो। शब्दकोश (स्त्री.) : ... धूआ = पुत्री इत्थी = स्त्री गोवा = ग्वालिन दासी = नौकरानी भारिया धाई = धाय कुमारी = कुँआरी नडी = नटी बहिणी = माउसिआ= मौसी - निर्देश : इन शब्दों (स्त्री) के सम्बोधन एकवचन और बहुवचन में रूप लिखकर . प्राकृत में उनके वाक्य बनाओ। पत्नी बहिन खण्ड १ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ सम्बोधन बहुवचन णयराणि अ, इ एवं उकारान्त संज्ञा शब्द (नपुं.) : सम्बोधन एकवचन णयर णयर फल फल पुष्फ कमल कमल घर खेत्त फलाणि पुष्फ घर पुष्पाणि कमलाणि घराणि खेत्ताणि सत्थाणि वारीणि दहीणि सत्य वारि सत्थ वारि दहि वत्थ वत्यु वत्यूंणि । उदाहरण वाक्य : णयर ! अहं तुमं नमामि = हे नगर, मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। पुष्फ ! तुम मज्झ मित्तं असि = हे फूल, तुम मेरे मित्र हो। कमलाणि ! सरं तुम्हाण घरं अत्थि = हे कमलो, सरोवर तुम्हारा घर है। खेत्ताणि ! तुम्ह अम्हाण पालआ सन्ति = हे खेतो, तुम हमारे पालक हो। सत्थ ! तुम तस्स गुरु असि = हे शास्त्र, तुम उसके गुरु हो।। वारि ! तुमं संसारस्स जीवणं असि = हे पानी, तुम संसार का जीवन हो। प्राकृत में अनुवाद करो : __ हे नगरो, तुम्हें आज हम छोड़ रहे हैं। हे फलों, तुम रोगी का जीवन हो। हे कमल, तुम तालाब की शोभा हो। हे फूलों, तुम कवि की प्ररेणा हो। हे घर, तुम प्राणियों की शरण हो। हे वस्तु, तुममें प्राण नहीं हैं। शब्दकोश (नपुं.) : वण = जंगल पिंजर = हियय = हृदय चंदण चंदन मित्त = मित्र आयास आकाश नयण = आँख हेम स्वर्ण चारित्त = चारित्र मोत्तिय = मोती निर्देश : इन शब्दों (नपुं) के सम्बोधन एकवचन और बहुवचन में रूप लिख कर प्राकृत में उनके वाक्य बनाओ। पिंजड़ा . प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ नियम : सम्बोधन (पु, स्त्री, नपुं.) । पुल्लिंग शब्द : नि. ५७ : पुल्लिंग अ, इ एवं उकारान्त शब्दों के सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति के समान रूप बनते हैं जैसे. ए.व.: बालओ सुधी सिसू बव. : बालआ सुधिणो सिसुणो स्त्रीलिंग शब्द : नि. ५८ : (क) आकारान्त स्त्री. शब्दों के सम्बोधन में प्रथम विभक्ति के समान रूप बनते हैं। ए.व. : बाला - सुण्हा माला बर्व. : . बालाओ सुण्हाओ मालाओ (ख) ईकारान्त तथा ऊकारान्त स्त्री.शब्द सम्बोधन के एकवचन में हस्व हो जाते हैं। (ग) बहुवचन में प्रथम विभक्ति के बहुवचन जैसे ही उनके रूप बनते हैं। जैसेए.व. : नई = नइ, बहू = बहु, सासू = सासु . बव.:... नईओ. बहूओ सासूओ . नपुंसकलिंग शब्द : . . . नि. ५९ : (अ) अ,इ एवं उकारान्त नपुं. शब्द सम्बोधन के एकवचन में मूल शब्द के रूप में . ही प्रयुक्त होते हैं । जैसे- . ___ ए.व. : णयर = णयर, वारि = वारि, ' वत्थु = वत्थु .. (ब) सम्बोधन बहुवचन में उनके प्रथमा विभक्ति के बहुवचन वाले रूप प्रयुक्त होते हैं। जैसे. बव. : णयराणि वारीणि वत्थूणि अभ्यास हिन्दी में अनुवाद करो : निवो, अम्हाण रक्खं करहि । भडा, तत्थ जुझं मा करह। रिसी, ते णाणं दाहि । गुरुणो, तुम्हाण अम्हे सीसा सन्ति । गोवा, मज्झं दुद्धं दाहि। दासि, इदं कजं करहि । बहिणीओ, अम्हाण कहं सुणह। हियय, दाणिं तुमं सन्तं होहि । मित्ताणि, पावकम्माणि मा करह । चारित्त, तुमं मज्झ, धणं असि । .. खण्ड १ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वनाम एकवचन : पु. स्त्री. स्त्री. पुल्लिंग स्त्रीलिंग नपुंसकलिंग शब्द - अम्ह be इमा तुमं क को इमो सा C8 इमा तुम इम मए तुमए तेण इमेण केण ताए ताअ काए तण मज्झ ममाओ मज्झ अम्हम्मि तुज्झ तुमाओ तत्तो |तस्स ताओ तस्स । तम्मि इमस्स इमाओ इमस्स इमम्मि कस्स काओ कस्स कम्मि इमाए इमाअ इमत्तो इमाअ इमाए काअ कत्तो काअ काए तस्स ताओ तस्स तम्मि इमेण इमस्स इमाओ इमस्स इमम्मि ताअ ताए कस्स काओ कस्स कम्मि तुम्हम्मि बहुवचन It ता.ओ काणि काणि इमेहि प्राकृत स्वयं-शिक्षक अम्हे तुम्हे अम्हे अम्हेहि तुम्हेहि तेहि केहि अम्हाण तुम्हाण ताण इमाण काण अम्हाहिंतो तुम्हाहिंतो ताहिंतो . इमाहिंतो काहिंतो अम्हाण तुम्हाण इमाण अम्हेसु तुम्हेसु तेसु । इमेसु केसु ताओ. ताहि ताण ताहिंतो इमाओ इमाओ इमाहि इमाण इमाहितो इमाण इमासु . काओ काओ काहि काण काहिंतो काण कासु.. ताणि ताणि तेहि ताण ताहितो इमाणि इमाणि इमेहि इमाण इमाहिंतो इमाण केहि । काण काहिंतो काण ताण काण . ताण ताण तासु केसु Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड १ . संज्ञाशब्द स्त्रीलिंग शब्द नई जुवई जुवई घेणु घेणू नई बहू बह एक वचन : पुल्लिग पुरिस सुधि साहु पुरिसो सुधी साहू पुरिसं सुधिं साहुं पुरिसेण सुधिणा साहुणा पुरिसस्स सुधिणो साहुणो पुरिसत्तो सुधित्तो साहुत्तो पुरिसस्स सुधिणो साहुणो धेणुं धेणूए । नईए बाला बाला बालं बालाए बालाअ बालत्तो बालाअ बालाए बाला जुवई जुवईए. जुवईआ जुवइत्तो. | जुवईआ | जुवईए जुवइ धेणूए नपुंसकलिंग वारि वत्यु वारिं वत्थु वारिं वत्थु वारिणा वत्थुणा वारिणो वत्थुणो वारित्तो वत्थुत्तो वारिणो वत्थुणो वारिम्मि वत्थुम्मि वारि वत्थु णयर णयरं णयरं णयरेण णयरस्स णयरत्तो णयरस्स णयरे णयर बहुं बहूए बहूए बहुत्तो |बहूए बहूए . नईआ नइत्तो नईआ नईए नइ धेणुत्तो धेणूए सुधिम्मि साहुम्मि पुरिसो सुधि धेणुए धेणु साहू सुधिणो साहणो बहुवचन पुरिसा पुरिसा सुधिणो पुरिसेहि सुधीहि पुरिसाण पुरिसाहिंतो सुधीहितो पुरिसाण सुधीण पुरिसेस सुधीसु पुरिसा सुधिणो सुधीण साहुणो साहूहि साहूण साहूहिंतो साहूण साहूसु साहुणों बालाओ बालाओ जुवईओ बालाहि बालाण बालाहिंतो बालाण जुवईण बालासु जुवा बालाओ जुवईओ नईओ नईओ नईहि नईण नईहिंतो धेणूओ धेणूओ धेणूहि धेणूण धेणूहिंतो धेणूण बहूओ बहूओ बहूहि |बहूण बहूहिंतो |बहूण णयराणि वारीणि णयराणि वारीणि णयरेहि वारीहि णयराण वारीण णयराहिंतो वारीहिंतो णयराण वारीण णयरेसु वारीस णयराणि वारीणि वत्थूणि वत्थूणि वत्थूहि वत्थण वत्थूहिंतो वत्थूण वत्थूसु वत्थूणि नईण घेणूसु नईओ घेणूओ बहूओ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ संज्ञार्थक क्रियाएँ शब्द आयार उवदेस कोव पाढ णास लेह तव हरिस फास (क) उदाहरण वाक्य : अर्थ आचार उपदेश क्रोध पाठ नाश लेख तप ९४ इमो महावीरस्स उवदेसो अस्थि सो कोवं जिण मुणी तवेण झाय सो कम्मस्स खयस्स तवइ बाओ को बह साहू कोवस्स णासं कुणइ सो वे लीणो अतिथ उवदेसओ आगच्छइ सो सेवअं धणं देइ अहं रक्खएण सह गच्छामि सो सासअस्स नमइ मुण उवास अत्तो भोअणं मग्गइ सो अस्स पुत्तो अस्थि सावए भत्ती अत्थि = = स्पर्श भारवह खय क्षय रक्खअ नि. ६० : इन शब्दों के रूप अकारान्त पुल्लिंग शब्दों की तरह सभी विभक्तियों में चलते हैं। = = = = (ख) - = = = = = शब्द उवदेसअ उवासअ किसअ गायअ सासअ नत्तअ = सावअ सेवअ (12) ६४ (पुल्लिंग संज्ञा ) अर्थ उपदेशक उपासक कृषक गायक शासक नर्त्तक श्रावक सेवक मज़दूर रक्षक यह महावीर का उपदेश है। वह क्रोध को जीतता है । मुनि तप के द्वारा ध्यान करता है। वह कर्म के क्षय के लिए तप करता है । बालक क्रोध से डरता है । साधु क्रोध का नाश करता | वह तप में लीन हैं। उपदेशक आता है। 1 वह सेवक को धन देता है । मैं रक्षक के साथ जाता हूँ । वह शासक के लिए नमन करता है 1 मुनि उपासक से भोजन माँगता है । वह नर्तक का पुत्र है । श्रावक में भक्ति है। प्राकृत में अनुवाद करो : उसका आचार अच्छा है। वह किस पुस्तक का पाठ है ? उसके लेख में शक्ति है । पापों का नाश कब होगा । नारी के स्पर्श में क्षणिक सुख है। तप में कर्मों का क्षय होता है। वह महावीर का उपासक है। तुम किस देश के शासक हो। वह राजा का सेवक है। मजदूरों के द्वारा महल बनता है । किसान अन्न पैदा करता है । प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६५ संज्ञार्थक क्रियाएँ : (स्त्रीलिंग संज्ञा) (क) अर्थ उवलद्धि EE उपलब्धि मुक्ति MP गति संति दिट्ठि दृष्टि शान्ति बुद्धि बुद्धि . सिद्धि सिद्धि - भक्ति कित्ति कीर्ति नि. ६१ : इन शब्दों के रूप इकारान्त स्त्रीलिंग शब्दों की तरह सभी विभक्तियों में चलते हैं। . उदाहरण वाक्य : मज्झ कज्जस्स इमा उवलद्धि अस्थि = मेरे कार्य की यह उपलब्धि है। जणा तस्स भर्ति पासन्ति = लोग उसकी भक्ति को देखते हैं। बुद्धीए कज्जाणि सिज्झन्ति = बुद्धि से कार्य सिद्ध होते हैं। मुत्तीआ सों तवं कुणइ . = मुक्ति के लिए वह तप करता है। सो कित्तित्तो बीहइ = वह कीर्ति से डरता है। इदं खंतीए दारं अस्थि = यह शान्ति का द्वार है। सो थुईसु लीणो अस्थि = वह स्तुतियों में लीन है। "शब्दकोश (स्त्री.) : सति = स्मृति कंति = कान्ति . पंति = पंक्ति सिद्धि = सिद्धि मइ. = . मति दित्ति = • रइ = रति धिइ = धैर्य प्राकृत में अनुवाद करो : ___ उस तरुणी की गति धीमी है। उनकी दृष्टि तेज है। इस कार्य की सिद्धि कब होगी? तुम सब ईश्वर की भक्ति करो। स्तुति से देवता प्रसन्न नहीं होते हैं। शान्ति से जीवन में सुख होता है। कवि काव्य लिख कर कीर्ति प्राप्त करता है। निर्देश : इन संज्ञार्थक क्रियाओं (स्त्रीलिंग) के सभी विभक्तियों में रूप लिख कर अभ्यास कीजिए। दीप्ति खण्ड १ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ संज्ञार्थक क्रियाएँ : शब्द उदाहरण वाक्य : अर्थ · अध्ययन आचरण कथन गर्जना ग्रहण करना चुनना दौड़ना नमन करना ९६ पच्चूसे अज्झयणं वरं अत्थि सो तस्स आयरणं पासइ केवलं कहणेण किं होइ सो पढणस्स गच्छइ सो पूणत्तो विरम जीवणस्स किं उद्देस्सो अत्थि तस्स कह सच्चं अत्थि अज्झयण आयरण कहण गज्जण गहण चयन धावण मरण नमण पालन करना पढण • पढ़ना कंपन पूयण पूजन बैठना : आसण नि. ६२ : इन शब्दों के रूप अकारान्त नपुंसकलिंग शब्दों की तरह सभी विभक्तियों में चलते हैं । == = = = शब्द रक्खण लेहण सयण सवण गमण जीवण . ६६ मरण पोसण कंपण (नपुंसकलिंग) अर्थ रक्षा करना लिखना सोना सुनना जाना जीवन प्रातः काल में अध्ययन करना अच्छा है । वह उसके आचरण को देखता है । केवल कहने से क्या होता है ? वह पढ़ने के लिए जाता है। 1 वह पूजन करने से अलग होता है । जीवन का क्या उद्देश्य है ? उसके कहने में सत्य है । प्राकृत में अनुवाद करो : उसने बादल की गर्जना सुनी। युवती पति का चयन करती है । तुम्हारा दौड़ना अच्छा नहीं है। दिन में पूजन करना अच्छा है। वह लेखन से धन इकट्ठा करता बाल में सोना हानिकारक है। शास्त्रों का सुनना हितकारी है । है। प्रातः निर्देश : इन संज्ञार्थक क्रियाओं (नपुंसकलिंग) के सभी विभक्तियों के रूप लिख कर अभ्यास कीजिए । प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६७ अर्थ गुणवंत अप्पाणो चंदम चंदमा कुछ अन्य पुल्लिंग संज्ञा शब्द : एकवचन (प्रथमा) बहुवचन भगवंत भगवान् भगवंतो भगवंता गुणवान गणवंतो गुणवंता णाणवंत ज्ञानवान णाणवंतो णाणवंता जुवाण युवक जुवाणो जुवाणा अप्पाण आत्मा अप्पाणा राय राजा रायो राया जम्म जन्म . जम्मो जम्मा . चन्द्रमा . चंदमो नि, ६३ : इन शब्दों के रूप अकारान्त पुल्लिंग शब्दों की भांति प्रयुक्त किये जाते ... हैं। यद्यपि विकल्प से इनके अन्य रूप भी बनते हैं। उदाहरण वाक्य : . . एकवचन भगवंतो वीयराओ होइ = भगवान् वीतराग होता है। सों भगवंतं पणमइ = वह भगवान् को प्रणाम करता है। भगवंतेण विणा धम्मो नत्थि = भगवान् के बिना धर्म नहीं है। __ अहं भगवंतस्स नमामि = मैं भगवान् के लिए नमन करता हूँ। ते भगवंतत्तो किं मग्गन्ति = । वे भगवान् से क्या माँगते हैं? भगवंतस्स णाणो सेट्ठो अत्थि = भगवान् का ज्ञान श्रेष्ठ है। भगवंते अवगुणा ण सन्ति = भगवान् में अवगुण नहीं हैं। भगवंतो! अम्हे उवदिसहि = हे भगवान् ! हमें उपदेश दो। प्राकृत में अनुवाद करो वह भगवान् को पूजता है। गुणवान राजा लोगों का कल्याण करता है। ज्ञानवान साधु के साथ हम रहते हैं। राजा युवक से डरता है। आत्मा का कल्याण कब होगा? राजा का पुत्र नगर में घूमता है। वह पूर्व जन्म में मृग था। बालक चन्द्रमा को देखता है। हे ज्ञानवान ! उन्हें शिक्षा दो। खण्ड १ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य : = भगवंता वीयराआ होन्ति अम्हे भगवंता पणमामो भगवंतेहि विणा भत्ती ण होइ इमो जिणालय भगवंताण अत्थि = भगवंताहिंतो जणा किं मग्गन्ति इमे भगवंताण सावआ सन्ति भगवंतेसु राअदोसो ण होइ भगवंता! अम्हे उपदिसन्तु ९८ प्र. द्वि. बहुवचन (पु.) एकवचन राया राइणं = = = राइणा राइणो राणो इणो राइम्मि = = प्राकृत में अनुवाद करो : भगवान् यहाँ कब आयेंगे? राजा. गुणवानों का सम्मान करता है। ज्ञानवान साधुओं' के साथ वह नहीं रहता है । बालक युवकों से डरते हैं । तुम संसार की आत्माओं का कल्याण करो । वहाँ राजाओं की सभा है। वे पूर्व जन्मों में कहाँ थे ? चन्द्रमाओं में किसका चित्र है ? निर्देश : = भगवान् वीतराग होते हैं । हम भगवानों को प्रणाम करते हैं। भगवानों के बिना भक्ति नहीं होती है। यह जिनालय भगवानों के लिए है । भगवानों से लोग क्या माँगते हैं ? ये भगवानों के श्रावक हैं । भगवानों में रागद्वेष नहीं होता है 1 हे भगवानो ! हमें उपदेश दो । (क) उपर्युक्त भगवंत आदि शब्दों के सभी विभक्तियों में रूप लिखिए । • (ख) राय (राजा) शब्द के विकल्प वाले ये रूप भी याद करलें । बहुवचन राइणो राइणो तृ. च. पं. ष. राई स. . राईसु सं. राया राइणो नि. ६४ : राय शब्द के वे उपर्युक्त रूप पुल्लिंग इकारान्त शब्द की तरह हैं । किन्तु प्रथमा, द्वितीया एवं पंचमी एकवचन में राया, राइणं, राइणों ये रूप उससे भिन्न हैं। राई राईण राईहिंतो प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६८ विशेषण शब्द (पु. स्त्री., नपुं.) : गुणवाचक अर्थ अर्थ उत्तम श्रेष्ठ (अच्छा) गंभीर गंभीर अहम नीच चवल चंचल कठोर सीयल ठंडा दयालु दयावान उण्ह गरम किसण काला नाणि धवल बलिट्ठ बलशाली रुग्ग रोगी निब्बल कमजोर . णीरोग स्वस्थ . त्यागी. पमाइ आलसी लुद्ध . लोभी उज्जमसील उद्यमशील नि. ६५ : इन विशेषण शब्दों के रूप एवं लिंग विशेष्य के अनुसार बनते हैं। ज्ञानी सफेद . मुक्ख चाइ उदाहरण वाक्य : प्रथमा-एकचन . (पु) उत्तमो साहू झाइ (स्त्री) उत्तमा जुवई पढइ (नपुं) उत्तमं मित्तं पच्चाअइ .. द्वितीया-एकवचन (पु) उत्तमं कविं सो नमइ (स्त्री) उत्तमं साडि सा इच्छइ (नपुं) उत्तमं सत्यं सा पढइ ... तृतीया-एकवचन . (पु) उत्तमेण सुधिणा सह सो पढइ । (स्त्री) उत्तमाए सासूए सह सुण्हा वसइ (नपुं) उत्तमेण घरेण बिणा सुहं नत्थि चतुर्थी-एकवचन ... (पु) उत्तमस्स छत्तस्स इदं फलं अस्थि (स्त्री) उत्तमाअ बालाअ तं पुष्फ अस्थि (नपुं) उत्तमस्स वत्थुणो इदं धणं अस्थि प्रथमा-बहुवचन उत्तमा साहुणो झायन्ति उत्तमाओ जुवईओ पढन्ति उत्तमाणि मित्ताणि पच्चाअन्ति द्वितीया-बहुवचन उत्तमा कविणो ते नमन्ति उत्तमाओ साडीओ ताओ इच्छन्ति उत्तमाणि सत्थाणि सा पढइ तृतीया-बहुवचन उत्तमेहि सुधीहिं सह सो पढइ उत्तमाहि सासूहि सह कलहं ण होइ उत्तमेहि पुप्फेहि सोहा होइ चतुर्थी-बहुवचन उत्तमाण छत्ताण इमाणि फलाणि सन्ति उत्तमाण बालाण ताणि पुप्फाणि संति उत्तमाण वत्थूण इदं धणं अस्थि खण्ड १ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमी-एकवचन पंचमी-बहुवचन (पु) उत्तमत्तो साहुत्तो सो पढइ उत्तमाहितो कवीहितो कव्वं उत्पन्नइ (स्त्री) उत्तमत्तो मालत्तो सुअंधो आयइ उत्तमाहितो मालाहिंतो सुअंधो आयइ. . (नपुं) उत्तमत्तो फलत्तो रसं उप्पन्नइ उत्तमाहितो फलाहिंतो रसं उप्पन्नइ षष्ठी-एकवचन षष्ठी-बहुवचन (पु) उत्तमस्स पुरिसस्स इमो पुत्तो अत्थि उत्तमाण पुरिसाण इमे पुत्ता सन्ति । (स्त्री) उत्तमाए लताए इदं पुर्फ अस्थि उत्तमाण लताण इमाणि पुष्पाणि संति (नपुं) उत्तमस्स पुष्फस्स इदं रसं अस्थि उत्तमाण पुप्फाण इमा माला अस्थि सप्तमी-एकवचन सप्तमी-बहुवचन ... (पु) उत्तमे सीसे विनयं होइ उत्तमेसु सीसेसु विनयं होइ. (स्त्री) उत्तमाए नारीए लज्जा होइ उत्तमेसु नारीसु लज्जा होइ (नपुं) उत्तमे घरे खन्ती होइ उत्तमेसु धरेसु खन्ती होइ निर्देश : उपर्युक्त वाक्यों का हिन्दी में अनुवाद करो। प्राकृत में अनुवाद करो : . वह नीच पुरुष है। उस राजा का कठोर शासन है। यह साधु बहुत दयालु है। : लोभी मनुष्य दुःख प्राप्त करता है। गंभीर नदी बहती है। चंचल युवती लज्जा नहीं करती है। यह जल शीतल है। अग्नि सदा गरम होती है। ज्ञानी आचार्य का शिष्य आदर करते हैं। मूर्ख आदमियों की सभा में वह निन्दा करता है। आलसी नही पढ़ता है। उद्यमशील बालिकाओं की वह प्रशंसा करता है। हिन्दी में अनुवाद करो : किसणो सप्पो गच्छइ । धवलो मेहो ण वरसइ । बलिट्ठो पुरिसो धणं अज्जइ । लुद्धा . जणा निडरा होन्ति । मुक्खा बाला चित्तं फाडइ । गीरोगे सरीरे सत्ती होइ । चवलेण वाणरेण सह मिओ ण गच्छइ। उत्तमाण बालाण ताणि पुप्फाणि संति। अहमेसु जणेसु गुणा ण सन्ति । १०० प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ६९ विशेषण शब्द (पु, स्त्री., नपुं.) : तुलनात्मक शब्द अर्थ शब्द अर्थ अर्थ अप्प छोटा कणीअस उससे छोटा कट्ठि सबसे छोटा जेट्ठ. बड़ा जेट्टयर - उससे बड़ा जेट्ठयम सबसे बड़ा पिअ प्रिय पिअअर उससे प्रिय पिअअम सबसे प्रिय उच्च ऊँचा उच्चअर उससे ऊँचा उच्चअम सबसे ऊँचा सेट्ठ श्रेष्ठ सेट्ठअर उससे श्रेष्ठ से?अम सबसे श्रेष्ठ बहु . बहुत भूयस उससे अधिक भूयिट्ठ सबसे अधिक खुद्द नीच खुद्दअर उससे नीच खुद्दअम सबसे नीच नि. ६६. : इन विशेषण शब्दों के सभी विभक्तियों में रूप एवं लिंग विशेष्य के ____ अनुसार होते हैं। जैसे-सेंट्ठो पुत्तो, सेट्ठा धूआ, सेढे पोत्थों । उदाहरण वाक्य : तुम ममत्तो कणीअसो अत्थि = तुम मुझसे छोटे हो। मोहणो तस्स कणिट्ठो पुत्तो अत्थि = मोहन उसका सबसे छोटा पुत्र है। सईसु सीया सेंट्ठा अत्थि = सतियों में सीता श्रेष्ठ है। नईस गंगा सेटअमा अत्थि. . = नदियों में गंगा सबसे श्रेष्ठ है। गिरीसु हिमालयो उच्चअमो अस्थि = पर्वतों में हिमालय सबसे ऊँचा है। तस्स पुत्ताणं रामो जेठो अत्थि = उसके पुों में राम सबसे बड़ा है। .. सव्व जन्तूसु गद्दभो खुद्दअरो होइ = सब प्राणियों में गधा नीच होता है। .. कणिट्ठा धूआ पियअमा होइ = छोटी पुत्री सबसे प्रिय होती है। . प्राकृत में अनुवाद करो : - मैं तुमसे छोटा हूँ। तुम उसके सबसे बड़े पुत्र हो । साधुओं में काश्यप श्रेष्ठ है। वह पेड़ सबसे ऊँचा है। बर्फ सबसे अधिक शीतल होता है। तुम्हें उसकी पुत्री सबसे अधिक प्रिय है। यह पुस्तक मुझे प्रिय है। 'हिन्दी में अनुवाद करो : ___ तुम ममाओ जेट्ठयरो असि । कणिट्ठो पुत्तो पिअअमो होइ । पावस्स मग्गो पिअअरो 'ण होइ । सो मज्झ कणिट्ठो भायरा अस्थि । कवीसु कालिआसो सेट्ठो अस्थि । णयरेसु उदयपुरो सेट्ठअमो अत्थि। खण्ड १ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७० विशेषण शब्द : संख्यावाचक . (क) एक एगो = एक (पु) एगो छत्तो पढइ = एक छात्र पढ़ता है। एगा = एक (स्त्री) एगा बालिआ गच्छइ = एक बालिका जाती है। एग = एक (नपुं) इदं एगं फलं अस्थि = यह एक फल है। . नि. ६७ : एक शब्द के रूप सातों विभक्तियों में पुल्लिंग, स्त्रीलिंग एवम् नपुंसकं... लिंग के अकारान्त शब्दों के समान चलेंगे। विशेष्य शब्द के अनुरूप ही एक शब्द का प्रयोग होगा। यथा :एगस्स पुरिसस्स इदं घरं अस्थि = एक आदमी का यह घर है। ..... एगेण बालएण सह अहं गच्छामि = एक बालक के साथ मैं जाता हूँ। एगे खेत्ते वारिं अस्थि = एक खेत में पानी है। .... (ख) दो नि. ६८ : एक शब्द को छोड़कर सभी संख्यावाची शब्द प्राकृत में तीनों लिंगों में : समान होते हैं। यथा :(पु) दोण्णि बालआ पढन्ति = दो बालक पढ़ते हैं। (स्त्री) दोण्णि जुवईओ गच्छन्ति = दो युवतियाँ जाती हैं। (नपुं) दोण्णि फलाणि सन्ति = दो फल हैं। (ग) दो से अठारह एवं कई . नि. ६९ : दो (२) से लेकर अठारह (१८) संख्या तक के शब्द' तथा कई (कितने) . शब्द सभी विभक्तियों में बहुवचन में ही प्रयुक्त होते हैं : दो . एगारह = ग्यारह तिण्णि तीन बारह = बारह चार तेरह = '. तेरह = पाँच चउद्दह = चौदह = छह पण्णरह = पन्द्रह दोण्णि सोलह = सोलह आठ = = नौ दस सत्तरह अट्ठारह = कइ = सत्तरह अठारह कितने १०२ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन शब्द के सात विभक्तियों के रूप : प्र. तिण्णि बालआ पढन्ति = तीन बालक पढ़ते हैं। द्वि. तिण्णि साडीओ सा गिण्हइ = तीन साड़ियों को वह लेती है। तृ. तीहि कवीहि सह सो गच्छइ = तीन कवियों के साथ वह जाता है। च. तीण्ह वत्थूण सो धणं दाइ = तीन वस्तुओं के लिए वह धन देता है। पं. तीहिन्तो कमलाहिंतो वारिं पडइ = तीन कमलों से पानी गिरता है। ष. तीह पुरिसाण तं घरं अत्थि = तीन आदमियों का वह घर है। स. तीसु खेत्तेसु वारिं अस्थि = तीन खेतों में पानी है। . (घ) उन्नीस से अट्ठावन तक नि. ७० : उन्नीस (१९) से अट्ठावन (५८) संख्या तक के शब्दों के रूप माला शब्द के समान आकारान्त बनते हैं। अतः उनके रूप माला शब्द के समान सातों विभक्तियों में चलते हैं तथा तीनों लिंगों में समान होते हैं। एगूणवीसा · = उन्नीस छव्वीसा = छब्बीस वीसा = . बीस सत्तवीसा = सत्ताईस एगवीसा = इक्कीस अट्ठावीसा = अट्ठाईस .. दुवीसा . = बाइस एगूणतीसा = उन्तीस तेवीसा = तेइस तीसा = तीस चउवीसा . = . चौबीस एगतीसा = इकतीस .: .पण्णवीसा = पच्चीस चतालीसा = चालीस : (ड) उनसठ से निन्नानवे तक नि. ७१ : उनसठ (५९) से निन्नानवे (९९) संख्या तक के शब्दों के रूप इकारान्त स्त्रीलिंग जैसे होते हैं। अतः उनके रूप 'जुवई' शब्द जैसे चलते हैं। तथा तीनों लिंगों में समान होते हैं। एगूणसट्ठि = उनसठ एगूणसत्तरि = उन्हत्तर सट्टि . = साठ सत्तरि = सत्तर इकसठ एकहत्तर = इकहत्तर दोसट्ठि बासठ एगूणसीइ = उन्नासी तेसट्ठि = त्रेसठ असीइ = अस्सी चउसट्ठि = चौसठ एगासीइ = इक्यासी पणसट्ठि ___= पैंसठ एगणनवइ = नवासी छसट्ठि = छयासठ = नव्वे = सड़सठ एगणवइ ____ = इक्यानवे अट्ठसट्ठि = अड़सठ नवणवइ एगसट्ठि ION णवइ - खण्ड १ १०३ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण वाक्य: वीसा (तीनों लिंगों में समान) (पु) वीसा बालआ पढन्ति = बीस बालक पढ़ते हैं। ... (स्त्री) वीसा साडीओ सन्ति = बीस साड़ियाँ हैं। (नपुं) वीसा खेताणि सन्ति = बीस खेत हैं। सद्धि (तीनों लिंगों में समान) (पु) सट्ठी पुरिसा गच्छन्ति साठ आदमी जाते हैं। (स्त्री) सट्ठी जुवईओ गायन्ति = साठ युवतियाँ गाती हैं। (नपुं) सट्ठी फलाणि सो गेण्हइ = . साठ फलों को वह लेता है। (च) सौ, हजार, लाख नि. ७२ : निम्नलिखित संख्या शब्दों के रूप नपुंसकलिंग अकारान्त शब्दों के समान । चलते हैं :सय =. सौ तिसय = तीन सौ . . दुसय = . * दो सो सहस्स = (एक) हजार नवसय = लक्खः = (एक) लाख प्राकृत में अनुवाद करो : ___ मनुष्य के शरीर में एक आत्मा है। उसकी दो आँखें हैं। तुम्हारी तीन पुत्रियाँ हैं। ये चार पुस्तकें मेरी हैं। महावीर के पाँच शिष्य हैं। इस गाँव में सत्तर लोग रहते हैं। मेरे विद्यालय में नव्वे छात्र हैं। इस नगर में एक हजार पुरुष हैं। हिन्दी में अनुवाद करो : इमम्मि नयरे तिण्णि नईओ सन्ति। सत्त उदही सन्ति । चउद्दह भुवणाणि सन्ति । पण्णासा जणा तम्मि नयरे वसन्ति । अट्ठारह पुराणा पसिद्धा सन्ति । तम्मि खेते तिसयाणि बालआ खेलन्ति । ताए लताए वीसा पुप्फाणि संति । इमम्मि कार गरे चत्तारि चोरा संति । सत्त दीवा होन्ति । सट्ठी बालआ पढमाए पढन्ति । १०४ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७१ सयहा र विशेषण शब्द : प्रकार एवं क्रमवाचक एगहा = एक प्रकार बहुविह = बहुत प्रकार दुविहा = दो प्रकार अणेगविह = अनेक प्रकार तिविह = तीन प्रकार णाणाविह = नाना प्रकार चउहा = चार प्रकार = सैंकड़ों प्रकार दसविह = दस प्रकार सहस्सहा = हजारों प्रकार पढमो = पहला अट्ठमो = आठवां बीओ = दूसरा नवमो = नौवां तइओ = तीसरा दहमो = दसवां चउत्थो . = चौथा वीसइमो = बीसवां पंचमो = पाँचवां चउवीसइमो = चौबीसवां छट्ठो = छठवां सययमो = सौवां सत्तमो = सातवां अणंतयमो = अनन्तवां उदाहरण वाक्य : दुविहा जीवां = दो प्रकार के जीव। तिविह मोक्ख मग्गं . = तीन प्रकार का मोक्ष मार्ग। चउहा गईओ = चार प्रकार की गतियाँ। दसविहो धम्मो = इस प्रकार का धर्म। • बहुविहा कम्मा = बहुत प्रकार के कर्म। णाणाविहाणि पोत्थआणि = नाना प्रकार की पुस्तकें । · पढमो बालओ निउणो अत्थि = पहला बालक निपुण है। पढमा जवई नमइ = पहली युवती नमन करती है। पढमं सत्थं आयारो अस्थि । = पहला शास्त्र आचारांग है। ... चउवीसइमो तित्थयरो महावीरो अस्थि = चौबीसवें तीर्थकर महावीर हैं। चउत्थी बाला मम धूआ अस्थि = चौथी बालिका मेरी पुत्री है। पंचमं घरं मज्झ अत्थि = पाँचवाँ घर मेरा है। प्राकृत में अनुवाद करो : दूसरा बालक दयालु है। तीसरी पुस्तक काव्य की है। छठी युवती तुम्हारी बहिन है। सातवां फूल गुलाब का है। आठवीं गाय काली है। नौवां वस्त्र सफेद है। दसवां आदमी मूर्ख है। चार प्रकार के फल । तीन प्रकार के वस्त्र । दो प्रकार की पुस्तकें । दस प्रकार के फूल । हजारों प्रकार के प्राणी । नाना प्रकार के जन्म। अनेक प्रकार के घर । खण्ड १ १०५ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७२ अर्थ कृदन्त विशेषण शब्द : वर्तमानकाल पु. शब्द अर्थ पु. शब्द पढन्तो पढ़ता हुआ गज्जन्तो गर्जता हुआ धावन्तो दौड़ता हुआ रुदन्तो रोता हुआ बोलन्तो बोलता हुआ अज्झीयमाणो अध्ययन करता हुआ णच्चन्तो . नाचता हुआ हसमाणो हँसता हुआ. हसन्तो हँसता हुआ पलायमाणो भागता हुआ .. गच्छन्तो जाता हुआ कंपमाणो कंपता हुआ खेलन्तो खेलता हुआ लज्जमाणो लजाता हुआ .. नमन्तो नमन करता हुआ उड्डमाणो उड़ता हुआ नि. ७३ : (क) मूल धातु में 'न' एवं 'माण' प्रत्यय लगने पर वर्तमान काल के कृदन्त रूप बरते हैं। जैसे-पढ + न्त = पढन्त पु. में पढन्तो। ___ हस+माण = हसमाण। पु. में हसमाणो। : (ख) इन कृदन्तों में 'ई' प्रत्यय लगकर स्त्रीलिंग रूप बन जाते हैं। जैसे-पढन्त + ई = पढन्ती, हसमाण + ई = हसमाणी। नि ७४ : इन विशेषण शब्दों के रूप तीनों लिंगों में सभी विभक्तियों में विशेष्य के अनुसार बनेंगे। उदाहरण वाक्य: प्रथमा-एकवचन बहुवचन पु. पढन्तो बालओ गच्छइ पढन्ता बालआ गच्छन्ति स्त्री. पढन्ती जुवई नमइ पढन्तीओ जुवईओ नमन्ति नपुं. पढन्तं मित्तं हसइ पढन्ताणि मित्ताणि हसन्ति द्वितीया-एकवचन बहुवचन पु. पढन्तं बालअं सो पुच्छइ पढन्ता बालआ सो पुच्छइ स्त्री. पढन्ति जुवई सा कहइ पढन्तीओ जुवईओ सा कहइ नपुं. पढन्तं मित्तं अहं पासामि पढन्ताणि मित्ताणि अहं पासामि तृतीया-एकववचन बहुवचन पु. पढन्तेण बालएण सह सो पढइ पढन्तेहि बालएहि गामं सोहइ स्त्री. पढन्तीए जुवईए सह सा वसइ पढन्तीहि जुवईहि घरं सोहइ नपुं. पढन्तेण मित्तेण सह अहं पढामि पढन्तेहि मित्तेहि सह कलहं ण होई १०६ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थी-एकवचन बहुवचन पु. पंढन्तस्स बालअस्स इदं फलं अत्थि पढन्ताण बालआण इमाणि फलाणि सन्ति स्त्री. पढन्तीआ जुवईआ तं पु] अस्थि पढन्तीण जुवईण तानि पुष्पाणि संति नपुं. पढन्तस्स मित्तस्स इदं पोत्थअं अत्थि पढन्ताण मित्ताण इमाणि सत्थाणि संति ... पंचमी-एकवचन बहुवचन पढन्तत्तो बालअत्तो सो पोत्थअं मग्गइ पढन्ताहिंतो बालआहिंतो सो पोत्थअं मग्गइ स्त्री. पढन्तित्तो जुवइत्तो सा कमलं गिण्हइ पढन्तीहिंतो जुवईहितो सा कमलं गेण्हइ नपुं. पढन्तत्तो मित्तत्तो सद्दो उप्पन्नइ . पढन्ताहिंतो मित्ताहिंतो सद्दो उप्पन्नइ षष्ठी-एकवचन . बहुवचन पु. पढन्तस्स बालअस्स इमो जणओ अत्थि पढन्ताण बालआण इदं घरं अस्थि पढन्तीआ जुवईआ इमा माआ अत्थि पढन्तीण जुवईण मित्ताण इमाणि फलाणि संति नपुं. पढन्तस्स मित्तस्स इदं कलमं अस्थि पढन्ताण मित्ताण इमाणि फलाणि संति सप्तमी-एकवचन बहुवचन .. पु. पढन्ते बालए विनयं होइ पढन्तेसु बालएसु विनयं अत्थि स्त्री. पढन्तीए जुवईए लज्जा अत्थि . पढन्तेसु जुवईसु लज्जा अस्थि .. नपुं. पढन्ते मित्ते खमा अस्थि । पढन्तेसु मित्तेसु खमा अत्थि निर्देश : उपर्युक्त वाक्यों का हिन्दी में अनुवाद करो। प्राकृत. में अनुवाद करो : दौड़ता हुआ बालक जीतता है। बोलती हुई बहू शोभित नहीं होती है। नाचता हुआं मोर जाता है। हँसती हुई युवती पूछती है। गर्जता हुआ बादल बरसता है। भागता हुआ नौकर यहाँ आया। लजाती हुई बालिका वहाँ गयी। उड़ता हुआ पक्षी भूमि पर गिर पड़ा। कांपता हुआ मृग सिंह के समीप गया। नमन करता हुआ छात्र पुस्तक पढ़ता है। हिंन्दी में अनुवाद करो : . हसन्ती बाला तथ्य गच्छीअ। कंपमाणी जुवई पुच्छइ । अज्झीयमाणेण मित्तेण सह सो ण. कलहइ । उड्डमाणाण कवोआण इमं अन्नं अत्थि। गज्जन्तेसु मेहेसु जलं ण होइ। - १०७ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७३ अर्थ चिंतिम शब्द अर्थ संतुट्ठ सन्तुष्ट हुआ/हुई भणि कहा हुआ/हुई गमिअ गया हुआ/हुई पढिअ पढ़ा हुआ/हुई अहीअ पढ़ा हुआ/हुई रक्खिअ रक्षित हुआ/हुई कुविअ क्रोधित हुआ/हुई विअसिअ विकसित हुआ/हुई चिंतित हुआ/हुई लिहिअ .. लिखा हुआ/हुई ण झुका हुआ/हुई कअ. किया हुआ/हुई न? नष्ट हुआ/हुई गअ ... गया हुआ पूइअ पूजित हुआ/हुई हअ . मरा हुआ/हुई भी डरा हुआ/हुई णाअ जाना हुआ . मुइ _ . आनन्दित हुआ/हुई दिट्ठ देखा हुआ नि. ७५ : मूल धातु में 'अ' प्रत्यय लगने पर तथा विकल्प से धातु के अ को इ होने पर भूतकाल के कृदन्त रूप बनते हैं। यथा-गम+इ+ अ = गमिअ। णा+ अ = णा। नि. ७६ : इन विशेषण शब्दों के रूप तीनों लिंगों में सभी विभक्तियों में विशेष्य के अनुसार बनेंगे। उदाहरण वाक्य : प्रथमा-एकवचन पु. संतुटुं णिवो धणं देइ संतुट्ठा णिवा' धणं देन्ति स्त्री. संतुट्ठा णारी लज्जइ संतुट्ठाओ णारीओ मुअन्ति नपुं. संतुटुं मित्तं किं करइ संतुट्ठाणि मित्ताणि कज्ज करन्ति द्वितीया-एकवचन बहुवचन पु. संतुटुं णिवं सो नमइ संतुट्ठा णिवा को ण इच्छइ स्त्री. संतुटुं णारिं सो इच्छइ संतुट्ठाओ णारीओ ते इच्छन्ति नपुं. संतुटुं मित्तं अहं इच्छामि संतुट्ठाणि मित्ताणि सो धणं देइ तृतीया-एकवचवन बहुवचन पु. संतुट्टेण णिवेण सह सुहं होइ संतुटेहि णिवेहि कलहं ण होइ स्त्री. संतुट्ठाए णारीए विणा सुहं णत्थि संतुट्ठीहि णारीहि सह सो वसइ नपुं. संतुटेण मित्तेण सह अहं वसामि संतुढेहि मित्तेहि सह सो गच्छइ . बहुवचन १०८ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थी - एकवचन संतुट्ठस्स विस्स इदं सम्माणं अथ पु. स्त्री. संतुट्ठाअ णारीए इदं धणं अस्थि नपुं. संतुट्ठस्स मित्तस्स सो फलं देइ पंचमी - एकवचवन पु. संतु तो णिवतो सो धणं मग्गइ स्त्री. संतुट्ठत्तो णारित्तो सा सिक्खं लहइ संतुट्ठत्तो मित्तत्तो सो फलं गिण्हइ नपुं षष्ठी - एकवचवन पु. संतुट्ठस्स णिवस्स इदं रज्जं अस्थि - स्त्री. संतुट्ठाअ णारीए इदं काअव्वं अस्थि नपुं. संतुट्ठस्स मित्तस्स इमो पुत्तो अतिथ सप्तमी - एकवचवन पु. संतुट्ठे णिवे लच्छी वसई स्त्री. संतुट्ठाए णारीए लज्जा होइ संतुट्ठे मित्ते णाणं हो उदाहरण वाक्य : पु. पढिस्संतो गंथो स्त्री. पढिस्संता गाहा बहुवचन संतुट्ठाण णिवाण संसारो असारो अत्थि संतुट्ठाण णारीण इदं घरं अस्थि संतुट्ठाण मित्ताण अहं नमामि बहुवचन संतुट्ठाहिंतो णिवाहिंतो सो धणं मग्गइ संतुट्ठाहिंतो णारीहिंतो सा सिक्खं लहइ संतुट्ठाहिंतो मित्ताहिंतो सो फलाि गिues नपुं निर्देश : इन उपर्युक्त वाक्यों का हिन्दी में अनुवाद करो । भविष्यकाल बहुवचन संतुट्ठाण णिवाण इदं कज्जं अस्थि संतुट्ठाण णारीण इदं घरं अस्थि संतुट्ठाण मित्ताण इदं काअव्वं अ बहुवचन संतुणिवेसु लच्छी वसई संतुट्ठेसु णारीसु लज्जा होइ. संतुट्ठेसु मित्तेसु खति होइ खण्ड १ पढ़ा जाने वाला ग्रन्थ । पढ़ी जाने वाली गाथा | पढ़ा जाने वाला पत्र । नपुं. पढिस्संतं पत्तं .नि. ७७ : (क) मूल क्रिया के अ को इ होने पर 'संत' प्रत्यय लगने पर भविष्यकाल . कृदन्त के रूप बनते हैं। जैसे पढ् + इ + स्संत = पढिस्संत । (ख) भविष्य कृदन्त बन जाने पर पु, स्त्री एवं नपुं. विशेष्य के अनुसार इन कृदन्तों के सभी विभक्तियों में रूप बनते हैं । प्राकृत में अनुवाद करो : 1 वह जयपुर गया हुआ है। यह पुस्तक पढ़ी हुई है। झुकी हुई लता से फूल तोड़ा । पूजित साधुओं को प्रणाम करो । डरी हुई युवतियों से बात करो । आनन्दित पुरुषों का जीवन अच्छा है। उसके द्वारा यह कहा हुआ है। विकसित कलियों को मत तोड़ो। लिखी . हुई पुस्तक यहाँ लाओ। यह देखा हुआ नगर है। लिखा जाने वाला पत्र कहाँ है ? सुना जाने वाला शास्त्र वहाँ है । १०९ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७४ कृदन्त विशेषण शब्द : योग्यतासूचक करणीअ = करने योग्य होअव्व = होने योग्य पढणीअ = पढ़ने योग्य मुणेअव्व = जानने योग्य हसणीअ = हंसने योग्य नच्चेअव्व = नाचने योग्य कहणीअ = कहने योग्य फासेअव्व = छूने योग्य . पुज्जणीअ = पूजनीय मग्गेअव्व = माँगने योग्य नि. ७७ : (क) मूल धातु में 'अणीअ' प्रत्यय लगने पर विध्यर्थ (योग्यता सूचक) कृदन्त __बनते हैं। यथा-कर+ अणीअ= करणी। (ख) मूल धातु में 'अव्व' प्रत्यय लगने पर धातु के अं को ए होने पर दूसरे प्रकार के योग्यता सूचक कृदन्त बनते हैं। यथा- . मुण+ए+अव्वं = मुणेअव्वं ।। नि. ७८ : इन विशेषण शब्दों के रूप तीनों लिंगों में सभी विभक्तियों में विशेष्य. के अनुसार चलेंगे। उदाहरण वाक्य: स्त्री. नपुं. कहणीओ वितान्तो अत्थि = कहने योग्य वृत्तान्त है। कहणीआ कहा अस्थि = कहने योग्य कथा है। कहणीअं चरित्तं अत्थि = कहने योग्य चरित्र है। मुणेअव्वो धम्मो सुहं दाइ - = जानने योग्य धर्म सुख देता है। स्त्री. मुणेअव्वा आणा किं अत्थि = जानने योग्य आज्ञा. क्या है? नपुं. मणेअव्वं जीवणं अप्पं अस्थि = जानने योग्य जीवन थोड़ा है। प्राकृत में अनुवाद करो : (क) ____ यह पुस्तक पढ़ने योग्य है। वह आदमी हंसने योग्य है। करने योग्य कार्यों को शीघ्र करो। पूजनीय स्त्रियों को प्रणाम करो। वह कथा पढ़ने योग्य है। यह दृष्टान्त कहने योग्य है। पूजनीय पुस्तकों का संग्रह करो। यह विवाह होने योग्य है। वह माँ होने योग्य नहीं है। ये पुस्तकें जानने योग्य हैं। तुम जानने योग्य कथा कहो। वह युवती नाचने योग्य है। वह आदमी छूने योग्य नहीं है। वह वस्तु छूने योग्य है। वह वस्तु माँगने योग्य है। ११० प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७५ अर्थ ईसालु रेहिर तद्धित विशेषण शब्द : योग्यता-वाचक तद्धितरूप तद्धितरूप अर्थ रसाल रसयुक्त दयालु दया-युक्त जडाल जटाधारी ईर्ष्या-युक्त . सद्दाल शब्द-युक्त नेहालु स्नेह-युक्त जोण्हाल चाँदनी-युक्त लज्जालु लज्जा-युक्त गव्विर गर्व-युक्त सोहिल्ल शोभा-युक्त - रेखा-युक्त छाइल्ल छाया-युक्त दप्पुल्ल दर्प-युक्त मंसुल्ल दाढ़ीवाला धणमण . . धन-युक्त सिरिमंत श्री-युक्त सोहामण शोभा-युक्त धीमंत बुद्धि-युक्त भत्तिवंत भक्ति-युक्त गामिल्ल ग्रामीण धणवंत धन-युक्त घरिल्ल घरेलु एकल्ल. . अकेला णयरुल्ल नागरिक नवल्ल नया अप्पुल्ल आत्मा में उत्पन्न नत्थिअ . नास्तिक अत्थिअ आस्तिक उदाहरण वाक्य : जडालो जणो कत्थ गच्छइ = जटाधारी व्यक्ति कहाँ जाता है? अज्ज जुण्हाली रत्ति अत्थि • = आज चाँदनी रात है। ईसालू पुरिसो दुहं दाइ = ईर्ष्यालु आदमी दुःख देता है। गव्विरा जुवई ण सोहइ = घमंडी युवती अच्छी नहीं लगती है। तं रुक्खं छाइल्लं णत्थि = वह वृक्ष छायावाला नहीं है। धीमंता धणमणा ण होति ___ = बुद्धिमान् धनवान् नहीं होते हैं। तस्स धरिल्लं अभिहाणं किं अस्थि = उसका घरेलु नाम क्या है? नवल्ली बहू लज्जालू होइ = नयी बहू लज्जालु होती है। नि. ८० : संज्ञा शब्दों से बने ये शब्द तद्धित कहे जाते हैं। इनका प्रयोग विशेषण _ की तरह होता है। विशेष्य की तरह इनके रूप चलते हैं। . खण्ड १ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्तो जत्तो . तहि तेत्ति जेत्तिअ · उतना . जितना . ऐसा (ख) अन्य अर्थवाचक : तद्धितरूप अर्थ तद्धितरूप तद्धितरूप . अर्थ एगहुत्तं एक बार एगत्तो एक ओर से तिहुत्तं तीन बार सवत्तो सब ओर से इस ओर से तत्तो उस ओर से कत्तो किस ओर से जिस ओर से अम्हकेर हमारा तुम्हकेर तुम्हारा परकेर दूसरे का अप्पणय अपना जहि . जहाँ पर वहाँ पर . कहि कहाँ पर अन्नहि अन्य स्थान पर एत्ति इतना केत्तिअ कितना एरिस तारिस वैसा केरिस . कैसा जारिस जैसा... अम्हारिस हमारे जैसा तुम्हारिस. तुम्हारे जैसा . प्रयोग-वाक्य : ते तिहुत्तं भुंजंति - वे तीन बार भोजन करते हैं। सो इत्तो गच्छइ वह इस ओर में जाता है। इदं परकेरं पोत्थअं अत्थि · = यह दूसरे की पुस्तक है। सो एकल्लो किं करइ = वह अकेला क्या करता है? एत्तिअं संचयं वरं णत्थि = इतना संचय अच्छा नहीं है। वासुदेवो केरिसं कज्ज करइ = . वासुदेव कैसा काम करता है? प्राकृत में अनुवाद करो : ग्रामीण लोग वहाँ पढ़ते हैं। दयालु आदमी हिंसा नहीं ना है। घमंड करने वाला सदा दुःख पाता है। आम का फल रसयुक्त है। वह घरेलु है। तुम एक बार क्यों भोजन करते हो? तुम्हारा पुत्र कहाँ पर है? साधु आस्तिक है। तुम जितना मांगोगे वह उतना नहीं देगा। हमारे जैसा श्रीमंत अन्य स्थान पर नहीं है। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - क्रियारूप चार्ट एकवचन . वर्तमानकाल . भूतकाल भावष्यकाल इच्छा या आज्ञा । सम्बन्ध कृदन्त | हेत्वर्थ कृदनत पुरुष | अ. क्रिया | आ. क्रिया अ. क्रिया | आ. क्रिया | अ. क्रिया आ. क्रिया अ. क्रिया आ. क्रिया | अ. क्रिया | आ. क्रिया | अ. क्रिया | आ. क्रिया दा नम | दा | नमः . ' दा । नम् । दा । नम | दा नम प्रथम नमामि दामि नमीअ दाहीनमिहिमि दाहिमि नममुदामु । नमिऊण दाऊण नमिउं नम दाउं मध्यम नमसि दासि नमीअ दाही नमिहिसि दाहिसि नमहि दाहि नमिऊण दाऊण नमिउं दाउं अन्य नमइदाइ नमी दाही नमिहिइ दाहिइ नमउ दाउ नमिऊण दाऊण नमिउं बहुवचन प्रथम नमामो दामो दाउं नमीअ दाहीनमिहामो दाहामो नममो दामोनमिऊण दाऊण नमिउं नमीअ दाही नमिहित्था दाहित्था नमहदाह नमिऊण दाऊण नमिउं नमीअ दाही नमिहिन्ति दाहिन्ति नमिऊण दाऊण नमिउं मध्यम नमित्था दाइत्था अन्य |नमन्ति दान्ति दिाउं |नमन्तु दाउं दान्ता ११३ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ कृदन्त विशेषण चार्ट प्रथमा विभक्ति एकवचन बहुवचन काल मूलक्रिया एवं प्रत्यय पु. स्त्री. पु. स्त्री. नपुं. वर्तमानकाल पढ + अंत पढन्तो पढन्ती पढन्तं पढन्ता पढन्तीओ पढन्ताणि वर्तमानकाल पढ + माण पढमाणो पढमाणी पढमाणं पढमाणा पढमाणीओ पढमाणाणि भूतकाल पढ + अ पढिओ पढिआ पढिअं पढिआ पढिआओ . पढिआणि भविष्यकाल पढ + स्संत पढिस्संतो पढिस्संती पढिस्संतं पढिस्संता पढिस्संतीओ पढिस्संताणि योग्यतासूचक (क) पढ + अणीअ पढणीओ पढ़णीआ , पढणीअं पढणीआ पढणीआओ पढणीआणि (विधिकृदन्त) योग्यतासूचक (ख) पढ + अव्व पढेअन्वो पढेअव्वा पढेअव्वं . . . पढेअव्वा . पढेअव्वाओ पढेअव्वाणि निर्देश : इसी प्रकार सभी विभक्तियों में विशेष्य के अनुसार इन विशेषणों के रूप प्रयुक्त होते हैं। पढ क्रिया के समान अन्य क्रियाओं के सभी | कालो में, कृदन्त विशेषण बनाकर अभ्यास कीजिए। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ. ७६ कर्मवाच्य क्रिया-प्रयोग : वर्तमानकाल तेण अहं पासीअमि/पासिज्जमि = उसके द्वारा मैं देखा जाता हूँ। निवेण अम्हे पासीअमो/पासिज्जमो = राजा के द्वारा हम देखे जाते हैं। मए तुम पासीअसि/पासिज्जसि = मेरे द्वारा तुम देखे जाते हो। तुम्हे पासीअइत्था/पासिज्जित्था = तुम सब देखे जाते हो। तुमए सो पासीअइ/पासिज्जइ = तुम्हारे द्वारा वह देखा जाता है। साहुणा ते. पासीअंति/पासिज्जंति = साधु के द्वारा वे सब देखे जाते हैं। उदाहरण वाक्य : . जुवईए बालओ पासीअइ = युवती के द्वारा बालक देखा जाता है। मए घडो करीअइ = मेरे द्वारा घड़ा बनाया जाता है। तेण पोत्थअं पढिज्जइ = उसके द्वारा पुस्तक पढ़ी जाती है। बहूए देवो अच्चीअइ = बहू के द्वारा देव पूजा जाता है। पुरिसेण पत्तासि लिहिज्जति = आदमी के द्वारा पत्र लिखे जाते हैं। निवेण तुमं पुच्छिज्जसि = राजा के द्वारा तुम पूछे जाते हो। . तेहि भिच्चो पेसिज्जइ = उनके द्वारा नौकर भेजा जाता है। बालाए चुण्णं पीसिज्जइ = बालिका के द्वारा आटा पीसा जाता है। 'हिन्दी में अनुवाद करो : बालएण फलाणि भुंजीअंति। तुमए किं कज्जं करीअइ। आयरिएण गंथाणि लिहिज्अंति। तेहि पुत्तेण सह बहू ण पेसिज्जइ। साहुणा सया झाणं करिज्जइ । प्राकृत में अनुवाद करो : . . . तुम्हारे द्वारा जल पिया जाता है। उसके द्वारा चित्र देखा जाता है। बालक के द्वारा पुस्तकें पढ़ी जाती हैं। विद्वान् के द्वारा मैं पूछा जाता हूँ। हम सबके द्वारा साधु नमन किया जाता है। उनके द्वारा तुम भेजे जाते हो। विद्या के द्वारा वह जाना जाता है। साधु द्वारा संयम पाला जाता है। राम के द्वारा सेतु बाँधा जाता है। गुरु द्वारा शिष्य ताड़ित किया जाता है। भ्रमर द्वारा फूल सुंघा जाता है। क्रियाकोश : अइकम्म = उल्लंघन करना आकंद = रोना-चिल्लाना अक्ख = कहना आयण्ण = सुनना अणुकंप = दया करना अतिकंख = इच्छा करना अणुमण्ण = अनुमति देना अवमण्ण = तिरस्कार करना अवरज्झ = अपराध करना अभिलस = चाहना खण्ड १ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. भूतकाल कर्मवाच्य : सामान्य क्रिया-प्रयोग तेण अहं पासीअईअ/पासिज्जीअ = उसके द्वारा मैं देखा गया। निवेण अम्हे पासीअईअ/पासिज्जीअ = राजा के द्वारा हम देखे गये। मए तुमं पासीअईअ/पासिज्जीअ = मेरे द्वारा तुम देखे गये। तुम्हे पासीअईअ/पासिज्जीअ = तुम सब देखे गये। तुमए सो पासीअईअ/पासिज्जीअ = तुम्हारे द्वारा वह देखा गया। साहुणा ते पासीअईअ/पासिज्जीअ = साधु के द्वारा वे सब देखे गये। उदाहरण वाक्य मए घडो करीअईअ/करिज्जीअ = मेरे द्वारा घड़ा बनाया गया। तेण पोत्थअं पढीअईअ/पढिज्जीअ = उसके द्वारा पुस्तक पढ़ी गयी। सासूए बहू तूसीअईअ/तूसिज्जीअ = सास के द्वारा बहू संतुष्ट की गयी.। पत्ताणि लिहीअईअ/लिहिज्जीअ = पत्र लिखे गये। . . तेहि भिच्चो पेसीअईअ/पेसीज्जीअ = उनके द्वारा नौकर भेजा गया। कृदन्त प्रयोग तेण अहं दिट्ठो = 'उसके द्वारा मैं देखा गया या उसने मुझे देखा। मए घडो कओ = मैंने घड़ा बनाया। तेण पोत्थअं पढिअं = . उसने पुस्तक पढ़ी। सासूए बहू संतुट्ठा = सास ने बहु को संतुष्ट किया। . परिसेहि पत्ताणि लिहिआणि = . आदमिओं ने पत्र लिखे। तेहि भिच्चो पेसिओ _ . उन्होंने नौकर को भेजा। हिन्दी में अनुवाद करो : पवणंजएण अंजणा पुच्छिआ। मए तुज्झ अवराहो ण कओ। लंकाहिवेण दूओ पेसिओ। आयरिएण सीसा ण संतुट्ठा । मन्तीहि णिवो भणिओ। बहुए घरस्स कज्जाणि ण करिज्जी। प्राकृत में अनुवाद करो __ मेरे द्वारा देव पूजा गया। राजा के द्वारा हम सब पूछे गये। हमारे द्वारा साधु को नमन किया गया। कुलपति द्वारा छात्र ताड़ित किया गया। बालिका द्वारा फूल सूंघा गया। उनके द्वारा फल खाया गया। तपस्वी द्वारा संयम पाला गया। ११६ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाच्य : भविष्यकाल तेण अहं पासिहिमि उसके द्वारा मैं देखा जाऊँगा। निवेण अम्हे पासिहामो राजा के द्वारा हम देखे जायेंगे। मए तुमं पासिहिसि = मेरे द्वारा तुम देखे जाओगे। सुधिणा तुम्हे पासिहित्था = विद्वान् के द्वारा तुम सब देखे जाओगे। तुमए सो पासिहिइ तुम्हारे द्वारा वह देखा जायेगा। साहुणा ते पासिहिंति = साधु के द्वारा वे देखे जायेंगे। निर्देश : पाठ ७६ के उदाहरण वाक्यों एवं अनुवाद वाक्यों में भविष्यकाल की सामान्य क्रियाएँ लगाकर कर्मवाच्य के प्राकृत वाक्य बनाओ। विधि एवं आज्ञा तुमए अहं पासीअमु/पासिज्जमु = तुम्हारे द्वारा मैं देखा जाउंगा। अम्हे पासीअमो/पासिज्जमो = हम सब देखे जायें। तेण तुमं पासीअहि/पासिज्जहिं = उसके द्वारा तुम देखे जाओ। निवेण तुम्हे पासींअह/पासिज्जह = राजा के द्वारा तुम सब देखे जाओ। मए सो पासीअउ/पासिज्जउ = मेरे द्वारा वह देखा जाये। सुधिणा वे पासीअंत्/पासिज्जंतु = विद्वान् के द्वारा वे सब देखे जाएँ। उदाहरण वाक्य : . जुवईए साडी कीणीअउ . = युवती के द्वारा साड़ी खरीदी जाय । तेण कंदुओ ण खेलीअउ = उसके द्वारा गेंद न खेली जाय। - सीसेहि सत्थाणि सुणीअंतु = शिष्यों के द्वारा शास्त्र सुने जाएँ। ... सुधिणो नमिज्जंतु विद्वानों को नमन किया जाय। . . तुमए अहं पुच्छीअमु = तुम्हारे द्वारा मैं पूछा जाऊँ। .. प्राकृत में अनुवाद करो : बालिका के द्वारा जल पिया जाय। राजा के द्वारा चित्र देखा जाय । छात्र के द्वारा पुस्तक पढ़ी जाय। आदमी के द्वारा पत्र न लिखा जाय । कुलपति के द्वारा मैं वहाँ भेजा जाऊ। उनके द्वारा वह ताड़ित न किया जाय। युवती के द्वारा आटा पीसा जाय । क्रियाकोश : अणुसंध खोजना अवधार = निश्चय करना अत्थम अस्त होना आसा = आश्वासन देना अब्भत्थ सत्कार करना उवदंस = दिखाना अब्भुट्ठ आदर देना गरह = घृणा. करना प्रशंसा करना गुंफ = गूंथना अभिणंद खण्ड १ ११७ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ भाववाच्य क्रिया-प्रयोग : मए हसीअइ/हसिज्जइ अम्हेहि हसी अइ / हसिज्जइ तुम धावी अइ / धाविज्ज‍ तुम्हे हि धावी अइ / धाविज्जइ ते झाई अइ / झाइज्जइ तेहि झाई अइ / झाइज्जइ बालाए णच्ची अइ / णचिज्जइ मोरेहि भणी अइ / भणिज्जइ छत्तेण भणीअइ / भणिज्जइ सीसेहि भीअइ / भणिज्जइ ए हसी अई अ/हसिज्जीअ मए हसिअं तेण झाई अईअ / झाइज्जीअ ते झाइअ तेण पासिहिइ अम्हेहि पासिहिइ मए भणिि बालाए भणिि सीसेहि भीअईअ / भणिज्जीअ सीसेहि भणिअं मए सुणी अउ / सुणिज्जउ = सीसेहि सुणी अउ / सुणिज्जउ तुम नमी अउ / नमिज्ज बहुहि नमी अउ / नमिज्जउ क्रियाकोश : उक्खिव घेत्त दुक्क बुड्ड ११८ || || || || || = = == वर्तमानकाल = = भूतकाल = भविष्यकाल = = = = फेंकना लेजाना भेंट करना डूबना चोरी करना = = • मेरे द्वारा हँसा जाता है। हमारे द्वारा हँसा जाता है । तुम्हारे द्वारा दौड़ा जाता है 1 तुम सबके द्वारा दौड़ा जाता है । उसके द्वारा ध्यान किया जाता उनके द्वारा ध्यान किया जाता है बालिका के द्वारा नाचा जाता हैं । मोरों के द्वारा नाचा जाता हैं 1 छात्र के द्वारा पढ़ा जाता है। शिष्यों के द्वारा पढ़ा जाता है। = विधि एवं आज्ञा मेरे द्वारा सुना जाय । मेरे द्वारा हँसा गया / मैं हँसा । मेरे द्वारा हँसा गया / मैं हँसा । उसके द्वारा ध्यान किया गया। उसके द्वारा ध्यान / उसने ध्यान किया । शिष्यों के द्वारा पढ़ा गया। शिष्यों के द्वारा / शिष्यों ने पढ़ा । उसके द्वारा देखा जायेगा T हम सबके द्वारा देखा जायेगा । मेरे द्वारा पढ़ा जायेगा । बालिका के द्वारा पढ़ा जायेगा । शिष्यों के द्वारा सुना जाय । तुम्हारे द्वारा नमन किया जाय । बहुओं के द्वारा नमन किया जाय । रंध लुक्क विअस निहुण विण्णव ७७ |||||||||| = = = = हैं = पकाना छिपना खिलना नोंचना निवेदन करना 1 प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ. ७८ नियम : कर्मवाच्य-भाववाच्य नि. ८१ : प्राकृत में कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य एवं भाववाच्य के प्रयोग होते हैं। कर्तृवाच्य में कर्ता को प्रथमा विभक्ति और कर्म को द्वितीया विभक्ति होती है। क्रिया कर्ता के अनुसार होती है। इसके नियम आप पाठ २० में सीख चुके हैं। कर्मवाच्य : नि. ८२ : कर्मवाच्य के कर्ता में तृतीया विभक्ति और कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है। क्रिया का लिंग, वचन और पुरुष कर्म के अनुसार रहता है। नि. ८३ : मूल क्रिया को कर्मवाच्य या भाववाच्य बनाने के लिए उसमें ईअ अथवा इज्ज प्रत्यय लगाया जाता है। उसके बाद वर्तमान, भूतकाल, विधि आज्ञा के प्रत्यय लगाकर क्रिया का प्रयोग किया जाता है। जैसेमूलक्रिया - वाच्य-प्रत्यय वर्तमान भू. का. विधि आज्ञा पास + ईअ = 'पासीअ- पासीअमि पासीअईअ पासीअमु पास + इज्ज = पासिज्ज- पासिज्जमि पासिज्जीअ पासिज्जमु नि. ८४ : कर्मवाच्य या भाववाच्य में भविष्यकाल के प्रयोगों में ईअ या इज्ज प्रत्यय मूल क्रिया में नहीं लगते हैं। अत: सामान्य भविष्यकाल के प्रत्यय लगाकर ही क्रियाएँ प्रयुक्त होती हैं। यथा-पासिहिमि, पासिहामो इत्यादि । नि. ८५ : भूतकाल के कर्मवाच्य या भाववाच्य में भूतकाल के कृदन्तों का भी प्रयोग .. होता है। इनमें ईअ या इज्ज प्रत्यय नहीं लगते। कृदन्तों के प्रयोग कर्मवाच्य में कर्म के अनुसार होते हैं। यथा.: तेण छत्तो दिवो = उसके द्वारा छात्र को देखा गया। तेण बाला दिट्ठो = उसके द्वारा बालिका को देखा गया। . . . . . तेण मित्तं दिलु = उसके द्वारा मित्र को देखा गया। नि. ८६. : भाववाच्य के कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है। कर्म नहीं रहता और . क्रिया सभी कालों में अन्य पुरुष एकवचन में होती है। जैसे.. तृतीया. वि. व. का. भू. का भ. का. विधि-आज्ञा अम्हेहि हसिज्जइ हसिज्जीअ हसिहिइ हसिज्जउ सीसेहि भणीअइ भणीअईअ भणिहिइ भणीअउ आणिज्जइ जाणिज्जीअ जाणिहिइ जाणीअउ पासीअइ पासीअईअ पासिहिइ पासीअउ तेण खण्ड १ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ७९ कर्मवाच्य कृदन्त प्रयोग : वर्तमान कृदन्त मए पढीअंतो/पढीअमाणो गंथो = मेरे द्वारा पढ़ा जाता हुआ ग्रंथ। तुमए पढीअंती/पढीअमाणी गाहा = तुम्हारे द्वारा पढ़ी जाती हुई गाथा । तेण पढीअंतं/पढीअमाणं पोत्थअं = उसके द्वारा पढ़ी जाती हुई पुस्तक । भूत कृदन्त मए पढियो गंथो ___ = मेरे द्वारा पढ़ा हुआ ग्रंथ। ... तुमए पढिया गाहा ___ = तुम्हारे द्वारा पढ़ी हुई गाथा। तेण पढिअं पोत्थ = उसके द्वारा पढ़ी हुई पुस्तक । ' भविष्य कृदन्त रामेण पढिस्समाणो गंथो = राम के द्वारा पढ़ा जाने वाला ग्रंथ। . बालाए पढिस्समण्णी गाहा = बालिका के द्वारा पढ़ी जाने वाली गाथा । छत्तेण पढिस्समाणं पोत्थ = छात्र के द्वारा पढ़ी जाने वाली पुस्तक । . विधि कृदन्त मए पढणीओ/पढेअव्वो गंथो = 'मेरे द्वारा पढ़ने योग्य गंथ । बालाए पढणीआ/पढेअव्वा गाहा = बालिका के द्वारा पढ़ने योग्य गाथा । तेण पढणीअं/पढेअव्वं पोत्थ = उसके द्वारा पढ़ने योग्य पुस्तक । उदाहरण वाक्य : मए कहीअमाणा कहा अत्थि = मेरे द्वारा कही जाती हुई कथा है। तेण नमिआ बाला भणइ = उसके द्वारा नमन की हुई बालिका पढ़ती है। तुमए भुंजिस्समाणं फलं णत्थि = तुम्हारे द्वारा खाये जाने वाला फल नहीं है। बालाए मुणेअव्वं चरित्तं अस्थि = बालिका के द्वारा जानने योग्य चरित्र है। अन्य प्रयोग मए गंथो पढीअंतो = मेरे द्वारा ग्रंथ पढ़ा जाता है। तुमए गंथो पढिओ = तुम्हारे द्वारा ग्रंथ पढ़ा जायेगा। . बालाए गंथो पढिस्समाणो = बालिका के द्वारा ग्रंथ पढ़ा जायेगा। तेण गंथो पढणीओ = उसके द्वारा ग्रंथ पढ़ा जाना चाहिए । जुवईए गाहा पढ़िआ = युवती के द्वारा गाथा पढी गयी। पुरिसेण पत्ताणि लिहिआणि = आदमियों के द्वारा पत्र लिखे गये। निवेण धणं गिहिअं = राजा के द्वारा धन लिया गया। . प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाववाच्य कृदन्त प्रयोग : वर्तमान कृदन्त मए हसीअंतं/हसीअमाणं = मेरे द्वारा हँसा जाता है। तुमए धावीअंत/धावीअमाणं = तुम्हारे द्वारा दौड़ा जाता है। बालाए णच्चीअंतं/णच्चीअमाणं = बालिका के द्वारा नाचा जाता है। तेण झाईअंत/झाईअमाणं = उसके द्वारा ध्यान किया जाता है। भूत कृदन्त मए हसि मैं हँसा/मेरे द्वारा हँसा गया। तुमए धावि तुम दौड़े/तुम्हारे द्वारा दौड़ा गया। बालाएं णच्चिों बालिका नाची/द्वारा नाचा गया। तेण झाईअं उसने ध्यान किया। भविष्य कृदन्त मए हसिस्समाण . मेरे द्वारा हँसा जाने वाला है। तुमए धाविस्समाणं. = तुम्हारे द्वारा दौड़ा जाने वाला है। तेण झाइस्समाण = उसके द्वारा ध्यान किया जाना है। विधि कृदन्त मए हसेअव्वं/हसणीअं = मेरे द्वारा हँसा जाना चाहिए। तुमए धावेअव्वं/धावणीअं . = तुम्हारे द्वारा दौड़ा जाना चाहिए। बालाए णच्चेअव्वं/णच्चणीअं = बालिका के द्वारा नृत्य किया जाना चाहिए। तेण झाएअव्वं/झाणी = उसके द्वारा ध्यान किया जाना चाहिए। हिन्दी में अनुवाद करो : .. सुधिणा हसीअमाणं। पुरिसेहि धावी अंतं। साहुणा अणुकंपीअमाणं । जुवईए . .णच्चीअंतं । बालाए भणिअं। बहूहि नमिअं। छत्तेहि पढिस्समाणं । साहूहि झाइस्समाणं । अम्हेहि धावणीअं। जुवईहि णच्चे अव्वं । प्राकृत में अनुवाद करो : - शिष्य के द्वारा पढ़ा जाता है। बालकों के द्वारा दौड़ा जाता है। उनके द्वारा नमन नहीं किया जाता है। विद्वानों के द्वारा कहा गया। तपस्वियों के द्वारा तप किया गया। हमारे द्वारा सुना गया। राजा के द्वारा कहा जाने वाला है। तुम्हारे द्वारा नृत्य किया जाना - है। उसके द्वारा आज नहीं हँसा जाना चाहिए। छात्रों के द्वारा ध्यान किया जाना चाहिए । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ नियम : वाच्य कृदन्त-प्रयोग : नि. ८७ : कर्मवाच्य एवं भाववाच्य में सामान्य क्रियाओं के अतिरिक्त विभिन्न कालों के कृदन्तों का प्रयोग भी क्रिया के रूप में होता है। यथा- .. ... सा. क्रि. प्रयोग कृदन्त प्रयोग (व) तेण गंथो पढीअइ = . तेण गंथो पढीअमाणो। .. (भ) मए गंथो पढीअईअ = मए गंथो पढिओ। (भ) रामेण गंथो पढिहिइ = रामेण गंथो पढिस्समाणो। .'' (वि) तुमए गंथो पढीअउ = तुमए गंथो पढणीओ। नि. ८८ : कर्मणि कृदन्त प्रयोगों में सामान्य क्रिया में वाच्य प्रत्यय ईअ .या इज्ज __जोड़कर व. कृदन्त प्रत्यय अंत या माण जोड़े जाते हैं। यथा पढ + ईअ = पढीअ + अंत/माण = पढीअंत, पढीअमाण. पढ + इज्ज= पढिज्ज + अंत/माण = पढिज्जंत, पढिज्जमाणं नि. ८९ : कर्मवाच्य में कृदन्तो का प्रयोग कर्म के अनुसार पु, स्त्री. एवं नपुं. रूपों में होता है। यथा- . पढीअंतो (पु), पढीअंती (स्त्री), पढिअंतं (नपुं) । नि. ९० : भू. के कृदन्तों में वाच्य का कोई प्रत्यय नहीं लगता है। वे कर्म के लिंग - के अनुसार प्रयुक्त होते हैं। यथा. पढिओ (पु), पढिआ (स्त्री), पढिअं (नपुं) ९१ : निकट भविष्य में होने वाली क्रिया को सूचित करने के लिए भविष्य कृदन्तों का प्रयोग किया जाता है। मूल धातु में कर्मवाच्य प्रयोग के लिए इस्समाण प्रत्यय जोड़ा जाता है। यथा पढ + इस्समाण = पढिस्समाण। नि. ९२ : विधि कृदन्तों का प्रयोग वाच्य में ही होता है। अतः इनमें वाच्य का कोई प्रत्यय नहीं लगाया जाता। यथा पढणीओ, पढणीआ, पढणी। नि. ९३ : भाववाच्य में सभी कालों के कृदन्त कर्म न रहने से नपुं. लिंग एकवचन में ही प्रयुक्त होते हैं। यथाव-हसीअंतं, भू:-हसिअं, भवि-हसिस्समाणं, वि-हसेअव्वं। - १२२ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड१ - ... कर्मणि-प्रयोग चार्ट .. कर्मवाच्य मूलक्रिया प्रत्यय वर्तमान भूत. भविष्य विधि/आज्ञा व. कृ. | भू. कृ. भ. कृ. पास पासीअइ. पासीअईअ पासिहिद पासीअउ | पासीअमाणो । पासिओ | पासिस्समाणो पास इज्ज पासिज्जइ पासिज्जीअ |. पासिहिइ । पासिज्जउ | पासिज्जमाणो पासिओ पासिस्समाणो निर्देश : कर्मवाच्य के प्रत्यय ईअ/इज्ज क्रिया में लगाने के बाद क्रिया के रूप कर्म के अनुसार बनते हैं। विभिन्न क्रियाओं में ये प्रत्यय लगाकर कर्मवाच्य को क्रिया बनाने का अभ्यास करिए। भाववाच्य मूलक्रिया प्रत्यय वर्तमान भविष्य विधि/आज्ञा | व. कृ. । भू. कृ. । भ. कृ. हस ईअ हसीअइ हसीअईअ हसिहिइ हसीअउ हसीअमाणं हसि हसिस्समाणं हसिज्जइ । हसिज्जीअ हसिहिइ हसिज्जउ हसिज्जमाणं हसिअं हसिस्समाणं निर्देश : भाववाच्य की क्रिया सभी कालों में अन्य पुरुष एकवचन में ही प्रयुक्त होती है। तथा भाववाच्य कृदन्त नपुंसकलिंग एकवचन में ही | प्रयुक्त होते हैं। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ८१ प्रेरणार्थक क्रिया के प्रयोग १. प्रेरक सामान्य क्रियाएँ क्रियाएँ : पिलाव = पिलाना सीखाव = सिखाना खेलाव = खिलाना जग्गाव = जगाना हसाव = हँसाना = कराना लिहाव = लिखाना उट्ठाव = उठाना णच्चाव = नचाना सयाव = सुखाना वर्तमान काल अहं सीसं पढावेमो मैं शिष्य को पढ़ाता हूँ। .. अम्हे बालाओ पढावेमों हम बालिकाओं को पढ़ाते है। तुमं तं पढावेसि तुम उसको पढ़ाते हो। तुम्हे छत्ता पढावेइत्था तुम सब छात्रों को पढ़ाते हो। सो ममं पढावेइ = . वह मुझे पढ़ाता है। ते जुवईओ पढावेंति = . वे युवतियों को पढ़ाते हैं। भूतकाल अहं सीसं पढावीअ ___ = मैंने शिष्य को पढ़ाया। अम्हे बालाओ पढावीअ = हमने बालिकाओं को पढ़ाया। सो ममं पढावी उसने मुझे पढ़ाया। भविष्यकाल अहं सीसं पढाविहिमि = मैं शिष्यको पढ़ाऊँगा। अम्हे बालाओ पढाविहामो = हम बालिकाओं को पढ़ायेंगे। तुमं तं पढाविहिसि तुम उसे पढ़ाओगे। इच्छा/आज्ञा अहं सीसं पढावमु मैं शिष्य को पढ़ाऊँ। तुम तं पढाविह __= तुम उसे पढ़ाओ। सो ममं पढावउ ___= वह मुझे पढ़ाये। प्राकृत में अनुवाद करो : मैं उसे जल पिलाता हूँ। तुम मुझे पत्र लिखाते हो। उसने शिष्य को क्या सिखाया? तुमने यहाँ बालिका को नचाया। गुरु ने छात्र को पढ़ाया। विद्वान् साधु को उठाते हैं। बहू बच्चे को सुलायेगी। सास बहू को जगायेगी। तुम उसे न हँसाओ। राजा नौकर से कार्य कराये। - - १२४ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रेरक कृदन्त-क्रियाएँ सम्बन्ध कृदन्त पिवाविऊण = पिलाकर लिहाऊण = लिखाकर * खेलाविऊण = खिलाकर जग्गाविऊण = जगाकर हसाविऊण = हँसाकर । पढ़ाकर हेत्वर्थ कृदन्त पिवाविङ = पिलाने के लिए लिहाविउं = लिखाने के लिए खेलाविउं = खिलाने के लिए जग्गाविउ = जगाने के लिए हसाविङ = हँसाने के लिए पढाविउं = पढ़ाने के लिए .. विधि कृदन्त पिवावणीअ = पिलाने योग्य लिहावणीअ = लिखाने योग्य खेलावणीअ = खिलाने योग्य जग्गावणीअ = जगाने योग्य हसावणीअ = हँसाने योग्य पढावणीअ = पढ़ाने योग्य हसावअव्वं = हँसाने योग्य पढावअव्व = पढाने योग्य - वर्त. कृदन्त पिवावमाणो = पिलाता हुआ लिहावंतो = लिखाता हुआ खेलावमाणो = खिलाता हुआ. जग्गावंतो = जगाता हुआ । हसावमाणो = हँसाता हुआ पढावंतो = पढ़ाता हुआ भूत कृदन्त पिवाविओ = “पिलाया हुआ । लिहाविओ = लिखाया हुआ • खेलाविओ = खिलाया हुआ जग्गाविओ = जगाया हुआ हसाविओ = हँसाया हुआ पढाविओ = पढाया हुआ भविष्य कृदन्त . पिवाविस्संतो = पिलाया जानेवाला लिहाविस्संतो = लिखाया जाने वाला - खेलाविस्संतो = खिलाया जाने वाला जग्गाविस्संतो = जगाया जाने वाला हसाविस्संतो = हँसाया जाने वाला पढाविस्संतो = पढ़ाया जाने वाला प्राकृत में अनुवाद करो : .— वह दूध पिला जाये। मैं उसे पढ़ाने के लिए जाउँगा। यह दूध पिलाने योग्य नहीं है। वह ग्रंथ लिखाने योग्य है। गुरु हँसाता हुआ पढ़ाता है। बालिका जगाती हुई हँसती है। उनके द्वारा लिखाया गया पत्र लाओ। मेरे द्वारा पढ़ायी गयी गाथा कहो। पिलाया जाने वाला जल कहाँ है? खण्ड १ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ - ३. प्रेरक वाच्य-प्रयोग (क) प्रेरक कर्मवाच्य सामान्य क्रियाएँ : पिवावीअ = पिलाया जाना सीखाविज्ज = सिखाया जाना खेलावीअ = खिलाया जाना जग्गाविज्ज = जगाया जाना हसावीअ = हँसाया जाना कराविज्ज = कराया जाना लिहावीअ.. = लिखाया जाना उहाविज्ज = उठाया जाना णच्चावीअ = नचाया जाना सयाविज्ज = सुलाया जाना. पढावीअ = पढ़ाया जाना पासाविज्ज = दिखाया जाना वर्तमानकाल जुवईए बालको पासाविज्जइ = युवती के द्वारा बालक दिखाया जाता है। मए घडो कराविज्जइ = मेरे द्वारा घड़ा बनवाया जाता है। . : तेण बाला सीखाविज्जइ = उसके द्वारा बालिका सिखायी जाती है। गुरुणा पोत्थअं पढावीज्जइ = गुरु के द्वारा पुस्तक पढ़ायी जाती है। भूतकाल . मए बालओ पासाविज्जीअ = मेरे द्वारा बालिका दिखायी गयी है। तेण घडो कराविज्जीअ = उसके द्वारा घड़ा बनवाया गया है। जुवईए बाला णच्चावीअईअ. = युवती के द्वारा बालिका नचायी गयी है। भविष्यकाल तेण अहं पासाविहिमि __ = उसके द्वारा मैं दिखाया जाउँगा। मए तुम णच्चाविहिसि = मेरे द्वारा तुम नचाये जाओगे। गुरुणा पोत्थअं पढाविहिइ = · गुरु के द्वारा पुस्तक पढ़ायी जायेगी। विधि/आज्ञा तेण पत्तं लिहावीअउ = उसके द्वारा पत्र लिखाया जाय। तुमए कंदुओ खेलावीअउ = तुम्हारे द्वारा गेंद खिलायी जाय। छत्तेहि सुधिणो नमावीअंतु = छात्रों के द्वारा विद्वानों को नमन कराया जाय । तेण अहं ण उट्ठाविज्जमु = उसके द्वारा मुझे न उठाया जाय। प्राकृत में अनुवाद करो : .. उसके द्वारा बालिका को जल पिलाया जाय । तुम्हारे द्वारा शिष्य को सिखाया जाय । तुम्हारे द्वारा वह उठाया जाता है। छात्र के द्वारा शास्त्र नहीं पढ़ा जाता है। युवती के द्वारा बालको को जल पिलाया गया। मेरे द्वारा बालिकाओं को गीत सिखाया गया। माता के द्वारा जगाया जाउंगा। पिता के द्वारा घड़ा बनाया जायेगा। हमारे द्वारा चित्र दिखाये जायेंगे। १२६ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) प्रेरक कर्मवाच्य कृदन्त क्रियाएँ : वर्तमान कृदन्त पढावीअंतो/पढावीअमाणो गंथो = पढ़ाया जाता हुआ ग्रंथ। पढावीअंती/पढावीअमाणी गाहा = पढ़ायी जाती हुई गाथा। पढावीअंत/पढावीअमाणं पोत्थअं = पढ़ायी जाती हुई पुस्तक। भूत कृदन्त पढाविओ गंथो पढ़ाया गया ग्रंथ । पढाविआ गाहा पढ़ायी गयी गाथा। पढाविअं पोत्थअं पढ़ायी गयी पुस्तक। भविष्य कृदन्त पढाविस्समाणो गंथो पढ़ाया जाने वाला गंथ । पढाविस्समाणी गाहा पढ़ायी जाने वाली गाथा। पढाविस्समाणं पोत्थ पढ़ायी जाने वाली पुस्तक। _ विधि कृदन्त पढावणीओ गंथो पढ़ाने योग्य ग्रंथ। पढावणीआ गाहा पढ़ाने योग्य गाथा। पढावणीअं पोत्थअं पढ़ाने योग्य पुस्तक। प्रयोग वाक्य : . . मए गंथो पढावीअमाणो मेरे द्वारा ग्रंथ पढ़ाया जाता है। तेण गाहा पढाविआ उसके द्वारा गाथा पढ़ायी गयी। : तुमए पोत्थअं पढाविस्समाणं = तुम्हारे द्वारा पुस्तक पढ़ायी जायगी। ... गुरुणा गंथो पढावणीओ गुरु के द्वारा ग्रंथ पढ़ाया जाना चाहिए। - प्राकृत में अनुवाद करो : . माता के द्वारा बालक जगाया जाता है। गुरु के द्वारा शिष्य पढ़ाये जाते हैं। उनके द्वारा गेंद खिलायी गयी। साधु के द्वारा जल पिलाया गया। राजा के द्वारा पत्र लिखाया गया। मेरे द्वारा शास्त्र पढ़ाया जायेगा। तुम्हारे द्वारा कथा सुनायी जायेगी। उनके द्वारा तुमको नमन किया जायेगा। तुम सबके द्वारा साधु को पानी पिलाया जाना चाहिए। गुरु के द्वारा छात्र को लिखाया जाना चाहिए। तुम्हारे द्वारा कार्य किया जाना चाहिए। गुरु का खण्ड १ १२७ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ (ग) प्रेरक भाववाच्य सामान्य क्रियाएँ : वर्तमानकाल मए हसावीअइ/हसाविज्जइ = मेरे द्वारा हंसाया जाता है। अम्हेहि हसावीअइ/हसाविज्जइ = हमारे द्वारा हँसाया जाता है। तुमए धावावीअइ/धावाविज्जइ = तुम्हारे द्वारा दौड़ाया जाता है। तेण झावीअइ/झाविज्जइ = उसके द्वारा ध्यान कराया जाता है। बालाए णच्चावीअइ/णच्चाविज्जइ = बालिका के द्वारा नचाया जाता है। छत्तेण भणावीअइ/भणाविज्जइ = छात्र के द्वारा पढ़ाया जाता है। भूतकाल . . मए हसावीअई/हसाविज्जीअ = मेरे द्वारा हँसाया गया। तेण धावावीअईअ/धाविज्जीअ = उसके द्वारा दौड़ाया गया। तुमए णच्चावीअईअ/णच्चाविज्जीअ = तुम्हारे द्वारा नचाया गया। ' छत्तेण भणावीअईअ/भणाविज्जीअ = छात्र के द्वारा पढ़ाया गया। भविष्यकाल तेण हसाविहिइ/हसाविज्जिहिइ = उसके द्वारा हँसाया जायेगा। अम्हेहि पढाविहिइ/पढाविज्जिहिइ . = हमारे द्वारा पढ़ाया जायेगा। तुमए धावाविहिइ/धावाविज्जिहिइ = तुम्हारे द्वारा दौड़ाया जायेगा। विधि एवं आज्ञा . . तेहि सुणावीअउ/सुणाविज्जउ . = उनके द्वारा सुनाया जाय । तेण पढावीअउ/पढाविज्जउ = उसके द्वारा पढ़ाया जाय तुमए नमावीअइ/नमाविज्जउ . = तुम्हारे द्वारा नमन कराया जाय । क्रियाकोश : मोह = मोहित होना कूद्द = कूदना लोभ करना चव्व = चबाना सगह संग्रह करना बुक्क = भौंकना प्रशंसा करना थक्क = थकना । संवर रोकना कंडूअ = खुजाना खेद करना लुण = काटना हर = छीनना वरिस = वरसना लुब्भ सलह सीअ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) कृदन्त क्रियाएँ : वर्तमान कृदन्त 'मए हसावीअंतं/हसावीअमाणं = मेरे द्वारा हँसाया जाता है/हुआ तुमए धावावीअंत/धावावीअमाणं = तुम्हारे द्वारा दौड़ाया जाता है/हुआ तेण पढावीअंतं/पढावीअमाणं = उसके द्वारा पढ़ाया जाता है/हुआ भूत कृदन्त मए हसाविअं/हसाविज्ज = मेरे द्वारा हँसाया गया/मैंने हँसाया। तुमए धावाविअं/धावाविज्जं = तुमने दौड़ाया/तुम्हारे द्वारा दौड़ाया गया। तेण पढावि/पढाविज्जं =उसके द्वारा पढ़ाया गया/उसने पढ़ा। भविष्य कृदन्त मए. हसाविस्समाणं . = मेरे द्वारा हँसाया जायेगा। तुमए धावाविस्समाणं . = तुम्हारे द्वारा दौड़ाया जायेगा। तेण पढाविस्समाणं _ = उसके द्वारा पढ़ाया जायेगा। विधि कृदन्त मए हसावेअव्वं/हसावणीअं = मेरे द्वारा हँसाया जाना चाहिए। ... तुमए धावावेअव्वं/धावावणीअं = तुम्हारे द्वारा दौड़ाया जाना चाहिए। तुण पढावेअव्वं/पढावणी = उसके द्वारा पढ़ाया जाना चाहिए । हिन्दी में अनुवाद करो : . . . पुरिसेण सिक्खावीअंतं । 'सुधिणा दरिसावीअमाणं । निवेण ताडाविशे। तेण दिक्खाविज्ज। अम्हे पिवाविस्समाणं। तुमए सुणाविस्समाणं। तेण पेसावणीअं। मए . लिह्यवेअव्व। .प्राकृत में अनुवाद करो : - कवि द्वारा हँसाया जाता है। गुरु के द्वारा पढ़ाया जाता है। राजा के द्वारा दौड़ाया जाता है। मेरे द्वारा सिखाया गया। साधु के द्वारा दिखाया गया। बालिका द्वारा भेजा जायेगा। नौकर द्वारा कराया जाना चाहिए। उनके द्वारा नहीं हँसाया जाना चाहिए। तुम्हारे द्वारा क्षमा कराया जाना चहिए। युवती के द्वारा नृत्य कराया जाना चाहिए। खण्ड १ १२९ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ८४ ४. प्रेरणार्थक क्रिया के अन्य प्रयोग : (क) कर्तृवाच्य सामान्य क्रियाएँ अहं सीसेण पढावेमि = मैं शिष्य से पढ़वाता हूँ। तुमं मए पढावेसि _ = तुम मुझसे पढ़वाते हो।। अम्हे तुमए पढावीअ = हमने तुमसे पढ़ावाया। . ते बालाहि पढाविहिति = वे बालिकाओं से पढ़वायेंगे। सो तेण पढावउ = वह उससे पढ़वाये। . कृदन्त क्रियाएँ तेण पढाविऊण __= उससे पढ़वाकर। . मए लिहाविऊण __= मुझसे लिखवाकर। तुमए पढाविउं = तुमसे पढ़वाने के लिए। छत्तेण लिहाविउं __ = छात्र से लिखवाने के लिए। सीसेण पढावणीअ = शिष्य से पढ़वाने योग्य। बालाए लिहावंतो = बालिका से लिखवाता हुआ। तेण पढावमाणो = उससे पढ़वाता हुआ। मए लिहाविओ = मुझसे लिखवाया हुआ। तुमए पढाविस्संतो = तुमसे पढ़वाया जाने वाला। (ख) कर्म एवं भाव वाच्य मए छत्तेण पोत्थअं पढावीअइ = मेरे द्वारा छात्र से पुसतक पढ़वायी जाती है। निवेण तेण घडो कराविज्जीअ = राजा के द्वारा उससे घड़ा बनवाया गया। गुरुणा बालाए णच्चाविहिइ = गुरु के द्वारा बालिका से नचवाया जायेगा। तुमए तेण पढाविज्जउ = तुम्हारे द्वारा उससे पढ़वाया जाय। कृदन्त प्रयोग तेण पढावीअंतो गंथो = उससे पढ़वाया जाता हुआ ग्रंथ । मए लिहाविअं पत्तं = मुझसे लिखवाया गया पत्र। तेण पढाविस्समाणी गाहा = उससे पढ़वायी जाने वाली गाथा । छत्तेण लिहावणीअं पोत्थअं = छात्र से लिखवाने योग्य पुस्तक । प्राकृत में अनुवाद करो : ___ राजा नौकर से कार्य करवाता है। गुरु शिष्य से लिखवाता है । युवती बालिका से नृत्य करवाती है ।तुमने उससे पत्र लिखवाकर भेजा। पुत्र पिता से पुस्तक खरीदवाने के लिए रोता है। यह गाथा शिष्य से पढ़वाने योग्य नहीं है। यह पत्र उसके द्वारा लिखवाया हुआ है। १३० प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ नियमः प्रेरणार्थक क्रिया-प्रयोग नि. ९४ : प्रेरणार्थक क्रिया का प्रयोग तब होता है जब किसी भी क्रिया को करने में कर्ता स्वतंत्र नहीं होता है। क्रिया करने के लिए (i) कर्ता दूसरे को . प्रेरणा देता है अथवा (ii) स्वयं दूसरे के लिए वह क्रिया करता है। यथा(i) अहं सीसेण पढावमि = मैं शिष्य से पढ़वाता हूँ। fii) अहं सीसं पढावमि = मैं शिष्य को पढ़ाता हूँ। इन दोनों वाक्यों में पढ़ाने की क्रिया में अहं (मैं) की प्रेरणा है। अतः अहं के साथ सामान्य रूप से प्रयुक्त होने वाले पढ़ामि क्रिया रूप में प्रेरणार्थक आवं प्रत्यय जुड़ जाने से पढ + आव + मि = पढावमि रूप बन जाता है। नि. ९५ : प्राकृत में प्रेरणार्थक क्रिया बनाने के लिए मूल क्रिया में आव प्रत्यय जोड़ने के बाद काल और पुरुष-बोधक प्रत्यय जोड़े जाते हैं। जैसे मू. क्रि प्रे.प्र... . ए.व. प्रेरर्णाक क्रियारूप .: पढ + आव - + मि = पढावमि (वर्त) पढ + आवः + ईअ + - = पढावीअ (भूत) .पढ + आव + इहि + मि - पढाविहिमि (भवि.) पढ + आव - + मु = पढावमु (इच्छा/आज्ञा) 'नि. ९६ : प्रेरणार्थक क्रिया के सामान्य प्रयोगों में जिससे वह क्रिया करायी जाती है . उस कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-अहं सीसेण पढावमि । (देखें; पाठ 84) और जिनके लिए वह क्रिया की जाती है उस कर्ता में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे- अहं सीसं पढावमि। नि. ९७ : प्रेरणार्थक कृदन्त रूपों में मूल क्रिया में आव प्रत्यय जोड़ने के बाद विभिन्न कृदन्तों के प्रत्यय जोड़े जाते हैं। जैसे पढ़ + आव + इ + ऊण = पढाविऊण हे. कृ.- पढ + आव + इ + उ = पढाविउं वि. कृ.- पढ + आव + अणीअ = पढावणीअ वि. कृ.- पढ + आव + ए + अव्व = पढावेअव्व सं. कृ. खण्ड १ १३१ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व.कृ. पढ + आव + माण पढावमाण पढ + आव + अंत पढावंत. पढ + आव + इ + अ = पढाविज कृ.- पढ + आव + इस्संत = पढाविस्संत निर्देश : इन सभी प्रेरक कृदन्त रूपों के पु, स्त्री. एवं नपुं. रूप बनाकर विशेषण जैसे प्रयुक्त किये जा सकते हैं। इनके प्रयोग एवं नियम आप कृदन्त विशेषण पाठ में सीख चुके हैं। यथापढावणीआ गाहा = पढवाने योग्य गाथा । (स्त्री. वि. कृ). . पढावंतो पुरिसो = पढ़ाता हुआ पुरुष । (पु. व. कृ). . . . पढाविअं पोत्थअं = पढ़वायी हुई पुस्तक । (नपुं. भू. कृ) .... पढाविस्संतो गंथो = पढ़ाया जाने वाला ग्रन्थ । (पु. भवि. कृ) नि. ९८ : प्रेरक कर्म वाच्य क्रियाएँ बनाने के लिए मूल क्रिया में आवि प्रत्यय जोड़कर वाच्य के प्रत्यय जोड़े जाते हैं। उसके बाद विभिन्न कालों के और पुरुष-बोधक प्रत्यय जोड़े जाते हैं जैसे:मू. क्रि. प्रे. प्र. वाच्य प्र. पु. बो. प्र. : प्रेरकवाच्य रूपः .. पढ + आवि + ईअ/इज्ज + इ = पढावीअई (व.का) पढ + आवि + ईअ/इज्ज + ई = पढाविजीअ (भू. का) पढ + आवि + - + हिइ = पढाविहिइ (भ. का) . पढ + आवि + ईअ/इज्ज + उ = पढावीअउ (विधि) निर्देशः वाच्य क्रियाओं में भविष्यकाल में वाच्य प्रत्यय ई/इज्ज नहीं जुड़ते हैं। (देखें, नि. 84) अतः पढाविहिइ में इनका प्रयोग नहीं है। नि. ९९ : (क) प्रेरणार्थक कर्म वाच्य कृदन्तों में वर्तमान कृदन्त में वाच्य प्रत्यय ईअ जुड़ता है तथा भविष्य कृदन्त में इस्समाण प्रत्यय जुड़ता है । यथाव. कृ. -पढ़ + आव. + ईअ+माण . = पढावीअमाणो (पु) भ. वृ - पढ + आव -+इस्समाण = पढाविस्समाणो (पु) (ख) अन्य प्रेरणार्थक कर्म वाच्य कृदन्त सामान्य प्रेरक कृदन्तों की भांति बनते हैं (देखें,नि.९७) नि. १०० : (क)प्रेरक भाववाच्य सामान्य क्रियाएँ प्रेरक कर्मवाच्य क्रियाओं की तरह ही बनती हैं (देखें, नि.९८)। (ख) प्रेरक भाववाच्य कृदन्त प्रेरक कर्मवाच्य कृदन्तों के समान ही बनते हैं (देखें, नि. ९९)। ये कृदन्त नपुं. में ही प्रयुक्त होते हैं। प.का) .. १३२ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड १ प्रेरणार्थक क्रिया चार्ट क्रिया प्रयोग प्रत्यय वि. आ. सामान्य क्रिया पढ आव पढावउ. व. का. - भू. का. भ. का. पढावइ पढांतीअपढाविहिइ पढावीअइ. ..पढावीअईअ पढाविहिइ हसावीअइहसावीअईअहसाविहिइ कर्मवाच्य पढ आव पढावीअउ हसावीअउ भाववाच्य आव कृदन्त प्रयोग । प्रत्यय भ. कृ. मू. क्रि. सामान्य कृदन्त पढ वि. कृ. । व. कृ. पढावमाणो पढावंतो । भू. कृ. पढाविओ - स. कृ. पढाविऊण । हे. कृ. पढाविउं आव पढाविस्संतो पढावणीअ/ पढावेअव्वं कर्मवाच्य | पढ आव पढावीअमाणं पढाविओ पढावीअंतो पढाविस्समाणो | पढावणीअ/ पढावेअव्वं पढाविऊण पढाविठं भाववाच्य हस आव हसाविअं हसावीअमाणं हसावीअंतं हसाविस्समाणं हसाविऊण हसावणीअं/ हसावेअव्वं हसाविउं Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियातिपत्ति के प्रयोग : तुमं झाणेण पढेज्जा अण्णहा सहलं ण होज्जा । जइ अहं कम्मं ण करेज्जा सा धणं ण लज्जा । जइ समयम्मि वेज्जो ण आगच्छेज्जा ता णिवो गच्छेज्ज भणेज्ज नमज्ज १३४ अवस्सं मरेज्जा । = जया दीवो जोज्जा तया अंधयारो नस्सेज्जा | आयासे जया विज्जुला चमक्केज्जा तया मेहा वरसेज्जा । जइ मग्गम्मि पयासो होन्तो ता अम्हे खड्डुम्मि ण पडन्तो । = " = " = " = उ. पु. म.पु. अ. पु. पढेज्ज, पढेज्जा, पढन्तो, पढमाणो, पढेज्ज, पढ़ेज्जा, पढन्तो, पढमाणो करेज्ज एकवचन बहुवचन हसेज्ज, हसेज्जा, हसन्तो, हसमाणो हसेज्ज, हसेज्जा, हसन्तो, हसमाणो "1 " 12 " " " ८६ तुम ध्यान से पढ़ो अन्यथा सफल नहीं होओगे । यदि मैं कर्म नहीं करूं तो धन नहीं मिलेगा । यदि समय पर वैद्य नहीं आता तो राजा अवश्य मर जाता । जब दीपक होता है तब अन्धकार नष्ट हो जाता है। 2. आकाश में जब बिजली चमकती है. रतब बादल बरसते हैं। • . यदि मार्ग में प्रकाश होता तो हम खड्डे में गिरते । जाज्ज होज्ज, होज्जा, होन्तो, होमाणो, होज्ज, होज्जा, होन्तो, होमाणो णेज्ज झाज्ज प्राकृत में अनुवाद करो : यदि तुम वहाँ जाते तो सब जान जाते । यदि हम पहले आ जाते तो अवश्य उनको देखते । यदि मेरे पास धन होता तो मैं विदेश यात्रा करता। रावण यदि शील की रक्षा करता तो राम उसकी रक्षा करते। यदि वहाँ तालाब न होता तो गाँव जल जाता । प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि. १०१ : क्रियांतिपत्ति का प्रयोग प्रायः तब होता है जब पूर्व वाक्य में कोई कारण हो और दूसरे वाक्य में उसका फल । नि. १०२ : क्रियातिपत्ति से तीन पुरुषों, दोनों वचनों और सभी कालों में क्रिया का एक रूप प्रयुक्त होता है । क्रिया में ज्ज, ज्जा, न्त एवम् माण प्रत्यय विकल्प से जुड़ते हैं। जैसे पढ + ए + ज्ज पढ + न्त निर्देश : पढेज्ज पढन्तो (पु.) हो+ज्ज होज्ज = होज्जा 'हो + न्त होतो = होमाणो = जिन क्रियाओं को आपने सीखा है उनके क्रियातिपत्ति रूप बनाइए और उनका वाक्यों में प्रयोग कीजिए । प्राकृत = खण्ड १ = = पढ़ + ए + पढ + माण हो + ज्जा हो + माण ज्जा = पढेज्जा = पढमाणो (पु.) हिन्दी में अनुवाद करो : तुम ण झाइअं । तुमं तं लिहाविहिसि । सो ममं ण जग्गावउ । जुवईए बाला सयाविज्जइ । पुरिसेण वित्तं पासावी अइ । गुरुणा गाहा ण लिहाविआ । अम्हेहि पत्तं लिहाविज्जइ । तेण तत्थ पढावीअउ । साहू तेण गंथं पढाविऊण सुणइ । जया णामं होज्जा तया अण्णाणं नस्सेज्जा । में अनुवाद करो : हमारे द्वारा नहीं, सुना गया। शिष्य साधु को जगाता है । स्वामी नौकर को सिखायेगा। यह पुस्तक पढ़ने योग्य नहीं है । तुम्हारे द्वारा गीत लिखाया जायेगा । विद्वान् .के द्वारा ग्रंथ पढ़ाया जाना चाहिए। युवती छात्र से लिखवाती है। यदि मैं नहीं पढूँगा तो ज्ञान नहीं मिलेगा। १३५ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ८७ सन्धि प्रयोग निर्देश : प्राकृत में सन्धि का प्रयोग प्रायः वैकल्पिक है, अनिवार्य नहीं। प्राकृत साहित्य में सन्धि के कई प्रयोग देखने को मिलते हैं। प्राकृत-वैयाकरणों ने सन्धि के कुछ नियम भी बतलाये हैं। प्रारम्भिक जानकारी के लिए कुछ प्रमुख नियम एवं उनके उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं। . 1. स्वर-सन्धि प्रथम शब्द के अन्तिम स्वर एवं द्वितीय शब्द के पहले स्वर मिल जाने पर शब्द में जो परिवर्तन होता है उसे स्वर-सन्धि कहते हैं। प्राकृत में स्वर-सन्धि के प्रायः निम्न प्रयोग देखे जाते हैंसमान स्वर (१) अ + अ = आ यथा- जीव + अजीव = जीवाजीव णर + अहिव = णराहिव धम्म + अधम्म = धम्माधम्म . (२) इ+इ, ई + इ=ई यथा- मुणि + ईसर = मुणीसर मुणि + इंद. = मुणीद रयणी + ईस = रयणीस (३) उ+ उ, ऊ + उ =ऊ यथा- बहु + उअयं = बहअयं भाणु + उवज्झाय = भाणवज्झाय असमान स्वर (४) अ+ इ, अ + ई = ए यथा- ण + इच्छइ णेच्छइ = दिणेस महा + इसि = महेसि . राअ + इसि = राणसि (५) अ + आ, आ + अ = आ यथा- गीअ + आई __ . = गीआई कला + अहिवइ = कलाहिवइ (६) अ+ उ, अ + ऊ= ओ यथा- तस्स + उवरि __= तस्सोवरि समण ___ + उवासग = समणोवासग पाअ + ऊण = पाओण संयुक्त-व्यंजन के पूर्व स्वर (७) अ + इ = इ यथा- गअ + इंद = गइंद णर + इंद ___= णरिंद . अ + उ = उ यथा- णील + उप्पल ___ = णीलुप्पल रयण + उज्जलं ___ = रयणुज्जलं + प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + ईस + इसर + ऊसव + गामेणी तहा = तहेव अपि + EEEEEEEEEEEEEE F# F REFEEEEEEEEEEEEEEE + + FFark thiestfit in EFF + दीर्घ स्वर के पूर्व स्वर का लोप (८) अ + ई = ई यथा- तिअस __= तिअसीस राय राईसर आ + ऊ=ऊ यथा महा महसव एग ऊण एगूण अ + एए यथा- गाम + एणी इह + एव इहेव + एव __ अ+ ओ, आ+ओ = ओ यथा- जल + ओह = जलोह महा + ओसहि ___ = महोसहि अव्यय के पूर्व स्वर का लोप (९) अपि का अ लोप यथा- केण __= केण वि + अपि __ = को वि + अपि = मरणं पि + अपि = तं पि इति की इ लोपं यथा- - तहा = तहत्ति = दीसइत्ति पढमं पढमत्ति + इति = जंति इव की . इ लोप यथा- चन्दो + इव ___ = चन्दो व्व ___ = गेहं व .. जइ + इमा ___ = जइमा २.प्रकृतिभाव सन्धि (१०) क्रियापद में यथास्थिति- होई + इह . = होई इह गच्छइ + इह गच्छइ इह .. व्यंजन लोप पर यथास्थिति- निसा + अर = निसाअर गंध + उडी __= गंधउडी स्वर के बाद यथास्थिति- एगे + आया = एगे आया अहो + अच्छरियं = अहो अच्छरियं ३. व्यंजन सन्धि (११) म् का अनुस्वार यथा- जलम् गिरिम् = गिरि विकल्प से मेल यथा- किम् + इहं = किमिहं व्यंजन का अनुस्वार यथा- यत् = जं, सम्यक् = सम्म विकल्प से मेल __ यथा- यद् + अस्ति = यदत्थि पुनर् + अपि = पुणरवि निर् + अन्तर =निरन्तर + + + + इव खण्ड १ १३७ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ समास निर्देश : थोड़े शब्दों में अधिक अर्थ बतलाने वाली प्रक्रिया को समास कहते हैं । समास के प्रयोग से वाक्य रचना में सौन्दर्य आ जाता है । प्राकृत में सरल समासों का प्रयोग अधिक हुआ है। प्राकृत वैयाकरणों ने समास के लिए कोई नियम नहीं बनाये हैं । अतः प्रयोग के अनुसार प्राकृत के समासों को समझना चाहिए। समास के छह भेद निम्न प्रकार हैं । 1. अव्ययीभाव समास जिसमें पूर्वपद के अर्थ की प्रधानता हो तथा अव्ययों के साथ जिसका प्रयोग हो वह अव्ययीभाव समास है । यथा गुरुणो समीवं (गुरु के पास) । भोयणस्स पच्छा (भोजन के बाद ) । उवगुरु अणुभ पइदिणं अणुरुवं 2. तत्पुरुष समास १३८ 3. कर्मधारय समास ष. वि-देवमंदिरं स. वि-कलाकुसलो = = = चन्दमुहं जिणेंदो संजमधणं असच्च = = जिसमें उत्तरपद के अर्थ की प्रधानता होती है तथा पूर्वपद से विभक्तियों का लोप होता है उसे तत्पुरुष समास कहते हैं। यथा द्वि. वि. - सुह तृ. वि-गुणसम्प च. वि-बहुि पं. वि चोरभयं = = = विशेषण और विशेष्य के समास कर्मधारय समास कहलाते हैं । यथा महावीरो महन्तो सो वीरो (महान् वीर) । पी अवत्थं पीअं तं वत्थं (पीला वस्त्र ) । रतपीअं रत्तं अपीअं अ (लाल और पीला) । = = = ८८ = दिणं दिणं पड़ (दिन के बाद दिन) रूवस्स जोग्गं (रूप के समान) । • = = सुहं पत्तो (सुख को प्राप्त) । गुणेहि सम्पणो (गुणों से सम्पन्न) । बहुजणस्स हितो (सब जुनों के लिए हित ) । चोरतो भीओ (चोर से डरा हुआ) । देवस्स मंदिरं (देव का मंदिर) । कलासु कुसलो (कलाओं में कुशल) । चंदो व्व मुहं (चंद्र की तरह मुख ) । जिणो इंदो इव (जन इन्द्र की तरह) । संजमो एवं धणं (संयम ही है धन ) । सच्चं (सत्य नहीं है)। प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. द्विगु समास. प्रथम पद यदि संख्यासूचक हो तो उसे द्विगु समास कहते हैं। यथातिलोग तिण्हं लोगाणं समूहो (तीन लोकों का समूह)। चउक्कसायं चउण्हं कसायाणां समूहो (चार कषायों का समूह)। नवक्तं नवण्हं तत्ताणं समाहारो (नव तत्त्वों का समूह)। ५. द्वन्द्व समास दो या दो से अधिक संज्ञाएँ जब एक साथ जोड़े के रूप में प्रयुक्त हो तो उसे 'द्वन्द्व समास कहते हैं। यथापुण्णपावाई = पुण्णं अ पावं अ (पुण्य और पाप)। पिअरा = माअं अ पिआ अ (माता और पिता)। सुहदुक्खाइं = सुहं अ दुक्खं अ (सुख और दुःख)। णाणदंसणचरितं णाणं अ दसणं अ चरितं अ (ज्ञान, दर्शन और चारित्र)। ६. बहुव्रीहि समास . जब दो या दो से अधिक शब्द मिलकर किसी अन्य का विशेषण बनते हों तो उस समास को बहुव्रीहि कहते हैं। यथापीआंबरो . = पीअं अंबरं जस्स सो (पीला है वस्त्र जिसका, वह)। अपुत्तो .. = नत्थि पुत्तो जस्स सो (नहीं है पुत्र जिसका, वह)। सफलं .. = फलेण सह (फल के साथ.)। निलज्जो = निग्गया लज्जा जस्स सो (निकल गयी है लज्जा जिसकी वह)। . जिअकामो = जिओ कामो जेण सो (जीता है काम को जिसने, वह)। उदाहरण वाक्य : - अणुभोयणं ते पढन्ति भोजन के बाद वे पढ़ते हैं। गुणसम्पण्णो णिवो सासइ गुण सम्पन्न राजा शासन करता है। सो देवमंदिरे ण गच्छइ वह देवता के मंदिर में नहीं जाता है। रत्तपीअं वत्थं कस्स घरे अत्यि = लाल और पीला वस्त्र यहाँ नहीं है। चंदमुही कन्ना कस्स घरे अस्थि = चंद्रमा के समान मुखवाली कन्या किसके घर में है? महावीरो तिलोयं जाणइ महावीर तीनों लोकों को जानता है। पुण्णपावाणि बंधस्स पुण्य और पाप बंध के कारण हैं। कारणाणि संति पीआंबरो तत्थ णच्च पीले वस्त्र वाला वहाँ नाचता है। खण्ड १ १३९ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ ८९ ___ वैकल्पिक प्रयोग निर्देश :- प्राकृत व्याकरण के जिन नियमों का अम्यास अभी तक आपने किया है उनका प्रयोग आपको आगे दिये गये प्राकृत के पद्य एवं गद्य-संकलन में देखने को मिलेगा। साथ ही कुछ ऐसे प्रयोग भी इस संकलन में हैं, जो आपके लिए नये हैं तथा जिनका विकल्प से प्रयोग होता है। ऐसे वैकल्पिक प्रयोगों का विस्तार से विवेचन प्राकृत स्वयं-शिक्षक खण्ड २ में किया जावेगा। किन्तु सामान्य जानकारी के लिए ऐसे नये प्रयोगों के कुछ नियम एवं उदाहरण यहाँ भी दिये जा रहे हैं। इनके अभ्यास द्वारा इस प्रथम खण्ड में संकलित पाठों को सरलता से समझा जा सकेगा। . सर्वनाम एकवचन • १. उत्तमपुरुष प्रवि. = . अम्हे = अम्ह . द्वि. वि. ममं =मं . - अम्हे = अम्ह . त. वि. मए =मे, ममए अम्हेहि = अम्हे च. ष.वि. मझ = मह, मम, अम्हाण = मज्झ बहुवचन : : अहं पं. वि. वि · २. मध्यमपुरुष प्र. वि. द्वि. वि. तृ. वि. च. प. वि. ममाओ = ममत्तो अम्हम्मि = महम्मि तुम = तुं, तुहं तुमं = तुमे, तव तुमए = तुमे तुझ = तुह, तुम्ह, अम्हाहितो = अम्हत्तो अम्हेसु __ = ममेसु तुम्हे = तुब्भे, तुम्ह तुम्हे = वो तुम्हेहि = तुज्झेहि तुम्हाण __= तुमाण * ExFEEEEEEEEE... * EF तस्स तुम्हाहितो = तुम्हाओ तुम्हेसु = तुमेसु पं. वि. स. वि. ३. अन्य पुरुष प्र. वि. (पुल्लिग) द्वि. वि. त. वि. च. ष. वि. स. वि. तुमाओ ___ = तुम्हत्तो तुम्हम्मि = तुमम्मि सो =से, ण =णं = णेण तेहि = णेहि तस्स तम्मि = तस्सि १४० प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Un प ज एकवचन बहुवचन ४. अन्यपुरुष प्र. वि. ताओ= तीआ . (स्त्री) तृ. वि. ताए = ताहि= तीहि च. प. वि. ताअ = तिस्सा ताण= तेसिं स. वि. ताए = तासु= तीसु ५. ज-जो सर्वनाम के विभिन्न रूप . पुल्लिंग रूप स्त्रीलिंग रूप ए.ब. बन एब ब. ब. प्र. जो . जे जा जाओ, जीओ द्वि. . जं जे जाओ, जीओ तृ. जेण . जेहि जीआ, जीए जाहिं, जीहि च. जस्स जाण जिस्सा, जाए जाण, जेसिं पं. जम्हाजत्तो जाहिंतो . जित्तो, जीए जाहिंतोज़ीहितो पं. जस्स . जाण । जस्सा, जीए जाणजेसिं स. जम्मि, जस्सि' जेसु जाए, जीए जासु, जीसु रूप प्र. जं जाणि, जाई द्वि. जं जाणि, जाई (शेष विभक्तियों के रूप पुल्लिंग के समान होते हैं ) .क्रियाएँ: ६. . क्रियाओं के अंतिम अ अथवा आ को वर्तमान काल में विकल्प से ए भी होता है तब क्रियाओं के रूप इस प्रकार प्रयुक्त होते हैं। अकारान्त क्रियाएँ । एकवचन बहुवचन उत्तमपुरुष जंपामि = जंपेमि जंपामो = जंपेमो मध्यमपुरुष जंपसि =जंपेसि जंपित्या = जंपेत्था अन्यपुरुष जंपइ =जंपेइ जंपति ___ = जंपेंति गमइ ___ = गमेइ गमति . = गमेंति कहइ = कहेइ कहति = कहेंति पालइ = पालेइ पालंति = पालेंति = वएइ वअंति = वएन्ति आकारान्त क्रियाएँ = देमि _ = देसि दाइत्या = देइत्था दाइ = देइ दांति = देंति दामो = देमो مي مي مي 4 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. भूतकाल में आ, ए, ओकारान्त क्रियाओं में ही प्रत्यय के अतिरिक्त सी एवं हीअ प्रत्यय भी प्रयुक्त होते हैं। जैसेसभी पुरुषों एवं दाही = दासी, दाहीअ. सभी वचनों में पाही = पासी, पाहीअ. णेही = णेसी, णेहीअ होही = होसी, होहीअ ८. . भविष्यकाल में मूलक्रिया में स्स प्रत्यय भी विकल्प से जुड़ता है। जैसे- मू. क्रि. एकवचन बहुवचन . ... पास उ. पु. पासिहिमि= पासिस्सामि पासिहामो = पासिस्सामो म. पु. पासिहिसि= पासिस्ससि पासिहित्या = पासिस्सह अ. पु. पासिहिइ = पासिस्सइ । पासिहिति = पासिस्संति . दा उ. पु. दाहिमि = दास्सामि दाहामो = दास्सामो म.पु. दाहिसि = दास्ससि दाहित्था = दास्सह अ. पु. दाहिइ = दास्सइ . दाहिति = दास्संति ९. विधि तथा आज्ञार्थक क्रियारूपों में मध्यपुरुष के एकवचन में विकल्प से निम्न रूप भी प्रयुक्त होते हैं। मू. क्रि. सीखा हुआ रूप । वैकल्पिक रूप । अर्थ कुण कुणहि = कुण, कुणह, कुणसु करो मुंच मुंचहि = मुंच, मुंचह, मुंचसु, छोड़ो जंप जंपहि = जंप, जंपह, जंपसु , बोलो जाण जाणहि = जाण, · जाणह, जाणसु जानो पेसहि = पेस, पेसह, पेससु भेजो धार धारहि = धार, धारह, धारसु धारण करो सिक्ख सिक्खहि = सिक्ख, सिक्खह, सिक्खसु सीखो झा झाहि = झायह, झाएह ध्यान करो दा दाहि = दाह, दो . मोच मोचहि = माएह, मोयसु छोड़ो निक्कास निक्कासहि = निक्कासय निकालो EEEEEEEE देहि १४२ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू. क्रि. प्रत्यय 14 गिहिऊण नम हसिअ सम्बन्ध कृदन्तः १०. सम्बन्ध कृदन्तों में मूल क्रिया के साथा "ऊण” प्रत्यय के अतिरिक्त निम्नांकित प्रत्यय भी प्रयुक्त होते हैं। सीखा हुआ रूप वैकल्पिक रूप हसिऊण हसितुं, हसिउं तुं (3) करिऊण करिउं, काउं सुणिऊण सोउं ठविऊण ठवेउं झाइऊण झाइत्ता वंदिऊण वंदित्ता बंधिऊण . बंधित्ता गिण्हित्ता चिंतिऊण. चिंतित्ता उट्ठिऊण उठ्ठित्ता नम . नमिऊण नमिअ हसिऊण आरुह - आरुहिऊण आरुहिय आराह . आराहिऊण आराहिय परिणाव .. परिणाविऊण परिणाविय अनियमित सम्बन्ध कृदन्त ददिऊण दटुं = देखकर • गच्छ गच्छिऊण • गच्चा = जाकर • कर करिऊण किच्चा = करके जाण जाणिऊण णच्चा = जानकर सुणिऊण सोच्चा = सुनकर दाऊण दच्चा = देकर · चय चयिऊण चिच्चा = छोड़कर — सय सयिऊण सुत्ता = सोकर निर्देश :- सम्बन्ध कृदन्त के ये रूप उच्चारण भेद एवं ध्वनि-परिवर्तन के आधार पर 'प्रयुक्त होते हैं। इनके लिए कोई निश्चित नियम नहीं है। . १२. प्राकृत के कुछ शब्दों में “अ” के स्थान पर “य” का प्रयोग होता है। जैसे वअण = वयण (वचन) पाआल = पायाल (पाताल) नअण = नयण (आँख) पआ = पया (प्रजा) नअर = नयर (नगर) जोअण = जोयण (योजन) सुण दा. खण्ड १ १४३ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरिसे AA संज्ञाशब्द १३. संज्ञा शब्दों में विभिन्न विभक्तियों में विकल्प से कई रूप बनते हैं। प्रयोग की दृष्टि से कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं: पुल्लिंग संज्ञा शब्द विभक्ति एकवचन बहुवचन प्र. पुरिसो = पुरिसे पुरिसा = पुरिसे पुरिसा = . पुरिसेण = पुरिसेणं पुरिसेहि = पुरिसेहि पुरिसस्स पुरिसाय पुरिसाण = पुरिसाणं छुट्टणस्स छुट्टणाय (छूटने के लिए) सयणस्स सयणाय (सोने के लिए) भोयणस्स भोयणाय (भोजन के लिए). वहस्स वहाय (वध के लिए) परिहाणस्स = परिहाणाय (पहिनने के लिए) पुरिसत्तो = पुरसाओ पुरिसाहित्तो = पुरिसाहि . . सीलतो. = सीलाउ - - - पुरिसाण. = पुरिसाणं .. ___ स. पुरिसे = पुरिसम्मि पुरिसेसुः = पुरिसेसु . : पु. इकारान्त, उकारान्त शब्दों के चतुर्थी एवं षष्ठी विभक्ति में ये वैकल्पिक रूपं बनते हैं:सामिणो सामिस्स पिउणो पिउस्स गुरुणो = गुरुस्स १४. स्त्रीलिंग संज्ञा शब्दों में निम्नांकित परिवर्तन ध्यान देने योग्य हैं :एकवचन बहवंचन, आकारान्त- प्र. - मालाओ = मालाउ Hari तृ. से स. मालाए . = मालाइ मालाहि = मालाहिं ईकारान्त एवं प्र. द्वि. नईओ = नईउ उकारान्त तृ. से स. नईए = नईया - पं. नईए = नइत्तो - १५. नपुंसकलिंग संज्ञाशब्दों में प्र. एवं द्वि. विभक्ति के बहुवचन में वैकल्पिक रूप प्रयुक्त होते हैं। यथानेत्ताणि = नेत्ताई मुहाणि = मुहाई वस्थाणि = वत्थाई भोगाणि = भोगाई कमलाणि = कमलाई नयराणि = नयराइं १४४ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइय-पज्ज-गज्ज संगहो . खण्ड १ १४५ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंजणासुंदरीकहा अंजणाअ चागो परिवेअमं य पज्ज - संगहो १४६ १. पवणंज एण रुट्ठेणं । अदोसा ॥ १ ॥ सरिऊण मिस्सकेसी - वयणं चत्ता महिन्दतणया, दुक्खियमणसा विरहाणलतवियंगी, न लभइ विद्दाणलोयणा निद्दं । वामकरधरियवयणा, वाकुमारं विचिन्तन्ती ॥ २ ॥ उक्कण्ठिय त्ति गाढं, नयणजलासित्तमलिणथणजुयला । हरिणी व वाहभीया, अच्छइ मग्गं पलोयन्ती ॥ ३ ॥ अइतणुइयसव्वंगी, कडिसुत्तय-कडयसिढिलियाभरणा । भारेण अंसुयस्स य, जाइ महन्तं परमखेयं ॥४ ॥ ववगयदप्पुच्छ दुक्खं धारेइ अंगमंगाई | मे सुन्नहियया, पलवइ अन्नन्नवयणांई ॥५ ॥ पासायतलत्था चिय, मोहं गच्छइ पुणो पुणो बाला । नवरं आसासिज्जइ, सीयलपवणेण मिउ-महुर-मम्मणाए, जंपइ वायाए अइतणुओ वि महायस! तुज्झऽवराहो मए मुंचसु कोवारम्भं, पसियसु मा एव पणिवइयवच्छला किल, होन्ति मणुस्सा एयाणि य अन्नाणि य, जंपंती तत्थ अह सा महिन्दतणया, गमेइ कालं फुसियंग ॥ ६ ॥ दीवणा । न कओ ॥ ७ ॥ निडुरो होहि । महिलियाणं ॥८ ॥ दीणवयणाई । चिय बहुत्तं ॥ ९ ॥ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरोहो, जाओ अइदारुणो रावणस्स वरुणेण सह विरोहो एथन्तरे रावण - वरुणाण तओ, दोण्ह वि पुण लंकाहिवेण दूओ, वरुणस्स य पेसिओ गन्तूण पणमिऊण य, कयासणो विज्जाहराण सामी, वरुण ! तुमं भणइ कुणह पणामं व फुडं, अह ठाहि रणे हसिऊण भणइ वरुणो, दूयाहम ! को सि रावणो नाम ? | न य तस्स सिरपणामं, करेमि आणापमाणं वा ॥१३॥ सवडहुत्तो ॥ १२ ॥ रणारम्भो । दिप्पलबलाणं ॥ १० ॥ अइतुरन्तो । भणइ रावणो न य सो वेसमणो हं, नेय जमो न य सहस्सकिरणो वा । जो दिव्वसत्थभीओ, कुणइ पणामं . वयणाई ॥ ११ ॥ रुट्ठो । वरुणेणं उवलद्धो, दूओ जं एव तो रावणस्स गन्तुं कहेइ सव्वं सोऊण दूयवयणं, रुट्ठो लंकाहिवो दिव्वत्थेहि विणा मऍ, अवस्स एत्थन्तरे पट्टो, दसाणो वरुणपुरं, संपत्तो सोऊण रावणं सो, समागयं रणपरिहत्थुच्छाहो, विणिग्गओ अभिमुहो राईवपुण्डरीया, पुत्ता बत्तीस खण्ड १ तुहं दीणो ॥ १४ ॥ फरुसवयणेहिं । जाभणियं । । १५ ॥ भइ एवं । वरुणो जिएयव्वो ॥ १६ ॥ सयलबलकयाडोवो | मणि-कणयविचित्तपायारं ॥ १७ ॥ पुत्तबलसमाउत्तो । वरुणो ॥ १८ ॥ सहस्साइं । रक्खसभंडाणं । सन्नद्ध-बद्ध-कवया, अब्भट्टा पुल्लिंगं । अन्नोन्नसत्थभज्जन्त- संकुलं अइंदारुणं पवत्तं, जुज्झं रह-गय-तुरंग - जोहा, समरे जुज्झन्ति विवडन्तवरसुहडं॥२० ॥ अभिमुहावडिया । सर - संत्ति - खग्ग - तोमर चक्काउह - मोग्गरकरग्गा ॥ २१ ॥ रक्खसभडेहि भग्गं, वरुणबलं विवडियाऽऽस- गय - जोहं । ॥१९॥ दट्ठूण पलायन्तं, जलको अभिमुहीहूओ ॥२२॥ वरुणेण बलं भग्गं, ओसरियं पेच्छिऊण अब्भिडइ रोसपसरिय-सरोहनिवहं दहवयणो । विमुंचन्तो॥२३॥ १४७ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरुणस्स रावणस्स वट्टन्ते दारुणे महाजुज्झे । ताव य वरुणसुएहिं, गहिओ खरदूसणो दट्ठूण दूसणं सो, गहिओ मन्तीहि रावणो भणिओ । जुज्झन्तेण पहु ! तुमे, अवस्स मारिज्जए काऊण संपहारं, समयं मन्तीहि रणमज्झाओ पत्तो इ १४८ खरदूसणजीयत्थे, पायालपुरवरं पल्हायखे रस्स पवणवेगस्स रणत्थं गमणं सो, रावण - वरुणाण पडियागओ वि, य, सिग्घं पुरिसं समरे ॥ २४ ॥ कुमरो ॥ २५ ॥ . रक्खसाहिवई । समोसरिओ ॥ २६ ॥ सव्वसामन्ते । . गन्तूण पणमिऊण य, पल्हायनिवस्स कहइ रणं, दूसणगहणं महप्पा, पायालपुरट्ठियो मेलेइ रक्खसवई, अहमवि वीसज्जिओ तुज्झ ॥ २९ ॥ सोऊण वयणमेयं, पल्हाओ तक्खणे गमणसज्जो । पवणंजण धरियो, अच्छ तुमं सन्ते मए सामिय!, कीस तुमं कुणसि गमणआरम्भं ? । आलिंगणफलमेयं, देम अहं तुज्झ साहीणं॥३१ ॥ अदिट्ठसंगामो । निग्रयकीलाए ॥ ३२ ॥ ताव वीसत्थो ॥ ३० ॥ भणिओ य नरवईण, बालोसि तुमं अच्छसु पुत्त ! घरगओ, कीलन्तो मा ताय ! एव जंपसु, बालो त्ति अहं अदिट्ठरणकज्जो । आपुच्छिऊण से किं वा मत्तवरगए, सीहकिसोरो न पल्हायनरवईणं, वीसज्जओ भणिओ य पत्थिवजयं पुत्तय! पावन्तओ तातस्स सिरपणामं, काउं आहरणभूसियंगो, विणिग्गओ सो सहसा पुरम्मि जाओ, उल्लोल्लो निग्गओ सोऊण अंजणा वि य, तं अइपसरन्तसिणेहा, थम्भल्लीणा वरसालिभंजिया इव, दिट्ठा बाला सद्दं निग्गया पइं विसज्जेइ ॥ २७ ॥ संबन्धं । जहावत्तं ॥ २८ ॥ ससामन्तों । घाएइ ? ||३३ ॥ पवणवेगो । होहि ॥ ३४ ॥ जणणि । सभवणाओ ॥ ३५ ॥ पवणवेगो । तुरियं ॥ ३६ ॥ पलोयन्ती । जणवएणं ॥३७ ॥ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेच्छइ य तं कुमारं, महिन्दतणया नरिन्दमग्गम्मि । पुलयन्ति न य तिप्पइ, कुवलयदलसरिसनयणेहिं॥३८ ।। पवणंजएण वि तओ, पासायतलट्ठिया पलोयन्ती। दूरं उब्वियणिज्जा, उक्का इव अंजणा दिट्ठा॥३९ ॥ तं पेच्छिऊण रुट्ठो, पवणगई रोसपसरियसरीरो। भणइ य अहो ! अलज्जा, जा मज्झ उवट्ठिया पुरओ॥४०॥ रइऊण अंजलिउडं, चलणपणामं च तस्स काऊण । भणइ उवालम्भन्ती, दूरपवासो तुमं सामी॥४१ ।। वच्चन्तेण परियणो, सव्वो संभासिओ तुमे सामि । न य अन्नमणगएण वि, · आलत्ता हं अकयपुण्णा॥४२ ।। जीयं मरणं पि तुमे, आयत्तं मज्झ नत्थि संदेहो। जइ वि हु जासि पवासं, तह वि य अम्हे सरेज्जासु॥४३ ॥ एवं पलवन्तीए, पवणगई मत्तगयवरारूढो। निग्गन्तूण पुराओ, उवट्ठिओ माणससरम्मि॥४४ ॥ विज्जाबलेण रइयो, तत्थ निवेसो घरा-ऽऽसणाईओ। - ताव च्चिय अत्थगिरि, कमेण सूरो समल्लीणो॥४५ ॥ .: पवणवेगेण अंजनाअ सुमरणं .. अह सो संझासमए, भवण- गवक्खन्तरेण पवणगई। पेच्छइ सरं सुरम्मं, निम्मलवरसलिलसंपुण्णं ॥४६ ॥ मच्छेसु कच्छभेसु य, सारस-हंसेसु पयलियतरंगं । गुमुगुमुगुमन्तभमरं, सहस्सपत्तेसु संछन्नं ॥४७ ॥ अइदारुणप्पयावो, लोए काऊण दीहरज्जं सो। अत्थाओ दिवसयरो, अवसाणे नरवई चेव॥४८॥ दियहम्मि वियसियाई, निययं भमरउलछड्डियदलाई। मउलेन्ति कुवलयाई, दिणयरविरहम्मि दुहियाई॥४९ ॥ अह ते हंसाईया, सउणा लीलाइउं सरवरम्मि। दटुं संझासमयं, गया य निययाइँ ठाणाइं॥५०॥ तत्थेक्का चक्काई, दिट्ठा पवणंजएण कुव्वन्ती। अहियं समाउलमणा, अहिणवविरहग्गितवियंगी॥५१ ॥ १४२ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . उद्धाइ चलइ वेवइ, विहुणइ पक्खावलिं वियम्भन्ती। तडपायवे विलग्गइ, पुणरवि सलिलं समल्लियइ ॥५२॥ । विहडेइ पउमसण्डं, दइययसंकाएँ चंचुपहरेहि। . उप्पयइ गयणमग्गं, सहसा पडिसद्दयं सोउं॥५३॥. गरुयपियविरहदुहियं, चक्कि दळूण तग्गयमणेणं । पवणंजएण सरिया, महिन्दतणया चिरपमुक्का॥५४ ।। भणिऊण समाढत्तो, हा ! कटुं जा मए अकज्जेणं। मुढेण पावगुरुणा, चत्ता वरिसाणि बावीसं ॥५५॥ जह एसा चक्काई, गाढं पियविरहदुक्खिया जाया। ... तह सा मज्झ पिययमा, सुदीणवयणा गमइ . कालं ॥५६ ॥ जइ नाम अकण्णसुहं, भणियं सहियाएँ तीऍ पावाए। .. तो किं मए विमुक्का, पसयच्छी दोसपरिहीणा ? ॥५७ ॥ : परिचिन्तिऊण एवं वाउकुमारेण पहसिओ भणिओ। .. दट्ठण चक्कैवाई, सरिया से अंजणा भज्जा ॥५८॥ एन्तेण मए दिट्ठा, पासायतलट्ठिया पलोयन्ती। . . ववगयसिरि-सोहग्गा, हिमेण पहया कंमलिणि व्व॥५९॥ तं चिय करेहि सुपुरिस !, अज्ज उवायं अकालहीणम्मि। जेण चिरविरहदुहिया, पेच्छामि अहंजणा · बाला॥६० ॥ परिमणिय कज्जनिहसो, पवणगई भणइ पहसिओ मित्तो। मोत्तण तत्थ गमणं, अन्नोवायं न पेच्छामि ॥६१ ॥ पवणंजएण तुरियं, सद्दावेऊण मोग्गरामच्चो। ठवियो य सेन्नरक्खो, भणिओ मेरुं अहं जामि॥६२ ।। चन्दणकुसुमविहत्था, दोण्णि वि गयणंगणेण वच्चन्ता । रयणीए तुरियचवला, संपत्ता अंजणाभवणं ॥६३ ॥ तो पहसिओ ठवेउं घरस्स अग्गीवए पवणवेगं। . अन्भिन्तरं पविठ्ठो, दिट्ठो बालाएँ सहस ति॥६४ ॥ भणिओ य भो ! तुम को? केण व कज्जेण आगओ एत्थं । तो पणमिऊण साहइ, मित्तो हं पवणवेगस्स॥६५॥ सो तुज्झ पिओ सुन्दरि !, इहागओ तेण पेसिओ तुरियं ।। नामेण पहसिओ हं, मा सामिणि ! संसयं कुणसु ॥६६॥ • १५० प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोऊण सुमिणसरिसं, बाला पवणंजयस्स आगमणं । भणइ य किं हससि तुमं?, पहसिय ! हसिया कयन्तेण ॥६७॥ • अहवा को तुह दोसो?, दोसो च्चिय मज्झ पुव्वकम्माणं । जा हं पियपरिभूया, परिभूया सव्वलोएणं ॥६८ ।। भणिया य पहसिएणं, सामिणि ! मा एवं दुक्खिया होहि । सो तुज्झ हिययइट्ठो, एत्थं चिय आगओ भवणे॥६९ ॥ कच्छन्तरट्ठिओ सो, वसन्तमालाएँ कयपणामाए। फवणंजओ . कुमारो, पवेसिओ वासभवणम्मि॥७० ॥ अब्भुट्ठिया च सहसा, दइयं दद्दूण अंजणा बाला। ओणमियउत्तमंगा, . तस्स य. चलणंजली कुणइ॥७१ ॥ पवणंजओवविठ्ठो, कुसुमपडोच्छइयरयणपल्लंके। हरिसवसुन्भिन्नंगी, तस्स ठिया अंजणा पासे ॥७२ ।। कच्छन्तरम्मि 'बीए, वसन्तमाला समं पहसिएणं। __अच्छइ विणोयमुहला, कहासु विविहासु जंपन्ती ॥७३ ॥ पवणवेगेण सह अंजनाअ समागमं तो भणइ पर्वणवेगो, जं सि तुमं सासिया अकज्जेणं । तं. मे खमाहि सन्दरि !, अवराहसहस्ससंघायं ॥७४ ॥ भणइ य महिन्दतणया, नाह !, तुम नत्थि कोइ अवराहो। समरिय मणोरहफलं, संपइ नेहं .वहेज्जासु॥७५ ॥ भणइ पवणवेगो, सुन्दरि ! पम्हससु सव्व अवराहे। होहि सुपसन्नहियया, एस पणामो कओ तुझं ॥७६ ॥ आलिंगिया. सनेहं, कुवलयदलसरिसकोमलसरीरा । वयणं पियस्स अणिमिस-नयणेहि व पियइ अणुरायं ॥७७ ॥ घणनेहनिब्भराणं, दोण्ह वि अणुरायलद्धपसराणं । आवडियं चिय सुरयं, अणेगचडुकम्मविणिओगं ॥७८ ॥ आलिंगण-परिचुम्बण-रइउच्छाहणगुणेहि सुसमिद्धं । निव्ववियविरहदुक्खं, मणतुट्ठियरंजियजहिच्छं ॥७९ ॥ सुरतूसवे समत्ते, दोण्णि वि खेयालसंगमंगाई। अन्नोन्नभुयालिंगण- सुहेण निदं पवन्नाइं॥८० ।। - खण्ड १ १५१ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं कमेण ताणं, सुरयसुहासायलद्धनिद्दाणं । किंचावसेससमया, ताव य रयणी खयं पत्ता॥८१ ॥ रयणीमुहपडिबुद्धो, पवणगई भणइ पहसिओ मित्तो। उठेहि लहु सुपुरिस! खन्धावारं पगच्छामो॥८२ ॥ सुणिऊण मित्तवयणं, सयणाओ उट्ठिओ पवणवेगो। उवगृहिऊण कन्तं, भणइ य वयणं निसामेहि ॥८३ ॥ अच्छ तुमं वीसत्था, मा उव्वेयस्स देहि अत्ताणं । जाव अहं दहवयणं, दद्दूण लहुं नियत्तामि॥८४ ॥ तो विरहदुक्खभीया, चलणपणामं करेइ विणएणं। मम्मण-मुहुरुल्लावा, भणइ य पवणंजयं बाला ।।८५ ।। अज्जं चिय उसमओ, सामिय! गब्भो कयाइ उयरम्मि। होही वयणिज्जयरो, नियमेण तुमे परोक्खेणं ॥८६॥ तुम्हा कहेहि गन्तुं गुरूण गब्भस्स संभवं एवं। ... होहि बहुदीहपेही, करेही दोसस्स: परिहारं ॥८७ ॥ अह भणइ पवणवेगो, मह नामामुद्दियं रयणचित्तं । गेण्हसु मियंकवयणे !, एसा . दोसं पणासिहिइ ।।८८ ॥ आपुच्छिऊण कान्ता, वसन्तमाला य गयणमग्गेणं। निययं निवेसभवणं, पहसिय-पवणंजया पत्ता ॥८९ ॥ धम्मा-ऽधम्मविवागं, संजोग-विओग-सोग-सुहभावं। नाऊण जीवलोए, विमले जिणसासणे समुज्जमह सया॥९० ॥ १५२ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिसिरिवालकहा कहामुहं अरिहाइनवपयाइं झाइत्ता हिअयकमलमज्झमि। सिरिसिद्धचक्कमाहप्पमुत्तमं किंपि अँपेमि॥१॥ अत्थित्थ जंबुदीवे, दाहिणभरहद्धमज्झिमे खंडे। बहुधणधन्नसमिद्धो, मागहदेसो जयपसिद्धो॥२॥ जत्थुप्पन्नं सिरिवीरनाहतित्थं जयंमि वित्थरियं । तं देसं सविसेसं, तित्थं भासंति गीयत्था॥३॥ तत्थ य मागंहदेसे, रायगिहं नाम पुरवरं अस्थि । वेभार - विउल - गिरिवर - समलंकियपरिसरपएसं॥४॥ तत्थ य. सेणियराओ, रज्जं पालेइ तिजयविक्खाओ। वीरजिणचलणभत्तो, विहिअज्जियतित्थयरगुत्तो॥५॥ जस्सत्थि पढमपत्ती, नंदा नामेण जीइ वरपुत्तो। अभयकुमारो . . बहुगुणसारो चउबुद्धिभंडारो॥६॥ चेडयनरिंदधूया, · बीया जस्सत्थि चिल्लणा देवी। जीए असोगचंदो, पुत्तो हल्लो विहल्लो अ॥७॥ अन्नाउ अणेगाओ, धारणीपमुहाउ . जस्स देवीओ। मेहाइणो. अणेगे, पुत्ता पियमाइपयभत्ता ॥८॥ सो सेणियनरनाहो, अभयकुमारेण विहियउच्छाहो । तिहुयणपयडपयावो, पालइ रज्जं च धम्म च॥९॥ एयंमि पुणो समए, सुरमहिओ वद्धमाणतित्थयरो। विहरतो संपत्तो, रायगिहासन्ननयरंमि॥१०॥ पेसेइ पढमसीसं, जिटुं गणहारिणं गुणगरिहूँ । सिरिगोयमं मुणिंद, रायगिहलोयलाभत्थं ॥११ ।। सो लद्धजिणाएसो, संपत्तो रायगिहपुरोज्जाणे। कइवयमुणिपरियरिओ, गोयमसामी समोसरिओ॥१२॥ . खण्ड १ १५३ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्सागमणं सोउं, सयलो नरनाहपमुहपुरलोओ। नियनियरिद्धिसमेओ, समागओ भत्ति उज्जाणे॥१३॥. पंचविहं अभिगमणं, काउं तिपयाहिणाउ दाऊणं । पणमिय गोयमचलणे, उवविठ्ठो उचियभूमीए॥१४॥ भयवपि सजलजलहर-गंभीरसरेण . कहिउमाढत्तो।। धम्मसरूवं सम्म, परोवयारिक्कतल्लिच्छो॥१५ ।। भो भो महाणुभागा! दुलहं लहिऊण माणुसं जम्म। खित्तकुलाइपहाणं, गुरुसामग्गि व पुण्णवसा॥१६॥ . पंचविहंपि पमायं गुरुयावायं. विवज्जिउं झत्ति। .. सद्धम्मकम्मविसए, समुज्जमो होइ. कायव्वो॥१७॥ . सो धम्मो चउभेओ, उवइट्ठो सयलजिणवरिंदेहिं।। दाणं सीलं च तवो, भावोऽवि अ तस्सिमे भेया॥१८॥ तत्थवि भावेण विणा, दाणं न हु सिद्धिसाहणं होई ।' .. सीलंपि भाववियलं, विहलं चिय होइ लोगंमि ॥१९॥ भावं विणा तवो विहु, भवोहवित्थारकारणं चेव। । तम्हा नियभावुच्चिय, सुविसुद्धो होइ , कायव्वो॥२०॥ भावोवि मणोविसओ, मणं च अइदुज्जयं निरालंबं ।। तो तस्स नियमणत्थं कहियं सालंबणं झाणं ॥२१ ॥ आलंबणाणि जइवि हु, बहुप्पयाराणि संति सत्थेसु । तह वि हु नवपयझाणं सुपहाणं बिंत्ति ,जगगुरुणो॥२२॥ अरिहं-सिद्धायरिया, उज्झाया साहुणो अ सम्मत्तं । नाणं चरणं च तवो, इय पयनवगं मुणेयव्वं ॥२३ ।। तत्थऽरिहंतेऽट्ठारस-दोसविमुक्कें विसुद्धनाणमए । पयडियतत्ते नयसुरराए झाएह निच्वंपि॥२४॥ पनरसभेयपसिद्धे सिद्धे घणकम्मबंधणविमुक्के। . सिद्धाणंतचउक्के, झायह तम्मयमणा सययं ॥२५॥ पंचायारपवित्ते, विसुद्धसिद्धंतदेसणुज्जुत्ते। . परउवयारिक्कपरे, निच्चं झाएह सूरिवरे ॥२६ ।। ग १५४ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कहारंभ सुत्तत्थज्झाव मि उज्झाए ॥ २७ ॥ निट्ठियकसाए॥२८ ॥ गणतित्तीसु निउत्ते, सज्झाए लीणमणे, सम्म झाएह सव्वासु कम्मभूमिसु विहरते गुणगणेहि संजुत्ते । गुत्ते मुत्ते झायह, मुणिराए सव्वन्नुपणीयागम-पयडिय-तत्तत्थ दंसणरयणपईवं, निच्चं धारेह जीवाजीवाइपयत्थ सत्थ नाणं सव्वगुणाणं, मूलं असुह किरियाण चाओ, सहासुकिरिया जो य अपमाओ । M पालह निरुत्तं ॥ ३१ ॥ तत्तावबोहरूवं च । सिक्खेह विणणं ॥ ३० ॥ तं चारित्तं दुवालसंगधरं । तवोकम्मं ॥ ३२ ॥ घणकम्मतमो भरहरण भाणुभूयं नवरमकसायताबं, नवपयाई, चरेह सम्म उज्जुते । खण्ड १ सद्दहरूवं । भवणे ॥ २९ ॥ जिणवरधम्मंमि सारभूयाई । विहिणा आराहियव्वाई ॥ ३३ ॥ एयाई कल्लाणकारणाई, अन्नंच - एएहिं नवपएहिं सिद्धं सिरिसिद्धचक्कमाउत्तो । आराहंतो संतो, सिरिसिरिपालुव्व लहइ सुहं ॥ ३४ ॥ तो पुच्छइ मगहेसो को एसी मुणिवरिंद! सिरिपालो । • कह तेण सिद्धचक्कं, आराहिय पावियं सुक्खं ? ॥ ३५ ॥ तो भणइ मुणी निसुणसु, नरवर ! अक्खाणयं इमं रम्मं । सिरिसिद्धचक्कमाहप्पसुंदरं परमचुज्जकरं ॥ ३६ ॥ इत्थेव भरहखित्ते, दाहिणखंडंमि अत्थि - सव्वड्ढि कयपवेसो, मालवनामेण पर पए जत्थ सुगुत्तिगुत्ता, जोगप्पवेसा इव पए पए जत्थ अगंजणीया, कुटुंबमेला इव तुंगसेला ॥ ३८ ॥ पए पए जत्थ रसाउलाओ, पणंगणाओ व्व तरंगिणीओ । पर पए जत्थ सुहंकराओ, गुणावलीओव्व वणावलीओ ॥ ३९ ॥ पए पए जत्थ सवाणियाणि, महापुराणीव महासराणी । पए पए जत्थ सगोरसाणि, सुहीमुहाणीव सुगोउलाणि ॥ ४० ॥ सुपसिद्धो । वरदेो ॥ ३७ ॥ संनिवेसा । १५५ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्थ य मालवदेसे, अकयपवेसे दुकालडमरेहिं । अत्थि पुरी पोराणा, उज्जेणी नाम सुपहाणा॥४१॥ अणेगसो जत्थ पयावईओ, नरुत्तमाणं च न जत्थ संखा। महेसरा जत्थ गिहे गिहेसु, सचीवरा जत्थ समग्गलोया॥४२॥ . घरे घरे जत्थ रमंति गोरी-गणा सिरीओ अ पए पए अ। वणे वणे यावि अणेगरंभा, रई अ पीई विय ठाणठाणे॥४३ ॥ तीसे पुरीई सुरवरपुरीई अहियाइ वण्णणं काउं। जइ निउणबुद्धिकलिओ, सक्कगुरु चेव सक्केइ ॥४४ ।। तत्थत्थि पहविपालो, पयपालो नामओ अ गणओ अ। .. जस्स पयावो सोमो, भीमो विय सिट्ठदुट्ठजणे॥४५॥ तस्सवरोहे बहदेहसोह अवहरिय गोरिगव्वेवि। . अच्वंतं मणहरणे, निउणाओ दुन्नि देविओ॥४६॥ सोहग्गलडहदेहा, एगा सोहग्गसुन्दरी नामा।... बीया अ रूवसुन्दरी, नामा रूवेण रइतुल्ला ॥४७॥ .. पढमा माहेसरकुलसंभूया तेण मिच्छदिट्ठित्ति। बीया सावअधूया तेणं सा सम्मदिट्ठित्ति॥४८॥ तओ सरिसवयाओ, समसोहग्गाउ सरिसरूवाओ। सावत्तेवि हु पायं, परुप्परं पीतिकलिआआ॥४९ ॥ नवरं ताण मणट्ठियधम्मसरूवं वियारयंताणं । दूरेण विसंवाओ, विसपीऊसेहिं . ,सारिच्छो ॥५० ॥ तओ अ रमंतीओ, नवनवलीलाहिं नरवरेण समं । थोवंतरंमि समए, दोवि सगब्भाउ जायाओ॥५१॥ कन्नगा-सिक्खा. समयंमि पसूयाओ, जायाओ कन्नगाउ दोहिंपि। नरनाहोवि सहरिसो, वद्धावणयं करावेई ॥५२ ।। सोहग्गसुंदरी नंदणाइ सुरसुंदरित्ति वरनाम। बीयाइ मयणसुंदरि, नामं च ठवेइ नरनाहो॥५३ ॥ समये समप्पियाओ, तओ सिवधम्मजिणमयविऊणं । अज्झावयाण रन्ना, ताओ सिवभूतिसुबुद्धिनामाणं ॥५४॥ · १५६ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुंदरी अ सिक्खइ, लिहियं गणियं च लक्खणं छंदं । कव्वमलैंकारजुयं, तक्कं च पुराणसमिईओ॥५५ ।। सिक्खेइ भरहसत्थं, गीयं नट्टं च जोइसतिगिच्छं। विज्जं मंतं तंतं, हरमेहलचित्तकम्माइं॥५६ ।। अन्नाइंपि कुंडलविटलाइंकरलाघवाइकम्माइं। सत्थाई सिक्खियाई, तीइ चमुक्कारजणयाई॥५७ ॥ सा कावि कला तं किंपि, कोसलं तं च नत्थि विन्नाणं । जं सिक्खियं न तीए, पन्नाअभिओगजोगेणं ॥५८ ॥ सविसेसं गीयाइस, निउणा वीणाविणीयलीणा सा। सुरसुन्दरी वियड्डा,—जाया . पत्ता य तारुण्णं ॥५९ ।। जारिसओ होइ गुरूं, तारिसओ होइ सीसगुणजोगो। इत्तुच्चिय सा मिच्छ—दिट्ठि उक्किट्ठदप्पा अ॥६० ॥ तह मयणसुंदरीवि हु, एया उ कलाओ लीलमित्तेण । सिक्खेइ विमलपन्ना, धन्ना विणएण संपन्ना॥६१ ॥ जिणमयनिउणेणज्झावएण. मयणसुंदरीबाला। तह सिक्खविया जह जिणमयंमि कुसलत्तणं पत्ता॥६२ ॥ एगा सत्ता दुविहो नओ. य कालत्तयं गइचउक्कं । पंचेव अस्थिकाया, 'दव्वछक्कं च सत्त नया॥६३ ॥ अट्ठेव य कम्माइं नवतत्ताइं च दसविहो धम्मो। • एगास्स पडिमाओ बारस वयाइं निहीणं . च॥६४ ॥ इच्चाइ वियाराचारसारकुसलत्तणं च संपत्ता। अन्ने सुहुमवियारेवि मुणइ सा निययनामं वि॥६५॥ कम्माणं । मूलुत्तरपयडीओ गणइ मुणइ कम्मठिई। णाणइ . कम्मविवागं, बंधोदयदीणं रसंतं॥६६॥ जीसे सो उज्झाओ, संतो दंतो जिइंदिओ धीरो। जिणमयाओ सुबुद्धि, सा किं नह होइ तस्सीला? ॥६७ ॥ सयलकलागमकुसला, निम्मलसम्मत्तसीलगुणकलिया। लज्जासज्जा सा मयणसुंदरी जुव्वणं पत्ता॥६८ ॥ अन्नदिणे अभितरसहानिविद्वेण नरवरिंदेण। अज्झावयसहियाओ, अणविवाओ कुमारीओ॥६९ ॥ खण्ड १ १५७ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विणओणयाउ ताओ, सरूवलावन्नखोहिअसहाओ। विणिवेसिआउ रन्ना, नेहेणं उभयपासेसु ॥७० ॥ बुद्धिपरिक्खणं ___ हरिसवसेणं राया, तासिं बुद्धिपरिक्खणनिमित्तं ।। एगं देइ समस्सा- पयं दुविहंपि समकालं ॥७१ ॥ जहा- “पुन्निहिं लब्भइ एह,... । तो तक्कालं अइचंचलाइ अच्चंतगव्वगहिलाए . सुरसुन्दरीइ भणियं, हुँ हुँ पूरेमि निसुहेण ॥७२॥ ... जहा- धणजुव्वण सुवियड्डपण, रोगरहिअ निअ देहु। .. मणवल्लह मेलावडउ, पुन्निहिं लब्भइ एहु॥७३ ।। तं सुणिय निवो तुट्ठो, पसंसए साहु साहु उज्झाओ। .... जेणेसा सिक्खविआ, परिसावि भणेइ सच्चमिणं ॥७४ ॥ .. तो रन्ना आइट्ठा, मयणा वि हु पूरए समस्सं तं। .. जिणवयणरया संता दंता ससहावसारिच्छं ॥७५ ॥ जहा- विणयविवेयपसण्णमणु · सीलसुनिम्मलदेहु। परमप्पहमेलावडउ, पुण्णेहिं लब्भइ , एहु॥७६ ।। तो तीए उवझाओ, मायावि अ हरिसिया न उण सेसा। . जेण तत्तोवएसो न कुणइ हरिसं कुदिट्ठीणं॥७७ ॥ केरिसो वरो कुरुजंगलंमि देसे, संखपुरीनामपुरवरी ' अस्थि । जा पच्छा विक्खाया, जाया अहिछत्तकामेणं ॥७८ ।। तत्थत्थि महीपाले कालो . इव वेरिआण दमिआरी। पइवरिसं सो गच्छइ, उज्जेणिनिवस्स सेवाए॥७९ ॥ अन्नदिणे तप्पुत्तो, अरिदमनो नाम तारतारुन्नो। सम्पत्तो पिअठाणे, उज्जेणिं रायसेवाए॥८० ॥ तं च निवपणमणत्थं समागयं तत्थ दिव्वरूवधरं । सुरसुन्दरी निरिक्खइ, तिक्खकडक्खेहिं ताडंति ॥८१ ॥ तत्थेव थिरनिवेसिअदिट्ठि, दिट्ठा निवेण सा बाला। भणिया य कहसु वच्छे ! तुज्झ वरो केरिसो होउ ? ॥८२ ।। १५८ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीए हिट्ठाए, हिट्ठाए, धिट्ठाए भणियं तायपसाया, जइ ता सव्वकलाकुसलो, तरुणो वररूवपुण्णलावण्णो । एरिओ होउ वरो, अहवा ताओचिअ पमाणं ॥ ८४ ॥ सेवयजणमणसमीहियत्थाणं । जेणं ताय तुमं चिय, पूरणपवणो दीससि, पच्चक्खो तो तुट्ठो नरनाहो, दिट्ठिनिवेसेण पभणेइ होउ वच्छे ! एसऽरिदमणो तो सयलसभालोओ, पभणई नरनाह ! एस अइसोहणोऽहिवल्ली - पूगतरूणं अह मयणसुंदरीवि हु, रन्ना नेहेण केरिसओ तुज्झ वरो कीरउं ? मह कहसु अविलंब ॥ ८८ ॥ जिणवयणवियारसारसंजणियनिम्मलविवेआ । व पुच्छिया वच्छे । मुक्कलोअलंज्जाए । लब्भइ मग्गियं कहवि ॥ ८३ ॥ कम्म- परिमाणो कप्परुक्खव्व ॥ ८५ ॥ नायतीइमणा । वरो तुच्झ ॥ ८६ ॥ संजोगो । सा पुण लज्जागुणिक्कसज्जा, अहोही जा न जंपेइ ॥ ८९ ॥ हसिऊणं । ताव नस्देिण पुणो पुट्ठा सा भणइ ईसि ताय विवेयसमेओ, मं पुच्छसि तंसि जे कुलबालिआओ, न कहंति हवेउ एस जो करि पिऊहिं दिन्नो, सो चेव अम्मा पिउणोवि निमित्तमित्तमेवेह पायंं ं पुव्वनिबद्धो, सम्बन्ध होइ 0 निब्भतं ॥ ८७ ॥ किमजुतं ॥ ९० ॥ मज्झ वरो । पमाणियव्वुत्ति ॥ ९१ ॥ वरपयामि । जं जेण जया जारिसमुवज्जियं होइ कम्म तं तारसं तया से, संपज्जइ जा कन्ना बहुपुन्ना, दिन्ना कुकुलेवि सा हवइ जा होइ हीणपुन्ना, सुकुले दिन्नावि सा ता ताय ! नायतत्तस्स तुज्झ नो जुज्जए इमो जं मज्झ कयपसायापसायओ सुदुहे जीवाणं ॥ ९२ ॥ सुहमसुहं । दोरियनिबद्धं ॥९३ ॥ सुहिया । दुहिया ॥ ९४ ॥ गव्वो । लोए ॥ ९५ ॥ १५९ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० पसीएसि ॥९६ ॥ वावि । दिति ॥ ९७ ॥ पसाएण । भणसि ? ॥ ९८ ॥ गेहंमि । सुक्खाई ॥ ९९ ॥ होइ । जो होइ पुन्नबलियो, तस्स तुमं ताय ! लहु पसीएसि । जो पुण पुण्णविहूणो, तस्स तुमं नो भवियव्वया सहावो, दव्वाइया सहाइणो पायं पुव्वोवज्जियकम्माणुगया फलं तो दुम्मिओ य राया, भणेइ रे ! तंसि मह वत्थालंकाराइ, पहिरंती कीसि हसिऊण भणइ मयणा, कयसुकयवसेण तुज्झ उप्पन्ना तात ! अहं, तेणं माणेमि पुव्वकयं सुकयं चिअ, जीवाणं सुक्खकारणं दुकयं च कयं दुक्खाण, कारणं होइ निब्भतं ॥ १०० ॥ न सुरासुरेहिं नो नरवरेहिं नो बुद्धिबलसमिद्धेहिं । कहवि खलिज्जइ इंतो, सुहासुहो कम्मपरिणामो ॥१०१ तो रुट्ठो नरनाहो, अहो. अहो अप्पपुनिआ एसा । मज्झ कयं किंपि गुणं, नो मन्नइ दुव्वियड्दा य ॥ १०२ ॥ पभणेइ सहालोओ, सामिय! किमियं मुणेइ मुद्धमई । तं चैव कप्परुक्खो, तुट्ठो रुट्ठो मयणा भणेइ धिद्धि, धणलवमित्तत्थिणो इसे जाणंता विहु अलिअं, मुहप्पियं चेव जइ ताय ! तुह पसाया, सेवयलोआ हवंति सुहिया ता समसेवानिरया किं दुक्ख़िया तम्हा जो तुम्हाणं, रुच्चइ सो ताय ! मज्झ होंउ जइ अस्थि मज्झ पुन्नं, ता होही निग्गुणोवि जइ पुण पुन्नविहीणा, तात ! अहं ताव सुन्दरोवि होही असुंदरुच्चिय, नूणं मह तो गाढयरं राया, रुट्ठो चिंतेइ एयाइ कओ लहुओ, अहं तओ वेरिणी रोसेण वियडभिउडीभीसणवयणं दक्खो भणेइ मंती, सामिय कयंतो . य ॥ १०३ ॥ सव्वे । 1. जंपेति ॥ १०४ ॥ सव्वेवि । एगे ? ॥ १०५ ॥ वरो । गुणी ॥ १०६ ॥ वरो । कम्मदोसेणं ॥१०७ ॥ दुव्वियड्डाए । एसा ॥ १०८ ॥ पलोइऊण निवं । रइवाडियासमओ ॥ १०९ ॥ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोसेण धमधमंतो, सामंत-मंतिसहिओ, नरनाहो तुरयरयणमारूढो। विणिग्गओ रायवाडीए ॥११० ॥ कुंठ्ठाभिभूयो उंबरौ जाव पुराओ बाहिं, निग्गच्छइ नरवरो सपरिवारो । तो पुरओ जणवंद, पिच्छइ साडंबरमियंतं ॥१११ ॥ . तो विम्हिएण रन्ना, पुट्ठो संती स नायवुत्तंतो । विन्नवइ देव. निसुणह, कहेमि जणवाद परमत्थं ॥११२ ।। सामिय! सरूवपुरिसा, सत्तसया नववया ससोंडीरा।। दुट्ठकुट्ठभिभूया . सव्वे एगत्थ संमिलिया ॥११३ ।। एगो य ताणु बालो, मिलिओ ऊंबरयवाहिगहियंगो । सो तेहिं . परिगहिओ ऊंबरराणुत्ति कयनामो ॥११४ ॥ वरवेसरिमारूढो, तयदोसी छत्तधारओ तस्स । गयनासा चमरधरा, धिणिधिणिसद्दा व अग्गपहा ॥११५ ॥ गयकन्ना घंटकरा, मंडलवइ अंगरक्खगा तस्स । दद्दुलथइआवत्तो गलिअंगुलि नामओ मंती ॥११६ ॥ केवि पसूइयवाया, • कच्छादब्भेहिं केवि विकराला । · के विउंचिअपामा समन्निया सेवगा तस्स ॥११७ ॥ . एवं सो कुट्ठिअपेडएण परिवेढिओं महीवीढे । रायकुलेसु भमंतो, पंजिअदाणं पगिण्हेइ ॥११८ ॥ सो एसो आगच्छइ, नरवर ! आडंबरेण संजुत्तो । ता मग्गमिणं मुत्तुं, गच्छह अन्नं! दिसं तुब्भे ॥११९ ।। तो वलिओ नरनाहो, अन्नाइ दिसाइ जाव ताव पुरो । तो पेडयंपि तीए, दीसाइ वलियं तुरिअ तुरितं ॥१२० ।। राया भणेइ मंति, पुरओ गंतूणिमे निवारेसु । महमग्गियंपि दाउं, जेणेसिं दंसणं न सुहं ॥१२१ ॥ जा तं करेइ मंति, गलिअंगुलिनामओ दुयं ताव । नरवर पुरओ ठाउं, एवं भणिउं समाढत्तो ॥१२२ ॥ . खण्ड १ १६१ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामिअ! अम्हाण पहू, ऊंबरनामेण राणओ एसो । सव्वत्थ वि मन्निज्जइ, गरुएहिं दाणमाणेहिं ॥१२३ ॥ तेणऽम्हाणं धणकणयचीरपमुहेहिं कीरइ न किंपि । एतस्स पसायेणं, अम्हे सव्वेवि अइसुहिणो ॥१२४ ।। एगो नाह ! समत्थि, अम्ह मणचिंतिओ विअप्पुत्ति ।। जइ लहइ राणओ राणियंति ता सुन्दरं होइ ॥१२५ ॥ ता नरनाह ! पसायं, काऊणं देहि कन्नगं एगं। अवरेण कणगकप्पणदाणेणं तुम्ह पज्जतं ॥१२६ ॥ तो भणइ रायमंती, अहो अजुत्तं विमग्गिअं तुमए । को देइ नियं धूयं, कुट्ठकिलिट्ठस्स जाणंतो ॥१२७ ॥ गलिअंगुलिणा भणियं, अम्हेहिं सुया निवस्सिमा कित्ती । . . . जं किल मालवराया, करेइ नो पत्थणाभंग ॥१२८ ॥ तो सा निम्मलकित्ती, हारिज्जउ अज्ज नरवरिंदस्स । । अहवा दजउ कावि हु, धूया कुकुलेवि संभूया ॥१२९ ॥ मयणसुंदरीविवाहो पभणेइ नरवरिंदो, दाहिस्सइ तुम्ह कन्नगा एगा। को फिर हारइ कित्ती, इत्तियमित्तेण कज्जेण? ॥१३० ॥ चिंतेइ मणे राया, कोवानलजलियनिम्मलविवेगो । नियध्यं अरिभयं, तं . दाहिस्सामि एसस्स ॥१३१ ॥ सहसा वलिऊण तओ, नियआवासंमि आगओ राया। बुल्लावइ तं मयणासुन्दरिनामं नियं धूयं ॥१३२ ॥ हुँ अज्जवि जइ मन्नसि, मज्झ पसायस्स संभवं सुक्खं ।। ता उत्तमं वरं ते, परिणाविय देमि भूरि धणं ।१३३ ॥ जइ पुण नियकम्म चिय, मन्नसि ता तुज्झ कम्मणाणीओ। एसो कुट्ठिअराणो, होउ वरो किं वियप्पेण? ॥१३४ ॥ हसिऊण भणइ बाला, आणीओ मज्झ कम्मणा जो उ। सो चेव मह पमाणं, राओ वा रंकजाओ वा ॥१३५ ।। कोवंधेणं रन्ना, सो ऊंबरराणओ समाहूओ भणिओ य तुममिमीए, कम्माणीओसि होसु वरो ॥१३६ ।। १६२ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेणुत्तं नो जुत्तं, नरवर ! वुत्तंपि तुज्झ इय वयणं । को· कणयरयणमालं, बंधइ कागस्स कंठंमि ॥१३७ ।। एगमहं पुव्वकयं, कम्मं भंजेमि एरिसमणज्जं । अवरं च कहमिमीए, जम्मं बोलेमि जाणंतो? ॥१३८ । ता भो नरवर ! जइ देसि कावि ता देसु मज्झ अणुरूवं । दासीविलासिणिधूयं, नो वा ते होउ कल्लाणं ॥१३९ ॥ तो भणइ नरवरिंदो, भो भो महनंदणी इमा किंपि।। नो मज्झकयं मन्नइ, नियकम्मं चेव मन्नेइ ॥१४० ॥ तेणं चिअ कम्मेणं, आणीओ तंसि चेव जीइ वरो । जइ सा निअकम्मफलं, पावइ ता अम्ह को दोसो ? ॥१४१ ॥ तं सोऊणं बाला, उठ्ठित्ता झत्ति ऊबरस्स करं । गिण्हइ निययकरेणं, विवाहलग्गं व साहति ॥१४२ ॥ सामंतमंतिअंतेउरिउ वारंति तहवि सा बाला । सरयससिसरिसवयणा, भणइ सई सुच्चिअ पमाणं ॥१४३ ॥ एगत्तो . माउलओ, . एगत्तो रुप्पसुन्दरीमाया । एगत्तोपरिवारो, रुयइ अहो केरिसमजुत्तं ? ॥१४४ ।। तहवि न नियकोवाओ, वलेइ राया अईव कठिणमणो । मयणावि मुणियतत्ता, निअसत्ताओ न पचलेइ ॥१४५ ॥ तं वेसरिमारोविअ, जा चलिओ ऊंबरो निअयठाणं ।। ता. भणइ नयरलोओ, अहो अजुत्तं अजुत्तंति ॥१४६ ॥ एगे भणंति धिद्धी, रायाणं जेणिमं कयमजुत्तं । अन्ने भणंति धिद्धी, एयं अइदुब्विणीयंति ॥१४७ ॥ केवि निदंति जणणिं, तीए निंदंति केवि उवझायं । केवि. . निंदंति दिव्वं, जिणधम्म केवि निंदंति ॥१४८ । तहवि हु वियसियवयणा, मयणा तेणूंबरेण सह जंति । न कुणइ मणे विसायं, सम्मं धम्मं वियाणंति ॥१४९ ॥ ऊंबरपरिवारेणं, . मिलिएणं हरिसनिब्भरंगेणं । निअपहुणो भत्तेणं, विवाहकिच्चाई विहियाइं ॥१५० ॥ खण्ड Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरसुन्दरीविवहो इतो- रन्ना सुरसुन्दरीइ वीवाहणत्थमुज्झाओ । पुट्ठो सोहणलग्गं, सो पभणइ राय ! निसु ॥ १५१ ॥ अज्जं चिय दिणसुद्धी, अत्थि परं सोहणं गयं लग्गं । तइया जइया मयणाइ, तीइ कुट्ठिअकरो राया भणेइ हूँ हूँ, नाओ लग्गस्स तस्स अहुणावि हु निअधूयं, एवं तओ, खणमित्रोणावि विवाहपव्वं रायसे मंतीहिं महिट्ठेहिं, तं च केरिसं १६४ : ऊसिअतोरणपयूडपडायं, नच्चिरचारुविलासिणिघट्टं, पट्टसुयघड ओज्जिअमालं, धवलदिअंतसुवासिणिवग्गं, मग्गणजणदिज्जंतसुदानं, मद्दलवायचउष्फललोयं, गहिओ ॥ १५२ ॥ परमत्थो I परिणावइस्सामि ॥ १५३ ॥ विहिअसामगिंग । समादत्तं ॥ १५४ ॥ वज्जितुरगहीरनिन्नायं । जयजयसकरंत सुभट्टं ॥ १५५ ॥ •कूरकपूरतंबोल-विसालं । पुरंधिक अविमिगं ॥ १५६ ॥ सण-सुवासिणिकयसम्माणं । जणजणवयमणि-जणियपमोयं ॥ १५७ ॥ सिंगारिअअरिदमनकुमारं । करमोयण करिदाणसुरंगं ॥ १५८ ॥ लद्धहयगयसणाहो । पुरवरीओ ॥१५९॥ संजोगो । कारि असुरसुन्दरिसिणगारं, हथलेवइ मंडलविहिचंगं, एवं विहिअविवाहो, अरिदमणो सुरसुन्दरीसमेओ, जा निगच्छइ ता भणइ सयललोओ, अंहोऽणुरूवो इमाण धन्ना एसा सुरसुंदरी य जीए रो. केवि पसंसंति निवं, वरं केवि सुन्दरं केवि तीएँ उज्झायं, केवि पसंसंति सुरसुन्दरसम्माणं, मयणाइ-विडंबणं जो सिवसासणप्पसंसं, जिणसास निंदणं एसो ॥१६० ॥ कन्नं । सिवधम्मं ॥१६१ ॥ दर्छु । कुइ ॥ १६२ ॥ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीलमहिमा सा रन्ना ॥१६३ ॥ वयणं । निअपेंडयस्स मज्झे, रयणीए ऊंबरेण भणिआ भद्दे ! निसुणसु, इमं अजुत्तं कयं तहवि न किंपि विणट्ठे, अज्जवि तं गच्छ कमवि नररयणं । जेण होइ न विहलं, एयं तुह रूवनिम्माणं ॥१६४॥ इअ पेडयस्स मज्झे, तुज्झवि चिट्ठतिआइ नो कुसलं । पायं कुसंगजणिअं, मज्झवि जायं इमं कुटुं ॥१६५॥ तो त मयणाए, नयणंसुयनीरकलुसवयणाए । पइपाएस निवेसि असिराइ भणिअं इमं वयणं ॥ १६६ ॥ सामिअ! सव्वं मह आइसेसुं किंचेरिसं पुणो नो भणियव्वं जं दूहवेइ अन्नं च—पढमं महिलाजम्मं, केरिसयं तंपि होइ जइ लोए । सीलविहूणं नूणं, ता जाणह सीलं चिअ महिलाणं, विभूषणं सीलमेव सीलं जीवियसरिसं, सीलाउ न सुन्दरं ता सामिअ! आमरणं, मह सरणं तंसि चेव नो इअ निच्छियं वियाणहू, अवरं जं होइ तं एवं ती : अइनिच्चलाइ दढसत्तपिक्खणनिमित्तं । सहसा सहस्सकिरणो, मह माणसं एयं । १६७ ॥ कंजिअ होउ ॥ १७० ॥ पत्तो ॥ १७१ ॥ पामि । मयणाए वयणेणं, सो त समं तुरंतो, सिरिरिसहभवणंमि ॥१७२ ॥ जिणवरपूआ सूरुव्व हरि अतमतिमिरदेव, सेवागयगयमय–रायपाय, उदयाचलचूलिअं ओ आणंदपुंलइ अंगेहि, तेहि दोहिवि मयणा जिणमयनिउणा, एवं भत्तिब्भरनमिरसुरिंदवंद — वंदिअपयपढमजिणंदचंद - चंदूज्जलकेवलकित्तिपूर, खण्ड १ पत्तो मयणा । कुहिअं ॥ १६८ ॥ सव्वस्सं । किंपि ॥ १६९ ॥ अन्नो । नमंसिओ सामी । थोडं समादत्ता ॥ १७३ ॥ 1 पूरियभुवणंतरवेरिसूर ॥१७४ ॥ देवासुरखेयरविहिअसेव । पायडियपणामह कयपसाय ॥ १७५ ॥ १६५ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सायरसमसमयामयनिवास, वासवगुरुगोयरगुणविकास । कासुज्जलसंजमसीललील, लीलाइविहिअमोहावहील ॥१७६ ॥ हीलापरजंतुसु अकयसाव, सावयजणजणिअआणंदभाव। भावलयअलंकिअ रिसहनाह, नाहत्तणु करिहरिदुक्खदाह ॥१७७ ॥ इअ रिसहजिणेसर भुवणदिसेसर, तिजयविजयसिरिपालपहो ! मयणाहिअ सामिअ सिवगइगामिअ, मणह मणोरह पूरिमहो ॥१७८ ॥ एवं समाहिलीणा, मयणा जा थुणइ ताव जिणकंठा । करठिअफलेण सहिआ, उच्छलिया . कुसुमवरमाला ॥१७९ ॥ मयणावयणाओ उंबरेण सहसत्ति तं फलं गहि। मयणाइ सयं माला-गहिया आणंदिअमणाए ॥१८० ॥ . भणिअं च तीइ सामिअ, फिट्टिस्सइ एस तुम्हं तणुरोगो। जेणेसो संजोगो, जाओ जिणवरकयपसाओं ॥१८१ ॥ तत्तो मयणा • पइणा, सहिआ मुनिचंदगुरुसमीवंमि । .. पत्ता पमुइअचित्ता, भत्तीए नमइ तस्स पए ॥१८२ ॥ गुरुणो य तया करुणापरित्तचित्ता कहंति · भवियाणं । गंभीरसजलजलहरसरेण धम्मस्स 'फलमेव ॥१८३ ॥ सुमाणुसत्तं सकुलं सुरूवं, साहग्मारुग्गमतुच्छमाउ । · रिद्धिं च विद्धिं च पहुत्त-कित्तिं, पुन्नप्पसाएण लहन्ति सत्ता ॥१८४ ।। णवपयाण-आराहणं इच्चाइ देसणंते, गुरुणो पुच्छंति परिचियं मयणं । वच्छे कोऽयं धन्नो, वरलक्खणलक्खिअसुपुन्नो ! ॥१८५ ॥ मयणाइ रुअंतीए, कहिओ सव्वोवि निअयवुत्तंतो । विनतं च न अन्नं, भयवं! मह किंपि अस्थि दुहं ॥१८६ ॥ एयं चिअ मह दक्खं, जं मिच्छादिविणो इमे लोआ । निंदति जिणहधम्मं, सिवधम्मं चेव पसंसंति ॥१८७ ॥ सा पहु कुणह पसायं, किंपि उवायं कहेह मह पइणो । जेणेस दुट्ठवाही, जाइ खयं लोअवायं च ।१८८ ॥ १६६ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभणेइ. गुरु भद्दे ! साहूण न कप्पए हु सावज्जं । कहिउं किंपि तिगिच्छं, विज्जं मंतं च तंतं च ॥१८९ ॥ तहवि अणवज्जमेगं, समत्थि आराहणं नवपयाणं। इहलोइअ-परलोइअ-सुहाणमूलं जिणुद्दिढें ॥१९० ॥ अरिहं सिद्धायरिआ, उज्झाया साहुणो य सम्मत्तं । नाणं चरणं च तवो, इअ पयनवगं परमतत्तं ॥१९१ ।। एएहिं नवपएहिं, रइअं अन्नं न अत्थि परमत्थं । एएसु चिअ जिणसासणस्स सव्वस्स अवयारो ॥१९२ ।। जे किर सिद्धा, सिझंति जे अ, जे आवि सिज्झइस्संति । ते सव्वेवि हु . नवपयझांणेणं चेव निब्भंतं ॥१९३ ॥ एएसिं च पयाणं, पयमेगयरं च परमभत्तीए। आराहिऊण . णेगे, संपत्ता तिजयसामित्तं ॥१९४ ॥ एएहिं नवपएहि, सिद्धं सिरिसिद्धचक्कमेअं जं!। तस्सुद्धारो एसो, पुवायरिएहिं निद्दिट्ठो ॥१९५ ॥ - १६७ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लीलावईकहा मंगलाचरणं णमह. सारोससुयरिसण सच्चवियं कररुहावलीजुयलं । हिरणक्क्सवियडोरत्थलट्ठिदलगब्भिणं हरिणो ॥१॥ तं णमह जस्स तइया तइयवयं तिहुयणं तुलंतस्स । . सायारमणायारे अप्पणमप्प च्चिय णिसणं ॥२ ॥ .. तस्सेय पुणो पणमह णिहुयं हलिणा हसिज्जमाणस्स। अपहुत्त-देहली-लंघणद्धवह-संठियं चलणं ॥३॥ सो जयउ जस्स पत्तो कंठे रिट्ठासुरस्स घणकसणो। . उप्पायपवड्डियकालवासकरणी . भुयप्फलिहो ॥४॥ रक्खंतु वो महोवहिसयणे 'सेसस्स फेणमणिमऊहा। हरिणो सिरिसिहिणोत्थयकोत्थुहकंदंकुरायारा ॥५॥ हरिणो जमलज्जुणरिट्ठकेसिकंसासुरिंद-सेलाण । । भंजणवलणवियारणकड्डणधरणे भुए णमह ॥६॥ . कक्कसभुयकोप्परपूरियाणणो . कढिणकरकयावेसो।। केसि-किसोर-कयत्थण-कउज्जमो जयइ महुमहणो ॥७॥ सो जयउ जेण तयलोय-कवलणारंभ-गब्भिय मुहेण । ओसावणि व्व पीया सत्त वि चुलुय-ट्ठिया उयहीं ॥८॥ गोरीए गुरुभरक्कंतमहिससीसटिभंजणुद्धरियं । णमह णमंतसुरासुरसिरमसिणियणेउरं चलणं ॥९॥ चंडीए कढिणकोयंडकड्डणायाससेय कलिलुल्लो । णित कुसंभुप्पीलो रक्खउ वो कंचुओ णिच्चं ॥१०॥ ससहरकरसंवलिया तुम्हं सुरणिण्णयाए णासंतु । पावं फुरंतरुद्दट्टहासधवला जलुप्पीला ॥११!! १६८ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्जन - दुज्जण :. जयंति ते सज्जणभाणुणो सया, वियारिणोजाण सुवण्णसंचया । अइट्ठदोसा वियसंति संगमे, कहाणुबंधा कमलायरा इव ॥ १२ ॥ सो जयउ सुयणा वि दुज्जणा इह विणिम्मिया भुयणे । ण तमेण विणा पावंति चंद-किरणा वि परिहावं ॥ १३ ॥ दुज्जण- सुयणाण णमो णिच्वं पर कज्ज- वावड-मणाणं । एक्के भसण-सहावा पर-दोस-परम्मुहा अणे ॥ १४ ॥ अहवा ण को वि दोसो दीसइ सयलम्मि जीयलोयम्मि । सव्वो च्चिय सुयण- यणो जं भणिमो तं णिसाह ॥ १५ ॥ सज्जप्प-संगेण वि दुज्जणस्स णं हु कलुसिमा समोसरइ । ससि-मंडल-मज्झ-परिट्ठियो वि कसणो च्चिय कुरंगो ॥ १६ ॥ [दुज्जण - संगेण वि सज्जणस्स णासं ण होइ सीलस्स । ती सलोणे वि मुहे वि हु अहरो महुँ सवइ ॥१६/ १ ॥] अलमवरेणासंबंधालाव-परिग्गहाणुबंधेण बाल- जण-विलसिएण C 1 व णिरत्थ- वाया-पसंगेण ॥१७॥ कविउलवण्णणं : आसि तिवेय-तिहोमग्गि-संग-संजणिय-तियस-परिओसो । संपत-तिवग्ग-फलो बहुलाइच्चो त्ति णामेण ॥ १८ ॥ ❤ वेएहि । अज्ज. वि महग्गि- पसरिय- धूम - सिहा- कलुसियं व वच्छयलं । उव्वहइ मय-कलंकच्छण मयलंछणो जस्स ॥१९॥ तस्स य गुण-रयण-महोवहीए एक्को सुओ समुप्पण्णो । भूसणभट्टो णामेण णियय-कुल-णहयल-मयंको ॥२०॥ जस्स पिय-बंधवेहि व चउवयण - विणिग्गएहि एक्क-वयणारविंद-ट्ठिएहिं बहु-मणिओ तस्स तणएण एयं असार- मइणा वि विरइयं कोऊहण लीलावइ त्ति मं तं जह मियंक केसरि-कर -पहरण - दलिय - तिमिर -करि-कुंभे । विक्खित्त-रिक्ख-मुत्ताहलुज्जले कहा-रयणं ॥२२॥ सरय- रयणी ॥ २३ ॥ खण्ड १ अप्पा ॥ २१ ॥ सुणह । १६९ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरअवण्णणं : जोण्हाऊरिय-कोस-कंति-धवले सव्वंग-गंधुक्कडे । णिव्विग्धं घर-दीहियाए सुरसं वेवंतओ मासलं । आसाएइ सुमंजु-गुंजिय-रवो तिगिच्छि-पाणासवं । उम्मिल्लंत-दलावली परियओ चंदुज्जुए छप्पओ ॥२४॥ इमिणा सरएण ससी ससिणा वि णिसा णिसाए कुमुय-वणं । कुमुय-वणेण व पुलिणं पुलिणेण व सहइ हंस-उलं ॥२५ ।। णव-बिस-कसायसंसुद्ध-कंठ-कल-मणोहरो णिसामेह । सरय-सिरि-चलण-णेउर-राओ इव हंस-संलावो ॥२६॥. संचरइ सीयलायंत-सलिल-कल्लोल-संग-णिव्वविओ । दर-दलिय-मालई-मुद्ध-मउल-गंधुद्धरो . पवणो ॥२७॥'' एसा वि दस-दिसा-वहु वयण-विसेसावलि व्व सर-सलिले। विम्बल-तरंग-दोलंत-पायवा सहइ वण-राई ॥२८॥ एयाइं दियस-संभावणेक्क-हियाइं पेच्छह घडंति । . आमुक्क-विरह-वयणाइं चक्ककयाइं वावीसु ॥२९॥ : एवं उय वियसि-सत्तवत्त-परिमल-विलोहविज्जतं ।। अविहाविय-कुसुमासाय-विमुहियं भमइ भमर-उलं ॥३०॥ चंदुज्जुयावयंसं पवियंभिय-सुरहि-कुवलयामोयं । णिम्मल-तारालोयं पियइ व रयणी-मुहं चंदो ॥३१॥ . ता किं बहुणा पयंपिएण अइ-रमणीया रयणी सरओ विमलो तुमं च साहीणो । अणुकूल-परियणाए मण्णे तं णत्थि जं णत्थि ॥३२॥ कहा-सरुवं : ता किं पि पओस-विणोय-मत्त-सुहयं म्ह मणहरुल्लावं । साहेह अउव्व-कहं सुरसं महिला-यण-मणोज्जं ॥३३॥ तं मुद्धमुहंबुरुहाहि वयणयं णिसुणिऊण णे भणियं । कवलय-दलच्छि एत्थं कईहि तिविहा कहा भणिहा ॥३४॥ तं जह दिव्वा तह दिव्व-माणुसी माणुसी तह च्य। १७० प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्थ वि पढमेहिं कयं कईहिं किर लक्खणं किं पि ॥३५ ।। अण्णं सक्कय-पायय-संकिण्ण-विहा सुवण्ण-रइयाओ । * सुव्व तिमहा-कई-पुंगवेहि विविहाउ सुकहाओ ॥३६ ॥ ताणं मझे अम्हारिसेहिं अबुहेहिं जाउ सीसंति ।। ताउ कहाओ ण लोए मयच्छि पावंति परिहावं ॥३७ ।। ता किं मं उवहासेसि सुयणु असुएण सद्द-सत्येण । उल्लविउं पि ण तोरइ किं पुण वियडो कहा-बंधो ॥३८॥ भणियं च पिययमाए पिययम किं तेण सद्द-सत्थेण । जेण सहासिय-मग्गो भग्गो अम्हारिस-जणस्स ॥३९॥ उवलब्भइ जेण फुडं अत्थो अकयत्थिएण हियएण । सो चेय परो सद्दो णिच्चो किं लक्खणेणम्ह ॥४० ॥ एमेय मुद्ध-जुयई-मणोहरं पाययाए भासाए । पविरल-देसि-सुलक्खं कहसु कहं दिव्व-माणुसियं ॥४१॥ तं तह सोऊण पुणो भणितं उब्बिब-बाल-हरिणच्छि। . जइ एवं ता सुव्बउ सुसंधि-बंधं कहा-वत्थु ॥४२ ॥ कहारम्भं : . . . . चउ-जलहि-वलय-रसणा-णिवद्ध-वियडोवरोह-सोहाए । सेसंक-सुप्परिट्ठिय-सव्वंगुव्बूढ-भुवणाए • ॥४३॥ पलय-वराह-समुद्धरण-सोक्ख-संपत्ति-गरुय-भावाए णाणा-विह-रयणालंकियाए भयवईएं पुहईए ॥४४ ॥ णीसेस-सस्स-संपत्ति-पमुइयासेस-पामर-जणोहो सुव्वसिय-गाम-गोहण-भंभा-रव-मुहलिय-दियंतो ॥४५॥ अइ-सुहिय-पाण-आवाण-चच्चरी-रव-रमाउलारामो णीसेस-सुह-णिवासो आसय-विसहो त्ति विक्खाओ ॥४६ ॥ जो सो अविउत्तो कय-जुयस्स धम्मस्स संणिवेसो व्व । सिक्खा-ठाणं व पयावइस्स सुकयाण आवासो ॥४७ ॥ सासणमिव पुण्णाणं जम्मुष्पति व्व सुह-समुहाणं । आयरिसो आयाराण सइ सुछेत्तं पिव गुणाणं ॥४८ ।। १७१ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुसणिद्ध-घास-संतुट्ठ-गोहणालोय—मुइय-गोयालो . . । गेयारव-भरिय-दिसो वर-वल्लइ-वेणु-णिवहेसु ॥४९ ॥ दुरुण्णय-गरुय-पओहराओ कोमल-मुणाल-वाहीओ । सइ महुर-वाणियाओ जुवईओ णिण्णयाउ व्व ॥५०॥ अच्छउ ता णिय छेत्तं सेसाइ वि जत्थ पामर-बहूहिं । रक्खिज्जति मणोहर-गेयारव-हरिअ-हरिणाहिं ॥५१॥ णयरं : इय एरिसस्स सुंदरि मज्झम्मि सुजणवयस्स रमणीयं । .... णीसेस-सुह-णिवासं णयरं णामं पइट्ठाणं ॥५२॥ तं च पिए वर-णयरं वणिज्जइ जा विहाइ ता रयणी।। उद्देसो संखेवेण किं पि वोच्छामि ‘णिसुणेसु ॥५३ म. जत्थ . वर-कामिणी-चरण-णेउरारावमणुसरंतेहिं। . . पडिराविज्जइ • मुह-मुक्क-किसलयं रायहंसेहिं ॥५४॥ जण्णग्गि-धूम-सामालिय-णहयलालोयणेक्क-रसिएहिं । णच्चिज्जइ ससहर-मणि-सिलायले-घर-मयूरेहिं ॥५५॥ ण तरिज्जइ घर-मणि-किरण-जाल-पडिरुद्ध-तिमिर-णियरम्म । अहिसारियाहिं आमुक्क-मंडणाहिं पि संचरिउं ॥५६॥ . साणूर-थूहिया-धय-णिरंतरंतरिय-तरणि-करणियरे । परिसेसियायवत्तं गम्मइ संगीय-विलयाहिं ॥५७ ॥ सरसावराह-परिकुविय-कामिणी-माण-मोह-लंपिक्कं' । कलयंठि-उलं चिय कुणइ जत्थ दोच्चं पियाण सया ॥५८ ॥ णिद्दयरयरहसकिलंत-कामिणी-कवोल-संकंत-ससिकलावलयं । पिज्जंति जत्थ णासंजलीहि उज्जाण-गंधवहा ॥५९॥ घर-सिर-पसुत्त-कामिणि-कवोल-संकेत-ससिकलावलयं । हंसेहि अहिलसिज्जइ मुणाल-सद्धालुएहि जहिं ॥६० ॥ मरहट्ठिया पओहर-हलिद्द-परिपिंजरंबुवाहीए। धुव्वंति जत्थ गोला-णईए तद्दियसियं पावं ॥६१ ॥ अह णवर तत्थ दोसो जं गिम्ह-पओस-मल्लियामोओ। अणुणय-सुहाइं माणंसिणीण भोत्तुं चिय ण देइ ॥६२ ॥ १७२ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राया : [ अह णवर तत्थ दोसो जं मयण- वियारा दीसंति अह णवर तत्थ दोसो जं इलिज्जत समीरण-वसेण वसन्तवण्णय : फलिह - सिलायलम्मि तरुणीण । बाहिर - ठिएहि विजहिं ॥६२/१ ॥] तत्थेरिसम्मि भुवण- पवित्थरिय-जसो णीसेस-गुणावगूहिय-सरीरो । राया सालाहो णाम ॥ ६४ ॥ जो सो अविग्गहो विहु सव्वंगावयव - सुंदरो सुहओ । दुदंसणो वि लोयाण लोयणाणंद-संजणणो ॥ ६५ ॥ J . कुवई वि वल्लहो पणइणीण तह णयवरो वि साहसिओ । परलोय - भीरुओ वि हु वीरेक्क- रसो तह च्चेय ॥६६॥ सूरो वि ण सत्तासो सोमो वि कलंग - वज्जिओ णिच्वं I भोई वि ण दोजीहो तुंगो वि समीव-दिण्ण- फलो ॥६७॥ बहुलंत - दिसु ससि व्व जेण वोच्छिण्ण-मंडल - णिवेसो ठविओ तणुयत्तण-दुक्ख-लक्खिओ रिउ-जणो ॥ ६८ ॥ णिय- तेथ-पसाहिय-मंडलस्स ससिणो व्व जस्स लोएण 1 अक्कंत- जयस्स ज़ए पट्टी ण परेहि सच्चविया ॥६९ ॥ ओसहि-सिहा-पिसंगाण वोलिया गिरि-गुहासु जस्स पयावाणल-कंति-कवलियाणं - पिव आलिहियइ जो वम्महणिभेण णिय-वास-भवण भित्तीसु । लडह-विलयाहिं णह-मणि-किरणारुणियग्ग- हत्थेहिं ॥ ७१ ॥ रयण 1 रिऊणं ॥ ७० ॥ हियए च्चेय विरायंति सुइर - परिचिंतिया वि सुकईण । जेण विणा दुहियाण व मणोरहा कव्व - विणिवेसा ॥ ७२ ॥ णयरें खण्ड १ वियसिय- कुसुम - रेणु-पडले । घर-चित्त भित्तीओ ॥६३॥ इय तस्स महा - पुहईसरस्स इच्छा - कुसुमसराउह-दूओ व्व आगओ सुयणु पढमागय-मलयाणिल-पिसुणियं बहुलच्छलंत-कोइल-रवेण साहंति व पत्थाणं पहुत्त-विहवस्स । महु-मासो ॥ ७३ ॥ वसंतस्स । वाई ॥ ७४ ॥ १७३ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गहिऊण . चूय-मंजरि कीरो परिभमइ पत्तला-हत्थो । ओसरस सिसिर-णरवइ पुहई लद्धा वसंतेण ॥७४/१ ॥] मउलंत-मउसिएसुं वियसिय-वियसंत-कुसुम-णिवहेसु । .. सरिसं चिय ठवइ पयं वणेसु लच्छी वसंतस्स ॥७५ ॥ बहुएहि वि किं परिवड्ढिएहि बाणेहि कुसुम-चावस्स । एक्केणं चिय चूयंकुरेण कज्जं ण पज्जतं ॥७६ ॥ घिप्पइ कणयमयं पिव पसाहणं जणिय-तिलय-सोहेण ।... अब्भहिय-जणिय-सोहं . कणियार-वणं वसंतेण ॥७७ ॥ वियसंत विविह वराइ कुसुमसिरिपरिमया महा-तरुणो। ... किं पुण वियंभमाणो जं ण कुणइ मल्लियामोओ ॥७८ ॥ पढम चिय कामियणस्स कुणइ मउयाइं पाडलामोओ। . हिययाइं सुहं वच्छा विसंति सेसा वि कुसुम-सरा ॥७९॥ . पज्जत्त-वियासुव्वेल्ल-गुंदि पब्भर-णूमिय दलाई। पहियाण दुरालोयाइं होति मायंगहणाई ॥८० ॥.. अपहुत्त-वियासुड्डीण भमर-विच्छाय-दल - उडुब्भेयं । . . कुंद लइयाए वियलइ हिम-विरहायासियं । कुसुमं ॥८१॥ आबझंत-फलुप्पंक-थोय विहडंत संधि-बंधेहिं । मंद पवणाहएहिं वि परिगलियं सिंदुवारेहिं ॥८२ ॥ थोऊससंत-पंकय-मुहीए णिव्वण्णिए . वसंतम्मि । वोलीण-तुहिणभरसुत्थियाए हसियं व . णलिणीए ॥८३ ॥ मलय-समीर-समागम-संतोष-पणच्चिराहिं सव्वत्तो। वाहिप्पइ णव-किसलय-कराहिं साहाहिं महु-लच्छी ॥८४ ।। दीसइ पलास-वण-वीहियासु पप्फुल्ल-कुसुमणिवहेण । रत्तंबर-णेवच्छो णव-वरइत्तो ब्व . महुमासो ॥८५ ॥ परिवड्डइ चूय-वणेसु विसइ णव-माहवी-वियाणेसु । . लुलइ व कंकेलि दलावलीसु मुइउ व्व महुमासो १८६ ।। अण्णण्ण-वणलया-गहिय-परिमलेणाणिलेण छिप्पंती। . कुसुमंसुएहिं रुयइ व परम्मुही तरुण चूय-लया ॥८७ ।। वियसिय णीसेस वणंतराल परिसंठिएण कामेण । विवसिज्जइ कुसुम सरेहिं लद्ध पसरेहिं कामियणो ॥८८ ॥ .. १७४ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इय वम्मह बाण-वसीकयम्मि सयलम्मि जीवलोयम्मि । महं-सिरि-समागमत्थाण-मंडवं उवगओ राया ॥८९ ।। सेवागय-सय-सामंत-मउड-माणिक्क-किरण-विच्छुरिए । सीहासणम्मि बंदिण-जय-सद्द-समं समासीणो ॥९० ॥ परियरिओ वार-विलासिणीहि सुर-सुंदरीहिं व सुरेसो । कणयायलो व्व आसा-बहहिं सइ वियसियासाहिं ॥११॥ अह सो एक्काए समं णर-णाहो चंदलेहणामाए । सप्परिहासं सुमणोहरं च सुहयं समुल्लवइ ॥९२ ।। वासभवणं : अइ चंदलेहे ण णियसि मलयाणिल-कुसुम-रेणु-पडहत्थं । कामेण भुयण-वासं व. विरइयं दस-दिसा-यक्कं ॥९३ ।। ता कीस तुमं केणावि मयण-सर-बंधुणा मयंक-मुहि । चिंचिल्लया सि सव्वायरेण सव्वंगियं अज्ज ॥९४ ॥ णव-चंपय-णिवेसियाणणो केण तुह णिडाल-यले । सज्जीवो, विव लिहिओ महुपाण-परव्वसो महुओ ॥९५ ॥ केण वि . महग्घ-मयणाहि-पंक-जोएण तुह कवोलेसु । लिहियाओ. पत्तलेहाओ मयण-सर वत्तणीओ व्व ॥९६ ॥ केण व कइया सहयार-मंजरी तुह कवोल-पेरंते । कर-फंस-विहाविय-कुसुम-संचया सुयणु णिम्मविया ॥९७ ।। केणज्ज तुज्झ तवणिज्ज-पुँज-पीए पओहरुच्छंगे। पत्तत्तं . पत्तं पत्त-लच्छि पत्तं लिहंतेण ॥९८ ॥ एक्कक्कम-वयण-मुणाल-दाण-वलियद्ध-कंधरा-बंधं । चलण-कमलेसु . लिहियं केणेयं हंस-मिहुण-जुयं ॥१९॥ इय केण णियय-विण्णाण-पयडणुप्पण्ण-हियय-भावेण । अविहाविय-गुण-दोसेण पाइया सप्पिणी छीरं ।१०० ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गज्जसंगहो भारियासीलपरिक्खा अस्थि अवंति नाम जणवओ। जत्थ उज्जेणी नाम नयरी रिद्धिस्थिमियसमिद्धा.। तत्थ राया जितसत्तू नाम। तस्स रण्णो धारिणी नाम देवी। तत्थ य उज्जेणीए नयरीए दसदिसिपयासो इब्भो सागरचंदो नाम। भज्जा .. य से चंदसिरी। तस्स पुत्ते चंदसिरीए अत्तओ समुद्ददत्तो नाम सुरूवो। .. ___सो य सागरचंदो परमभागवउदिक्खासंपत्तो भगवयगीयासु सुत्तओ अत्थओ. य विदितपरमत्थो। सो च तं समुद्ददत्तं दारगं गिरे परिव्वायगस्स कलागहणत्थे ठवइ “अन्नसालासु सिक्खंतो अण्णपासंडियदिट्ठी हवेज्जा”। तओ सो समुद्ददत्तो दारगो तस्स परिवायगस्स समीवे कलागहणं करेमाणों अण्णया कयाई ‘फलगं ठवेमि' ति गिहं अणुपविट्ठो। नवरिं च पासइ नियग-जाणणीं तेण परिव्वायगेण सिद्धिं असम्भं आयरमाणीं। ततो सो निग्गओ इत्थीसु विरागसमावण्णो, 'न एयाओ कुलं सीलं वा रक्खंति' ति चिंतिऊण हियएण निब्बधं करेई, जहा न मे वीवाहेयव् ति। तओ से समत्तकलस्स जोवणत्थस्स पिया सरिसकुल-रूव-विहवाओ दारियाओ वरेइ। सो यता पाडिसेहेइ। एवं तस्स कालो वच्चइ। अण्णया तस्स सम्मएणं पिया सुरटुं आगओ ववहारेणं'। गिरिनयरे धणसत्थवाहस्स धूयं धणसिरिं पडिरूवेणं सुकेणं समुद्ददत्तस्स वरेइ। तस्स य अन्नायं एवं तिहिगहणं काऊण नियनयरं आगओ। तओ तेण भणिओ समुद्ददत्तो"पुत्त ! मम गिरिनयरे भंडं अच्छइ तत्थ तुमं सवयंसो वच्च । तओ तस्स भंडस्स विणिओगं काहामो ” त्ति वोत्तूण वयंसाण य से दारियासंबंधं संविदितं कयं । तओ ते सविभवाणुरूवेणं निग्गया, कहाविसेसेण य पत्ता गिरिनयरं । बाहिरओ य ठाइऊणं धणस्स सत्थवाहस्स मणुस्सो पेसिओ, जहा ते आगओ वरो ति। १७६ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तओ तेण सविभवाणुरूवा आवासा कया, तत्थ य आवासिया। रत्तीए आगया भोयणववएसेणं धणसत्थवाहगिहे, धणसिरीए पाणिग्गहणं कारिओ। • तओ सो धणसिरीए वासगिहँ पविट्ठो। तओ णेणं पइरिक्कं जाणिऊण तीसे धणसिरीए चम्मदिं दाऊण निग्गमो, वयंसाण च मज्झे सुत्तो। ततो पभायाए रयणाए सरीरावस्सकहेउं सवयंसो चेव निग्गमो बहिया गिरिनयरस्स। तेसि वयंसाणं अदिट्ठओ चेव नट्ठो। तयो से वयंसेहिं आगंतूणं |सागरचंदस्स) धणसत्थवाहस्स य परिकहियं 'गओ सो'। तेहिं समंततो मगिओ, न दिट्ठो। तओ ते दीणवयणा कइवयाणि दिवसाणि अच्छिऊण धणसत्यवाहं आपुच्छिऊण गया नियगनयरं । __ इयरो वि समुद्ददत्तो देसंतराणि हिंडिऊण केणइ कालेण आगओ गिरिनयरं कप्पडियवेसछण्णो परूढनह-केसु-मंसु-रोमो । दिट्ठोणेण धणसत्थवाहो आरामगओ। तओ तेणं पणमिऊणं. भणिओ—“अहं तुब्भं आरामकम्मकरो होमि।” ..तेण य भणिओ—“भणसु, का ते भत्ती दिज्जउ” ति? तओ तेण भणियं—“न मे भईए कज्जं । अहं तुज्झ पसादाभिकंक्खी । मम तुट्ठिदाणं देज्जह" त्ति। __एवं पडिस्सुए आरामे कम्मं आरद्धो काउं । तओ सो रुक्खाउव्वेयकुसलो तं आरामं कइवएहिं सव्वोउयपुप्फ-फलसमिद्धं करेइ। तओ सो धणसत्थवाहो तं आरामसिरिं पासिऊणं परं हरिसमवगओ चिंतियं च तेणं—“किमेएणं गुणाइसयभूएण पुरिसेण आरामे अच्छंतेण? वरं मे आवारीए अच्छंउ” ति। .. तओ एहविय-पसाहिओ दिण्णवत्थजुयलो ठविओ आवणे। - तओ तेण आय-वयकुसलेणं गंधजुत्तिणिउणत्तणेणं पुरजणो उम्मत्तिं गाहिओ। तओ पच्छिओ जणेणं—“किं ते नामधेयं?" .. पभणइ. य—“विणीयओ त्ति मे नामधेयं ।” एवं सो विणीयओ विणयसंपन्नो सव्वनयरस्स वीससणिज्जो जाओ। तओ तेण सत्थवाहेण चिंतियं—“न खेमं मे एस आवणे य अच्छंतो। मा एस रायसंविदितो हवेज्ज, ततो राएण हीरइ त्ति । वरमेस गिहे भंडारसालाए अच्छंतो।" . तओ तेण सगिहं नेऊण परियणं च सद्दावेऊण भणियं—“एस वो विणीयओ जं देइ तं मे पडिच्छियव्वं, न य से आणा कोवेयव्वं त्ति। " खण्ड १ १७७ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तओ सो विणीयओ घरे अच्छइ, विसेसओ य धणसिरीए जं चेडीकम्म तं सयमेव करेइ। तआ धणसिरीए विणीयओ सव्ववीसंभट्ठाणिओ जाओ। . तत्थ य नयरे रायसेवी एक्को डिंडी परिवसइ। इओ व सा धणसिरी पुव्वावरण्हसमए सत्ततले पासाए अट्ठालगवरगया सह विणीयगेणं तंबोलं सभाणयंती अच्छइ। सो य डिंडी पहाय–समालद्धो तस्स भवणस्स आसण्णेण गच्छइ। धणसिरीए तंबोलं निच्छूद्धं पडियं डिंडिस्सुवरि । डिंडिणा निज्झाइया य, दिट्ठा य णेणं देवयभूया। तओ सो अणंगबाणसोसियसरीरो तीए समागमुस्सुओ संवत्तो। चिंतियं च णेणं-“एस विणीयओ एएसि सव्वप्पवेसी, एयं उवतप्पामि। एयस्स पसाएणं एईए सह समागमो भविस्सइ"त्ति । तओ अण्णया तेण विणीयओ नियगभवणं नीओ। पूयासक्कारं च काउं पायपडिएण विण्णविओ-“तहा चेट्ठसु, जेण मे धणसिरीए सह संजोगं करेंसि” त्ति। तओ सो “एवं होउ” त्ति वोत्तूण धणसिरीए सगासं गओ। पत्थावं च जाणिऊण भणिया णेणं धणसिरी डिंडिवयणं । तओ तीए रोसवसगाए भणिओ "केवलं तुमे चेव एवं संलत्तं, अण्णो ममं ण जीवंतो" ति। तओ सो बिइयदिवसे निग्गओ, दिवो य डिंडिणा भणियो णेणं "किं भो वयंस ! कयं कज्जं?" त्ति। तओ तेण तव्वयणं गूहमाणेणं भणियं—“घत्तीह"त्ति । तओ पुणरवि तेण दाणमाणेणं संगहियं करेत्ता विसज्जिओ। . तओ सो आगन्तूण धणसिरीए पुरओ विमणो तुहिक्को ठिओ अच्छइ। तओ तीए धणसिरीए तस्स मणोगयं जाणिऊण भणिओ __ "किं ते पुणो डिंडी किंचि भणइ?" तेण भणियं—“आमं” ति। तीए निवारिओ 'न ते पुणो तस्स दरिसणं दायव्वं ।' पुणो य पुच्छिज्जमाणे तहेव तुहिक्को अच्छइ । तओ तीए तस्स चित्तरक्खं करेंतीए भणिओ—“वच्छ, देहि से संदेसं, जहा—'असोगवणियाए तुमे अज्ज पओसे आगंतव्वं' ति।" तेण कहा कयं । तओ सा असोगवणिआए सेज्जं पत्थरेऊण जोगमज्जं च गिण्हिऊण विणीयगसहिया अच्छइ सो आगओ। तओ तीए सोवयारं मज्जं १७८ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से दिण्णं । सो य तं पाऊण अचेयणसरीरो जाओ। ताए तस्सेव य संतियं असिं कड्डिऊण सीसं छिण्णं । पच्छा विणीयओ भणिओ—“तुमे अणत्थं कारिया, तुज्झ वि सासं छिंदामि" ति। तेण पायवडिएण मरिसाविया। विणीयगेणं धणसिरिसंदिटेणं कूवं खणित्ता निहिओ। तओ अन्नया सुहासणवरगया धणसिरी विणीयगेण पुच्छिआ “सुन्दरि ! तुमं कस्स दिन्ना?” तीए भणियं -“उज्जेणिगस्स समद्ददत्तस्स दिण्णा" तेण भणियं—“वच्चामि, अहं तं गवेसित्ता आणेमि” त्ति भणिउं निग्गओ। संपत्तो य नियगभवणं पविट्ठो, दिट्ठो. य अम्मापिऊहिं, तेहिं य कयंसुपाएहि उवगूहिओ। तओ तेहिं धणसत्थवाहस्स लेहो पेसिओ ‘आगओ से जामाउओ' त्ति। ___तओ सो वयंसपरिगहिओ मातापिईहि य सिद्धि ससुरकुलं गओ। तत्थ य पुणरवि वीवाहो कओ। तओ सो अप्पाणं गृहेंतो धणसिरीए विणीयगवेसेणं अप्पाणं दरिसेइ। रयणीए य वासघरं गओ दीवं विज्झवेऊण तीए सह भोगं भुंजइ। तओ तीए तस्स रूवदंसणनिमित्तं पच्छण्णदीवं ठवेऊण तस्स रूवोवलद्धी कया। दिट्ठो य ..: णाए विणीयओ। तओ तेण सव्वं संवादितं । खण्ड १ १७९ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गामिल्लओ सागडिओ [२] अस्थि कोइ कम्हि गामिल्लओ गहवती परिवसइ। सो य अण्णया कयाई सगडं धण्णभरियं काऊणं, सगडे य तित्तिरि पंजरगयं बंधेत्ता पट्ठिओ नयरं । नयरगतो य गंधियपुत्तेहि दीसइ। सो य तेहिं पुच्छिओ-“किं एयं ते पंजरए" ति। तेण लवियं—“तित्तिरि" त्ति। तओ तेहिं लवियं—“किं इमा सगडतित्तिरी विक्कायइ?" तेण . लवियं—“आमं, विक्कायइ”। तेहिं भणिओ—“किं लब्भइ?" सागडिएण भणियं—'काहावणेणे' ति। तओ तेहिं कहावणो दिण्णो, सगडं तित्तिरं च घेतुं पयत्ता। तओ. तेणं सागडिएणं भण्णइ-“कीस एयं सगडं नेहि?" त्ति। तेहिं भणियं—“माल्लेणं लइययं ” ति। तओ ताणं ववहारो जाओ, जितो सो सागडिओ, हिओ य सो सगडो तित्तिरिए समं। सो सागडिओ हियसगडोवगरणो जोग-खेम-निमित्तं आणिएल्लियं बइल्लं घेत्तूणं विक्कोसमाणो गंतुं पयत्तो, अण्णेण. य कुलपुत्तएणं दीसइ, पुच्छिओ य -"कीस विक्कोससि?" तेण लवियं—“सामि ! एवं च एवं च अइसंधिओ हं।" तओ तेण साणुकंपेण भणियँ - “वच्च, ताणं चेव गेहं एवं च एवं च भणहि" ति। तओ सो तं वयणं सोऊण गओ, गंतण य तेण भणिआ—“सामि ! तब्भेहिं मम भंडभरिओ सगडो हिओ ता इमं पि बइल्लं गेण्हह । मम पुण सत्तु यादुपालियं देह, जं घेत्तूण वच्चामि त्ति । न य अहं जस्स व तस्स व हत्थेण गेण्हामि, जा तुज्झ घरिणी पाणेहि वि पिययरी सव्वालंकारभूसिया तीए दायव्वा, तओ मे परा तुट्ठी भविस्सइ। जीवलोगब्भंतरं व अप्पणं मन्निस्सामि। तत्तो तेहिं सक्खो आहूया, भणियं च–“एवं होउं ” ति। १८० प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततो ताणं पुत्तमाया सत्तुयादुपालियं घेत्तूण निग्गया, तेण सा हत्थे गहिया, घेत्तूण य तं पट्ठिओ। . तेहिं वि भणिओ—“किमयं करेसि?" तेणं भणियं – “सत्तुदोपालियं नेमि।” 'ततो ताणं सद्देण महाजणो संगहिओ। पच्छिया-"किमेयं?" ति। ततो तेहिं जहावत्तं सव्वं परिकहियं । समागयजणेण य मज्झत्थेणं होऊण ववहारनिच्छओ सुओ, पराजिया य ते गंधियपुत्ता। सो य किलेसेण तं महिलियं भोयाविओ, सगडो अत्थेण सुबहुएण सह परिदिण्णो। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नडपुत्तो रोहो उज्जेणि नामेणं वित्थिण्णसुरभवणा समुद्धरधणोहा मालवमंडलमंडणभूआ नयरी समत्थि। तत्थ जियसत्तूनामा रिउपक्खविक्खोहकारओ नयगुणसणाहो सइ-गुणी सुदढपणओ नरनाहो आसी। अह उज्जेणिसमीवे सिलागामो गामो। तत्थ य भरहो नडो। सो य तग्गामे पहू, नाडयविज्जाए लद्धपसंसो य। तस्स णामेण रोहओ, मामस्स य सोहओ सुओ। ___ अन्नया कयाइ वि मया रोहयमाया। तओ भरहो घरकज्जकरणकए अण्णं तज्जणणिं संठवेइ। रोहओ य बालो। सा य तस्स हीलापरायणा हवइ। तो तेण सा भणिया—“अम्मो जं ममं सम्मं न वट्टसि, न वं सुंदरं होही। एत्तो अहं तह काहं जह तं मे पाएस पडसि।" ___ एवं कालो वच्चइ। अह अण्णया कयाइ वि ससिंपयासधवलाए रयणीइ सो एगसज्जाए जणगसहिओ पासुत्तो। तो रयणिमज्झभागे उट्ठित्ता उब्भएण होऊणं उच्चसरेणं जणओ उट्ठाविय भासिओ जहा—“ताय ! पेक्खसु एस कोइ परपुरिसो जाइ !" स सहमुट्ठिओ जाव निद्दामोक्खं. काऊणं लोयणेहि जाएइ ताव तेण न दिट्ठो कोइ पुरिसो। ___ ततो रोहओ पुट्ठो–“वच्छा ! सो कत्थ परपुरिसो!" तेण जणओ भणिओ—“इमेणं दिसाविभागेणं सो तुरियतुरियं गच्छंतो मे । दिट्ठो।" तओ सो महिलं नट्ठसीलं परिकलिय तीए सिढिलायरो जाओ। सा पच्छायावपरिगया भासइ "वच्छ ! मा एवं कुणसु।” रोहओ भणइ-“कहं मम लटुं न वट्टामि?" सा बेइ–“अह लट्ठ वट्टिस्सं। तओ तुमं तहा कुणसु जहा एसो तुह प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जणओ मज्झ आयरं कुणइ ।” इमं रोहेण पडिवनं। सा वि तह वट्टिउं लग्गा। . अण्णया कया वि रयणिमझे सुत्तुट्ठिओ सो जणगं भणइ–“ताय ! सो एस पुरिसो!" पिउणा पुटुं—“सो कहिं " त्ति । तओ निययं चेव छायं दंसित्ता भणइ—“इमं पेच्छह ” त्ति।। स विलक्खमणो जाओ, पुच्छइ—“किं सो वि एरिसो आसी?" बालेण 'आम' ति भणियं । जणओ चिंतेइ-“अव्वो ! बालाण केरिसुल्लावा !” इय चिंतिऊण भरहो तीइ घणराओ संजाओ। खण्ड 915 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवियारिआएसे नरिंदस्स कहा ४ कत्थ विनयरे एगेण नरिंदेण नियनयरे आएसो दिण्णो- “गाममज्झे एगो देवालओ अस्थि । पुरीए माहणा वा वइस्सा वा खत्तिया वा सुद्दा य वा नयरवासिणो जे लोगा संति तेहिं देवालए पविसिअ देवं वंदित्ता गंतव्वं, अन्नहा तस्स वहो भविस्सइ " । एगो कुंभयारो तमासं अजाणिऊण गद्दहमारुहिय हत्थे लगुडं गिव्हित्ता महारायव्व गच्छइ । तेण देवालए सो देवो न वंदिओ । तओ - रुट्ठा सुहा तं गिहिऊण नरिंदग्गओं नएइरे । नरिंदेण सो वहाइ आइट्ठो । हथंभे सो नीओ। मरणकाले तत्थ मरणं विणा पत्थणातियं किज्जइ, पत्थणातिगं पूरिऊण वहिज्जइ एवं नियमो निवेण कओ अस्थि । तदा सो कुंभारो वि पुच्छिज्जइ तए पत्थणातिगे किं जाइज्जइ, तेण उत्तं- “अहं नरिंदस्स समीवे मग्गस्सामि । सो तत्थ नीओ ।" नरिंदेण पत्थणातिगं मग्ग त्ति कहिअं । सो कहे – “एगं तु मज्झ गेहे अहुणा कुडुंबभोयणत्थं पन्नहलक्खरुप्पगाई पेसेह । . बीअं तु जे जणा बंदीकया ते सव्वे मोएइ । निवेण सव्वं कयं । तइअपत्थणावसरे तेण - 'सहामज्झत्थिअनरिंदपमुहसव्वजणाणं एएण लगुडेण पहारतिगकरणाय आएसो मग्गिओ' । रण्णा चिंतिअं - अहं किं करोमि ? एसो धूलो, दंडोवि थूलों, एगेण पहारेण अहं मरिस्सामि, तओ 'अजुत्तो एसो आएसो' इअ चिंतित्ता वहाएसो निक्कासिओ, उवरिं दाणमहिअं तस्स अप्पित्ता तस्स बुद्धीए सुतुट्ठेण निवेण समाणं गिहे मोइओ । एवं अविआरओ आएसो कयावि अप्पवहाय होइ । १८४ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीलवईए कहा कम्मि वि नयरे लच्छीदासो नाम सेट्ठी वरिवट्टइ । सो बहुधणसंपत्तीए गविट्ठो आसी। भोगविलासेसु एवं लग्गो कयावि धम्मं न कुणेइ । तस्स पुत्तो वि एयारिसो अस्थि । जोव्वणे पिउणा धम्मिअस्स धम्मदासस्स जहत्थनामाए सीलवईए कन्नाए सह पाणिग्गहणं पुत्तस्स कारावियं । सा कन्ना जया अट्ठवासा जाया, तया तीए पिउपेरणाए साहुणीसगासाओ जिणेसरधम्मसवेणण सम्मत्तं अणुव्वयाइं च गहियाई, जिणधम्मे अईव निउणा संजायो। जया सा ससुरगेहे आगया, तया ससुराई धम्माओ विमुहं दट्ठण तीए बहुदुहं संजायं । कहं मम नियवयस्स निव्वाहो होज्जा?, कहं वा देवगुरुविमुहाणं ससुराइणं धम्मोवएसो भवेज्जा? एवं सा वियारेइ । एगया 'संसारो असारो, लच्छी वि असारा, देहो वि विणस्सरो, एगो धम्मो च्चिय परलोगपवन्नाणं जीवाणमाहारु'त्ति उवएसदाणेण नियभत्ता जिणिंदधम्मेण वासिओ कओ। एवं सासूमवि कालंतरे बोहेइ। ससुरं पडिबोहिउं सा समयं मग्गेइ।। ... एगया तीए घरे समणगुणगणालंकिओ महब्बई नाणी जोव्वणत्थो एगो साहू भिक्खत्थं समागओ । जोव्वणे वि गहीयवयं संतं दंतं साहुँ घरंमि आगयं दट्ठण आहारे विज्जमाणे वि तीए वियारियं—'जोवणे महव्वयं महादुल्लहं, कहं एएण एयंमि . जोव्वणे गहीयं? त्ति' परिक्खत्थं समस्साए पुटुं—'अहुणा समओ न संजाओ, किं पुव्वं निग्गया?' तीए हिययगयभावं नाऊण साहुणा उत्तं-समयनाणं-कया मच्चू होस्सइ त्ति नत्थि, तेण समयं विणा निग्गओ। - सा उत्तरं नाऊण तुट्ठा । मुणिणा वि सा पुट्ठा—'कइ वरिसा तुम्ह संजाया'? मुणिस्स पुच्छाभावं नाऊण वीसवासेसु जाएसु वि तीए ‘बारसवास त्ति उत्तं' । पुणरवि 'तं सामिस्स कइ वासा जाय'त्ति? पुटुं । तीए पियस्स पणवीसवासेसु जाएसुवि 'पंचवासा' उत्ता, एवं सासूए 'छम्मासा कहिया'। ससुरस्स पुच्छाए सो 'अहुणा न उप्पन्नो अस्थि' त्ति । एवं बहू-साहूणं वट्टा अंतरट्ठिएण ससुरेण सुआ। लद्धभिक्खे साहुँमि गए सो अईव कोहाउलो संजाओ, जओ पुत्तबहू मं उद्दिस्स 'न जाउ' त्ति कहेइ । रुट्ठो सो पुत्तस्स कहणत्थं हटुं गच्छइ । 'गच्छंतं ससुरं सा वएइ–भोत्तूणं हे ससुर ! तुम गच्छसु ।' ससुरो कहेइ–'जइ हं न जाओ म्हि, तया कहं भोयणं चव्वेमि-भक्खेमि' इअ कहिऊणं हट्टे गओ। पुत्तस्स सव्वं वुत्तंतं कहेइ—'तव पत्ती दुरायारा असम्भवयणा अस्थि, अओ तं गिहाओ निक्कासय' । सो पिउणा सह गेहे आगओ। बहुँ पुच्छइ—'किं माउपिउणं खण्ड १ १८५ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवमाणं कयं ? साहुणा सह वट्टाए किं असच्चमुत्तरं दिण्णं ? । तीए उत्तं- 'तुम्हे मुणिपुच्छह सो सव्वं कहिहिइ' । ससुरो वस्सए गंतूण सावमाणं मुणिं पुच्छइ - 'हे मुणे ! अज्ज मम गेहे भिक्खत्थं तुम्हे किं आगया ?' मुणी कहेइ – 'तुम्हाणं घरं न जाणामि, तुमं कुत्थ वससि ?, सेट्ठी वियारेइ 'मुणी असच्चं कहेइ' । पुणरवि पुट्ठ-कस्स वि गेहे बालाए सह वट्टा कया कि ? । मुणी कहे — ' सा बाला जिणमयकुसला, तीए मम वि परिक्खा कया' । तीए हं वुत्तो 'समयं विणा कहं निग्गओ सि ।' मए उत्तरं दिण्णं - समयस्स ‘मरणसमयस्स’नाणं नत्थि, तेण पुव्ववयंमि निग्गओ म्हि । मए वि परिक्खत्थं सव्वेसिं ससुराईणं वासाई पुट्ठाई । तीए सम्म कहियाई । सेट्ठी पुच्छइ–‘ससुरो न जाओ इअ तीए कहं कहियं ? ।' मुणिणां उत्तं- 'सा चिय पुच्छिज्जउ, जओ विउसीए तीए जहत्थो भावो नज्जइ' ! ससुरो गेहं गच्चा पुत्तबहुं पुच्छ— 'तीए मुणिस्स पुरओ किमेवं वुत्तं- 'मे ससुरो जाओ वि न' । तीए उत्तं- "हे ससुर ! धम्महीणमणुसस्स माणवभवो पत्तो वि अपत्तो एव, जओ सद्धम्मकिच्चे हिं सहलो भवो न कओ सो मणुसभवो निष्फलो चिय । तओ तुम्ह जीवणं पि धम्महीणं सव्वं गयं” तेण मए कहिअं – 'मम ससुरस्स उप्पत्ती एव न ।' एवं सच्चत्थनाणे तुट्ठो सो सेट्ठी धम्माभिहो जाओ । - पुणरवि पुट्ठे — 'तुमए सासूए छम्मासा' कहं कहिआ ?' । तीए उत्तं- 'सासु पुच्छह' । सेट्ठिणा सा पुट्ठा। ताए वि कहिअं – “पुत्तबहूण वयणं सच्च, ओम जिणधम्मपत्तीए छम्मासा एव जाया । जओ इओ छम्मासाओ पुव्वं कत्थ वि मरणपसंगे अहं गया । तत्थ थीणं विविहगुणदोसवट्टा जाया । एगाए वुड्ढाएं उत्तं- 'नारीणं मज्झे इमीए पुत्तबहू सेट्ठा, जोव्वणवए वि सासूभत्तिपरा धम्मकज्जंमि सएव अप्पमत्ता, गिहकज्जेसु वि कुसला, नन्ना एरिसा । इमीए सासू निब्भग्गा, एरिसीए भत्तिवच्छलाए पुत्तबहूए वि धम्मकज्जे पेरिज्जमाणावि धम्मं न कुणेइ । इमं सोऊण व गुणरंजिआ हं तीए मुहाओ धम्मं पावित्था । धम्म्पत्तीए छम्मासा जाया, तओ पुत्तबहूए छम्मासा कहिया, तं जुत्तं" । पुत्तो वि पुट्ठो, तेण वि उत्तं- " रत्तीए सययधम्मोवएसपराए भज्जाए 'संसारासारदंसणेण भोगविलासाणं च परिणामदुहदाइत्तणेण, वासानईपूरतुल्ल-जुव्वणेण य देहस्स खणभंगुरतणेण जयंमि धम्मो एव सारुत्ति' उवदिट्ठो हं जिणधम्माराहगो जाओ, अज्ज पंच वासा जाया । तओ बहूए मं उद्दिस्स पंचवासा कहिया, तं सच्चं " । एवं कुटुंबस्स धम्मपत्तीए वट्टाए विउसी पुत्तबहूए जहत्थ-वयणं सोऊण लच्छीदासो वि पडिबुद्धो वुढत्तणे वि धम्मं आराहिअ सग्गई पत्तो सपरिवारो । १८६ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . चउजामायराणं कहा कत्थ वि गामे नरिंदस्स रज्जसंतिकारगो पुरोहिओ आसि। तस्स एगो पत्तो पंच य कन्नगाओ संति। तेण चउरो कन्नगाओ विउसमाहणपुत्ताणं परिणाविआओ। कयाई पंचमीकन्नाए विवाहमहूसवो पारद्धो। विवाहो चउरो जामाउणो समागया। पुण्णे विवाहे जामायरेहिं विणा सव्वे संबंधिणो नियनियघरेसु गया। जामायरा भोयणलुद्धा गेहे गंतुं न इच्छंति । पुरोहिओ विआरेइ—'सासूए अईव पिया जामायरा, तेण अहुणा पंच छ दिणाई एए चिटुंतु, पच्छा गच्छेज्जा'। ते जामायरा खज्जरसलुद्धा तओ गच्छिउं न इच्छेज्जा। परुप्परं ते चिंतेइरे—“ससुरगिहनिवासो सग्गतुल्लो नराणं" किल एसा सुत्ती सच्चा, एवं चिंतिऊण एगाए भित्तीए एसा सुत्ती लिहिआ। एगया एयं सुत्तिं वाइऊण ससुरेण चिंतियं-“एए जामायरा खज्जरसलुद्धा कयावि न गच्छेज्जा, तओ एए बोहियव्वा" एवं चिंतिऊण तस्स सिलोगपायस्स हिटुंमि पायत्तिगं लिहिअं "जई वसइ विवेगी पंच छव्वा दिणाई। दहिघयगुडलुद्धो मासमेगं वसेज्जा, स हवइ खरतुल्लो माणवो माणहीणो" ॥१॥ ते जामायरा पायत्तिगं वाइऊणं पि खज्जरसलुईत्तणेण. तओ गंतुं नेच्छंति । • ससुरो वि चिंतेइ—'कहं एए नीसारियव्वा?, साउभोयणरया एए खरसमाणा माणंहीणा, तेण जुत्तीए निक्कासणिज्जा'। पुरोहिओ नियं भज्जं पुच्छइ–'एएसिं जामाऊणं भोयणाय किं देसि'? । सा कहेइ 'अइप्पियजामायराण तिकालं दहिघय-गुडमीसिअमन्नं पक्कन्नं च सएव देमि'। पुरोहिओ भज्जं कहेइ–'अज्जदिणाओ आरब्भ तुमए जामायराणं वज्जकुडो विव थूलो रोट्टगो घयजुत्तो दायव्वो। ___ पियस्स आणा अणइक्कमणीअ त्ति चिंतिऊण, सा भोयणकाले ताणं थूल रोट्टगं घयजुत्तं देइ। तं दट्ठणं पढमो मणीरामो जामाया मित्ताणं कहेइ–'अहुणा एत्थ वसणं न जुत्तं, नियधरंमि अओ वि साउभोयणं अत्थि, तओ इओ गमणं चिय सेयं, ससुरस्स पच्चूसे कहिऊण हं गमिस्सामि' । ते कहिंति—“भो मित्त ! विणा मुल्लं - खण्ड १ १८७ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोयणं कत्थ सिया, एसो वज्जकुडरोट्टगो साउत्ति गणिऊण भोत्तव्वो । जआ - 'परन्नं दुल्लहं लोगे' इअ सुई तए किं न सुआ ?, तब इच्छा सिया तया गच्छसु, अम्हे उ जया ससुरो कहिही तया गमिस्सामो " । एवं मित्ताणं वयणं सौच्चा पभाए ससुरस्स अग्गे गच्छित्ता सिक्खं आणं च मग्गेइ । ससुरो वि तं सिक्ख दाऊण पुणरवि आगच्छेज्जा, एवं कहिऊण किंचि अणुसरिऊण अणुण्णं देइ । एवं पढमो जामायरो 'वज्जकुडेण मणीरामो' निस्सारिओ । पुणरवि भज्जं कहे —– अज्जप्पभिई जामायराणं तिलतेल्लेण जुत्तं रोट्टगं दिज्जा। सा भोयणसमए जामाऊणं तेल्लजुत्तं रोट्टगं देइ । तं दद्दू माहवो नाम जामायरो चिंतेइ—–घरंमि वि एयं लब्भइ, तओ इओ गमणं सुहं । मित्ताणं पि कहेइ – हं कल्ले गमिस्सं, जओ भोयणे तेल्लं समागय । तया ते मित्ता कहिंति – 'अम्हकेरा सासू विउसी अत्थि, जेण सीयाले तिलतेल्लं चिअ उयरग्गिदीवणेण सोहणं, न घयं, तेण तेल्लं देइ, अम्हे उ एत्थ ठास्सामो' । तया माहवो नाम जामायरो ससुरपासे गच्चा सिक्खं अणुण्णं च मग्गेइ । तया ससुरो 'गच्छ गच्छ ' त्ति अषुण्णं देइ, न सिक्खं । एवं 'तिलतेल्लेण माहवो' बीओ वि जामायरो गओ । तइअ-चउत्थजामायरा न गच्छति । " कहं एए निक्कासणिज्जा' इअ चिंतित्ता लद्धुवाओ ससुरो भज्जं पुच्छेइ – 'एए जामाउणो रत्तीए सयणाय कया आगच्छंति ?' तया पिया कहेइ—–'कयाइ रत्तीए पहरे गए आगच्छेज्जा, कया दुतिपहरे गए आगच्छति' । पुरोहिओ कहेइ – 'अज्ज रतीए तुमए दारं न उग्घाडियव्वं, अहं जागरिस्सं' । ते दोणि जामायरा संझाए गामे विलसिउं, गया, विविहकीलाओ कुणंता नट्टाइं च पासंता, मज्झरतीए गिद्दारे समागया । पिहिअं दारं दट्ठूण दारुग्घाडणाए उच्चयरेण रविंति —– ' दारं उघाडेसु' ति । तया दारसमीवे सयणत्थो पुरोहिओ जागरंतो कहे — 'मज्झरत्तिं जाव कत्थ तुम्हे थिया? अहुणा न उग्घाडिस्सं जत्थ उग्घाडिअद्दारं अस्थि, तत्थ गच्छेह' एवं कहिऊण मोणेण थिओ | तया ते दुणि समीवत्थियाए तुरंगसालाए गया । तत्थ अत्थरणाभावे अईवसीयबाहिया तुरंगमपिटुच्छाइ अवत्थं गहिऊण भूमी सुत्ता । तया विजयरामेण चिंतिअं - 'एत्थ सावमाणं ठाउं न उइअं । तओ सो मित्तं कहेइ - 'हे मित्त ! कत्थ अम्हं सुहसेज्जा ? कत्थ य इमं भूलोट्टणं ?, अओ गमणं चिअ वरं । स मित्तो बोल्लेइ – 'एआरिसदुहे वि परन्नं कत्थ ? अहं तु एत्थ ठास्सं । तुमं गंतुमिच्छसि जइ, तया गच्छसु ।' तओ सो पच्चूसे पुरोहिय समीवे गच्चा सिक्खं अणुण्णं च प्राकृत स्वयं-शिक्षक १८८ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मग्गीअ।. तया पुरोहिओ सुद्दुत्ति कहेइ। एवं सो तइओ जामाया 'भूसज्जाए विजयरामो' वि निग्गओ। • अहुणा केवलं केसवो जामायरो तत्थ ठिओ संतो गंतुं नेच्छइ। पुरोहिओ वि केसवजामाउणो निक्कासणत्थं जुत्तं विआरिऊण नियपुतस्स किंचि वि कहिऊण गओ। जया केसवजामायरो भोयणत्थं उवविट्ठो, पुरोहिअस्स य पुत्तो समीवे वट्टइ, तया सो समागओ समाणो पुत्तं पुच्छइ—'वच्छ ! एत्थ मए रूवगो मुक्को सो य केण गहिओ?' । सो कहेइ–'अहं न जाणामि'। पुरोहिओ बोल्लेइ–'तुमए च्चिय गहिओ, हे असच्चवाइ ! पाव ! धिट्ठ ! देहि मम तं, अन्नह तं मारइस्सं' ति कहिऊण सो उवाणहं गहिऊण मारिउं धाविओ। पुत्तो वि मुढेि बंधिऊण पिउस्स सम्मुहं गओ। दोण्णि ते जुज्झमाणे दट्ठण केसवो ताणं मज्झे गंतूण जुज्झह मा जुज्झह' त्ति कहिऊण ठिओ। तया सो पुरोहिओ 'हे जामायर ! अवसरसु अवसरसु' ति कहिऊण तं उवाणहाए पहरेइ। पुत्ते वि 'केसव ! दूरीभव दूरीभव' ति कहिऊण मुट्ठीए तं केसवं पहरेइ। एवं पिअर-पुत्ता केसवं ताडिंति । तओ सो तेहिं धक्कामुक्केण ताडिज्जमाणो सिग्धं भग्गो। एवं 'धक्का मुक्केण केसवो' सो चउत्थो जामायरो अकहिऊण गओ। _ तद्दिणे पुरोहिओ निवसहाए विलंबेण गओ। नरिंदो तं पुच्छइ–“किं विलंबेण तुमं आगओ सि ।” सो कहेइ–विवाहमहूसवे जामायरा समागया। ते उ भोयणरसलुद्धा चिरं ठिआवि गतुं न इच्छंति । तओ जुत्तीए सव्वे निक्कासिआ। ते एवं -: “वंजकुडा मणीरामो, तिलतेल्लेण माहवो। .: . भूसज्जाए विजयरामो, धक्कामुक्केण केसवो॥" - तेण सव्वो वुत्तंतो नरिंदस्स अग्गे कहिओ। नरिंदो वि तस्स बुद्धीए अईव तुट्ठो। एवं जे भविआ कामभोगविसयमूढा सयं चिय कामभोगाइं न चएज्जा, ते एवंविहदुहाणं भायणं हुंति। खण्ड १ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्तेहिं पराभविअस्स पिउस्स कहा ७ कंमिवि नयरे एगवुड्डुस्स चउरो पुत्ता संति । सो थविरो सव्वे पुत्ते परिणाविऊण नियवित्तस्स चउब्भागं किच्चा पुत्ताणं अप्पेइ । सो धम्माराहणतप्परो निच्चितो कालं नएइ । कालंतरे ते पुत्ता इत्थीणं वेमणस्स भावेण भिन्नघरा संजाया । वुडुस्स पइदिणं पइघरं भोयणाय वारगो निबद्धो । पढमदिणंमि जेट्ठस्स पुत्त्वस्स् गेहे भोयणाय गओ । बीयदिणे बीयपुत्तस्स घरे जाव चउत्थदि कणिट्ठस्स पुत्तस्स घरे गओ । एवं तस्स सुहेण कालो गच्छइ । कालंतरे थेराओ धणस्स अपत्तीए पुत्तवहूहिं सो थेरो अवमाणिज्जइ । . पुत्तवहूओ कहिंति - " हे ससुर ! अहिलं दिणं घरंमि किं चिट्ठसि ?, अम्हाणं मुहाई पासिउं किं ठिओ सि ?, श्रीणं समीवे वसणं पुरिसाणं न जुत्तं, तव लंज्जावि न आगच्छेज्जा ? पुत्ताणं हट्टे गच्छिज्जसु ” एवं पुत्तवहूहि अवमाणिओ सो पुत्ताणं हट्टै गच्छइ । तया पुत्तावि कहिंति – “हे वुड्ढ ! किमत्थं एत्थ आगओ ?, वुड्डत्तणे घरे वसणमेव सेयं, तुम्ह दंता वि पडिआ, अक्खितेयं पि गयं, सरीरं पि कंपिरमत्थि, अत्थ ते किंपि पओयणं नत्थि, तम्हा घरे गच्छाहि" एवं पुत्तेहिं तिरक्करिओ सो घरं गच्छेइ तत्थ पुत्तवहूओ वि तं तिरक्करंति । पुत्तपुत्ता वि तस्स थेरस्स कच्छुट्टियं निक्कासेइरे, कयाई मंसु दाढियं च करिसिन्ति। एवं सव्वे विविहप्पगारेहिं तं वुड्डुं उवहसिंति । हूओ रुक्खं अपक्कं च रोट्टगं दिति । एवं पराभविज्जमाणो वुड्डो चिंतेइ - किं करोमि? कहं जीवणं निव्वहिस्सं? एवं दुहमणुभवतो सो नियमित्तसुवण्णगारस्स समवे गओ । अप्पणे पराभवदुहं तस्स कहेइ, नित्थरणुवायं च पुच्छइ । सुवण्णगारो बोल्ले – “भो मित्त ! पुत्ताणं वीसासं करिऊण सव्वं धणमप्पिअं, ते दुहिओ जाओ, तत्थ किं चोज्जं ? । सहत्थेण कम्मं कयं तं अप्पणा भोत्तव्वं चिअ” । तह वि मित्तत्तेण हं एवं उवायं दंसेमि - तुम पुत्ताणं एवं कहिअव्वं — “मम मित्तसुवण्णगारस्स गेहे रूवग - दीणार भूसणेहिं भरिआ एगा मंजूसा मए मुक्का अत्थि, अज्ज जाव तुम्हाणं न कहिअं, अहुणा जराजिण्णो हं, तेण सद्धम्म-कम्मणा सत्तक्खेत्ताईसुं लच्छीए विणिओगं काऊण परलोगपाहेयं गिहिस्सं” एवं कहिऊण प्राकृत स्वयं-शिक्षक १९० Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुतेहिं एसा मंजूसा गेहे आणावियव्वा । मंजूसाए मज्झे हं रूवगसयं मोइस्सं, तं तु मज्झरतीए पुणो पुणो तुमए सयं च रणरणयारपुव्वं गणेयव्वं जेण पुत्ता मन्निस्संति—‘अज्जावि बहुधणं पिउणो समीवे अस्थि,' तओ धणासाए ते पुव्वमिव भत्तिं करिस्ते । पुत्तवहूओ वि तहेव सक्कारं काहिन्ति । तुमए सव्वेसि कहियवं - 'इमीए मंजूसाए बहुधणमत्थि । पुत्तपुत्तवहूणं नामाई लिहिऊण ठवियमत्थि । तं तु मम मरणंते तुम्हेहिं नियनियनामेण गहिअव्वं' । धम्मकरणत्थं पुत्तेहिंतो धणं गिहिऊण सद्धम्मकरणे वावरियव्वं । मम रूवगसयं पि तुमए न विस्सारियव्वं, एवं अवसरे दायव्वं । सो थेरो मित्तस्स बुद्धीऐ तुट्ठो गेहं गच्च पुत्तेहिं मंजूसं आणाविऊण रत्तीए तं रूवगसयं सय-सहस्स-दससहस्साइगुणणेण पुणो पुणो गणेइ । पुत्ता विआरिंति — पिउस्स पासे बहुधणमत्थि त्ति, तओ ते वहूणं पि कहिंति । सव्वे ते थेरं बहुं सक्कारिंति सम्माणिति य । अईवनिब्बंधेण तं पुत्तवहूआ वि अहमहमिगयाए भोयणाय निंति, साउं सरसं भोयणं दिति, तस्स वत्थाई पि स एव पक्खालिंति, परिहाणाय धुविआई वत्थाई अप्पिति, एवं वुड्डस्स सुहेण कालो गच्छइ ।. एगया आसन्नमरणो सो पुत्ताणं कहे – “मज्झ धम्मकरणेच्छा वट्टर, ते सत्तखेत्तेसुं किंचि बि धणं दाउमिच्छामि " । पुत्तावि मंजूसागयधणासाए अप्पिति । . सो वुड्डो जिणमंदिरुवस्सयसुपसाईसु जहसत्ति दव्वं देइ । अप्पणो परममित्त - सुवणगारस्स वि नियहत्थेण रूवगसयं पच्चप्पइ, एवं सद्धम्मकम्मंमि धणव्वयं किच्चा, मरणकालंमि पुत्ताणं पुत्तवहूणं च बोल्लाविऊण कहेइ — “इमीए मंजूसाए संव्वेसि नामग्गहणपुव्वयं मए धणं मुत्तमत्थि । तं तु मम मरणकिच्वं 'काऊ पच्छा जहनामं तुम्हेहिं गहिअव्वं" ति कहिऊण समाहिणा सो वुड्ढो कालं पंत्तो 1 पुत्तावि तस्स मच्चुकिच्चं किच्चा नाइजणं पि जेमाविऊण बहुधणासाइ जया सव्वे मिलिऊण मंजूसं उग्घाडिति, तया तम्मज्झमि नियनियनाम- जुत्तपत्ते हिं वेढिए पाहाणखंडे त च रूवगसयं पासित्ता, अहो वुड्डेण अम्हें वंचिआ वंचिअ त्ति जंपति किल अम्हाणं पिउभत्तिपरंमुहाणं अविणयस्स फलं संपत्तं । एवं सव्वे दुहि जाया । खण्ड १ U १९१ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमंगलियपुरिसस्स कहा ८ ___ एगमि नयरे एगो अमंगलिओ मुद्धो पुरिसो आसि। सो एरिसो अत्थि, जो को वि पभायंमि तस्स मुहं पासेइ, सो भोयणं पि न लहेज्जा। पउरा वि पच्चूसे कया वि तस्स मुहं न पिखंति। नरवइणावि अमंगलियपुरिसस्स वट्टा सुणिआ। परिक्खत्थं नरिंदेण एगया पभायकाले सो आहूओ, तस्स मुहं दिटुं। . जया राया भोयणत्थमुवविसइ, कवलं च मुहे पक्खिवइ, तया अहिलंमि नयरे अकम्हा परचक्कभएण हलबोलो जाओ। तया नरवई वि भोयणं चिच्चा सहसा उत्थाय ससेण्णो नयराओ बहिं निग्गओ। भयकारणमदट्ठण पुणो पच्छा आगओ समाणो नरिंदो चिंतेइ—“अस्स अमंगलिअस्स सरूवं मए पच्च्चखं 'दिटुं, तओ एसो हंतव्वो” एवं चितिऊण अमंगलियं बोल्लाविऊण वहत्थं चंडालस्स अप्पेइ। जया एसो रुयंतो, सकम्मं निंदतो चंडालेण सह गच्छेइ। तया एगो कारुणिओ बुद्धिनिहाणो वहाइ नेइज्जमाणं तं दणं कारणं णच्चा तस्स रक्खणाय कण्णे किंपि कहिऊण उवायं दंसेइ । हरिसंतो जया वहत्थंभे ठविओ, तया चंडालेण सो पच्छिओ—'जीवणं विणा तव कावि इच्छा सिया, तया मग्गसु त्ति'। सो कहेइ-“मज्झ नरिंदमुहदंसणेच्छा अस्थि” । जया सो नरिंदसमीवमाणीओ तया नरिंदो तं पुच्छइ—“किमेत्थ आगमणपओयणं?"। सो कहेइ—“हे नरिंद ! पच्चूसे मम मुहस्स दंसणेण भोयणं न लब्भइ, परंतु तुम्हाणं मुहपेक्खणेण मम वहो भविस्सइ, तया पउरा किं कहिस्संति ? । मम मुहाओ सिरिमंताणं मुहदंसणं केरिसफलयं संजायं, नायरा वि पभाए तुम्हाणं मुंहं कहं पासिहिरे”। एवं तस्स वयणजुत्तीए संतुट्ठो नरिंदो वहाएसं निसेहिऊण पारितोसिअं च दच्चा तं अमंगलिअं संतोसीअ। १९२ . प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिप्पिपुत्तस्स कहा अवंतीए परीए इंददत्तो नाम सिप्पिवरो अहेसि । सो सिप्पकलाहिं सव्वंमि जयंमि पसिद्धो होत्था । इमस्स सरिच्छो अन्ने को वि नत्थि । एयस्स पुत्तो सोमदत्तो नाम। सो पिउस्स सगासंमि सिप्पकलं सिक्खंतो कमेण पिअराओ वि अईव सिप्पकलाकुसलो जाओ। सोमदत्तो जाओ पडिमाओ निम्मवेइ, तासु तासु पिआ कंपि कंपि भुल्लं दंसेइ, कया वि सिलाहं न कुणेइ । तहो सो सुहमदिट्ठीए सुहुमं सुहुमं सिप्पकिरियं कुणेऊण पियरं दंसेइ, पिया तत्थ वि कंपि खलणं दरिसेइ, 'तुमए सोहणयरं सिणं कयं' ति न कयाई तं पसंसेइ। अपसंसमाणे पिउम्मि सो चिंतेइ—'मम पिआ मज्झ कलां कहं न पसंसेज्जा?, तओ तारिसं उवायं करेमि, जओ पियरो मे कलं पसंसेज्ज। एगया तस्स पिआ कज्जप्पसंगेण गामंतरे गओ, तया सो सोमदत्तो सिरिगणेसस्स सुंदरमयं पडिमं काऊण, तीए हिटुंमि गूढं नियनामंकियचिह्न करिऊण, तं मुत्तिं नियमित्तद्दारेण भूमीए अंतो ठवेइ । कालंतरे गामंतराओ पिआ समागओ। एगया तस्स मित्तो जणाणमग्गओ एवं कहेइ–'अज्ज मम सुमिणो समागओ, तेण अमुगाए भूमीए पहावसालिणी गणेसस्स पडिमा अत्थि'। . तया लोगेहिं सा पुढवी खणिआ, तीए पुहवीए सुंदरयमा अणुवमा गणेसस्स मुत्ती निग्गया। तइंसणत्थं बहवो लोगा समागया, तीए सिप्पकलं अईव पसंसिरे। तया सो इंददत्तो वि सपुत्तो तत्थ समागओ। सो गणेसपडिमं दट्ठणं पुत्तं कहेइ–“हे पुत्त ! एसच्चिअ सिप्पकला कहिज्जइ । केरिसी पडिमा निम्मविआ, इमाए निम्मावगो खलु धण्णयमो सलाहणिज्जो य अस्थि । पासेसु, कत्थ वि भुल्लं खुण्णं च . . अत्थि? । जइ तुम एआरिसिं पडिमं निम्मवेज्ज, तया ते सिप्पकलं पसंसेमि, नन्नहा"। पुत्तो वि कहेइ—“हे पियर ! एसा गणेसपडिमा मए चिय कया। इमाए हिटुंमि गुत्तं मए नामंपि लिहिअमत्थि" । पिआवि लिहिअनाम वाइऊण खिन्नहियओ पुत्तं कहेइ-“हे पुत्त ! अज्जदिणाओ तुम एरिसं सिप्पकलाजुत्तं सुंदरमयं पडिमं काउं कया वि न तरिस्ससि। जया हं तव सिप्पकलासु भुल्लं दंसंतो, तया तुमं पि सोहणयरकज्जकरणतल्लिच्छो सण्हं सण्हं सिप्पं कुणंतो आसि, तेण तव सिप्पकलावि वटुंती हुवीअ । अहुणा ‘मम सरिच्छो नन्नो' इह मंदूसाहेण तुम्हम्मि एआरिसी सिप्पकला न संभविहिइ”। - एवं सो सरहस्सं पिउवयणं सोच्चा पाउसु पडिऊण पिउत्तो पसंसाकरावण-सरूवनिआवराहं खामेइ, परंतु सो सोमदत्तो तओ आरब्भ तारिसिं सिप्पकलं काउं असमत्थो जाओ। खण्ड १ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जमस्स फलं १० एगया भोयनरिंदस्स सहाए दुण्णि विउसा समागया । तेसु एगो नियइवाई — 'जं भावीजं नन्नहा होइ' । अओ सो उज्जमं विणा भावि चिय मन्ने । अन्नो पंडिओ – 'उज्जममेव फलदाणे पमाणेइ,' जओ अलसा कं पि फलं न लहंति, जओ वुत्तं "उज्जमेण हि सिज्झंति, कज्जाई, न पमाइणो । न हि सुत्तस्स सिंघस्स, पविसंति मिगा मुहे ।। " एवं बीओ उज्जमेण फलवाई अत्थि । भोयनरिंदेण ते दोवि आगमणपओयणं पुट्ठा, ते कहिंति – 'विवायनिण्णयत्थं तुम्हाणमंतिए अम्हे आगया' । रण्णा वुत्तं — 'तुम्हाणं जो विवाओ अत्थि तं कहेह' । तया ते दुण्णि वि नियं मयं जुत्तिपुरस्सरं निवइणो पुरओ ठवेइरे । राया विआरेइ – 'एत्थ किं परमत्थआ सच्वं ?, तं च कहं जाणिज्जइ '? तया निण्णेउमसमत्थो 'कालीदासपंडिअं पुच्छइ – 'एएसि नाओ कहं किज्जइ ? किं व उत्तरं दिज्जइ ?' कालीदासो कहेइ — “हे नरिंद! जह दक्खाए रसो चक्खिज्जमाणो महुरो खट्टो वा नज्जइ, तह य एयाण विवाओ कसिज्जइ, तेण सच्चो असच्चो वा जाणिज्जइ " । राया कहेइ - ' कसणकिरियाए अत्थि को वि उवाओ ?, जइ सिया, तया कसिज्जउ' । कालीदास तया ते दुणि विउसे बोल्लाविऊण तेसि नेत्ताइं पडेण बंधित्ता, दुवे य हत्थे पिट्ठस्स पच्छा बंधिअ, पाए गाढयरं निअंतिअ अंधयारमए अववरगे ठवेइ, कहेइ य “जो दइव्ववाई सो दइव्वेण छुट्टड, जो उज्जमवाइ सो उज्जमेण छुट्टेज्जा" एवं कहिऊण सो पच्छा नियत्तो । तओ जो नियइवाई सो 'जं भावि तं होहिइ' त्ति मन्नमाणो निचितो समाणो सुहेण तत्थ सुत्तो । उज्जमवा जो, सो छुट्टणाय बहुं उज्जमं कुणेइ । हत्थे पाए अ भूमीए उवरिं इओ तओ घंसेइ, परंतु गाढयरबंधणत्तणेण जया सो न छुट्टिओ, तया सो न छुट्टिओ, तया नियइवाई विउसो कहेइ — “ किं मुहा उज्जमकरणेण, एसो निविडो बंधो कया वि न छुट्टिहिइ ? निप्फलेण बलहाणिकारणायासेण किं ?, खुहापिवासापीलिआणं पि अम्हाणं नियईए सरणं चिअ वरं । १९४ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं सोच्चा वि उज्जमवाइपंडिओ छुट्टिणपयासं न चइए । छुट्टा पयासं कुणेइ । एवं तेसि दुवे दिणा अक्ककंता । भोयणाभावेण सरीरं पि ताणमईव झी संजायं, कज्जकरणे वि असमत्थं जायं, तह वि उज्जमवाई पयासहीणाववरगे इओ तओ भममाणो बंधमाओ मोअणाय जत्तं न मुंचेइ । नियइवाई तं वएइ – “अहुणा परमेसरस्स नामं गिण्हसु, किमायासकरणेण फलरहिएण ?” । तया सो उज्जमवाइ कहे – “समावने वि मरणे उज्जमो कया वि न मोत्तव्वो, सया वि उज्जमसीलेण जण होयव्वं" । नियइवाई बोल्लेइ – 'जइ एवं ता अंधारिए एयंमि अववरगे पाए हत्थे अघसमाणा भमंता चिट्ठेह, उज्जमो फलं दाही ?" तह वि सो उज्जमवाइ पंडिओ खीणसरीरबलो तइअदिणंमि भित्तिनिस्साए भमंतो हत्थे पाए य घसमाणो पडतो पुणरवि घसंतो भमंतो दइववसाओ अववरगस्स कोणगे तत्थ पडिओ, जत्थ उंदुरस्स बिलं वट्टइ । तस्स हत्था बिलोवरिं समागया । तओ रंधमज्झट्ठिओ मूसओ बाहिरं निग्गंतुमचयंतो दंतेहिं तस्स हत्थबंधणं छिंदेइ, तया सो छुट्टिओ समाणो नेत्तपडं पायबंधणं च अवसारेइ । सो तया अववरगे गाढयरतमेण किमवि न पासेइ । अस्स अववरगस्स दारं कत्थ अस्थि त्ति भित्तिफासणेण निरिक्खंतेण तेण कमेण लद्धं । बाहिरओ पिणद्धं तं पासिऊण कट्ठेण तं दारं मूलाओ उत्तारिअ बाहिरं सो निग्गओ । पच्छा देव्वावाइं पंडिअं पि बंधणाओ मोइ । , पच्छण्णठाणे ठिओ कालीदासो सव्वं निरूवेइ । जया ते दुवे बाहिरनिग्गए पासेइ, पासित्ता ते घेत्तूण नियघरंमि गओ । सम्मं अन्नपाणेहिं सक्कारित्ता सम्माणित्ता य निवसहाए ते विउसे गहिऊण समागओ । भोयनरिंदं कहे — 'उज्जमेण जिअं, नियईए पराइअं ' ति, जओ उज्जमवाई पंडिओ उज्जमेण छुट्टिओ अवरो उज्जमाभावाओ न छुट्टिओ । 'जो नियइमेव पहाणं मन्ने सो पमाई कहिज्जइ' । जत्थ पद्माओ तत्थ खुहा पिवासा दुक्खं मरणं च अवस्सं संभवेइ । जो उज्जमं कुणइ सो कयाइ दुक्खाओ मुंचइ, किंपि य फलं पावेइ । नियइवाई उज्जमेण विणा फलं न लहेज्जा । तओ उज्जमो पहाणो णायव्वो । तओ भोयनरिंदो उज्जमवाइपंडिअं दव्ववत्थाहूसणेहिं सम्माणेइ । नीइसत्थे वि— 'उज्जमे नत्थि दालिद्दं' । अओ उज्जमो कया वि न मोत्तव्वो । खण्ड १ O १९५ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ पद्य-संकलन पाठ १ : अंजना-पवनंजय कथा (गाथा १-३०) प्राकृत शब्द अर्थ प्राकृत शब्द प्राकृत शब्द अर्थ विद्दाणलोयणा = निस्तेज नेत्रवाली पलवइ . = प्रलाप करती थी .. नवरं = बाद में आसासिजइ = सान्त्वना प्राप्त करती थी। वायाए .= वाणी में अइतणुओ = अतिसूक्ष्म .... सवडहुत्तो = सामने अभिट्टा . = भिड़ गये , जोहं = योद्धा ओसरिय = भागती हुई। समय साथ सिग्घं = शीघ्र पडियागओ = वापिस आया हुआ वीसज्जिओ = भेजा गया हूँ वीसत्थो = विश्वस्त . साहीणं = समर्थ (३१-६०) उल्लोल्लो = शोर थम्भल्लीणा = खंभे से टिकी हुई तिप्पइ = तृप्त होती है उब्वियणिज्जा = उद्वेगयुक्त उवट्ठिया = उपस्थित हुई है चलणपणाम = चरण-प्रमाण आयत्तं = अधीन सरेज्जासु = याद किये जाओगे वियम्भन्ती = जंभाई लेती हुई उद्धाई = उंचे जाती है उप्पयइ = उड़ जाती है सरिया = याद की गयी । अकण्णसुहं = सुनने में अप्रिय पसयच्छी ___ = विशाल नेत्रवाली (६१-९०) अग्गीवए = बरामदे में ओणमिय = प्रणाम कर . उब्भिन्नंगो = रोमांचित अंगवाली सासिया = दंडित की गयी वहेज्जासु = प्रदान करें पम्हुससु = भूल जाओ आवडियं = सम्बद्ध हुए निव्वविय = व्यतीत किया १९६ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवन्नाइं . = प्राप्त की निसामेहि : सुनो वयणिज्जअरो = निन्दनीय रयणीमुह उदुसमओ समुज्जमह = प्रभात = ऋतु-समय = उद्यमशील बनो पाठ २ : श्री श्रीपाल कथा गाथा (१.४०). तिजय . = तीन जगत समोसरिओ = उपस्थित हुए अभिगमणं = नमस्कार तिपयाहिणाउ = तीन प्रदक्षिणा परोवयारिक्क तल्लिच्छो - परोपकार में लीन सव्वन्नु = सर्वज्ञ निरुत्तं = वर्णित चाओ = त्याग नवरं = तदनन्तर . अकसायताव = बुरे विचारों से रहित आउत्ते = यत्नपूर्वक . चुज्जकरं = आश्चर्यजनक सव्वड्डि . = सभी ऋद्धियाँ सुगुत्तिगुत्ता = अच्छे रक्षकों से रक्षित (संयमित) अगंजणीया = पार करने में कठिन रसाउलाओ = जलाप्रेम से परिपूर्ण) सवाणियाणि = पानी (बनियों) , संगोरसाणि = दूध-दही (वाणी) से .. . से युक्त : परिपूर्ण (४१-५ ) 'दकालडमरेहिं = अकालरूपी लुटेरे के पयापईओ . = ब्रह्मा, जनक महेसर. = शिवधनाढ्य . गोरी रंभा = पार्वती, किशोरी = अप्सरा, कदली अकयपवेसे = प्रवेश से रहित नरोत्तम = कृष्ण, श्रेष्ठ पुरुष सचीवरा = इन्द्राणी, वस्त्र-युक्त स्त्रियाँ सिरिओ __= लक्ष्मी, सम्पत्ति रई-पीई _ = रति एवं प्रीति (कामदेव-पलियाँ) रइतुल्ला = रति के समान सम्मदिट्ठि = तत्त्वदर्शी . पायं = प्रायः लडहदेहा = सुन्दर शरीर वाली मिच्छादिट्टि = अंध-विश्वासी सावत्तेवि = सोत होने पर भी खण्ड १ १९७ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोवंतरंमि = थोड़े समय में विऊणं = विद्वानों को समिईओ = स्मृति शास्त्र हर-मेहल = चित्रकला के भेद करलाघवाइ = हस्तकला आदि पन्नाअभिओग = प्रज्ञा के संयोग से अक्किट्ठदप्पा = अधिक घमंडी (५१-६१) सगब्भाउ = गर्भयुक्त अज्झावयाण = अध्यापकों को . तिगिच्छं = चिकित्साशास्त्र. कुंडलविटलाई = जादू, इन्द्रजाल चमुक्कार = चमत्कार वियड्डा = चतुर लीलमित्तेण = सरलता से (६२-१०४) तस्सीला = वैसे आचरण वाली विणओणयाउ = विनम्र से नम्र... मेलावडउ . = मिलाप.. आइट्ठा = आदेश प्राप्त . दमिआरी = शत्रु को दमन जीसे = जैसा अणाविआओ = बुलवाया गव्वगहिलाए = घमंड से पूर्ण परिसा = परिषद् परमप्पह = परम-पथ (मोक्ष) करने वाला ... पूरणपवणो = पूर्ण करने में तत्पर नाय . = जानकर अहिवल्ली = पान की बेल पूगतरुणं , सुपारी के वृक्ष ईसि = थोडा उवज्जियं = उपार्जित जुज्जए ___= उचित है . पुन्नबलिओ = पुण्यशाली दम्मिओ = नाराज इंतो . = आये हुए खलिज्जइ = हटाया जा सकता है . मुहप्पियं · ,= मुख पर प्रिय बोलना (१०५-१२५) रइवाडिया = क्रीड़ा उद्यान धमधमन्तो = जलते हुए पिच्छइ = देखता है . साडंबरमियंत = आडंबरपूर्वक आते हुए ससोंडीरा = पराक्रमपूर्ण तयदोसी = दूषित चमड़ी वाला मंडलवइ = मंडल कोढ़ से पीड़ित दडुल = दर्दुर कोढ़ी थइआइत्तो = पानदान धारण करने वाले पसूइयवाया = वातरोग से पीड़ित कच्छादब्बेहिं = खुजली रोग से पीड़ित विउंचिअपामा = पामा खुजली से समन्निया = समन्वित पेडएण = समूह से महीवीढे = पृथ्वी के छोर में पंजिअदाणं = भेंटदान . .. वलिओ = घूमा विअप्पुत्ति - विकल्प (इच्छा) १९८ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्तियमित्ते बोले म घट्ट मद्दलवाय हथलेव कंजिअं तंसि मोहावहीलं नाहत्तणु संसंति सावज्जं हिरणक्कस 'सच्चविय तइया इ लौटता है वीवाहणत्थ विवाह के लिए ऊसअतोरण तोरण सजाये गये = जमलज्जुण कोप्पर = खण्ड १ = = = = = II = = = = = = = = ॥ ॥ = = = = इतने मात्र से नष्ट करूं = = समूह मृदुंग बाजा सायारं स्वयं णिहु निःशब्द अद्धवह आधा मार्ग उप्पाय उत्पत्ति के समय सिंहणोत्थय स्तनों पर आच्छादित दो अर्जुन नामक वृक्ष मध्य पाणिग्रहण व्यर्थ (मांड की तरह) तुम ही हो मोह को त्याग दिया प्रभुता प्रशंसा करते हैं पाप-युक्त (१२६-१६७) अरिभुयं रुयइ जंति पहिहिं हिरण्याक्ष देखे गये उस समय पयडपडाय ओलिज्जमा उफललोय . दूहवेइ (१६८ - १९५) कुहिअं थोड भावलय फिट्टिस्सइ कप्पइ पयनवर्ग = अपहुत्त संठिय करणी महो अहि = वलन कयासो ओसावणि = = = = = - = = = = वियड - उरत्थल अट्ठ तइय-वयं अणायारे = पाठ ३ : लीलावती कथा (१-१०) = = = = = = = = शत्रु बनी हुई रोता है = निराकार में (आकाश में) असमर्थ रखे गए समान समुद्र मर्दन करना लपेटने वाले कुल्ला करना = जाती हुई आनन्दित = ध्वजा लगायी गयी मंडप सजाया गया लोकको चौगुना कर दिया दुःख देता है विनष्ट स्तुति प्रभा का घेरा नष्ट हो जावेगा कहते हैं नौ पद विकट वक्षस्थल की हड्डियों का समूह तीन पैर १९९ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवइ आकाश गब्भिय = सज्जित मसिणिय = घिसे गये सीसट्ठि = सिर पर स्थित कुसुंभुप्पीलो = केशर का रस सलिलुल्लो = जल से गीला = आपकी . (११-२०) जलुप्पीला = जल से भरी हुई फुरंत . = चमकीले वियारणो... = विचारक (आकाशगामी) सुवण्ण = 'अच्छे अक्षर (पत्ते) अइट्ठ = रहित (रात्रि) परिहावं = गुणोत्कर्ष ... भसण-सहावा = प्रलाप करने वाले परम्मुहा = न देखने वाले . .. = झरता है = मख यज्ञ की अग्नि (२१-३०) असार-मइणा = तुच्छ बुद्धि वाले रिक्ख = चंदुज्जए = कुमुद में वेवंतओ = झूमता हुआ: : छप्पओं = भ्रमर तिगिच्छि = मकरन्द पाणासवं = पीने की मद्य सहइ = शोभित होता है .. णिव्वविओ = शीतल दरं-दलिय. = थोड़ी खिली हुई । मालई =, चमेली उद्धरो में उत्कृष्ट विसेसावलि = तिलक-पंक्ति विम्वल = निर्मल घडंति = मिलते हैं · उय = देखो विलोहविज्जंत = आकर्षित अविहाविय = अज्ञात (३१-४०) पवियंभिय = उल्लसित तारालोयं = तारों से भरा आकाश . (स्नेहं से भरी आँखें) __= स्वाधीन (प्राप्य) साहेह = कहो = उसके द्वारा एत्थं = यहाँ सव्वंति = सुनी जाती हैं विनिहाउ = विविध जाउ = जो ताउ = वे मयच्छि = मृगाक्षि असुएण = बिना पढ़े हुए अल्लविङ = कहने के लिए तीरइ ___= संभव है वियडो = विस्तृत, श्रेष्ठ भग्गो = प्रारम्भ हो अकयत्थिएण = सरलता से | = श्रेष्ठ सहीणो २०० प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१-५०) उब्बिबं : डरे हुए पविरल = श्रेष्ठ सुव्वळ = सुनो। वियडोवरोह = विस्तृत नितम्ब पामरजणोहो = किसान-समूह सुव्वसिय = बसे हुए अविउत्तो = सहित सइ = सदा वरवल्लई = श्रेष्ठ वीणादुरुण्णय = ऊँचे उठे हुए (दूर तक फैले हुए पओहराओ = स्तन (पानी से भरी हुइ) वाहीओ = बाँहवाली (बहाने वाली) वाणियाओ = वाणी वाली (पानी वाली) णिण्णाउव्व = नदियों की तरह . (५१-६०) अच्छउ = हैं सेसाइ = शेष लोगों के (खेत) ___= बीत जाती है वोच्छामि = कहता हूँ पडिराविज्जइ = प्रतिध्वनि की जाती है. जण्णग्गि = यज्ञ की अग्नि साणूर = देवघर थूहिया = स्तूप तरणि . = सूर्य णिरंतरतरिय = हमेशा छाये हुए परिसेसिय = छोड़कर आयवत्तं = छाते को विलयाहिं = वनिताओ द्वारा . कलयंठि-उल = कोकिल-समूह दोच्चं = दूत-कर्म . सरसावराह = ताजे अपराध लंपिक्कं = दूर करने वाला लवुप्फुसणा = बूंदों को सोखने विहाइ वाला ॥ ॥ ॥ णासंजलीहि = नथुनों के द्वारा सद्धालुएहि = रसिकों के द्वारा (६१-७०) धुव्वन्ति = धुल जाते हैं तद्दियसियं = उस दिन के भोत्तुं.. . = अनुभव करने हेतु मइलिजंति = मैले हो जाते हैं अविग्गहो = शरीर रहित सव्वंग = समस्त अंग (युद्ध-रहित) (राज्य के सात विष्णु की तरह अंगों से युक्त) शरीर वाला दद्दसणो = दुष्ट दर्शनवाला कुवई = कुपति (पृथ्वीपति) (दुर्लभ दर्शन वाला) ___= नम्र, शत्रुओं को साहसिओ = साहसी झुकाने वाला, दान, धर्म करने वाला परायेपन से रहित णयवरो खण्ड १ २०१ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूमिय सत्तासो = सात अश्व वाला सोमो = चन्द्रमा, सौम्य (निर्भय) भोई = सर्प, भोग करने वाला दोजीहो = दो जीभवाला (दुर्जन) तुंगो = उंचा, स्वाभिमानी समीव = पास से (सेवकों को) बहुलंतदिणेसु = अमावस्या के दिनों में वोच्छिण्ण = रहित मंडल = राज्य (घेरा) तणुयत्तण = दुर्बल (क्षीण) । पट्टी = पीठ (पीछे का भाग) जए = जग में परेहि = दूसरों (शत्रुओं) के द्वारा सच्चविया = देखी गयी है। पिसंगाण = पीले रंग वाले बोलिया = . व्यतीत होती है (भय से पीले) (७१-८०) वम्मह-णिभेण = कामदेव के बहाने लडह-विलयाहि = प्रधान नायिकाओं द्वारा . विरांयति = विलीन हो जाते हैं पहुत्त = प्राप्त । मल्लियामोओ = चमेली का खिलना विसंति . = प्रवेश करते हैं .. गुंदि = मंजरी _ = झुकी हुई मायंद गहणाई = आम्र-कन · पहियाण = पथिकों के लिए (८१-९०) फलुप्पंक = फल-समूह थोऊससंत = थोड़ा साँस लेती हुई पणच्चिराहि = नृत्य करती हुई वाहिप्पइ = बुला रही है णेवच्छो = नैपथ्य —णववरइत्तोव्व' = नये वर की तरह कंकेली = अशोक वृक्ष लुलइ = लोटता है छिप्पंती = छुये जाने पर विवसिज्जइ = वश में किया जाता है विच्छुरिए = प्रकाशमान समं = साथ (९१-१००) कणयायलो = सुमेरु पर्वत णियसि = देखती हो पडिहत्थं = परिपूर्ण चिंचल्लिया = रचना विशेष (सुशोभित) णिडाल __= ललाट वत्तणीओ = मार्ग पत्तत्तं पात्रता = पत्रलेखा (प्राप्त) अविहाविय = अज्ञात ___ पाइया . = पिला दिया है = पान २०२ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गद्य-संकलन माल पाठ १ : भार्या की शील-परीक्षा इन्भो = सेठ अण्णपासंडियदिट्ठी = अन्य पाखंडी मत ___को मानने वाला असब्भं = अश्लील ववहारेण व्यापार के कारण संकेण · = मूल्य भंडं विणिओगं = लेन-देन वोत्तूण कहकर वासगिहं . = शयनकक्ष पइरिक्कं एकान्त चम्मदि . = भुलावा (?) मग्गिओ = खोजा गया अच्छिऊण = रहकर कप्पडिय = कपट वेसछण्णो = वेष धारण . भईए = मजदूरी से किए हुए तुट्ठिदाणं = इनाम, कृपा .. पडिस्सुए = स्वीकार कर . रुक्खाउव्वेय सव्वोउय ___= सब ऋतुओं के कुसलो = . बागवानी में कुशल आवारीए = दुकान में . उम्मत्तिं = प्रशंसा (उन्माद) वीससणिज्जो = विश्वसनीय हीरइ = छुड़ा लिया जायेगा पडिच्छियव्व = स्वीकार किया डिंडी •= राज्याधिकारी जाना चाहिए निच्छुढं = पान की पीक निज्झाइया . = देखी गयी (थूक) उवतप्पामि छत्तीहं मरसाविया =' संतुष्ट करता हूँ पत्थावं = तलाश करूंगा जोगमज्जं = क्षमा कर दी गयी कयंसुपाएहिं = प्रस्ताव = मिलावट वाली शराब = ऑसू गिराने के साथ पाठ २ : ग्रामीण गाडीवान लविय कहावणो कीस . = कहा = मुद्रा (रुपया) = कैसे विक्कायइ घत्तुंपयत्ता ववहारो = बिकाऊ है = ले जाने लगे = झगड़ा खण्ड १ २०३ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणिएल्लियं = लाये हुए अइसंधिओ = ठगाया गया . विक्कोसमाणो = चिल्लाते (रोते) हुए जीवलोगभंतर = जीव लोग से भरा हुआ सक्खी = गवाह महिलियं = महिला को मन्निस्सामि = मानूंगा किलेसेण = कठिनाई से । पाठ ३ : नटपुत्र रोह . . हीलापरायणा = तिरस्कार काहं = करूंगा ... करने वाली उन्भएण = खड़े होकर परिकलिय . = जानकर सिढिलायरो = कम आदर लटुं = प्रेम (प्रियवचन) . करने वाला पडिवन = स्वीकार कर लिया सुत्तुट्ठिओ = सोकर उठा हुआ दंसित्ता = दिखाकर विलक्खमणो : = .लज्जित मन वाला .. पाठ ४ : विचारहीन राजा की कथा माहण = ब्राह्मण वइस्सा = वैश्य लगुड = लट्ठ (डंडा) नएइरे = ले गये। वहाइ _ = वध के लिए पत्थणातिय .. = तीन इच्छाएँ जाइज्जइ = मांगता है मोएह = छोड़ दिये जायं । निक्कासिओ = खारिज कर दिया अप्पित्ता . = अर्पित कर पाठ ५ : शीलवती की कथा वरिवट्टइ = रहता था सगासाओ ___= पास से अणुव्वयाई = अणुव्रत विणस्सरो ___= नाशवान पवन्नाणं = प्राप्त कराने वाला जीवाणमाहारु = जीवों का आधार वासिओ ___= वश में मग्गेइ = खोजने लगी महव्वई = महाव्रती समयनाणं = आत्मा को जानकर अंतिट्ठिएण = भीतर छुपे हुए चव्वेमि चबाता हूँ २०४ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवस्सए विउसीए नज्जइ थीणं निब्भग्गा सारुत्ति उद्दिस्स वुड थूलो 'आणा' सेयं. अणु सीयाले जागरिस् पिहिअ रविति मोणेण = तुरंगमपिट्ठ सावमाणं मारइस्सं = = = = = = = बुढ़ापे में = = = वार्ता द्वारा सद्गति को पाठ ६ : चार दामादों की कथा प्रारम्भ हुआ जामाउणो पारद्धो खज्जरसलुद्धा भोजन रस के लोभी बोहियव्वा नीचे पायतिगं हिट्ठमि नीसारियव्वा निकालना चाहिए भज्ज भार्या मिसिअमन्न मिश्रित अन्न मोटी आज्ञा अच्छा अनुमति 'शीतकाल में जागूँगा = = |||||| = = = उपासरे में पुव्ववयंमि सच्चत्थनाणे विदुषी के जाना जा सकता है सच्चत्थनाणे = बन्द = स्त्रियों की अभागिन = सार है उद्देश्य करके = . चिल्लाते हैं मौन रूप से घोड़े की पीठ अपमानपूर्वक मारूंगा नन्ना वासानईपूरतुल्ल = . धक्कामुक्केण = धक्का-मुक्के से चएज्जा. त्यागते पडिबुद्धो वट्टाए सई साऊ • अइप्पिय पक्कन्नं रोगो अओ सिक्खं अम्ह लद्धवाओ विलसिउ उच्चसरेण थिआ अत्थरणाभावे छाइअवत्थं उइअं मा जुज्झह ताडिज्जमाणो हुति = = = = = = = = दामाद = समझाना चाहिए तीन पाद स्वाद युक्त अत्यन्त प्रिय पकवान रोटी यहाँ से सीख (आशीष ) हमारी = = = = = = = = = = = = = = = = यौवन में सच्चे अर्थ को जानकर सच्चे अर्थ को = जानकर ऐसी दूसरी नहीं है पीव की नदी से भरे हुए के समान प्रतिबोधित हुआ = उपाय प्राप्त कर मनोरंजन के लिए उंचे स्वर में ठहरे बिस्तर के अभाव में बिछाने वाला वस्त्र उचित मत लड़ो पीटा जाने पर होते हैं २०५ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तव पाठ ७ : पुत्रों से अपमानित पिता की कथा थविरो = बूढा परिणाविऊण = विवाह करके वेमणस्सभावेण = वैमनस्स भाव भिन्नघरा ___= अलग-अलग घरवाले के कारण (न्यारे) वारगो... = वारी निबद्धो = बांध दी गयी अपत्तीए = प्राप्ति न होने से अहिले = अखिल (पूरे) हट्टे = दुकान में . अक्खितेयं = आँखों की रोशनी कंपिरं = काँपता है ... तिरक्करिओ = तिरस्कृत होकर कच्छुट्टियं = लंगोटी निक्कासेहरे = निकाल देते .. करिसिन्ति . = खींचते हैं. उवहसन्ति = मजाक बनाते निव्वहिस्सं = व्यतीत करूं : नित्थरणुवायं = छुटकारे का उपाय चोज्जं = आश्चर्य जराजिण्णो = बुढ़ापे से कमजोर सत्तक्खेत्ताइसुं = सात क्षेत्र आदि में पाहेयं = पाथेय आणावियव्वा = मंगवा देना चाहिए मोइस्स = रख दूंगा रणरणायारपुव्वं = झनकार पूर्वक काहिन्ति = करेंगी। वावरियव = खर्च कर देना चाहिए विस्सारियव्वं = भूलना । अईवनिब्बंधेण = अत्यन्त प्रेम के साथ निति ___ = ले जाती है परिहाणाय = पहिनने के लिए धुविआई ___ = धुले हुए जंहसत्तिं . = यथाशक्ति पच्चप्पइ = लौटा देता है मच्चुकिच्चं '= मृत्यु के कार्य को नाइजणं __रिश्तेदारों को जेमाविऊण . = भोजन खिलाकर वेढिए ___ = लिपटे हुए . पाहाणखंडे . = पत्थर के टुकड़े पाठ ८ : अमांगलिक आदमी की कथा = भोला लहेज्जा = प्राप्त होता था । पउरा ___= नागरिक वडा = वार्ताः . अकम्हा अकस्मात् परचक्कभएण = आक्रमण के भय से समाणो = भोजन करता हुआ नेइज्जमाणं = ले जाते हुए चिच्चा = छोड़कर दच्चा = देकर .. पासिहिरे = देखेंगे वयणजुत्तीए = वचन के उपाय से २०६ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __पाठ ९ : शिल्पीपुत्र की कथा अहेसि = था सरिच्छो = समान सगासंमि = पास में निम्मवेइ = निर्माण करना भुल्लं = भूल सिलाह = प्रशंसा सुहम = सूक्ष्म खलणं ___ = त्रुटि अमुगाए = अमुक निम्मवगो = निर्माता सलाहणिज्जो = प्रशंसनीय खुण्णं = खंडित = अन्यथा नहीं . गुत्तं = गुप्त रुप से वाइऊण = बांचकर न तरिस्ससि = समर्थ नहीं होंगे सोहणयर = अच्छे से अच्छे कज्ज्करण . = कार्य करने में सण्हं = बारीक . . तल्लिच्छो = तल्लीन होकर मंदूसाहेण = उत्साह कम हो जाने से हुवीअ गयी (हुई) खामेइ = क्षमा मांगता है नन्नहा .: . पाठ १० : उद्यम का फल विउसा. . = विद्वान. नांओ. . = न्याय कसिज्जइ = परखना होगा . अववरगे = जेल में नियत्तो " = लौट गया -मुंहा व्यर्थ . जत्तं = यल कोणगे = कोने में अचयंतो = न त्यागता हुआ पमाई = प्रमादी अलसा = आलस से नज्जइ जाना जाता है निअंतिअ = जकड़कर छुट्टउ = छूट जाओ घंसेइ = घिसता है पीलिआणं = पीड़ितों के लिए आयास प्रयास रंध ___ = छिद्र कटेण = कष्ट-पूर्वक पहाणो = प्रधान Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ-ग्रंथ १. सिद्धहेमशब्दानुशासन २. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण ३. प्राकृतमार्गोपदेशिका ४. प्राकृत-प्रबोध ५. पउमचरियं ६. सिरिसिरिवालकहा ७. लीलावईकहा ८. पाइअविन्नाणकहा ९. जिनागमकथासंग्रह १०. पाइय-गज्ज-संगहो - आचार्य हेमचंद्र - डॉ. पिशेल - पं. बेचरदास दोशी - डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री - सं. हर्मन जैकोबी : - सं. वाडीलाल जीवाभाई चौकसी - सं. डॉ. ए. एन. उपाध्ये - श्री विजयकस्तूरसूरि - पं. बेचरदास दोशी : - सं. डॉ. राजाराम जैन २०८ प्राकृत स्वयं-शिक्षक Page #250 -------------------------------------------------------------------------- _