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अध्यायों में संस्कृत एवं आठवें अध्याय “प्राकृतपाद" में प्राकृत व्याकरण का अनुशासन किया है। ग्रन्थ के इस स्वरूप में ही क्रमदीश्वर हेमचंद्र का अनुकरण करता है । अन्यथा प्रस्तुतीकरण और सामग्री की दृष्टि से उनमें पर्याप्त भिन्नता है । वस्तुतः वररुचि के “प्राकृतप्रकाश और संक्षिप्तसार" में बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध दिखायी देता है। किन्तु कई स्थलों पर क्रमदीश्वर ने अन्य लेखकों की सामग्री का भी उपयोग किया है। लास्सन ने क्रमदीश्वर के इस ग्रंथ पर अच्छा प्रकाश डाला है । " प्राकृतपाद” का सम्पूर्ण संस्करण राजेन्द्रलाल मिश्र ने प्रकाशित कराया था तथा १८८९ में कलकत्ता से इसका एक नया संस्करण भी प्रकाशित हुआ था ।
(८) मार्कण्डेय - प्राकृतसर्वस्व :
प्राकृत व्याकरणशास्त्र का " प्राकृतसर्वस्व " एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इसके ग्रंथकार मार्कण्डेय प्राच्य शाखा के प्रसिद्ध प्राकृतवैयाकरण थे । १९६८ में प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी अहमदाबाद से प्रकाशित संस्करण में मार्कण्डेय की तिथि १४९० -१५६५ ई. स्वीकार की गयी तथा ग्रंथकार और उनकी कृतियों के सम्बन्ध में विस्तार से विचार किया गया है। मार्कण्डेय ने प्राकृत भाषा के चार भेद किये हैं— भाषा, विभाषा, अपभ्रंश और पैशाची। भाषा के पाँच भेद हैं- महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी । विभाषा के शकारी, चाण्डाली, शबरी, अभीरी और ढक्की ये पाँच भेद हैं। अपभ्रंश के तीन भेद हैं— नागर, ब्राचड और उपनागर तथा पैशाची के कैकई, पांचाली आदि भेद हैं। इन्हीं भेदोपभेदों के कारण डा. पिशल ने कहा है कि महाराष्ट्री जैन, महाराष्ट्री अर्धमागधी और जैनशौरसेनी के अतिरिक्त अन्य प्राकृत बोलियों के नियमों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मार्कण्डेय कवीन्द्र का प्राकृतसर्वस्वं बहुत मूल्यवान है ।
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प्राकृतसर्वस्व के प्रारम्भ आठ पादों में महाराष्ट्री प्राकृत के नियम बतलाये गये
हैं । इनमें प्रायः वररुचि का अनुसरण किया गया है। नौवें पाद में शौरसेनी और दसवें
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पाद में प्राच्या का नियमन है । विदूषक आदि हास्य पात्रों की भाषा को प्राच्या कहा गया है। ग्यारहवें पाद में अवन्ती वाल्हीकी का वर्णन है । बारहवें में मागधी के नियम बताये गये हैं । अर्धमागधी का उल्लेख इसी पाद में आया है। इस प्रकार ६ से १२ पादों को भाषा विवेचन का खण्ड कहा जा सकता है । १३वें से १६ वें पाद तक विभाषा का अनुशासन किया गया है । शकारी, चाण्डाली शाबरी आदि विभाषाओं के नियम एवं उदाहरण यहाँ दिये गये हैं । एक सूत्र में ओड्री (उडिया) विभाषा का कथन है तथा एक में आभीरी का । ग्रंथ के १७वें १८ वें पाद में अपभ्रंश भाषा का तथा १९ वें और २० वें पाद में पैशाची भाषा का नियमन हुआ है। अपभ्रंश के उदाहरण स्वरूप कुछ दोहे भी दिये गये हैं । इस तरह मार्कण्डेय ने अपने समय तक विकसित प्रायः सभी लोक भाषाओं
द्रष्टव्य, आचार्य के. सी. “प्राकृतसर्वस्व " भूमिका ।
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