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को जिनका प्राकृत से घनिष्ठ सम्बन्ध था, अपने व्याकरण में सम्मिलित करने का प्रयत्न किया है। . मार्कण्डेय ने प्राचीन वैयाकरणों के सम्बन्ध में भी कई तथ्य प्रस्तुत किये हैं। इनमे से शाकल्य एवं कौहल निश्चित रूप से प्राकृत के प्राचीन वैयाकरण रहे होंगे, जिनके प्राकृत सम्बन्धी नियमन से प्राकृत व्याकरणशास्त्र समय-समय पर प्रभावित होता रहा है। यद्यपि अभी तक इनके मूल ग्रंथों का पता नहीं चला है। इस तरह मार्कण्डेय का “प्राकृतसर्वस्व” कई दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। पश्चिमीय प्राकृत भाषाओं की प्रवृत्तियों के अनुशासन के लिए जहाँ हेमचंद का प्राकृत व्याकरण प्रतिनिधि ग्रंथ के रूप में प्रसिद्ध है, वहाँ पूर्वीय प्राकृत वैयाकरणों के सम्बन्ध में डॉ. सत्यरंजन बनर्जी ने अपनी पुस्तक में पर्याप्त प्रकाश डाला है।
प्राकृत व्याकरण-शास्त्र के इतिहास में लगभग २-३री शताब्दी से १५-१६वीं शताब्दी तक में हुए इन प्रमुख प्राकृत वैयाकरणों के ग्रंथों से स्पष्ट है कि प्राकृत भाषा के विभिन्न पक्षों पर विधिवत् प्रकाश डाला गया है। प्राकृत भाषा के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से १६वीं से २० वीं शताब्दी तक अनेक प्राकृत के व्याकरण ग्रन्थ लिखे गये हैं। इन्हें दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। (१) १६वीं से १८वीं शताब्दी तक के परम्परागत प्राकृत व्याकरण तथा (२) १९वीं-२० वीं शताब्दी के आधुनिक सम्पादन से युक्त प्राकृत-व्याकरण । इनका परिचय विद्वानों ने प्रस्तुत किया है।
बनर्जी, एस. आर. “द ईस्टर्न स्कूल आफ प्राकृत प्रेमिरियन्स”, कलकत्ता, १९६४ जैन भागचन्द्र “आधुनिक युग में प्राकृत व्याकरण- शास्त्र का अध्ययन-अनुसंधान",
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