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________________ त्रिविक्रम ने अपने प्राकृत व्याकरण में ह, दि, स और ग आदि नयी संज्ञाओं का निरूपण किया है। तथा हेमचंद्र की अपेक्षा देशी शब्दों का संकलन अधिक किया है। हेमचंद्र ने एक ही सूत्र में देशी शब्दों की बात कही थी, क्योंकि उन्होंने “देशीनाममाला” अलग से लिखी है। जबकि त्रिविक्रम ने ४ सूत्रों में देशी शब्दों का नियमन किया है। प्राकृतशब्दानुशासन में अनेकार्थ शब्द भी दिये गये हैं । यह प्रकरण हेम की अपेक्षा विशिष्ट है । प्राकृतशब्दानुशासन पर टीकाएं : त्रिविक्रम के इस ग्रंथ पर स्वयं लेखक की वृत्ति के अतिरिक्त अन्य दो टीकाएं भी लिखी गई हैं। लक्ष्मीधर की " षड्भाषाचंद्रिका" एवं सिंहराज का “प्राकृतरूपावतार” त्रिविक्रम के ग्रंथ को सुबोध बनाते हैं । (१) षड्भाषांचंद्रिका : लक्ष्मीधर ने अपनी व्याख्या लिखते हुए कहा है कि त्रिविक्रम के ग्रन्थ को सरल करने के लिए यह व्याख्या लिख रहा हूँ। जो विद्वान मूलग्रंथ की गूढ़ वृत्ति को समझना चाहते हैं वे उसकी व्याख्यारूप " षड्भाषांचंद्रिका” को देखें वृतिं त्रैविक्रमीगूढ़ां व्याचिख्या सन्ति ये बुधाः । षड्भाषाचंद्रिका तैस्तद् व्याख्यारूपा विलोक्यताम् || वस्तुतः लक्ष्मीधर ने त्रिविक्रम के ग्रंथ को सिद्धान्त कौमुदी के ढ़ंग से तैयार किया है तथा उदाहरण प्राकृर्त के अन्य काव्यों से दिये हैं । प्रस्तुत ग्रंथ में प्राकृत महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिकापैशाची और अपभ्रंश इन छह भाषाओं का विस्तार पूर्वक विवेचन किया है। आगे चलकर इन छह भाषाओं के विवेचन के लिए अन्य कई ग्रंथ भी लिखे गये हैं । उनमें भामकवि - " षड् भाषा - चंद्रिका", दुर्गणाचार्य - " षड् भाषारूपमालिका " ·तथा ’षड्भाषांमंजरी”, “षड्भाषासुवन्तादर्श”, “षड्भाषाविचार ” आदि प्रमुख हैं । (२) प्राकृतरूपावतार : सिंहराज (१५वीं शताब्दी) ने त्रिविक्रम प्राकृत व्याकरण को कौमुदी के ढ़ंग से “प्राकृतरूपावतार” में तैयार किया है। इसमें संक्षेप में संज्ञा, संधि, समास, धातुरूप, तद्धित आदि का विवेचन किया गया है।' संज्ञा और क्रियापदों की रूपावली के ज्ञान के लिए “प्राकृतरूपावतार" कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । कहीं-कहीं सिंहराज ने हेम और त्रिविक्रम से भी अधिक रूप दिये है। रूप गढ़ने में उनकी मौलिकता और सरसता है । (७) क्रमदीश्वर - संक्षिप्तसार : हेमचंद्र के बाद के वैयाकरणों में क्रमदीश्वर का प्रमुख स्थान है। उन्होंने “ संक्षिप्तसार” नामक अपने व्याकरण ग्रंथ को आठ भागों में विभक्त किया है। प्रथम सात हुश द्वारा सम्पादित, प्रका. रॉयल एशियाटिक सोसायटी, सन् १९०९ । १. [२७]
SR No.002253
Book TitlePrakrit Swayam Shikshak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1998
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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