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________________ ने महत्त्वपूर्ण फैन्च भूमिका के साथ इसका सम्पादन किया है। १९५४ में डॉ. मनमोहन घोष ने अंग्रेजी अनुवाद के साथ मूल प्राकृतानुशसन को “प्राकृतकल्पतरु” के साथ (पृ. १५६-१६९) परिशिष्ट १ में प्रकाशित किया है। प्राकृतानुशासन में तीन से लेकर बीस अध्याय हैं। तीसरा अध्याय अपूर्ण है। प्रारम्भिक अध्यायों में सामान्य प्राकृत का निरूपण है। नौवें अध्याय में शौरसेनी तथा दसवें में प्राच्या भाषा के नियम दिये हैं। प्राच्या को लोकोक्ति-बहुल बनाया गया है। ग्याहरवें अध्याय में अवन्ती और बारहवें में मागधी प्राकृत का विवेचन है। इसकी विभाषाओं में शाकारी, चांडाली, शाबरी और टक्कदेशी का अनुशासन किया गया है। उससे पता चलता है कि शाकारी में “क” और टक्की में उद् की बहुलता पाई जाती है। इसके बाद अपभ्रंश में नागर, ब्राचड, उपनागर आदि का नियमन है। अन्त में कैकय, पैशाचिफ और शौरसेनी पैशाचिक भाषा के लक्षण कहे गये हैं। (६) त्रिविक्रम-प्राकृतशब्दानुशासन : त्रिविक्रम १३वीं शताब्दी के वैयाकरण थे। उन्होंने जैनशास्त्रों का अध्ययन किया था तथा वे कवि भी के। यद्यपि उनका कोई काव्यग्रंथ अभी उपलब्ध नहीं है । त्रिविक्रम ने “प्राकृतशब्दानुशासन” में प्राकृत सूत्रों का निर्माण किया है तथा उनकी वृत्ति भी लिखी प्राकृत पदार्थसार्थप्राप्त्यै निजसूत्रमार्गमनजिंगमिषताम्। वृत्तियथार्थ सिद्धचै त्रिविक्रमेणागमक्रमात्क्रियते ॥९। इन दोनों का विद्वत्तापूर्ण सम्पादन व प्रकाशन डा. पी. एल. वैद्य ने सोलापुर से १९५४ में किया है। यद्यपि इससे पूर्व भी मूलग्रंथ का कुछ अंश १८९६ एवं १९१२ में प्रकाशित हुआ था किन्तु यह ग्रंथ को पूरी तरह प्रकाशं में नहीं लाता था। अतः वैद्य ने कई पाण्डुलिपियों के आधार पर ग्रंथ का वैज्ञानिक संस्करण प्रकाशित किया है। इसके पूर्व वि. सं. २००७ में जगन्नाथ-शास्त्री होशिंग ने भी मूलग्रंथ और स्वोपज्ञवृत्ति को प्रकाशित किया था। इसमें भूमिका संक्षिप्त है, किन्तु परिशिष्ट में अच्छी सामग्री दी गई है। प्राकृतशब्दानुशासन में कुल तीन अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय में ४-४ पाद हैं। पूरे ग्रंथ में कुल १०३६ सूत्र हैं। यद्यपि त्रिविक्रम ने इस प्रथ के निर्माण में हेमचंद्र का ही अनुकरण किया है, किन्तु कई बातों में नयी उद्भावनाएं भी हैं। प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय अध्याय के प्रथम पाद में प्राकृत का विवेचन है। तीसरे अध्याय के दूसरे पाद में शौरसेनी (१-२६), मागधी (२७-४२)पैशाची (४३-६३) तथा चूलिका पैशाची (६४-६७) का अनुशासन किया गया है। ग्रंथ के इस तीसरे अध्याय के तृतीय और चतुर्थ पादों में अपभ्रंश का विवेचन है। १. प्राकृत ग्रामर आफ त्रिविक्रम, सोलापुर १९५४ [२६]
SR No.002253
Book TitlePrakrit Swayam Shikshak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1998
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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