SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इन तीनों पादों में कुल ९९ सूत्र हैं, जिनमें प्राकृत व्याकरण समाप्त किया गया है। होएनल ने इतने भाग को ही प्रामाणिक माना है। किन्तु इस ग्रंथ की अन्य चार प्रतियों में चतुर्थपाद भी मिलता है, जिसमें केवल ४ सूत्र हैं। इनमें क्रमशः कहा गया है-१. अपभ्रंश में अधोरेफ का लोप नहीं होता, २. पैशाची में र् और स् के स्थान पर ल और न् का आदेश होता है, ३. मागधी में र् और स् के स्थान पर ल और श् का आदेश होता है तथा ४. शौरसेनी में त के स्थान पर विकल्प से द आदेश होता है। इस तरह ग्रंथ के विस्तार रचना और भाषा स्वरूप की दृष्टि से चंड का यह व्याकरण प्राचीनतम सिद्ध होता है। परवर्ती प्राकृत वैयाकरणों पर इसके प्रभाव स्पष्ट रूप से देखे जाते हैं। हेमचंद्र ने भी चंड से बहुत कुछ ग्रहण किया है। (३) वररुचि-प्राकृत प्रकाश : ___प्राकृत वैयाकरणों में चण्ड के बादं वररुचि प्रमुख वैयाकरण है। प्राकृतप्रकाश में वर्णित अनुशासन पर्याप्त प्राचीन है। अतः विद्वानों ने वररुचि को ईसा की चौथी शताब्दी के लगभग का विद्वान् माना है। विक्रमादित्य के नवरत्नों में भी एक वररुचि थे। वे सम्भवतः प्राकृतप्रकाश के ही लेखक थे। छठी शताब्दी से तो प्राकृतप्रकाश पर अन्य विद्वानों ने टीकाएं लिखना प्रारम्भ कर दी थीं। अत: वररुचि ने ४-५ वीं शताब्दी में अपना यह व्याकरण ग्रंथ लिखा होगा। प्राकृतप्रकाश विषय और शैली की दृष्टि से प्राकृत का महत्त्वपूर्ण व्याकरण है। प्राचीन प्राकृतों के अनुशासन की दृष्टि से इसमें अनेक तथ्य उपलब्ध होते है। प्राकृतप्रकाश में कुल बारह परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद के ४४ सूत्रों में स्वरविकार एवं स्वरपरिवर्तनों का निरूपण है। दूसरे परिच्छेद के ४७ सूत्रों में मध्यवर्ती व्यंजनों के लोप का विधान है तथा इसमें यह भी बताया गया है कि शब्दों के • असंयुक्त व्यंजनों के स्थान पर विशेष व्यंजनों का आदेश होता है। यथा- (१) प 'के स्थान पर व-शाप > सावो; (२) न के स्थान पर ण-वचन> वअण; (३) श, ष के स्थान पर, स-शब्द > सद्दो, वृषभ> वसहो आदि। तीसरे परिच्छेद के ६६ सूत्रों में संयुक्त व्यंजनों के लोप, विकास एवं परिवर्तनों का अनुशासन है। अनुकारी, विकारी और देशज इन तीन प्रकार के शब्दों का नियमन चौथें परिच्छेद के ३३ सूत्रों में हुआ है। यथा १२वें सूत्र मोविन्दुः में कहा गया है कि अंतिम हलन्त म् को अनुस्वार होता है-वृक्षम् > वच्छं, भद्रम् > भदं आदि। पांचवें परिच्छेद के ४७ सूत्रों में लिंग और विभक्ति का अनुशासन दिया गया है। सर्वनाम शब्दों के रूप और उनके विभक्ति प्रत्यय छठे परिच्छेद के ६४ सूत्रों में वर्णित हैं। आगे सप्तम परिच्छेद में तिङन्तविधि तथा अष्टम में धात्वादेश का वर्णन है। प्राकृत का धात्वादेश सम्बन्धी प्रकरण तुलनात्मक दृष्टि से विशेष महत्त्व का है। नवमें परिच्छेद में अव्ययों के अर्थ एवं प्रयोग दिये गये हैं। यथा-णवर: केवले ॥७॥-केवल अथवा [२३]
SR No.002253
Book TitlePrakrit Swayam Shikshak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1998
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy