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एकमात्र के अर्थ में णवर शब्द का प्रयोग होता है । उदाहरणार्थ – एसो णवर कन्दप्पो, एसा णवर सा रई । इत्यादि ।
यहाँ तक वररुचि ने सामान्य प्राकृत का अनुशासन किया है। इसके अनन्तर दसवें परिच्छेद के १४ सूत्रों में पैशाची भाषा का विधान है । १७ सूत्र वाले ग्यारहवें परिच्छेद में मागधी प्राकृत का तथा बारहवें परिच्छेद के ३२ सूत्रों में शौरसेनी प्राकृत का अनुशासन है । प्राकृत व्याकरण के गहन अध्ययन के लिए वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश एवं उसकी टीकाओं का अध्ययन नितान्त अपेक्षित है। महाराष्ट्री के साथ मागधी, पैशाची एवं शौरसेनी का, इसमें विशेष विवेचन किया गया है।
प्राकृतप्रकाश की इस विषयवस्तु से स्पष्ट है कि वररुचि ने विस्तार से प्राकृत भाषा के रूपों को अनुशासित किया है। चंड के प्राकृतलक्षण का प्रभाव वररुचि पर होते हुए भी कई बातों में उनमें नवीनता और मौलिकता है।
(४) सिद्ध हैमशब्दानुशासन :
प्राकृत व्याकरणशास्त्र को पूर्णता आचार्य हेमचंद्र के सिद्धहैमशब्दानुशासन से प्राप्त हुई है। प्राकृतं वैयाकरणों की पूर्वी और पश्चिमी दो शाखाएं विकसित हुई हैं। पश्चिमी शाखा के प्रतिनिधि प्राकृत वैयाकरण हेमचंद्र हैं (सन् १०८८ से ११७२ ) । इन्होंने विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रंथ लिखे हैं । इनकी विद्वत्ता की छाप इनके इस व्याकरण ग्रंथ पर भी है । इस व्याकरण का अनेक स्थानों से प्रकाशन हुआ है। हेमचंद्र के इस व्याकरण ग्रंथ में आठ अध्याय हैं। प्रथम सात अध्यायों में उन्होंने संस्कृत व्याकरण का अनुशासन कियाहै, जिसकी संस्कृत व्याकरण के क्षेत्र में अलग महत्ता है। आठवें अध्याय में प्राकृत व्याकरण का निरूपण है। उसकी संक्षिप्त विषयवस्तु द्रष्टव्य है ।
आठवें अध्याय के प्रथम पाद में २७१ सूत्र हैं। इनमें संधि, व्यजनान्त शब्द, अनुस्वार, लिंग, विसर्ग, स्वर - व्यत्यय और व्यंजन- व्यत्ययं का, विवेचन किया गया है। इस पाद का प्रथम सूत्र अथ प्राकृतम् प्राकृतं शब्द को स्पष्ट करते हुए यह निश्चित करता है कि प्राकृत व्याकरण संस्कृत के आधार पर सीखनी चाहिये । द्वितीय सूत्र बहुलम् द्वारा हेमचंद्र ने प्राकृत के समस्त अनुशासनों को वैकल्पिक स्वीकार किया है। इससे स्पष्ट है कि हेमचंद्र ने केवल साहित्यिक प्राकृतों को, अपितु व्यवहार की प्राकृत के रूपों को ध्यान में रखकर भी अपना व्याकरण लिखा है । इस पद के तीसरे सूत्र आर्षम् ८ ११ । ३ द्वारा ग्रंथकार ने आर्षप्राकृत में भेद स्पष्ट किया है।
इसके आगे के सूत्र स्वर आदि का अनुशासन करते हैं । जिस बात को प्राचीन वैयाकरण चंड, वररुचि आदि ने संक्षेप में कह दिया था, हेमचंद्र ने उसे ने केवल विस्तार से कहा है, अपितु अनेक नये उदाहरण भी दिये हैं । इस तरह प्राकृत भाषा के विभिन्न स्वरूपों का सांगोपांग अनुशासन हेमव्याकरण में हो सका है । '
भायाणी,“प्राकृतव्याकरणकारों (गुजराती), भारतीयविद्या, जुलाई” ९४३, पृ., ४०१-१६
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