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पव, ड ल, च य, थ ध, पफ, आदि परिवर्तनों के सम्बन्ध में संकेत करते हुए भरत ने उनके उदाहरण भी दिये हैं तथा श्लोक १८ से २४ तक में उन्होंने संयुक्त वर्णों के परिवर्तनों को सोदाहरण सूचित किया है और अन्त में कह दिया है कि प्राकृत के ये कुछ सामान्य लक्षण मैंने कहे हैं। बाकी देशी भाषा में प्रसिद्ध ही हैं, जिन्हें विद्वानों को प्रयोग द्वारा जानना चाहिए—
एवमेतन्मया प्रोक्तं किंचित्प्राकृतलक्षणम् । शेषं देशीप्रसिद्धं च ज्ञेयं विप्राः प्रयोगतः ॥
प्राकृत व्याकरण सम्बन्धी भरत का यह शब्दानुशासन यद्यपि संक्षिप्त है, किन्तु महत्त्वपूर्ण इस दृष्टि से है कि भरत के समय में भी प्राकृत व्याकरण की आवश्यकता अनुभव की गयी थी। हो सकता है, उस समय प्राकृत का कोई प्रसिद्ध व्याकरण रहा हो अतः भरत ने केवल सामान्य नियमों का ही संकेत करना आवश्यक समझा है। भरत के ये व्याकरण के नियम प्रमुख रूप से शौरसेनी प्राकृत के लक्षणों का विधान करते हैं। (२) चण्ड - प्राकृतलक्षण :
प्राकृत के उपलब्ध व्याकरणों में चंडकृत प्राकृतलक्षण सर्व प्राचीन सिद्ध होता है । भूमिका आदि के साथ डॉ. रुडोल्फ होएर्नले ने सन् १८८० में बिब्लिओथिका इंडिया में कलकत्ता से इसे प्रकाशित किया था।' सन् १९२९ में सत्यविजय जैन ग्रंथमाला की ओर.. से यह अहमदाबाद से भी प्रकाशित हुआ है । इसके पहले १९२३ में भी देवकीकान्त ने इसको कलकत्ता से प्रकाशित किया था । ग्रंथ के प्रारम्भ में वीर (महावीर ) को नमस्कार किया गया है तथा वृत्ति के उदाहरणों में अर्हन्त (सू. ४६ व २४ ) एवं जिनवर (सूत्र ४८ ) का उल्लेख है। इससे वह जैनकृति सिद्ध होती है । ग्रंथकार ने वृद्धमत के आधार पर इस ग्रंथ के निर्माण की सूचना दी है, जिसका अर्थ यह प्रतीत होता है कि चण्ड के सम्मुख कोई प्राकृत व्याकरण अथवा व्याकरणात्मक मतमतान्तर थे । यद्यपि इस ग्रंथ में रचना काल सम्बन्धी कोई संकेत नहीं है, तथापि अन्तःसाक्ष्य के आधार पर डॉ. हीरालाल जैन ने इसे ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी की रचना स्वीकार किया है।
प्राकृतलक्षण में चार पाद पाये जाते हैं । ग्रंथ के प्रारम्भ में चंड नें प्राकृत शब्दों के तीन रूपों - तद्भव, तत्सम एवं देश्य – को सूचित किया है तथा संस्कृतवत् तीनों लिंगों और विभक्तियों का विधान किया है । तदनन्तर चौथे सूत्र में व्यत्यय का निर्देश करके प्रथमपाद के ५ वें सूत्र से ३५ सूत्रों में स्वर परिवर्तन, शब्दादेश और अव्ययों का विधान है। तीसरे पाद के ३५ सूत्रों में व्यंजनों के परिवर्तनों का विधान है। प्रथम वर्ण के स्थान पर तृतीय का आदेश किया गया
एकं > एगं,
१.
२.
यथा— पिशाची > विसाजी,
कृतं > कदं आदि ।
द्रष्टव्य; “द प्राकृतलक्षणम् एण्ड चंडाज् ग्रैमर आफ द एशिएन्ट प्राकृत " जैन, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ. १८२ ।
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