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प्राकृत के प्रमुख वैयाकरण :
उपलब्ध प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ सभी संस्कृत में लिखे गये हैं। प्राकृत वैयाकरणों एवं उनके ग्रन्थों का परिचय डॉ. पिशल ने अपने ग्रंथ में दिया है। डौल्ची नित्ति ने अपनी जर्मन पुस्तक "ले ग्रामेरिया प्राकृत" (प्राकृत के वैयाकरण) में आलोचनात्क शैली में प्राकृत के वैयाकरणों पर विचार किया है।
इधर प्राकृत व्याकरण के बहुत से ग्रंथ छपकर प्रकाश में भी आये हैं। उनके सम्पादकों ने भी प्राकृत वैयाकरणों पर कुछ प्रकाश डाला है। इस सब सामग्री के आधार पर प्राकृत वैयाकरणों एवं उनके उपलब्ध प्राकृत व्याकरणों का परिचयात्मक मूल्यांकन हमने अन्यत्र किया है। उसकी संक्षिप्त जानकारी यहाँ प्रस्तुत हैं। (१) आचार्य भरत :
प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में जिन संस्कृत आचार्यों ने अपने मत प्रकट किये हैं, इनमें भरत सर्व प्रथम हैं। प्राकृत वैयाकरण मार्कण्डेय ने अपने प्राकृत-सर्वस्व के प्रारम्भ में अन्य प्रचीन प्राकृत वैयाकरणों के साथ भरत को स्मरण किया है। भरत का कोई अलग प्राकृत व्याकरण नहीं मिलता है। भरतनाट्यशास्त्र के १७वें अध्याय में ६ से २३ श्लोकों में प्राकृत व्याकरण पर कुछ कहा गया है। इसके अतिरिक्त ३२वें अध्याय में प्राकृत के बहुत से उदाहरण उपलब्ध हैं; किन्तु स्रोतों का पता नहीं चलता है।
डॉ. पी. एल. वैद्य ने त्रिविक्रम के प्राकृतशब्दानुशासन व्याकरण के १७वें परिशिष्ट में भरत के श्लोकों को संशोधित रूप में प्रकाशित किया है, जिनमें प्राकृत के कुछ नियम
वर्णित हैं। डॉ वैद्य ने उन नियमों को भी स्पष्ट किया है। भरत ने कहा है कि प्राकृत में . . कौन से स्वर एवं कितने व्यंजन नहीं पाये जाते । कुछ व्यंजनों का लोप होकर उनके केवल
स्वर बचते हैं। यथा.. . वच्चंति कगतदयवा लोपं, अत्थं च से वहति सरा। - खघथधमा उण हत्तं उति उत्थं अमुचंता ॥८॥ ... प्राकृत की सामान्य प्रवृत्ति का भरत ने अंकित किया है कि शकार का सकार एवं नकार सर्वत्र णकार होता है। यथा-विष विस, शंका संका आदि। इसी तरह ट ड, ठ ढ,
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द्रष्टव्यः ई. बी. कावेल का मूल लेख तथा उसका अनुवाद-“प्राकृत व्याकरण” संक्षिप्त परिचय, भारतीय साहित्य, १० अंक ३-४, जुलाई-अक्टूबर १९६५ जैन संस्कृत -प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा, छापर, १९७७
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