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अन्य भाषाओं का विकास नहीं हुआ, जबकि प्राकृत की सन्तति निरन्तर बढ़ती रही । किन्तु पालि का साहित्य पर्याप्त समृद्ध है । अतः प्राचीन भारतीय भाषाओं को समझने के लिए पालि भाषा का ज्ञान आवश्यक है
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(ख) अर्धमागधी - आर्ष प्राकृत के अन्तर्गत पालि के अतिरिक्त अर्धमागधी और शौरसेनी प्राकृत भी आती है । यह मान्यता है कि महावीर ने अर्धमागधी भाषा में उपदेश दिये थे। उन उपदेशों को अर्धमागधी और शौरसेनी प्राकृत में संकलित किया गया।
प्राचीन आचार्यों ने मगध प्रान्त के अर्धांश भाग में बोली जाने वाली भाषा को अर्धमागधी कहा है। कुछ विद्वान् इस भाषा को अर्धमागधी इसलिए कहते हैं कि इसमें आधे लक्षण मागधी प्राकृत के और आधे अन्य प्राकृत के पाये जाते हैं । वस्तुतः पश्चिम में शूरसेन (मथुरा) और पूर्व में मगध के बीच इस भाषा का व्यवहार होता रहा है। अतः इसे अर्धमागधी कहा गया होगा । इस भाषा का समय की दृष्टि से ई. पू. चौथी शताब्दी तय किया जाता है ।
(ग) शौरसेनी - शूरसेन (व्रजमण्डल, मथुरा के आसपास) प्रदेश में प्रयुक्त होने वाली जनभाषा को शौरसेनी प्राकृत के नाम से जाना गया है। अशोक के शिलालेखों में भी इसका प्रयोग है। अतः शौरसेनी प्राकृत भी महावीर युग में प्रचलित रही होगी, यद्यपि उस समय का कोई लिखित शौरसेनी ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है । किन्तु उसी परम्परा में प्राचीन आचार्यों ने षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों की रचना शौरसेनी प्राकृत में की है और आगे भी कई शताब्दियों तक इस भाषा में ग्रन्थ लिखे जाते रहे हैं। अशोक के अभिलेखों में शौरसेनी के प्राचीन रूप प्राप्त होते हैं। नाटकों में पात्र शौरसेनी भाषा का प्रयोग करते हैं, अतः प्रयोग की दृष्टि से अर्धमागधी से शौरसेनी प्राकृत व्यापक मानी गयी है। इसका - प्रचार मध्यदेश में अधिक था ।
२. शिलालेखी. प्राकृत
• शिलालेखी प्राकृत के प्राचीनतम रूप अशोक के शिलालेखों में प्राप्त होते हैं । ये शिलालेख ई. पू. ३०० के लगभग देश के विभिन्न भागों में अशोक ने खुदवाये थे । इससे यह स्पष्ट है कि जन-समुदाय में प्राकृत भाषा बहु- प्रचलित थी और राजकाज में भी उसका प्रयोग होता था। अशोक के शिलालेख प्राकृत भाषा की दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण हैं ही, साथ ही वे तत्कालीन संस्कृति के जीते-जागते प्रमाण भी हैं। अशोक ने छोटे-छोटे वाक्यों में कई जीवन-मूल्य जनता तक पहुंचाये हैं। वह कहता है
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पालि साहित्य का इतिहास - डाँ. भरतसिंह उपाध्याय
“भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्मं आइक्खई" - समवायांगसुत्त - सू. ९८ ." मगहद्ध विसयभासानिबद्धं अर्द्धमागही ” – निशीथचूर्णि
प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचात्मक इतिहास - डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री, पृ. ३५
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