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पवन्नाइं . = प्राप्त की निसामेहि : सुनो वयणिज्जअरो = निन्दनीय
रयणीमुह उदुसमओ समुज्जमह
= प्रभात = ऋतु-समय = उद्यमशील बनो
पाठ २ : श्री श्रीपाल कथा
गाथा (१.४०). तिजय . = तीन जगत समोसरिओ = उपस्थित हुए अभिगमणं = नमस्कार तिपयाहिणाउ = तीन प्रदक्षिणा परोवयारिक्क तल्लिच्छो - परोपकार में लीन सव्वन्नु = सर्वज्ञ निरुत्तं = वर्णित चाओ = त्याग नवरं = तदनन्तर . अकसायताव = बुरे विचारों से रहित आउत्ते = यत्नपूर्वक . चुज्जकरं = आश्चर्यजनक सव्वड्डि . = सभी ऋद्धियाँ सुगुत्तिगुत्ता = अच्छे रक्षकों से
रक्षित (संयमित) अगंजणीया = पार करने में कठिन रसाउलाओ = जलाप्रेम से परिपूर्ण) सवाणियाणि = पानी (बनियों) , संगोरसाणि = दूध-दही (वाणी) से .. . से युक्त :
परिपूर्ण
(४१-५ )
'दकालडमरेहिं = अकालरूपी लुटेरे के पयापईओ . = ब्रह्मा, जनक महेसर. = शिवधनाढ्य
. गोरी रंभा
= पार्वती, किशोरी = अप्सरा, कदली
अकयपवेसे = प्रवेश से रहित नरोत्तम = कृष्ण, श्रेष्ठ पुरुष सचीवरा = इन्द्राणी, वस्त्र-युक्त
स्त्रियाँ सिरिओ __= लक्ष्मी, सम्पत्ति रई-पीई _ = रति एवं प्रीति
(कामदेव-पलियाँ) रइतुल्ला = रति के समान सम्मदिट्ठि = तत्त्वदर्शी . पायं = प्रायः
लडहदेहा = सुन्दर शरीर वाली मिच्छादिट्टि = अंध-विश्वासी सावत्तेवि = सोत होने पर भी
खण्ड १
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