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पाठ
नियम : वाच्य कृदन्त-प्रयोग : नि. ८७ : कर्मवाच्य एवं भाववाच्य में सामान्य क्रियाओं के अतिरिक्त विभिन्न कालों
के कृदन्तों का प्रयोग भी क्रिया के रूप में होता है। यथा- .. ... सा. क्रि. प्रयोग
कृदन्त प्रयोग (व) तेण गंथो पढीअइ = . तेण गंथो पढीअमाणो। .. (भ) मए गंथो पढीअईअ = मए गंथो पढिओ। (भ) रामेण गंथो पढिहिइ = रामेण गंथो पढिस्समाणो। .''
(वि) तुमए गंथो पढीअउ = तुमए गंथो पढणीओ। नि. ८८ : कर्मणि कृदन्त प्रयोगों में सामान्य क्रिया में वाच्य प्रत्यय ईअ .या इज्ज __जोड़कर व. कृदन्त प्रत्यय अंत या माण जोड़े जाते हैं। यथा
पढ + ईअ = पढीअ + अंत/माण = पढीअंत, पढीअमाण.
पढ + इज्ज= पढिज्ज + अंत/माण = पढिज्जंत, पढिज्जमाणं नि. ८९ : कर्मवाच्य में कृदन्तो का प्रयोग कर्म के अनुसार पु, स्त्री. एवं नपुं. रूपों में होता है। यथा-
. पढीअंतो (पु), पढीअंती (स्त्री), पढिअंतं (नपुं) । नि. ९० : भू. के कृदन्तों में वाच्य का कोई प्रत्यय नहीं लगता है। वे कर्म के लिंग - के अनुसार प्रयुक्त होते हैं। यथा. पढिओ (पु), पढिआ (स्त्री), पढिअं (नपुं) ९१ : निकट भविष्य में होने वाली क्रिया को सूचित करने के लिए भविष्य
कृदन्तों का प्रयोग किया जाता है। मूल धातु में कर्मवाच्य प्रयोग के लिए इस्समाण प्रत्यय जोड़ा जाता है। यथा
पढ + इस्समाण = पढिस्समाण। नि. ९२ : विधि कृदन्तों का प्रयोग वाच्य में ही होता है। अतः इनमें वाच्य का
कोई प्रत्यय नहीं लगाया जाता। यथा
पढणीओ, पढणीआ, पढणी। नि. ९३ : भाववाच्य में सभी कालों के कृदन्त कर्म न रहने से नपुं. लिंग एकवचन
में ही प्रयुक्त होते हैं। यथाव-हसीअंतं, भू:-हसिअं, भवि-हसिस्समाणं, वि-हसेअव्वं।
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प्राकृत स्वयं-शिक्षक