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बोझिल हो जायगा और वह भाषा भली प्रकार नहीं सीखी जा सकेगी। एक दृष्टि से मातृ-भाषा के माध्यम से ही नयी भाषा को सिखाया जाना चाहिए। इसी बात को हम प्राकृत शिक्षण के संदर्भ में कह सकते हैं। प्राकृत का शिक्षण मातृ-भाषा के माध्यम से किया जाना चाहिए। इससे हम सहजरूप से परिचित मातृ-भाषा से अपरिचित प्राकृत भाषा को सीख सकेंगे। जहाँ हमारी मातृभाषा हिन्दी है वहाँ प्राकृत भाषा का शिक्षण हिन्दी के माध्यम से होना चाहिए।
हम सभी जानते हैं कि भाषा का व्याकरण से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। व्याकरण भाषा को एक स्वरूप प्रदान करती है। यह बात प्राकृत के लिए भी उतनी ही सच है जितनी किसी अन्य भाषा के लिए। वर्तमान में बोलचाल की भाषा का प्रयोग तो व्याकरण के शिक्षण के बिना भी संभव है, किन्तु प्राचीन जनभाषा प्राकृत का सही स्वरूप तो उसके सही ढंग से किये गये शिक्षण से ही प्रकट हो सकेगा। तभी प्राकत एक स्वतंत्र और समृद्ध भाषा के रूप में सीखी जा सकेगी। इसके लिए निम्नांकित शिक्षण-सोपानों को अपनाना जरूरी है
१. प्राकृत भाषा के शिक्षण के लिए प्राकृत व्याकरण का शिक्षण विशेष महत्त्व रखता है। अभी तक प्रचलित शिक्षण पद्धति में प्रायः प्राकृत व्याकरण के सूत्रों को रटाने, शब्दरूपों एवं क्रियारूपों को स्मरण कराने पर अधिक जोर दिया जाता रहा है। इससे भाषा की पकड़ नहीं आती। अतः यदि छात्रों को पहले व्याकरण के मूलभूत सिद्धान्त, प्रत्यय, विभक्ति-प्रयोग आदि का अभ्यास कराया जाय और उसके बाद उनके सीखे गये ज्ञान को सूत्रों से जोड़ दिया जाय तो वे प्राकृत्त के स्वरूप को हृदयंगम कर लेंगे। अतः प्राकृत व्याकरण-शिक्षण में विस्तार से संक्षेप की ओर जाने की प्रवृत्ति शिक्षार्थियों को सूत्रज्ञान का
अधिक लाभ दे सकेगी। ..: २. विभक्ति ज्ञान, शब्दरूप, क्रियारूप आदि रटने से स्थायी नहीं होते, अपितु • इससे विभिन्न रूपों में भ्रान्ति पैदा हो जाती है। इसके स्थान पर यदि पहले उपयोगी वाक्यों के प्रयोग द्वारा शिक्षार्थी को प्रत्येक रूप का बार-बार अभ्यास कराया जाय तथा एक ही विभक्ति के विभिन्न रूपों को एक साथ रखकर उनकी तुलना करायी जाय तो वह शीघ्र ही मूल शब्द और विभक्ति-प्रत्यय को पहिचानने लगेगा। इसके बाद उसे व्याकरण के उन नियमों का ज्ञान कराया जाय जो शब्द और प्रत्यय को जोड़ने में सहायक हैं। प्रसतुत प्राकृत स्वयं-शिक्षक (खण्ड-१) में इसी पद्धति को अपनाया गया है। प्रयोग के अभ्यास से व्याकरण के नियमों तक शिक्षार्थी को ले जाने का यह विनम्र प्रयास है।
३. प्राकृत शिक्षण के लिए पाठ्यक्रम में निर्धारित प्राकृत साहित्य का भी उपयोग किया जा सकता है। साहित्य के पाठों का केवल भावार्थ या आशय समझाकर ही शिक्षण न किया जाय, अपितु पाठ के शब्दार्थ और शब्द-स्वरूप पर विशेष ध्यान
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