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बहुत सी हिन्दी की क्रियाएँ भी प्राकृत की हैं, जिनमें शब्द एवं अर्थ की समानता
है। यथा
प्राकृत
उड्ड
कुद्द
चुक्क
छुट्ट
देख
डंस
१.
हिन्दी
उड़ना
कूदना
चूकना
छूटना
देखना
डंसना
प्राकृत
कड्ढ
कुट्ट
चमक्क
भुल्ल
बुज्झ
हिन्दी
काढ़ना
भूलना
बूझना
लुक्क
लुकना
इस प्रकार प्राकृत भाषा का विकास किसी क्षेत्र या काल विशेष में आकर रुक नहीं गया है, अपितु प्राकृत ने प्रत्येक समय की बहुप्रचलित जनभाषा के अनुरूप अपने स्वरूप को ढाल लिया है। अर्थात् उस जनभाषा की संरचना, शब्द- सम्पत्ति एवं साहित्य के विकास में प्राकृत ने अपनी प्रवृत्तियाँ समर्पित कर दी हैं । यहीं कारण है कि प्राकृत देश की इन सभी भाषाओं से अपना सम्बन्ध कायम रख सकी है। अतः प्राकृत के अध्ययन एवं शिक्षण से देश की विभिन्न भाषाओं के प्रचार- प्रसार को बल मिलता है। देश की अखण्डता और चिन्तन की समन्वयात्मक प्रवृत्ति प्राकृत भाषा के माध्यम से दृढ़ की जा सकती है, किन्तु इसके लिए प्राकृत भाषा के शिक्षण की सही दिशाएँ खोजनी होंगी ।
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कूटना
चमकना
प्राकृत-शिक्षण'
प्रश्न यह है कि प्राकृत भाषा का शिक्षण कैसे हो ? उत्तर में यह कहा जा सकता है कि इसका शिक्षण उसी तरह होना चाहिए जिस तरह हम किसी अपरिचित वस्तु का शिक्षण कराते हैं । यह बात सरलतया समझी जा सकती है कि हम अपरिचित का शिक्षण अपरिचित से नहीं कर सकते। यदि हम परिचित का सम्बन्ध अपरिचित से जोड़ दें तो अपरिचित धीरे-धीरे परिचित की कोटि में आ जायगा । भाषा शिक्षण के संदर्भ में भी हम यह कह सकते हैं कि यदि परिचित भाषा से अपरिचित भाषा का सम्बन्ध क्रमानुसार जोड़ दिया जाय तो अपरिचित भाषा परिचित भाषा बन जायेगी और तब यह कहा जा सकेगा कि एक नयी भाषा सीख ली गयी। मान लीजिए, हमें तमिल भाषा का शिक्षण उत्तरी भारत के कालेजों में करना है । हमें इसके लिए क्या पद्धति अपनानी होगी ? वास्तव में इसके शिक्षण के लिए हमें भली प्रकार से परिचित किसी भाषा अथवा मातृभाषा का माध्यम ही अपनाना होगा । माध्यम के चुनाव में गलती करने पर तमिल भाषा का सीखना
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द्रष्टव्य- “प्राकृत शिक्षण की दिशाएँ" - डॉ. कमलचंद सोगाणी एवं डाँ. प्रेम सुमन जैन का लेख (प्राकृत एवं जैनागम विभाग, संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा १९८१ में आयोजित यू. जी. सी. सेमीनार में पठित) ।