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________________ प्रकाशित)। उसका यह परिणाम हुआ कि प्राकृत के कई प्रेमियों ने मुझे प्राकृत भाषा की और अधिक सरल - सुबोध पुस्तक लिखने की प्रेरणा दी। उदयपुर के मेरे विद्वान मित्र डॉ. कमलचंद सोगाणी मुझसे घंटों इस सम्बन्ध में चर्चा करते कि प्राकृत सिखाने. की कोई नयी शैली निकालो। उनके साथ विभिन्न भाषाओं के व्याकरणों की कई पुस्तकें देखी गयीं किन्तु प्राकृत भाषा के अनुरूप एक नयी शैली ही तय करनी पड़ी; जिसमें सीखने वाले पर कम से कम रटाने आदि का भार पड़े। वह अभ्यास से ही बहुत कुछ सीख जाये । उस नवीन शैली का आकार रूप है - प्रस्तुत - प्राकृत स्वयं-शिक्षक खण्ड १। प्राकृत स्वयं - शिक्षक खण्ड १ में यह मानकर प्राकृत का अभ्यास कराया गया है कि सीखने वाले को प्राकृत बिल्कुल नहीं आती। संस्कृत से वह परिचित नहीं है।. अतः उसे प्राकृत के सामान्य नियमों का ही विभिन्न प्रयोगों और चार्टो द्वारा अभ्यास कराया गया है। सर्वनाम, क्रिया, संज्ञा आदि के नियम पाठों के अन्त में दिये गये हैं ताकि सीखने वाले के अभ्यास में बाधा न पहुँचे। प्राकृत वैयाकरणों के मूलसूत्र नियमों में नहीं दिये गये हैं क्योंकि प्राकृत के प्रारम्भिक विद्यार्थी का शिक्षण उनके बिना भी हो सकता है। · इस पुस्तक में इस बात का ध्यान भी रखा गया है कि पाठक जिन प्राकृत शब्दों, क्रियाओं, अव्ययों एवं सर्वनामों से परिचित हो चुका है उन्हीं का अभ्यास करे। • उसने शब्दकोष या क्रियाकोश से जो नयी जानकारी प्राप्त की है, उसका अभ्यास वह आगे के पाठ द्वारा करता है। इसी तरह आगे के पाठों में उसे पीछे सीखे गये पाठों का भी अभ्यास करने को कहा गया है। इस तरह उसका अर्जित ज्ञान ताजा बना रहता है। पूरी पुस्तक के अभ्यास कर लेने पर पाठक लगभग ६०० प्राकृत शब्दों, २०० क्रियाओं, ५० अव्ययों, १०० विशेषण शब्दों, ५० तद्धित शब्दों तथा प्रमुख सर्वनामों के प्रयोग का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। प्राकृत में शब्दरूपों एवं क्रियारूपों में विकल्पों का प्रयोग बहुत होता है। प्राकृत जनभाषा होने से यह स्वाभाविक भी है। इस पुस्तक में पाठक को प्रायः शब्द या क्रिया के एक ही रूप का ज्ञान कराया गया है ताकि वह प्राकृत भाषा के मूल स्वरूप को पहिचान जाय । विकल्प रूपों का अध्ययन वह बाद में भी कर सकता है। इस अध्ययन की रूपरेखा भी प्रस्तुत पुस्तक में दे दी गयी है। पुस्तक के अन्त में प्राकृत के गद्य-पद्य पाठों का संकलन दिया गया है। इस संकलन में जो वैकल्पिक रूप प्रयुक्त हुए हैं उन्हें एक साथ संकलन के पूर्व दे दिया गया है और उनके सामने पाठक ने जिन प्राकृत रूपों की जानकारी प्राप्त की है वे दे दिये गये हैं। इस चार्ट से पाठक आसानी से समझ लेता है कि कमलानि के स्थान पर कमलाई, गच्छइ के स्थान पर गच्छेइ, जाणिऊण के लिए णच्चा आदि के प्रयोग भी प्राकृत में होते हैं। संकलन पाठ बी. ए. एवं डिप्लोमा के पाठ्यक्रम को ध्यान में रखकर दिये गये हैं तथा उनके शब्दार्थ देकर पाठों को समझने में सरलता प्रदान की गयी है। इस तरह इस पुस्तक में थोड़े [vi] ·
SR No.002253
Book TitlePrakrit Swayam Shikshak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1998
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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