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________________ प्रस्तावना ( प्रथम संस्करण ) विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों एवं अनुसन्धान के क्षेत्र में विगत कुछ वर्षों में प्राकृत भाषा एवं साहित्य को विशेष महत्व प्राप्त होने लगा है। परिणाम स्वरूप राजस्थान के विविद्यालय में भी विभिन्न स्तरों पर प्राकृत के पठन-पाठन का शुभारम्भ हुआ है। उदयपुर विश्वविद्यालय के जैन विद्या विभाग में इस समय बी. ए., एम. ए., डिप्लोमा एवं सर्टिफिकेट पाठ्यक्रमों में प्राकृत भाषा का शिक्षण हो रहा है। प्रसन्नता की बात है कि महाराष्ट्र एवं गुजरात के माध्यमिक शिक्षा बोर्डों की तरह राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, अजमेर ने भी सैकण्डरी परीक्षा में १६८० से प्राकृत को एक वैकल्पिक विषय के रूप में स्वीकार किया है। इससे राजस्थान में प्राकृत के पठन-पाठन को बहुत बलं मिलेगा। प्राकृत के शिक्षण की ये सब व्यवस्थाएँ तभी कारगर हो सकती हैं जब सरल-सुबोध शैली में प्राकृत भाषा का कोई व्याकरण उपलब्ध हो तथा आधुनिक अभ्यास पद्धतियों से युक्त प्राकृत की पाठ्य-पुस्तकें प्रकाशित हों। इस दिशा में प्राकृत विद्वानों का प्रयत्न अभी नगण्य ही कहा जायेगा। प्राकृत व्याकरण की जो : पुस्तकें वर्तमान में उपलब्ध हैं वे परम्परागत होने से संस्कृत भाषा को मूल में रखकर प्राकृत सीखने-सिखाने का प्रयत्न करती हैं, इससे प्राकृत का कभी स्वतंत्र भाषा के रूप में अध्ययन नहीं किया गया। प्राकृत स्वयं समृद्ध होते हुए भी नगण्य बनी रही। - प्राय: यह मिथ्या धारणा प्रचलित हो गयी कि संस्कृत में निपुणता प्राप्त किये बिना प्राकृत नहीं सीखी जा सकती। संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश ये सब भाषाएँ एक दूसरे के ज्ञान में पूरक अवश्य हैं, किन्तु इनका शिक्षण और मनन स्वतंत्र रूप से भी किया जा सकता है। तभी उनकी समृद्धि का उचित मूल्यांकन हो सकता है। किन्तु इसके लिए आवश्यक है कि प्राकृत-शिक्षण का सरलतम एवं सारगर्भित मार्ग प्रशस्त हो.। प्राकृत के विद्वान् शोघ-अनुसंधान के कार्यों के अतिरिक्त प्राकृत भाषा एवं उसकी पाठ्य-पुस्तकों के निर्माण में भी थोड़ा श्रम और समय लगायें। ___प्राकृत भाषा के प्रचार-प्रसार को दृष्टि में रखते हुए विगत वर्षों में हमने कतिपय सोपान पार किये हैं। १६७३ में आदर्श साहित्य संघ, चूरू से हमारी प्राकृत-चयनिका प्रकाशित हुई। १६७४ में प्राकृत काव्य-सौरभ एवं अपभ्रंश काव्यधारा प्रकाश में आयी। इनसे पाठ्यक्रम के अन्य उद्देश्य तो पूरे हुए, किन्तु वह संतोष नहीं हुआ, जो प्राकृत भाषा के शिक्षण के लिए आवश्यक था। १६७८ में तीर्थंकर' मासिक में प्राकृत सीखें के पाठ धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुए (अब पुस्तिका रूप में [v]
SR No.002253
Book TitlePrakrit Swayam Shikshak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1998
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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