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________________ प्रचलित थी उसे प्रथम स्तरीय प्राकृत कहा जा सकता है। महावीर युग में ईसा की द्वितीय शताब्दी तक आगम-ग्रंथों, शिलालेखों एवं नाटकों आदि में प्रयुक्त भाषा को द्वितीय स्तरीय प्राकृत नाम दिया जा सकता है और तीसरी शताब्दी के बाद ईसा की छठी-सातवीं शताब्दी तक प्रचलित एवं साहित्य में प्रयुक्त प्राकृत को तृतीय स्तरीय प्राकृत कह सकते हैं। इन तीनों स्तरों की प्राकृत के स्वरूप को संक्षेप में समझने के लिए पहले वैदिक भाषा और प्राकृत के सम्बन्ध को समझना होगा। प्राकृत की मूल भाषा वैदिक युग के समकालीन प्रचलित एक जन-भाषा थी। उसी से वैदिक एवं प्राकृत भाषा का विकास हुआ। अतः उस मूल लोकभाषा में जो विशेषताएँ थीं वे दाय के रूप में वैदिक भाषा और प्राकृत को समान रूप से मिली है। प्रथम स्तरीय प्राकृत के स्वरूप को जानने के लिए वैदिक भाषा में प्राकृत के जो तत्त्व होते हैं, उनका गहराई से अध्ययन किया जाना आवश्यक है। । यद्यपि प्रथम स्तरीय प्राकृत का साहित्य अनुपलब्ध है, तथापि महावीर युगीन द्वितीय स्तरीय प्राकृत की प्रवृत्तियों के प्रमाण वैदिक भाषा (छान्दस्) के साहित्य में प्राप्त होते हैं। डॉ. गुणे के अनुसार-“प्राकृतों का अस्तित्व निश्चित रूप से वैदिक बोलियों के साथ-साथ विद्यमान था। वस्तुतः ऋग्वेद की भाषा में भी कुछ सीमा तक हमें प्राकृतीकरण देखने को मिलता है। आधुनिक भाषाविदों की व्याख्या के अनुसार यह मूल प्राकृत भाषाओं के कारण है जो कि प्राचीन भारतीय आर्यभाषा (छान्दस्) की बोलियों के साथ-साथ उस समय निश्चित रूप से प्रचलित थीं जबकि वैदिक सूक्त रचे जा रहे थे। यहाँ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि साहित्यिक छान्दस् की जन-भाषा में छान्दस् भाषा और प्राकृत के तत्त्व मिले-जुले रूप में उपस्थित थे। यही कारण है कि ऋग्वेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण आदि • छान्दस् साहित्य में प्राकृतीकरण के तत्त्व उपस्थित हैं। छान्दस् साहित्य में शब्दों के प्राकृतीकरण के साथ-साथ प्राकृत के व्याकरणात्मक तत्त्व भी महावीर युगीन प्राकृत के अनुसार प्राप्त होते हैं। इसीलिए डॉ. पिशेल ने भी कहा है-"सब प्राकृत भाषाओं का वैदिक व्याकरण और शब्दों का नाना स्थलों में साम्य है। विद्वानों ने इन निष्कर्षों के परिप्रेक्ष्य में हमने अपने उपर्युक्त लेख में वैदिक भाषा में प्राकृत के जिन तत्त्वों की जानकारी १. . द्रष्टव्य-"वैदिक भाषा में प्राकृत के तत्त्व"-डॉ. प्रेम सुमन जैन एवं डॉ. उदयचंद जैन का लेख (प्राकृत एवं जैनागम विभाग, संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा १९८१ में आयोजित यू. जी. सी. सेमिनार में पठित) तुलनात्मक भाषा-विज्ञान- डॉ. पी. डी. गुणे, पृ. १५३ ।। प्राकृत भाषाएँ और भारतीय संस्कृति में उनका अवदान-डॉ. कत्रे, पृ. ५९ 'प्राकृत शिक्षण की दिशाएँ"-डॉ. के. सी. सोगाणी एवं डॉ. प्रेम सुमन जैन का पूर्वोल्लिखित लेख। प्राकृत भाषाओं का व्याकरण-डॉ. पिशेल (अनु), पृ. ८
SR No.002253
Book TitlePrakrit Swayam Shikshak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1998
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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