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________________ चन्दमऊएहिं णिसा, णलिनी कमलेहिं कुसुमगुच्छेहिं लआ । हंसेहिं सरहसोहा, कव्वकहा सज्जणेहिं करइ गरुड़ । (२-५० टीका ) . - रात्रि चंद्रमा की किरणों से, नलिनी कमलों से, लता पुष्प के गुच्छों से, हंसों से (और) काव्यकथा सज्जनों से अत्यन्त शोभा को प्राप्त होती हैं । शरद् अलंकारों के प्रयोग में भी प्राकृत गाथाएँ बेजोड़ हैं। प्रायः सभी अलंकारों के उदाहरण प्राकृत काव्य में प्राप्त हैं । अलंकारशास्त्र के पंडितों ने अपने ग्रंथों में प्राकृत गाथाओं को उनके अर्थ-वैचित्र्य के कारण भी स्थान दिया है। एक-एक शब्द के कई अर्थ प्रस्तुत करने की क्षमता प्राकृत भाषा विद्यमान है । गाथासप्तशती में ऐसी कई गाथाएँ हैं जो शृंगार और सामान्य दोनों अर्थों को व्यक्त करती हैं । अर्थान्तरन्यास प्राकृत काव्य का प्रिय अलंकार है । सरस्वतीकण्ठाभरण का एक उदाहरण द्रष्टव्य है— ते विरला सप्पुरिसा, जे अभणन्ता घडेन्ति कज्जालावे । थोअ च्चिअ ते वि दुमा, जे अमुणिअ कुसुमणिग्गमा देन्ति फलं ॥ (स. कं. ४-१६२; सेतुबन्ध ३ - ६ ) जो बिना कुछ कहते हुए ही काम बना देते हैं वे सत्पुरुष विरले हैं। वे वृक्ष भी थोड़े ही (है), जो फूलों के निकलने को न जानते हुए फल देते हैं । “इस प्रकार काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों का प्रतिपादन करते समय आनन्दवर्धन, भोजराज, मम्मट, विश्वनाथ, पंडितराज जगन्नाथ आदि अलंकारिकों द्वारा काव्य-लक्षणों के उदाहरणों के लिए प्राकृत पद्यों को उद्धृत करना प्राकृत के साहित्यिक सौन्दर्य का परिचायक है । " इस प्रकार वैदिक युग, महावीर युग एवं उसके बाद के विभिन्न कालों में प्राकृत भाषा का स्वरूप क्रमशः स्पष्ट हुआ है और उसका महत्त्वं विभिन्न क्षेत्रों में बढ़ा है । भारतीय भाषाओं के आदिकाल की जन- भाषा से विकसित होकर प्राकृत स्वतंत्र रूप से विकास को प्राप्त हुई । बोलचाल और साहित्य के पद, पर वह समान रूप से प्रतिष्ठित रही है। उसने देश की चिन्तनधारा, सदाचार और काव्य-जगत् को अनुप्राणित किया है, अत: प्राकृत भारतीय संस्कृति की संवाहक भाषा है । प्राकृत ने अपने को किसी घेरे में कैद नहीं किया। इसके पास जो था उसे वह जन-जन तक बिखेरती रही और जनसमुदाय में जो कुछ था उसे वह बिना हिचक ग्रहण करती रही। इस तरह प्राकृत भाषा सर्वग्राह्य और सार्वभौमिक भाषा है। प्राकृत के स्वरूप की ये कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं, जो प्राचीन समय से आज तक लोक-मानस को प्रभावित करती रहीं हैं । वैदिक भाषा और प्राकृत प्राकृत भाषा के स्वरूप को प्रमुख रूप से तीन अवस्थाओं में देखा जा सकता है। वैदिक युग से महावीर युग के पूर्व तक के समय में जन-भाषा के रूप में जो प्राकृत “प्राकृत शिक्षण की दिशाएँ” – वही । १. [ ४ ]
SR No.002253
Book TitlePrakrit Swayam Shikshak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year1998
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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