Book Title: Prachin Gurjar Kavya Sanchay
Author(s): H C Bhayani, Agarchand Nahta
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRĀCĪNA GŪRJARA KĀVYA SAŃCAYA EDITED BY L. D. SERIES 40 GENERAL EDITOR DALSUKH MALVANIA DR. H. C. BHAYANI SHRI AGARCHAND NAHTA भारतीय . INSTITUTE OF INDOLOGY AHMEDABAD Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRĀCĪNA GŪRJARA KĀVYA SAÑCAYA tej228 to (! L. D. SERIES 40 EDITED BY GENERAL EDITOR DALSUKH MALVANIA DR. H. C. BHAYANI SHRI AGARCHAND NAHTA HIA L. D. INSTITUTE OF INDOLOGY AHMEDABAD - 9 मदानाव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Printed by Swami Tribhuvandas Shastri, Shree Ramananda Printing Press, Kankaria Road, Ahmedabad 22. and published by Dalsukh Malvania Director L. D. Jostitute of Indology Ahmedabad 9. FIRST EDITION June, 1975 “Published with the Financial assistance from the Goveroment af India, Ministry of Education and Social Welfare (Department of Cult ). PRICE RUPEES 16 Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गूर्जर काव्य सञ्चय प्रकाशक तम लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर अमदावाद - ९ बार Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान संपादकीय डॉ. हरिवल्लभ भायाणी और श्री अगरचंद नाहटा द्वारा संपादित 'प्राचीन गूर्जर काव्य संचय' काव्यरसिकों और भाषाशास्त्रिओं के अध्ययनार्थ प्रकाशित किया जाता है । गुजरात और राजस्थान के जैन भंडारों में जो साहित्य सुरक्षित हुआ है उसमें संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थों को हो स्थान मिला है ऐसा नहीं है किन्तु उनमें आधुनिक गुजराती और राजस्थानी भाषा के पूर्वज साहित्य का भी समावेश है । यह हमारा सौभाग्य है कि आधुनिक भाषा के विकास को स्पष्ट करने के लिए १४ वीं शती से ले कर १९ वीं शती तक लिखे गये ग्रन्थों की उपलब्धि हमें होती है । प्रस्तुत संग्रह में प्रायः १३ वीं शती के विविध प्रकारों की कृतिओं का संग्रह किया गया है । काव्य को दृष्टि से सभी महत्त्व के न भी हों तब भी भाषाशास्त्र के अध्येताओं के लिए तो यह संचय महत्वपूर्ण सिद्ध होगा-इसमें तो संदेह नहीं है । इस संचय में कृतिओं की प्राचीन प्रतों का उपयोग किया गया है । अतएव भाषारूपों के अध्येताओं के लिए एक प्रामाणिक संचय ग्रन्थ का काम यह ग्रन्थ देगा । दोनों सम्पादकों ने इसके संचय और सम्पादन में जो परिश्रम किया है उसके लिए हम उनके आभारी हैं । ला. द. भा. सं. विद्यामंदिर अहमदाबाद-९ १, जुलाई १९७५ दलसुख मालवणिया अध्यक्ष Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम विषय पृष्ठांक प्रस्तावना १-१६ ७-१० १०-१२ १२-१६ १-१३६ प्रति-परिचय कवि-परिचय रचनाओं की भाषा छंदोरचना ऋण-स्वीकार कृतिओं का मूल पाठ १. केसी-गोयम-संधि २. नमयासुंदरि-संधि ३. सील-संधि४. भरहेसर-बाहुबलि घोर ५. जीवदया-रास ६. चंदनबाला-रास ७. आबू-रास ८. गयसुकुमाल-रास ९. जंबूस्वामि-सत्क-वस्तु १०. गौतमस्वामी-रास ११. नेमिनाथ-रास १२. शांतिनाथदेव रास १३. शांतिनाथ-रास १४. सालिभद्र-रासु १५. महावीर-रास १६. थूलिभद्द-रासु १७. नवकार-रास १८. धर्म-चच्चरी १९. चच्चरी २०. दिघम-सबरी-भास २१. जिनचंद्रसूरि-फागु २२. सिरि-थूलिभद्द-फागु २३. नेमिनाथ-चतुष्पादका २४. नेमि-बारहमासा ६-११ १२-१४ १५-१८ १९-२४ २५-२८ २९-३३ ३४-३६ ३७-४० ४१-४७ ४८-५० ५१-५८ ५९-६२ ६३-६७ ६८-७० ७१-७६ ७७-७९ ८०-८१ ८२-८४ ८५-८६ ८७-८८ ८९-९४ ९५-९७ ९८-१०० Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक १०१-१०२ १०३ १०४-१०७ १०८-१०९ ११०-११२ ११३-११४ विषय २५. कयवन्ना-विवाहलउ २६. नेमिनाथ-धवल २७. आर्द्रकुमार-धवल २८. अंबिकादेवी-पूर्वभव-वर्णन-तलहारा २९. नेमिनाथ-बोली ३०. थूलिभद्र-मुनि-वर्णना-बोली ३१. शांतिनाथ बोलिका ३२. वासुपूज्य-बोलिका ३३. सर्वजिन-कलश ३४. युगादिदेव-कलश ३५. वीरजिन-कलश ३६. महावीर-जन्माभिषेक ३७. कृपण-गृहिणी-संवाद ३८. प्रकीर्ण दोहा ३९. दंगडु ४०. नवकार-फल-स्तवन महत्त्व के शब्दों का कोश 'दंगडु' (कृति क्रमांक ३९) के पाठान्तर शुद्धिपत्र ११६ ११७ ११८-१२१ १२२ १२३-१२४ १२५-१२९ १३०-१३२ १३३-१३६ १३७-१५० १५१-१५४ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जैन धर्म जनता का धर्म है । तीर्थंकरों ने अपना उपदेश तत्कालीन लोकभाषा में दिया जिससे अधिकाधिक लोग समझ सके और जीवन में उतार कर लाभ उठा सकें । चरम तीर्थंकर भगवान महावीर का धर्मप्रचारकार्य मगध देश के आसपास अधिक रहा, इसलिए उनकी भाषा को अर्धमागधी भाषा को संज्ञा दी गई है । अर्थात् उस भाषा में मगध देश की बोली की प्रधानता तो थी ही पर आसपास की अन्य बोलियों का भी समावेश था इसीलिए उसे अर्धमागधी कहा गया है । वर्तमान प्राचीन जैनागमों की भाषा यही मानी जाती है । यद्यपि वे आगम लगभग एक हजार वर्ष तक कण्ठाग्र रहे, इसलिए परवर्ती प्रभाव भी उनमें दिखाई देता है । पाश्चात्य विद्वानों ने एकादश अंगसूत्रों में से आयरंग, सूयगडंग की भाषा को सर्वाधिक प्राचीन माना है । यद्यपि ये ग्यारह अंगसूत्र एक ही समय तैयार हुए थे पर अन्य आगमो में भाषा का परिवर्तन आयरंग की अपेक्षा अधिक होगा। क्षेत्र और काल का प्रभाव बोलियों पर पडता ही रहता है, इसलिए प्राकृत भाषा के भी अनेक क्षेत्रीय रूप सामने आये और आगे चलकर महाराष्ट्री और शौरसेनी प्राकृत में जैन ग्रंथ अधिक लिखे गये। महाराष्ट्री प्राकृत में श्वेताम्बर ग्रंथ और शौरसेनी प्राकृत में दिगम्बर ग्रंथ अधिक पाये जाते हैं। पांचवीं, छठी शताब्दी में बोलचाल की भाषा में अधिक परिवर्तन आया अतः तब से अपभ्रंश में भी साहित्य लिखा जाने लगा। दिगम्बर महाकाव्यादि आठवीं, नौवीं शती से सं १७०० तक अपभ्रंश में काफी लिखे गये । श्वेताम्बर समाज में अपभ्रंश साहित्य दिगम्बरों के बाद लिखा गया और अंतिम अवधि भी काफी पहले समाप्त हो गई । उपलब्ध स्वतंत्र श्वेताम्बर रचनाएं ग्यारहवीं शती तक की ही प्रायः मिलती हैं । - अपभ्रंश भाषा से भारत की प्रान्तीय बोलियों का विकास हुआ उनमें से राजस्थान और गुजरात में समान रूप से जो भाषा विकसित हुई उसे प्राचीन राजस्थानी या जूनी गुजराती कहा जाता है । कई विद्वानों ने उसे मरु गूर्जर भाषा की संज्ञा दी है । ग्यारहवीं शती से अपभ्रंश के साथ साथ इस मरु-गूर्जर भाषा का भी साहित्य फुटकर दोहादि के रूप में मिलने लगता है । स्वतंत्र उल्लेखनीय रचना के रूप में तेरहवीं शती से ही साहित्य उपलब्ध हैं । उस समय की हिन्दी भाषा भी मरुगूर्जर के समकक्ष ही थी । आगे चलकर क्षेत्रीय बोलियों का अन्तर बढ़ने लगा पर हिन्दी का प्राचीन साहित्य सुरक्षित नहीं रहा जबकि राजस्थान और गूजरात में वहां की भाषा का साहित्य पर्याप्त सुरक्षित रह गया । पन्द्रहवीं शताब्दी से इन दोनों प्रान्तों की भाषाओं में भी कुछ मौलिक अंतर पाया जाता है । सोलहवीं में वह अन्तर अधिक स्पष्ट होने से मारवाड़ी और गुजराती का साहित्य भिन्न भिन्न पहिचाना जाता है । प्रस्तुत ग्रंथ में जब तक यह अन्तर स्पष्ट नहीं हुआ तब तक की विविध शैलियों की रचनाओं संग्रह किया गया है । Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगभग ४३ वर्ष पूर्व बीकानेर के खरतरगच्छीय ज्ञानभंडारों की हस्तलिखित प्रतियों की सूची का काम हमने प्रारंभ किया । तब हमें चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी की कई हस्तलिखित प्रतियां देखने को मिली जिनमें प्राकृत-अपभ्रंशके साथ साथ प्राचीन राजस्थानी की भी रचनाएं लिखी हुई थीं । हमने उनमें से ऐतिहासिक रचनाओं का एक संग्रह तैयार करके 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' नामक ग्रंथ का सम्पादन किया, जिसमें बारहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के छोटे-मोटे ऐतिहासिक काव्य, गीत आदि संगृहीत किये गये थे। अनैतिहासिक रचनाओं का संग्रह भी हम करते गये । नयी नयी महत्त्वपूर्ण कृतियां यत्र तत्र मिलने लगी । हमारे संग्रह में एक संवत् १४९३ की लिखी हुई स्वाध्यायपुस्तिका प्राप्त हो गई और बीकानेर के बडे ज्ञानभंडार में भी सं १४३० के आस-पास की तीन महत्वपूर्ण संग्रपतियाँ मिली । फिर सं. १९९९ में जेसलमेर के ज्ञानभण्डारों का निरीक्षण करने गये तो वहां सं. १३८४ और १४३७ की संग्रहप्रतियाँ मिली जिनमें से सं. १४३७ वाली प्रति को हम बीकानेर आते साथ ले आये और उनमें से महत्त्व की रचनाओं को नकल भी कर ली। बीकानेर की जिनप्रभसूरि परंपरा की सं. १४२५ के लगभग की प्रति में से आबू-रास को तो 'राजस्थानी' पत्रिका में प्रकाशित किया गया और अन्य रचनाओं की नकल कर के रख ली । इस के बाद जोधपुर-अहमदाबाद-आगरा-पाटण आदि की संग्रहप्रतियों का भी उपयोग करते रहे । इस प्रकार विविध शैलियों की सैकड़ों रचनाओं की प्रतिलिपियाँ हम अपने संग्रहालय के लिए करते रहे हैं । उन्हीं में से कुछ चुनी हुई रचनाओं का संग्रह प्रस्तुत ग्रंथ में किया गया है । हमने अपनी नकलें डा. हरिवल्लभ भायाणो को भेज दी थीं। उन्होंने और कुछ हस्तप्रतियां देख कर पाटनिर्धारण और चयन का कार्य किया और इनके अलावा कुछ और प्राचीन रचनाओं का भी प्रस्तुत संग्रह के लिये सम्पादन किया । संग्रहप्रतियों की परम्परा काफी प्राचीन है और इससे छोटी छोटी रचनाओं का संरक्षण सुगमता से और अच्छी तरह हो सका है। जैन ज्ञानभण्डारों में 'विशेषावश्यक भाष्य' की दशमी शताब्दी की प्रति को छोड़ कर अन्य ताडपत्रीय प्रतियाँ बारहवीं शताब्दी से ही अधिक मिलने लगती हैं । बडे बडे आगमादि ग्रंथों की जो स्वतंत्र प्रतियाँ लिखी जाती थी और छोटे छोटे प्रकरणादि ग्रन्थों की संग्रह प्रलियाँ ही लिखी जाती थी जिससे एक ही प्रति से अपने उपयोगी रचनाओं का पठन-पाठन सुगमता से हो सके । जैसलमेर, सूरत, कोटा, पाटण, खंभात आदि के ज्ञानभंडारों में ऐसी कई ताड़पत्रीय संग्रहप्रतियाँ प्राप्त हैं, जिनमें प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश की छोटी छोटी रचनाओं का काफी अच्छा संग्रह है। कागज की संग्रहप्रतियां चौदहवीं शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक की अनेवों .: मिलती हैं । सोलहवीं से गुटकाकार प्रतियाँ भी लिखी जाने लगी। इससे पूर्व की संग्रह..। प्रतियाँ प्रायः पत्राकार हैं, उनमें खुले पत्र होने से जिसे जिस रचना की आवश्यकता हुई ...उसको बीच के पत्र निकाल कर अलग रख लिए । इसलिए प्रायः जितनी भी संग्रहप्रतियां मिली हैं उनमें से बहुत सी प्रतियों के बीच बीच काफी पत्र अब नहीं मिलते । उन संग्रहप्रतियों की सूची भी बनायी जाती रही है उनसे यह भी मालुम हो जाता है कि प्रति के किस पत्रमें Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौनसी रचना लिखो हुई थी जो अब नहीं मिलती । उन प्रतियों के वे निकाले हुए पत्र प्रायः इतस्ततः हो गये अतः कई महत्त्वपूर्ण रचनाएं आज हमे प्राप्त नहीं हैं। ऐसी संग्रहप्रतियों को स्वाध्यायपुस्तिका नाम दिया हुआ मिलता है। जिनराजसूरि, जिनभद्रसूरि, जिनवर्धनसूरि, आदि आचार्यों एवं शिवकुंजरादि कई विद्वानों की स्वाध्यायपुस्तिकाएं हमें मिली हैं । खरतरगच्छ के सिवा अन्य गच्छों की भी ऐसी संग्रहात्मक स्वाध्यायपुस्तिकाएं हमारे देखने में आई हैं । स्वाध्यायपुस्तिकाओं में प्राचीनतम स. १२१५ की ताड़पत्रीय प्रति जेसलमेर के ज्ञानभण्डार में हैं । क्रमांक १५४ । ले. स. १२१५ माघ सुदि ४ बुधे पुस्तिका लिखितमिति । छ। श्रीमत् जिनदत्तसरि सिसिण्याः संतिमति गणिन्याः स्वाध्यायपुस्तिका । श्री । प्रस्तुत ग्रंथ में जिन रचनाओं का संग्रह किया गया है, वे अधिकांश उपर्युक्त चारपांच संग्रहप्रतियों में ही लिखी हुई हैं । अतः कौन कौनसी और कबकी लिखी हुई प्रति से कौन कौनसी रचना दी गई है, इसका संक्षिप्त विवरण यहां दिया जा रहा है । १. बीकानेर बड़ा उपाश्रय में खरतरगच्छीय बृहत् ज्ञानभण्डार के अन्तर्गत छोटे बडे नौ संग्रह है जिनमें से अभयसिंह ज्ञानभण्डार की पोथी नं. १६. पोथी नं. २१८ में खरतरगच्छ की आचार्य जिनप्रभसूरि परम्परा को एक प्राचीन संग्रहप्रति है जिसमें प्रतिक्रमण-स्तोत्रादिका संग्रह है । प्राप्त प्रति के बीच बीच के कुछ पत्र नहीं है व अंतिम पत्र प्राप्त नहीं है । यो पत्रसंख्या २५५ पुरानी दी हुई थी उसके बाद पत्रों की संख्या २३० लिखी हुई है । इस प्रति में से 'जिनप्रभसूरि परम्परा गुर्वावली' और 'जिनप्रभसरि गीत' तथा 'जिनदेवसूरि गीत' हमने ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में सं. १९९४ में प्रकाशित किये थे । उसके बाद मुनि जिनविजयजी संपादित 'विधिप्रपा' में हमारे लिखित जिनप्रभसूारे-चरित्र प्रकाशित हुआ था । उसमें भी इस प्रति की कुछ रचनाएं छपी थी। इस प्रति का साइज १५४५ इंच है । अंतिम पत्र में 'वीतरागस्तोत्र' अपूर्ण रह जाता है। इस प्रति में जिनप्रभसूरि परम्परा के आचार्यों के नाम हैं, उनमें जिनप्रभसूरि के पट्टधर जिनदेवसूरि तक के ही नाम हैं । इसकी लिपि भी पुरानी है । अतः लेखन संवत् न होने पर भी यह प्रति सं. १४२०-२५ के आसपास की होनी चाहिए । इस प्रति में से 'आबू रास' के अतिरिक्त 'तत्त्वविचार प्रकरण' नामक गद्य रचना द्रमने 'राजस्थान भारतो' में प्रकाशित की थी तथा 'मदनरेहा रास', 'रस-विलास, चतुष्पदिका', 'अम्बिकादेवी पूर्वभव चरित्र' हमने 'हिन्दी अनुशीलन' आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित किए । मुनि जिनविजयजी को प्रति भेजी तो उन्होने “भारतीय विद्या" में 'जीवदया रास' प्रकाशित किया । इस प्रकार समय समय पर इस प्रति की महत्त्वपूर्ण रचना प्रकाशित की जाती रही हैं । प्रस्तुत ग्रंथ में निम्नोक्त रचनाएं इसी प्रति से ली गई हैं। १. 'जीवदया-रास' ४. 'नेमिनाथ-बारहमासा' २. 'आबू-रास' ५. 'अंबिका-देवी-पूर्व-भव-तलहरा' ३. 'नवकार-रास' ६. 'प्रकीर्ण दोहा' २. दुसरी संग्रहप्रति, जिसकी रचनाएं इस ग्रंथ में दी गई हैं, वह जेसलमेर बड़ा उपाश्रय के पंचायती भण्डार की प्रति है । यह जिनराजसूरि स्वाध्यायपुस्तिका सं. १४३७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की लिखी हुई है। छोटे साइजके ४४० पत्रो में दशवैकालिक, पक्खीसूत्त आदि आगम और प्रकरण एवं स्तोत्रादि के साथ अनेकों प्राचीन राजस्थानी विविध प्रकार की रचनाएं हैं । इस प्रति के भी बीच बीच के कई पत्र प्राप्त नहीं हैं । प्रस्तुत ग्रंथ में निम्नोक्त रचनाएं इसी प्रति को दी गई हैं। ९. 'स्थूलिभद्र-मुनि वर्णना-बोली' १. 'भरतेश्वर-बाहुबलि घोर' १०. 'शांतिनाथ-बोलिका' २. 'चंदनबाला-रास' ११. 'वासुपूज्य बोलिका' ३. 'जम्बूस्वामि सत्क वस्तु १२. 'सर्व-जिन-कलश' ४. 'शालिभद्र-रास' १३. 'युगादि-देव-कलश' ५. 'स्थूलिभद्र-रास' १४. 'वीर-जिन-कलश ६. 'धर्म-चच्चरी' १५. महावीर-जन्माभिषेक' ७. 'चच्चरी' १६. 'कृपण-गृहणी-संवाद' ८. 'नेमिनाथ-बोली' १७. 'महावीर-रास' इस प्रति की लेखनप्रशस्ति इस प्रकार हैं:-- संवत् १४३७ वैशाख सुदि २ द्वितीया-दिने सुगुरुश्रीजिनराजसूरि-सदुपदेशेन व्य० देहा पुच्या देवगुर्वाज्ञा चिन्तामणि-विभूषित-मस्तकया मांकू--श्राविकया आत्म-पुण्यार्थ श्रीस्वाध्यायपुस्तिका लेखिता ।। वाच्यमाना आचंद्राक्क नंदतु । छ । ___ इस प्रति में और भी बहुत सी ऐसी रचनाएं हैं जो हमारे नकल की हुई होने पर भी इस ग्रंथ में नहीं दी जा सकी । इस प्रति की कुछ रचनाएं सं. १४९३ वाली प्रति में भी है। ३. तीसरी संग्रहप्रति शिवकुंजर-स्वाध्यायपुस्तिका में से प्रस्तुत ग्रंथ में निम्नोक्त रचनाएँ दी गई हैं। १ 'शील-सन्धि' ३. 'महावीर-रास' २. 'शांतिनाथ-देव-रास' ४. दिघम-शबरी-भास' इस प्रति की लेखनप्रशस्ति नीचे दी जा रही है। मध्यम साइज़ के ५२१ पत्रों की इस प्रति के भी बीच बीच के बहुत से पत्र अप्राप्य है । इस प्रति की बहुत सी ऐतिहासिक रचनाएँ हमने 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में प्रकाशित की थी जिनकी नामावली उक्त ग्रंथ के प्रतिपरिचय में दो गई है। इस प्रति में 'नगरकोट-तीर्थ-वीनति' आदि कुछ रचनाएँ हम पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित कर चुके हैं । लेखनप्रशस्तिः -॥६०॥ संवत् १४९३ वर्षे वैशाखमासे प्रथमपक्षे ८ दिने सोमे श्रीवृहत्खरतरगच्छे श्रीजिनभद्रसूरिगुरौ विजयमाने श्रीकीर्तिरत्नसूरिशिष्येन शिवकुंजरमुनिना निजपुण्याथै स्वाध्यायपुस्तिका लिखिता चिरं नेदतु ।। श्री योगि. नीपुरे ॥ श्री ॥ ४. इस ग्रन्थ में प्रकाशित 'गौतमस्वामी-रास' सं. १४३० की लिखी हुई बीकानेर बडे ज्ञानभंडारस्थ महिमाभक्ति-भण्डार की प्रति से लिया गया है। यह प्रति ६४२१ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंच की है। इसकी पत्रसंख्या ४३२ है । बीच में ताड़पत्रीय शैली का छेद किया हुआ है। इस में खरतरगच्छीय स्तोत्रों का संग्रह बहुत ही अच्छा है। इनमें से कई तो तत्कालीन विनयप्रभ उपाध्याय, तरुणप्रभसूरि आदि की रचनाएं हैं । इसमें से 'उखाणा गर्मित स्तोत्र' हमने पहले प्रकाशित किया था । इसमें लिखी हुई रचनाओं की सूची अलग ४ पत्रों में दी है । 'गौतम रास' सं. १४१२ में रचा गया है और इस प्रति में सं. १४३० में लिखा गया है। अतः यह इस रास की सबसे प्राचीन प्रति है। यों 'गौतम रास' बहुत प्रसिद्ध रचना है। और उसकी सैकड़ों प्रतियां हमारे संग्रह में और अन्य ज्ञानभण्डारों में प्राप्त हैं पर लोकप्रसिद्ध रचना होने से इसकी भाषा में परिवर्तन आ गया है और रचयिता के सम्बन्ध में भी कई भ्रान्तियाँ प्रचलित हो गई है। हमने उपर्युक्त प्राचीन प्रति का पाठ 'परिषद पत्रिका' में कई वर्ष पूर्व प्रकाशित किया था। इस प्रति के ४०८ पत्र तो एक ही व्यक्ति के लिखे हुए हैं और पत्राङ्क १९६ से २०६ तक में 'गौतम रास' लिखा हुआ है । पत्राङ्क २८२ पे लेखनसंवत् तरुणप्रभसूरि के 'वीस-विहरमान-स्तव' के बाद इस प्रकार लिखा है --- ___सं. १४३० वर्षे कार्तिक सुदि प्रतिपदायां । देवस्तवनपुस्तकं । इस प्रति के सभी पत्र सुरक्षित हैं और एक सुन्दर कपलिका में वेष्ठित है । ५-७. प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रकाशित 'नमयासुन्दरी-सन्धि' और 'दंगडु' पाटण ज्ञानभण्डार की प्रतियों (सूची पृ. १८८ और पृ. २५) से नकल किए गए थे ।' 'केसो-गोतम-सन्धि' की तो बहुत सी प्रतियाँ प्राप्त हैं । इसी प्रकार स्थूलिभद्रफागु' की भी कई प्रतियां मिलती है। . उस ग्रन्थ के सम्पादित पाठ में जिन प्रतियोंका उपयोग किया गया है उनका उल्लेख पृष्ठ ९३ में दे दिया है । विनयचन्द्रसूरि कृत 'नेमिनाथ-चतुष्पदिका' का पाठ डा० भायाणीजी ने फार्बस गुजराती सभा-बम्बई से प्रकाशित 'त्रण प्रचीन गुर्जर काव्यों' से लिया है । ८. इस ग्रन्थ के अन्त में प्रकाशित 'नवकार-फल-स्तवन' भी बहुत प्रसिद्ध रचना है। इसकी सं. १६६७ की लिखित प्रति हमारे संग्रह में है, जिसका यहाँ उपयोग किया गया है। यों 'गौतम-रास' की भाँति यह स्तवन हमारे 'अभयरत्नसार' आदि ग्रन्थों में पहले भी प्रकाशित हैं । ९. अन्य रचनाओं में देपाल कवि का 'कयवन्ना वीवाहलउ' और नेमिनाथ धवल, आर्द्रकुमार धवल एक ही संग्रहप्रति में से ली गई है पर उस प्रतिका विवरण प्रति बाहर से मंगवायी गई थी अतः देना संम्भव नहीं रहा । १०. जेसलमेर भण्डार की कुछ फुटकर प्रतियों से भी हमने नकलें की थीं। इनमें से एक प्रति में 'गजसुकमाल-रास' मिला था जिसमें बीच बीच का पाठ कुछ त्रुटित था । उसे हमने 'राजस्थान भारती' में प्रका.शत कर दिया था | जेसलमेर भंडार की एक प्रति में 'शांतिनाथरास' अपूर्ण मिला था वह भी इस ग्रन्थ में प्रकाशित किया गया है। ११. पन्द्रहवीं शताब्दी में लिखित एक संग्रहप्रति के कुछ पत्र हमारे संग्रह में हैं जिसमें 'नेमिनाथ-रास' लिखा हुआ है । १२ जेसलमेर भण्डार में भी एक संग्रहप्रति के फुटकर पत्र मिले थे जिसमें 'जिनकुशलसूरिरेलुआ' आदि रचनाओं के साथ 'जिनचन्द्रसूरि-फागु' नामक रचना मिली जिसके बीच के पत्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं मिठने से काफो भाग त्रुटक रह गया । फागुसंज्ञक रचनाओं में यह सबसे प्राचीन होने के कारण इसे डा० भोगीलाल सांडेसरा ने भी 'प्राचीन फागु संग्रह' में प्रकाशित कर दिया । पर अब न तो वे फुटकर पत्र ही जेसलमेर भण्डार में रहे हैं और इन न रचनाओं की कोई दूसरी प्रति ही मिली है । सं. १९९९ में हम जैसलमेर के ज्ञानभण्डारों का निरीक्षण करने गये थे उस समय जिस फुटकर सामग्री का उपयोग किया, देखा वह सामग्री फिर कहाँ चली गई, कोई पता ही नहीं लगा । जेसलमेर भण्डार में हमने ताड़पत्रों के बहुत प्राचीन त्रुटित पत्र देखे थे वे दूसरी बार जाने पर नहीं मिले । पुरानी सूचियों की सैकड़ों प्रतियाँ समय समय पर गोयब होती रही है । मुनि पुण्यविजय जी सम्पादित और अभी अभी प्रकाशित 'जेसलमेर भंडार सूची' के परिशिष्ट में वि. १८०९ की सूची छपी है, वह हमारे संग्रह की ही प्रति से छपी है। इसमें ऐसे अनेक ग्रन्थों के नाम है जो आज उपलब्ध नही हैं । 'गुर्वावली' नामक एक रचना ३२६ पत्रों की उस सूची में उल्लिखित है । इतनी बड़ी गुर्वावली आज तक कोई भी और कहीं भी जानने में नहीं आई है। जेसलमेर ज्ञानभण्डार की बहुत सी प्रतियां नष्ट हो गई और बहुत सी चली गई यह लिखते हुए बहुत ही हार्दिक कष्ट होता है । प्रस्तुत ग्रन्थ में कुछ रचनाएं ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं । शान्तिनाथ के दोनो रासों में खेड़ के शान्ति जिनालय का महत्वपूर्ण विवरण है। इसी प्रकार 'महावीररास' में भी भीमपल्ली के महावीर जिनालय का महत्वपूर्ण विवरण है। आसिग कवि ने भी 'जीवदया-रास' में पर्याप्त महत्त्व की सूचनाएं दी हैं । 'आबू रास' तो पूर्णतया ऐतिहासिक है ही । अतः संग्रहीत रचनाएं केवल साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं पर ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं । खेड़, जालोर और भीमपल्ली के खरतरगच्छीय जिनालयों की प्रतिष्ठा आदि के ऐतिहासिक उल्लेख 'युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' में भी पाये जाते हैं । इस गुर्वावली की एक मात्र प्रति बीकानेर के क्षमाकल्याणजी के भंडार में हमें प्राप्त हुई थी जिसे मुनि जिनविजयजी द्वारा सम्पादित करवाके उसे मूलरूप में और जिनदत्तसूरि सेवा संघ से हमने इसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करवा दिया है। सं. १२५८ में खेड़नगर के शांतिनाथ की प्रतिष्ठा का उल्लेख उक्त मूल गुर्वावली के पृ. ४४ में और जालोर के सं. १३१७ के प्रतिष्ठा उल्लेख पृ. ५१ में द्रष्टव्य है । प्रस्तुत ग्रन्थ में जो रचनाएं प्रकाशित हुई हैं, उनसे प्राचीन रचनाप्रकारों व शैलियों का बहुत अच्छा परिचय मिलता है । इनमें से कई रचनाप्रकारों की परम्परा तो शताब्दियों तक चलती रही है । इन रचनाप्रकारों में से कुछ की परम्परा के सम्बन्ध में हमारे शोधपूर्ण लेख भी प्रकाशित हो चुके हैं। कई रचनाप्रकारों की परम्परा आगे न चल पाई । घोर, तलहरा संज्ञक रचनाएं तो और कोई मिली भी नहीं । संधि, रास, चर्चरी. फाग, चौपाई, बारामासा, भास, विवाहला, धवल, बोली, कलश, जन्माभिषेक, संवाद संज्ञक रचनाएं तो काफी पायी जाती हैं । Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - छन्दों की दृष्टि से भी प्रस्तुत ग्रन्थ की रचनाएं महत्त्व की हैं, इनमें कई प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है । दोहा और वस्तु छंद की स्वतंत्र रचनाएं इस ग्रन्थ में है ही, पर अन्य रचनाओं में भी कई तरह के छंद और देशियों का प्रयोग हुआ है। इनमें से अधिकांश रचनाएं गेय रही हैं । जैन मन्दिरों और उत्सवों आदि में वे रचनाएं अभिनय के साथ खेली जाती थी। इसका उल्लेख कई रचनाओं के अन्त में पाया जाता है । 'युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' में भी रास, चर्चरी आदि के खेले जाने के कई उल्लेख मिलते हैं । इस सम्बन्ध में हम अपने लेखों में काफी प्रकाश डाल चुके हैं, यहां तो केवल सूचन मात्र ही किया गया है । प्रस्तुत ग्रंथ में प्रकाशित चालीस रचनाओं में से लगभग आधी रचनाओं में तो रचयिता कविओं का उल्लेख नहीं है । आसिग कवि की तीन और पाल्हण की दो रचनाएं और देपाल की तीन रचनाएं हैं बाकी एक एक कवि की एक एक रचनाएं ही हैं । नीचे संक्षेप में इस ग्रन्थ में जिन जिन कवियों के नामोल्लेख वाली रचनाएं हैं, उन कवियों का परिचय दिया जाता है-- १. जिनप्रभसूरि-इस नाम वाले खरतरगच्छाचार्य तो बहुत प्रसिद्ध हैं, पर प्रस्तुत ग्रंथ में 'नमयासुन्दरी संधि' छपी है, उसके रचयिता जिनप्रभसूरि इनसे भिन्न हैं । गायकवाड़ ऑरिएण्टल सिरिज से प्रकाशित 'पत्तनस्थ प्राच्य जैन भाण्डागारीय ग्रन्थसूची' के पृष्ट १०२, १८८ से १९१ और २६१ से २७१ पृष्ट में इन जिनप्रभसूरि की रचनाओं का विवरण छपा है । उसके अनुसार ये आगमिक परम्परा के थे। वे देवभद्रसूरि के पट्टधर और शत्रञ्जय तीर्थ के परम भक्त थे। अपभ्रंश में इन्होंने काफी रचनाएं की हैं, वे पाटण भंडार की ताड़पत्रीय प्रतियों में प्राप्त हैं । उनकी संक्षिप्त सूची इस प्रकार है-- १ 'ज्ञानप्रकाशकुलक' गा. ११४ - १६ 'चाचरिस्तुति' गा. ३६ २ 'परमसुखद्वात्रिंशिका' १७ 'अनाथीसन्धि' गा. ६५ ३ 'नर्मदासुन्दरीसन्धि' १८ 'जीवानुशास्तिसन्धि' गा. १८ ४ 'जिनागमवचन' १९ 'युगादिजिनचरितकुलक' गा. २७ . ५ 'जिनमहिमा २० 'नेमिरास' ६ 'वयरसामिचरिय' गा.६० २१ 'भावनाकुलक' गा. ११ ७ 'विचारगाथा' गा. २४ २२ 'अन्तरंगरास' गा. ११ ८ 'श्रावकविधि' गा. ३२ २३ 'मल्लिनाथचरित' गा. ५१ ९ 'धर्माधर्मविचारकुलक' गा. १८ २४ 'चैत्यपरिपाटी' १० 'आत्मसंबोधकुलक' गा. ३३ २५ 'मोहराजविजय' ११ 'सुभाषितकुलक' २६ 'स्वधर्मीवात्सल्यकुलक' गा. २४ १२ 'विवेककुलक' गा. ३२ २७ 'अन्तरंगविवाहधवल'. १३ 'भव्यचरित' गा. ४४ २८ 'जिनजन्ममह' १४ 'भव्यकुटुंबचरित' गा. ३७ २९ 'नेमिनाथजन्माभिषेक' गा. १० १५ 'गौतमचरित्रकुलक' गा. २८ ३० 'पार्श्वनाथजन्माभिषेक' गा. ११ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ “जिनजन्मोत्सव ५६ दिक्कुमारीस्तवन' गा. २५ और भी कुछ रचनाएं इन्हीं प्रतियों में हैं वे जिनप्रभसूरिजी की होंगी । पर उनमें नामोल्लेख नहीं है । तेरहवीं शती का अन्त और चौदहवीं का प्रारंभ इनका रचनाकाल है । ३१ 'मुनिसुव्रतजन्माभिषेक' गा. १३ ३२ ' जिनजन्माभिषेक' गा. १५ २ जयशेखरसूरि शिष्य – इनके रचित 'शील - सन्धि' में और कुछ विवरण कवि के सम्बन्ध में नहीं है और जयशेखरसूरि नामके कई आचार्य हो गए हैं इसलिए ये किस गच्छ के और कब हुए निश्चय नहीं कहा जा सकता । इनका समय चौदहवीं शताब्दी होना सम्भव है । ३ वज्रसेनसूरि-- इनके रचित 'भरतेश्वर बाहुबली - घोर' से केवल इतना ही मालूम होता है कि ये देवसूरि की परम्परा में या पट्टधर थे । इसीलिए इनका समय तेरहवीं शती माना गया है । ४ आसिग - - इस कविकी तीन रचनाएं प्रस्तुत ग्रन्थ में छपी हैं जिनमें से 'कृपण गृहिणीसंवाद' में तो केवल नाम ही लिखा है । 'चन्दनबाला - रास' के अन्त में जालोर नगर का उल्लेख है पर 'जीवदया - रास' के अन्त में कविने अपना अच्छा परिचय दिया है और उसीमें रचनाकाल सं. १२५८ आश्विन सुदि ७ दिया है । कवि शांतिसूरि का भक्त था । जालोर का निवासी और वाला मन्त्रीके वंशज वेहल के पुत्र आसाइतु का पुत्र होगा । कविने अपने मौसाल का भी उल्लेख किया है । 'जीवदयारास ' उसने सहजिगपुरके पार्श्वजिनालय में बनाया है । रचनाएं इस नहीं दिया । ५ पाल्हण - इस कवि की 'आबूरास' और 'नेमि बारहमासा' संज्ञक दो ग्रंथ में छपी है पर कवि ने अपने नामोल्लेख के अतिरिक्त अपना कोई परिचय 'आबूरास' में रचना समय सं. १२८९ दिया है । ६ देल्हण - इसके रचित 'गजसुकुमालरास' में देवेन्द्रसूरि के बचनोंसे रचे जानेका उल्लेख किया है । देवेन्द्रसूरि संभवतः कर्मग्रंथादि के रचयिता हों, अतः कवि का समय चौदहवीं शतीका प्रारम्भ संभव है । ७ उपाध्याय विनयप्रभ - सं. १३८२ में श्रीजिनकुशलसूरिजी के पास आप दीक्षित हुए। सं. १४१२ कार्तिक सुदि १ खंभात में आपने 'गौतम - रास' बनाया और कार्तिक पूर्णिमा को संस्कृत में 'नरवर्म - चरित्र' की रचना की । इनकी शिष्यपरम्परा के संबन्ध में हमारा "दादा जिनकुशलसूरि” द्रष्टव्य है । ८ लक्ष्मी तिलक - ये जीनेश्वरसूरिजी के शिष्य थे । इनकी दीक्षा सं. १२८८ में हुई । जिनरत्नसूरि इनके विद्यागुरु थे । सं. १३११ में 'प्रत्येकबुद्ध - चरित्र' १०१३० श्लोक परिमित प्रल्हादनपुर में साल की समभ्यर्थना से बनाया । सं. १३१७ में 'श्रावक-धर्म - बृहद् - वृत्ति' की रचना जालोर में की जिसका परिमाण १५१३१ श्लोकों का है । तीसरी रचना 'शांतिनाथ-रास' इस ग्रन्थ में प्रकाशित है । ९. राजतिलक – श्री. जिनप्रबोधसूरिजीने सं. १३२२ मिती वाचकपद दिया । इनके रचित 'शालिभद्र - रास' प्रस्तुत ग्रंथ में 'जैन युग' में पहले प्रकाशित हुआ था फिर हमें दो प्रतियां और मिली उन्ही से यह सम्पादन ज्येष्ठ कृष्ण ९ को इन्हें प्रकाशित है । यह रास किया गया है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. अभयतिलक-ये श्रीजिनेश्वरसूरि के शिष्य थे और लक्ष्मीतिलक की भाँति बडे विद्वान थे । हेमचन्द्र के संस्कृत द्वयाश्रय काव्य की वृत्ति सं. १३१२ दीवाली के दिन पालनपुर में बनायी। न्यायालंकारटिप्पण', 'वादस्थल' तथा कई स्तोत्र भी आपके प्राप्त हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में 'महावीर-रास' छपा है जो पहले 'जैन युग' में भी छपा था। फिर हमें इस रासकी और भी प्रतियां मिली । दो प्रतियोंके आधार से इसका संपादन किया गया है । सं. १२९१ वै. शु. १० जाबालिपुर में इनकी दीक्षा और सं. १३१९ मिगसर सुदि ७ को आपको उपाध्याय पद मिला, उसी वर्ष में इन्होंने उज्जयिनी में तपामत के पं. विद्यानन्द को जीतकर जयपत्र प्राप्त किया । ११. जिनपद्मसूरि-इनके सम्बन्ध में हमारा 'दादा जिनकुशलसूरि' द्रष्टव्य है । १२. विनयचंद्रसूरि-इनके रचित 'नेमिनाथ-चतुष्पदिका' प्रस्तुत ग्रन्थ में छपी है जिसमें बारहमासों का वर्णन है । ये रत्नसिंहसूरि के शिष्य थे और १४वीं शताब्दी के प्रारम्भ में १३. देपाल- इनकी तीन लघु रचनाएं इस ग्रन्थ में छपी हैं । देपाल बहुत प्रसिद्ध कवि हुए हैं और इनकी रचनाएं भी काफी मिलती है । इसके जीवनप्रसंगों और रचनाओं पर विचार करने से देपाल नामक दो कवि हुए संभव है। क्योंकि 'जंबू-चौपाई' सं. १५२२ और कुछ अन्य रचनाएं इसके बाद की भी मिलती है जब कि प्रबन्ध ग्रन्थों से ये पन्द्रहवीं शती में हुए लगते हैं । १४. जिनेश्वरसूरि-इनके रचित 'महावीर जन्माभिषेक' प्रस्तुत ग्रन्थ में छपा है व 'शांतिनाथ बोली' में श्रीमालनगर में इनके स्थापित शांतिनाथ प्रतिमा का उल्लेख है। 'युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' और 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में इनका जीवनचरित्र छपा है । इनके रचित 'श्रावकधर्मविधि' की रचना सं. १३१३ पालनपुर में हुई । 'चन्द्रप्रभ-चरित्र' और कई स्तोत्रकुलकादि आपके रचित १५ अन्य लघु रचनाएं भी प्राप्त हैं । १५. जिनवल्लभसूरि-प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्तमें 'नवकार-फाग-स्तवन' छपा है, इसके अंतिम पद्य में "गुरु जिणवल्लभसूरि भणइ” पाठ है इससे इसके रचयिता श्री जिनवल्लभसूरि या इनके शिष्य होने की संभावना है । बारहवीं शती के जिनवल्लभसूरि बहुत बडे विद्वान आचार्य हुए हैं । 'नवकार-स्तवन' की पन्द्रहवीं शती के पूर्व की कोई प्रति नहीं मिलती एवं भाषा में परवर्ती प्रभाव अधिक है। ___जैसा कि पहले कहा गया है, इस ग्रन्थ में प्रकाशित बहुतसी रचनाओं की एक एक प्रति ही मिली । कई रचनाओं के पाठ भी आदि अंतमें त्रुटक मिले हैं । पाठ में काफी अशुद्धियां भी थी फिर टो भायाणी जी ने काफी परिश्रम करके पाठों का संपादन किया है। जिन रचनाओंकी एक से अधिक प्रतियाँ मिली उनका पाठ तो पर्याप्त शुद्ध हो गया परन्तु जिनकी अन्य प्रतियाँ नहीं मिलीं या त्रुटक मिलीं उनकी पूरी व शुद्ध प्रतियाँ कहीं प्राप्त हो जायं तो ठीक हो । प्रस्तुत संग्रह में तेरहवीं शती तक की विविध प्रकारकी रचनाएं हैं इनमें संधि, घोर, रास, चर्चरी, भास, फाग, चतुप्पदिका, बारहमासा, वीवाहला, धवल, तलहरा, बोली, कलश, जन्माभिषेक, संवाद, दोहा, दंगडु, स्तवन संज्ञक रचनाओंका समावेश है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ अन्य रचनाप्रकारों की रचना भी इसमें देनी थी पर प्रकाशक द्वारा ग्रन्थ की पृष्ठसंख्या सीमित होने से नहीं दे सके । . बीकानेर अपाबंद नाहटा संगृहीत रचनाओं की भाषा संगृहीत कृतियों में देपाल की रचनाओं (क्रमांक २५, २६, २७) को, जो कि १५वों शताब्दी की हैं, छोडकर शेष १३वीं शताब्दी के आसपास की रचनाएं हैं । क्रमांक १, २, ३ वाली रचनाएं संधि प्रकार की हैं । संधियों की भाषा अपभ्रंश-प्रधान होती है। क्रमांक ३३, ३५, ३६ वाली रचनाओं की भाषा का स्वरूप भी ऐसा है । इनके अतिरिक्त वस्तु छंद एवं मदनावतार-छंद में निबद्ध रचनाओं या खंडों में (जैसे कि क्रमांक ९, १२, १४, ३३, ३४, ३५, ३७ आदि में) भी अपभ्रंश के रूपों की बहुलता होती है । शेष रचनाओं में भी अल्पाधिक मात्रा में अपभ्रंश का मिश्रण है । इस तरह संग्रहगत रचनाओं की भाषा में प्राचीन, समकालीन और उत्तरकालीन प्रयोग कहीं एक प्रकार के, कहीं दूसरे प्रकार के तो कहीं मिश्र रूप से पाये जाते हैं । यहां पर नये परिवर्तन को लक्षित कर कतिपय विशिष्ट रूपों एवं प्रयोगों का निर्देश किया जाता है:ध्वनि-परिवर्तन शब्दों के अंत्य स्वर की अनुनासिकता दुर्बल या लुप्त हो गई है । इस बारे में लेखन में-हस्तप्रतियों में अत्यन्त अनिश्चितता होती है । उत्तरोत्तर समय के लेखन में अंत्यानुनासिक कम होते गये हैं। -. प्रत्ययों में से हकार लुप्त करने की वृत्ति प्रकट रूप से दिखाई देती है-जैसे कि मध्यम पुरुष ब० व० का "उ'<'हु'; प्रथम पुरुष ब० व० का 'ई' <'हिं'. स्वरों के विच 'म्' का '_' ('व') होने की प्रादेशिक प्रक्रिया एकाध रचना (क्रमांक ४ वाली) में मिलती है । ____ इंदियाल', 'दिणियर', 'पियाण' आदि थोडे शब्द 'अय्' > 'इय्' इस परिवर्तन के उदाहरण हैं । रूपरचना रूपरचना में हेमचन्द्र-निर्दिष्ट वैकल्पिक प्रत्ययों एवं क्वचित् प्राकृत रूपों का प्रयोग होते हुए भी अमुक अमुक प्रत्यय व्यापक या प्रधान रूप से प्रयुक्त हुए हैं । इनके अतिरिक्त कहीं कहीं नूतन प्रत्यय का प्रचार होने लगा है । नीचे दी गई विशिष्टताओं को इस दृष्टि से समझना चाहिये । निर्दिष्ट प्रत्ययों के विकल्प भी कहीं पाये जाते हैं, किन्तु ये छंद आ.द विशिष्ट कारणों से किये गये अपवाद-रूप हैं । आख्यातिक रूपरचना कुछ उल्लेखनीय बातें ये हैं: प्रथम पु० ब० के प्रत्यय- ०हि (०हिं), ०३ (०ई) ('अछइ', २३.२४) आज्ञार्थ मध्यम पु० ए० व० का ,,- ०इ. " " " ब० व० के ,,--हु, ०उ (उ) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भविष्य "" " उत्तम पु० ए० व० " 27 " ब० व० के " ब० व० के प्रथम कर्मणि अंग के प्रत्यय - ०ईज् ०, ० इज्० कर्मणि वर्तमान कृदन्त का प्रत्यय-०३ नामिक रूपाख्यान ० इसु, ०इसउं. 250 • इसहँ, ०एसहँ (जैसे कि 'करे सहँ', 'लहिसहँ' ७.१९.) - ०इसइ, ०एसइ ( ' होइहि' - ५.२४ - में ० इहि ) ず " ११ در कर्मणि भूत कृदंत के लकार - विस्तारित रूप - 'उद्वरियलि' (५.४४), 'उलखियला ' (२७. २.१), 'बांधुला' (२७.४.२), 'सीधलउ' (४०.९), 'दिन्छु' (६.२१ ) भी उल्लेखनीय है । संबंधक भूत कृदन्त के प्रत्यय - ० एवि ० इवि, ०अवि, ०३, ०इउ. - ०ईतउ (जैसे 'वदीत ' १.३८, .२५.१२) कुछ उल्लेखनीय बातें ये हैं : विस्तारित अकारान्त नपुं. कर्ता वि० ए० व० का प्रत्यय - ०उं ( उ० ). विस्तारित अकारान्त पुं. नपुं संज्ञा की कर्ता विभक्ति के एक वचन के आकारान्त रूप के उदाहरण अत्यंत विरल है - ५.१ में 'हंसा' और २७.४.२ में ' बांधुला' है । Jain Educationa International क्रमांक ५ वाली रचना में अकारान्त पुंल्लिंग की कर्ता विभक्ति बहुवचन के ०ई प्रत्यय वाले कुछ रूप मिलते हैं (जैसे कि 'दिवसडई' ५.६, 'जीवई' ५.२५, 'थियई' ५३०, 'दुक्खियई' ५.३२, 'अपुन्नइ बप्पुडई' ५.३३), जो हिन्दी आदि के ०एं प्रत्यय वाले रूपों के पुरोगामी जान पडते हैं । करण - अधिकरण वि० ए० व० के प्रत्यय - ०३ (०३), ०इहिं (०इहि). करण - अधिकरण वि० ब० ब० के ०ए प्रत्यय वाले रूप मिलने लगे हैं-जैसे कि 'पाए' (४.४०), 'रागे' ( ४.४१), 'दिवसे मासे' (५.१४), 'कुमासे' (६.३०), 'कउसी से (१०.१९). अधिकरण ए० ० के हं प्रत्यय वाला 'उवरहं' (५.९) तथा अकारान्त स्त्रोलिंग के ०ह प्रत्यय वाला रूप क्वचित् मिलता है । अपादान और संबंध विभक्ति एक वचन के लिये अंग के अन्त्य स्वर के अनुसार ०, ०हिया • प्रत्यय हैं । सार्वनाभिक रूप में करण विभक्ति ए० व० के 'तिणि' (२३.१५), 'जिणे' (५.४३) इणि' (२२२४ ) और कर्ता विभक्ति ब० व० का 'जिके' (४०.२) उल्लेखनीय हैं । नामिक विभक्ति सम्बन्ध व्यक्त करने के लिये प्रयुक्त हुए कुछ पर-सर्ग ये हैं : तणइ (७.१४), पासे (१.१७), कन्ह (११.१७), नइ (११.००), सइतर (७.२६, ३६ ), सउं (०उ) ४.३८, सिउं (२२.२० ), सरिसउ (५.११.१४, २३.१०, ३४,३७,३०.३), करि (४.४७), कए (१.९ २.२.१०, ३.१६, १०.४७), रेसि (१.१६ ७.४५, २३.९, ३७.७७ ३९.६), भणिवि (५.२८), भणेविणु (५.२८), भणिउ (६.२०, २२), भणी (१.३७), कन्हइ (१०.३०), कान्हइ (७.२८) कन्हा (१०.४९), पासि (१.९, ७.४५; १२.२५, ४५, २२ ३.४, २३.२४, २५), पाहइं ( ११.१०.१६), पाह (२३, २२), तडि (२३.३४), तणउ (१.३०), केरउ (११.१४; ३७.८), नउ ( ११.१३), करउ (२१.४), कउ ( २१.१०, ४९), माहि (७.४६, ११.२१, २२.३, २३.२२), मझारि ( ७.२१), हुतउ ( ३१.२), पाखई ( ४.३४, For Personal and Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६.७), विणु (१.३२, विण १,४२), आगइ (१०.१५), ऊपरि (२३.१०), भिंतरि (५,१५), कतिपय विशिष्ट प्रयोग :अस्तिवाचक क्रियापद-'आछई' (७.१८); 'अछइ' (२३.२४), छइ' (७.६,७). सहायक क्रियापद वाले क्रियारूप-'विलवंत अछई' (२३.११), 'लग्गी अछिसु' (२३.१६), ___ 'उम्माहियउ छइ' (१९.८); 'पड्या छइ' (६.२८), संयुक्त क्रियापदों के रूप—'शेअणह लग्गउ' (३७.७), 'मुणेवा चाहइ' (१.११२), 'उडिवि गयउ' (३७.८), 'नेइ लेसइ' (५.८), 'पूरि रहिउ' (१.१०९), 'वीसासि करि' - (३८.३२), 'खंचि करि' (३७.४). कर्तृवाचक 'अणहार' प्रत्यय -'मग्गणहार' (५.८), 'मारणहार' (३८.३२). लघुतावाचक ०ड प्रत्यय के, जो कि कुत्सा, लालित्य, प्यार इत्यादि को भी व्यक्त करता है अथवा केवल अंग-विस्तारक होता है, उदाहरण ये हैं : ___ दिवसडई (५.६), विमलड (७.९), वाछडउ (१४.२३), हियडउ (१४.३६), रासुलडउ (१५.२१), भाद्रवडइ (३६.३४), गोरड (२१ ४), दासडिय (२२.४), एकलडी (२३.५), वहुडिय (२८.१३). क्रमांक ३८ की कृति में हत्थडई (१२), सद्दडिहिं (२०), मृगडाहं (२९), गहिल्लडी (३९), रुक्खडउ (४५), तातडी (४६), दोसडउ (४८), भग्गडउ (५२), पहरडा (५७); ओर क्रमांक ३९ की कृति में दंगडए (१), मग्गडउ (५), वेसाहडु (७), हत्त्थडा (८), कुट्टडी (१३), वोहित्थडउ (१४), ऊमाहडा (१५), छारड (२१), दिहडइ (२३) मिलते है । ये दोनों रचनाएं दोहा-बद्ध हैं और जैसा कि हम सिद्धहेम-व्याकरण-गत अपभ्रंश उदाहरणों से जानते हैं, दोहाबद्ध रचनाओं के एक प्रवाह में स्वार्थिक ०ड. प्रत्यय का आधिक्य रहता था । ___ आंबुला (२१.७), रासुलडउ (१५.२१) इनमें ० उल० और थोडिलउ (३७.२) में • इल० ये अंग-विस्तारक प्रत्यय हैं । छंदोरचना १. कडवक-देह का छन्द वदनक : ६+४+४+१ ऐसे गण-विभाग युक्त सोल मात्राओं का चरण (अन्त्य ४ मात्राओं का स्वरूप - अथवा - -)। घत्ता का छन्द : ८(४+ ४)+१४ =६+४+४; अन्त्य चार मात्राओं का स्वरूप -) ऐसे माप के चरणों वाली षट्पदी । सभो कडवकों मे यही व्यवस्था । ____२. आरम्भ में एक गाथा (पूर्वदल में (४+४+४+४+४+ - अथवा 00. + ४+-; उत्तरदल में छठा गण एकमात्रिक, शेष के लिए वही व्यवस्था), बाद में आदि-घत्ता में षट्पदी की एक तुक जिसमें १०+८+१३ (अन्त ) ऐसा चरण-विभाग । यही छन्द सभी कडवकों की अन्तिम घत्ता में ।। कडवक १. कडवक-देह का छन्द पद्धडी (४+४+४+४ : चौथे गण में जगण आवश्यक, दूसरे गण में वैकल्पिक, अन्यत्र निषिद्ध) । कडबक २. कडवक-देह का छन्द मदनावतार, अपर नाम कामिनीमोहन (- ऐसे स्वरूप वाले चार गणों का प्रत्येक चरण) । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ कडवक ३. कडवक-देह का छन्द वदनक । कडवक ४. कडवक-देह का छन्द पद्धडी । अन्त में दो गथाएं । ३. आरम्भ में आदि घत्ता में षट्पदी की एक तुक, जिसमें १०+८+१३ (अन्त १) ऐसा चरण-बिभाग । कडवक १. ३. कडवक-देह का छन्द पद्धडी । , २. ४. मदनावतार । ४. खण्ड १. १५+१५+१३ ऐसी मात्रा-संख्या वाले चरण विभाग युक्त त्रिपदी छन्द. १५ मात्राओं वाले चरण का गणविभाग : ६+४+५ ।१३ मात्राओं वाले चरण का गणविभाग : ६+४+ । खण्ड २ छन्द अपदोहक या सोरठाः ११ मात्राएं (गणविभाग ६+४+१, अन्त्य ३ मात्राओं का स्वरूप-) विषम चरणों में और १३ मात्राएं (गणविभाग ६+४+३; अन्त्य ३ मात्राओं का स्वरूप ) सम चरणों में । विषम चरण प्रासबद्ध । ___ खण्ड ३. छन्द वस्तुवदनक (अथवा वस्तुक अथवा रोला) । २४ मात्रओं का चरण । ६+४+ - अथवा , +४+६ ऐसा गण-विभाग । ___ खण्ड ४. छन्द सोरठा । विषम चरणों में चार मात्राओं के बाद क्वचित् गेयता-निमित्त 'ए' अक्षर । खण्ड ५. छन्द सोरट्ठा । विषम चरणों में अन्त के बाद 'ए' अक्षर गेयतार्थ अधिक । ५. आरम्भ में १३+१.६ मात्राओं की आन्तरसमा चतुष्पदी को एक तुक । बाद में अन्त तक, वदनक के दो चरणों और उपर्युक्त चतुष्पदी के चार चरणों के मिश्रण से बनी हुई द्विभङ्गी । ६. आरम्भ में १३+१६ मात्राओं की आन्तरसमा चतुष्पदी की एक तुक । बाद में अन्त तक, वदनक के दो चरणों और उपर्युक्त चतुष्पदी के मिश्रण से बनी हुई द्विभङ्गी । ७. भासा १-४. छन्द वदनक । ठवणि १-२. छन्द दोहा (सोरठा के समविषम चरणों का विपर्यय) । क्वचित् विषम चरणों के आरम्भ में गेयतार्थ 'त' अक्षर का प्रक्षेप । ठवणि ३ में एक ही तुक है, जिसका छन्द ११-१० मात्राओं की आन्तरसमा चतुष्पदी है । तुक ३२ से ३५ तक का खण्ड हस्तप्रति में भासा कहा गया है, मगर उसका छन्द दोहा है, जो कि अन्यत्र ठवणि में प्रयुक्त किया गया है । ठवणि ४ का छन्द वही है, जो ठवणि ३ का है -अर्थात् १२+१० मात्राओं की आन्तरसमा चतुष्पदी । छठवीं भासा का छन्द अनियमित स्वरूप का मदनावतार ज्ञात होता है । ठवणि ५ की ४२ से ४६ तुकों का छन्द वस्तुवदनक है । ४७ से लेकर अन्तिम तुक तक वदनक छन्द है। ८. आरम्भ में ११+१० मात्राओं को आन्तरसमा चतुष्पदी की एक तुक । बाद में १८ वी तुक तक वदनक और १२+१० की चतुष्पदी की एक एक तुक के मिश्रण से बनी हुई द्विभङ्गी । अन्तिम १८ वी तुक का छन्द वदनक । सर्वत्र वदनक की पङ्कितयाँ गुर्वन्त हैं। ९. छन्द वस्तु ( रड्डा । मात्राके घटक की पहले चरण का आद्य ७ मात्राओं के खण्ड का आवर्तन । दूसरे और चौथे चरण में मात्रासंख्या ११ अथवा १२ । Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ १०. भास १. छन्द वस्तुवदनक; अन्त में एक वस्तु । भास २. छन्द वदनक; अन्त में एक वस्तु । भास ३. छन्द दोहा; अन्त में एक वस्तु । भास ४. छन्द सोरट्ठा ( प्रास - रहित ); अन्त में एक वस्तु भास ५. छन्द सोरटूट्ठा; विषम चरणों में चार मात्राओं के बाद गेयतार्थ 'ए' का प्रक्षेप; क्वचित् सम चरणों के अन्त में भी 'ए' । अन्त में एक वस्तु । भास ६. छन्द १६+१६+१३ ( या १४) मात्राओं की त्रिपदी । ११. छन्द १६+१६+११ ( या १२) मात्रओं की त्रिपदी | १२. पहले खण्ड का छन्द वस्तुवदनक । अन्तिम ५ तुकों में सोरट्ठा (विषम चरणों में चार मात्राओं के बाद 'ए' कार ) । दूसरे खण्ड का छन्द वस्तुवदनक | अन्तिम दो तुकों में वस्तु या रड्डा तीसरे खण्ड का छन्द वस्तुवदनक; अन्तिम दो तुकों वस्तु । चौथे खण्ड में चार तुक सोरट्ठे की; बाद में दो वस्तु । पाचवें खण्डका छन्द वस्तुवदनक; अन्तिम दो तुक वस्तु की । छठे खण्ड का छन्द मदनावतार; अन्तिम एक तुक का छन्द वस्तु | सातवें खण्ड का छन्द दोहा; अन्तिम छह तुक सोरट्ठे की । १३. आरम्भ में १२+१० की चतुष्पदी और वदनक से बने हुए मिश्र छन्द की एक तुक | बाद में १२+१० को चतुष्पदी की एक तुक का ध्रुवक । बाद में अन्त तक वदमक । १४. खण्ड १ और २ में मुख्य छन्द वस्तुवदनक, और घात में वस्तु खण्ड ३ में मुख्य छन्द वदनक, और अन्त में ( १३वीं तुक) १२+१० की चमुष्पदी की एक तुक । खण्ड ४ (१४वीं तुक से शुरू) में मुख्य छन्द वदनक, और घात में वस्तु । वज्ड ५ में छन्द सोरट्ठा (विषम चरणों की चार मात्राओं के बाद 'ए' कार ) । खण्ड ६ में मुख्य छन्द १६+१६+१३ की त्रिपदी, और अन्त में एक तुक १२+१० की चतुष्पदी की । १५. खण्ड १ में छन्द दोहा (विषम चरणों के बाद 'अनु' का प्रक्षेप; सम चरणों का अन्तिम अक्षर दीर्घ ) । खण्ड २ में छन्द मदनावतार | खण्ड ३ में छन्द दोहा (सम चरणों के अन्त में 'त' कार का प्रक्षेप ) । खण्ड ४ में छन्द सोरट्ठा । १६. खण्ड १ में छन्द १२+१० की चतुष्पदी और वदनक के मिश्रण से बनी हुई द्विभङ्गी । खण्ड २ का छन्द मदनावतार ( ३५ वीं तक में १०+८+१३ की षट्पदी है) । खण्ड ३ में छन्द मदनावतार | खण्ड ४ में छन्द वदनक । १७. खण्ड १ में छन्द वस्तुवदनक । ठवणि में वस्तु । खण्ड २ में छन्द १३+१५ ( या १६ ) की चतुष्पदी; ठवणि में वस्तु । खण्ड ३ में छन्द दोहा (तीसरे चरण के आरम्भ में 'त' का प्रक्षेप) । ठवणि में वस्तु । खण्ड ४ में छन्द वदनक | १८. १९. छन्द दोहा । २०. छन्द ९ (=५+४)+९(=५+४)+१७ (=५+५+५+२) की षट्पदी | २१. छन्द दोहा (विषम चरणों के आरम्भ में 'अरे' का प्रक्षेप) । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ २२. आरम्भ में एक दोहा । बाद में सभी भासों मुख्य छन्द वस्तुवदनक । अन्त में एक दोहा । २३. छन्द पारण (अथवा लघु चतुष्पदी) : प्रत्येक चरण में ६+४+५=१५ मात्राएं ( अन्तिम तीन मात्राओं का स्वरूप - ) । २४. छन्द वदनक और १३+१६ की चतुमादी के मिश्रण से बनी हुई द्विभङ्गी । चरणों का अन्त्याक्षर प्रायः दीर्घ । अन्तिम छह चरणों में वदनक | -) +१३ ( अन्त में 'ए' का प्रक्षेप) की चतुष्पदो । विषम २५. छन्द १५ ( अन्त में चरण प्रास-बद्ध । २६. छन्द १३ + 'वर' अथवा 'ए' +१३ 'ए' - ऐसे मात्रा बन्ध वाली चतुष्पदी । २७. खण्ड १ : प्रथम १५+१३ की चतुष्पदी की दो तुक | बाद में १२ मात्राओं की समचतुष्पदी की एक तुक । बाद में गीता या हरिगीता (प्रत्येक चरण में २+३+४+ ३+४+३+४+५ (अन्त में - ) - २८ मात्राएं) की एक तुक । बाद में १५ +१३ की चतुष्पदी की दो तुक । बाद में १२ मात्राओं की समचतुष्पदी की एक तुक । बाद में हरिगीत की एक तुक | बाद में १५+१३ की चतुष्पदी की पाँच कडी । गीत होने से मात्रा-बन्ध शिथिल है । खण्ड २ के घडलका छन्द वदनक है । खण्ड तीन का छन्द वस्तु है । खण्ड ४ दोहा-बन्ध के आधार पर ध्रुवपद-युक्त गेय रचना | २८. छन्द १५+१३ की चतुष्पदी | विषम चरण प्रास-बद्ध | २९. आरंभ में एक मालिनी छन्द (प्रत्येक चरण में - ऐसे १५ अक्षर, ८ अक्षरों के बाद मध्य यति; और चरणान्त यति के स्थान प्रासबद्ध) और बाद में हाकलि छन्द ( प्रत्येक चरण में ४+४+४+ = १४ मात्राएं, चतुष्कलों में जगण निषिद्ध, गेयतार्थ प्रत्येक चरण के आरम्भ में 'तु' या 'त' का प्रक्षेप) की दो तुक, बाद में अन्त तक ८ (=४+४)+८(=४+४)+७ (=४+ - ་) की पटूपदी, जिसमें प्रत्येक अर्ध के आरम्भ में 'त' रखा गया है । ३०. छन्द हरिगोता । ३१. छन्द - प्रकार षट्पदी । प्रत्येक अर्ध में ८ ( =४+४)+८ =४+४)+११(=६+४+१, अन्तिम तीन मात्राओं का स्वरूप ) प्रत्येक अर्ध के आरम्भ में गेयतार्थ 'त' का प्रक्षेप । ३२. छन्द- प्रकार आन्तरसमा चतुष्पदी । प्रत्येक अर्ध में मात्रा संख्या १६ (८+८)+११ ( = ६+४+१; अन्तिम तीन मात्राओं का स्वरूप )। ३३, ३५, ३६. छन्द वस्तु अपर नाम रड्डा । ३४. छन्द मदनाबतार | ३६. मुख्य छन्द पडी । अन्तिम तुक में मदनावतार । ३८. छन्द दोहा १ - ३, ५ - १०, १२ - १४, १६-१७, १९, २१, २५, २९, ३१, ३५, ३७–३९, ४३, ५०, ५२ इन क्रमाङ्क वाली तुकों में । अन्यत्र सोरठा । ५३वों तुक के छन्द का स्वरूप पाठ की भ्रष्टता के कारण अस्पष्ट है । ३९. मुख्य छन्द दोहा । तुक ३ में वदनक । तुक १२ और १३ में उपदोहक (प्रत्येक अर्ध में १३+१२ मात्राएं ) । तुक ४ का छन्द पाठभ्रष्टता के कारण अस्पष्ट । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. छन्द षट्पद (अपर नाम छप्पय, दिवड्ढ या सार्ध छन्द , अर्थात् वस्तुवदनक (अपर नाम रोला) और दोहा की द्विभङ्गी । कुछ दस साल पहले जब मैं मुनि श्री जिनविजयजी ने वहुत सी अद्यावधि अप्रकाशित प्राचीन गुर्जर रचनाओं के सम्पादन के लिये जो विपुल सामग्री इकट्ठी कर रखी थी उसमें से चुन कर एक कृति-संचय सम्पादित करने का कार्य में लगा था तब श्री अगरचन्द नाहटा के साथ इसी बारे में विचारविमर्श हुआ । वे भी इस दिशा में कुछ करने का सोच रहे थे । हम दोनों की सम्पदनार्थ निर्धारित रचनाओं में कुछ तो समान थी और उनके लिए एक ही समान प्रति का आधार था । नाहटाजी ने कितनी एक रचनाएं अन्यान्य पत्रिकाओं में प्रकाशित करने का प्रारम्भ भो कर दिया था । ऐसी प्रकाशित रचनाओं में मुद्रण की अशुद्धियाँ तथा शब्दविभाग, छन्दस्वरूप इत्यादि को दृष्टि से कुछ क्षतियां दिखाई देती थीं । इस सन्दर्भ में हमने सहयोग से प्राचीन गुर्जर कृतियों का एक संचय तैयार करने का तय किया । प्राचीनता और स्वरूपकी विविधता के आधार पर सम्पादनार्थ विविध कृतियों के लिए नाहटाजी ने हस्तप्रतियां सुलभ कर दों । फलस्वरूप प्रस्तुत संग्रह तैयार हुआ । इसकी बहुत-सी रचनाओं के लिए एक ही हस्तप्रति ज्ञात या उपलब्ध होने से कुछ स्थानों में पाठ अशुद्ध रहा है । और फलस्वरूप छन्द, अर्थ आदि की भी अस्पष्टता ज्ञात होती है। फिर भी ऐसे स्थान अधिक नहीं हैं । आशा है तेरहवों-चौदहवीं शताब्दियों के प्राचीन गुर्जर (अर्थात् मारु-गुर्जर) साहित्य के रचना-प्रकार, छन्दोवन्ध, भाषा आदि के अध्ययन के लिए प्रस्तुत संचय उपयुक्त होगा । प्राचीन गुर्जर साहित्य की प्रारम्भिक रचनाएं प्रकाश में लाने का प्रशस्य प्रयास श्री ची. डा. दलाल ने 'प्राचीन गुर्जरकाव्य संग्रह' के द्वारा किया था । उसके बाद श्री मो. द. देशाई के आकर ग्रन्थ 'जैन गूर्जर कवियो' द्वारा इस दिशा में कार्य करने के लिए एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सहायक साधन उपलब्ध हुआ । मुनि जिनबिजयजी ने अनेकानेक प्राचीन प्रतियों को प्रतिलिपि करवा कर एक बडी प्रकाशन योजना तैयार कर रखी थी। मगर स्वास्थ्य और दृष्टि की क्षोणता के कारण वे उसको कार्यान्चित कर न सके। स्वयं नाहटाजो भो कई वर्षों से एक एक करके कुछ रचनाएं पत्रिकाओं में दे रहे हैं । प्रस्तुत संग्रह इसी दिशा में किया गया एक छोटा सा प्रयास है । ____ इस कार्य में मुनि जिनविजयजी की संचित सामग्री से हमें जो लाभ उठाया है इसलिए हम उनके ऋणी है । इस संचय के प्रकाशन का जो भार श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर ने ऊठा लिया और उसके निदेशक एवं हमारे मित्र दलसुखभाई मालवणिया से इस कार्य में विविध प्रकार की जो सहायता हमने पाई (जिसका पाना अब तो मेरा अधिकार सा हो गया है) उसके लिए हम उनके बहुत आभारी हैं। रामानन्द प्रेस के संचालक एवं कार्यकर-गण के सहकार के लिए भी हमारा धन्यवाद । १ जून, १९७५ हरिवल्लभ भायाणी Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय १. केसीगोयम-संधि अस्थि पसिद्ध सुद्ध-सिद्धते कहिउ उत्तरज्झयण-महंते ॥१ केसी-गोयम-धम्म-विचारू संधि-बंधि सु कहिज्जइ सारू ॥२ आसि पास-जिण भवण-पसिद्धउ तासु सीसु चिहुँ नाण-समिद्धउ ॥३ केसि-कुमारु समण-मुणि-जुत्तउ सावस्थिहि तिंदुग-वणि पत्तउ ॥४ अणु सिरि-वीरहँ सीस-पहाणू सुय-केवलि गोयम जगि भायूँ ॥५ बहु-परिवारि वसुहि विहरंतउ तिहि पुरि कुटुंग-वणि संपत्तउ ॥६ नयरि बिहूँ पखि मुणि विहरता पिक्खि परुप्पर मणि संभंता ॥७ जाणिवि गुरु वय-वेस-विसेसू अक्खहि निय-निय-गुरुहँ असेसू ॥८ तो नाण-पमाणी कारण-जाणी सीसहँ संसय-हरण-कए । वय-जिट्ठ गुणेवी लाभ मुणेवी केसि-पासि गोयम वयए ॥९ गोयम सीस-संघ-संजुत्तउ केसी पेक्खविणु आवंतउ ॥१० कुस-तिण-आसण आदरि देई विनय करी गोयम बइसेई ॥११ दो-वि मुणिंद उपसम-रस-भरिया निय-निय-मुणि-मंडलि परिवरिया ॥१२ ससि-रवि-सरिस-तेय ते सोह! निम्मल-नाण-गुण. जग मोहइँ ॥१३ बिहुँ पखि मिलिय पिखेविणु लोया कोऊहलि आवइ स-पमोया ॥१४ 'बिहुँ पखि होस्यइ वाद' इसउँ भणि गण-गंधव्व मिल्या गयणंगणि ॥१५ तो मुणि-संसय-भंजण-रेसी कर जोडेविणु पभणइ केसी ॥१६ 'महाभाग गोयम गुण-रासे हउँ काई पूछउँ तुम्ह-पासे' ॥१७ तो गोयम वुच्चइ 'जं तुम्ह रुच्चइ तं पुच्छेह भदंत लहू' । तं निसुणि महेसी पभणइ केसी विणय-धम्म पयडंत बहू ॥१८ आरम्भ : ए ६० श्रीकेशीगौतमाय नमः । Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय 'च्यारि महव्वय पासि पयासिय तेह जि पंच वीर-जिण-भासिय ॥१९ काज तु एक मुक्ख साहेवउँ किणि कारणि बिहुँ मग्गि वहेवउँ ॥२० 'रिसह-कालि जिय ऋजु-जड हुंता मज्झिम पुणि रिजु-पन्न महंता ॥२१ संपइ ते वंकुड-जड गणियइ तिणि कारणि बिहुँ परि वय भणियइ । ऋजु-जड धम्म दुहेलउ लक्खहि वंकुड-जड दुख-लक्खहि रक्खहि ॥२३ मज्झिम-कालि जीव ऋजु-पन्ना सुखि लक्खहि सुखि रक्खहि धन्ना' ॥ 'साहु साहु गोयम तुह पन्ना एह भंति मह चित्तह छिन्ना ॥२५ अन्न-वि एग अस्थि संदेहू तं पुण गोयम मज्झ कहेहू' ॥२६ तो गोयम वुच्चइ 'जं तुम्ह रुच्चइ तं पुच्छेह भदंत लहू' । तं निसुणि महेसी पभणइ केसी विणय-धम्म पयडत बहू ॥२७ 'एक ज इच्छा-वेस वहिज्जइ चरण चरंतह नत्थि विसेसू 'जेह तणउँ मन निश्चल होई जे चल-चित्त कया-वि चलंते निश्चल मनि भरहेसर-राओ पसन्नचंद जो झाणहु चलियउ अवर पमाणोपेतु कहिज्जइ ।।२८ किणि कारणि किउ बिहुँ परि वेसू' ॥२९ तिह मनि वेस विसेस न कोई ॥३० ते बिहुँ वेसि विसेस वि लंते ॥३१ विणु मुणि-वेसहँ केवलि जाओ ॥३२ वेस-विसेस देखि सो वलियउ' ॥३३ 'साहु साहु गोयम०' ॥३४-३५ 'तो गोयम वुच्चइ० ॥३६ 'गोयम सत्तु-सेणि धावंती दीसइ तुम्भ-भणी आवंती ॥३७ स्वर्गि मर्ति पायालि वदीती सा तई एकलडइ किम जीती' ॥३८ 'एक पंच पंचि दस पाडिय दस जिणि सेस-सत्तु निद्धाडिय' ॥३९ केसि कहइ 'रिउ किसा कहीजई तो गोयम-गुरु ते पयडीजई ॥४० 'जे कसाय इंदिय-रिउ भणिय, इक मनि जीतइ ते सवि जिणियइँ ॥४१ जं मण-विण बिहुँ बंध न लागईं जिम बिहुँ भाई सुणियइ आगइँ ॥४२ 'साहु साहु गोयम०' ॥४३-४४ 'तो गोयम वुच्चइ.' ॥४५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ herगोयम-संधि ६ 'पासि बंध बाँधिउ इह - लोगो सो तइँ पास बंध किम छिंदिउ 'पास - बंध मइ मूलह तोडिउ 'पास किसिउ' केसी इम भासइ मोह-पास पसरंत-सणेहू मोह-बद्ध जाणंत मूझइ देहुभव विस-वेली महंती विसमय-फल-दल-कंदल-मूली 'मइँ विस-वेलि-मूल खणि सोहिउ 'वेली किसी ' इम पूछड़ केसी 'भव - तिहा विस-वेलि भणीजइ जं जगि विसय-पिपासा - नडिया 'दुद्दम दुट्ठ तुरंगम अच्छइ Jain Educationa International तिहुयण-तरु छाया विहरंती ॥५५ सा तइ गोयम किम ऊमूली ॥५६ त तउ 'झाल- कराल जलइ जा अग्गी सा तइ गोयम किम उल्हाविय 'सा मइँ मेह- नीरि उल्हाविय भइ केसि ' के पावग-पाणी' 'कोव जलण जिण जलहर वाणी कोवि जलंतु खवग अहि थाई दीसइ दीण निहीण स- सोगो ॥४६ जं तुह दीसइ मनि आनंदिउ ' ॥४७ आपणपर आप जि विछोडिउ ' ॥४८ तर गोयम - गुरु ते जि पयासइ ॥ ४९ वर- वेरग्ग-खग्गि छिंदेहू ||५० भदत्त जिम किम-इ न बूझइ' ॥५१ 'साहु साहु गोयम ० ' ॥५२-५३ ' तो गोयम वुच्चइ ० ॥५४ हउँ तसु विस- वाइ न मोहिउ' ॥५७ गोयम - गुरु कहइ महेसी ॥ ५८ विसय-मूल संवेगि खणीजइ ॥५९ दो - वि सुवन्नकार भवि पडिया' ॥६० 'साहु साहु गोयम ० ' ॥६१--६२ तो गोयम वुच्चइ० ॥ ६३ ८ संतावर देहंतरि लग्गी ॥ ६४ जं तुह तणु दीसइ अण- ताविय' ॥६५ तउ तिणि मह तणु नहु संतावियं' ॥ गोयम कहइ अमियम वाणी ॥६७ जाणेवउ सुय सीयल पाणी ॥६८ नागदत्त उवसमि सिवि जाई ॥६९ 'साहु साहु गोयम ० ॥ ७०-७१ तो गोयम वुच्चइ० ॥७२ ९ मागु मेल्हि उमागिइँ गच्छ ॥७३ For Personal and Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय गोयम तीणि तुरंगमि चडियउ तुहु कहि किम उम्मग्गि न पडियउ' ॥७४ 'मइँ सु तुरंगम दमि वसि कीधउ तो हउँ तीणि उमागि न लीधउ' ॥७५ 'आसु किस' केसी पूछेई तउ तसु गोयम ऊतर देई ॥७६ 'चंचल चित्त तुरंगम जाणउ सो-इ जि एकु दमी वसि आणउ ॥७७ राम दमी मनु तिम वसि कीधउ जिम सीतेंद्रि उमागि न लीधउ' ॥७८ 'साहु साहु गोयम' ॥७९-८० 'तो गोयम वुच्चइ.' ॥८१ 'दीसइँ माग अणेग अतुल्ला जीहि जीव भव भमडहि भुल्ला ॥८२ निय निय मागु भलउ सवि बोलइँ गोयम किम तुम्ह तेहि न डोलइँ ॥ 'माग कुमाग सवे हूँ जाणउँ मेल्हि कु-माग सुमाग वखाणउँ' ॥८४ 'मागु किसिउ' केसी इम जंपइ तं सुणि गोयम एम पयंपइ ॥८५ 'मागु जिसउ जिणवरि जि कहिजइ अवर कु-माग न तेहि गमिज्जइ ॥८६ सुलसा इह मनु मागि जि लागउँ अंबड-वयणिहि किमइ न भागउँ ॥८७ 'साहु साहु गोयम' ॥८८-८९ तो गोयम वुच्चइ० ॥९० 'जे नर-नारी नीरि निमज्जहि लोल-वेल-कल्लोल हणिजहि ॥९१ तीह जु होइ सरणागय-ताणू गोयम को अच्छइ सो ठाणूं' ॥९२ 'अंतर-दीव पवर छइ एगो जत्थ न पहवइ सो जल-वेगो' ॥९३ केसि कहइ 'जल-दीवु ति कइसा' गोयम पभणइ पयडउ जइसा ॥९४ 'भव सायर जल पातक कम्मू अंतर-दीव-सरीखउ धम्मू ॥९५ दृढप्रहारि किउ पाप पयंडू धम्म-पहाविइँ किय सय-खंडू' ॥९६ 'साहु साहु गोयम० ॥९७-९८ तो गोयम वुच्चइ० ॥९९ १२ 'बेडुलडी बहुविह पूरिज्जइ एक तरहि एक जलहि निमज्जइ ॥१०० जिणि सायरु निश्चइँ लंघीजइ' ॥१०१ 'जा निच्छिदि नीरि न भरीजइ तिणि बेडी जल-रासि तरीजइ' ॥१०२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केसीगोयम-संधि पूछइ केसी तरीय-विसेसू अकय-दुकय जल-संगह-देहू आसवि भव-संवरि सिव थाए बोलइ गोयम 'कहउँ असेसू ॥१०३ भव-जल-तरण-तरी-सम एहू ॥१०४ कंडरीक-पुंडरीकहँ न्याए' ॥१०५ 'साहु साहु गोयम' ॥१०६-१०७ तो गोयम वुच्चइ० ॥१०८ अंधयार घण घोर भयंकर गोयम पूरि रहिउ भवणतर ॥१०९ अच्छइ कोइ जु तिमर हरेसिइ महि-मंडलि उज्जोय करेसिइ' ॥११० 'ऊगिउ अच्छइ एक जु भाणू सो करिसिइ उज्जोय पहाणूं' ॥१११ केसी भाणु मुणेवा चाहइ तक्खणि गोयम-गुरु तं साहइ ॥११२ 'वद्धमाण-जिणि निम्मल-नाणू उदयवंत जाणेवउ भायूँ ॥११३ महु मणि मिच्छा-तिमिर हरंतउ वीर-तरणि अवयरिउ तुरंतउ' ॥११४ 'साहु साहु गोयम' ॥११५-११६ तो गोयम वुच्चइ० ॥११७ 'जम्मण-मरण-रोगि जग पीडिउ दीसइ दुक्ख-निरंतरि भीडिउ ॥११८ गोयम अच्छइ कोइ पएसो जत्थ नही जर-मरण-पवेसो' ॥११९ 'ठाण एग छइ उत्तिम लोए जहि जर-मरण-पवेस न होए ॥१२० केसी जंपइ 'किसउ सु ठाणूं' . गोयम तासु करइ वक्खायूँ ॥१२१ 'सिद्धि-सिलोवरि अस्थि पहाणू मुक्ख एक अजरामर ठाणू ॥१२२ साचइ जम्मण-मरण जु बीहइ सिवकुमार जिम सो सिवु ईहई' ॥१२३ 'साहु साहु गोयम तुह पन्ना सयल भ्रंति मह चित्तह छिन्ना ॥१२४ इम भणि कीयउ कम्म-निवेसू केसि लियइ गोयम-वय-वेसू ॥१२५ इम करवि विचारू संजम-भारू पालेविणु जे मुक्खि गय । ते गोयम-केसी चित्ति निवेसी झायहु भवियाणंदमय ॥१२६ अंत : इति केसीगोयमसंधिः समाप्ता ॥ पं० श्रीश्रीश्रीहेमसिहेन मुनिवराणं शिष्येणि लिषिते ॥ ८५२२९३१०४८१०३२२१०५४३२२२८१२२८१६२७५९२७२ सुभं भवतुं । कल्याणमस्तुं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता : जिनप्रभसूरि २. नमयासुंदरि संधि पण मिवि पणइंदह वीर-जिणिंदह सिरि-नमया - सुंदर अज्ज वि जस्स पहावो वियलिय पावो य अखलिय-पयावो । तं वज्रमाण-तित्थं नंदउ भव- जलहि-बोहित्थं ॥ १ Jain Educationa International गुण-जल- सुरसरि सिरि-वज्रमाणु-पुरु अत्थि नयरु तहि वसइ सु-सावगु उसहसेणु तब्भज्ज - वीरमइ - कुक्खि-जाय सहदेव - वीरदासाभिहाण नहु देइ सिट्टि मिच्छत्तिआणे अह कूववंद - नयरागएण वणिउत्त-रुद्ददत्ताभिहेण अम्मा-पईहि परिवज्जिआइ पुरि वद्धमाणि सहदेव-घरिणि उपन्नु मणो[र]हु पिअयमेण गब्भाणुभावि तहि ँ रहिउँ चित्तु तहि ँ कारिउ जिण-चेइउँ पवित्तु अह नमयासुंदरि सुंदरीइ लावन्न-रूव-निरुपम-कलाहि पिअ - माइ- पमुहु सयलु वि कुडुंबु उच्छा हिउ रिसिदत्ताइ पुत्तु आवज्जिर्ड गुणिहिं सु-सावयत्तु नमया परिणीय महेसरेण रिसिदत्त ती कय एग-चित रचना - समय : ई. सं. १२७२ चरण-कमल सिव-लच्छि कुलु । किंपि थुणिवि लिउँ जम्म-फलु ॥ [१] तहि संपइ नरवइ धम्म - पवरु | १ अणुदिणु जसु मणि जिणनाह - वयणु |२ दो पवर पुत्त तह इक्क धूअ १३ रिसिदत्त पुत्ति गुण-गण- पहाण 18 रिसिदत्त इब्भ- पुत्ताइयाण | ५ परिणीअ कवड वर - सावएण । ६ पित्त चत्त-धम्मा कमेण ॥७ उ पुत्तु महेसरदत्तु ताइ ॥८ सुंदरि नमया - नइ - न्हाण - करणि । ९ गन्तूण तत्थ पूरिउँ कमेण ॥१० सहदेविहि ँ नमयापुरुस - वित्तु । ११ मिच्छत्त-राय-जयपत्तु पत्तु । १२ धूआ पसूअ गुण-सुंदरीइ |१३ तहि वज्रइ नमया निम्मलाहि । १४ आणाविउ तहि पुरि निम्बिलम्बु । १५ ववसाइ महेसरदत्तु पत्तु ॥१६ पडवज्जिउ रंजिउ ताहँ चित्तु । १७ तउ कूववंदि पहुतउ महेण । १८ जिणनाह - धम्मि सासुरय- जुत्त ।१९ अशुद्ध मूल-पाठः १ - अक्ख लिय. २. ६. रहीउ. ७. चेईउ. ८. भवज्जीउ ९. वज्जीउ. १०. चित्तु. मिच्छतीआण. ३. घरणि. ४. उपन्नु. ५. पुरीउ. For Personal and Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमयासुंदरि-संधि आणंदिउ सयलु वि नयर-लोगु नम्मय-गुणेहि तह सयल-वग्गु ।२० ओलोअणि अह निअ-मुहु पमत्त दप्पणि पिक्खिवि वक्खित्त-चित्त ।२१ तंबोल-पिक्क तिणि मुक्क जाव अह जंतह मुणि-सिरि पडिअ ताव ।२२ मुणि जंपइ 'कुणई जि मुणिवराण आसायण होइ विओगु ताण' ।२३ इॐ सुणिवि झत्ति उवरिम-खणाउ उत्तरिवि साहु खामइ पमाउ ।२४ सा नमिवि भणइ 'तुम्हि खम-निहाण पणमंत-थुणंतह दय-पहाण ।२५ सावस्स अणुग्गहु मह करेह अवराहु एक्कु मुणिवर ! खमेह' ।२६ मुणि भणइ ‘भावि पिययम-विओगु निों-निबड-पुब्व-कम्मिण अभंगु ।२७ म. जाणिउ नाणिण कहिउ तुज्झ नहु सावु एहु मा वच्छि ! मुज्झ' १२८ घत्ता इथे मुणिपहु-वयणिहि अमिअ-समाणिहि अप्पदुक्ख-संवेग-जुयं । पिअयमि आसासि सीलि पसंसिों करइ धम्मु निम्मल-चरिय ।२६ [२] अन्नया रुद्ददत्तंगओ चल्लए जवण-दीवम्मि बहु-दव्व-अज्जण-कए ।१ पोअ-वणिजेण वच्चंतु मुकलावए सयण-वग्गं तहिं नम्मयं ठावए ।२ कह वि न-हु ठाइ सह चलइ नमया-सई जा चलइ पवहणं कोइ ता गायई ।३ सुणिवि सर-लक्खणं कहइ पइ-अग्गए नम्मया 'गाइ जो पुरिसु सो नज्जए ।४ पिंग-केसो अ बत्तीस-वरिसो इमो पिहुल-वच्छत्थलो सामलो सक्कमो' १५ इय सुणिवि पिअयमो" चिंतए 'दुद्दमा जा इमं मुणइ सा नूणमसई इमा ।६ इत्तियं कालमेसा मए जाणिआ साविआ सील-विमल त्ति सम्माणिआ।७ कुल-कलंकस्स हेउ त्ति मारेमि वा तिक्ख-सत्येण जलहिम्मि घल्लेमि वा' ।८ अलिअ-कुविअप्प-पूरिअ-मणो जा गओ रक्खस-दीवु सहस त्ति ता आगओ।९ उत्तरिउ तत्थ पाणीअ-इंधण-कए नम्मया-सहिउ सो दीवु अवलोअए।१० तहि परिस्संत सरवरह पालिं गया निद-हेउं परं पुच्छए नम्मया ।११ सो वि छड्डण-मणो भणइ 'विस्सम पिएँ' तरु-तले सुअइ जा ता सणियमुद्रए ।१२ सुत्तयं नम्मयं मुत्तु निठुरु मणे झत्ति संपत्त माया-निही पवहणे ।१३ पुठ्ठ परिवारि सो कहइ रोअंतओ 'भक्खिा रक्खसेणं पिआ हा हओ।१४ १. पडीअ. २. ईअ. ३. पीययमवीओगु. १ नीअ. ५. ईअ. ६. अमी. ७. दुःख. ८. जूय. ९. आसासीअ. १०. पसंसीअ. ११. पीयअमो. १२. पीए १३. सूअइ. १४. भक्तीभा. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय एअ-ठाणाउ चालेह लहु पवहणं जा कुणइ रक्खसो तुम्ह बहु भक्खणं' १५ इअ सुणिवि तेहि भीएहि संचारिअंपवह णं जवण-दीवम्मि तं पत्तयं ।१६ तत्थ विक्किणिवि पणि' सलाभो गओ निअ-पुरं कहइ अम्मा-पिऊणं तओ।१७ रक्खसोवद्दवं नम्मयाए दुहं पुण वि परिणाविओ भुंजए सो सुहं ।१८ जग्गए नम्मया जाव इत्थंतरे पिच्छए नेव तहि पिअयमं परिसरे।१९ विलवए 'नाह हा कंत तं कहि गओ । अ-सरणं मं विमुत्तूण अइ-निदओ ।२० वीससिअ-घाय-महदाव-पज्जालणं सुगुरु-आसायणा देव-धण-भक्खणं ।२१ पुव्व-जम्मे मए किं कयं दुक्कयं अकय-अवराह जं जाइ पिउ मिल्हिडं।२२ पंच उववास काऊण अह चिंतए सरिवि मुणि-वयणु इय अप्पयं बोहए । 'चलइ जइ मेरु उग्गमइ : पच्छिम रवी टलइ नहु पुव्व-कय-कम्मु पुण कहमवी'।२४ धीरविों चित्तमह कुणइ सा पारणं छ-दिणि फलिहि कय-देवगुरु-सुमरणं । लिप्पमउ बिंबु ठावेवि गुह-अंतरे थुणइ पूएइ मणु ठवइ झाणंतरे ।२६ । 'रक्खसुद्दीवु मिल्हेवि जइ गम्मए भरह-खित्तम्मि जिण-दिक्ख गिन्हिज्जए। इय विचिंतेवि चिंधं जलहि-तीरए भग्ग-पोअत्त-संसूअगं उब्भए ।२८ बब्बरे कूलि पोएण वच्चंतओ चिंधु पिक्वेवि पिउ-बंधु तहि आगओ ।२९ नम्मयं पिच्छिउं पुच्छए वईअरं कहइ रोअंत सा वित्तु जं दुत्तरं ।३० पत्ता संबोहिवि जुत्तिहि पेम-पउत्तिहि वीरदासु तद्-दुह-दुहिउ । पवहणि आरोविउ सीलि पमोईउ बँब्बरि गउ नम्मय-सहिउ ॥३१ वीरदासु तहि कूलि नरेसरि पूइ नमया ठावइ मंदिर १ हरिणी-वेसा तहि निवसेई वीर-पासि दासी पेसेई ।२ प्रवहण-प्रति दीणार-सहस्सू निव-पसाइँ सा लहइ अवस्सू ।३ दासि भणइ 'तुम्हि सामिणि वंछई' वीरु सील-निहि तहि नहि गच्छइ ।४ तेत्ति धणु पेसइ तसु हस्थिहि हरिणि भणइ 'अम्ह काजु न अथिहि ।५ वीरदासु एती कल (2) आणि' भणिति-भंगि तिणि आणिउ प्राणि ।६।। खोभिउ हाव-भाव-विन्नाणिहि न चलिउ जिम सुर-गिरि बहु-पवणिहि।७ १ पणीअं. २ वीससी. ३ धीरवीअ. १ बव्वरे. ५ वईअरं. ६ पमोईउ. ७ बब्वरि. ८. पूईउ. ९ मंदरि. १० सीलु. ११. तत्तिउ. For Personal and Private Use Only Jain Educationa International Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमयासुदरि-संधि वीरु स-दार-तुटु तिणि जाणित कंवडिहि हरिणी सी वक्खाणिउट वेर्स' दासि भणइ एगंते - 'नारि ज दिट्ठा सिद्धि-गिहंते ।९ भयणि सुआ वा निरुवम-रूवा सा जइ वेस तु हुईं वसि देवा' ।१० इअ मंतिवि तिणि मुद्दा-रयणू मग्गिउ अप्पिउ सिद्वि-पहाणू ११ पडिछंदा-दंसण-मिसि पेसिअ मुद्दा नमया(य) दंसिअ दासिअ ।१२ "तेडइ तुम्हि एवड-अहिनाणिहि वीरदासे आवउ अम्हा मुवणिहि ।१३ नाम-मुद्द पिक्खिवि चिंतिवि बहु सह दासिहि नमया आविअ लहु ।१४ हरिणी-गिह-पच्छलि भूमी-हरि पुन्व-सिक्ख तिणि घल्लिअ निझुरि ।१५ मुद्दा दासिहि अप्पिअ वीरह... नमया दोसु देइ दुक्कम्मह.. ।१६... उट्रिउ सिट्रि जाइ निय-मंदिरि .. ता नहु पिच्छइ नमया-सुंदरि ।१७.. घरि बाहिरि पुरि न [लहइ सुद्धि भरुयछि गउ कय-बुद्धि स-रिद्धि ।१८ कइढिय भूमि-गिहाउ महासइ .. जाणिउ वीर गयउ अह दंसइ ।१९ सयल-रिद्धि 'एअह तइँ सामिणि करउँ होसि जइ वेसा भासिणि ।२० सग्गु एहु ता [मिल्हि. असग्गहु' . हरिणि-वयणु निसुणिवि नमया लहु ।२१ वज्ज-हय व्व भणेइ महासइ 'मह जीवंति सीलु न नस्सइ ।२२ सीलु सयल-दुक्ख-क्खये -कारणु सील सिद्धि-सुर-लच्छिहि कम्मणु ।२३ नरय-नयर-गोपुर वेसत्तणु उत्तम-निदिअ तसु किं वन्नणु' ।२४. तं निसुणिवि तज्जइ निब्भच्छइ हरिणी कणइर-कंबिहि कुट्टइ ।२५. जइ जल-निहि मज्जाया मिल्हइ तह वि न नम्मय सीलह चल्लइ ।२६ जाइ धरणि-तलु जइ पायालह तुट्टिउ पडइ गयणु जइ मूलह ।२७. तिमिरु तरणि जइ ससि विसु वरिसइ तह वि न नम्मर्य-सीलु. विणस्सइ ।२८ इयं अ-चलंती बहुहा ताडइ लट्ठि मुट्ठि पुण सत्त न पाडइ ।२९ कुणइ सई परमिट्ठिहि सरणं तसु पभावि हुइ हरिणी-मरणं ।३० जाणिउ सुद्धि नरिंदु निवेसइ तसु पदि नमया कारणि मन्नइ ।३१ चिंतइ 'मज्झ सीलु नहु भंजइ इंदु वि' अह निवु तहि हक्कारइ ।३२ वेसा-गिह-निग्गमु सुंदर मणि जाणिवि निव-पेसिअ-सुक्खासणि ॥३३ आरोहिवि पह-तडि उग्घडियह . जंती पडइ : मज्झि सा खालह ।३४ १ वसं. २ पडच्छदा. ३ वीरुदासु. . जीवंतीअ. ५. दुक्खयकारणु. ६. निंदीम. ७. नमयं. ८. ईय. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काम्म संचय कद्दमि तणु लिंपण-मिसि निअ-हिअ गहिअ सील-रक्खणि सन्नाहिअ ।३५ समयणिहि (?) पत्तइं किर फाडइ वत्थमिसिण सा पमुइ हिअडइ ।३६ लंखइ धूलि भुअंग-त्तासणि नच्चइ गायइ सती-सिरोमणि ।३७ सार मुणिवि निवु गुणिआ पेसइ पाहण-लंखणि ते वित्तासइ ।३८ ॥ घत्ता ॥ इय गहिली जाणिय निव-पमुहिहिं लोइहि बुद्धि-पहाणिअ सील-सकल डिभिहि कलिय । मुक्त अमोहिहि भणइ थुणइ जिणु अक्खलिय ॥३९ मित्तह जिणदेवह कहइ वीरु नम्मय-वइअरु तसु खिवइ भारु १ भरुअच्छह गच्छइ निय-पुरम्मि जिणदेव पत्तु अह कूलि तम्मि २ दिट्ठा नैच्चंती विगल-रूव जिणदेवि पुठ्ठ 'तउँ किं सरूव' १३ सा भणइ 'कहिसु क्ण-चेइअम्मि' अन्नोन्न कहिउ वइअरु वणम्मि ।४ सो बुद्धि देइ सा धरइ चित्ति अह घय-घड फोडइ गहिलिअ त्ति ।५ घय-वणिअ कुणइ निव-पासि राव जिणदेवह कहइ नरिंदु ताव ।६ 'ए करइ उवद्दवु घणउ देसि पवह णि आरोहिवि लइ विदेसि ।७ नरनाह-वयणु मन्नेवि नियलि बंधिवि चडावि पवह णि विसालि ।८ भरुयछि वंदाविवि देव नीअ जिणदेवि नमय पिअ-हरि विणीअ ।९ रोअंत कहइ वुत्तंतु सयलु पियरिहि पुरि उच्छवु विहिउ अतुल ।१० नमया-पुरिअ दस-पुव्व-धारि सिरि-अज्ज-सुहत्थि संपत्तु सूरि ॥११ वंदइ सहदेवु कुडुंब-कलिउ निसुणेवि धम्मु नमयाइ सहिउ ।१२ अह वीरदासु पुच्छइ मुर्णिदु किं नम्मयाइ किउ कम्म-विंदु ।१३ पुग्विल्ल-जम्मि जं दुक्ख जुत्त । पइ-चत्त जिअंती कह वि पत्त' ।१४ अह कहइ मुणीसरु 'नम्मयाइ । एयाइ विंझगिरि-निग्गयाइ ।१५ अहिठायग देवय आसि एह पुब्विल्ल-जम्मि मिच्छत्त-गेह ।१६ पडिमा-पडिवन्नह मुणिवरस्स एगस्स नई-तडि निसि ठिअस्स ।१७ "एए नइ-न्हाणह निंदग"त्ति पढम पडिकूलुवसग्ग-गत्ति" ।१८ पच्छाणुकूल थी-रूव-पमुह कय खोभ-हेउ देवीइ दुसह ।१९ १ मिसिणि. २ पमुई. ३. वुद्धि. ४ अमोहिहिं. ५ वईअरु. ६ नञ्चति. ७ वईमरु. ८ बिंदु. ९ नम्मयाई. १० गति. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमयासुदरि-संधि अक्खुहिउ खमावइ सा वि साहु मुणि कहिअ धम्मि तसु बोहि-लाहु ।२० सा देवि चविवि सहदेव-धूअ हुय नमया-सुंदरि गुणिहि गरुय ।२१ पडिकूलिहि तसु हुउ पइ-विओगु अणुकूलि सील-खोहण-पओगु' ।२२ इय निअ-भवु निसुणि[वि भव-विरत्त चारित्तु लेइ नम्मय पवित्त ।२३ इक्कारसंग-धर-गणहरेण सा ठविय महत्तर-पदि कमेण ।२४ फुड-अवहि-नाण-जुये सह मुणिंदि विहरंत पत्त पुरि कूववंदि १२५ कउ तीइ महेसरु निव्वियप्पु सर-लक्खणेण निंदेइ अप्पु ।२६ 'जाणिज्जइ सत्थ-पमाणि सव्वु तउ नमया जाणिउ पुरिस-रूवु २७ मई दुट्ठि निकिट्ठि सु-सील चत्त कंता तसु पावह दिक्ख जुत्त' ।२८ नम्मयमुवलक्खिवि चरणु लेइ' रिसिदत्त-सहिउ सो तवु तवेइ ।२९ आराहिवि अणसणु सग्गि जंति तिन्नि वि अणुवमु सुहु अणुहवंति ।३० ॥ घत्ता ॥ कल्लाणह कुलहर होअउ जय-कर नमयासुंदरि-संधि वर । अब्भत्थणि संघह रइअ अणग्यह पढत-सुणंतह उदय-कर ॥३१ सरिओं वि सील-जुन्हा जीसे सुकयामएण तिय-लोअं । सिंचइ बीइंदु-कल व नम्मया जयइ अ-कलंका ॥ तेरस-सय-अठवीसे वरिसे सिरि-जिणपहु-प्पसाएण। एसा संधी विहिया जिणिंद-वयणाणुसारेणं ॥ १ ज्य. २ कूविचंदि. ३ अणुसणु. ४ रईअ. ५ सिरियातीउ. ६ पसाएण. अन्तः ॥ श्रीनर्मदासुंदरीमहासतीसंधि समाप्ता ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सील-संधि [कर्ताः जयशेखरसूरि-शिष्य रचना-समयः १५वीं शताब्दी लेखन-समयः ई.स.१४३७] सिरि-नेमि-जिणिंदह पणय-सुरिंदह पय-पंकय समरेवि मणि । वम्मह-उरि-कीलह कय-सुह-मीलह सीलह संघथ (?) करिस हउँ ॥१ [१] जे सील धरइ नर निरईयार तव-संजम-नियमह मज्झि सारु ।२ इह जम्मवि सिरि-कितिहि सणाहु विप्फुरइ समीहिय सिद्धि ताह ।३ दीहाउ महा-यस इद्धिमंत अहमिंद महा-बल तेयवंत ।४ । अक्खंड सील धरि भविय सत्त सुर-सुक्ख लहइ पर-लोइ पत्त ।५ तित्थयर-चक्कि-बल-वासुदेव सुर-खयर-नरिंदिहि विहिय-सेव ।६ अन्ने वि जे तिहुयण-सिरि-निहाण ते सील कप्प-तरु-कुसुम जाणि १७ भुंजेविणु सुर-नर-खयर भोग आजम्म-काल-गय-रोग-सोग ।८ अक्खंड-सील-सोहिय-सरीर निवाणि]-सुक्ख लहु लहइ धीर ।९ सो दाण सव्व-किरिया-पहाण तव स ज्जि सयल-सुक्खह निहाण ।१० सा भावण सिव-साहण-समत्थ अखंड धरिज्जइ सील जेन्थ ।११ महिलउ जाउ परिरक्खियाउ भज्जाउ बंभ-वय-धारियाउ ।१२ ताउ व्व जंति सुर-लोय चंगि जिण भासइ पन्नवणा-उवंगि ।१३ जं [५१९A] कलि-उप्पायण जण-संतावण नारय-पमुह वि सिद्धि गय। निम्मूलिय-हीलह निम्मल-सीलह, तं पयाव पसरइ पयड्ड ॥१४ निविड-सीलंग-सन्नाह सन्नद्धया रमणि-जण-नयण-वाणेहि जि न विद्धया।१५ चत्त-गिह-वास सिव-सुक्ख-संपइ-कए तेसि पणमामि भत्तीइ पय-पंकए ॥१६ तिव्व-तवचरण-तित्थ-वय-रस-पोसिणा वहु वि दीसंति लोयम्मि सु-महेसिणा ।१७ गरुय-सीलंग-भर-वहण-कय-निच्छया विरल किवि अस्थि पुण मुक्ख-तल्लिच्छया ॥१८ जे वियाणति धम्मस्स तत्तं जणा सग्ग-अपवग्ग-संपत्ति-कय-निय-मणा ।१९ रमणि-जण-रूव-लावन्न-वक्खित्तया ते वि भव-भीय बंमम्मि चल-चित्तया ॥२० कोडि-सिल मि इ बाहाहि जे धारही बलिण दप्पिट्ट नर खयर वसिकारिही ।२१ १. ६ २ निरिदिहि. ७. २ कप्पु. १०. २ °सुखह. १४. ४. निम्मूलीय: १५. १ मिवडु. १६. २ भत्तीय पई. १७. १ मिच्छ.: Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सील-संधिः विसमसर-पसर-झड-भग्ग-सव्वायरा ते वि सीलंग-भर-वहण-अइकायरा ॥२२ सीसु नामंति जे कस-वि नहु अत्तणो सुहड-भडवाय-पडिभग्ग-पडिसत्तुणो ।२३ राग-निविडेण मयणेण पुण दामिया ते वि अबलाण पाएसु नर नामिया ॥२४ बंभ चउ-वयण किउ रुद्द नच्चाविओ इंद सहसक्ख तवणो वि तच्छाविओ ।२५ सयल सुर विसय-जंतेण इय घल्लिया मयण-मल्लेण इक्खु व्व संपिल्लिया ॥२६ नाणवंतं वि तव-तविय-निय-देहया तिव्व-भावेण परिचत्त-धण-गेहया ।२७ राग-गहगहिय पुण विस्समित्ताइणो लोय-पयडा वि अब्बंभ-पडिसेविणो ॥२८ सेणिय-निव-पुत्त वि अइसय-जुत्त वि नंदिसेण जिण-सीस जह। हूउ विसयासत्तउ इंदिय-जित्तउ ता धरित्थ इंदिय-बलह ॥२९ गुरु-वयण-अमिय-रस-सित्त-अंग वेग्ग-खग्ग-हय-सयल-संग ।३० वम्मह-मय-भंजण-दढ-पइन्न अक्खंड-सील पालइँ ति धन्न ।३१ मयरद्धय-सबल-समीरणेण सुरगिरि-गुरुयाण वि चालणेण ।३२ सील-दुम कंपिय नेव जाह गुरु-भत्तिहि पणमउँ पाय ताह ।३३ उब्भड-नवजुव्वण-आण-सज्ज नव-रंग चत्त जिणि अट्ठ भज्ज ॥३४ मोहारि-अगंजिय सिद्धि-गामि सो जयउ जयउ जगि जंबु-सामि ।३५ वेसा-घरि छहि रसि रिसि अहार वीससवि (2) तिहुयण-मल्ल-मारु ३६ झाणग्गि दहवि जिणि तसु विणासु किय थूलभद्द पइ नमउँ तासु ॥३७ रहनेमि प[५२०A]राजिय विसय-अग्गि पडिवोहवि ठाविय जीइ मग्गि ।३८ सा सीलवंत उगसेण-धूय । सीलिण तिहु भुवणहि पयड हूय ॥३९ अभयादेवि संकडि पाडिएण मणसा वि न लंधिय सील जेण ।४० महमहइ महारिसि-मज्झि जस्स जस-परिमल सिद्वि-सुदंसणस्स ॥४१ निय सील-भंगि भय-भीरुयाहि अवि रज्ज-लच्छि परिचत्त जाहि।४२ ते नम्मय-सुंदरि मयणरेह धुरि लहइ महासइ-मज्झि रेह ॥४३ निय कंतु मुत्त सुमणे वि जाउ पर-पुरिस न कंखइ इत्थियाउ ।४४ उवसग्ग-संगि निव्वडिय सत्त जाउ वि महासइ जिणिहि वुत्त ॥४५ सुभदा रय-सुंदरि अंजण-सुंदरिदोवइ-दवदंती-पमुह । गुण-रयण-समिद्धिय भुवण-पसिद्धिय जयइ महासइ सील-धर ॥४६ २०. १ वखित्तिया; २ चत्तिया. २२. २ अय. २३. २ पडिसत्तणो. २४.१ निवडेणे. २५. १ निचाविओ. २९. २ अयसय. ३१.१ पयन्न. ४२. १ नीय. ४३.२ लहय महासय. ४५.२ महासय. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय अहह पेच्छह सीलस्स माहप्पयं राम-भज्जाय अइ अच्छरिय कप्पयं ।४७ पाय फरिसेवि फिडेवि जं पावओ नीरु लहु लहइ रोगग्गि-उल्हावओ।४८ रोग-जल-जलण-विस-भूय-गह-मग्गया सीह-करि-सप्प-चोरारि-उवसग्गया। ४९ मारि-डमरारि-भय-करण जे देसई सीलवंताण नामेण ते नासई ।५० । आउ अह-दीह रोगेहि परिचत्त[५२०B]या रूव-लावन्न-सोहग्ग-बल-जुत्तया ।५१ जं च अन्नं पि अभिराम जगि गजई सीलवंताण तं सयल संपज्जई ॥५२ पणय-नीसेस-खयरिंद-नर-सामिओ निययनू(?)बलिण इंदो वि जिणि नामिओ। अन्न-रमणीय कय-चित्त लंकावई करवि कुल-नासु सो पत्तु अहर-गइ ।५४ नरय-भवि अगणि-पुत्तलिय-परिरंभणं तिरिय-जोणीसु संढत्त-वह-बंधणं ५५ मणुय-जम्मम्मि दोहग्ग-छवि-छेयणं मणुय-जम्मम्मि सरइब्भ-चंचलतरे गिरि-नई-वेग-सरिसम्मि जुव्वण-भरे ।५७ असुय-तुच्छेसु विलएसु नर लुद्धया मुक्ख-सुक्खाइ हारंति ही मुद्धया ॥५८ सुहम-नव-लक्ख-जीवाण-संहारणं देह-धण-कित्ति-धम्माण खय-कारणं ।५९ सयल-दुह-मूल-महुबिंदु-सम-सुक्खयं विसय-सुह चयहु अहिलसउ जइ मुक्खयां६० विसय-विस-सील-अमियाण फल वुझिओ सील-भट्ठाण संसग्गिम वि उज्झिओ ।६१ सुद्ध सीलम्मि ठावेह अप्पाणयं जेम अचिरेण पावेह निव्वाणयं ॥६२ इय सीलह संधी अइय सुबंधी जयसेहर-सूरि-सीस-कय । भवियह निसुणेविणु हियइ धरेविणु सील-धम्मि उज्जम करहो* ॥६३ ५३. १. खयरंद, सामीउ. ५५. १. पुत्तलीय ६०. २. जय. ६३. १. मई. * अन्तः सीलसंधि समाप्तः. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता : वज्रसेन नमेव । पहिलउँ रिसह - जिणिदु भवियहु ! निसुणहु रोल धरेवि । Jain Educationa International भर हे सर-बाहुबलि-घोर बाहुबलि - केरउ विजउ ॥ १ सयलह पुत्तह राणिव देवि । भरहेसरु निय - पाटि ठवेवि । रिससरु संजमि थियउ ॥२ रचना - समय : ११६६ के लगभग वरि जाउ दिणि दिणि उपवासु । मूनिहि थाकउ वरिस - सहासु । व रिससरि तपु कियउ ॥ ३ तो जुगादेव सु-पहाणु I उप्पन्नं वर - केवल-ना 1 भरसर रिद्धि नियंती तो चक्की भरसरु चक्क - रयणु भरहेसरह ||४ जिण वंदण जाइ । अंगि न माइ । तो सेणावइ अज्जिउ मरुदेवी केवल लहए ॥५ दिगविजउ करेवि । राणा मेले वि 1 अवझा-नयरिहि आइयउ ||६ कहियं देव । आउह- सालह एव 1 चक्क - रयणु नवि पइसरइ' ॥ ७ भरहु भणइ 'कु न मन्नइ आण ?' 'देव ! बंधु सवि खंध-सवाण । बाहुबलि पुण आगलउ' ॥८ 'बंधु बाहु ! तुम्हि आजु-इँ आजु । करउ आण, कय छंडउ राजु' । भरहिं दूय पठावियउ ॥९ मूल प्रति के अशुद्ध पाठः १. ३. बहुवलि. १ दिणि २. २.४. ३ चक्कु. १. २. अंगी. ६. १. थक्की दिगुविजउ करेइ. For Personal and Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय ___ तो बंधव गय तायह पासि । ___ सव्वे केवलि हुय गुण-रासि । बाहूबलि मंडिउ थियउ ॥१० - [२] पहु भरहेसरि एव बाहू वलिहि कहावियउँ । 'जइ बहु मन्नहि सेव तो प्रवणउ संग्रामि थिउ' ॥११ गरुयाह एक-इ नाँव दूबोलिहि गंजण चडी य । सो बाहूबलि ताँव . दूवउ गलइ लियावियउ ।१२.. सो बाहुबलि-वाणि संभलेवि अवझह गयउ । भरह-तणइ अत्थाणि पणमेविणु दूअउ भणए ॥१३ 'मई लाधं तहि ठावि मउडि महेसरु जं करइ । अवरु इँ साँभलि सामि बाहूवलिहि कहावियउँ : ॥१४ . रवतह गाँगह तीरि दडउ जेव उच्छालियउ। घाउ म होउ सरीरि पडतउ दय करि झालियउ॥१५ तं वीसरियं आजु भरहेसरु मय-भिंभलउ । जइ करि लाधउँ राजु त कि अम्हि सेव मनाविसइ ॥१६ गंग सिंधु दुइ राँड अनु जइ नाहल साहिया । ए तीणइ छ-इ खाँड जीतउँ मानइ भामटउ' ॥१७ एरिस वयणु सुणेवि . 'बिलि बिलि हुंति न गोहडी य । अंगूठइ टेरेवि बाहूबलि बाहा-बलिहि" ॥१८ एत्थंतरि नह-मागि आवेविणु नारउ भणए । र 'तलि महियलि अरु सागि नउ थी बाहूबलि-सवउ' ॥१९ । [३] कोवानलि पज्जलिउ ताव भरहेसर जंपइ । 'रे ! रे ! दियहु पियाण ढाक जिम महियलु कंपइ ॥२० गुलगुलंत चालिया हाथि नं गिरिवर जंगम । हिंसा-रवि बहिरिय-दियंत हल्लिय तुरंगम ॥२१ .. ७. ३. चक्कु. ८. २ मनइ. ११. २. मनहि. १२ १ वढीय. १२. २. दूवो. १३. ३. अथाणि. १५. २. दडउ । जव उछा. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरहेसर-बाहुबलि-घोर धर डोलइ खलभलइ सेनु दिणियरु छाईजइ । भरहेसरु चालियउ कटकि कसु ऊपमु दीजइ ॥२२ तं निसुणेविणु बाहूवलिण सीवह गय गुडिया । रिण-रहसिहि चउरंग-दलिहि बिउ पासा जुडिया ॥२३ अति चाविउँ पाँडरं होइ अति ताणिउ त्रूटइ । अति मथियँ होइ कालकूटु अति भरियं फूटइ ॥२४ मंडलियहु बाहुबलि भणइ ‘मन मरइ अखूटइ । जो भुयदंडह पडइ पासि सो किम्वइ न छूटइ' ॥२५ देवसूरि पणमेवि सयल-तियलोय वदीतउ । वयरसेणसूरि भणइ एहु रण-रंगु जु वीतं (2) ॥२६ [४] ता पहिलइ रिण-रंगि ए अनलवेगु तहि झूझियउ । पडियउ भंगोभंगि आगिवाणि भरहह तणए ॥२७ काहं लूया कूच काहं माथा मूडिया । के-वि किया खर-छूच विज्जाहरि विज्जा-वलिहि ॥२८ इण परि जउ भडवाउ मउडबधा ऊतारियउ । तउ भरथेसरु राउ आपणि ऊटवणिय करए ॥२९ तावह विज्जु-पयंडु अनलवेगु नहयलि गयउ । मोडिवि ए तिणि धय-दंड भरहेसरु विलखउ कियउ ॥३० चक्किहि ए छिंदइ सीसु भरहेसरु विज्जाहरह । इण रण-रंगि जु वीतु देवाह इँ नइ वीसरइँ ॥३१ तो बहु ए जीव-संहारु देखेविणु बाहूबलिण । भणियं पर-बल-सारु 'मुज्झु वि तुज्झु वि लागठउ ॥३२ जइ बूझिसि तो बूझि (?) काइँ माँडलिए मारिए । पहरण-पाखइ झूझु अंगोअंगिहि कीजिसई' ॥३३ तउ धुरि ए जोवंताह आखिहि पाणिउँ आइयउँ । वादिहि ए बोलंता[ह भरथह पडिऊतरु नहि ॥३४ २१. २. जहिरिय, हल्लिया. २३. १. तिसुणे; २. रहसिंहि. २६. १. सयलु. अंतः २५ छ. २८. २ वलिहिं ५. ३२ ४. मुझु, तुझु. ३४. ३. बोलतां. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झूझवि ए भुअ-दंडेहि मूठिहि अरु दंडेहि (2) तो चिंतइ स-विसाउ त कि हउ (पुहवी] राउ करयलि चक्कु धरेवि मूकउँ बलि आवेवि तावहँ भणइ हसेवि 'एक हछूमट (!) देवि पुण त भट्ठ-पयन्नु मइ पुण किउ सामन्नु' तो पाए लागेवि 'बंधव ! मुज्झु खमेहि ऊतर ताव न देइ राणे सरिसउ ताव . प्राचीन गुर्जर काव्य संचय मल्ल-झुझु तहि निम्मियं ।। भरहु जीतु बाहूबलिहि ॥३५ जो दाइयहँ दूबलउ । चक्क-रयणु तह सुमरियं ॥३६ जाल-फुलिंगा मेल्हतउँ। प्रहवइ नाहइँ गोत्रियह ॥३७ बाहूबलि भरहेसरह । चक्क-रयणि सउ निद्दलउँ ॥३८ तउ मइ मूकउ जीवतउ । पंचह मूठिहि लोचु किउ ॥३९ भरहेसरि मन्नावियउ । तइँ जीतउँ, मइँ हारियउँ ॥४० बाहूबलि भरहेसरह । भरहेसरु घरि आइयउ ॥४१ [५] पहु भरहेसरि राइँ ए रिसह-जिणेसरु पूछियउँ । 'हं बाहुबलि-भाइ ए सामिय ! काइ हरावियउ' ॥४२ तउ महुरक्खर-वाणि ए रिसहनाहु एहु वज्जरए । 'कारणु अवरु म जाणि ए पुव्व-कियं परि परणमए ॥४३ पंच पूत अम्हि आसि ए वयरसेण-तित्थंकरह । राजु करिवि तहि पासि ए तपु किउ अम्हि निम्मलउ ॥४४ मइँ तहि तित्थयरत्तु तइँ पुणु बाधउ भोग-फलो । मुणिहिं मलेविणु गातु ए xxxx बाहूबलिहि' ॥ ४५ बंभी सुंदरि बे-वि ए माया-करि हुई जुबए । भवियहु ! इहु जाणेवि ए माया दूरि परिहरउ ॥४६ बाहुबलिहू नाणु ए माणि पण?ई तउ हुयउँ । अवरु म करिसउ माणु ए वयरसेण-सुरि वज्जरए ॥४७ भावण तिव भावेउ ए जिव भावी भरहेसरिहि । तउ केवल पावेहु ए राजु करता तेण जिव ॥४८॥ ३५. १. झुझु वि. ३५. २ निमियं. ३६. २. दाइहहं. ३७. ४. प्रवहइ. ३९ ३. सामनु. ४०, २. मंना. ४१. २ हारावियउ. ४३. २, बज्झरए. ४४. २. वायरसेण. ४५. १. वाधउ. पुप्पिकाः भरहेसरबाहूबलिघोर समाप्तः । Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवदया-रास [कर्ता : आसिग रचना-समय : १२०१] उरि सरसति आसिगु भणइ नवउ रासु जीवदया-सारु । कन्नु धरिवि निसुणेहु जण! दुत्तरु जेम तरहु संसार ॥१ जय जय जय पणमउ सरसत्ती जय जय जय दिवि पुत्थाहत्थी । कसमीरह मुख-मंडणिय त तुढिइ हउ रयउ कहाणउँ । जालउरउ कवि वजरइ देहा-सरवरि हंसु वखाणउँ ॥२ पहिलउ अक्खउँ जिणवर-धम्म जिम सफल हुई माणुस-जम्मु । जीव-दया परिपालिजऍ माय बप्पु गुरु आराहिज्जइ । सव्वह तित्थह तरुवरहँ (?) घरिवइ (?) छाही-फलु पावीजइ ॥३ देव-भत्ति गुरु-भत्ति अराहहु हियडइ अखि धरेविणु चाहहु । धणु वेचहु जिणवर-भवणि खाहु पियहु नर ! बंधहु आसा । काया गढ तारुण्ण-भरि जं न पडहि जम-देवहँ पासा ॥४ सारय-सजल-सरिसु पर धंधउ नालिउ लोउ न पेखइ अंधउ । डुंगरि लग्गइ दव हरणि तिम माणुसु बहु दुक्खहँ आलउ । डज्झइ अवगुण-दोसडइ जिम हिम-बणि वण-गहणु विसालउ ॥५ नालिउ अप्पड अप्पइँ दक्खइ पायहँ हिट्रि बलंतु न पिक्खइ । गणिया लब्भहि दिवसडइँ जं जि मरेवउ तं वीसरियउ । दाणु न दिन्नउ तपु न किउ जाणतो वि जीउ छेतरियउ॥६ अरि जिय ! यउ चिंतिवि करि धम्मु वलि वलि दुल्लहु माणुस-जम्मु । नत्थि कोइ कासु वि तणउँ माय ताय सुय सज्जण भाई । पुत्त कलत्त कुमित्त जिम खाइ पियइ सवु पच्छइ थाई ॥७ धणि मिलियइ बहु मग्गणहार किं तसु जणणिहि किं महतार । कि केतउ मागइ धरणि पुत्रु होइ प्राणी णेइ लेसइ । विहचण-वारहँ पत्तगहँ बोलाविउ को सादु न देसइ ॥८ अशुद्ध पाठ : १. २. जीवादय. १. ५. कंनु. २. ४ तुट्ठी. ३, २. जमु. ३. ४ हिजइ. ४. ३, घणु, ६. १. अप्पओ. ६. २. वलं तु. ६. ५. दिनउ. ७. १. धंमु. ७. २. दुलहु, जंमु. ७. ४. भाय. ८. १. वहु. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्राचीन गुर्जर काव्य संचय जणणि भणइ मइँ उवरहँ धरियउ बप्पु भणइ महु घरि अवतरियउ । अणखाइय महिलिय भणइ पातग-तणइ न मारगि जाउँ । अरथु धरमु विहँचिवि लियउँ विदि नत्थी पतु घडसइ न्हाउँ (१) ॥९ यउ चिंतिवि निय-मणिहि धरिज्जइ झुद्री साखि न कासु वि दिज्जइ । आलिं दिन्नइ आल-सउ जउ अजु हूवउ कालु न होसइ । अनु चिंतंतह अन्नु हुइ धंधइ पडियउ जीउ मरेसइ ॥१० पुडइ निपन्न जेम जल-बिंदु तिम संसारु असारु समुंदु । इंदियालु नङ-पिक्खणउ जिम अंबरि जलु वरिसइ मेहु । पंच दिवस मणि छोहलउ तिम यहु प्रियतम-सरिसउ नेहु ॥११ अरि जिय ! परतहँ पालि बँधीजइ जीविय-जोवण-लाहउ लीजइ । अलियउ कह वि न बोलिजइ सुद्धइ भाविहि दीजइ दाणु । धम्म-सरोवर विमल-जलु झडइ पाउ निय-मणि यउ जाणु ॥१२ पंच दिवस होसइ तारुन्नु झडइ देह जिम मंदिर सुन्नु । जाणंतो वि य जाणइ य दिक्खताह इ तोइ पयाणउ । वट्टहँ संबलु नहु लयउ आगइ जीव किसउ परिमाणु (१) ॥१३ दिवसे मासे पूजइ कालु जीउ न छूटइ विरधु न बाल । छडउ पयाणउ जीव तुहु साजणु मित्त वोलावि वलेसइ । धम्म परत्तह संबलउ जंता-सरिसउ तं जि चलेसइ ॥१४ अरि जिय! जइ बूझहि ता बूझु वलि वलि सीख कु दीसइ तूझु । वारि मसाणिहि चिय बलइ कुडि दाझंती गंधि न आवइ । पाव-कूव-भिंतरि पडिउ तिणि जिण-धम्मु कियउ नवि भावइ ॥१५ जिम कुंभारिं घडियउ भंडू तिम माणुसु कारिमउ करंडू। करतारह निप्पाइयउ अटुत्तर सउ वाहि-सयाइं । जिम पसुपालह खीरहरु पुट्ठिहि लग्गउ हिंडई ताई ॥१६ देहा-सरवर-मज्झिहि कमलो तहि बइठउ हंसा धुरि धवलो । काल-भमरु ऊपरि भमइ आउ-खए रस-गंधु वि लेसइ । अणखूटइ नहु जिउ मरइ खूटा-ऊपर घरी न देसइ ॥१७ १०. ३. दिनइ. १०. ५. अनु. ११. १. निपन, विंदु ४.अवरि, १२. १ वंधी. १२. ३. वोलि . १२. ५. संबलु १४. २. वालु, १४. ५. संवलओ, १५.१ बूझहि. १५. ३. वलइ. १६. २. करंड. १६. ५ पमुयालह. १७. १. कमलु. १७. ३. कालु. १७. ६. दीसइ. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवदयारास नयर-पुव आया वणिजारा जण-णिसमाणु अरिहि परिवारा (१)। धम्म-कयाणउँ ववहरहु पाव-तणी अँडसाल निवारहु । जीवह-लोहु समग्गलउ कुम्मारगि जणु जंतउ वारहु ॥१८ एगिदिय रे जीव ! सुणिज्जइ बेइंदिय नवि आसा किज्जइ । तेइंदिय नवि संभलइ चउरिदिय महि-मंडलि वासु । पंचिंदिय तुहुँ करहि दय जिण-धम्मिहि कीजइ अहिलासु ॥१९ धम्मिहि गय-घड तुरियहँ थट्ट मय-भिंमल कंचण कसवट्ट । धम्मिहि सज्जण गुण-पवर धम्मिहि रज्ज रयण-भंडार । धम्म-फलिण सु-कलत्त धरि बे-पक्रव-सुद्ध सील- सिगार ॥२० धम्मिहि मुक्ख-सुक्ख पाविज्जइ धम्मिहि भव-संसारु तरिज्जइ । धम्मिहि धणु कणु संपडइ धम्मिहि कंचण- आभरणाई । नालिय जीउ न जाणइ य ए सहि धम्महँ तणा फलाइं ॥२१ धम्मिहि संपज्जइ सिणगारो करि कंकण एकावलि हारो । धम्मि पटोला पहिरिजहि धम्मिहि सालि दालि घिउ घोलु । धम्म-फलिण चितसालियइँ धम्मिहि पान-बीड तंबोलु ॥२२ अरि जिय ! धम्मु इक्कु परिपालहु नरय-वार-किवाडइँ तालहु । ___ मणु चंचल अविचलु वरहु कोहु लोहु मउ मोहु निवारहु । पंच बाण कामहँ जिणहु जिम सुह-सिद्धि-मग्गु तुम्हि पावहु ॥२३ सिद्धि नामि सिद्धि-वर-सारु एकाएकिं कहउ विचारु ।। चउरासी लक्ख जीव-जोणि जीवह जो घल्लेसइ घाउ । अंत-कालि दू-संमरइ अंगि कोइ तसु होइहि दाहु ॥२४ अरु जीवइँ अस्संखइ मार मारोमारि करइ मारावइ । मुच्छाविय धरणिहि पडइ जीउ विणासिवि जीतउ मानइ । मच्छ गिलिग्गिलि पुणु वि पुणु दुख सहइ ऊथलियइ पन्नइ (2) ॥२५ पन्नउँ जउ जगु छन्नउँ मन्नउ कूवह संसारिहि उप्पन्नउँ । पुन्न म सारिहि कलि-जुगिहि ढीलइ जं लीजइ ववहारु । एकहँ जीवहँ कारणिण सहस लक्ख जीवहँ संहारु ॥२६ १८. ६ कुमारगि. १९. ४ मडलि. ११. ५. करहिं. २१. २. तरीजइ. २१. ३. संपडई. २२. २. हारु. २२. ५. धम्मि. २३. २ वारि. २३. ४. मय. २३. ५. कामहिं. २४. ६. होइहु. २६. १ मंनउ २६ २ उप्पनउं. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय बरिसा सउ आऊखउ लोए असी वरिस नहु जीवइ कोई । झूठी कलि आसिगु भणइ दया-राजि नय नय अवतारु । धम्मु चलिउ पाडलिय-पुरे एका (?) कालु कलिहि संचारु ॥२७ माय भणेविणु विणउ न कीजइ बहिणि भणिवि पावडणु न कीजइ । लहुड बडाई हाइ तिय मुक्की लाज समुद मरजाद । घर घरिणिहि वीयापियइँ पिय-हत्थि धोवावइ पाय ॥२८ सासुव वहुव न चलणे लागइ हत्थाह इ पाडउणइ मागइ (१) । ससुरा-जिदूह नवि टलइ राजि करती लाज न भावइ । मेलावइ साजण-तण सिरि उग्धाडइ बाहिरि धावइ ॥२९ मित्तिहि मुक्का मित्ताचारा एकहि धरणिहि दुइ रखवाला । जे साजण ते खल थियइँ गोती चूका गोताचारा । हाणि-विधि-बड़्ढावण बिहुरहि वार करहि नहु सारा ॥३० कवि आसिग कलि-अंतरु जोइ एक-समाण न दीसइ कोइ के नर पाला परिभमहि के गय-पुट्टि चडंति सुखासणि । केई नर कट्ठा वहहि के नर बइसहि राय-सिंहासणि ॥३१ के नर सालि दालि भुजंता घिय घलहलु मझे वि लहंता । के नर भूखा-दूक्खिय इँ दीसहि पर-धरि कम्मु करता। जीवंता वि मुया गणिय ___ अच्छहि बाहिर-भूमि रुलंता ॥३२ के नर तंबोलु वि सम्माणहि विविह भोय रमणिहि सउँ माणहि । के वि अपुन्नई बप्पुडइँ अणहुंतइ दोहला करंता। दाणु न दिन्नउ अन्न-भवि ते नर पर-घर-कम्मु करंता ॥३३ आसेवंता जीव न जाणहि अप्पहि अप्पउ नहु परियाणहि । चंचल जीविउ धुय मरणु विहि विद्धाता वसइ उसीसइ । .. मूढ! धम्मु परजालियइ अजर अमरु कलि कोइ न दीसइ ॥३४ नव निधान जसु हुंता वारि सो बलि-राय गयउ संसारि । बाहूबलि बलवंतु गउ धण-कण-जोवण करहु म गारउ । डुबह घर पाणिउ भरिउ पुहविहि गयउ सु हरिचंदु राउ ॥३५ २७. १ आऊषउ. २७. ५. धंमु. २९. १ कहूव, लग्गइ. ३१. २. दीसई. ३१. ३. नरि. ३२. १ नालि. ३२. ३. भूषादूषिय. ३२. ४ कंमु. ३२.५ जीवता. ३२. ५ लता. ३३. ३. अपुंनइ. ४. अणुहुंतइ ५. दिन्नउ अन्न, ६. कंमु. ३४. २ अप्पाउं. ३५. ४ जोयण. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवदया-रास गउ दसरथु गउ लक्खणु रामु हियडइ धरउ म कोइ विसाओ। वार वरिस वण सेवियउ लंका राहवि किय संहारु । गइय स सीय महा-सइय पिक्खहु इंदियालु संसारु ॥३६ जसु घरि जमु पाणिउ आणेई फुल्ल-पयरु जसु वणसइ देई । पवणु बुहारइ जसु उवहि करइ तलारउ चामुड माया । ___ खूटइ सो रावणु गयउ जिणि गह बद्धा खाटहँ पाए ॥३७ गउ भरथेसरु चक्क-धुरंधरु जिणि अट्ठावइ ठविय जिणेसरु । मंधाता नलु सगरु गओ गउ कउरव-पंडव-परिवारो। सेत्तुजा-सिहरिहि चडिवि जिणि जिण-भवण कियउ उद्धारो ॥३८ जिणि रणि जरासिंधु विद्दारिउ अहि-दाणवु बलवंत उ मारिउ कंस केसि चाणूरु वहि ऊजिलि ठवियउ नेमिकुमारु बारवई-नयरिय धणिउ कहहि सु हरि गोविहि भत्तारु ॥३९ जिणु चउवीसमु वंदिउ वीरु कहहि सु सेणिउ साहस-धीरु । जिण-सासणह समुद्रणु विहलिय-जण-बंदिय-सद्धारु । रायग्गिह वर-नयरियहँ बुद्धिमंतु गउ अभयकुमार ॥४० पाउ पणासइ मुणिवर-नामिं वयरसामि तह गोयमसामि । सालिभद्द संसारि गउ मंगलकलस सुदरिसण सारो । थूलभदु सतवंतु गओ धिगु धिगु यहु संसारु असारु ॥४१ गउ हलहरु संजम-सणगारु गयसुकुमालु वि मेहकुमारु । जंबुसामि गणहरु गयउ गउ धन्नउ ढंढणह कुमारु । जउ चिंतिवि रे जीव ! तुहुँ करि जिण-धम्मु इक्कु परिवारो ॥४२ जिणि संवच्छरु महि अंबाविउ अंबरि चंदिहि नामु लिहाविउ । ऊरिणि की पिरिथिमि सयल अनु पालिउ जिणधम्म पवित्तु । उज्जेणी-नयरी-धणिउ कह अजरामर विमादीतु ॥४३ गउ अणहिलपुरि जेसलु राउ जिणि उद्धरियलि पुहवि सयाउ । कलिजुग कुमर-नरिंदु गउ जिणि सव-जीवहँ अभउ दियाविउ । उनएसिहि हेमसूरि-गुरु अहिणव कुमरविहारु कराविउ ॥४४ ३८. ५ सेत्तुजा. ३९. ३. कहि. . ५ धणि उ. ४०. १ दंदिउ. ४ १. २. सामि. ४२. १. णगारु. ६. जिणु ४४.६. कुमरु विहारु. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय इत्थंतरि जण ! निसुणहु भावि इहि संसार-समुह-जलि वंदउ मोढेरा-नयरि जे दिउ ते वंदिय वाणारसि - महुरह जिणचंदु संखेसर चारोप-पुरि वंदहु सामिउ पास - जिणु का विदेह हइ दालिद्दु वंदहु पूयहु भविय - जण ! जे तियलोए जिण-भवणाई ॥४५ अट्ठावइ रिसहेसरु वंदहु कोडि दिवालिय जिम चिरु नंदहु । सितुज्जहँ सिहरिहि ँ चडिवि अच्चउँ सामिउ आदि - जिणंदु । आबुइ पणमउ पढम - जिणु उम्मूलइ भव-तरुवर - कंदु ||४६ ऊजिलि वंदहु नेमिकुमारु नव भव तिहुयणि तरहि सँसार । अंबाइय पणमेहु जण अवलोयणा - सिहरि पिक्खेहु । विसम तुंग अंबर-रयणॉ वंदहु सम्बु पजुन्न हूँ बेउ ॥४७ थुण वीरु सच्चउर हँ मंडणु पाव - तिमिर - दुह - कम्म-विहंडणू । चडावलि - पुरि वंदउ देउँ । विमल - भावि दुइ कर जोडेऊ ॥४८ थंभणि जाइवि नमहु जिणिदु । नागदह फलवद्धि-दुवारि । जालउरा - गिरि कुमरविहारि ॥४९ कासु वि तोडइ पावह कंदु | खासु सासु खंपणु फेडे । तासु रि! नव निधान दरिसेई ||५० वेहल महि नंदन महि रोपइ (?) | तसु कुलि आसाइतु अच्छंतु । कवि आसिग बहु-गुण-संजुत्तु ॥ ५१ माउसालि सुम्मइ सीयलरउ । कवि आसिगु जालउरह आयउ । नवउ रासु इहु तिणि निप्पाइ ॥५२ विक्कम -कालि गयइ पडिपुन्नइ । हत्थोहत्थि जिण निप्पायउ । रउ रासु भवियहं मणमोह ॥ ५३ कासु विदे निम्मल नयण जसु तूसइ पहु पास - जिणु वाला - मंत्र - तणइ पाछोपइ तसु सक्खहँ कुलचंद फलु तसुवलहिय पल्ली पवर सातउ परिया कवि जालउरउ आसी दवदोही वयण (?) सहजिपुरि पासहँ भवणि संवतु बारह सय सत्तावन्नइ आसोयहँ सिय-सत्तमिहि संतिसूरि-पय-भत्तयरि * ४७. ४. संबुपजुन ४८. २. वंदउं. ४५. ३. इहिं संसारि. ४६. ४. सामिउं. ४९. ६. विहारं. ५०. १. हडइ. २. फ़ोडेई. ५२. २. सुंमइ. ५३. २. पडिपुंनइ पुष्पिका : इति जीवदयारास समाप्तः ॥ Jain Educationa International करहु धम्मु जिम मुच्च पाविं । तरण-तरंड सयल तित्थाई । For Personal and Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदनबाला-रास [ कर्ताः आसिग रचना-समय : १३ वीं शताब्दी लेखनसमय : १३८१ ] जिण अभिनवि सरसइ भणए पुहविहि भरह-खेत्ति जं वीतं । वीर-जिणिदह पारणए निसुणउ चंदनबाल-चरितं ॥१ प्रथम लील कसमीर करती ललिय लोल कल्लोल वहंती । अठ-दल-कमल-मज्झि उप्पत्ती सकल सबल अम्हि तालह दिती। तूठी सप्त भवंतरिहि सिव-गति-मति आसिव(?)सरसती ॥२ जिण चउवीस वि चलण नमेवी माइ बापु गुरु हियइ धरेवी । अच्चुत अंबिक-देवि तहिं ब्रह्म-संति अनु देवा देवी । कवियर हंसा गढ़ (?) वयणि पगि-पगि राख करउ तुम्ह देवी ॥३ अत्थि भरहि पुण चंपा नयरी किरि अभिनव अमराउरि सारी । चउरासी तहि चउहटह मढ देउल धवलहरे सोहइ । कूयाराम तलाव तहि महि ऊगमतउ दिणयरु मोहइ ॥४ राज करइ दधिवाहणु राऊ चोर चरड भंजइ भडवाऊ । सज्जण समल समुद्भरणु नं तिहि दंड न वेठिहि वारउ । पोलिहितालं नवि पडए दस जोयण गढ पाखे सारउ ॥५ दहिवाहण-गेहिणि सु-पहाणी रूयवंत सा धारिणि राणी। तुंग-पयोहर खीर-सर (?) कुडिल-केस भुय-नयण-सुचंगी। हंस-गमणि सा मृग-नयणि नव-जोवण-नव-नेह-सुरंगी ॥६ गब्भु वहइ सा धारिणि राणी धम्म-कजि सीलि सा खरिय सियाणिय । नव मासे पूरे दिवसे जननि पसूई जाई बाला । विसमई नाउँ प्रतीच्छियउ वाधइ सुंदरि गुणहि विसाला ॥७ एथंतरि कहिसु निरुत्तं कोसंबी-नयरी जं वीतं । सेयाणिउ राजु करए तासु धरणि सुम्मइ मृगवंती । वीर-जिणिदह पारणए पिय-आगइ पभणइ विहसंती ॥८ नितु-नितु नयरी आवइ सामिउ चारि मास ऊआस-किलामिउ । पूरि मणोरह मझ तणउ सामिय सफलु जम्मु मह कीजइ । प्रिय वयणे मणि संभरिवि वीर-अवधि नीछइ पूरीजइ ॥९ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय तं निसुणिवि पहुतउ अस्थाणे तहि बहु बइठा राणो-राणे । चरि आविउ रायह कहिउ हयगय गुडिय तुरिय पाखरिया । राउ सु कोपानलि चडिउ गिरि टलटलिय धरणि थरहरिया ॥१० अभउ देउ डंगुरउ वजाविउ जो जंपावइ तं तहइ घोडा-खुर-रजि झंपिउ भाणू । पवण-वेगि ताखणि चलिउ । चंपा-नयरी गया विहाणं ॥११ नेत्र-रयणि सिरि बाधउ पाटू ताखिणि तिणि मोकलियउ भाटू । काँइ राय ! निच्चितु तुहुँ भाटु भणइ सीमह गय गुडिया । तखणि चलियउ सम दलिण गुलुगुलंत बे पक्खा मिलिया ॥१२ वज्जिय ढक्क बूक नीसाण केण वि खचिय तुरिय केकाण । बलिया मंडलिक मउड-धर सेल कुंत धणु वरिसइ मेहू । झूझु करइ संग्राम-भरि अंगो-अंगिं भिडिया बेऊ ॥१३ हत्थि-कुंभ-थलि खिवियउ पाऊ भय पडियउ दहिवाहणु राऊ। घोडइ चडि नासिउ गयउ सीहह चित्रउ पूणइ काई । तुरय-थट्ट गय-घड लक्ष्य तउ जीतउं सेयाणइ राइं ॥१४ केण-वि लद्धा रयण-भंडार केण-वि कंचण तणा कुद्वार । केण-वि पाविउ धन्नु धणु लूसड चोर चरड दंदडिया। पाइकु एकु फिरंतु तहि धीय सहिय धारिणि पिडि पडिया ॥१५ तक्खणि तिणि वाहणि जोत्रावी लेउ उच्छंगिहि बेउ चडावी । क[ट]किहि सउ घरि चालियउ मागि वहंतउ सो मन्नावइ । होइसि तुहु महु धर धरणि जइ तुहु सुंदरि निय मण भावइ ॥१६ धिगु-धिगु चिंतइ यउ संसारू महु दहिवाहणु आसि भतारू । लाइय विहि कइसं कहउँ रोवइ करुण पलाव करती। अंसुय भरिय तलाउलिय अच्छइ धारिणि मणि चिंतंती ॥१७ ........................ । हियइ सरिसु आलोचियउँ पडिय स मुच्छिय केणइ कारणि । जं दहिवाहणु आसि पिउ हियडं फूटिउ मुइय स धारिणि ॥१८ ताव तिथु पाइकु चिंतेई चंदण कट्ठ लेउ सो आविउ । संकारिय रोवंत मणि गयइ सलिलि किं बज्झइ पालि । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदनबाला-रास आगइ छइ मणि अवरतउ पीठ लेवि वीकणिसउं बाली ॥१९ छुडुपुड्ड कोसंबी संपत्तउ पीठ-वारि आइयउ तुरंतउ । खड-पूलउ सिरि ऊभियउ ताव तेत्थु धणवइ संपत्तउ । दीठी बाल स रूवडिय धीय भणिउ धनु देविणु लेई ॥२० भुंभर-भोली सा सुकमाला नाउं दीन्हु तसु चंदणबाला । लेउ उच्छंगि घरि आवियउ माइ भणिउ गेहिणि हक्कारी । धाइय सेठिणि सामुहिय धीय भणिउ तासु वि आपेई ॥२१ पाए घाघरिया झमकारो गलइ रुलंतउ सोहइ हारो । कन्ने वीडस सरलिया (?) तसु सिरि लंबउ केस-कलाउ । धणवइ-धीय स चंदणह दीठिय देह पणासइ पाउ ॥२२ अन्न-दिवसि धणवइ चिंताविउ पवहण-केरउ मंत्रु मंत्राविउ । हट्ट उठिउ धरि आवियउ चंदण मणि आणंदु करेई । एक तx पाणिउ लियइ तायह तणा चलण धोएई ॥२३ धोवइ चलण चंदण सम-भाविं तसु सिरि छुट्टउ केस-कलाओ । सेटूि सु अणुरायह गयउ जइ परि करिसइ इह घर-नारि । मइ परिहरिसइ इणि मिसिण जोइजि ज करउँ इह मो सारी (?) ॥२४॥ अन्न-दिवसि पवहणि संपत्तउ तक्वणि तेडिउ बइदु तुरंतउ । ओ घल्लिय पच्छिम-हरए सिरि मुंडिय निवले पूरावी । घरु तालिउ जण वारियउ छुइ ?)सुंदरि दुलहल(?)रोवंती ॥२५ माइ ताय मति बुद्धि न लाधी पर-धर-मंडण दुखे दाधी । आधा खंडा तप किआ किव लाभइ बहु-सुक्ख-निहाणू । फूटि रि हियडा ! वज्जमए अन्नह जम्मि न दिन्नं दाणू ॥२६ अन्न-दिवसि पवहणे वहंते दाहिण दिसि जंबू भासंते । तसा निबलु ऊ पंगुरउ(?) किणि कारणि विइउ चक्खु फुरेई । वलिउ जाव धरि आवियउ कह चंदण धणवइ पभणेई ॥२७ डोकरि एक वरिस-सय-भूती दाँत पड्या छइ खाटह सूतो। तेण वात धणवइ कहिय बूढा काइ करेसइ कोए । धिय चंदण पच्छिम-हरए माथा-ऊपरि दंड न होए ॥२८ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय ताव तेत्थु धणवइ संपत्तउ कंठि लग्गि सो भणइ रुयंतउ । चंदण प्राण कुमास धरे जं तेडिउ आवउं लोहारो। धाइउ सेठि ऊतावलउ सा चंदण न करइ आहारु ॥२९ अच्छइ मणह माहि चिंतंती दाणि अ-दिन्नइँ किम्व पारंती । ताखणि आवइ वीरु जिणु सूपि कुमासे जिणु पारावइ । देवे जय-जय-कारु किय पवण-वेगि सोहम्मउ आवइ ॥३० इंदु स चंदण-चलण नमेई तक्खणि पुण नव केस करेई। भग्ग निवल किय आभरण तूर-सबदि अंबरु गाजेई । अध तेरह कोडि दवय सो नाडिय नयर-राउ तसु लोभह जाइ ॥३१ इंदु भणइ धणु चंदण लेई बलवंड प्राणि न पावइ कोई । बाल भणइ यउ ताय-हरे सरवरि कमल जेव विहसेई । सेट्रि सु मणि आणंदियउ धणवइ वद्धावणउं करेई ॥३२ जावह इद इंदा-पुरि जंती तक्खणि तउ तेडिय मृगवत्ती । चंदणबाल तु बूझवए जिणि दिट्ठी हुइ नयणाणंदू । धन्न धन्न सु-कयस्थ तुहुँ जि]ण पाराविउ वीर-जिणिंदू ॥३३ संखेपिणि जिण दिन्नं दाणू वीर-जिणिंदह केवल-नाणू चंदण पढम पवत्तिणिय परमेसरह निव्वाणह जंती। बत्तीसा सय खित्त तहि अखलिउ सुहु सिद्धिहि माणंती ॥३४ एहु रासु पुण वृद्धिहि जंती भाविहि भगतिहि जिण-हरि दिती। पढई पढावइ जे सुणइ तह सवि दुक्खइँ खइयह जंती । जालउर-नयरि असिगु भणइ जम्मि जम्मि तूसउ सरसत्ती ॥३५॥ अंत : इति श्रीचंदनवाला-रासः ।। Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबू-रास अभिनवु कवितु रयं परमेसरि । पभणउ नेमि - जिणंदह रासो ॥१ चंद्रावती-नयरि वक्खाणं । वहुयारामिहि ऊपम दीजइ ॥२ मढ मंदिर धवलहर पगारा । धनु धनु धम्मिउ लोकु वसेइ ॥ ३ निम्मल सोल कला जिम चंदो । वहुयहँ लोयहँ तणउजु ती ॥४ तहि गिरिवर पुणु आबू नाउं । राठी गूगुलिया तहि तपसी ( ? ) ॥५ अचलेसरु तसु ऊपमु 'दीजइ । सिरिमा सामिणी कहउ विचारी ॥६ तहि छइ सामिउ रिसह - जिणिंदो । तहि छइ सामिणि अंबाएवी ॥७ उत्तर दाखिण संघु जिणवरु न्हावहि नाहि धम्मिय वहु-गुण-वन्ना ॥८ ससि-मंडलि जिणि नाउ लिहाविउ । वीजउ नेमिहि भुवणु सुणीजइ ॥ ९ ठवणि नमिवि चिराणउ थुणि नमिवि वीजा मँदिर - निवेसु । त पुहविहि माहि जो सलहिजऍ ऊतिम गुजरु देसु ॥ १० [ कर्ता : पाल्हण मज्झि पहाणं पण विणु सामिण वासरि नंदीवर धनु जासु निवासो गूजर - देसह वावि सरोवर सुरहि सुणीजइ त्रिग चाचरि चउहट्ट - विथारा छत्तिस राजकुली निवसेई राजु करइ तह सोम - नरिंदो हिव वन्नउ गिरि पुहवि-प्रसिद्धं घण-वणयराहँ स-जलु सु-ठाउं तसु सिर वारह गाम निवासो (?) तसु सिरि पहिलउ देउ सुणीजइ तहि छइ देवत बाल-कुमारी विमलिहि ठवियउ पाव - निकंदो साधु संघह करइ सँखेवी पुरुष पछिम धम्मिय तहि आवहि पेखहि मंदिरु रिसह रवन्ना धनुधनु विमलड जेणि कराविउ विहुँ सइ वरिसह अंतर मुणीजइ Jain Educationa International त सोलंकिय-कुल- संभमि उँ त गूजरात- धुर-समुधरणु परिवल दल जो ओडवऍ, राजु करइ अन्नय तणओ मूल के अशुद्ध पाठ : ४.३. वनउ ८ १. ९. १. बिमलsि. सूरउ जगि जसवाउ । राणउँ पसाउ ॥ ११ जिणि पेलिउ सुरिताणु । जासु रचना - समय : १२३३ अगंजिउ माणु ॥१२ पुरुव्व पच्छिम २ उतर दाक्खिण. For Personal and Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय लुणसा-पुत्तु जु विरधवलो राणउ अरडक-मल्लु । त चोर-चराडिहि आगलओ रिपु-रायह उरि सल्लु ॥१३ भासा वस्तपाल तसु तणइ महंतउ सहुयरु तेजपाल उदयंतउ । अभिणवु मंदिर जेण कराविय ठावि-ठावि जिण-विंव भराविय ॥१४ महि-मंडलि किय जे णि उद्धारा नीर-निवाणिहि सक्कारा । सेतुज-सिहरि तलावु खणाविउ अणपम-सरु तसु नामु दियाविउ ॥१५ नितु नितु सुर-संघ पूजा कीजइ छहि दरिसण-धरि दाणु वि दीजइ । संघ-पुरिस पुहविहि सलहीजइ राजु वधेला वहु मनि मानिजइ ॥१६ अन्न-दिवसि निय-मणि चिंतीजइ महतइ तेजपालि पभणीजइ । 'आबू भणिजइ तीथहँ ठाउँ जइ जिण-मंदिर तह नीपावउँ' ॥१७ ठाकुरु ऊदल ताव हकारिउ कहिय वात कान्हइ वइसारिउ । आवू रिखभह मंदिर आछइ महतउ तेजपालु इम पूछइँ ॥१८ वीजउ नेमिहि भुवणु करेसहँ जइ जिण-मंदिर-थाहर लहिसहँ । पहिलउ सोम-नरिंदु पूछीजइ कटक-माहि जाइवि विनवीजइ ॥१९ ठवणि महतिहि जायवि भेटियो थावल-देवि-मल्लारु । त कर जोडेविगु वीनतओ सोम-नरिंद प्रमारु ॥२० त विनति अम्हहँ तणीय सामिय तुहु अवधारि । त मागउ थाहर मंदिरह आबूय-गिरिहि मझारि ॥२१ त तूठउ थाँवलदिवि-तणउ आगइ कहियउ एहु । त विमलह मंदिर-आसनउँ विजउ करावहु देव ॥२२ अम्हि धुरि गोठिय आवुयह आगे अछह निवाणु । त करिज मंदिर तिजपाल तुहुँ हियइ म धरिजहु काणि ॥२३ भासा दियइ आयसु तह सोम-नरिंदो वस्तपालु तेजपालु ऑणंदो जिण-सामिय-मंदिर वेगि निप्पज्जएँ अइसु निरोपु हिव ऊदलु दीजऍ ॥२४ १३. ४. सालु. १७. १ अंन. २०. ३ कड. २२. ३. आससउं. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबू-सस अइसि ऊदल्लु चंद्रावती आवएँ सयलु महाजनु घरि तेडावऍ । चालहु हिव आवुइ जाएसहँ (जिण)-मंदिर-थाहर-भूमि जोएसहँ ।।२५ चालिउ ऊदल्लु महाजनि सइतउँ आवुय देवल-वाडइ पहुतओ । ठमि उमि मंदिर भूमि जोयंतओ मिलिउ मेलावओ आवुय-लोयहँ ॥२६ मंदिर-थाहर नवि आपेसहँ प्राणिहि भुवणु करण नवि देसहँ । आग' विमल-मँदिर निप्पन्नओ सिरमा भूमिहि दीनउ दानु ॥२७ ठविण ऊदल्लु तित्थु पसीय वहु परि मन्नावइ । राठीवर गूगुलिया वास्तइँ पहिरावइ ॥२८ भासा अम्हि धुरि गोट्ठिय दिव निमिनाथ विमल-मँदिरु ऊतरदिसि जाम (?) । जिण-भूमि आपहु तेइ सुवाहा (१) लइय भूमि तिजपालु वधाविउ ॥२९ महतइ तेजपाल पभणीजइ सोभनदिउ सुतहार तेडीजइ । जाइज आवुइ तुहुँ कमठाए वेगिहि जिण-मंदिर निप्पाए ॥३० चालिउ पइठ करिउ सुतहारो भूमि सुवण इक वारे अहारो । सोभनदिओ विगि आवुइ आवइ कमठा-मोहुँतु आरंभु करावइ ॥३१ भासा मूलग्ग पायार धर पूजिउ कुरु म प्रवेसु । भरिउ गडारउ तहि ज पुरे खर-सिल हुयउ निवेसु ॥३२ आसन्नी तहि ऊघडिय पाथर-केरिय खाणि । निपनु गडारउ मूलिगओ देउलु चडिउ प्रमाणि ॥३३ रूपा-सरिसउ समतुलऍ दसहि दिसावर जाइ। पाहणु तहिं आरासणउँ आणिउ तहि कमठाइ ॥३४ सरवर घाटु जो नीपजऍ मंदिर वहु विस्तारि । त अतिसइ दीसइ रूवउउँ नेमि-जिणिंद-पयारु ॥३५ ठवणि सोभनदेउ सुतहारो कमठाउ करावइ । सइतउ मंत्रि तिजपालो जिणु-विवु भरावइ ॥३६ २८. २ मनावइ. ३३. १ आसंनी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य सचय भासा खभायति वर-नयरि विवु निप्पज्जए । रयणमउ नेमि-जिणु ऊपम दीजए ॥३७ दिसंति कंति रयण-कति सामल धीरा वहु पंकति बहु सकति जाइ सरीरा । निवसए वूिवु जो सालह संठिओ विजयसिण-सूरि गुरि पढम पतीठिओ॥३८ निपनु परिपूरनु सामल-देउ धणु तिजपालु जिणि आवुय नेओ । धवल-सुत सुरहि-पुत ठविय तहि रहवरे खडइ सुहडा सुमुहु आवुय-गिरवरे ॥३९ नयर वर-गामह माहिहि आवए सइत भवियहो जिण पहेरावए । आवुय-तलवटे रत्थु पहूतओ तनियओ वर णीय पाज चडंतओ ॥४० थड-ऊथडइ रहु पाज विसमी खरी वेगि संपत्त अविक्क वर अच्छरी । सानिधि अवाइय रत्थु चडंतओ देवलवाडए दिणि छठइ पहुतओ ॥४१ ठवणि आवुय-सिहरि संपत्तु देउ पहु नेमि-जिणेसरु वणसइ सवि विहसणहँ लग्ग आइउ तित्थेसरु । उच्छंगिहि जुगादि-जिणु (देउ) जिणु पहिलउ ठविजइ तुहुँ गरुयउ निमिनाथ-विवु तिजपालिहिं कीजइ ॥४२ हक्कारहु वर जोइसिय पइठह दिणु जोयहु तेडाबहु चउवियहँ(?) संघु पुर-पाटण-गामहँ । वार संवच्छरि छियासियए परमेसरु संठिउ चेत्रह तीजह किसिण-पक्खि निमि भुवणिहि संठिउ ॥४३ चहुँ-आयरिहि पयट्ठ किय वहु भाउ धरंतह रागु न वद्धइ भविय-जणहँ निमि तित्थु नमंतह । श्रावेह डावडा(?) तणे जिणु पहिलउ न्हवियउ पाछइ न्हवियउ सयल संघि तुम्हि पणमह भवियहु ॥४४ रिषभ-चित्त-अमि जिनमु तासु कल्याणिकु कीजइ दसमि तित्थु नेमि-जात-रेसि सँघ-पासि मॅगीजइ । संघ-रहिउ जिणि जात करिवि नेमि-भुवण विसाला पूरि मणोरह वस्तुपाल मंति तेजपाला (१) ॥४५ १३. १ धरना. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवदया-रास ३३ मूरति वपु(प) अमराज-नगी कुमरादिक्-िमाया काराविय तेमि-भुवण-माहि बिहु निम्मल-काया। काराविउ निमि-भुवमु(.), फल लयउ संसारे निसुणहु चरितु नदंते तिमि धंधूय-प्रमारे(?) ॥४६ रिषभ-मंदिरु सासणि जाणुं धंधुय दिन्नउ डकड(?)वाणिउँ गाउं । तिणि सुमसीहि उजालिउ नाई नेमिहि दिन्नु डवाणिउ गाउं ॥४७ अनेक संघपति आवुइ आवहि कनक-कपड निमि-जिणु पहिरावहि । पूजहि माणिक-मोतिय-हूले कि-वि पूजहि सोगंधिहि फूले ॥४८ के-वि हु हियडय भावण भावहि के-वि हु मंनीणइ(?) आराहहि । के-वि चडावलि नेमि नमीजइ रासु वयणु पाल्हण पुज कीजइ ॥४९ वारसँ-वच्छरि नवमासीए वसंत-मासु रम्माउलु दोहे । एहु राहु (?) विस्तारिहि जाए राखइ सयल संध अंबाई ॥५० राखइ जाखु जु आछइ खेडइ । राखइ ब्रह्म-संति मूढेरइ ॥५१* * अंत : आवूरासः समाप्तः, Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८, गयसुकुमाल-रास (कर्ता : देल्हण रचना-समय : ई.सं. १२५० लेखन-समय : १३८१ ) पणमे विणु सुय-देवी सुय-रयण-विभूसिय । पुत्थय-कमल-करी ए कमलासणि संठिय ॥१ पभणउँ गयसुकुमार-चरित्तू पुब्विं भरह-खित्ति जं वित्तू । .............."x x जु उज्जिल पुन्न-पएसू।। तह सायर-उवकंठे वारवइ पसिद्धिय । वर-कंचण-धण-धन्नि वर-रयण समिद्धिय ॥२ वारह जोयण जसु वित्थारू निवसइ सुंदर गुणिहि विसालू । वाहत्तरि-कुल-कोडि-विसिट्टो अन्नवि सुहड रणंगणि दिद्रो॥ नयरिहि रज्जु करेई तहि कहनु नरिंदू । नरवइ मंति-सणाहो जिव सुर-गणि इंदू ॥३ संख-चक्क-गय-पहरण-धारा कंस-नराहिव-कय-संहारा । जिणि चाणउरि-मल्लु वियारिउ जरासिंधु वलवंतउ धाडिउ ॥ तासु जणउ वसुदेवो वर-रूव-निहाणू । महियलि पयड-पयावो रिउ-भड-तम-भाणू ॥४ जणणि हि देवइ गुण-संपुन्निय नावइ सुरलोयह उत्तिन्निय । सा निय-मंदिरि अच्छइ जाम्ब तिन्नि जुयल-मुणि आइय ताम्व ॥ सिरिवच्छंकिय-वच्छे रूविं विक्खाया। चिंतइ धन्निय नारी जसु एरिस जाया ॥५ मुणिवर सुंदर-लक्खण-सहिया मह सुय कंसि कयच्छि गहिया । वारवई मुणि विभउ इत्थू कहि वलि वलि मुणि आयउ इत्थू ॥ पूछइ देवइ ता.... .... .... .... । पभणहि मुनिवर ताम्ब समरूव सहोयर ॥६ सुलस सराविय कुक्खिं धरिया जुव्वण-विसय-पिसाइं नडिया। सुमरिउ जिणवरु नेमि-कुमारू तसु पय-मूलि लयउ वय-भारू ।। पुत्त-सिणे हि ताम्व देवइ डुल्लइ मणु । जसु करि कंकण होई तसु कयसं दप्पणु ॥७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयसुकुमाल-रास जाइवि पुच्छइ नेमि-कुमारू संसउ तोडइ तिहुयण-सारू । पुल्वि छच्च रयण तइँ हरिया. तिणि कारणि तुह सुय अवहरिया ॥ ___ कंसु वि होइ निमित्त वर करह करेई । सुलस सराविय ताम्व सुरु अल्लइ नेई ॥८ देवइ सुणिवर वंदइ जाम्ब हरिस विसाउ धरइ मणि ताम्व । सुलस स धन्निय जसु घरि लछिय हउं पुण वाल-विउइहि दद्धिय ॥ रहु वालाविउ ता........................ ............... रिसिय नारी पिच्छइ काई (१) ॥९ खिल्लावइ मल्हावइ जाम्व देवइ मण दुम्मण हुई ताम्व । तं पिक्खिय अहिययर [वि] सूरइ वासुदेउ मण-वंछिउ पूरइ ॥ सुमरइ अमर-नरिंदो महु देहि सहोयरु । सयल-गुणेहिं जुत्तो निय-जणणि-मणोहरु ॥१० वुल्लइ सुरु सुरलोयह चविसी देवइ कुक्खि सो संभविसी । जायउ सुंदरु गुणिह विसालू नामु ठविउ तस गयसुकुमालू ॥ साहिय सहिय कलाउ संतुट्ठउ लोयह । जुव्वण-समय पहुत्तो नवि इच्छइ धूयह ॥११ सोम सरूव धूव परिणाविय जायवि तहि जन्नत्तह आविय । नच्चइ हरिसिय वज्जहि तूरा देवइ ताम्व मणोरह पूरा ॥ तावह गयसुकुमालो संसार-विरत्तउ । निहणिवि मोह-गइंदो जिण-पासि पहुत्तउ ॥१२ पणमिवि तिन्नि पयाहिण देई धम्म सुणइ सो कर जोडेई । पुण पडिवोहिउ नेमि-जिणिदं(दि) जायव-कुल-नहयलजय-नंद(दि) ॥ काम-गइंद-मइंदो सिव-देविहि नंदणु । देसण करइ जिणिंदो सिवपुर-पह-संदणु ॥१३ मोह-महागिरि-चूरण-वज्जू भव-तरुवर-उम्मूलण-गज्जू । सुमरिवि जिणवरु नेमि-कुमारू गयसुकुमारु लेइ वय-भारू ॥ ठिउ काउसग्गि ताम्व जाएवि मसाणे । वारवई-नयरीए वाहिर उज्जाणे ॥१४ तम्मि सु दियवरु कुवियउ पेक्खइ तहिरिय जल(?) पज्जालिउ दिक्खइ । अम्ह धुय विनडिय परिणिय जेण अभिनउ तसु फलु करउँ खणेण ॥ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुणराय संचय तावह गयसुकुमाला- सिरि पालि करेई । दारुण खयर-अँगारा सिरि पूरण लेई ॥१५ डज्झइ मुणिवरु गयसुक्कुमालू अहिणउ दिक्खिउ गुणिहि बिसाल्लू । जिव खर पवण न सुरगिरि हल्लइ - तिच खणु इक्कु न झाणह चल्लइ ॥ अवराहेसु गुणेसूकिर होइ निमित्तू । सह जिय पुन्व-कयाइ हुयइवि थिरचित्तू १६ अहियासइ मुणि गयसुकुमालू निठुरु डज्झइ कम्मह जा । अंतगडिवि उप्पाडिउ नाणू पाघिउ सासब सिच-सुह-ठाणू ॥ सिरि-देविंदसूरिंदहँ चयले खमि उवसमिसहियउ । गयसुकुमाल-चरित्तू सिरि-देल्हणि रइयउ ॥१७ एहु रासु सुहडेयह (?) जाई रक्खउ सयलु संघु अंचाई । एहु रासु जो देसी गुणिसी सो सासय-सिव-मुक्खइँ स्वहिसी ॥१८* * अंत : गयसुकुमाल-रास समाप्त. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. जम्बस्वामि-सत्क वस्तु (लेखन-समय : ई. सं. १३८१) जंबु-दीवह जंबु-दीवह भरह-खित्तम्मि । रायग्गिहु वर-नयरु, उसभदत्तु तहि सिट्ठि निवसइ । तसु गेहिणि धारिणिय, तासु पुत्तु जंबू भणिज्जइ ।' उवरोहिण सयणह तणइँ, कुमरु मनाविळ जाव । अट्ठ कन्न वर-रूव-धर, बप्पु वरावइ ताँव ॥१ कणय-कुंडल कणय कुंडल मउड वर-हार चीणंसुय वत्थ तहि, विविहि भंगि सिंगारु भावहि । परिणेइ वर कन्न तहि , अट्ठ पवर मंगलुवयारिहि ॥ नवनव कोडि सुवन्न तहि, परिणिउ आविउ बारि । ठावि ठावि लूणुत्तरइ, पइसइ घरह मझारि ॥२ आसि पुहबिहि आसि पुहविहि निवह सो पुत्तु पभवो वि गुण-गण-कलिउ, बिहि-वसेण सो चोरु जायउ । तहि लच्छि मुसमह मिसिण, उसभदत्त-मंदिरि सु आबउ ॥ पंचस[य] हि चोराहँ तहि, रयणिहिं पहिलइ जाम्म । धम्मू भणंतउ दिटु तणि(?) कुमर सु जंवू-सामि ॥३ विविह जोणिहि विविह जोणिहि ममिउ संसारि भुंजेविणु दुक्ख-सय, जम्म मरणु बंध व विमोयणु । कह कह-वि कम्मह विधरि, मणुय-जम्मु लद्धउ सु-सोहणु ॥ सिधु मई मइ एह महु(?), महि इत्तिउ किर सारु । जे नवि धरणिहि सउँ रवइ, छलहि ति कलि संसारु ॥४ ___मणुय-जम्मिहि मणुय जम्मिहि, जाउ जो बालु हिंडेइ जो आउलउ, जाउ मुन्नु एरिसु भणंतउ । नहु मुणहि इहु वयण-छलु, अथिरु एहु मोहणी घत्थउ ॥ जू मुसल दुइ उब्भिया, जम्मणि मंगल-कम्मु । जुइ जाया मूसलि मरहि सुंदरि किज्जई धम्मु ॥५ सद्द-रूवह सद्द-रूवह रसह गंधस्स तह फरसह सुंदरह, विसय-सारु जहि फल [भ]णिज्जइ । Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय तहि एरिसि तरुणतणि, विसय-सारु निच्छइ सरिज्जइ ।। पउमसिरि पउमहू वयणि, जंपइ सुणि भत्तार । सुर-नर-खयरह दुल्लहा, भुंजहि पंच पयार ॥६ ____एहु जोवणु एहु जोवणु अथिरु मन्नेहि बोलावइ समसरिसु, पंच-दीह-पाहुणय-तुल्लउँ । विसयाण सुह मुह-रसिय, काइँ चित्तु तुह एहु भुल्लउ ॥ सुणि सुंदरि जंबू भणइ, जोवणु विसय म हारि । चंचल जोवणु एहु फलु, धम्मि विकिज्जइ नारि ॥७ कंत जीविय कंत जीविय तणउ फल एहु जं रमियइ घर-घरणि, नव-विलास-रस-हाव-भाविय । सिंगार-रस-रंग-सुह, विविह-भंग रय-भंग मारहि (१) ॥ पउमसेण जंपेइ सुणि, सामिय तवह न दीहु । विद्ध-समइ दुक्कर चरण, कर तुहुँ होइउ सीहु ॥८ जीउ सुंदरि जीउ सुंदरि सामि आपन्नु सा सेवि आवागमणु, किणइ भावि चंचल सहाविण । इणि कारणि धम्मु वर, तुरिउ रमणि किज्जइ सहाविण ॥ जंबु-कुमरु पभणेइ धणि, कम्मि कयंतह हत्थु । कहइँ अवेलह चालिसइ, न-वि संवल न-वि सत्थु ॥९ कणइसेणा कणइसेणा भणइ सुणि सामि एह रिद्धि बहुविह पवर, कणय रयण बहु विविह-भंगिहिं । जा उप्पमु पुणु लहइ, नव निहाण भंडार संगिहिं ॥ हत्थि कयं म-न पाइ करि, मिल्हि म कणयह कोडि । सावय-धम्मिण कंत तुहुँ, सव्वि किलेस वि तोडि ॥१० भरहि मघविण भरहि मघविण संति सगरेण अरु कुंथु जिण-चक्कवइ, नव-निहाण सिरि जेहि छड्डिय । . . इह, चंचल अथिरु पुणु, नरय-गमणि नहु होइ अड्डिय ॥ सो पुण वुच्चइ वाणियउ, जो लाहइ वणिजेइ । तुच्छ रिद्धि जो परिहरई, सासइ-संपइ लेइ ॥११ कुडिल-कुंतल कुडिल-कुंतल चंद-सम-वयणि खामोयरि हंस-गइ, कमल-नयणि उन्नय-पओहरि । Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूस्वामि-सत्क वस्तु ३९ . सु-पमाण वर-रूव-धर, नागसेणि जंपइ मणोहरि ॥ एरिस गुण-संपत्त तहि, अस्थि न महिला-सार । सिद्धिहि कारणि कंत तुहुँ, खिज्जि म वारइ वार ॥१२ सिद्धि जोवण सिद्धि जोवण लक्ख पणयाल उत्ताणय छत्त सम, हिम-तुसार-दग-रय-पवन्ना । लोयग्ग संचिय पवर, सिद्धि-रमणि पावई ति धन्ना ॥ चंचल इत्थिय नहु रमउँ, खणि खणि खिज्जइ देहु । पलय-कालि जो नवि चलइ, सिद्धि-वहू सन्नेहू ॥१३ ___ ताँव विलवइ ताँव विलवइ सयणु घणु सदि माया वि खणि खणि रुयइ, सयण मित्त विरसं विसूरहिं । महिलाइ जं दुहु हवइ, तं कहेवि कहि कवणु धीरइ ॥ कणयसिरी पिययमु भणइ, सयणह तुहु आधारु । माय वप्पु गुरु मन्नियइँ, विहवह इत्तिउ सारु ॥१४ माय घरणी माय घरणी घरणि तह माय पुत्तो चिय बप्पु तहि, बप्पु मरिवि पुत्तु रि भणिज्जइ । संसार नड-पिक्खणउँ, सयण को-वि कासु-वि न विज्जइ ॥ मोहिइ मोहिउ सयल जग, बंधवु वट्टइ लोइ। इक्कु जि मिल्हिउ धम्मु पुणु, सयणु न अन्नु-वि कोइ ॥१५ ___ सुणिउ सुंदर सुणिउ सुंदर हास सविलास पभणेइ कमलवइ, पुत्त सयण सुह इत्थ कारणु । एच्छेणवि सत्तिवर(?), पुत्त सयण जे कुल-सधारणु ॥ गुल नामिहि पिययम लियइ, किं मुह गुलिया हुंति । रहि रहि सुंदर ताव घरि, जावहि पुत्त हवंति ॥१६ मरणु इक्कह मरणु इक्कह होइ जीवस्स इक्को-वि सहु अणुहवइ, इक्कु जीउ सिज्झइ निरुत्तउ । को पुत्त पडिपुत्तयहँ, धरइ मोहु संसारि खुत्तउ ॥ दिदउ मालव-देस मइँ, खद्धा माँडा नारि । करउँ धम्मु जंबू भणइ, जिव न पडउँ संसारि ॥१७ Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर का कवण (णि) भोलिङ कवच (मिक) भोलिउ चितु तुह देव तुह कवणि भउ दक्खविउ, कर्बाणि कंत उम्मम्म ठाविड । कवणि मोहिं मोहिब, मणुय-कम्मु उदयह जु आबिउ ॥ जइसिरि पभणइ कंत तुहुँ, स्मणी रिद्धि म पिल्लि । लोय - विरुद्धा वयण सुणि, माणिक ठवलि म खिल्लि ॥१८ धम्मु निम्मलु धम्मु निम्मल इक्कु संसारि धम्मेण वि सिद्धि - सुह, धम्मु सयल सुह इत्थ कारण । संसारि धवड - चवलि, मणुय- जम्मु धम्मह सधारणु ॥ मिल्हिवि माया मोह पुणु, थिरु मणु वयणिहि काहूँ । इक्कु निम्मल करउँ, सेसं पाणिउ वाउ ॥१९ इत्थ चिंतहि इत्थ चिंतहि चोर सइ पंच धिगु जम्मु अम्हह तणउ, वारवार कुक्कम्मि वइँ । एहु कुमरु वर भोअ पुणु परिहरेवि धम्मेण वइ ॥ नव अहियइँ पुण पंच सय, पडिबुद्धा तहि ठावि । जंबु - कुमरु संजमु लियइ, दियइ सु सोहम - सामि ॥ २० सु-अतुल-संजम सु-अतुल - संजम पवर-चारित्त वर-सील-संजम-सहिय, दुहिय - जीव- संसार-तारण । करुणामय-मयरहर, रोय-सोय निच्छइ निवा[र]ण || जय जय गणहर धम्मवर, जय जय सिव- सुह- सामि । सयल - संघ-दुरियइँ हरउ, गणहरु जंबू - सामि ॥२१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. गौतमस्वामी-रास [कर्ता : उपाध्याय विनयप्रभ रचना-समय : १३५६ लेखन-समय : १३७४ ] वीर-जिणेसर-चरण-कमल कमला-कय-वासो पणमवि पभणिसु सामिसाल-गोयम-गुरु-रासो । मण तणु वयणु एकंति करवि निसुणह भो भविया जिम निवसहँ तुम्ह देह-गेहि गुण-गण-गहगहिया ॥१ जंबु-दीवि 'सिरि-भरह-खित्ति खोणीतल-मंडणु मगध-देसु श्रेणिय-नरेसु रिउ-दल-बल-खंडणु । धणवर गुव्वर-नाम-गामु जहि जण गुण-सज्जा वि| वसइ वसुभूइ तत्थ जसु पुहवी भज्जा ॥२ ताण पुत्तु सिरि-इंदभूइ भू-वलय-पसिद्धउ __चउदह-विज्जा-दिविह स्व-नारी-रसि विद्धउ । विनय-विवेक-विचार-सार-गुण-गणह मनोहरू सात हाथ सुप्रमाण देह रूवि रंभावरू ॥३ नयण-वयण-कर-चरणि जिणवि पंकज जलि पाडिय तेजिहि तारा चंद सूर आकासि भमाडिय । रूविहि मयणु अनंग करवि मेल्हिउ निद्धाडिय ____धीरिम मेरु गंभीर सिंधु चंगिम चय चाडिय ॥४ पिक्खवि निरुवम रूवु जस्स जण जंपइ किंचि य एकाकी कलि भीत इत्थ गुण मेल्हा संचिय अहवा निश्चइँ धुव्व-जम्मि जिणवरु इणि अंचिय रंभा पउमा गउरि गंग रति हा विधि वंचिंय ॥५ नहि बुध नहि गुरु कवि न कोवि जसु आगइ रहियउ पंच-सयं गुण-पात्र-छात्रि हिंडइ परिवरिउ । करइ निरंतर जन्य-करम मिथ्या-मति मोहिय इणि छलि होसिइ चरण-नाण-दसणह विसीहिथ ।।६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय वस्तु जंबू-दीवह जंबूदीवह भरहवासम्मि भूमीतल-मंडणउ मगध-देसु श्रेणिय नरेसरु । वर गुन्वर प्रामु तहि वि| वसइ वसुभूइ सुंदरु ॥ तस भज्जा पुहवी सयल- गुण-गण-रूव-निहाणु । ताण पुत्त विद्या-निलउ गोयमु अतिहि सुजाणु ॥७ भास चरम जिणेसर केवल-नाणी चउविह संघ पयट्टा जाणी । पावापुरि सामिय संपत्तउ चउविह-देव-निकायह जुत्तउ ॥८ देवे समवसरणु तहि कीजइँ जिणि दीठइ मिथ्या-मति खीजइ । त्रिभुवन-गुरु सिंहासणि बयठउ ततखिण मोह दिगंति पइदउ ॥९ क्रोध मान माया मद पूरा जाइ नाठा जिम दिणि चूरा । देव-दुंदुभि आकासिहि वाजी धर्म-नरेसर आविउ गाजी ॥१० कुसुम-वृष्टि विरचइँ तहि देवा चउसठि इंद्र समागय सेवा । चामर छत्र सिरोवरि सोहइ रूविहि जिणवरु जग संमोहइ ॥११ उपसम-रस-भरु भरि वरसंता जोजन-वाणि वक्खाणु करता। जाणवि वद्धमाणु जिण पाया सुर नर किन्नर आवइँ राया ॥१२ कंति-समूहिं झलझलकता गयणि विमाणा रणरणकंता । पिक्खवि इंदभूइ मणि चिंतइ सुर आवइँ अम्ह जन्य-हुउंतइ ॥१३ नीरि तरंडक जिम ते वहता समवसरणि पुहुता गहगहता । तउ अभिमानिहि गोयमु जंपइ इण अवसरि कोपिहि तणु कंपइ ॥१४ मूढा लोक अजाणिउँ बोलइ सुर जाणंता इम काइँ डोलइ । मू आगइ को जाणु भणोजइ मेरह अवरि कि ऊपमा दीजइ ॥१५ वस्तु वीर जिण-वरु वीर जिण वरु नाण-संपन्नु पावापुरि सुरसहि उपन्नु नाहु संसार-तारणु । तहि देविहि निम्मविउ समवसरणु बहु-सुक्ख-कारणु।। जिणवरु जगु उन्जोयकरु तेजिहि करि दिणकारु । सिंहासणि सामिय ठियउँ हूयउ जयजयकारु ॥१६ भास तउ चडियउ घण माण-गजे इंद्रभूइ भूदेवु । हुंकारउ करि संचरिउ कवण सु जिणवरु देवु ॥१७ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतमस्वामी रास जोजन-भूमि समोसरणु पेखइ प्रथमारंभि । दस-दिसि देखइ विबुध-वधू आवंती संरंभि ॥१८ मणिमय तोरण दंड धज कउसीसे नव घाट । वयर-विवज्जितु जंतु-गण प्रातीहारिज आठ ।१९ सुर नर किन्नर असुरवर इंद्र इंद्राणि राय । चित्ति चमक्किउ चीतवए सेवंता प्रभु-पाय ॥२० सहस-किरण जिम वीर-जिणु पेखवि रूव-विसालु । एहु असंभमु संभवए साचउँ अह इंद्रियालु ॥२१ तउ बोलावइ त्रिजग-गुरो इंद्रभूइ-नामेण । श्रीमुखि संसा सामि सवि फेडइ बेहु पएण ॥२२ मानु मेल्हि मद ठेलि करे भगतिहि नामइ सीसु । (त) पंच सए सिउँ व्रत लियए गोयमु पहिलउ सीसु ॥२३ बंधव संजम सुणवि करे अगनिभूति आवेइ । नाम लेइ आभाखि करे तं पुण प्रतिबोधेइ ॥२४ इणि अनुक्रमि गणहर-रयण थाप्या वीरि अग्यार । तउ उपदेसइ भुवन-गुरो संजम-सउँ व्रत बार ॥२५ बिहुँ उपवासह पारणए आपणपइ विहरंति । .. गोयम-संजमि जग सयलो जयजयकार करंति ॥२६ वस्तु इंद्रभूइय इंद्रभूइय चडिय बहु-मानि हुंकारइ कंपतउ समवसरणि पहुतउ तुरंतउ । . अह संसय सामि सवि चरम-नाहु फेडइ फुरंतउ । बोध-बीज संजाय मनि गोयमु भवह विरत्तु । दिक्ख लेइ सिक्खा-सहिय गणहर-पय संपत्त ॥२७. भास आज हूयउं सुविहाणु आजु पचेलिम पुन्न-भरो । दीठउ गोयमु सामि जउ निय-नयणे अमिय-सरो ॥२८ समवसरण मज्झारि जे जे संसय ऊपजइँ । ते ते पर-उपगार- कारणि पूछइ मुनि-पवरो ॥२९ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर जीयह देअए दोख तीयह केवलु ऊपजए । आप कन्हइ अणहूंतु गोयमि दीजइ दाणु इम ॥३० गुरु-ऊपरि गुरु भत्ति सामिय-गोयम ऊपनीयः । इण छलि केवल नाणु राग जु राखा-रंगु करे ॥३१. जो अष्टापदि सेलि. बाँदइ. चडिउ चउकीस जिण । आतम-लबधि-वसेण चरम सरीरी सो जि मुनि ॥३२ ईय दंसण निसुणेवि गोयम-गणहरु संचलिउ । तापस पनर-सएहिं तउ मुनि दीठउ आवतउ ॥३३. तप-सोसिय-निय-अंग अम्हहँ सकति न ऊपजइ ए। किम चडिसिह दृढकाय गज जिम दीसइ गाजतउ ॥३४ गरूइ. इणि अभिमानि तापस जाँ मनि चीतव' । ता मुनि चडिड वेगि आलंबवि दिनकर-किरण ॥३५ कंचण-मणि-निष्पन्न दंड-कलस-धयवड-सहिड़ । पेखा परमाणंदि जिणहरु. भरथेसरु-विहईउ ॥३६ निय-निय-काय-प्रमाणिः चहु-दिसि संठिय जिणह बिंब । पणमवि मन उल्हासि गोयम गणहरु तहि वसिउँः ॥३७ वयर सामि-नउ जीबु तिजगि जंभकु देवु तहि । प्रतिबोधइ पुंडरीक- कंडरीक-अध्ययनु भणी ॥३८ वलता गोयम-सामि सवि तापस प्रतिबोध करे । लेइय आपण साथि चालइ जिम जूथाधिपते ॥३९, खीर खंडु घीउ आणि अमिय-वूठ अंगूठ ठवे । गोयमु एकई पात्रि काराव(य), पारणउ सवे ॥४० पांच सयं सुभ भावु उज्जल फुरि(य)उँ खीर-मिसे । साचा गुरु संजोगि कवल ति केवल-रूपि हुय ॥४१ पंच सय जिणनाह समवसरणि प्राकार-त्रयः । देखवि केवल नाणु ऊपन्नउँ उज्जोय-करो ॥४२ जाणे जिणवि पीयूष गाजंति घण मेघ जिम । जिण-वाणी निसुणेवि नाणी ह्या पाँच सय ॥४३। Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोतास्वामी राम वस्तु इणि अनुक्रमि इणि अनुक्रमि नाण-संपन्न पनरह सयं परिवरिय हरिय-दुरिय जिणनाहु वंदइ । . जाणेविणु जग-गुरु वयणि तीहँ नाणु अप्पाणु निंदइ ॥ चरम जिणेसरु तउ भणइ गोयम म करिसि खेउ । छेहि जई आपणि सही होसिउँ तुल्ला बेउ ॥४४ भास सामिऊ ए वीर जिणिंद पुन्निम-चंद जिम उल्हसिउ । विहरऊ ए भरह-वासम्मि बरिस वाहुत्तरि संवसिउ ॥४५ ठवतऊ ए कणय-पउमेसु पाय-कमल संघिहिं सही उ। आविऊ ए नयणाणंदु नयरि पावाउरि सुर-महिउ ॥४६ प्रथीऊ ए गोयमु ग्रामिः देवसर्म प्रतिबोध-कए । आपणि ए त्रिसला-देवि- नंदणु पत्तउ परम-पए ॥४७ वलतऊ ए देव: आकासि पेखवि जाणिय जिण-समउ । तउ मुनि ए: मनिहि विषादु नाद भेद जिम ऊपनउ ॥४८ तठ मुनि ए सामिय देखि आप-कन्हा हउँ टालिउ ए । जाणतई ए तिहुयण-नाहि. लोक-विवहारु न पालियउँ ॥४९ अति भलउँ ए कीधउँ सामि जाणिउँ केवल मागिसि[इ] ए। चीतविउँ ए बालक जेम अहवा केडइँ लागिसिइ ए॥५० हउँ किम वार-जिणिदि भगतिहि भोलउ भोलविउ । आपण ए उचियउ नेहु नाहि न संपए सूचविउ ।५१ साचउ ए अह वीतरागु नेहु न जेहि लालियउ। इणि समय ए गोयम चित्त रागु वयरागिहि वालिउँ ॥५२ आवतउँ ए जोऊ लटि रहतउँ रागिहि साहियउँ । केवलू नाण् ऊपन्नु गोयम सो जि ऊमाहियउँ ॥५३ तिहूयणि ए जयजयकार केवलि-महिमा सुर करइ । गणधरुः ए करइ वक्खाणु भविया जिम भव निस्तर ॥५४ वस्तु पढम गणहरु पढम गणहरु वरिस पंचास गिहि वासिहि संवलिउ वीस वरिस संजमि विमासिय । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय सिरि केवल-नाणि पुण बार वरिस तिहूयणि नमंसिय ॥ रायग्गहि-नयरिहि ठिय बाणवइ वरिसाउ । सामिय-गोयम गुण-निलउ भूसइ सिवपुरि-ठाउ ॥५५ भास जिम सहकारिहि कोयल-टहकउ जिम कुसुमह वनि परिमल-बहकउ जिम चंदनि सोगंध-विधि जिम गंगा-जलु लहरिहि लहकइ जिम कणयाचलु तेजिहि झलकइ तिम गोयम सोभाग-निधि ॥५६ जिम मानस-सरि निवसइँ हंसा जिम सुरवर-सिरि कणय-वतंसा जिम महुयर राजीव-वनि । जिम रयणायरु रयणिहिं विलसइ जिम अंबरि तारा-गण विहसइ । तिम गोयमु गुण-केलि-खनि ॥५७ पुन्निम-दिणि जिम ससिहरु सोहइ सुरतरु-महिमा जिम जगु मोहइ पूरव-दिसि जिम सहस-करो। पंचाननु जिम गिरिवरि राजइ नरवर-घरि जिम मयगलु गाजइ तिम जिन-सासनि मुनि-पवरो ॥५८ जिम गुरु तत्वरि सोह, साखा जिम उत्तमि मुखि महुरी भाखा जिम वनि केतकि महमहए । जिम भूमीपति भुय-बलि चमकइ जिम जिन-मंदिरि घंटा रणकइ गोयमु लबधिहि गहगहए ॥५९ चिन्तामणि करि चडियउ आजु सुरतरु सारइ वंछिय काजो काम-कुंभि सो वसियउ। काम-गवि पूरइ मन-कामिय अष्ट महासिद्धि आवइँ धामिय सामिय-गोयमु अणुसरउँ ॥६० प्रणवक्षर पहिलउँ पभणीजइ माया बीजिहि सउँ निसुणीजइ श्रीमति सोभा संभवए। देवह धुरि अरिहंतु नमीजइ विणयप्पह उवझाइ थुणीजइ इणि मंत्रिहि गोयमु नमउ ॥६१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ गौतमस्वामी रास पर परवस परता काँइ कीजइँ देस-देसंतर काँइँ भमीजइ कवणु काजु आयासु करे । प्रह ऊठी गोयमु सँमरीजइ काजु समग्गू ततक्षण सीझइ नव निहि विलसइँ ताहँ घरे ॥६२ चऊदह सय बारोत्तर बरसहि गोयम-गणहर-केवल-दिवसिहि किउँ कवित्तु उपगार-परो। आदिहि मंगल एहु भणीजइ परवि महोछवि पहिलउँ दीजइँ रिद्धि-वृद्धि-कल्याण-करो* ॥६३ * अंतः इति श्रीगौतमस्वामीरासः समाप्तः ॥ श्रीस्तंभतीर्थविहारे श्रीविनयप्रभोपाध्यायैः कृतः ॥ ॥ शुभमस्तु ॥ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. नेमिनाथ-रास सिरि सिरि सोहइ सुर रह-सार मुरिया वनि वनि घन सहकार ___ कोइल-सुर मणहारो । मधुरा मधुकर रणझणकार गरुउ मरुउ पल्लवि फार दमणा पार न वारो ॥१ वेउल वालउ बकुलह वृदो केतुकि करुणी कणयर-कंदो । फूल्या बहु मुचकंदो। नागर नरवर परमाणंदो निसिरिय विरहणी आननचंदो हिव ऐ जिमि दिन-चंदो ॥२ करई कामिणि तणु-सिणगारो झलकइँ उर-वरि नवसर-हारो शिरि वरि कुसमह भारो। करीअलि कंकण-नउ खलकारो पाए नेउर रणझणकारो मृग-लोयणि सुविचारो ॥३ सहिजि सयाणि मिलीअ समाणी रितुहँ नायक आविउ जाणी वाणी बोलइ चारो। वीणा-वाउ उच्छक थाउ सहि ए सीतल वायउ वाओ गाउ नेमि-कुमारो ॥४ त्रिभुवन-मंडन मान-विहंडन धन धन जिणवर भवियानंदन नंदन शिवि-दिवि चंगो। तम परहरए गुण-गण धरए रूपिहि मनभव नीराकरए करए नितु नव-रंगो ॥५ अशरण-शरणू भव-भय-हरणू निर्जित-करणू काम-वितरणू तरणू सिद्धि-भत्तारो। सहिजि स-करणू गत-जर-मरणू निर्जित-करणू कुल-उद्धरण चरणू पवित अपारो ॥६ जलधि-गहिरू शाम-शरीरू साहस-धीरू जादव-वीरू मद-महि-दारण-शीरू ॥ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ-रास जिण अशरीरू जीतउ वीरू पामिउँ तीरू माया-नीरू पहिरणि जादर-चीरू ॥७ नेमिकुमर अनइ रुकमिणि-कंतो जाने वीतउ रितु हिमवंतो खेलइ मास वसंतो ॥ जेह गुण लाभइ किमइ न अंतो हीअडइ सामी सहिजि हसंतो . सूयणह चीति वसंतो ॥८ एक वार मिलि बंधु-निकाय शिवि-दिवि माडिय-नइहरि भाय मायइ न बइठउ मंते ।। नेमिकुमरु ईण इवइ तुरुणइ (?) सोहगसुंदर किमयइ परणइ ___अरणइ ते अति चीते ॥९ तेहे आवि साहिउ बाहिं हाउ भणावी सामिउ पाहइँ माँडिउ माँड वीवाहो ॥ धवल मँगल सिवि गाइं हरखी गोपी रूपिइँ वर रिति-सिरखी इउ मनि ऊछाहो ॥१० दसइ दसार उ कुंयर मिलीया हरख धरंता जानइँ चलिया वाजइँ ढोल-नीसाण ॥ रथवर गइँवर तुरीय थाट जयजय-कार भणइँ तिहि भाट ___ नाचइँ पात्र सुजाण ॥११ मंगल मद्दल वाजइँ भेर भुंगल शंख लक्खु इकतेर त्रंबक त्रत्रह-कारो॥ मेघाडंबर शिर-वरि छत्र केता ढालई चमर पवित्र चालिउ नेमिकुमारो ॥१२ उग्रसेन-पुरि पुहतउ जाम राणी राजल हरिखी ताम . करइ सयरि शृंगारो ॥ अलि-कलि-कज्जल जिमि अति-कालउ सिरि वरि वेणी-दंड रमालउ ___ मोती-नउ उरि हारो ॥१३ काँने कुंडल सोवन-केराँ झलकइँ कंकण पाणि भलेरौं निम्मल तुर गुण-गेहो ॥ अंज. लोयण आयत बाली जीपइँ अहरे वर परवाली काली भमही-रेहो ॥१४ झगमग करइँ बाहइँ केउर रणरणाट ते पाए नेउर टीली निलय-दूयारे ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचयः कटि-तटि सोहह मेखल वारू आनन धरए शशि-अणुकारू.... गति गय मानइ हारे ॥१५ बोलइ वाणी अमीयहँ मुहरी नदीयह सामी पाहईं. गुहरी . दूरिहि कीय सुर-नारे ॥ यदु-कुल-कैरव-कानन-चाँद . ईम करताँ नेमि-जिणंद पुहतउ निलय-दूयारे ॥१६ वाडइ देखीय जीव वन-चार पूछ। सारथि-कन्ह तिणि वार मूरतिवंतउ धम्म ॥ 'एहे. जीवे किसिउँ करेसिइँ' 'सामी आज ए सवि मरिसिइँ गुरुव होसिइ तम्ह' ॥१७ 'पाणि-ग्रहणिइ काज न राज अम्ह-कारणि होइ पशु-वध आज पडियइ ईणि संसारे ॥ तक्खणि लोक सहू खलभलिउ जिणि क्षिणि सामी पाछउ वलीउ गईउ गढ गिरिनारे ॥१८ कमला सायर-वीचि-समान प्रभुता विज्ज-तणउँ उपमान ___ जीवीय नइ किरि वेगो ॥ यूवन संध्या राग-सरीखउँ एउ संसार असार जि देखउँ' चिंतइ मनि संवेगो ॥१९ धण मणि माणिक रयण-भंडार कमनिय कंचण बहु पट्ट सार __ दियइ संवत्सर दान ॥ किमइ न पडई भव-मइ फाँडइ राज-ऋद्धि घर घरणी छाँडइ माँडइ मेल्हइ मान ॥२० यहु जन मानस-माहि आलोची पंच मुष्टि शिरु पाछइ लोची लीघउ संजम रंगे ॥ देवहँ दानव-मानव-शव प्रणम. नेमि-जिणेसर-पाय रहीउ ऊजिलि(ल)-मुंगे ॥२१ बावीसमउ जिन-प्रधान... अनुपम हूउँ केवल-ज्ञान पुहुतउ सिद्धि िनाहो ॥ एह जि सही ए. रासउ गाई रोग सोग दुख दालिद जाई हुइ मन-वंछित लाहो ।। २२ Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. शांतिनाथदेव - रास [ कर्ता : लक्ष्मीतिलक-गणि रचना समय: ई.स.१३ वीं शताब्दी ले. स. ई. २४३०] संति - जिणेसर-चरण-कमलु कमलह आवासू । उत्तंसिय- निय- उत्तमंग सुरहिय-दस आसू ॥ सवण - महूसवु चरिउ तासु विरइसु संखेवी । नाच भविहु भाव- सारु सिंगारु करेवी ॥ १ हथिनागपुर कुरु - मंडल - मंडणू । अच्चन्भूय जसु रिद्धि पिक्खि संकिउ संकंदिणु ॥ धाइ निय-पुरि सरइ तत्थ संभंतु संभालइ । घर - देउल - आराम-देव-देवी- अट्टालय ॥२ जय-सिरि-पंचालिय-रवण्ण- सोवन्न - सुदेहह । जसु अ [च] ब्य थंभ चारु सूरिम - कुल - गेहह || सहहि लहहि जगि रेह सेह विससेण - नरेसरु । तसु जसु पसरि सरंति सग्गि विम्हियउ सुरेसर ॥ ३ तसु राणी सिरि-अयरदेवि वर - सील-संभूसिय । जिणि रूविणि रइ लच्छि गोरि इंदाणिय दूसिय ॥ चंदह चंदिम जीय कंति - पन्भारिण ल्हूसिय । जीइ मुहिणि कमलम्मि धुलि लल्लिय किर रूसिय ॥४ तासु उयरि अवय[२४६B]रिय देव सव्बट्ट - विमाणह । भद्दव-सामल-सत्तमीइ सव्वट्ट - विमाह ॥ चक्कि - तित्थकर - लच्छि-तणा वद्धावा आविय । चउदस सुमिणइ दुगुण-कंति देवी संभाविय ॥५ डिंब - डमर - उड्डमर - मारि वित्थरिय अंधारय । गन्धंतरि व सामि सूरु सहसत्ति सिंहारइ || जिणि सिरि चक्क सिरी वि नूण सामहि उक्कंठिय । तायह घरि बहुविह- निहाण - मिस आविवि संठिय ॥६ * जिट्ठह सामल-तेर सिहि । मृगलछण तिहुयण-लिलउ ॥७ अयराए विहि उप्पन्न सामिउ ए [ सामल-वन्न] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय छप्पन्न ए दिसिकुमारीहि सूइ-कम्मु तिसु निम्मविउ । इंदिहि ए सव्व-सिरीहि मेरु-सिहरि सामी न्हविउ ॥८ धाविउ तउ धन्नेहि वीससेणु वद्धावियउ ॥ कंचण ए धण-धन्नेहि वूठउ तूठउ राउ तिहि ॥९ रहसि ए राइ पब्भाइ वद्धावणउँ करावियउँ । सामियउ ए तणु रूवाइ पिक्खिवि हरसि न माइयउ ॥१० अवयरिय ए अम्मि पुत्तम्मि संति सयलि जगि वित्थरिय । सोहणी ए तो मुहुत्तम्मि संति नामु पियरि कियउँ ॥११ अह वद्धइ सो सामिसालु तिहुयण-न[य]णूसवु । धवलइ तिन्नि वि भुवण-भवण तसु जसु अंगुब्भवु ॥ दिसि-वहु-मुह पिंजरइ तासु तणु-कंति फुरंतिय । कोसंभिय पय तसु नहंसु दिसि दिसि मंडंति य ॥१२ गब्भि वि जसु ति-न्नाण दिव्व विप्फुरइ अ[२४७A)चंभू । संपय तासु कला-कलावु कु न मनइ सयंभू ॥ सुर-गुरु असुर-गुरू वि तासु किंपी गुण-कित्तणु । जइ सक्कहि इत्तलउ बेउ बहु मन्नइ अप्पणु ॥१३ जोवणि पत्तउ संति-नाहु तरुणी-जण-मोहणि । रूय-कित्ति मुक्किउ अणंगु रोवइ संकिउ मणि ॥ परिणावइ तउ वीससेणु वर-रायकुमारी । जसु सरिसी तिहु भुवणि अन्न नहु दीसइ नारी ॥१४ कुमरत्तणि पणवीस सहस वरिसइ सुह माणइ । जासु पमाणु ति-नाणु देव सो पर जय जाणइ ॥ मंडलत्ति पणवीस सहस उब्भड-भुय दंडु । तासु पयाविण विप्फुरंति कंपिउ मायंडू ॥१५ भ्रष्ट मूलपाठः ७. १. अयराएवहि. २. तेरसहि. ८. २. निम्मिविउ. ४. न्हविओ. ९. १. रहसिं. २. °वियओ. ११. ४. पियर कियओ. १२. १. वद्धय. ३. पिंजरह. १३. १. दीव. १५. २. जाणय. ३. मडलत्ति. ४. पयाविणु. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतिनाथदेवरास आउहसालइ संतिनाह तउ चक्कु उप्पन्नउँ । सामि-पयावह पुन्नु एहु दुद्धर हुउँ मन्नउँ ॥ तिहुयण-नाहु वि ताम तस्स कारइ अट्ठाही । अहवा तारिस पुव्व-वाट छंडइ इह नाही ॥१६ सालह चल्लिउ ताम चक्कु जाला-जीहाल्लू । वइरि-वग्ग-अभग्ग-गसण उद्विउ किरि कालू ॥ वज्जिय काहल वजिय ढक त्रत्रहहि नीसाणा । रहसि चडिया मउडबद्ध मंडलिया राणा ॥१७ मत्ता मयगल गुलगलंति हय हिंसिय विहसिय । सुहड वि मेल्लइ सीहनाय रह घोसिय विलसिय ॥ खेहा-रणिअ भरिउ सूरु नहु सूझइ काई । देइ पयाणउ संतिनाहु दल कह वि न माइ ॥१८ तउ महियल थरहरिय नाग-कु[२४७B]ल सवि सलवलिया। टलटलिया कुल-सेल सव्वि सायर झलझलिया । नमिय सेस-फण नूण संति-जिण आणा झल्लिय । आय कमढि पुणु आणणे णु फेसंडिय घल्लिय ॥१९ चक्क-रयणि दंसियइ मग्गि साहवि छ-खंड । भरह-खित्ति आवियउ संति गयउरि उदंडु ॥ मउडबद्ध बत्तीस सहस रायह अभिसित्तू । चक्कवट्टि-पय करइ रज्जु निज्जिय सवि सत्तू ॥२० अंतेउर चउसट्ठि सहस तसु तह चउरासी । हय गय रहवर सय सहस पत्तेय[हआसी ॥ नव निहि चउदह रयण जक्ख सोलसह सहस्सह । आसि पहू छन्नवइ कोडि गामह पायक्कह ॥२१ ___ चक्क-लच्छि २ छड्डि विच्छड्डि । लोगंतिय-बोहियउ देइ दाणु वच्छरु निरुत्तउ। सव्वट्ठ-सिविमारुहवि जिट्ठ-बहुल-चउदसिहि पत्तउ ॥ १६. १. आउयहसालय; उप्पन्नओ. २. मन्नओ. १७. २. करि. १८. १. विहिसिय; २. मेल्हय सीयनाय. २०. १. रवणि ३. अभिसत्त. ४. निज्जय. २२. १. बोहियओ. २. देव; निरुत्तओ. ५. चउदसहि पत्तओ. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संव प्राचीन गुर्जर सहसं ब-वणुज्जाण-वणि सतिनाह पडिवन्नु । दिक्ख छट्टि तवि निव-सहस-जुत्तउ कंचण-वन्नु ॥२२ ___बीय-वासरि २ निव-सुमित्तेण । पाराविय संति-जिणु मुह-मणेण परमन्न-दाणिण । सोमित्त-घर पूरियउ सुरवरेहि वसु-हार-बुट्टिण ।। देवहि जयजय-कारु किउ नहियलि चेलुक्खेवु । मणि हरसिय जग सयल किर दुद्धिहि वुट्ठउ देवु ॥२३ छउमत्थत्तणि एग-वरसि गइ ए संतिसरु । पिक्खिवि अंतर-वयरि-सिन्नु दप्पु[२४८A]द्धर-कंधरु ॥ चडियउ कोवाडोवि झत्ति भिउडी-भीमाणणु । वीर-रसह रलियावणउ पुणु हुयउ घणु(?) ॥२४ वज्जिय जत्त-ढक्क बुक्क अत्थक्क निसाणा । तउ सीलंगट्ठारहि] सहस मणि हरसि न माणा ॥ पंच महव्वय-मउडबद्ध रोमंचिय राणा । सेस महाभड हरिस-वसिण या उत्ताणा ॥२५ संति-जिणेसर पिक्खि सयल सेणा सन्नद्धा । वीर-बट्ट तुह(?) भाल-वटि वर-वीरह बद्धा ॥ पुन्न-सिरीए भरीय सेस महियलु पूरंतउ । निय-बलि चडियउ सुकल-झाण-जय-करि चोयंतउ ॥२६ आवंतउ जिणु निसुणि मोहराइ णि[य]-मणि हारिउ । धीरत्तणु करि तह-वि वल विलहणउ कराविउ ॥ मयण-कसाय-प्पमुह-भडह मत्थइ बंधावइ । वीर-वट्ट मिच्छत्त-जोह सेणावइ ठावइ ॥२७ सत्त-कम्म-मंडलिय-राय-परिवरिउ मोहू । संभालिंतउ सयलु सिन्नु मिल्हवि मण-खोहू ॥ तम-खेहा-रणि-पसरि नाण-सूरु वि रुंधतउ । गुरुयाडंबरि पवण-वेगि लहु सीम पहुत्तउ ॥२८ २३. ४. पूरियओ. २६. २ °वादि. ३. पूरतओ. ४. किरि. २७. १. हारिआ. २. कराविओ. ४. सेणावय ठावय. २८. ३. रुवंतउ. १. पहुत्तभो. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतिनाथदेव-रास बे-वि सिनइ २ अप्पु मन्नत । जा दिट्टि पहि जुडिय रण- तूर वज्जिय पउर देवादेव समागइय जिम तिलु निवड तुडि-वसिण हिदुउ कह-वि न जाइ ॥ २९ वीर-वरणी २ करइ त सुहड [ २४८B] उग्ग-खग्ग-लय फरफरावहि । फारक्कि फर करि धरवि अत्थक्क पायक्क तिहि बल - मज्झि ठिय जाम भड सिंहनादु मुंचति भड दुन्नि - वि ए जुडिय सिन्न नच्चिउ ए वीर - रसो वि पहरंता बल अन्नुन्नु जुज्झहि ए चिर- वरेण पायक ए मल्हइ हाक कायर ए पडिया प्राण ताणवि ए सर मुच्चंति उद्दंडू उडिउ लोहु Jain Educationa International (ता) घाय बलिय समहरि निसाणह । कोउगेण आरुहि विमाणह || नहु नयलि सम्माइ । झंकारु वर-सिंगणिहि तिम जे मइक्क (?) झुर्णाहि चिर-मिलिया जिम बंधु जिण अप्पुप्पर घायह वसिण पायक्कह कलकलिण अच्छिन्न-सर-भर पसर २९. १. सन्नइ. २९. ८. खग्गय. ३५. २. सिंगणहि. ३. धणु-पडच्च आकन्न खंचहि ॥ अंतर - पुड फार्डति । तामुल्ललवि मिलति ॥३० * रण तूरहि वज्र्ज्जतइहि । ऊभा हाथ करेवि तिहि ॥ ३१ पिक्खिवि देवहि संकियउ । अंधार अनु चांद्रणउ ॥ ३२ फरियह रणझण-झुणि घणउ । सुहड-कन्न वद्धावणउ ॥ ३३ उप्पाडवि पुण खग्ग-लय । लोहहि प्राया बल उभय ॥ ३४ तह ज रण- भरि २ फरिय-झंकारु । विजय- भेरि-भंकारु घुम्मइ । जगि सुगालु सयलम्म गम्मइ ॥ सुहड गलोगलि लग्ग । भग्गा मिल्हवि खग्ग ॥ ३५ तहि जि हूयए २ समर [ २४९A ]- सम्मदि । कन्न पडिउ नहु किं-पि सुमह । किसउ सूरु हुय इउ न गम्मइ ॥ वसण. ३०. ३. फरफरावय ३३. १. मेल्हय. ३४. ९. घुम्मय. ५. गम्मय. ३६. ३. सुम्मय. For Personal and Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय रण-तूरि य वजंतइहि नच्चिय हरिस कबंध । चम्म घंट किरि भट्ट घड(?) पढइ य कव्व-पबंध ॥३६ चडतउ दिक्खिवि सत्तु-सिन्नु निय-वलु उहटतउ । रोस-वसिण अइ पिंजरच्छु उट्ठ-उड्डु दसंतउ ॥ निय-दल-सहिउ मोह-राउ चल्लियउ तुरंतउ । संति वि सम्मुहु हुयउ वाम-खंधुप्फालंतउ ॥३७ भिक्खायर जे तुज्झ पेटि मह-भड आवट्टिय । मा नाससि कड्ढिसु ति अज्जु आपणा माँटिय ॥ मोह भणंतउ इसउ संति भणियउ मा वलवलि । रे बोपा(?) करे हत्थियारु हउ भंजिसु तुह भलि ॥३८ तउ पहरंतउ मोह संति ति-करणय-ति-सल्लिण । निज-बलि सहियउ हणियउ तेम उट्ठियउ न जिम पुण । मोह-राय तउ तणइ सिन्नि पडियउ भंगाणउँ । पाछउ अ-जोयंतु सव्वु नासइ उज्जाणउँ ॥३९ वइरिय-वलु नासंतु पिक्खि संतीसरु केडउ । करइ करावइ जमह[२४९B] पासि काहि वि तह तेडउ ॥ कि-वि मायाए उवरि देवि फर रिणि रडविडिया । कि-वि मुहि अंगुलि तिणय लेवि जिण-पाए पडिया ॥४० जीवेवइ जयली (2) के-वि ते घिल्लिणि (?) दाविय । अइ-भयेण कि-वि खाल के-वि छींडी जोयाविय ॥ काहि वि नासंताह भग्ग दसणा तह गोडा । मत्थइ पडियउ अकित्ति-छारु विगलिय सवि कोडा ॥४१ तउ जय-सिरि किरि मुत्तिमंति केवल-सिरि आविवि । उक्कंठिउ सिरि-संति-नाहु आलिंगिउ धाविवि ॥ धाइय तरु तलि लट्ठि छट्टि पोसे सिय-नवमिहि । देवहि जयजय-कारु कियउ कुसुम-वुट्ठी तहि ॥४२ ३७. १. सन्नु; उहटतउ. २. पिंछरच्छु. ३. निग'. ३८. ३. भणियाउ. ४. हिंत्थियारु. ३९. २. निर्ग. ३. तणय सन्नि. १. नासय. ४१. २. अय. ४. मत्थय. ४२. २. भालंगिउ. ३. नवमहि. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतिनाथदेव- रास ताव देवहि २ किउ समोसरणु । मणि-कणग-रुप्पह रइउ उवविट्टु तहि संति - जिणु कुसुम-वुट्ठि चामर-जुयलु वज्जइ सुर- दुंदुहि कहइ मंडलिय-पय चक्कि -पय अह जिणेसरु २ कुमरु कालम्मि । Jain Educationa International भद्द-पीठु तसु मज्झि ठाविउ । उबरि सोग तिच्छन्तु धारिउ || भा-मंडल अइ-रम्मु । दिव्व-झुणि[हि] जिण धम्मु ||४३ पणवीस बरस [ २५० A ]ह सहस वरस लक्खु सव्वाउ पालिय || मासि भत्ति संपत्तु । जिट्ठ[ह] सिय-तेरसि दिवसि सिद्धिहि सम्मेयह सिखरि मुणि- नव-सय-संजुत्तु ॥४४ जिण - पयम्म पत्तेयमासिय । तसु पडिम गुरु-महिम निप्पडिम - रूवया । सापटि (?) हि नंदणिण उद्धरिणि कारिया || खेड जिणव सूरिहि पासि पइठाविया । तहि जि परि दिवसि सवि उच्छवा संगया || ४५ विक्कमे वच्छरे बारहट्ठावने । महु-बहुल-पंचमी-दिवस किस सोवने (?) ॥ सोभनदेवराय कारिय पट्ट - विही । अपणा मज्झि होऊण गुरु-मह-निही ॥४६ धम्मपुरु नट्टपुरु किं नु गीयह पुरं । किं नु रासाण पुरु किं नु चच्चर- पुरं ॥ किं भुविहि संघ-पुरु किं नु दाणह पुरं । तहि महे संकियं एम खेडप्पुरं ॥४७ जालउरि उदयसिंह - रज्जि सोवनगिरी । उवरि सो संति ठाविउ जिणेसर-सुरी ॥ पवर- पासाय- मज्झम्मि संवच्छरे । फग्गुण - सिय- चउत्थि तेरहइ तेरुत्तरे ॥४८ ܘ ९. संजुत्त. ४५. १. ४३. २. रइओ. ३. ठाविओ. ५. धारिओ. ८. कहय. ४४. निपडिम. ३. जिणवयः पय. ४६. ३. पयड ४७.१ कि. २. कि. ४८. १. न्हाविओ. ८ 3 For Personal and Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय जेम इंदिहि २ लच्छि-विच्छड्डि ।। नेऊण सोवन्नगिरि संति-नाहु जम्म-खणि न्हाविउ ।। तिम गुरुयाडंबरिण सिरि-सुवन्नगिरि[२५०B]-उवरि ठाविउ ॥ जयतसिंह-इंद-प्पमुह इंदहि पहाविज्जंतु । सयल-संघ-दुरियइ हरउ संति-नाहु अइ-कंतु ॥४९ आरुहियउ संति-जिणु(?) सोवनगिरि-सिहरम्मि । तउ जाणीजइ सोवनहि फुल्लिहि फुल्लि[य] भूमि ॥५० फुल्लिय सवि वणराइ' जगि फलिय सवि ऊजाण । जण हरसिय मण ऊससिय वद्धावणा पहाण ॥५१ दिक्खिवि उन्नय-पय-चडिय किर निय सामिय संति । हूई महि ऊसवमयइ जाय न हरिसह अंति ॥५२ गइय अणागम-देसि भय डिंब डमर दुब्भिक्ख । मरु-मंडलि अव वियसिय खेम-कुसल-सिरि-लक्ख ॥५३ जे पिक्खिहि सिरि-संति-जिणु रूवच्छेरय-भूउ । दंतिहि पाणह लेवि तहि नासइ मोहब्भूउ ॥५४ सामि सु संति-जिणिंदु सोवनगिरि-सिरि संठियउ । जण-मण-नयणाणंदु सयल-संघ-दुरियइ हरउ ॥५५ जे सिरि संतिहि कंतु . जत्तुच्छवु भवियण करहि । पगि काँटउ भज्जंतु गरुड-जक्खु राखउ तउ ॥५६ जे संतीसर-वारि नच्चहि गायहि विविह-परि । ताह होउ सवि-वार खेलाखेली खेम-कुसल ॥ [२५१A]५७ एहु रासु जे दिति खेलाखेली अइ-कुसल । बंभ-संति तह संति मेघनादु वि खेतल करउ ॥५८ एहु रासु बहु-भासु लच्छितिलय-गणि-निम्म[वि]यउ । ते लहंति सिव-वासु जे निय-मणि ऊलटि दियहि ॥५९ महि-कामिणि रवि-इंदु कुंडल-जुयलिण जा सहइ । ताम संति-जिण-चंदु अनु इउ रासु वि चिर जयउ* ॥६० ५१. १. वणराय. ५३. २. दुभिक्ख. ५५. १. जिणिदु. २. संठियओ. ५६. १. संतहि. ४. राक्खउ *इति श्रीशांतिनाथदेवरासः समाप्तः ।। Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. शांतिनाथ -रास पंचमु भरह - नरिंदो जिणवइ सोलसमउ । संति सुहंकर-कंदो पणमवि पयडिय नउ ॥१ चरिउ किंपि पभणउँ तसु नाहह सुर चूडामणि- चुंबिय -पायहँ । जं निसुतहँ भवियहँ सवणइँ खेडनयर जो संति विहि-समुदयस सुभत्ति आस भरहि सिरिसेण नरेसरु जो सुरूवु कुरु - माणव - सारउ अमियतेउ विज्जाहरु नरवई पाणइ वीस अयर पुण देवू अवराइउ नामेण पसिद्धउ भरियहि ँ अमिय- रसायण - सघणइँ ॥ २ उद्धरणि कराविउ । जिणवइ- सूरि-ठाविउ || ध्रुवक ॥ रयणाउरि जिम्व सग्ग सुरेसरु । होइवि पत्तउ पढम सुरालउ ॥३ जो वेयढि पयाविण दिणवइ । इहि विदीवि विजयह बलदेवू ॥४ तो अच्चुय-तियसिंदु समिद्धउ । जो संधुणिउ सुरिंदिण सायरु ||५ भूसणु तिम्व नवमह विज्जह | विजय मेहरह-राउ असत्तू ॥६ तहि भवि अन्नु वि जेण जिणत्तणु । तउ सव्वट्टि सुरुत्तम सिद्धउ ॥७ को गुण तिणु इक्कंगिण भुत्तिय । जिणि सव्वट्ट - सिरि वि परिचत्तिय ॥८ जगु पिच्छिवि गंजिउ त दु । तेय - पुंजु जो कह-व न खज्जइ ॥ ९ चउदस दुगुणन सुमिणिहि जायउ । अहिउ न जइ सन्निहि सप्पुन्नहँ ॥ १० अयदेवहि नयाणंदणु । पुव - दिसिहि जिम्व निम्मलु भाणू ॥११ पउर-पयासिण तक्खणि वड्ढिवि । जायइ अच्चन्भुउ किउ जण-मणि ॥ १२ नव-वजाउहु करुणा - सायरु जिम्व गेविज्जु वि अनवम कंठह जायउ पुणु घणरह जिण ( निव) पुत्तू अज्जिउ चारु चरणि चक्कित्तणु अव सुपुन्नह काइँ अ-सज्झउ जा सिर पर 'उवयार - विवज्जिय इय चिंतिवि धुवु सुह-भर-नच्चिय भद्दव- सत्तमि कसिण - निसा-भरि तहि गुणत्थु अवइन्नु जु नज्जइ चक्कि जिणेसरु जइ तुहु आयउ तह वि जणणि-संतोसु सपुन्नहँ गयउरि वीससेण - कुल-मंडणू सो जायउ जिण तेय-निहाणू जिट्ठ-कसिण-तेरसि निसि - अद्ध वि पुन्न कलानिहि जिण मघ-लंछणि ध्रुवक- सुभती. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० कंचण-तणु चालीस - धणुच्चउ जासु सीसु उसिणीस - सुपच्चलु सल - सुरिंदिहि जसु किउ मज्जणु वारिय-भव - जल - रासि - निमज्जणु गभि वि असिवह संति जणंतहँ नामु संति जं जिण विक्खायउ कुमुय-कमल-वाणि जेम महासरु तिम्व चकित्त- जिणत्तण-लक्खण पुन्नह परम कोडि फलु लोयहु जिन इय पडण नाइ निमित्तिण जिव रेहइ सरउ विससि - सहियउ जिम्व महु-कोइल - रवि मायंदू कुमर - भावि मंडल- चक्कित्तणि वरिस गमंतइ सय लावत्थहँ सयलुवि भारह - वरिसु पयक्खिणि नह-मंडलु अइ-सिग्धु अविग्धिण अखलिय- निखिल - चरण - परिपालण नव- निहाण संपत्ति विनम्व चउदस - विह जं जीव सुपालिय वद्ध-मउड-वर- राय निसेवय सोलस जक्ख - सहस जसु किंकर अमर-तरंगिण सिंधु वि देवय रज्ज - महातरु सुकय- सुकंद हँ आलवालु बत्तीस - सहस्सिउ चुलसी चुलसी लक्ख दलालह छणवइ कोडि पयाइ दलंकिय चउदस सोलस वीस दसुत्तइ सहस दलावलि कमि संवाह १६. १ कमलि. Jain Educationa International प्राचीन गुर्जर काव्य संचय भरणिहि धम्म- धुरंधरु सच्चउ । सिरिवच्छंकिउ मह वच्छत्थल ॥१३ मेरु- सिहरि कय- पाव - पमज्जणु । सुरह न पुन्नहँ तह - विकिमज्जणु ॥१४ भुवणि वि तेयवंत अहरं तह । सुचरिउ कित्ति - निमित्त तमाय ॥ १५ खीर - रयण - भरि जेम नईसरु | तसु संपुन्नु सरीरु वियखण ॥ १६ तिहुयणि विम अन्नु ( 3 ) पलोयह । चक्कि - लच्छि सहु भइय जिणत्तिण ॥ १७ जह व संखु वर - खीरिण भरियउ | तिम्व चक्कित्तणि संति - जिणंदू ॥१८ जिण पणवीस सहस्स जइत्तणि । पयडिउ समतुल मणु मह - सत्तहँ ॥ १९ भमिवि पसाहिउ जिम्व नव दिणर्माण । अव सुतेयह किमिह वियपि ॥ २० फल - पज्जंतु कु सक्कइ जाणण । नव- नियाण- वज्जण - फलु सिज्झइ ॥ २१ विमल रयण तिणि तित्तिय पाविय । जे पडिबिंब महिदिय देवय ॥२२ वसि अखंड छक्खंड भरह - घर | चमर-धारि - रुविण जसु सेवय ॥ २३ हिमगिरि - परिमिय धर - मह - खंडहँ । जणवउ सायर-सलिल - समस्सिउ ॥२४ हय-गय-रह सेणंग विसालह । विटिम जासु नह चारि पसंसि ॥ २५ नव नव दो चउवीस दु चत्तहूँ । खेडागर पुण दोणमुहोहहँ || २६ For Personal and Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांतिनाथ -रास मह मंडव कब्बड पट्टण तह वर चउसट्ठि सहस्स विलासिणि छनवइ गाम- कोडि जसु पल्लव जसु बत्तीस सहस नाडय - विहि छाय - निलीण वि जसु नहु पावहि अहव किमिंदु न किरण-करंबिय पासिरि रज्ज - महादुमि पूरिय जण - वळाहिग सुह-फलि संति - जिणेसर चित्त-विहंगमु सुद्ध पक्ख-थिर-बंधुर-कायह दावालिंगिय वणह समाणउ निखिल - सुक्ख-धरणीधर - वज्जू नव निहाण असु-विट्ठ नवग्गह संताविउ तिणि निय-अंतेउरु जिम्व सप्पिणि विस-मंथर सप्पिणि अइ-दुसील जिव रमणि विरत्तिय विमल-ति-नाण- रयण-उवसोहिउ रिसु देइ मह- दाण अ-मूढउ सहइ विलित्तु विभूसण- मंडिउ जह व मेरु-धर कप्प - महीरुहु अहिणव- पाउस जिम्व वियसंतउ भूसण-कंति-तडिच्छड-सोहिउ नील-लि-कंचुलिय- अलंकिय मय-भर कल - कंठिण गायंतिय तरुण-विलासिणि- सेणि स-हेलइँ नरवइ - पुंडरीय सुवलाहय इय सिरि-संति अकालिय-वासह सुह - पहा वि संतावु पणट्ठउ सहसअंबिअ-मणोहर-काणणि गहिवि दिक्ख मण-पव्वय पाविउ Jain Educationa International ६१ जण-खग-संकुल अट्ठ पसाहह । भोग- पमोय- महाफल- दंसणि ॥ २७ महुर-गेय महुर- झुणि- उन्भव | कुसुम-गुच्छ लोयण मुहु महु तिहि ॥ २८ तवण-तावु सुह सरुअर गाहहि । कुमय हुंति नित्तम वियसंतिय ॥२९ पहु- पहाव परिवड्ढइ अह - कमि । विजिय- कप्प- पायवि अइ बहु- दलि ||३० भव-पंजरह विरतु सुचंकमु । ली - तल व मित्तु वि गय- रायह ॥ ३१ मल-मंजूस किलेस - निहाणउ । परम -दिट्ठि - दिउ तिणि रज्जू ॥३२ रयणस - विग्गह दारुण विग्गह | नराहवणु रणि रमणि - नेउरु ॥३३ अहवरुद्ध दूधुर जिम्व जक्खिणि । तिम्व विभूइ जणि सयल वि चत्तिय ॥ ३४ कपु मुणिव लोयंतिय-बो हिउ । तर सव्वट्ट - सिविय आरूढउ ॥ ३५ जिम्व सुरिंदु सवि माणि अखंडिउ । संति- जिणेसरु तिम्व सिविआरुहु || ३६ अखलिय कणय-धार वरिसंतउ । गहिर - तूर -रव-गज्जि - विबोहिउ ॥३७ त वर-केस- कलाविण चंगिय | हरिसि निरंतरु थिरु नच्चतिय || ३८ वरहिण -पंति विवहि लीइँ | कण-धार हरि सिय- जण - वायय ॥३९ कसिण- चउद्दसि जिट्ठह मासह | नच्चइ जग मिय- कुंडि पट्ठउ ॥४० सहस - राय - सहु भाव - पहाणिण । जिणि जग मण - परिणाम विभाविउ ॥४१ For Personal and Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ कयलि-खंभ-सुकुमाल सीरीरिण कणउ वि निम्मलु ताव न होयइ कम्मह दुसह दाहक्खय उज्जय न हि साहिज्ज - निमित्तिण चंद - जुन्ह अइ-सिसिर जलासय मेलिवि सिय- नवमिहि दिणि पत्तउ जिवि दुज्जय घाइ- महाभड जिणि पाविय अहवा मय-लंछण पाडिहेर वर पूय सुरासुर जसु विणीय विबुह ते सामीय समवसरण विहि-धम्मु पयासिउ विहिउ चर - व्विहु हत्थालंबणु गणहर ठावण सम्म - चरितह गुरुग्गमणि समुग्गय नाणु वि उ - विह- धम्म-पइट्ठिय-खंभु चरण-सिहरु सु-विसुद्धि-अलंकिउ सायार- परिवार पसाहिउ सदवबोहु जहिं तुंगुस - तोरणु परमत्ताणु तहिं कलसु चडाविउ इहु वृत्तंतु निमित्त सुदुक्खहँ बरिस लक्खु उतरुत्तरु सुक्खइँ Jain Educationa International तविउ तिव्वु तवु सिव-मणि धीरण । जाव न अप्पर तावह ढोय || ४२ संतिहि सव्वायर कय-निज्जय । सहिउ नियय-परिवारि समत्थिण ॥४३ हिम-कण पवण-नियर तवनासय । नाइ पोसु सुह - मित्तु निरुत्तर ||४४ जय - सिरि जिम्व केवल-सिरि उक्कड | कइय न होइहि सिरि-लाभ - च्हण ॥४५ तुरतुरियस विरहि स- प्फुर । कज्जु पसाहहि समयावसिय ॥४६ अविहि- तिमिरु जण-मणह विनासिउ । प्राचीन गुर्जर काव्य संचय - गइ जंतह संधु निरंजणु || ४७ रोवण संति करइ सु-पसत्यह । अहव वेल चालइ तसु जाणु वि ॥४८ करण - महामुंडा वर-बंभू । निम्मल - भावण - सुहरस-पंकिउ ||४९ मूल-बिंबु जहि दंसणु ठाविउ । सुवरि सेलेसी - वय - फोरणु ||५० भावुवगाहि कम्मट्टि समाविउ । पयडिउ भविय लोय अइसुक्खहं ॥ ५१ सेविय.. [ अपूर्ण ] * For Personal and Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. सालिभद्र रासु [ १ ] थंभणपुर पहु पासनाहु पण विणु भत्तिण सयल समीहिय रिद्धि वृद्धि सिज्झइ जसु सत्तिण । हउँ पभणिसु सिरि-सालिभद्द - मुणि- तिलयह रासू भवियहु निसुणहु जेण तुम्ह हुइ सिवपुरि वासू ॥ १ [ कर्ता : राजतिलक Jain Educationa International अस्थि पुहवि वर-नरु रायगिहु लच्छिहि पुन्नउँ जिणि निज्जिय गय अंतरिक्खि अमरावइ मन्नउँ । रज्जु करइ तहि अमर-राउ जिव सेणिउ राओ भंजिय-बल-भुय दंड-चंड - वेरिय-भडवाओ ॥२ तत्थ वसइ गोभद्दु सिट्ठि धण-जिय-धरु दी - दुहिय-साहारु निच्च-हिय-वासि-जिणेसरु । रूविण निज्जिय-गउर- लच्छि भज्जा तसु भद्दा निरुवम-सील- पभाव- भावि मण-वंछिय-भद्दा ॥ ३ उप्पन्नउ तसु कुच्छि लच्छि जिव कामु सुरुविण गोवालय - संगमय जीव मुण-दाण-प्रभाविण 1 उज्जयंतर दिसह चक्कु संजायउ पुत्तू सालि - खित्त-सुमिणेण कहिउ सोहग्गह पत्तू 118 अस्थि सिरि- पुरु पालेइ सेणिउ पवरु गोभद्द-सिट्ठिहि पवर कंतिहि जोइय-दिसि - पडल साहु-दाण-कमलह तणउँ घात लेखन - समय : १३८१ ] रायगिह- नामु राउ रज्जु हि वेर खंडण | भज्ज भद्द संजाउ नंदणु ॥ संगमियउ गोवालु । वित्थरियउँ किर नालु ॥५ १.१. ज. पुर; ब. नाह. २. ब. विद्धि. ४. ब. भविय. २.१. ब. पुहइ; नयर राउगहि; पुन्नओ. २. ब. मन्नओ ३. ब. रज्ज, तहि, जिय. ४. ब. भूय. वयरिय; ज. भडवाउ. ३२, ज. निव्वहिय, ब. हियइ वसइ. ४.४. ब. कहिय. ५. ४. ज. सिट्ठि; ५. ब. तासु भज्ज. For Personal and Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय [२] तसु सुह-वासरि सालिभद्द इय रइयं नामू माया-पियर-निय-बंधवाण संगमि अभिरामू । वद्धइ जिव जिव चंदु जेव सो जणयाणदणु तिव तिव वियसइ कुमुय जेव भद्दा हरिसिय-तुणु ॥६ अह परिणाविउ सालिभदु बत्तीस कुमारी तिहुयणि सयल वि जाह नत्थि पडिछंदउ नारी । चरम-जिणेसर-पासि दिक्ख लेऊ गोभद्द वि देउ हुयउ दिव-लोइ करइ मण-चिंतिउ सव्वु वि ॥७ देउ सु पूरइ देव-तणउ नितु नितु आहारु भज्जा-सहितहि नियय पुत्त आभरणह भारु । अच्छर-गण-सउँ इंदु जेम विलसइ तिम निच्चू कामिणि-जण-सउ सालिभदु अगणिय-निय-किच्चू ॥८ घात __ पुत्तु जायउ सुह-मुहुत्तम्मि वद्धाविउ सेट्रि तहिं दियइ दाणु दालिद-खंडणु । तसु पुत्तह नामु किउ सालिभद्द इह पाव-खंडणु ॥ विज्जा सयल वि पाढियउ परणाविउ वर नारि । व्रतु लेइवि गोभई गउ सग्गि पत्तु सुह-पारि ॥९ तत्थ समागय वणिया लेऊ रयण-कॅबल रुइ जिय-रवि-तेऊ । चहुटइ लखु लखु मूलु अलहंता पत्ता सेणिय-भूमि वयंता ॥१० लखु खु मूलु दियइ नहु राऊ तीह तणइ मणि हुयउ विसाऊ । सालिभद्द-घर गुरु पिक्खेविणु पहुता हरिसिण पूरिय-मण-तणु ॥११ सयल कॅबल भद्दा गिन्हेई लखु लखु तीह तणउ मूलु देई । भद्दा कंबल सवि फाडेई भज्जह पाउंछणय करेई ॥१२ । ७. ब. संगामिउ. ११. २, ब. विसामो, ज. विसाउ. १२. १. ज गेण्हेई, ४. ब. पाउंछणह. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सालिभद्र-रासु इय संभलिउँ देवी चिल्लण निव-अग्गइ । 'रयण-कॅबल मह देहि' बहु-वारं मग्गइ ॥१३ राइण सालिभद्द-घरि मंती पेसिउ पिक्खइ घोडय दंती । पभणइ कंबल-मग्गिय भद्दा 'भज्जह पाउंछण किय भद्दा' ॥१४ कंबल-वत्त कहिय जउ मंतिण निउ हक्कारइ सालिभदु हरिसिण । भदा आविय तउ विनवेई 'महु पुत्तु घर-बाहिरि पगु न धरेई' ॥१५ तउ तसु घरि निउ सेणिउ आवइ पुत्तह माया जाइ संभालइ । पुत्तु भणइ 'तुहु लेहि किराणं जिव तइ लीधउँ तिव इ प्रमाणं' ॥१६ माय भणइ 'वछ तुह इउ नायकु सयलह पुहविहि सेणिउ तायकु' । 'मज्स वि ऊपरि अच्छइ सामिउ मिल्हिसु हउँ भवु जिणि नामिउं' ॥१७ इय चिंतवि वंदइ निव-पाया उच्छंगे तउ गिन्हइ राया । मयणु गलइ जिव उन्हइ पडियउ तिव सो गलइ उछंगे चडियउ ॥१८ . तउ निवि मुक्कउ ठाणि पहुत्तउ सो अच्चतं भवह विरत्तउ । मज्जणु करतह रायह पडिया मुद्दा कूव-मज्झि तउ गइया ॥१९ जलि उत्तारिय मुद्दा रेहइ अंगारउ जिव भूसण फेडइ । जेमिवि निवु धवलहरि पहुत्तउ हरिसिय-मणु निय-कज्जि पयट्टउ ॥२० . रयण-कंबल सवि फाडेवि भज्जाहँ पाउंछणय विहिय मंति-वयणेण जाणिउ । कोऊहलि पूरियउ सालिभद्द-घरि जाइ सेणिउ ॥ 'राया पहु तुह आइयउ' भद्दा सुयह कहेइ । तउ संसार-विरत्त-मणु सो सामि वंदेइ ॥२१ पत्तउ ए वीर जिणिंदु तहि पुरि साहुहि परियरिउ । सालिभडु ए जणणि भणेइ 'वीर-पासि हउँ व्रत गहिसु' ॥२२ १३. १. ज. इइ. १४. ४. ब. सद्दा. १५. १ ब. पडिय. ३. ब. आवी वीनेवई. १६. ४. ब. लियइ. प्रमाणउं. ७. १. ज. यउ, ब. इ४; ३. सामिउं, ब. सामिओ. ४. ज. नामि, ब नामिय. १८. ज. १. चिंतिय. २१. १. ज. फाडेइ. २२. ब. गिहेसु. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय जंपई ए वहिवा 'सुआल कह संजम-भरु तुहु वहिसि । न सकइ ए वहिवा वाछ वाछडउ मह-रहह भरु' ॥२३ आणहि ए जणणि मन्नावि धन्नइ साहियउ सालिमह । परिहरि ए धण-धन्नाइ वेरग्गिण वासिय-हियउ ॥२४ विच्छडि ए वउ गिन्हेइ पासि वीर-तित्थंकरह । विहरइ ए सह वीरण धन्नई सहियउ तवु तवइ ॥२५ विहरंतउ आविउ सामि वीर-जिणेसर रायगिहि । वीरिण ए कहियउ 'माय-करि तुहु सालिभद्द पारिहिसि ॥२६ गोचरि ए फिरतउ पत्तु जणणि-घरे तव किसिय-तणु । उलखियउ नहि मायाइ जिण-वंदण-ऊसिय-मणएँ ॥२७ तउ मुणि पहुतउ पोली समीवि हरिसिय धन्ना तं पिक्खेवि । विहरावद दहि पूजतउ ॥२८ आविय पुच्छिउ तिणि मुणि वीरु कहइ पुव्व-भवु तसु अइ-धीरु । ___ सालि-गामि उच्छिन्न-कुलु ॥२९ धन्ना सुउ संगम-गोवाल्लू तं आसी दय-दाण विसालू । खीरिण त मुणि पारियउ ॥३० दाण-पभाविण एरिस रिद्धी जाया कमि तुह हुइ [इसि सिद्धि । पुव्व-जणणि विहरावियउ ।३१ इय जाईसर-लाभिण तुट्ठा तव-सोसिय-तणु धम्मिण पुद्रा । धन्न सालिभेंडु बे-वि मुणि ॥३२ वेभारह गिरि उप्परि जंती अणसणु काउस्सग्गु कुणंती । सुद्ध-सिलामल-भूमि-ठिय ॥३३ अह भदा वक्खाण-अणंतर जिणु पुच्छइ 'मह निच्छह (2) सुयवरु' । भणियं जिणि 'वेभारि गउ' ॥३४ सेणिय-सहिया भद्दा जाए जहि बे ते मुणि उज्झिय-काए । पिक्खइ निच्चल दोवि मुणि ॥३५ २३. १. ज. सूयाल. २४. ३. ज. परिहरिव धए. २५. १. ब. पच्छडि. २६. १. ज. आवियउ, ब. ए आविउ, ४. ब. किरि, भद्द पारि सहि. २७. ३. ज. ओलखिओः ब. ए नहु. ३१. २. ज. हुइंसी, ब. हुइसी. ३२. ३. ब. धन्नउ. ३४. १. ज. भज्ज; २. ज. नन्थिह. ३५. २. ज. सुणि, ब. जहि ठे ते. Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सालिभद्र-रासु पणमिय भद्दा बोलावेई 'वाछ पुत्त मुह संमुह जोई । मह हियडउ नहु फुट्टिसइ' ॥३६ मुणि नहु जोयइ नहु बुल्लेई भद्दा ढणहण तउ रोएई । आय मुच्छ धरणिहि पडिय ॥३७ गइय मुच्छ तउ सा विलवेई 'हइउ दैवु मह आस हरेई । 'मइ जाणिउ इउ बोलिसइ ॥३८ कठिण-ठाणि कह इत्थ रहेसी तुहु कोमलु किम सीउ सहेसी। ध्रसकइ हियडउ मझ तणउ' ॥३९ सेणिय बोहिय भद्दा निय घरि पत्ता सवसिद्धि ते मुणिवर । राजतिलक-गणि संथुणइ ॥४० वीर-जिणेसरु गोयमु गणहरु सालिभद्द तह धन्नउ मुणिवरु । सयल-संघ-दुरियइ हरउ ॥४१ सालिभद्द-मुणि-रासो जे खेला दिती तेसिं सासण-देवी जणयउ सिव-संती ॥४२ ३६ ज. हियउं नह. ३७. १. ब. बोल्लेई. २. ज. ढणढण. ३. ज. आयउ पुच्छ, ब. मुच्छि. ३८ ३. ब. जाणिउ बोलिसए; ज. यउ. ३९. ज. मूझु. ४३. ३. ज. दुरियत.. ४२. १. ब मुणिवर रासू. २. ब. जे निय उल्लासय. ज. प्रति का अन्तः इति श्रीशालिभद्र मुनिराजरासः संपूर्णः. ब. का अन्तः श्री सालिभद्ररासः समाप्तः। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. महावीर-रास [कर्ता : अभयतिलक गणि रचना-समय : १२६० लेखन-समय : १३८१ ] पासनाह-जिणदत्त-गुरु अनु पाय-पउम पणमेवि । पभणिसु वीरह रासुलउ अनु सँभलहु भविय मिलेवी ॥१ सरसति-माडिय नवउँ (१) अनु मझु करि वडउ पसाओ । वीर-जिणेसरु जिम थुणउ अनु मेल्हिवि अनु ववसाओ ॥२ भीमपल्लि-पुरि विहि-भुयणि अनु संठिउ वीर-जिणेंदो । दरिसण-मित्ति वि भविय-जण अनु तोडइ भव-दुह-कंदो ॥३ सिरि-सिद्धत्थ-नरेसरह अनु कुल-नहयलि मायंडु । तिसलादेविय उवर-सरि अनु सोवन-कमलु उदंडु ॥४ निरुवम-रूविण वीर-जिणु अनु सवु जगु विम्हावेई ।। पणमंतह भवियण-जणह अनु सयल वि दुरिय हरेई ॥५ तसु उवरि भुयणु उत्तंग-वर-तोरणं मंडलिय-राय-आएसि अइ-सोहणं । साहुणा भुयणपालेण करावियं जगधरह साहु-कुलि कलसु चडावियं ॥६ हेम-धय-डंड-कलसो तहिं कारिओ पहु-जिणेसर-सुगुरु-पासि पइठाविओ। विक्कमे वरिसि तेरहइ सतरोतरे सेय-वइसाह-दसमीइ सुह-वासरे ॥७ इह महे दसह दिसि संघ मिलियाँ घणा वसण-धण एहि वरिसंति जिम्ब नव-घणा । ठाणि ठाणे पणचंति तरुणी-जणा कणिर-मणि-नेउराराव-रंजिय-जणा ॥८ घरि घरे बद्ध नव-वंदणय-मालिया उब्भविय गुड्डिया चउक परिपूरिया । आदरिण संधु सयलो वि संपूइओ सव्व-दरिसण-नयर-लोगु सम्माणिओ॥९ १. १. B गुरो नहीं है. ३. B रासुलओ. ४. A सांभलह; मिलेवि. २. १. A माडी वीन्नवउ, 'अनु' नहीं है. ३. A जिव; B थुणओ, 'अनु' नहीं है. ४. B मिल्हवि. ३. १. B तीमपल्ली ; A भवणि; 'अनु' नहीं है. २. B संठिओ, A जिणंदु. ३. B मित्त; A 'मनु' नहीं है. B अमु. ४. B तोडए; AB कंदु. ४. १. A अनु' नहीं है. २. B नहि. ३. A देवि; B उयरि; A 'अनु' नहीं है. ५. १. A. 'अनु' नहीं है. ३. A 'अनु' नहीं है. ४. A सयलु. ६. १. A भवणु. २ B राइ. ३. A भुवण; B कराविउ. ४ B जगधर; A कलस; B वाडावेउ. ७. .. B तहि. २ A पयठाविउ, B पइट्ठाविउ. ३. B विकमे वरसि, सत्तरु. ४ B सिय. ८. १. A दिसोदिस. २ A दसण; B घणएहि विरिसंति जिम. ९. १. A घर; B घरि, बद्धा. २ B ऊभविय गूडिया. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर-रास रंगि खिल्लंति मल्हति तहि खेलया महुर-सरि गीउ गायति वर-बालिया । सीलणो दंडनायग-वरो हरसिओ वीर-भुयणेण पूरिय-पयन्नो हुओ ॥१० तउ चडियउ वीरह भुयणि दंड-कलसु सोवन्नु त । तउ विहि-मग्गि समुच्छलिउ जय-जय-]सदु रवन्नु त ॥११ वीरह धय जउ लहलहिय तउ विहसिय जग सव्व त । हरसिण भाट-नगारिय ए पढिया कव्व अपुव्व त ॥१२ पवण-पकंपिर वीर-गिहि जाणिज्जइ य पडाय [त] । उप्पाडिया चवेड किर दुट्ठ-रिद्व-हणणाय त ॥१३ चडियइ धयवडि वीर-जिणि कला न अंगि समाइ त । जणु पिक्खिवि वीरह भुयणु हल्लकलोलिहि जाइ त ॥१४ वीर-भुयणि सु-पइट्ठियइ दस-दिसि वज्जिय तूर त । दस-दिसि वद्धावणय हुय संघ-मणोरह पूर त ॥१५ जे पहु वीर-जिणिंदु नयणंजलि-पुडइहि पियहि । जिम्व अमियह निस्संदु ते जि धन्न सु-कयत्थ नर ॥१६ जे न्हवंति वंदंति अच्चहि चच्चहि वीर-जिणु । नव निहाण ति लहंति भंति म करिसहु भविय-जण ॥१७ वीरह सीह-दुयारि एहु रासु जे दिति नर । ते सिवपुर-मज्झारि विलसहि सुख भोगवहि पर ॥१८ १०. १. A 'मल्हंति' नहीं है. ३. A दंडनायगु, B डंडनायग. ४. A भवणेण. ११. १. B चडिउ; भुणि. २. B डंड; A सोवन्न, B सोवनु; A 'त' नहीं है. ३. B मागि समुछलिउं; A समच्छलिउ. १२. १. A लहलहहि. २ A विहिसिय; 'त' नहीं है. B जगि. ३ A हरसिणि भट्ठः 'ए' __ नहीं है. ४. A 'त' नहीं है. १३. १. A वीर जे; २ B जाणीजइ. १४. १. B धयवड वीरि; A जिण. २ A 'त' नहीं है. ३. A जणि; B पिखवि; वयणु. ४ A कल्लोलिहि, B कलोले. १५. १. A भुवणि; B सुपइट्टयए. २ A दिसि दिसि; 'त' नहीं है. ३. A दिसि दिसि. ४ A 'त' नहीं है. १६. १. B जिणिद. २. B °णंजणि, पियहि. ३ B जिम. ४ A तिज्ज; B सुकय. १७. १. B दंति. २ B अव्वहि. ४. B करिसउ. १८. १. A सिंहदुवारि; B दिति न; १८ का उत्तरार्ध नहीं है. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संख्य खेलाखेली देंति रासु जि इउ रलियावणउ । लाह करउ सिव संति बंभ-संति अनु खेतलउ ॥१९ जाम्व मेरु-गिरि सारु विलसइ महि-मंडलि सयलि । सिरि-मंडलिय-विहारु ताम्व एहु नंदउ जयउ ॥२० अभयतिलक-गणि-पासि खेले मिलिवि करावियउ । इय निय-मण-उल्हासि रासुलडउ भवियण दियहु ॥२१ १९. 1. B में नहीं है. २. B इयउ रलियावणओ. ३ A तहे. ४ A 'वभ सति' नहीं हैं. २०. १. B जाम.. २ B महं. ४ B ताम. २१. २. A खेलहि; B. मिलवि कराषिउ. ३ B इति; मणि उल्लासि. पुष्पिकाः इति श्रीमहावीररास समाप्त. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६.थूलिभद-रासु [लेखन-समयः १३८१] पणमवि सासण-देवी अन्नई वाएसरि । थूलिभद्द-गुण-गहणु मुणिवरह जु केसरि ॥१ पभणउँ थूलिभद्द इहु रासू पाडलिपुत्ति नयरि जसु वासू । नंदउ रायह नंदह रज्जे मंति सगडालु अम्हारइ कज्जे ॥२ थूलिभद्द-पिउ ताव सगडालु महंतउ । चिंतइ सामिय-कज्जे राखइ अथु जंतउ ॥३ राय-तण नितु पंडितु आवइ अहिणव गाहा रचिउ भणावइ । पंडित-दापु कियउ नितु राई दीजहि द्रम्मह पंच सयाइँ ॥४ इत्थंतरि महतेण रय बुद्धि दिखालिय । 'पंडित अहिणव गाहा मुझु जाणइ बालिय ॥५ . ताहि अवसरि पंडितु आवइ पहिलउ वररुचि गाह भणावइ पंडित रचिउ भणइ तव गाहा पोथइ पढिउ कहइ नरनाहा ॥६ तउ पंडितु पभणेई ऊछलिउ जु आखइ । नत्थी जणणिहि जाओ मुझु बीजउ पाखइ ॥७ अन्न-दिवसि जं अवसरि आवइ महता-बेटी राउ तेडावइ । सवि वर धिय रा-लागिय बोलिय सुललित भाउ न मेल्हइ खोलिय ॥८ इक-सँथ बि-संथिय बाला जं ति-संथिय जंपइ । वररुचि रूठउ राओ रोसिहि मणु कंपइ ॥९ तावह पंडितु बाहिरि थाइउ द्रम्म थवइ नितु गंगह जाइउ । पसरह लोयह द्रम्म दिखालइ 'नरवइ वट्ट अम्ह नवि पालई' ॥१० इत्थंतरि महतेण तउ द्रम्म उसारिय । पंडितु ओछउ थाए तलि दोरउ सारिय ॥११ २. १. ज. ब. रासु. ३. ब. नंदह ३. ४. ज. अथु. ४. ३. ज. दानु. ४. ज. दीजइं. ६. १. ज. तावं. ३. ब. मुकिय कहइ नव. ४. ज. वाहा, ब. सबि गाहा ७. २. ब. मु. क्खाइ. ४. ब. पक्खइ. ज. बीजइ. ८. ३. ज. सविचार धीयः ब. वर वरविय बोलण लागिय ४. ज. मात्र. १०. १. ब. थाई. २. ज. द्राम. ब. जाई. ४. ज. वाट. नइ, ब. अम्हह नवि. जाणइ. ११. ३. ज. ब. उछउ; ब. थाउ. ४. ब. तहि. सारिउ...... Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय तउ पंडितु कोपानलि चडियउ घाठउ हिंडइ सूनउ थियउ । तउ चेलुकाँ पिरायाँ पोसइ 'नंदु हणिउ सिरियउ राउ होसई' ॥१२ नयर-दुवारे सद्दो नरवइ संभलियउ । महता रूठउ राओ अछतउ नितु टलियउ ॥१३ जावह महतउ अवसरि आवइ तावह पूठि दियइ पुणु नरवइ । महतइ जाणिउ मूल विणासिउ भण-वयणे नरवइ रूसिउ ॥१४ महतइ घरि जाएवी सिरियउ हक्कारिउ । तुम्हि नंदहु चिर-कालो अप्पइँ पिउ मारिउ ॥१५ सिरियउ भणइ 'न घल्लउँ घाऊ जीविउ लाछि लियइ जइ राऊ । महतइ घरह कुटुंबडं खामिउ असिउ हलाहलु रयसिरु नामिउ ॥१६ महतइ विसु भक्खेवी किउ प्राण-तियागू । सिरियउ अंगह रक्खो तिणि मूकउँ खग्गू ॥१७ खग्गइ मूकइ इयउ घाऊ कपटु करिउ तउ पूछ्इ राऊ । 'सिरिया महतउ तइँ काइँ मारिउ सामि-प्रओजनु किंपि न सारिउ' ॥१८ सिरियउ पभणइ कर जोडेविणु निसुणि नरेसर कन्नु धरेविणु । जो महु सामिहि चूकइ भावइ सो हउँ निहणउँ जइ पिउ आवई' ॥१९ सिरियइ रंजिउ राओ जिम जमह न चूकइ। .. हक्कारइ 'लइ मुंद्र महता-पदु दूकइ' ॥२० सिरियउ कहइ नरिंदह जाइउ 'अम्ह थूलिभदु जेठउ भाइउ । तसु तणि मुंद्र अम्ह नवि छाजइ कामिणि-विरहु किमइ जइ भाजई' ॥२१ तउ निसुणेविणु नरवइ जाणिउ मुंद्र कहइ लइ थूलिभदु आणिउ । रायह मंदिरि थूलिभदु पहुतउ मणु आलोचिउ भोग-विरत्तउ ॥२२ उत्तर देइ न जानू मणि रचियउ दाऊ । लइयउ संजम-भारो अवगणियउ राऊ ॥२३ . . १२. १. ब. हूयउ. २. ब. सूनउं. ३. ब. चेलुकइं परायइं. ४. ब. रजि. १३. ३. ब. सविवर रूठउ. ४. ब कुवियउ. १४. १. ज. जाव. २. ज. ताव. ३. ज. विणास, ब. विणासो. १८. १. ज. ब. खग्गह, ज. मूका. २. ब. कोडु करिवि. ४. ज. परोजनु, घ. प्रजनु १९. ३. ब. सामिय चूकउ. २१. २. ज. थूलभदु. ब. अम्हह थूलिभद्र. २. ज. अम्हंह; ब. तसु केरी. २२. ४. ब. ओलोचिवि. २३. २. ब. रधियउ. ४. ब. अवगंनिउ. Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलिमहरासु लोचु करिवि जउ निब्भर भावई ओघउ मुहतिय अवसरि आवइ । वेसु करिवि तउ मुणिवरु चलियउ विषय-महाभड्डु तिणि निदलियउ ॥२४ सासण-देवि तसु वंदइ पाया देखइ चमकिउ नंदु वि राया । नंदह धम्म-लाभु सो देविणु चल्लिउ धण कण रयण चएविणु ॥२५ जोआवइ नरनाहो मुणिवरपहु राइउ । ताम्व दुगंधह माहे दाहिण-दिसि जाइउ ॥२६ विजयसिंह-सूरि-गुरु तहि ज पुरि निवसए गच्छु गुणवंतु जहि थूलिभदु पविसए । अट्ठ-मय-निदलणु पंच वय पालए मुक्क-संसारु जिम्व मोक्खु नीहालए ॥२७ पत्त चउमासयं ताम्ब मुणि आविया गुरुहु आएसु लइ मुणिवरा चल्लिया । सप्प-बिल सीह-गुफ कूय-निन्नासयं गुरुहु वुतु मुणिहि तिथु कियउँ चउमासयं ॥२८ ताम्व उद्विवि गओ थूलिभदु गुरुहु पइ 'अम्ह चउमासयं वेस-घरि भणहु जई' । गुरुहु (?) गुण जाणिउ वेस-घरि मूकओ छहि विगइ पारतउ वयह न चूकओ ॥२९ वीतु चउमासयं ताम्व मुणि आविया थूलिभदु मेल्हिवि नहिय लडाविया । इक्कि तप्पोधनि रोसु मणि धरियउ 'वेस-घरि अछइ त दुक्करु चरियउ' ॥३० २४. १. ज. ब. भविं. ३. ज. जउ. २५. ४. ब. वच्चिउ. २६. १. ब. जो पावइ. २. ज. मुणिवरु, राउ; ब. पउराहू. ३. ज. गंधह, ब. माहि. ४. ब. दाहिणि. २७. १. ज. सिंघ. २. ब. वच्छ तहि. अच्छए. ३. ब. अट्ठ कम्म. ४. ब. जो; ज. सोक्खु, ब. मुक्ख. २८. १. ज. पहुत्तु. २. ज. लेउ २९. १. ब. दिट्ट गउ भणइ. २. ज. अम्हह; भणउ. ३. ब. जाणिवि. ४. ज. मणह, ब. विगय विहरिउ. ३०. ३. ज. ब. तपोधनि. ४. ज. गाम घरि, व थक्कउ दूकरु भणियउ. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय अम्ह गुरु सबलु किरि छंदओ भासए तासु गुण लहिसु हउँ पुण वि चउमासए' । जाम्ब गउ गिम्ह पुण पत्तु पावस-भरो ताम्व तव-चरणि गउ वेस-घरि मुणिवरो ॥३१ वेस ससि-वयणि मृग-नयणि नव-जोयणी सुविहि परि विवह-परि दिटु मुणि लोयणी । 'ऑवहु मुणि कवहु झुणि देसण तुम्ह दुल्लही अम्ह घरि अनिक-परि तुम्हि जइ सुज्झई ॥३२ मज्झु णयणु गुरु-वयणु पर तु जइ झाइये वेस-घरि पोस धरि तं दिवसु आइयं । श्रावणे सलिलु मुणि-सील संबोलियं मयण-वृख-कंद खणि तवणि उम्मूलियं ॥३३ भाद्रवडइ घणु गुहिरउ जलहरो गाजए चरित-पुर-पाटणु मयण-भड भंजए । ईण-परि वेस-घरि मुणिहि मणु रंजियं रम, नर अनिकि परि पिक्खेवि तं जियं ॥३४ भारथु पियइ(?) किरि बोल इमु छक्किउ अत्थ विणु वेस पुणु निठुर वइ हक्किउ (१) । वेसा पभणेविणु 'दंसण लेविणु जाहि राय मग्गहि रयणु तुहुँ अत्थ-विहीणउ मुझु हिंडहि दिणउ वरि वत्तु करेसि जइ (१) ॥३५ ताम्ब मुणि मेघु घणु गणइ नं चल्लिओ। कलिहि नं जलिहिं नं नईहि नं पेल्लिओ। कम्म घणु मत्तु तणु भमइ पुठि लागउ । नेपाल-देसि गउ रयण-कंबलह(!) मग्गउ ॥३६ ३१. १. ब. करि. ३. ज. गिम्ह भरु. ४. ब. चरणु लइ. ३२. १. ज. जोवणी. ३. ब. कहहु, देस. ४. ज. तुम्ह. ब. जइ ससई. ३३. १ ब मुझु, जे. २ ब पाउसभरि, आवियं. ३ ज. सावणं; ब. सलिल मणि, बोलियं. ४. ज सयलदुम चित्तुउ, ब वृष, खणु तवणु. ३४.१ ब गुहरउं, जलहरो, ज. 'गुहिरउ' नहीं है. २. ज. तु पुरु णु. ब. चा पुरु. ३. ज. गंजिय, ब. आण. ४ ज. पिखिवि. ब. अनेक नर रसहि पिखेवि तहि रंजिय. ३६. १ ज. 'थो, पेल, ब. इ मुणि. २ ज. वेस घरि निठुर वाह किसउ ३ ज. मुझु वयणु सुणेविणु, मग्गिज. ब. जाइ माग्गह. ४ ज. पणि वुत्तउ करिज तुहु. ब. विहूणउ हिंडह लीणउ, घरि कम्मु. ३६. १ ज. आण परि वेसघरि जोइ मुणि हलिउ, ब. चल्लिउ. २ ज. हि हि पिल्लिओ, ब. न, न नयइ पेल्लिउ. ३ ज. भन्न, ब. कामतणु, पंथिलागउ. ४. दिसि, ज. साहुणा राउ जभिद्दिउ. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थूलिभह-रासु भेटिउ साहुणा नेपाल-देस-राउ (?) लहिउण कंबल-रयणु मुणि कइ दिसि ठाउ ॥३७ वेगु करि पंथु भरि चलिउ मुणि आविओ 'वेस लइ गमइ जई' कहवि लम्बाविओ ॥३८ 'आणि मुणि कंबल-रयणु' खालि मेल्हिउ कहइ । 'पाउ मन लाइ धणि लक्खु द्रम्मह लहइ' ॥३९ 'लद्धउ लक्खु मुणि दिटु कउडी गम्मइ वेस गुणवंत जसु धम्मि चित्तु रम्मइ' । ताव उट्ठिवि गउ गुरुहु पय बालउ अक्खए 'इउ सँजम-भारु दुप्पालउ' ॥४० निय तणि जओ मुणि दीणउ थाए चणा भखेविणु मिरिय कु खाए । इह गय-खंभु करीरिहि भज्जइ थूलिभद्द जोग ति कह वि न छज्जइ ।।४१ कह नेपाल देसू भणीजइ वडइ कट्ठि तहि पुणु जाईजइ । तइँ मूरख नवि जाणिउ भेउ लक्ख रयण मुणि कंबलु एहु ॥४२ दिठ्ठ रयणु जं कदमि भरियउँ हियडउँ सुन्नउँ सहु वीसरियउ । तउ मुणिवरु मेल्हइ नीसासा 'मज्झु तणी नवि पूरी आसा ॥४३ जं जिण-धम्मह किज्जइ मूलु तं तरुणत्तणि पालिउ सीलु' । इसउ वयणु सो हियडइ धरइ मयण-मोह चित्तह उत्तरइ ॥४४ चिंतइ मुणिवरु चिहियइ निरंगू संजम-तरु म. रूयइ भग्गू । धनु धनु थूलिभदु सो सामिउ पाउ पणासइ लइयइं नामि ॥४५ ३७. १. २. ज. में नहीं है. ब. साहु, ३ ज. लहइ, कहइ, ठाइउ. ब. कहउ. ३८.१.२ ज आणि परि वेस घरि रन्नु ले आइउ सवस पुणि २ नितुलि खालि लंवाविउ. ३९. २ ज. मिल्हिवि; 1 ब. म, ४ ब. द्रम्म. ४० १. ज. लक्खु लद्धउ मुनि. गमइ, ब. लाधउ लाखु, गमइ, २ ज. चित्ति मणु रंजमइ, ब. चित्तू रमइ, २ ज. ओण परि वेस घरि मुणिहि मणु बालिय, ब. ऊटिवि, ४. ज. अक्खइ अइयारु सजम भारो पालए, ब. अक्खइउ. ४१ १२. ज. नीचउ नियमणि लीण थाइ, विणा मुरिष, स्वाई, ४ ज. त कस. ४२. १. ज नय, २ ज कष्टि, तहि वे, ३ ज मेओ. ४३. २ ब हियड सुन्नं ४४. ब मयणु ४५ २. ज भइरू यउ. ४ ज नामित Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय तसु ऊपरि मई मच्छरु कियउ तिणि कारणि मइँ फल पावियउ ॥ तुहु महु गुरु कोसा महु माए हउँ पडिबोहिउ आणिउ ठाए ॥४६ मइ जाणिउ त कियउँ अकम्मू आलि वहिउ गउ माणुस-जम्मू। वेसा कोसा बोल्लइ एहु 'अज्जिउ मुणिवर म-न करि खेऊ ॥४७ चारित्त-रयणु हियडइ धरहि गुरुहु पासि आलोयण लेहि । वहुत्त-कालु संजमु पालेहि चउदह पूरव हियइ धरेहि ॥४८ थूलभद्दु जिण-धम्मु कहेवि देवलोकि पहुतउ जाएवि ॥४९ ४६. १. ज धरियउ, ब कीयउ. २. ज प्रामीयउ, ३. ज तुहु गुरु, तुहु महु माया; ब मुहु गुरु, मुहु माया. ४७. २ ज चलिउ गउ, १ ज अज्जि . ४८ १. ब. चारितु २. ज. ब. लेहि, ५ ब. धरेवि. ४९. १. ज. कहेइ; ब कहेई. २. ब जाएवी. पुष्पिकाः ज. थूलिभदरास समाप्तः, ब थूलभद्दरासः समाप्तः. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. नवकार-रास पणमिवि रिसह-जिणिंदु देव तियलोय-दिवायरू । वीरु नमउ गंभीरु धीरु सासय-सुह-सायरु ॥ अजर अमर वर-नाणवंत तिहुयण-चूडामणि । सासय-सुह-संपत्त सिद्ध वंदउ ते निय-मणि ॥१॥ अंग इगारह चउद पुव्व तिहुं पइ निम्मविया । गोयम-गणहर-पमुह सयल पणमउ आयरिया ॥ सुय-सागर-गुण-मणि-रवंन तिहुयण-विक्खाया । उवयत्ता उवएस-दाणि पणमउँ उवझाया ॥२॥ भव-संसार-विरत्त-चित्त सिव-सुह-उक्कंठिय । सतर-मेय-संजम-पवन्न तव-उवसम-संठिय ॥ सायर जिम गंभीर धीर मण जिम कंचणगिरि । अप्पमत्त-चारित्त-जुत्त जे पिययम-खम-सिरि ॥३॥ कंचण तिण मणि लिठ्ठ पवर जे मणि समु धारहि । समिति गुत्ति दय-दाण-धम्मु निम्मलु परिपालहि ॥ विजयवतीसि जि मुणि विदेहि पण भारहि सिवकर ॥ पणव-एरवइ जि तव-निहाण वंदहु भत्तिब्भर ॥४॥ ठवणि पढमु पणमउँ, पढमु पणमउँ, सयल अरहंत तयणरु सिद्धवर सूरि गुणउँ गुण-विविह-संठिय । आगम-निहि उवज्झाय तह साहु नमउँ तव-धण-महिढिय ॥ सिव-मंगल-कल्लाण-कर जो सुमरइ सु-वियाणु । सो परमिद्विहि फलि लहइ निच्छद अमर-विमाणु ॥५॥ घत्ता रोग-हरणु दुह-सय-दलणु सयल-समीहिय-रिद्धि-पयारु । नर-सुर-सिव-सुह-इट्ठ-करु भवियहु समरहु मणु नवकारु ॥६॥ भूमि-सयण बंभवय-कलिउ गुणइँ जु विहि-सउँ लक्खु नवकारु । अरहंत-पउ सो नरु लहइ महहि सुरासुर विविह-पयारु ॥७॥ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय महियलि सग्गि पयालि तह जसु जस-परिमल-गुरु-वित्थारु । सयलहँ आगम जो तिलओ जिणिहि भणिउँ सासय नवकारु ॥८॥ काम-धेणु चिंता-रयणु सुरतरु इहु भवि हुइ वंछिय-करु । जिण नवकारु सयल अहिउ भवियहु इह-पर-लोय-सुहंकरु ॥९॥ ठवणि पाव-नासणु, पाव-नासणु, अत्थ-गंभीरु भुवणत्तय-सुह-करणु दुटु अट्ठ कम्महँ विहाडणु। कोह-दवानल-पवरु जलु कुगइ-पंथ निच्छइ निवारणु ॥ भव-सायर सो नरु तरइ मण-वंछिय-दायारु । पंचम-गइ निरुवम लहइ जो झायइ नवकारु ॥१०॥ दुन्नि वसह गुण-गण-धवल जिण-धर्मि किउ बहु भाउ । त संबल-कंबल ते सुर हुयइँ सुणि परमिट्ठि-पभाउ ॥११॥ सिद्ध पुरिसु नवकार-फलि अहि थिउ कुसुमह माल । त पुलिंदिय नरवइ-धू हुइय पाविय सुक्ख-विसाल ॥१२॥ तणु चइ पुलिंदु सु ऊपनउँ महियलि नरवइ-पुत्तु । त जाइ-सरणि निय-भउ मुणिउँ मणि वंछिउ तिणि पत्तु ॥१३॥ पाव-निरत गयणिहि भमंत समली वीधिय बाणि । त नवकारह फलि सा हुइय नरवइ-धू सुह-खाणि ॥१४॥ नर-भवि संपइ जे वरिय पत्त जि अमर-विमाणि । त सिद्धि-रमणि जे नर रमहि फल नवकारह जाणि ॥१५॥ ठवणि निसुणि संगतु, निसुणि संगतु, पुरिसु नामेण कोडुंबिउ गामि थिउ मुणिहिं वयणि नवकार झायइ । बीय-भविहि हुउ रयणिसिहो राय-रिद्धि मइ पवर पावइ । भुंजेविणु सुह-रज-सिरि केवल-नाणु लहेइ । जो परमिद्विहि मणि सरह मण-वंछिउ तसु होइ ॥१६॥ Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार-रास घत्ता जिण-नवकारु जु नरु निचु झायइ सो आवइ कहया-वि न पावइ । दुट्ठ कुट्ठ गह-भउ तसु नासइ वाहि जलणु जलु दूरिहि तासइ ॥१७॥ गुरु गिरि रन्नि पडिउ मणि धारइ भव-सायरु तसु लीलइ तारइ ।। हरि करि विसहर साइणि सीह रिउ-दल तासु न लंघहि लीह ॥१८॥ जो नर झायइ ए परमक्खर दूरिहि नासहि तसु सवि तक्कर । पंच पयइँ जो अणुदिणु झायइ लच्छि सयंवर तसु घरि आवइ ॥१९॥ विहि-सउ उजमइ जो नवकारु दुत्तर हेला तरइ संसारु । जो नरु सुमरइ अठसट्ठि अक्खर तासु सुरासुर वट्टहि किंकर ॥२०॥ पभणिउ यहु नवकारह रासु सयल-मंगल-गुण-गण-आवासु । जो नरु अणुदिणु निय-मणि झायइ सिव-पुर-लच्छि पवर सो पावइ* ॥२१॥ * अंत : इति श्रीनवकाररासः समाप्तः. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. धर्म-चच्चरी सुमरेविणु सिरि-वीर-जिणु पभणिसु सावय-धम्मु । जे आराहइ इक्क-मणि सो नर पावइ सम्मु ॥१ जो उटुंतउ पह-समइ चित्ति धरइ नवकारु । मुत्ति-नियंबणि-वच्छयलि विलसइ सो जिम हारु ॥२ साइणि डाइणि जोइणिय गह-रक्खस वेयालु। ताह न पहवइ जे सरइ पण-परमिट्ठि ति-कालु ॥३ कल्लाणावलि-वल्लरिय- पप्फुल्लण घण-पूरु । सुमरहु जिणवरु अनु सुगुरु मोह-महातम-सूरु ॥४ इक्कु देवु गुरु इक्कु जसु सो नरु सुक्खह खाणि । दो-पक्खा-संसत्तयह चंदु जेम कल-हाणि ॥५ जलनिहि-पडि[य]उ रयणु जिम कुल-बल-जाइ-समिधु । पाविवि दुलहउ मणुय-भवु अच्छि म विसयहि गिधु ॥६ तस-थावर-जीवह उवरि करि करुणा सुपवित्त । अलिय-वयणु दोसह भवणु परिहरि सच्चणुरत्त ॥७ परिहरि परधण-हरण-मइ सव्वाणत्थह खाणि । बंभचेरु निम्मलु धरहु निवसउ सासय-ठाणि ॥८ मुच्छा परिहरि मणि धरहु सव्व-वत्थु-परिमाणु । अभय-दाणु सत्तु भव(?)जियह कुणहु दिसा मम(?,माणु ॥९ इंदिय-पसरु निवारि करि भोगुवभोगह बंधु । दुह-कारणु परिहरि सयलु णत्थ-दंड-पडिबंधु ॥१० पालहु चंडविडंस जिम सामाइउ अकलंकु । देसावगासिउ वउ धरहु धम्म-सारु निस्संकु ॥११ कम्म-वाहिउ सहु लियहु पोसह पव्व-दिणेसु । पालिउ अतिहि-सँविभाग-वउ(?) जम्मह फल माणेसु ॥१२ बारह वय अंगीकरहु तासु मूलु संमत्तु । अरिहु देवु निग्गंथु गुरु धम्म सु जिण-पण्णत्तु ॥१३ मूल के भ्रष्ट पाठः ५. ३. संवतयह. ५. ३. उभयणु दो. १०. २. भोग ११.४ धम्मु. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मचच्चरी कम्मबंधु-कारणु चयहु कुगइ-हेउ मिच्छत्तु । कुगुरु-कुदेव-कुधम्म-मइ तसु सरूवु इइ वुत्तु ॥१४ कत्थूरी कप्पूर वर कुंकुम चंदण एहि । चच्चहु जिणवरु विषिह-परि पाविउ बहु-पुन्नेहि ॥१५ चंपय पाडल-केवडिय- जाइ-कुंद-पमुहेहि । पूयहु फुल्लहि तित्थयरु गंध-लुद्ध-भिम रहि ॥१६ सुह-गुरु-चरणिहि वंदणउ बारह वत्तह जुत्तु । कन्ह-नराहिव-जिम दियहु विरयहु गत्त पवित्तु ॥१७ छव्विहु आवस्सउ करहु उभय-कालु गुरु-भावि । धम्मु चउब्विहु अणुसरउ मुच्चहु जिम भव-पावि ॥१८ अमिय-सरसु सुहगुरु-वयणु कन्नंजलिहि पिबेहु । एवमाइ धम्मुज्जमिहि नर-जम्मह फलु लेहु ॥१९ जे आराहइ गुरु-चलण जिणवर-धम्मु करिति ।। संसारिय-सुहु अणुभविय सिवपुरि ते विलसंति ॥२० ११. १. बंधु. १५. ३. विविविह. १६. ३. पूअहु. १८. १. अछब्विहुः २ भाविहि. ३ विहु. पुष्पिका : इति धर्माचच्चरी समाप्ता. For Personal and Private Use Only Jain Educationa Interational Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगति करवि पहु रिसह - जिण हउँ चालिउ मणि भाउ करि सरसइ - सामिणि-पय-कमलु ऊजिल नेमि त्रुजि रिसहु पहिलउँ थंभणपुरि नमहु कमठासुर जिणि माणु मलि सावय साविय मिलि भणहि तेवीसमु जिणु थंभणइ सासण-सुर जे विहि-भुयणि संघह दुरिउ निवारि तुहु संधि सयलि यउ मन्त्रियउ न्हवणु विवणु पूज करि धन्नु सु सोरठ-देसु प्रिय जासु सिहरि पहु नेमि - जिणु महु मणु छइ उम्माहियउ विस जणु अतुल-बलु वय - गिरिवर - सिहरि चडि परियणि पुत्ति कत्ति सउँ १९. चच्चरी वीरह चलण नमेव । दुइ जिण मणि सुमरेवि ॥ १ गरुय भगति पणमेव । पणमिसु अंबाएव ॥ २ दुरिय-निवारण-पासु । किउ सिवपुरि- आवासु ॥ ३ आजु दिवसु सुकयत्थु । पणमिसु पारसनाथ ॥४ ते सवि मणि सुमरेवि । सामिणि अंबाएव ॥५ गामि नयरि जिण-भुयणु । तह गायह गुण - गहणु ॥ ६ धन्नु गिरिहि गिरनारु । सामिउ सोहग - सारु ॥७ किसउ सु गढ - गिरनारु । सो डुंगरु जगि सारु ॥८ अदबुदु करि सिंगारु । पणमिसु नेमि - कुमारु ॥९ पण मि-जिणंदु । तोss भव- दुह - कंदो ॥१० निम्मल लेवि नीरु | न्हाव साँवली ॥ ११ जायव - कुल-मंडण - तिलउ जिम्व मण-वंछिउ संपडइ कलस भरेविणु गयँदवइ फेडिस कलि- मल आपणउँ १. ३. ख. धरि; ४. ख. दुइणि. २. २. क. पणमेसु. २. ३. क. सेतुजि ३. १. ख. पणमहु थंभइ. ४. १. ख. सवि मिलि इयउ; २ क. थो; ४. क. पणमहु, थो. ५. ख. में ५-६ का क्रम उलटा है. ६. १. ख. इयहु. २. ख. गावि. ८. ३. क. बहु. दो. ३. ख, जिण ४. क. दो. ११. १. ख. गइ ९. २. ख. सिणगारु. १०. २. क दुबइ. २. क. रो. ४. क. रो. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चच्चरी जाइ कुंद मुचकुंद हउँ लेवि कुसुम-वर-माल । पूज रइसु सिरि-नेमि-जिण कंचण-रयण-विसाल ॥१२ अंगि विलेवणु सामि करि चंदणु मेलि कपूर । अगर उखेवहु तहि भुणि वरतह सहिउ कपूरु (१) ॥१३ पंच-रंग पहिरावि पडि प्रिय मन करहि उसूरु ।.. कसथूरिय मयवटु भरवि मुहि देहि सुरहि कपूर ॥१४ मण-चिंतिय बलि वित्थरहु करहु ज मणह सुहाइ । परि मणोरह सामि महु जिव कलि-मलु सहु जाइ ॥१५ लूणु नीरु अरु आरतिउ सामिहि उत्तारेसु । पंच-सबुदु वज्जावि करि मंगल-दीवु करेसु ॥१६ गुण गायहु पहु नेमि-जिण करहु विविह् बहु भत्ति । चउ-गइ-गवणु निवारि जिव पावहु पंचम गत्ति ॥१७ जासु सिहरि दुइ मुणि वसहि संब-पजुन्न-कुमार । तिव करि सामिय नेमि-जिण जिव पणमउँ सवि-वार ॥१८ कवडि-जक्ख तई वीनवउँ संघ-वयणु अवधारि । सेत्रुजि नमहि जि रिसह-जिणु तहँ तुहु दुरिय निवारि ॥१९ तिव करि सामिय रिसह-जिण जिवँ तुह दरिसणु देव । परियणि पुत्ति कलत्ति सउँ करउँ तुहारिय सेव ॥२० जे नर सामिय तइँ नमहि करहि भगति-जोहारु । सुगुरु-वयणु निय-मणि धरहि तहँ थोडउ संसारु ॥२१ जहि निवसइ पहु पढम जिणु रिसह-जिणेसरु देउ । सेत्रुजि सिद्धा के-वि मुणि ताहँ कु जाणइ छेउ ॥२२ कि-वि सावय नव-नविय-परि बोलहि घणउँ विचारु । जे जुग-पवर न गुरु नमहि महु मणि तहँ संसारु ॥२३ १२. ३. ख. रयहु. १३. २. क. सिरखंडु. १. ख. वरत. १४. ४. ख. पवर क. १५. १. ख. मणि; २ क. करउ ज; ख. सुहाए १. ख. जाए. १६. २ क. सामिय ४. ख. दीवउ देसु. १७. ३. क. गमण. १८. १. क वसह. १९. के लिए ख. में ककवजाख तई वीमवउं संघमणोरह पूरि । जिव पूजह पहु रिसहजिणु ऊगइ ऊगइ सूरि ॥१९॥ इसके पश्चात् ख. में क. की २६वीं तूक है. २०. क. तुम्हायरीय. ख. तहारिय. २१. ३. ख. वयणि जिणे सर सूरि गुरु. २२ ख में पूर्वार्ध-उत्तरार्ध उलटे हैं २३. १. ख. नवन परिहि में २२. ३. क. सेतुजि. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय नेमि-नाहु रेवय-सिहरि सेत्रुजि रिसह-जिणिदु । नमहु पास-जिणु थंभणइ अब्बुइ पढम-जिणिंदु ॥२४ मेरु जाँव इह धर-वलइ सायर चलइ न नीरु । ताँव संघु चउ-विहु जयउ अतुल-परिक्कम-धीरु ॥२५ सामिणि अंबाएवि सुणि संघ-मणोरह पूरि।। धणि कणि परियणि सयलि तुहु दुरिय निवारे दूरि ॥२६ जिण चउवीस वि वीनवउँ मागउँ एकु पसाउ । सेव करावहु आपणिय नवि ईहउँ सुर-राउ ॥२७ राजु रिद्धि नहु मणि धरउँ कंचण-रयण-भंडारु । सिव-सुह मागउँ एकु हउँ जो तियलोयह सारु ॥२८ सावय साविय जे भणहि इह चाचरि सुह-मावि । ते सवि भूरि-भवंतरहँ छुट्टहिं कलि-मल-पावि ॥२९ गाँवि नयरि पुरि जिण-भुयणि जे चाचरि पभणंति । चउ-गइ गमणु निवारि नर ते सिव-सुहु पावंति ॥३० २४. २. क. सेतुजि. २५. २. ख. वलइ. ४. ख. वीरु. २६. ३. खः संघ तुहु; ४. स्व. निवारि जि. ३०. ख. वयणि जिणेसरसूरिगुरु. पुम्पिका : क. चच्चरी सम्मत्ता. ख. चाचरि समाप्ताः. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. दिघम - सबरी - भास गय-गमणि बाली, मयणची आली, दिघमि निय- नयणुले वनि निहाली । नयण-रसि रसाली, राय-नी हीयाली, कुसुमसर- पसिरि हुई ( ? ) पराली ॥ १ राग-रसि राच, विषय - मदि माचइँ, भमइ संसारि ते जीव साचइँ | पर-रमणि ईहइँ, नरक न बीहइँ, दिघम ते कुंभीय- पाकि पाचइँ ||२||ओ० सवियणि- गूत, नेह-कलि खूतउ, रंगि निरखइ निखूतउ । पासित पहुतउ, मोह-भरि जूतउँ, सांभरि भोलीय विभ्रमि भूतउ || ३ || राग ० भणइँ नेहल-वयणि, तूं कवण मृग - नयणि, अमृत- सम-वयणि, भमि काँइँ वणि । रूपि जिम सुर-रमणि, वेस अनेसउ पणि, बोलि न समाइँ अम्ह एहु मणि ॥ ४ ॥ राग ० कहइ इम नारी, वसउँ गिरि- मझारी, पहिरणि पान ए परि अम्हारी । भील बहुआरी, वालंभि वारी, फिरउँ फल-काजि हुं भोलुयारी ||५|| राग ० राइ इम जाणी, भील-की राणी, मयण-नी आण मन - माँहि आणी । भणइ इय वाणी, करउँ पटराणी, मेल्हि वनु जोइतूं राजु माणी ॥ ६ ॥ राग ० पहरि रलीयाली, जादर - फाली, कूर- कप्पूर-रसु जोइ न बाली । मूँकि वनु टाली, भीलु अनु हाली, दिघमु आदरि म सुंदरि विमाली ॥७॥राग० दिघम इकु जाणउ, भोग म-न वखाणउ, एकु जि अम्ह मनि भील-राणउ । राजु तहि माण, बोल एउ जाणउ, अवरु नवि राउ राणउ ॥ ८॥ राग ० धउलहरि वासउ, सबरि तम्हि विमासउ, दिघमु राजा न कीजइ निरासउ । धउलहर वरासउ, नरक नवि सांसउ, भीलडी भणइ मन भयु विणासउ || ९ || राग ० नरक भयु आछइ, तरणि ते पाछइ, मयण-भडु आज मूं-ऊपरि काछउँ सहूउ सुख वाँइ, कालु पुण ताछइ, गलइ जीउ जेम जलु चीरि आछइ ॥ १० कुसुमसरु जागइ, कहिउ किम लागइ शबरि तइ प्राणिहि दिघमु मागइ | म कहि इम राया, अरिरि भव- माया, प्राणि नवि नेहु इहु कहिउ आगई ॥ ११ शबर भो लामी, वात आंतरामी ( ? ), प्राणु नवि माणु नवि गिणइ कामी । दिघम तूं सामी, राय- धूय पामी, शबरि-सिनेह-नी दिसि जि लामी ॥ १२ ॥ राग ० रहि न रहि वारिउ, न सहइँ एउ विचारिउ, अलप - काजिं तूय कुणि वियारि । विसय-विषि घारिउ, मोह-भरि भारिउ, दिघम तइँ आपुल जनमु हारिउ ॥ १२ ॥ राग ० Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय रागु अति-न कीजइ. दिघम काइ खीजइ, प्रेम-परवसपणइ देहु दाझइ । गंध-गुणि रातउ, फल-रसि मातउ, भमरडउ कमल-वनि जोइ बाझइ ॥१४॥राग० पर-कलत्र देखी, जणणि-जिम लेखी, स्वदार-संतोषु करि बूझि बूझि । दिघम-कुल गाजइ, जस पडहु वाजइ, सील-जलि सूझि तूं मम म मूझि ॥१५ वयणि तिणि भीजउ, दिघमु मनि पतीजउ, धनु धनु बहिनि तू इम खमावइ । शबरि-ने पाइ लागइ, आ[सी]सु तव मागइ, वलिउ नर-नाहु निय-नयरि आवइ ॥१६* * अंत : इति दिघमशबरीभास समाप्तः. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. जिनचंद्रसूरि-फागु अरे पणमवि सामिउ संति-जु सिव-वाउलि-उरि हारु । अरे अणाहिलवाडा-मंडणउ सव्वह तिहुयण-सारु ॥१ अरे जिणपबोहसूरि-पाटिहि सिरि-संजमुसिरि-कंतु । अरे गाइवउ जिणचंदसूरि-गुरु कामलदेवि-कउ पूतु ॥२ अरे रुयडउ तपियउ पेखिवि न सहए रति-पति-नाहु । अरे बोलावइ वसंतु ज सव्वह रितुहु राउ ॥३ अरे आगए तुह बलि जीतज्यो गोरड-करउ वालंभु । अरे इसईं वचनु निसुणेविणु आणयउ रलिय वसंतु ॥४ अरे पाडल वालउ वेउल सेवत्री जाइ मुचकुंदु । अरे कंटुकरणी रायचंपक विहसिय केवडि-विंदु ॥५ अरे कमलहि कुमुदिहि सोहिया मानस-जवलि तलाय । अरे सीयल कोमला सुरहिया वायइँ दक्खिण वाय ॥६ अरे पुरि पुरि आँबुला मउरिया कोइल हरखिय देह । अरे तहि ठए टुहकए बोलए मयणह केरिय खेह ॥७ अरे इसइ वसंतिहि इयए माणुस केतिय मात्र । अरे अचेतन जे पाखिया तिन्हु तणी जुगलिय वात्र(?) ॥८ अरे इसउ वसंतु पेखेवि नारिय-कुंजर कामु। अरे सिंगारावए विविह परि सव्वह लोयह वामु ॥९ अरे सिरि मउडु कन्नि कुंडल-वरा कोटिहि नवसरु हार। अरे बाहहि चूडा पागिहि नेउर-कओ झणकार ॥१० अरे सिरि आमोडा लहलहहि कसतूरिय महिवटु । अरे न................ .................. ॥११ ___x x x x x x x x ........................ट परि हुयउ देव-गण-भाउ ॥४१ रिण-तूरिहि वजंतिहि उट्ठिउ सील-नरिंदु। देखिवि उतकटु विम्हियउ सयल्लु-वि देविहि विंदु ॥४२ अरे द्रेठिहि देठिहि दीठए नाठउ रति-पति-राउ । ____xx xx __x x xx Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय नारीय-कुंजरु मेल्हिवि जोयए छाडिए खाल ॥४४ धरणिंदह पायालिहि पुहुविहि पंडिय-लोउ । ___x x x x xx xx जीतउँ जीतउँ इम भणइ सम्गिहि सुरपति इंदु ॥४६ वद्धावणउँ करावए सिग्गहि जिणसर-सूरि । x x x x x x x x गुजरात-पाटण भल्लई सयलहँ नयरहँ माहि ॥४८ मालवा-की बाउल भणहि सयलहँ लोयहँ माहि । xx xx xx xx सिरि जिणचंद-सूरि फागिहि गायहि जे अति भावि । ते बाउल अरु पुरुसला विलसहि सिव-सुह सावि ॥५० Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. सिरिन्थूलिभह-फागु [रचना-समयः १३००-१३५० कर्ता-जिनपभसूरि] पणमिय पास-जिणिंद-पय अनु सरसइ समरेवी । थूलिभद्द-मुणिवइ भणिसु फागु-बंधि गुण के-वी ॥१ [प्रथम भास अहे सोहग-सुंदर रूववंतु गुण-मणि भंडारो। कंचण जिम झलकंत-कंति संजम-सिरि-हारो ॥ थूलिमद्द मुणि-राउ जाम महियलि बोहंतउ । नयरराय-पाडलिय-नयरि पहुतउ विहरंतउ ॥२ परिसालइ चउमास-माहि साहू गहगहिया । लियइ अभिग्गह गुरुह पासि निय-गुण-महमहिया ॥ अज्ज-विजयसंभूइ-सूरि गुरु-वर मुकलाविउ । तसु आएसि मुणीसु कोस-वेसा-घरि आविउ ॥३ मंदिर-तोरणि आवियउ मुणिवरु पिक्खेवी । चमकिय चित्तिहि दासडिय वेगि जाइ वधावी ॥ कोसा अतिहि ऊतावलिय हारिहि लहकंती। आविय मुणिवर-राय-पासि करयल जोडती ॥४ 'धम्म-लाभु' मुणिवइ भणवि चित्रसाली मागेवी । रहियउ सीह-किसोर जिम धीरिम हियइ धरेवी ॥५ द्वितीय भास] अहे झिरिमिरि झिरिमिरि झिरिमिरि ए मेहा वरिसंते । खलहल खलहल खलहल ए वाहला वंहते ।। झबझब झबझव झबझब ए वीजुलिय झबक्का । थरहर थरहर थरहर ए विरहिणी-मनु कंपइ ॥६ महुर-गंभीर-सरेण मेह जिम जिम गाजते । पंचबाणु निय कुसुम-बाण तिम तिम साजते ॥ जिम जिम केतक महमहंत परिमल विहसावइ । तिम तिम कामिय चरण लग्गि निय-रमणि मनावइ ॥७ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय सीयल कोमल सुरहि वाय जिम जिम वायंते । मान-मडप्फर माणणिय तिम तिम नासते ॥ जिम जिम जल-भर-भरिय मेह गयणंगणि मिलिया । तिम तिम पंथिय-तणा नयण नीरिहि जलजलिया ॥८ मेहा-रव-भरि ऊलटिय जिम जिम नाच. मोर । तिम तिम माणिणि खलभलइँ साहीता जिम चोर ॥९ [तृतीय भास] अह सिंगारु करेइ वेस मोटइ मन-ऊलटि । रयइ अगि बहु-रंगि चंगि चंदण-रस-ऊगटि ॥ चंपक-केतक-जाइ-कुसुमि सिरि खूप भरेई । अति-अच्छउँ सुकुमाल चीरु पहिरणि पहिरेई ॥१० लहलह-लहलह-लहलहए उरि मोतिय-हारो। रणरण-रणरण-रणरणए पगि नेउर-सारो ॥ झगमग-झगमग-झगमगए कानिहि वर-कुंडल । झलहल-झलहल-झलहलए आभरणहँ मंडल ॥११ मयण-खग्गु जिम लहलहए जसु वेणी-दंडो। सरलउ तरलउ सामलउ (?) रोमावलि-दंडो ॥ तुंग पयोहर उल्लसइ [जिम] सिगार-थवक्का कुसुम-बाणि निय अमिय-कुंभ किर थापणि मुक्का ॥१२ काजलि अंजिवि नयण-जुय सिरि सइँथउ फाडेई । बोरी यावडि-कंचुलिय पुणि . उर-मंडलि ताडेई ॥१३ [चतुर्थ भास] अहे कन्न-जुयल जसु लहलहंत किर मयण-हि डोला । चंचल चपल तरंग-चंग जसु नयण-कचोला ॥ सोहइँ जासु कपोल-पालि जणु गालि-मसूरा । कोमलु विमल सु-कंटु जासु वम्मह-सँख-तूरा ॥१४ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि-धूलिभद- फागु Jain Educationa International लवणिम-रस-भरि कूवडिय जसु नाहिय रेहइ । मयण-राय किरि विजय - खंभ जसु ऊरू सोहइ ॥ जसु नह-पल्लव कामदेव - अंकुस जिम राजइ । रिमिझिमि रिमिझिमि पाय - कमलि घाघरि यसु वजइँ ॥१५ नव-जोवण-विलसंत-देह -- हल्ली परिमल - लहरिहिं महमहंत रइ-केलि पहिल्ली ॥ वर-चंपा - वनी । परवाल-खंड हाव-भाव - बहुरस - संपुन्नी ॥ १६ जउ आविय मुणि- पासि । सुर- किन्नर आकासि ॥ १७ अहर - बिंब नयण- सलूणीय * सिंगार करेविरु जोवा कउतिग मिलिय * [पंचम भास] अहे नयण कडक्खिहि आहणए वाँकउँ जोवंती । हाव-भाव-सिंगार-भंगि नव-नविय करंती ॥ तह - वि न भिज्जइ मुणि-पवर तर वेस बोलावइ । 'तवण- तुल्लु तुह विरह नाह मह तणु संतावइ ॥१८ बारहँ वरिसहँ त हु किणि कारणि छंडि । एवड्डु निठुरपणउँ काइँ मू- सिउँ तुम्हि मंडिउ ' ॥ थूलभद्द पभणे 'वेस अइ-खेदु न कीजइ लोहिण घडियउँ हिउँ मुज्झ तुम वयणि न भीजइ ॥१९ 'मह विलवंतिय उवरि नाह अणुरागु धरीजइ एरिसु पावस- कालु सयलु मू- सिउँ माणीजइ' ॥ मुणिव जंपर 'वेस ! सिद्धि-रमणी परिणेवा | लउँ संजम - सिरीहि सिउँ भोग रमेवा ॥ २० For Personal and Private Use Only .९१ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa International प्राचीन गुर्जर काव्य संचय भrs को 'साउँ किउँ "नवलंइ राचइ लोड" । मू मिलिहवि संजम - सिरिहि जउ रातउ मुणि-राउ' ॥२१ [ षष्ठ भास अहे उसम-रस-भर- पूरियउ (?) रिसि-राउ भणेई । 'चिंतामणि परिहरवि कवणु पत्थरु गिन्हेई ॥ तिम संजम - सिरि परिचएवि सुर - इंदु- समुज्जल । आलिंगइ तुह, कोस ! कवणु पसरंत महाबल' ॥२२ 'पहिलउँ हिवडा' कोस कहइ 'जुव्वंण - फलु लीजइ । तयणंतरु संजम - सिरीहि सिउँ सुहिण रमीज ' ॥ मुणि बोलइ 'जं मइँ लियउ तं लियउ जि होइ (?) । कवणु सु अच्छइ भुवण- तले जो मह मणु मोहइ' ॥२३ इणि परि कोसा अवगणिय थूलभद्द - मुणिराइ । तसु धीरिम अवधारि करि चमकिय चित्ति सुहाइ ॥२४ [ सप्तम भास] अइ- बलवंतु सु मोह-राउ जिणि नाणि निधाडिउ । झाण- खडग्गिण समरंगणि पाडिउ ॥ मयण- सुहड कुसुम-वुट्ठि सुर करइ तुट्ट तह जयजय - कारो 'धनु धनु एहु जु थूलिभद्दु जिणि जीतउ मारो' ||२५ पडिबोहिवि तह कोस वेस चउमासि - अनंतरु गुरु-पासि मुणीसरु ॥ W सूरिहि सु पसंसिउ नमंसिउ ॥ २६ पालि अभिग्गह ललिय-वलिय 'दुक्कर- दुक्कर- कारगु' त्ति संख- समुज्जल- जस-लसंतु सुर-नरिहि नंदउ सो सिरि-धूलिभद्दु जो जुगह पहाणो मलियउ जिणि जग मल्ल सल्ल - रइवल्लह - माणो ॥ खरतर -गच्छि जिणपदम - सूरि-कीउ फागु रमेवउ खेला नाचइँ चैत्र - मासि रंगिहि गाएवउ ||२७ * For Personal and Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठान्तर (पा० = पाटण की प्रति; का० = वडोदरा की प्रति; ना०, ना.' = नाहटाजी की दो प्रतियाँ पु०=पुण्यविजयजी के संग्रह की प्रति । उल्लेख तुक और पंक्ति के अनुसार) १, १.पु. पणमवि, पा. पु. जिणंद; २, १, का. पु. 'अहं' नहीं है; ३. का. महिअल; बोहत्तर, पु. मोहंतु; ४. पा. पाडलियमाहि; का. पाडलियपुरि पहतउ; ३. १. का. वरसालय; २. पु. लिई पा. गुरह; का. गुणसीमहिया; ३. पा. पु. संभूय; गुरुवय; पा. मोकलावइ; ४. का. तस्स; पा. आवइ; ४. १ का. मुणिवर पेक्खेई; २. का. चित्ति चमक्किय; दासड ए; वेमि लीय वधावी; ३. पा. वेसा; का. अतिहिं उतावलीय; पा. हारिहि, ४. पा. करयल, का. करइल; ना. पु. ४ और ५ के बोच 'भास' । ऐसे समस्त खण्डों के अन्तिम पद्य के पहले. ५, १. का. मुणिवय; पा. भणिसु; का. भणवि; २. का. चित्तसाली; पा. मंगेवी; ३. का. सिंह. ६.१. पा. वरिसंति, का. वरसंते; २. पा. वहंति; पा. झबकइ; ४. का. बिरहणिमनु; ७. का. लागि; ८. १. का. ना. वाजते; २. का. मणफर; पा. नाचते, पु. ना. साजते, ३ का. जलभरि; ४ पा. कामीतणा; नीरिहि; ९, १. पा. भर; १०, १. पा. अइ; का. ना. सिंगार करेवि; मनि. २. पा. रइयरंगि; का. चंदणसिरिः ३. पा. चंपय. पा. केतकी; का. केत्ताकि ; पा. धुप मरेइ; १. पा. आछउ सुकमाल; का. ना. पिरहणि, ११. १. पा. ना, मोती'; २. का. पाए; ३. पा. कानिहि; का. पु. कलकुंडल; ४, का. आभरणमंडल. १२. १. पा. लहलहंत; ३. का. उल्हसई; का. पु. थबक्का; ४. का. ना. कुसुमबाण; का. 'कुभथा पणि करि; ना. न थापणि; नो; नी थां. १३, २. पा. ना. संथउ; ना. सिंथउ, ३. का. बोरीआ; पा. कांचुलिय, ना. ना.' कुंचुलिय. १४, १. का. ना. जुअल तस ललवलए; मयणह; ३. का. ना. कपोल कन्न किरि गालि ; ४. का. विमल सुकंठ; जासुः का. वाजइ, का. वहइ. १५. १. का. कूवडीय; नाही रेहइं; २. का. किरि; खंभुः ४; पा. ए पाय, घाघरि; पा. वाजइं. १६. १. पा. जोवन'; २ पा. लहरिहि; मयमयंत, का. मयमहंतु; ३. का. अधर; ४. पा. बहुगुणसंपुन्नी. १७. १. का. ईय; पा. सिणगार; का. सिंगार; करेवि वेस; २ पा. जव; का. पासे, ३. का. कुतिगी; ४. पा. किंनर; का. आकासे. १८. १. का. 'अह' नहीं है; पा. कडक्खहं; का. वाकु जोयंती; २. पा. सिणगार; नयन कारंति; ४. पा. तवणु; का. तुल्ल, पा. तुह देह नाह. १९. १. का. बारह वरसाह; छांडिउ; २. का. एवड; पा. निठुरपणउ कंइ मूसिउ; का. मंडिउं, ३. पा. अह खेदु, का. खेद; ४. पा. लोहिहि, ना. लोहइं; का. जडिउं हिउं मुझ. २०. १. का. महु., २. का. एरिस; पा. पावसु; का. काल सयल मूसिउं; पा. °सिउ; का. माणीजइं; ३. का. पभणइ वेस; परेणेवा; ४. का. लीणु; पा. सिरीहि सुं. २१. १. पा. साचट कियउ, २. का. लोयउ; ३. का. मिल्हविः पा. सिरिहि; २२. १. का. उपसम'; भरि पूरियउ रियउ रिसि; भणेइ; २. का. परहरवि; ३. पा. परिवएवि; पा. बहु धमस्स: का. प. सिरिइंदुसमुज्जल; ४. पा. महाबल, का. महामल, २३. १. का. पहिलं; पा. हिवडा; का. जुवणु फल; २. पा. तयणंतरि; पा. सिरीहि सुह सुहिण; ३. पा. जि मइ; ना. संजमइ; का. जु होइ; ४. काभुवणयले; पु. महियलिई; का. Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय जो मुझ. २४, १. पा. इण; २. का. थूलिभहि मुणिराए; ४. का. चित्ति सधाए, पु. सुथाए. २५. १. का. विलवंतु; निधाडीउ; २ का. खडगिहि; पा. सुभड; का. पाडियउ; ४. का. करइं; पा. तुहि हुउ जय'; ४. पा. थूलिभद्द. २६. १. का. अणंनर; २. पा. पालियभिरगह; वलिय; ३. का. दुक्कर कारुगु; सूरिहि स पसंसियउ; ४. पा. का. जसु; पा. सुरनरहं; का. समंसियउ. २७. १. पा. थूलिभद्द; का. पहाणू ; २. का. मलिउ; माणू; ३. पा. किव; ४. का. खेला खेलय चित्तमासि गाएवं; ना. ना.' पु. चैत्रमासि बहु हरिसि रंगि इहु मुणि गाएवउ । खेलिहि निय-मणि ऊलटिहिं तसु फागु रमेवउ. अन्त : पा. सिरिथूलिभद्दफागु समत्तु; का. सिरिथूनिभद्दफागु समाप्तः; ना. इति श्रीलिभद्रफागु; ना' इति श्रीथूलभद्रफाग; पु. इति श्रीथूलभद्दफाग समाप्तः. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ-चतुष्पदिका [रचना-समयः १३ वीं शताब्दी कर्ताः विनय चंद्रसूरि सोहग-सुंदर घण-लायण्णु सुमरवि सामिउ सामल-वन्नु । सखि-पति राजल-चडिउत्तरिय बारमास सुणि, जिम वज्जरिय ॥१ नेमि-कुमरु सुमरवि गिरनारि सिद्धि राजल-कन्न कुमारि ॥आंकिणी। 'श्रा व णि सरवणि कडुयं मेहु गज्जइ, विरहि रि ! झिज्जइ देहु । विज्जु झबक्कइ रक्खसि जेव नेमिहि विणु, सहि ! सहियइ केम ? ॥२ सखी भणइ 'सामिणि ! मन झूरि दुज्जण-तणा म वंछित पूरि । गयउ नेमि, तउ विणठउ काइ अछइ अनेरा वरह सयाई' ॥३ बोलइ राजल तउ इहु वयणु 'नत्थी नेमि-समं वर-रयणु । धरइ तेजु गह-गण सवि ताव गयणि न उग्गइ दिणयरु जाव ॥४ भा द्रवि भरिया सर पिक्खेवि स-करुण रोअइ राजल-देवि । 'हा ! एकलडी मइ निरधार किम ऊवेखिसि, करुणा-सार ?॥५ भणइ सखी 'राजल ! म-न रोइ नीठुरु नेमि न अप्पणु होइ । सिंचिय तरुवर परि पलवंति। गिरिबर पुण कडडेरा हुंति' ॥६ 'साचउँ, सखि ! वरि गिरि भिज्जति किमइ न भिज्जइ सामल-कति । घण वरिसंतइ सर फुति सायरु पुणु घणु ओहड्ड लिंति' ॥७ । आ सो मा सह अंसु-प्रवाह 'दहइ चंदु चंदण हिम-सीउ 'सखि ! न-वि खीना नेमिहि रेसि जिणि दिक्खाडिउ पहिलउँ छेहु 'नेमि दयालू, सखि ! निरदोसु पसुय भराविउ मूकउ वाडु क त्ति ग क्षित्तिग ऊगइ संझ रात-दिवसु अछइ विलवन्त 'नेमि-तणी, सखि ! मूकि-न आस राजल मिल्हइ विणु नमिनाह । विणु भत्तारह सउ विवरीउ' ॥८ मन आपणपउँ तउँ खय नेसि । न गणिउ अट्ठ-भवंतर-नेहु' ॥९ कीजइ उग्रसिण-ऊपरि रोसु । मुझ प्रिय-सरिसउ कियउ विहाडु' ॥१० रजमति झिझि(?)उ हुइ अति-झंझ । वलि वलि, दय करि दय करि, कंत ॥११ कायरु भग्गउ सो घर-वास । Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुर्जर काव्य संचय इमइ इसि सनेहल नारि जाइ कोइ छंडवि गिरनारि ?' ॥१२ 'कायर किम,सखि ! नेमि-जिणंदु जिणि रिणि जित्तउ लक्खु नरिंदु । फुरइ सासु जा अग्गलि नास ताव न मिल्हउँ नेमिहि आस' ॥१३ म ग सि रि मग्गु पलोअइ बाल इण परि पभणइ नयण-विसाल । 'जो मइ मेलइ नेमि-कुमार तसु णीवेल(?) वहउ सवि-वार' ॥१४ 'एहु कदाग्रहु तर, सखि ! मिल्हि करिसि काइ तिणि नेमिहि, हिल्लि ! मंडि चडाविउ जो किर मालि "हे ! हे !" कु करइ टोहण-कालि ?' ॥१५ । 'अठ भव सेविउ, सखि ! मइ नेमि तसु ऊमाहउ किम न करेमि । अवगन्नेसइ जइ मइ सामि लग्गी अछिसु तो-इ तसु नामि ॥१६ 'पो सि रोस सवि छंडिवि, नाह ! राखि राखि मइ मयणह पाह । 'पडइ सीउ, नवि रयणि विहाइ लहिय छिद्द सवि दुक्ख अमाइ' ॥१७ "नेमि ! नेमि !" तू करती, मुद्धि ! जुव्वणु जाइ न जाणिसि सुद्धि । पुरिस-रयण-भरियउ संसारु परणि अनेरउ कुइ भत्तारु' ॥१८ 'भोली तउ, सखि ! खरी गमारि वरि अच्छंतइ नेमि-कुमारि । अन्नु पुरिसु कुइ अप्पणु नडइ ? गइवरु लहिउ, कु रासभि चडइ ?' ॥१९ मा ह मा सि माचइ हिम-रासि देवि भणइ 'मइ, प्रिय ! लइ पासि । तइ विणु, सामिय ! दहइ तुसारु नव-नव-मारिहि मारइ मारु' ॥२० 'इहु, सखि ! रोइसि सहु अरन्नि हत्थि कि जामइ धरणउ कन्नि ? । तउ न पतीजसि, माहरी माइ ! सिद्धि-रमणि-रत्तउ नमि जाइ' ॥२१ 'कंति वसंतइ हियडा-माहि वाति पतीजउँ किम, हलसाइ । (? हि) सिद्धि आइ तउ काइ त बीह सरसी जाउ त उग्रसेण-धीय ॥२२ फा गुण वा-गुणि पन्न पडंति राजल-दुक्खि कि तरु रोयंति ? । 'गब्भि गलिवि हउँ काइ न मूय !' भणइ विहंगल धारणि-धूय ॥२३ 'अजिउ भणिउ करि, सखि ! विम्मासि अछइ भला वर नेमिहि पास । अनु, सखि ! मोदक जउ नवि हुँति छुहिय सुहाली कि न रुच्चंति ? ॥२४ 'मणह पासि जइ पहिलउ होइ नेमिहि पासि ततलउ न कोइ । जइ, सखि ! वरउँ त सामल-धीरु घण-विणु पियइ कि चातकु नीर ? ॥२५ चैत्र मा सि वणसइ पंगुरइ वणि वणि कोयल टहका करइ । पंचबाण करि धनुष धरेवि वेझइ मांडी राजल-देवि ॥२६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ चतुष्पदिका 'जुइ, सखि ! मातउ मासु वसंतु इणि खिलिज्जइ, जइ हुइ कंतु । रमियइ नव नव करि सिणगारु लिज्जइ जीविय-जुव्वण-सार' ॥२७ 'सुणि, सखि ! मानिउ मुझु परिणयणु नवि ऊवरि थिउ बंधव-वयणु । जइ पडिवन्नइ चुक्कइ नेमि जीविय जुव्वणु जलणि जलेमि' ॥२८ व इ सा ह ह विहसिय वण-राइ मयण-मित्तु मलयानिलु वाइ । 'फुट्टि, रि हियडा !' माझि वसंतु विलवइ राजल पिक्खिउ कंतु ॥२९ सखी दुक्ख वीसरिवा भणइ 'संभलि, भमरउ किम रुणझुणइ । “दीस पंच थिरु जोवणु होइ खाउ, पियउ, विलसउ सहु-कोइ" ॥३० रमणि पसंसइ राजल-कन्न 'जीह कंतु वसि, ते पर धन्न । जसु प्रिउ न करइ किमइ मुहाडि सा हउँ इक्क ज भुंड-निलाडि' ॥३१ जि टू विरहु जिम तप्पइ सूरु घण-विओगि सुसियं नइ-पूरु । पिक्खिउ फुल्लिउ चंपइ-विल्लि राजल मूछी नेह-गहिल्लि ।।३२ 'मूछी राणी, हा सखि ! धाउँ पडियउ खंडइ जेवडु घाउ' । हरिय मूछ चंदण-पवणेहिं सखि आसासइ प्रिय-वयणेहि ॥३ भणइ देवि 'विरती संसार पडिखि पडिखि मइ, जादव-सार । निय-पडिवन्नउँ, प्रभु ! संभारि मइ लइ सरिसी गढि गिरिनारि' ॥३४ आ सा ढ ह दिदु हियउँ करेवि गज्जु विज्जु सवि अवगन्नेवि । भणइ वयणु उग्रसेणह जाय 'करिसु धम्मु, सेविसु प्रिय-पाय' ॥३५ मिलिउ सखी राजल पभणंति 'चिणय जेम न मिरिय खजंति । अउगी अच्छि, सखि ! झखि मन आल तपु दोहिल्लउ, तउँ सुकुमाल' ॥३६ 'अठ भव विलसिउ प्रियह पसाइ किमइ जीवु, सखि ! सुख[ह] न धाइ । हिव प्रिय-सरिसउँ जोविय-मरणु इण भवि पर-भवि निमि जु सरणु' ॥३७ अ धि कु मा सु सवि मासहि फिरइ छह-रितु-केरा गुण अणुहरइ । मिलिवा प्रिय ऊबाहुलि इय सउ मुकलाविउ उँग्रसेण-धूय ॥३८ पंच सखी-सइ जसु परिवारि प्रिय-ऊमाही गइ गिरिनारि । सखी-सहित राजल गुण-रासि लेइ दिक्ख परमेसर-पासि ॥३९॥ निम्मल केवल-नाणु लहेवि सिद्धी सामिणि राजल-देवि ।। रयणसिंह-सूरि पणमवि पाय बार-इ मास भणिया मइ, भाय ! ॥४० नेमि-कुमरु सुमरवि गिरनारि । सिद्धी राजल-कन्न कुमारि ॥ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. नेमि-बारहमासा [कर्ताः पाल्हण रचना-समय : तेरहवी शताब्दी] कासमीर-मुख-मंडण देवी वाएसरि पाल्हणु पणमेवी । पदमावतिय चकेसरि नमिउँ अंबिक-देवी हउ वीनवउँ ॥ चरिउ पयासउ नेमि-जिण करउँ कवितु गुण-धम्म-निवासो । जिम राइमइ विओगु भउ बारह मास पयासउ रासो ॥१ भणइ विचक्खण राइमइ सामल-धीर वयणु अवधारे । परिहरि देव न दोस-विणु सामि मि] गमणु करि गिरनारे ॥ (आँचली) सावणि सघण घुडुक्कइ मेहो पावसि पत्तउ नेमि-विछोहो । ददुर मोर लवहि असगाह दह दिह वीजु खिवइ चउवाह ।। कोइल महुर वयणु चवए खइ विवीहउ धाह करेई । सावणु नेमि जिणिंद-विणू भणइ कुमरि किम गमणउ जाए ॥२ भणइ विचक्षण भादरवउ असलेस उल्हारो अति घण वरिसइ घोर अधारो । वावि कूव नइ भरिय तडाग दह दिह रहिय वहंता माग ।। धरणि धराहर ओयरियो इक मइ नीरु न सूझइ पंथो । नयणि न देखउ नेमिजिणो भरु भादवउ गयउ अकयत्थो ॥३ आसउजहँ धण आस संपुन्नी धरणि कणय फल फुल्लि उपन्नी । सस्वर सथिर सच्छ छामेह निरमल नीर समग्गल नेह ॥ जणु परियणु रहसिउ भमइ महु मणि असुहु असेसु निवट्टइ। नेमिकुमरु अवगन्नियओ पाल्हणि सुति मोरउ हियडउ फूटइ ॥४ कत्तिय धण धवलहि निय-गेह मढ-देवलिहि चडहि धज-रेह । घरि घरि मंगल-चार-उछाह सुर जागहि नर रचहि विवाह ॥ हय गयवर नरवइ गुडहि मँडलिक सुहड सनाह सिगारु । देखि कुमरि मन गहवरिओ मइ मेल्हिवि गउ नेमि-कुमारो ॥५ भउ मागसिर-तणउ पइसारो भरत कणय तहि करहि सिगारो। पहिरहि मयण मजीण चीर ले कुंकू सवलहहि सरीर ॥ निय पिय किहि आयरु करहि ते पेखिवि राइमइ विसूरइ । हा विहि को अपराधु किउ नेमिकुमार विणु अणुदिणु झूरइ ॥६ १. ७. भभो; आँचलीः १, १. रायमण. ३. १. भाडवरउ, ३. भडिय. ४. १, गयवय. ६. १. पयसारो, ६. रायमइ, ८. 'कुमरु, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमि-बारहमासा पोसु सुपत्तउ मतिहि सियारू घिउ धेउर लापसिय कसारु । लाडू लावग भोयणु होइ पोसउ पिंडु सयलु जगु लोए । जादरि गजवडि ओढणए रयणि दिवसि नितु पडइ तुसारो । कु कुमरि स-दूखिय इउँ भणए मइ मेल्हिवि गउ नेमि कुमारो ॥७ माहु महाभडु हिम सिवयाधु वणु वणसइ पुडइणि सिय-दाधु । सिउ सिउ सिउ सिउ जणु ऊचरए जा हरिसवडि तहउ अणुसरए ॥ एक रयणि वरिसागलिय कुमरि भणइ किम करि पभणाउ । नेमि-विहूणा परि दिन हा विहि दइय न लेखे लाए ॥८ आउ आगमु फागुण-तणउँ अति सिउ पवणु फरूक[इ] घणउँ । गिरि तरुवर फल पात झलाहि डालहि डाल सिखा धरि जाहि ॥ दिणि दिणि अंगु झकोलिजए तिम्ब तिम्व सालहि वहु दुख-भार । कुमरि भणइ किम नीगमओ तइ विणु सामिय नेमिकुमार ॥९ चीतु ससिरु संपत्तु वसंतु मालइ-कोल-कमल-विहसंतु । महुय गलहि मउरिया सहार कोइल महुर करहि झंकार ॥ तरुणि नयनि काजलु ठवहि निवसहि चीर रुलावहि हारो। तो न चलइ मनु मुझ तणओ हुयवहु सरणु कि नेमिकुमारो ॥१० वयसाहहँ विहसइ वणराए वेउल कुंदु निवालिय जाए । चंपउ पाडल कुलुवु ? कल्हारो दवणउ मरुअउ देवगधारो ॥ जणु परिमल मोहिउ भमिए महु चींतत निसि नीढि विहाए । नेमिकुमरु तवचरणु गओ सखि वैसाखु दुहेलउ जाए ॥११ जेठह भाणु तवइ अइ तेओ महु निय मणि परिगलइ पसेओ । चंदणु कुसुमु पत्तल चीर लवंग कप्पूर सुवासिय नीर ॥ खणि खेवउ खणि वीजणओ तु वि तणु तवइ हुवहु सविसेसो। जिम भव आठ भतारु थिउ तसु सामिय गिरिनारि निवेसो ॥१२ मास इकादस वीता जाव आवि असाढ पहूतउ ताव । रवि किरणिहि तम तातिय अति झल लूय वाह मयमातिय ॥ अंगि अकोलु असेसु चओ सूकइ कमलु निरंतर जत्थ । तो नव रीझउ नेमि-जिणु वारह मास गया अकयत्थ ॥१३ ९. ६ दुक्ख'. १०. १. वीतु; २. मालय'. .. मुझु. ११. १. वयं. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय जीव अभउ कर दीन्हउ जेण सत सारथि किउ धम्म धुरेण । साहसु पुरिसु सखाइउ धरिउ जपु तपु संजमु व्रतु अणुसरिओ ।। दृढ मनु व्रतु निश्चलु धरिओ राज रयणु परिहरिउ भंडारू । कुमरि तजिय जिणि रायमए ध्यानि रहिउ व्रतु नेमिकुमारो ॥१४ जो जादव-कुल-मंडण-सारो जिणि तिणि चडि परिहरिउ संसारो कुमरि तजिय तपु लउ गिरनारे सिधि परिणउ गउ मोख-दुवारे ॥ जणु परिमलु पाल्हणु भणए तसु पय अणुदिण भत्ति करेहु । मण-वंछिउ फल पाविजए धुय-समसरिसु वयणु फुड्ड एहू ॥१५ इणि परि भणिया वारस मास पढत-सुणंतहँ पूजउ आसा । रायमइ नेमिकुमर वहु चरिउँ संखेविण कवि इणि परि कहिउ ॥ अंबिकदेवि सासणदेवि माई संघ-सानिधु करिजउ समुदाई ॥ * अंतः इति श्रीनेमिनाथस्य द्वादशमासवर्णन समाप्तम्, Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. कयवन्ना-विवाहलउ [कर्ता-देपाल रचना-समय : १५ वीं शताब्दी] भणइ कयवन्नउ अभयकुमारू, एक अपूरब वातडी ए। च्यारिए नारि एह नयर-मझारि, च्यारि ए बेटा अम्ह-तणा ए ॥१॥ एकु ताँ एहु जु वडउँ विना], जेहु जणावउँ तेउ हसइ ए । हउँ नवि जाणउँ तेह-तण नामु, न अहिनाणु न धवलहरो ॥२॥ सुपन-सारीखिय साचिय वात, निशिदिन घडीय न वीसरइ ए। अवरह माणस केहिय मात्र, हउँ भूलउ हउँ भोलविउ ए ॥३॥ राउलि कहउँ न लागए राव, कहउँ तउ कोइ मानइ नही ए। बुद्धि-मयरहर तुं बिरद बोलाव, जाणिसिइ बुद्धि तुम्ह-तणी ए' ॥४॥ जाणिउँ कारण-तणउ विचारु, श्रेणिक-संभम इम भणइ ए। तउ कयवन्ना अभयकुमार, 'सयल कुटंब जउ मेलवउँ ए' ॥५॥ जिसउ कयवन्नउ तिसउ जाखु, अनुपम मूरती लेपमी ए। हरखिहि वेचिउ सोवन्न लाख, अभयकुमार कराविउ ए ॥६॥ कंचण-रयण-तणउ सिणगार, नवल पटोला पहिरणइ ए । रूप अप्रब अतिहि अपारु, जीण. जग सहु मोहीउँ ए ॥७॥ चउ-बारउ चहुटइ प्रासादु, राजगृहे रुलियामणउ ए । नयरह माँहि पडाविउ साद, पडहु वजावउ घरिहि घरे ॥८॥ आवउ वेगिहिं सहु सुकुटंबु, पंच मोदक जण जण प्रति ए। राखे करिसउ कोइ विलंबु, जाखु जुहारउ विधन-हरो ॥९॥ जाणिउ जावह तणउ-पमाणु, घरि घरि मोदक नीपजइ ए। एवड बुद्धि-तणउ परमाणु, अभयकुमारि कराविउँ ए ॥१०॥ एकि भणइँ परमेसर जाख, लाडूय देसु हूँ अति घणा ए । जे अम्ह रोगह आगलि राख, तउ तउँ सामीउ अम्ह तणउ ए ॥११॥ एकि नाचिइ एकि गाइँ गीतु, हरिखिहि कवि देपाल जिम । इण परि जाखु जु हुयउ वदीतु, मंगल-कारउ मगध-देसे ॥१२॥ Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय च्यारि ए बेटा च्यारि ए नारि, नवमी सरिसीय डोकरी ए। जउ पुहुतां प्रासाद-मझारि, जाखु देखि अचरिज हुओ ए ॥१३॥ पुत्र भणइ 'परि चालउ तात, नारि न बोलई पुणु हसइँ ए । इसीय एह अपूरब बात, नव-जण मेलावउ हुयउ ए ॥१४॥ बलिकीजउँ तसो अभयकुमार, जेण विफटाँ मेलावियाँ ए। गरेयपणइ घण-गुणह भंडारु, सयला श्रोसंघ आणंदकरो ॥१५॥ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. नेमिनाथ-धवल [कर्ता-देपाल रचना-समय : १५ वीं शताब्दी] करुणा-सायर गुण-निलउ, वर-समुदविजय-सुत अति-भलउ । तिहुयणि सयलि वखाणियए, वर माडी य सिवा-देवि राणी ए ॥१॥ वीसइ सूधउ सामलउ वरो, मति-श्रुति-अवधिइ ऊजलउ । केवडियालउ खूपु ए, बस इंद्र निहाले रूपु ए ॥२॥ लाडणु जव घोडइ चडइ ए, क्रम आठइ अरि दडवड पडए । सारथि हरि तेडावउ ए, रथि चारि तुरिय जोत्रावउ ए ॥३॥ लाडणु रहवरि आरुहइ ए, तिम तिम उपशमु गहगहए। सोल सहस गोपी मिली ए, जानउत्रि चालइ मन-रली ॥४॥ गोपीय उढणि घाट ए, वर-आगलि बोलइ भाट ए। सिरवरि झलकई छात्र ए, वर-आगलि नाचइँ पात्र ए ॥५॥ गज-रथ-तुरियह थाट ए, वर जालि जोयइ वाट ए। च्यारि चमर ढलावइ ए, वर नेमि-जिणेसर आवइ ए ॥६॥ उग्रसेण-घरि जाई ए, वर नेमि-जिणेसर गाईय ए। जीव-दया-प्रतिपालू ए, वर गायणु कवि देपालू ए ॥७॥ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. आर्द्रकुमार-धवल [कर्ता-देपाल रचना - समय : १५वीं शताब्दी] नाई ए नयरह सीहहुयारि, पांच कन्या रामति रमइँ ए । चिहु पुण वरी या भ च्यारि, वरु नवि पामइ पाँचमी ए ॥ वावि चरखंडि ए च्यारि, जे थंभ चिहुँ कुयारि रुपि निरूपम जेसीय रंभ, घणवत्त- धूय तेहे खोजवीय धणदत्त-धूय, बोलिया बोल बहूय । अम्हि थंभ वरी या तो, तूं वरु अनेरउ जोइ ॥ २ तूं वरु अनेरुउ जोइ सखि ए काँइ कर आगलि रही । ऊभी पिराया प्रीँ जोयति बहिनी मनि लाजइ नहीँ ॥ रामति फीटी हूउ झगडउ नयणि जलि झखोलिया । सवि राखी मेल्ही वावि पाखलि भमइ भंभर - भोलिया ॥ ३ भंभर- भोलिय नयण - विशाल, वर जोइ धण एकली ए । वावि पाखलि परिभमईं स बाल, मुनि लाधउ कासगि रहियउ ए ॥ Jain Educationa International च्यारह ग्रहिया ए । वीजवी ए ॥१ लगन - वेलाँ गोधूक - वारि, आणी थंभ ए पाँचमु ए । कासग रही उ ए आद्रकुआरु, वरु वरी उ अणजाणती ए ॥४ वरु वरिउ अबुहि अयाणि, ते वात चडी प्रमाणि । जाणीं एहूं थंभ, शृंगार प्रथमारंभ ॥५ पेखिय आपुलइ मनि गहगही । वीजवो हूंती जेहिं ति सवि बोलावी सही ॥ साँभलउ बाईउ वात साची माहरइ कर्मि आणीउ । हूं नहीं मेल्हउँ नहीं मेल्हउँ न मेल्हऊँ नर जाणीउ ॥ ५ to जाणी ओत भणी यउँ तीण, सहोय समाणी ए साँभलउ ए । आपणपइ सवित सुकुलीणी, वरियउ वरु नवि मेल्हियइ ए ॥ ७ जय जयउ जंपइ सासण - देवि अहिवि सूहवि होइजे । वाँछितू ए सुरवर वृष्टि करइ तीण खेवि कंचण सारध बार कोडि ॥ माय-ताय- सिउँ पहूतउ राय, नयरलोउ सहु बूझवइ ए नारि न मेल्हइ मुनिवर-पाय, मुनिवरु मुखि बोलह नहीँ ए ॥ ८ For Personal and Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्द्रकुमार धवल ईम करता ऊगिउ सूर, मुनिवर कासगो पारिउ ए । चलण मेल्हावी चालिउ दूरे, भोगहलो क्रमि भोलविउ ए । सुनंदा दानु दीयs दानह साल, दक्षिण करु दवु उल्हवइ ए ॥ दानु प्रभावि कवि पालु, आद्रकुअरु वलि आविउ ए ॥९ * ॥ धउलु ॥ आद-न[र]राउ पहूत जाम, लाडीए वह उलखियउ ताम । रहि रहि थिरु थिरु मुनिवर राय, मइ उलखिउला प्रीय तुम्ह पाय ॥१ हूं तोइ वात न बोलउँ जूठी, मू-रहि सासणदेवि ति तूठी । पालउ वाचा करीउ पसाउ, तउ तिथ परिणए आद - नराउ || २ सुरवर जंपइ जय-जय-कारो, सजनह मनि आणंदु अपारो । मंगल- चार धवल तहिं दीजइँ, आद्रकुँआर- वर- गुण गाईजइँ ॥ ३ लाडी ए सुरवर तुम्हि वरीउ, सोवण्ण-कलसु अमीय- रसु भरीउ । पुव भवंतरि जिणु आराधिउ, तउ तुम्हि आद्रकुमार - वरु लाघउ ॥४ लाडीय सहज सोभागिहि रूडी, करयलि कंकण सुवण्णचूडी । लाडीए सिरवरि कुसमह भारो, पाए नेउर- रुणझणकारो ॥१५ कडि कसमसतीय सेत पटउली, लाडीय लाँकु सुमांई कउली । नवलइँ जोणि बेउ परणाव्याँ, मोह-मयणि बेउ आण मनाच्या ॥६ साव सलाखणु बेटउ जायउ, पुण्य-प्रभाविह सो घरि आयु । सामिणि सासण-देवि पसाइँ, अलिय विधन सवि दूर पुलाइँ ||७ * पुत्र-जन्मू ए २ कुलह शृङ्गारु नीय-कुल- कमला- के लि-करो ।, कुल-मंडणू कुल-तणु दीवु मण - रंगहि जिण दित्त तसो, सासण- देवि-पसाइ जीवु ॥ नयर-लोकु आदि [उ], उच्छवु कीऊ अपारु । तउ मोकलावर वर गहणि, कारणि आद्र कुँआरु ॥१॥ धरणि पभणै २ निसुणी भरतार सामीय काइँ उताव [लउ, ] प्राणनाह अवधारु वयणु । अजीय बाल लहूयहॅू, अजीय देव मुं दमइ मयणु || १४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only १०५ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय अज्जवि जइ जाएसि प्रिय, तउ दुख मेरु - समानु । कइ मुह ही डउ फुट्टि सिई, कइ उडिसीइ प्रानु ॥ २॥ रमणि संभलि २ भणइ नरुनाहु राजु छंडि मई ऋतु लीयउ, व्रत मेल्हिवि गृहवासु किद्धो । हुं तो तसु जामलि हुउँ, जिसउँ लोहु घण-तंब किद्धो मित्तु अम्हारउ राजगृह, नयरि जि अभयकुमारु । लिद्धो मिल्हियो जाणिसिइ, सो अम्ह संजम - भारु || ३ || देव दुहिलउ २ म धरि अवधार बंध अभयकुमार तसु, राजु छंडि व्रत तीणि लिद्धऊ । विहरंतर वेस - घरि गयऊ, अहंकार - रसि सो जि लिद्धउ ॥ विषइ रमइ देसण करहूँ, दिनि दस प्रतिबोधे । नंदिषेण मुनि नाम तसो, निधा कोइ न करेइ ॥४॥ म भणि सुंदरि २ एउ दृष्टंतु पुव्व भवंतर संभरै, तेम तेम मुह दुक्खु हल्लई । जर - रक्खसि दलि दोरि सिउँ, अज्ज-कल्लि अम्ह-भणीय चल्लाई || तामु सुनंदा इम भइ, वर विन्नती सुणेऊ । बेटउ लेसालहँ ठवीउ, पच्छइ व्रत लेजेउ ॥५॥ तीण वयणिहि २ रहीउ नरनाहु अंगुलि गिणते दीहडे, च्यारि वरिस वोलीयाँ क्रमि क्रम । पुतु ले सालहुँ परिठवीउ, छडपडु मणु आणंतु उपशमि ॥ कंतु गमंतु जाणि करि, कत्तण- लग्ग नारि । रमतु रमन्तउ बेटडऊ, सो जि संपत्तउ बारि ॥६॥ * आपण घरि किछउँ कातणउँ ए । जायसिह वाछ तूय तात, तू वडउ नेसालीयउ ए अखईउ होइजे वाछ, मइ भलइ संभालीउ ए ॥१ जायसि वच्छ तूय किम जायसि एब । धुला मोह ने पासि, तँ, वडउ लेसालीउ ए । तात लडाव तूय तोतला ए, हुं बलिकीजिसो नाम, तूं वडो ले सालिउ ए ॥२ वारउ ताँतण वीटीया ए, बार के सांकल भार, तू वडउ लेसालिउ ए । बारसोत्र जणणि तणाँ ए, छूटउ बारि जे त्रागि, तू वडउ लेसालिउ ए ॥ ३ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ आईकुमार-धवल माईय पढतइ वछ तइ ए, माडीय पूरीय आस, तू बडउ लेसालिउ ए। . पुत्र तई सूत्र लिख्या पखइ ए, रहावीयलई घरसूत्र, तूं वडउ लेसालिउ ए ॥४ अभयकुयारु तुंय पीत्रीउ, ए न्याइ एवड बुद्धि, तूं वडउ लेसालिउ ए। अम्ह प्रिय वछ तई रहाविउ ए, रमतुलइँ बार वरीस, तू वडउ लेसालिउ ए ॥५ अखइ होइजे वच्छ, तू वडउ लेसालिउ ए । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. अंबिकादेवी - पूर्वभव वर्णन तलहारा X X X X X X तिलोत्तम रंभ रइ ॥४ निम्मविय ॥५ सीलिहिं जणु सीता दवदंति राणी, अंजणसुंदरी रायमइ । सोहग-सुंदरि जगह पहाणी, जा विहि निम्मल तिहँ सुह भुंजंत दुन्नि उपन्न, पुत्तरयण जणु हरि - कुमर । सिद्धु सिद्धउ रूपि रवन्न, बुडु कणिट्ठउ पुत्त तसु ॥६ इणि परि समउ अइक्कमंताहं, सुह-वसि आयउ अपर पाखु । सोमि निमंतिय बंभण ताहं, मंडण आसण साध - दिणि ॥ ७ कत्थ-वि बंभण वेद पढंति, कत्थ-वि पिण्ड प्रदानु होइ । कत्थ-वि संतिकु होमु करंति, कत्थ-वि कीजइ वइसदेउ ||८ सालि दाल पकवान- पयार, खीरि खाँड घिउ विजन । सरस संपाडिय जीमणवार, सासुव बइठिय न्हाण किन्हि ॥९ तक्खणि मुणिवरु गणिहिं संजुतु, तप-जप- संजम - नियम- धरु । मास - खमण - पारणइ पहूतु, तह घरि जंगम कलपतरु ॥ १० सुपात आविउ अंबिणि पेखि, ऊठिय हरिस - विसंटुलिय । मुणिवरो भोयण-पाणि-विसेखि, भावि भगति विहरावियउ ॥ ११ विहरि तपोधनु चालिउ जाम, दिट्ठि पलोवंतु भूमि-पहु । सासुवि न्हाविय ऊठिय ताम, देखिवि निय-मणि मच्छरिय ॥ १२ सोमहि आगओ कहियउ 'वच्छ, बहुडिय सयलु अजुत्तु कियउ' । कोपि चडिउ सोमु पभणइ 'गच्छ, हे अपलंदिए काइँ किय ॥ १३ अजउ न पूजिय अम्हि कुलदेव, अजउ न बंभण जेमियाई । अज्ज - वि पिंड भराविय नेय, कइ तई दिन्निय पदम सिहा' ॥ १४ तं वयणु सुण परिहसि भरिय, चालिय अंबिणि बंभणिय । नंदणु सिद्धु करंगुलि धरिय, कडिहि चडाविउ बुद्धु तिणि ॥ १५ तिसिय सुयहँ हि पुन्न प्रभावि, सुक्कउ सरवरु जलि भरिउ । सुक्कउ अंबउ फलियउ सावि, भुखिय पुत्तह देइ फला ॥१६ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंबिकादेवी-पूर्वभव-वर्णन तलहारा अंबिणि दीठउ कूवउ मग्गि, तक्खणि मणि जिणु अणुसरिउ । तत्थ झंपावइ पाण-विसग्गि, सुह-झाणि जीविउ तजिउ तिणि ॥१७ कूवह माँडि विमाणि उपन्न, सोहम-तलि चहु जोयणिहि । सोपात्र-दानि प्रभावि उपन्न, अंबिक-देविय नामि तउ ।।१८ अंबिणि तजिय जि पातलि वि, सोवन थाल कचोल थिय । अउठिहि कण पुणु पडिय जि-के-वि, मोतिय माणिक ते-वि हुय ।।१९ सासुव देखिवि विम्हिय ताम, चिंतइ वहुय सलक्खणिय । मण पछताविय जंपइ सोमु, अणहि व्यालउ तउ करउ ॥२० सोमु महासइ पूठिहि जाइ, कूवि झंपावती दीठ तिणि । सो पुणु अणुसइ तहिं धस देइ, मरिवि हुवउ सिंह-रूपि सुरु ॥२१ अंबहँ लुंबिय पासु धरेइ, दाहिण करि जुगि वाम पुणु । पुत्त-अंकुस-धर सिंह-वाहणिय, वंछिय-पूरणि कनय-वन्न ॥२२ सामिय नेमि-जिणिंदह तित्थि, अंबिक सासणि-देवि हुय । संघहँ दुत्थ-दलणि सु-पसस्थि, निवसइ गिरि-गिरनार-सिरि ॥२३ सीसि मउडु मणि-कुंडल कानि, सोहइ मोतिय-हारु उरि । रयण-घडिय करि कंकण दुन्नि, पाइहि नेउर रुणझुणहि ॥२४ तुहुँ तारा तोतर भैरव चंडि, सोलस विज्जादेवि तुहुँ । एक जि तिहुयणि तुहुँ जु पयंडि, भयवइ वहुविह रूव-धरा ॥२५ साइणि जोइणि रक्खस भूय, वितर दुद्धर दुट्ठ गह । नाम-गहणि तुह विफलोइय, वंदिहि सकल झडप्पडहि ॥२६ तम्ह पसाइहि तुम्ह (?) थट्ट, रहवर पयदल रायसिरि । - Jain Educationa Intematid Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. नेमिनाथ-बोली जगति जयति शश्वन्नेमिनाथो विवस्वच्छतसमधिककांतिः सृष्टमोहोपशान्तिः । उदितविदितचित्रस्फूर्जदूश्चरित्रस्त्रिभुवनजनबन्धुः पुण्यलावण्यसिन्धुः ॥१ त समुदविजय-निव-अंगरुहं त पुन्निम-सोम-समाण-मुहं । त राजमती-राणी-हियय-वरं त धरिय-सुदुद्धर-सील-भरं ॥२ ता जय-पायड-नव-संख रवं ता दूर-वियंभिय-सं ख-रवं । ता अरि अरि भवियहु रत्तिदिणं ता पणमुहु पणमुहु नेमि-जिणं ॥३ ता एका-चित्ता होई मित्ता पढि सुह-कव्वु । ता एऊ लोऊ करिउ पमोल . संभलहु सव्वु ॥ ता सिवपुरि-गामिउ जिव जिव सामिउ सामल-धीरु । ता तिहुषुयण-रंजणु मयणहू गंजणु एकल-वीरु ॥४ ता इह संसारी दुत्तर-पारी दुह-भंडारि । ता इक्कल-मल्ला तिहुयण-सल्ला राणा च्यारि ॥ ता रिद्धिहि गहिलउ सिविहि पहिलउँ पहिलउँ क्रोधु । ता जण-जण-सरिसउ अइ दुद्धरसउ । करइ विरोधु ॥५ आ अइदुतू (?) बह-बलवंतू बीजउ माणु । कि स्यू (?) न नमइ सव्वू नामइ अखलिय-आणु ॥ ता पारू वंचइ पापू संचइ त्रीजउ दंभु। ता जग्गू हस्सय नहु वीसस्सइ उखभिय-खंभु ॥६ ता सव्वू मोहइ जग्गू डोहइ चउत्थउ लोभु । ता धम्मू नासइ साहू वासइ खरउ आथोभ ॥ ता तहि गुरुयउ कम्महि विरुयउ धम्महि । अच्छइ मोह। ता राए राणे सव्वेसाणे किणइ दुजोह ॥७ ता अवरे अच्छइ मागिं गच्छइ चारि नरिंद । ता देवादेवा ताहिं सेवा करहि सुरिंद ॥ ता पूरइ भोगू दियह संजोगू पहिलउ दाणु । ता जइ पुण जोई बूझइ कोई तासु पमाणु ॥८ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ नेमिनाथ-बोली ता पुण नीसंकू जगि अकलंकू ता घरि घरि हिंडय सयलु वि मंडय ता सत्तहि भत्ता अन्नय मुत्तहि ता तीजउ राणउ तुम्हे जाणह ता निग्रहिअ तुंगिहि अन्नय विग्रहि ता महा-पभावू चउत्थउ भावू ता तहि ठाऊ वडउ राऊ ता ओलगाणा . अखलिय-आणा ता अवरे भट्टा सरसति-चट्टा ताहि बेहिं प्राण-संदेहिं ता उच्छाहा समर-सिनाहा ता जंता फाले सेल-ऊछाले ता ऊता ऊता देंद्रे था ता नायल गोयल भट्टा टिंटा ता ऊता ऊता धीरह वीरह ता ऊता ऊता सामिय भत्ता ता ऊता ऊता सोभिय ऊभिय ता वाचाद्रोह ऊडिय-लोहू ता णिऊ ताणिय मर्मु जाणिय . ता अंगू राखिय लाहू चाखिउ ता मेल्हहि घाय लोहहि ध्राय ता नाठा घाठा धणुहरगि भाथा ता क्रोधू भागउ धरिउ नागउ ता न चडिउ छोहू नाठउ लोहू ता माया-माणा थिय निय-माणा ता अवरे नासह नाथो(?)भासइ ता रोगू सोगू रत्तिय रत्तिय ता दूळू जूळू हासू दासू बीजउ सीलु । अतहि सुसील ।। अति अभिरामु । तसु तपु नामू ॥९ काल-कियंतु । अति-जयवंतु ॥ पुणु धमराजु । साहइ काजु ॥१० कहियइ तुज्झु । लागउ झुझु ॥ वाजिय ढाक । सुहड त मेल्हत हाक ॥११ जमइ नीसाण । पडियत प्राण ॥ बाझ(?)हि बाट । पढइ नगारिय भाट ॥१२ चिंध अलंबु । नाही विलंबु ॥ सर मुच्चंति । केवि पडंति ॥१३ केवि छडंति(?) । छाडहि विदु(?) ॥ नयन बंध बाल। जोयइ छंडिय खाल ॥१४ पुणु ऊजाणा वेवि । दंतहि अंगुल लेवि ॥ कोइ लेखइ लाइ। पड़ियत ठाइ ॥१५ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ प्राचीन गुर्जर कान्य संबय ता दाणू सीलू तप्पू भावू ए गाजंति । ता गूड छालहि करह दुकालहि पोगा दिति(?) । ता एती वारा जाणी सारा आयउ कामदेउ वीरु । ता नारीकुंजर वज्ज-पंजरु रक्खिय-सरीरु ॥१६ ता सिरियामोडा बाहिं चूडा कन्नि कुंडल झलकंति । आखी आँजि भ्रमहइ भांजी घुसणि घबकंति ॥ ता सिंधु फाडिय कंचू ताडिय कोटहि नवसरि हारु । ता पाए पाला तरुणिय वाला तसु परिवार ।।१७ ता त्रीखा चोखा आडात्रेडा अनु अणयाल । ता जिव खरसाणा ताही बाणा नयण कुडाल(?) ।। ता इत्थं अवसरि ताहिं संगरि नेमिकुमार । ता आविउ इकउ ठाणि न चूकउ , करइ सिंहारु ॥१८ ता कुसलहि खेमहि पहिलउ नेमी पाडिउ छत्र । ता दंता कुंता छिरिका फिरिका केतिय मात्र । ता उद्दामू धायउ कामू मेल्हत घाय । ता मुह. जोयावय सहु-को आवइ राणा राय ॥१९ ता नेमिकुमारी निरहंकारी जाम सु दीठु । ता धूजइ खीजइ झूरय मूरय नाहिय विसीटु ।। ता इंद्रा(?)फोडिउ तहि दप कोडिउ नेमिकुमारि । ता मोहा राया सेना-सुहडा हुई हारि ॥२० ता सजने छाडी रतने रांडी करहि विलाप । ता मोरा कंता एरिसि दंता पाडियत पाप ॥ ता रणभूमि सोधिउ सउ संबोधिउ । लोय-पसायो । ता मनोहरणहि समोसरणहि देहिय वास ॥२१ ता इंदे चंदे दे]वाणंदे कियउ जयजयकार। ता सवि इंद्राणी जीतउ जाणियं । करहि ति मंगलचारु । ता सव्वह वीरह उपरवटूि मयण-घरटू आसं वदंतु । ता पूजहु पूजहु नेमिकुमार निव्वइकंतु ॥२२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. थूलिभद्र-मुनि-वर्णना-बोली सुरराय समहरि करवि निज्जिय चक्कवह हरि-हलहरा । पायालि पन्नग सैव मन्नहि कवण मत्त नरेसरा ॥ . तसु कुसुमसरि कोदंड खंडिवि बाण-पसर विहंडिउ । सिरि-थूलभदिण तेम निज्जिउ जम्म कह-वि न निजि ॥१ जाम्व निय-कोदंड सज्जह करइ किरि टंकारवो । सुर-भुवणु कंपइ सेसु संकइ घर पडइ बुंबारवो ॥ जिण-लील-मत्तिण सुह-पसत्तिण सयलु तिहुयण दंडिउ ।। तसु पंचबाणह थूलभदिण माणु लीलइ खंडिउ ॥२ जसु सरिसु समरि न कोइ मंडइ को-वि करु नहु उब्भए । जिणि हणिउ हक्किउ को न भज्जइ कवणु कवणु न खुब्भए ॥ तसु थूलभद्दह सरिसु तुडि करि मयण-मल्लु विगुत्तओ । इणि सुहडि सरिसु न खणु वि खिल्लिउ इयरु जगु सहु जित्तभो ॥३ साहण-सहस्सहिजा न जिप्पइ असि-पहारि न छिज्जए । तसु सेल-सव्वल-सत्थ समहरि रोमु इक्कु न भिज्जए । जो गरुय-सद्दिण थूलभदिण रहसि (?) जा हक्किउ । तिम्व किम्वइ पडिउ अणंगु खडहडि वलिवि सरु नह संघिउ ॥४ अरिरि मत्त-गयंद भज्जहि जेम्व हरि-हुंकारवे । जिम्ब इयर कायर के-वि नासहि समरि हय-हिंसा-रवें ॥ जेम तिमिरु झडत्ति भिज्जइ पिक्खि रवि गयणंगणे । तिम्व मयणु मयण जिम्व विलिजइ थूलिभइह दंसणे ॥५ तह ठाण झत्ति पट्ठि उट्ठिउ गिरिहि मज्झि पइट्ठउ । संकुडिवि लिक्किवि किम्बइ थक्कउ पुणवि कह-वि न दिउ ॥ सिरि-थूलभदिण समरि भग्गउ वलिवि अंगि न लग्गए। जाणियइ किरि तह दिणह पच्छए इमु अणंगु भणिज्जए ॥६ मूल के भ्रष्ट पाठ : १. २. पन्नघ. २. २. बिबा; पसित्त'; १. वाणष, 'गुं, लीलई. ३. ३. भद्दघ. ४. जित्तउ. ४. २. पडिडिउ. ५. १. वे. २. वे. ४. घ. ६. २. संकिंवई. ३. में. ४. तद दिलश, इम्मे. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जाव न पडु निय-घरि ताम्व रह- बुल्लाविभो । 'कहि थूलभद्दिण सरिसु तुडि करि कषणु फल पइँ पाविउ ' ॥ 'सुणि कंति इणि छहि रसहि भोयणु करवि हउँ वीसासिउ । झाणग्गिखग्गि हणेवि भग्गउ ता न सक्किउ नासिउ' ॥७ 'को-वि निय-तणु तविण सोसइ कु-बि य रन्निहि निवसए । किवि को वि पि सेवालु भक्खर सो वि तू आसंकए ॥ जो वेस घरि चउमासि निवसवि सरस भोयण-सत्तओ । तसु थूलभद्दह पाय पणमहुँ जिणि मयण तुहुँ जित्तओ' ॥८ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय ७१. पयद. २. पु. ८१. कुविभ, ३. संतउ. ४ महु, मणु. अंत : थूलभद्रमुनि वर्णनाबोली समाप्ताः. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ता उत्तर दक्षिण ता कर जोडेविणु ता दूसम - काले ता इह भव- सायरि ता तिहुयण-सामिउ ता प्रिय वंदावह ता रंगि (3) चडेविणु ता मंदिरु दिउ ता पहुती बाला ता पहु पणविणु ता विदिणि देविणु ता ससहर-वयणी ता धन पुनवंती ३१. शांतिनाथ - बोलिका पूरव पच्छिम नाहु नमेविणु पहु सिरिमाले दुक्खह आयरि सिद्धिहि गामि ता दाणु दियावहि ता सिरिमालह मंडणू ता भवियहु वंद Jain Educationa International वेगु करावह वेगु करे विणु पाउ पणटुउ नयण-विसाला पूय एवणु रासुरमेविणु मणहर - नयणी बहु गुणवंती महिम करावहि पाव- विहंडणु जिव चिरु नंदहु चिहुँ दिसि हुंती नारि । 'वयणु इक्कु अवघारि ॥ अदबुदु सुणिय तित्थु । भवियण - जंण-बोहित्थु ॥१ निसुणिज्जइ संसारि । लद्धउ जम्मु म हारि' ॥ मनि धरि गरुयउ भाउ । फिट्ट भव-दुह-दाहु ॥२ अदबुदु करि सिणगारु । सहलउ करि संसार ॥ दीवी लिउ नच्चति । संतिहि गुण गायंति ॥ ३ अमर पसंसहि सग्गि । गुरु- वयणि विहि-मंग्ग ॥ थप्पड जिणिसर-सूरि । दुरिउ पणांसह दूरि ||४ १. ३. क. ली, ली, ४. क. भवियह. २. ३. ग. लिंग. ३. १ क. उदभवु, अदभुत; ३. क. घिद्दिणि. ख. ग. घिन्नण. ४. क. ग. ठवणी. ४. १. ग. महती; ३. ग. सिर; क. जिण ं, ग. जिणे. अंत : इति श्रीशान्तिनाथबोलिका. For Personal and Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. वासुपूज्य पोलिका ता पल्हमपुरि गोरी विनंती करहि जु 'प्रिय निसुणेहु । ता दूसम-कालि सूसमु अवयरियउ दुहह जलंजलि देहु ।। ता चलहि सामिय मयगल-गामिय सहलउ जम्मु करेसु । ....... ता विचाउरि विहि-मंदिरि पणमिसु वासुपुज्जु-तित्थेसु' ॥१ ता चल्लहि सुंदर मणि निच्छउ करि अदभुदु करि सिणगार। ता गहिवि अमर कपूर कुसुम-चंदन-कस्थूरी-सारु ॥ ता पूज स्थावहि भावण भावहि चंगु विलेवणु अंगि । ता पहिरावणी विविह कारावहि सपडि (१) नितु नव-रंगि ॥२॥ ता उलुलों दो दो तिउली बजहि गिडि (2) करडि-झंकारु । ता दो दो त्रिनु नखु खुनता मादल झिगडदि पडहु अहसार ॥ ता अणुहणु कारहि झल्लरि मणहर कंत सुहावी ताल । ता भररं भररं मेरी सुम्मइ छपल छपल कंसाल ॥३ . ता छं छं छररं आउज बज्नहि वीण वेणु बह रम्म । ता तुंबुर-सरि महुर-सरि गामहि गायक खोडहि कम्म ॥ ता वासुपुज्जु तित्वधर पसंसहि सुगुरु-मिणेसर-सूरि ।' ता भवियहु मण मण-वंछिउ पाबहु दुरिउ पणास दूरि ॥४ भ्रष्ट पाठः १. २. अवयरिउ यउ, देउ; ४. विजा. २. १. चलहि, उदभटु; २ का; ३ भंगि विलेषणु चंगु. ३. ४. सुमई. ५. १. वजहि. ५. पणासइ. . मंत : इति श्रीवासुपूज्यबोलिका. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. सर्वजिन-कलश जम्म-मजणु भणउँ उसमस्स । जिय-संभवमिणंदणहं सुमइ-सुपभ-सुप्पास-नाहह ।। ससि-सुविहि-सीयल-जिणह सिरि-सिजंस-जिण वासुपुज्जह ॥ विमल-अणंतह धम्म-मिण- संति-कुंथु-अर-मल्लि- । मुणि-सुव्वय-नमि-नेमि-जिण- पास-बीर-जिण-बल्लि ॥१ ___ अमर-गिरिवर-सिहरि न्हाविसु । उवीस य तित्थयर (2) पढम-कप्प-सकंकि संठिय । सेवढ़ि-देविंद सुर अच्चुइंद-पमुहा महडिय ॥ .. मणिमय-मट्टिय-कणगमय- संजोगय (:)-कलसेहि । इक्खु[य]-रस-खीरबु-पय- जलहितो भरिएहि ॥२ तयणु संठियचुयइ कम्पिदु । उच्छंगि सम्वे वि जिण न्हवइ पढम कप्पिंदु वेगिण । सिय-वसह-सिंगुच्छलिय- ललिय-दुद्ध-धारा-पबंधिण ॥ धाविवि मज्जण-जलु अमर अमरी वि हु वंदंति । के-वि देव चामर पवर जिण-पुरओ ढालंति ॥३ के-वि नच्चहि के-वि गायति । कि-वि जय-जय-रवु करहि कि-वि विसट्ट नट्टइ पवहि । कि-वि खिल्लहि कि-वि उल्ललहि कि-वि रसंति कि-वि हसहि विलसहि ॥ कि-वि गजहि कि-वि गुलगुलहि कि-वि उच्छाह पढंति । ढक दुक्क त्रंबक तहि कि-वि झल्लरि वायंति ॥४ तयणुगारिण सव्व भो भव्व ।। अप्पुव्व-वत्थाभरण- भूसियंग मण-रंग-चंगय । माणंद-बाह-प्पवह- न्हविय-गल्लया पुलय-संगय ॥ करह सव्व तित्थेसरह मज्जण-महु बहु-सेउ । सिवपुरम्मि तुम्ह वि हवइ जिवँ लहु रज्जभिसेउ ॥५ भ्रष्ट पाठः ३. २. उत्संगि; ६. गज्जणु. ९. ढालिति. ४. ३. पवट्टइ, ६. हसह विलसइं. ५.७ मज्जणु, °सेय. ८ भवइ. मंत : इति सर्वजिनकलशः समाप्तः. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. युगादिदेव-कलश जस्स पय-पंकयं निप्पडिम- रूवयं तस्स रिसहस्स भत्ती मज्जण-विहिं सुर-सि हरि मिलिय चउसट्ठि तह सुरवरा सयल - निय-निय-परीवार- परिवारिया रुप-मणि-कण - मीहि निव्वत्तिए लेवि कलसे कुणहि पढम-जिण - मज्जणं Jain Educationa International सुर-असुर-नर- खयर (?) वयंसीकयं । किं-पि पभणेमि तुम्हि कुणह सवणा तिहिं ॥ १ पवर-नेवत्थ-घर हरिस [ -भर ] -निम्भरा । फुल्ल- नयणंबुया विप्फुरिय-तारिया ॥२ इक्खुरस - खीर - घय- नीर- पूरं चिए । भत्ति-भर- परवसा कम्म-भड - तज्जणं ॥ ३ -वि गति गुलगुलहि किवि चामरा के वि वायंति ढालति कि-वि चामरा । का-वि नच्चति गायंति कि- वि देविया हरिस-भर- पूरिया मूसणालंकिया ॥४ विमलगिरि - मंडणं नाभि - निव-नंदणं जण-मणाणंदणं कम्म निक्कंदणं । तयनुसारेण भो न्हवहु भवियण-जणा सिव-बहू होइ जिम्व तुम्ह उच्छुय-मणा ॥ ५ For Personal and Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. वीरजिन- कलश नमिर- सुरवर-पवर - सिर-मउड. काय - कंति - सोहिय-ससुंदरु । दुट्ठ-कम्म- निवण-पच्च ॥ जम्मण - मरण-विणासु । भावं पणमिय तासु ॥ १ मणि-किरण-निम्मल-बहुल संसार-वण-घण-दहण पंचिंदिय-करिवर-दलणु आइ-जिदिह पय-कमल देवि सरसइ सरस- तामरस वर - कोमल-दल- नयण कढण उन्नय सिहण तिहुयण- जण - आनंदयर जम्म- कालि जं जणु न्हवहु वर-तुंग-तोरण-सहिउ अट्टाल- देउल-बहुल नंदण-वण-वावी - सरहि आसासिज्जइ तरुणियणु Jain Educationa International इत्थु भारहि नरु सुपसिद्धु वर-राउ सिद्धत्थु हि करि-तुरय रहवर-भरिउ सयलंतेउर तसु पवर अतिथ घरिणि रइ - रूय-सम काय - कंति - सोहिय-सुसुंदर । कसिण केस सिरि पउर दीहर भावं पुणु पणमेव । संपय तं पयडेमि ॥२ विविह- रयण-धवलहर - सोहिउ । - - टिंट - चउहट्ट - रेहिउ || कुवलय-गंधे । आगच्छइ पवणेण ॥ ३ कुंडपुर-वर-नयरु नामेण आसाढ पुप्फुत्तरह उप्पन्नउ दियवर - कुलह सिण-पक्व तहि तेरसिहि उत्तम कुलि जाणिव ठबहु करइ रज्जु सय-नीय-कारणु । सत्तु वग्ग-भय-भीय- दारुणु || बहु-गुण-रण- निहाणु । तिसलाएवि पहाणु || ४ || तम्मि अवसर सुद्ध-छट्ठीहि M विवि च सुर-रिद्धि-मणहर चवण महिम तसु करहि सुरवर आसोयह सुर - नाहु | तिसल-गन्भि जिण - णाहु ॥ ५ श्रेष्ठ पाठ : १. १. सिरि. २. १. देव. ३. ७. कुवलइ. ४. ७. रय For Personal and Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० नवहि मासहि सत्त-वासरह बिह पहरह तेरसिहि M कल्हार-कोमल-वयणु पुण वद्धाविउ वर विलय कंपिउ आसणु सुरवइहि अप्फालिउ घंट वर हरिसइ सवि जिणवरह सलहिवि तिसलह देइ वरु लेवि करंजलि वीर - जिपु तामं तक्खणि सक्क- वयणेण कर - कलिय- कंकण - रयण वर - विवि-मणिमय जय कप्पूरागरु-घण-घुसिण पडनित्त वर पत्त जय जय रव परिमल बहल वर तिवल दुलदुल करड मेरी-भरहर-पडु-पडहपूरिउ नहयलु सयलु तहि - वि सुरवर Jain Educationa International सुक्क पविश्व तहि चित्त-मासह | जाउ वीर सिद्धत्थ - रायह ॥ जानिय (?) भूसण लेवि । तखणि अवहि मुवि ॥ ६ कणिर-कंकण- कलयलाराव मिलिय तियस टंकार - सद्दिण | जम्मि भवणि गच्छइ खणणि ॥ 'अवसोयण तो तंमि । आयउ गिरि - सिह रंमि ॥७ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय धावंत सायर-समुह उट्ठति कि-वि कि-वि करहि जय-जय-सद्दिण कि-वि अमर रोमंच किइ चुइय (?) तणु सुरवर मेरु - सिहरं मि चलण- चलिय- नेउर-सद्दिणं । मउड सिरि दिन्न चंदिण (?) ॥ परिमल - बहुल-विलित । पहिरवि सुर संपत ||८ सीह - नाउ दुंदुहि समुज्जलं (?) करयरंति उच्छलिय नदिण ॥ काहल - संख-सएहि । तक्खणि वज्र्ज्जतेहि ॥९ वारि-कमि लेवि कलस कलयल - ससद्दिण । सुरहि- कुसुम-मंदार-मंजरि ॥ नहयल - तल पुरंति । कि-वि सुंदरु नच्चति ॥ १० ताम चिंतs इउ निय-मणिण पिक्खे विणु वीर - जिणु वर वारि-निम्मल भरिउ तणु- सरीरि किन भरु सहे सइ । कणय-कलस- चउस िवसर || ७. १. स्क्क. ५. सोय, ९८. नहि. १०. ५, मंदार, १० सहिणि ६ ग्राहक For Personal and Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ श्रीमहावीर-कलश जा परिसु(?) निय-मणि धरइ वासवु गिरि-सिहरग्गि । ताम जिणेसरु लहुय-तणु चालइ मेरु कमग्गि ॥११ ताम उब्भड वियड दढ कढिण अमराहिव भर-थडह निविड-सरल-तरु घण-समूहह । मणि-रयण-कुटिम-तलह सुर-विमाण-आरूढ देवह ॥ निय-ठाणंतरि संठियउ जं सुर-गिरि चालेइ । वीर-जिणेसह लहुय तणु सुर-गिरि-सिरु चंपेइ ॥ १२ __ सयल-सुरगिरि-पउर-पायार सर सरवर विवर पर पउर गाम पट्टण विसालइ । थरहरिय नंदणवणइ निविड दुग्ग दुग्गम करालइ ।। करयल-रव उत्तट्ठ घण इम सुरयणु जंपेइ । .... 'वीर जिणेसर लहुय-तणु अहवा किंपि जिणेइ' ॥ १३ ताम जिण-वलु मुणवि सुर-नाहु जोडेवि कर सिरि धरइ 'खमह नाह अतुलिय-परक्कम । नव जाण (?) तुज्झ बलु वीर दमिय-कंदप्प-दुद्दम' ॥ पुण विज्जाहर-सुर-गणह जंपइ एहु सुरिंदु । 'लेवि कलस मा चिरु करहु न्हावहु वीर-जिणिंदु' ॥ १४ अंत : इति श्रीमहावीरकलसः समाप्तः. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. महावीर-जन्माभिषेक [ कर्ता : जिनेश्वरसूरि रचनासमय : ११वीं शताब्दी ] सिद्धत्थ-महा-नरराय-वंस- सर-रायहंस मुणि-रायहंस । तेलुक्क-नाह युग-दीह-बाह जय चरम जिणेसर वीर-नाह ॥१ तुह मज्जणु जे जिण कुणहि भव्य ते पावहि संपइ नाह सच । उच्छिन्न-रुद्द-दारिद-कंद पणयामर-विंद जिणिंद-चंद ॥२ सा धन्न पुन सु-कयत्थ वीर सिरि-तिसलदेवि जसु उयरि धीर । उप्पन्नु सयल-तेलुक्क-नाहु तहु गुण-गण-रयण-सलिलनाहु ॥३ सुर-सिहरि मिलिय चउसद्रि इंद। जम्म-कखणि तक्खणि तुह जिणिंद । केऊर-मउड-कडिसुत्त-हार- चल-कुंडल-मंडिय भत्ति-सार ॥४ निय-निय-विसेस-परिवार-जुत उल्लसिय-चारु-रोमंच-गत्त । खीरोहि-खीर-भर-परिएहिँ सयवत्त-पिहाण-विभूसिएहि ॥५ मणि-कंचण-रयण-गण-निम्मिएहिँ कलसेहिँ विसाल-सुनिम्मलेहिं । तुह मज्जणु सज्जण-विहिय-तोसु पक्खालिय-कलि-मल-पडल-दोसु ॥६ कल्लाण-वल्लि-कय-परम-पोसु __ आगम-विहाणि करि वयण-कोसु । विरयंति सुरेसर सयल तत्थ संपुन्न पुन भावण कयत्थ ॥७ वर रंभ तिलुत्तम अच्छराउ नच्चंति भत्ति-भर-निब्भराउ । गायंति तार-हारुज्जलाई तुह चरियइँ जिनवर निम्मलाई ॥८ वज्जति ढक्क टंबक्क बुक्क कंसाल ताल तिलिमा हुडुक्क । उपित इंत सुरवर-विमाण नह-मंडलि दीसहि पवर जाण ॥९ जय-जय-रवु के-वि करंति देव जोडिय-कर-संपुड करहि सेव । कि-वि अट्ठ अट्ठ वर-मंगलाई तुह पुरउ करहि कय-मंगलाइ ॥१० मन्नंति अप्पु सु-कयत्थु पुन्न तहिँ सयल सुराहिव सुकय-पुन्न । जं न्हविउ अज्ज सिरि-तिजग-नाहु निच्चविय-भविय-भव-दहण-दाहु ॥११ कल्लाण-वल्लि-उल्लास-कंदु तेलुक्क-परम-आणंदु चंदु । हल्लुप्फल-सुर-कय-नट्टरंगु जम्म-क्खणु तुह जिण जयउ चंगु ॥१२ जम्माहिसेउ कय-तिजग-सेउ भवियण-निन्नासिय-पाव-लेउ। तुह करहि देव-देविंद-विंद असुरिंद फणिंद स-जोइसिंद ॥१३ जेम मेरुम्मि अमरेसरा मजणं करहि तुह वीर गिरि-धीर दुह-तज्जणं । सद्ध सुवियड्ढ तह कुणहि जे संपयं सुत्त-विहि गाउ ते लहहि परमं पयं ॥१४ अंत : इति श्रीमहावीरजन्माभिषेकः कृतः श्रीजिनेश्वरसूरिभिः. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. कृपण गृहिणी- संवाद [कर्त्ता : आसिग रचना समय : १२०० के पश्चात् ] किवणु पभणइ 'निसुणि घरघरणि करह महुत्त खज्जत तुट्टिसइ वह अत्थु धरणिहि खर्णविणु । करि उवासु भुक्खी अछेविणु ॥ हिंड लिल्लिर-वेसि । ढुक्की कह वि म देसि ॥ १ किवणु पभणइ 'किम्व करउँ धम्मु तंदुल संचह सत्रह भण पहिय पाहुणा अजय धणु थोडिलउ नितु ases नितु वेचियइ बिल्लं बिल्ला न वि मिलइ वरसह लेखउ जोइयउँ ताव बाली 'सिक्खवंती जम्मु गयउ जिव जम्मणु तिव मरणु धरणिहिँ थवियर वीसरइ जं जं दियह त ऊयरइ कोपानलि घणि चडिउ सासु निलिय 'खरउ निविन्नउ धरणि तुहु हत् खंचि करि मेल धनु Jain Educationa International ताव कि वह लग्गु मणि रोसु इक्क कोडि निट्ठाह पुज्जइ । विसु याहु न व हाउ खज्जइ (१) ॥ जाम्व न गणियउ गम्मु । खद्रा रोक्क वि द्रम्म' ॥ २ भइ विहसेवि दंत घट्ट वलि वलि भणेविणु । करिसि काइ धणु कणु संचेविणु ॥ बचाव करतारु । मम्मल थियउ संसारु ॥ ३ जिव जलहरि जल पडद विहवि नडिउँ तं जिघरु सीलु म खंडि धनु त्रयसु जइ मारह तो मारि प्रिय धगधगंतु रोसिहि पलित्तउ । वार वार पभणइ तुरंतउ ॥ जं धनु विलसहि खाहि । कय पुण पीहरि जाहि ॥४ नयणेहि ताव बाली रुयइ वह जेव निज्झरणि गिरि वरि । किवणि दिन्नु फल सुक्क तरुवरु || कुलह उजालि नाउँ । किवइ न पीहरि जाउँ ॥५ १. २. वित्त ५. अच्छे विणु. ६. संचयह. २. २. अजिय. ३. २. ४. ६. निव्वि; ७. खाहि. ५. ३. निझ; ७ उज्जा For Personal and Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय किवणि तालउ दिन्हु घर-बारि लंघाविय तिणि घरणि तिगि य जाइ मा सेलि लग्गउ(?)। नव लक्ख द्रम्मह थविय गंठि इक्कु रूयउ न वद्धउ ॥ नयणिहि न पडइ निंद्रडीय दह दिह कीयउ कम्मु । नवलख-द्रम्मह बाँसियउ किविणि विढत्तउ द्रम्मु ॥६ ताव किवणह लग्गु अवरतउ अणु दुम्मणु मणि हूयउ मिलिउ लोउ रोअणह लग्गउ । मंदिर-गेहिणि रूसविय हुयउ स लिल्लर-वेसि । किविण सु मुच्छा-विहलु गउ नवलख-द्रम्मा-रेसि ॥७ ताव बालिय किवणु बूझविउ तालउ नव-खंड किउ वावि वावि मंदिरु जुआविउ । नव-खंड ग्रह-पुज्ज किय नवइ लक्ख खण ताह आविय ॥ तह बाली-केरइ सतिण उड्डिवि गउ पाविंदु । कर उब्भिवि भासिगु भणइ किविणह.मणि आणंदु ॥८ ___निसुणि सुंदर' किवणु पभणेइ 'सति सोलि तुहु उत्तमिय तुहु ज देवि अपछर पसिद्धिय । धन्नु एहु करतारु (ति)पर जेण मज्झ तुहु घरणि दीन्ही । खाह पियह धनु विद्रवह वाहि अवारिय-सत्तु । जं जं भावहि तं करहि किवणु भणइ विहसंतु ॥९ ६. ८. लक्ख. ७. ९. लाख. ९. १. पभणेवि; ३. अपच्छर. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेहउ सद्दु सुहावणउ ता को विलडी पत्थिवह मामि यल मयच्छियहँ निच्चु नवल्ली महिलडी एबिन्नि- विज ३८. प्रकीर्ण- दोहा इ तेही त हुंति । कसु कसु घरि न वसंति ॥ १ कन्त्रिण वन्नण थणहरिण पामर जण रच्वंति । छेयत्तणु जोवंति ॥२ अणु छंदउ चारु । * पडहिँ कंत फुरंत साि मह पहुइ पास कर जोडिवि काइउँ भणउँ हर लुट्टित तु पडि ( ? ) हरि चडि लुति घणु हार तुहुँ इस तिम किम पिच्छइ तिम हसइ तिम बाला मल्हेइ | जिम तरुणहँ वासर-निसिहि वम्महु देहु देहइ || ७ तसु सारउ संसारु ॥ ३ करि काइउँ रलियावणउँ । कहि ँ उँ कहि तुहुँ कहि रली ॥४ भाऊ मुत्ती - हार । पुणु कह एही वार ॥५ तरुणी-थणहरि तरुणयहँ लज्ज कुटुंबउ सयण धणु V अंग-थल- थलि तरुणिय सा परिसंती लग्गडी जं मिहुणहँ पिम्मंधलहं तं सुत्तणु विहि-राउँ Jain Educationa International जं माइयउ न अंगि सेसउँ उरि उच्छंगि जाउँ कत्थ-वि हत्थइँ जं वल्लह कर - कुलिस-हय गुणवत्त वि तुर्हति । हियडइ धर्रास न मंति ॥६ ३. सवण. ४. मुक्कु. १०.४. मंगइ. तिम किम नयण निलुक्क । सोहगु सहि जिन मुक्क ||८ तरुणहँ चलिय ज दिट्ठि । पुणु उत्तरी न हिट्ठि ॥९ घडिउ न इक्कु जि अंगु । कवणु न मग्गइ चंगु ॥ १० तरुणिह सोहगु विहि-विहिउ । -ण-दभिण रेडियउ ॥ ११ भूल के भ्रष्ट पाठ : ३.३ जिसु. ४.२ काय. अज-वि अमवसे | aण पुणरवि जीवे ॥ १२ For Personal and Private Use Only ७.२ वाल्हा. ८. १ तरुणियहं Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय जइ आवइ ता दस भला अह नावइ तो वीस । जो चित्तहँ उत्तारियउ तहि सउँ केही रीस ॥१३ नयणिहि वयणिहि जा रमइ सा विरल च्चिय नारि । कडि-कर-थण-हल्लावणी दीसइ घर-घर-बारि ॥१४ गयउ सु किं कुंभारु सहुँ तीणइ जु मयच्छियहँ । मण-मोहणु आकारु जं नहु दीसइ बालियहँ ॥१५ पवसंतिण पावासुइण गोरी तिम किम दिद। जिम अप्पहँ अनु गोरियहँ गलि जम-पास निविट्ठ ॥१६ विरहिणि-नीसासहि अनल घर-चुल्लिहि जे दित्त । पाडोसिय-घर झुपडा तेहि असेस पलित्त ॥१७ केमइँ तिम लग्गति अवरुप्परु मिहुणाई दिनु । जिम सह निरु डझंति विरह-हुयास-पलीवणइ ।।१८ रस-कव्वइँ अनु मित्तडा अनु कल-गीय-निनाय । तिन्नि-वि विरह-करालियहँ मण-वीसंभा-ठाय ॥१९ जाणउँ मोर लवंति गरुइहि सद्दडिहि । मरती-वत्त कहंति देसंतरि कंतहँ ठियहँ ॥२० तं काइउँ घण पिम्म घर माणसु विहडिवि जाइ। जिणि सल्लंतिण हियडइहिँ मरणु वि मंगलु थाइ ॥२१ बलिकिज्जउँ हउँ ताहँ पडिवन्नय-सुहडहँ जणहँ । वल्लहयर-चत्ताहँ जाहँ न रवइउ (१) मणु रमइ ॥२२ भाऊ रूउ असारु दाणु असारु असारु गुणु । जिहि सहुँ जसु तिलतारु सो तसु आजम्मु वि हवइ ॥२३ * धणि लेवइ जसु जाउ (2) तासु न कोइ अप्पणउँ । चडइ न वेसहँ भाउ तिणि धण-हीणइ वम्महि वि ॥२४ नेहि न अत्थु पवित्थरइ अत्थि न वड्ढइ नेहु । सामि वियड्ढ-विलासिणिहि विसमा संकडु एहु ॥२५ धण-दाणिण जे नेह धणि थक्कइ ते उवसमहि । पाउसि हुति जि मेह ते वच्चहि सउँ पाउसिण ॥२६ १४.२. विरलु. १५.१. कुंभार. १६.३.यिम. ४. जिम. विविट्ठ. १८.१ तिन. १९.४. छाम. २१.२. णुसुमा सु. २२.६. वल्लाहयार. २६.२. धम्मिणि. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ प्रकीर्ण दोहा वेसहँ तहि परि नेहु धण-संभावण जहि नहीं (?) । होइ जु (?) धण गेहु धणि लेवइ तहि मणु रमइ ॥२७ पत्तिउ जाणिउ मिल्ली वेस न कासु-वि अप्पणी। वुल्लंति विस-विल्लि माहप्पहँ विहवहँ गुणहँ ॥२८ बलि तहँ बलि तहँ जाउँ हलि हउँ काणण मृगडाहँ । दित जु दिदा अप्पणउँ जीविउ गायणडाहँ ॥२९ केहा ताहँ विसाय जे मारिय गीइण हरिण । कासु कहिज्जइ भाय अमिउ वि जइ जीविउ हरइ ॥३० गीयइँ कव्वइँ वल्लहइँ जाहँ न अमयहँ कुंड । माणुस वेसिण ते वसह अह गदह अह अँड ॥३१ ते चंगा सारंग गीयह कारणि जे मुया । । मारणहार न चंग जे मारहिँ वीसासि करि ॥३२ रन्न-निवास-जडाहँ हरइ पसूण वि जं हियउ । तं पिउ गीउ न जाहँ सच्चइँ तहँ रुच्चइ कसउँ ॥३३ भाऊ रुंख-वि जेण मिल्हहि कुंपल फुल्लियहि । जइ पर गीइण [तेण] खर पत्थर नहु रंजियहि ॥३४ तसु कव्वहँ तसु गाइयह मत्थइ निवडउ वज्जु । जं निसुणता कन्नडा अप्पहँ मुणहि न रज्जु ॥३५ भाऊ गीउ त गीउ जं कन्नहँ रलियावणउँ । काइँ त भणियइ घीउ जं मुहु मोडइ खाजतउ ॥३६ दसणहँ पिसुणहँ जीवियहँ विहवहँ अनु महिलाहँ । करिउ न सक्कइ सो-वि विहि वारणु विचलंताहँ ॥३७ कामिय दूमिय कामिणिहि मलिउ मरटु खणेण । काइँ विद्वत्तउ हय-विहिण थणहर पाडतेण ॥३८ अणुकूली विहि माणुसहँ जहँ नीजइ तहँ जाइ । महिल व पिम्म-गहिल्लडी जिम किज्जइ तिम थाइ ॥३९ २९.१. जाउ. ३. दिति, ३०.२, गीयण, ३. भाव. ३१.२. पियवहुं. ३९.२. जाई. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय जइ विच्चिज्जइ सीसु जइ पणमिज्जइ वइरियहँ । वलइ न तह-वि हु दीसु जइ रुट्ठी विहि माणुसहँ ॥४० चंदाइच्चहँ केम भाऊ आवइ आथवणु । ता दाणव ता देव जा विहि जोइ सामुहउँ ॥४१ * जिम जिम सुयण सहंति परिहउ लघुयत्तण मणइ । तिम ति[म] पिल्लिज्जति पत्तावसरिहि दुग्जणहि ॥४२ ईवैइ रीती वलवलइ कोइल महुर-सरेण । जह मुणि झाणहँ टलवलइ अखलिउ पंचसरेण ॥४३ चंद म ऊगवि लोइ गउ साजण-तणउँ जसु । आपणु खाँपणु जोइ लाइय तुहुँ लाज ह मही (?) ॥४४ साजण समउ न कोइ जं रुटु वि अमयहँ निलउ । जइ कटिजइ तोइ सुरहिउँ चंदण-रुक्खडउ ॥४५ तुह विहि केही आलि एहु ज दूजणु निम्मियउँ । मज्झन पसरि वियालि जासु पराइ तातडी ॥४६ दूजणु मरमु लहेइ लान्हउ घायउ पर-तणउँ । पाछइ तं जि करेइ जं खंताह (?) न वीसरइ ॥४७ इयइ जिणि सउँ संगि निच्छइ आवइ दोसडउ । सो दूजण-जण-संग ओ अच्छउ काजु नहीं ॥४८ आगइ अमिउँ झरेइ पाछइ सुणहउँ जिउँ भसइ । दूजणु किं न मरेइ ओ फीडइ नीजइ नहीं ॥४९ जिम कन्नुप्पलि ताडियउँ मइँ पिउ पिम्म धरेइ । रण-भरि पहरण-पाडियउ तिम रोमंचु वहेइ ॥५० आयड्ढिय-करवाल रण-वल्लह पिय सुणि वयणु । जइ मिल्लहि वरमाल सुर-बहु तो म. संभरे ॥५१ ४१.१. केमि. ४२.२. भणइ. ४३. २. नहु. ४५.३. अपणु. ४५.२. यमयहं. ४. सुरहुंठ, Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ प्रकोण दोहा त्रोडिवि छडिवि खग्गडउ नासिवि कहँ पइसेसि । वलि करि सुणहु वि भग्गडउ पागि चमक्कउ देसि ॥५२ बापहि द्रोहीजइ (?) वलउँ नाठइँ त रे नाठि मरेसु । (१)करेविणु रणि खलउ जीविउ काइँ करेसु ॥५३ मिल्हिवि सामिहि चाड प्रसाह (?) भइ नासिवि गयउ । भली विगोई राड सहियह-माही पातगी ॥५४ भंडाली मन फोडि मू-सामहु पइ बीहिसइ । एह ज अम्हह खोडि जं घर-सूरत्तणु वहइ ॥५५ घणउ घणेरउ ढोइ करि-केरउ मणु तोइ मयगल-तणइ कपोलि महुयरु मुहुँ डबोलि समुद्रहि मुक्की चाह बूढा अंसु-प्रवाह मउलउँ मउलउँ खाउवउँ । सल्लइ सल्लइ वाहिरउ ॥५६ आंग वि कन्न-पहरडा । ओ थाकउ ऊठइ नहीं ॥५७ महणारंभि जि रयण गय । तिणि भणि खारउ बापुडउ ॥५८ ५२.२. पयसेसि. ४. देइ. ५६.४. सल्लई. ५७.१. मयगलि. ५८.३ व्हा. १५ Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९. दंगडु जिहि जिण-धम्मु न जाणियए नवि देवहँ गुरु-भत्ति । तहि तउँ जीवा दंगडए वससि म एक-इ रत्ति ॥१ जहि सम्मत्तु न आलवण संजम नवि चारित्तु । . तहि तउ जीव म रइ करिसि झिज्जइ जेण परत्तु ॥२ दाणु सपत्ति न दिन्नं चंगं तव निअमेण न सोसिअ अंग । जिण न नमिअ भव गहण सत्थउ(?) हा हा जम्म गयउ अकयत्थो ॥३ जिम पंथि पहियउ निसंबलु दिसि पक्खा जोइ बहु भुक्खियउ । धम्म-विहूणा जीव तूं (!) जहि जाइसि तहि दुक्खियउ ॥४ जहि विहुँ पहरह मग्गडउ तहि जिय संबल लेइ । जहि चउरासी भव-गहण तहि अवहेरि करेइ ॥५ उच्छिन्नु न-वि लब्भिसइ मग्गंताँ तिणि देसि। काँइ थिट्टह चालियइ(?) संबलु अप्पण-रेसि ॥६ करि संबलु भरि भत्थडी इहि अप्पणा घराहु । अग्गइ विसमा वाणीया वेसाहड्ड कुआहु॥७ अत्थह जीविअ-जुव्वणह जो नवि लाहु लेइ । गुणि तुइँ धाणुक जिम परि हत्थडा मलेइ ॥८ गयउँ कडेवर चेइहरे मनु मेल्हे विणु हटि । बिहुँ लाहाँ इक्कु नही सूनी भावइ सट्टि ॥९ विसमी गय कम्मह तणी धीरा काँइ करंति । तहइ विस-कक्करि आहुडिय दृढ गंठिण भज्जंति ॥१० जं चंगं परिणामि सुहु तं जम्मेवि न लेइ । चालणि जिम मिच्छत्त जिउ कण छंडवि तुस लेउ ॥११ मिच्छादिद्वि पमाइ जिउ वार वार किमु वुच्चइ । जसु नरयह उप्परि डोहलउ तसु जिण-धम्मु कि रुच्चइ ॥१२ गय-खंधि चडेविणु गहिलडी पुण खरि केम चडिज्जइ । जिण नामेविणु कुट्टडी अन्नह किम नामिज्जइ ॥१३ १.३. जीवां. ४.४. दक्खीयउ. २. भक्खिय उ. ५.१. मग्गडइ. २. लेउ. ३. गहणि. ६.४. संबलु. ८.३. धाणिक्क. ९.१. चेइयहरे. २, हटे. ११.१. सहु. १२.४. तस. १३४. गहलडी. ४. केम. Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंगड १३१ संजमि भरि वोहित्थडउ मइँ जाएवउँ पारि । मण-वचणिहि ही जे लीउ पुण पडियउ भव-संसारि ॥१४ पर-परिभवु सज्जण-विरहु अनु दालिदह दाहु । ए एहा ऊमाहडा फेडइ जिणवर-नाहु ॥१५ म-न रूसउ म-न रोसु करु रोसहि नासइ धम्मु । धम्म-विहूणा नरय-गइ दुल्लह माणुस-जम्मु ॥१६ कोह पवावु देह-घरि तिन्नि विकार करेइ । अप्पउँ तावइ पर तवइ परतह हाणि करेइ ॥१७ जं दिज्जइ पंचंगुलिहिण तं परि अग्गइ थाइ । जम्मह केरइ हल्लोहलइ मोट कि बंधण जाइ ॥१८ सासि चलंतइ सउँ चलइ सम्मइ धारण भेउ । न-हु तेहइ हल्लोहलइ किम समरिज्जइ देहु ॥१९ जो न-वि पहिउ न पाहुणउ न-वि साहम्मी लोइ । सो जीवंतु रोइ धणि मूइ स मंगुल होइ ॥२० धणु राउलि जीविय जमइ रद्दउँ पक्खेलाह (?) । हूंतुं जेहि न माणीउँ छारड मुंढी ताहँ ॥२१ कल्लरि हऊउँ चलहरण(?) पंडरि हऊउँ ढज्ज(१) । कंत कुडीरउँ भज्जिसइ कइ कल्ले कइ अज्जु ॥२२ सूधा बाँधइ दीहडइ चिंतिज्जइ अप्पाणु । जीव पियाणा घंधलिहि कहि संजम कहि दाणु ॥२३ भारी-कम्मा जीव तूं जइ बुञ्झसि तु बुन्झि । सयल कुटंबू खाइसि [इ] मत्थई पडसिइ तुज्झ ॥२४ जिम सउणा रवि-उग्गमणि उड्डवि तरु छंडति । तिम कुटंबह मागसह मरिय दिसो-दिसि जंति ॥२५ थक्का गुड्डा दो-वि कर झामल हुई सु-दिट्ठि । जीवहि धम्म न संचीउं किय कुटंबह विट्टि ॥२६ अप्पणु रंजि म रंजि पर करि सच्चइ ववहारु । देउलि दिन्ने भाटके को भाऊ को आहु?) ॥२७ १४.१. संजम. वोहत्थडउ. २. जाणविउं. २०. १. पहीउ, २१. ४. ढारढ. २४.२ जायविउं. २५.४ मरीय. २७.३. पुहचइ. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय जीव कडेवर इम भणइ मइ हुँतइ करि धम्म । हुँ मट्टी तूं रयणमइ हारि म माणुस-जम्मु ॥२८ हियडा संकुडि मिरिय जिम मन पसरंत निवारि । जेता पहुचइ पांगरण तेता पाइ पसारि ॥२९ भासा-समिति सिक्खिआ जा जिण वयणह सारु । हियडउँ दुग्गइ संमहिय पट्रविरं सुविचार ॥३० - ३०.४. सविचार अंत : दंगड समाप्तं ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. नवकार-फल-स्तवन किं कप्पत्तरु रे अयाण चितहि मन भित्तरि किं चिंतामणि कामधेनु आराहहि बहु-परि । चित्रावे लिहि काजु किसिउँ देनंतर लंघ रयण - रासि - कारणिहि किसिउँ सायरु उल्लंघउ || चउदह - पूरव सारु जगे लड एह नवकारु । सयल का महियल सरहुँ दुत्तरु तरइ संसारु ॥ १ केवल - भासिय-रीति जिके नवकारु अराहहि भोगवि सुक्ख अनंत अंति परमप्पय साहहि । झाणिहि सुर- रिद्धि पुत्त - सुह विलसइ बहु - परि इणि झाणिहि सुर-लोकि इंद्र-पदु पामहि सुंदरि ॥ एहु मंतु सासुतउ जगि अचित चितामणि एहु । समरणि पाप सवे टलहि रिद्धि-सिद्धि नव-गेह ॥२ निय - सिरि उप्पर झाण- मज्झि चिंतवहु कमल नर कंचणम अटू - दल सहित तिसु माहि कनक वर । तिह बइठा अरिहंत पउम आणि फटिक मणि सेय-वत्थ पहिरेवि पढम पय चिंतहु नियमणि ॥ निवारिय- चउगइ-गमण पामिय- सासय सुक्ख । अरिहंते-झाणिहि जे मिलहिं तिह अजरामर मुक्ख ॥ ३ पनर - भेय तह सिद्ध बीय पय जे आराहहि M राता - विदुम-तण वन्नि सिरि सोहग साहहि । राती धोवति पहिरि जपहिं सिद्धह पुव्वहँ दिसि सयल लोय तह नरह होइ ततक्खिण सव्व वसि ॥ मूल-मंतु वसिकरण इहु अवरु सहू जगि धंधु । मणि मूली अउखध करहूं बुद्धि-हीण जाचंधु ॥ ४ १. १. चत चिंतउ भिंतरि १.२. आराहइ, आराहउं. १.३. लघइ १.४. उल्लंघइ. १.६. सरइ, तरि. २.१. अराहइ. २.२. परमप्पह, साहइ. २.४. पामइ. २.६. टलइ, नियगेहि . ३.२. चितवs. ३.३. तह, तिहां, अरिहंतदेव पउमासणि फिटकमणि ३.४. चितवइ, चिंतउ, जंपइ, मनमहिं. ३.५. निव्वारणं. ३.६. झाणिहि जिम, झणिहि तुम्हि लहउ, तुम्हि अजरामर ४.१. जे सिद्ध, ति सिद्धि, आराहइ. ४.१. साहइ. ४.३. जपइ सिद्धि ४.५. वसिकरण हुय. ४.६. ऊषध. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय दक्षिण-दिसि पंखुडिय नमो जपि आयरियाणं सोवन-वन्नह सीस-सहित सिरि-ऊपरि माणं । रिद्धि-सिद्धि-कारणिहि लाभ-ऊपरि जे ध्यावहि" पहिरवि पीयल वत्थ तेह मण-वंछिय पावहि ॥ इणि झाणिहि नव निधि हुवइ रोग कदिहि न-वि होइ । गज-रथ-हयवर-पालकी चमर छत्र सिरि जोइ ॥५ नील-वन्न उवझाय सीस पाढंताँ पच्छिम आराहिज्जइ अंग पुव्व धारंति मणोरम । पच्छिम-दिसि पंखुडिय कमल उप्परि जे झाणं पहिरवि नीला वत्थ तेह गुरु-वयण प्रमाणं ॥ गुरु लख लखहि जि ते विदुर तिह नर बहु फल हुंति । मन सुद्धि-विहूणा जे जपइ तिहि नर सिद्ध न हुंति ॥६ सव्व-साधु उत्तर विभाग सामलउ बइठ्ठउ जिण-धम्म लोय-पयासयंतु चारित-गुण-जिट्ठउ । मन-वयणिहि काएहि जपहिजे इक्कहि झाणहि पंच-वन्न विहि झाण जाणि गुरुएव-प्रमाणिहि ॥ अनंत चउवीसी जे हुइय हुइसइ अवर अनंत । आदि कोइ जाणइ नही इणि नवकारह मंत ॥७ 'एसो पंच नमुक्कारो, पद दस दिसि-अगनेइहि 'सव्व पाव पणासणो' पय जपइ नीरेइहि (?) । वाइव-दिसि झाएहि जपइ मँगलाणं च 'सव्वेसिं' 'पढमं हवइ ति मंगलं' ईसाण-विदेसिहि ॥ चिहुँ-दिसि चिहुँ विदिसिहि मिलिय अठदल कमल-विसेस । जो गुरु लख जाणी जपइ सो घण पाव हणेस ॥८ ५.२. जपइ नमो. ५.३.४. क्रम ऊलट-पुलट.५४. पीला, ति नर. ५५. हुइय, रोर निकंद कदे, कदइ, नहि. ५६. पालषी. ६.१. पाढंतय, पादता. ६.३. पउमासणि, पच्छिमसणि, कमल निय, सुह झाणं. ६.१. जोवहि(उ) परमाणंदु तासु गय, देव (देवांह) विमाण. ६.५. जे लक्खहि, तजेवि, जपइ तिहां, होइ. ६.६. तिहां, होइ.७.१. विभागि सामला बइठ्ठा. ७.२. जिट्टा. ७.३. जपइ ठाणहिं ७.४. तिहां नाझाण, ७.५. जगि हुईय, हुईण ए, होसी ७.६. एह नवकार महंत. ८.१. दस गेवहिं अग्गेइ. ८.२. वाइवदिसि झाएहि पढम, जाप; निराहहि, नीरेहिय, नीरेइ. ८.३. झाएहिं पढम, जपइ. ८.४. पदेसिं, पदेसइ. ८.५. चउ; कमल ठवेइ. ८.६. गुरु लघु; खवेइ, हवेइ, षणेइ, यणेस. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ववकार-फल-स्तवन इणि प्रभावि धरणेंद्र हुवउ पायालह सामी समली-कुमरि उत्पन्न भिल्ल सुरलोयह गामी । संबल केवल बे बलद पहुता पंचम कपि सूली दीधउ चोर देव थिउ नवकारह जपि ।। सिवकुमार मन वंछि करे जोगी लिद्ध मसाणि । सोना पोरिस सीधल उ इणि नवकार-प्रमाणि ॥९ छींकइ बठइउ चोर सिद्धि तत्तक्षण पामी अहि फीटिवि हुइ फुल्ल-माल नवकारह नामी । वच्छरुवा चारंति बाल जल-नदी-प्रवाहिहि" वीधिउ कंठिहि उयर मंत जपियउ मन-माहि ॥ चिंत्या काज सवे फलहि इहरति परति विमासी । पालित-सूरिहि तणिय परि सीझइ विज्ज अगासि ॥१० चोर धाडि संकटु टलइ राजा वसि होवइ तित्थंकर सो होइ लक्ख विधि गुण संजोवइ । साइणि डाइणि भूय पेय वेयाल न पहवइ आधि व्याधि ग्रह-गणह पीड तह किमइ न होवइ । कुद्र जलोदर रोग सवे नासइ ईणिइँ मंत्रि मयेण । सुन्दरि तणिय परि.... नव-पय-झाण कयेण ॥११ एक जोह इह मंत्र-तणा गुण किता वखाणउँ नाण-हीण छउमत्थ एह गुण-पार न जाणउँ । जिम सेत्तुजय तित्थ-राव महिमा उदयंतउ सयल-मंत-धुरि राय-मंतु राजा जयवंतउ ॥ तित्थंकर-गणहर-पणिय चउदह-पूरव-सारु । इणि गुणि अंत न को लहइ गुणि गरुवउ नवकारु ॥१२ ९.१. हुयउ, हुअउ. ९.२. सवली कुवर. ९.३. देवह गति. ९.४. थयउ; नवकारहिं. ९.५. लियउ, लीध. ९.६. पुरिसउ. १०.१. एक अगासइ गामी. १०.२. नामिय, गामी. १०.३. वाच्छरूआ; नवनेह प्रमाणिहि; प्रवाहइ. १०.४. दीधउ, कांटि, उवरि मंत्र जपिउ. १०.५. चिंता; सवे सरेहि. १०६. श्रीपालित सूरि; परइ, विद्या सिद्धि आगासि. ११.२. होइ, गुण विधि. ११.५. एणई, ईणई, ईणि, मन्त्रेण, ११.६. नव परंति. १२ ३. सेत्तुज्जइ कप्पतित्थ; उदवंतर, १२.४. राठ मन्त्र. १२.५. पमुह, पणीय. १२.६, इहनी आदि न को लइह, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय अड संपय नव-पूय-सहित इगसठि लहु अक्खर गुरु अक्खर सत्तेव जाणि जाणहु परमक्खर । गुरु जिणवल्लह-सूरि भणइ सिव सुक्खह कारण नरय-तिरय-गइ-रोग-सोग-बहु-दुक्ख-निवारण ॥ जलि थलि महियलि वण-गहणि समरणि होवइ चित्त । पंच-परमेष्टि-मंत्रह तणो सेवा कीजइ नित्त ॥१३ १३.२. जाणु जाणहि. १३.३. श्रीवल्लह; बहु सुक्खह. १३.५. करिज्यो मित्तु; हुइ इकचित्त, नित्त. १३.६. देज्यो नित्त; चित्त. ___अंत: इति श्रीनवकारफलस्तवनमिदं ॥॥ इति श्रीपंचपरमेष्टिस्तवनं समाप्त ॥ इति श्री नवकारस्तोत्रं । संम भवतु । बाई अमोली वाचनार्थः छः ॥ इति श्रीनवकारफलं संपूर्ण । सं १९६५ वर्षे का शुदि २ बुद्धवासरे लिषितमिदं ॥ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्त्व के शब्दों का कोश [संक्षेपः. गु.-गुजराती, पं.=पंजावी, प्रा. प्राकृत, प्रा. प्राचीन, फा.=फारसी, बं बंगला, म. मराठी, रा. राजस्थानी सं.-संस्कृत, सिं.-सिंधी, स्त्री. स्त्रीलिंग, हिं. हिंदी, तुल.=तुलनीय] अउखध ४०. ४. औषध, गु. ओखद अपर पाख २८.७ अपरपक्ष, श्राद्धपक्ष अउगी. (स्त्री.) २३. ३६ मूका, म. उगी अप्पणउं ३८.२४ आत्मीयम् अंचिय १०. ५ अर्चित, पूजित अप्पाणु १०.४४ आत्मानम् अंबाइय ५. ४७ अम्बामातृ, गु. अंबाई अब्बुय १९.२४ अर्बुद, गु. आबू अंबाविउ ५.४३ प्रचारितः (तुल० गु. अंबा अमिय वूठ १०.४० अमृत-वृष्टि ___व) अम्मा-पिइ २.१.८, अम्मा-पिउ २.२.१७ अगरु उखेवू- १९. २३ सं. अगरं उत्क्षेपय्-,गु. अगर उखेववू __ अम्बा-पितृ अरडक-मल्ल ७.१३ अजेय मल्ल अग्गि (स्त्री.) १. ६४ अग्नि, गु. आग (स्त्री.) अरणइ ११९ अरति, असुख अच्चब्भुय १२. २, १३. १२, अचंभू १२. अरासणउँ ७.३४ गु. आरासणुं १३ अत्यद्भुत [तुल० गु. अचंबो] अरु ५.२५, १९.२६, २१. ५ अपरं च, अच्छर १४. ८, अच्छरी ७. ४१ अप्सरस् प्रा. हिं. अरु अच्छइ १. ९२, अछइ २३. २४, छइ अल्लू ८.८ दा-, गु. आलवू १.९३ अस्ति, गु. छे अवझा ४.६ अयोध्या अछ्- २३.१६ स्था. अवरतउ ६.१९, ३७.७ अभिलाषः, गु. अज्ज-कल्लि २७.३.५ गु. आजकाल, हिं. आजकल ओरतो अजिउ १६.४७, अज्जिय ३७.२, अजिउ अवसोयण ३५.७ अवस्वापिनी अवारिय-सत्त ३७.९ अवारित-सत्र २३.२४, अजीय २७.३.२, अजीउ २८.१४ अद्यखलु, अद्यापि, हि. असगाह २४.२ असद्ग्राह, दुराग्रह असलेष २४.३ आश्लेषा अजहु, गु. हजु, हजो अड ४०.१३ अष्ट असी ५.२७ अशीति, हिं. असी अड्डिय ९.११ तिरश्चीना, गु. आडी अहिनाण २.३.१३, २५.२ अभिज्ञान, गु. अणखाइय ५.९ अप्रसन्न, रुष्ट (तुल० गु.अणख) एंधाण अणु १.५ अन्यत्, अन्यच्च, गु. अने अहिवि २७.८ अविधवा अदभुद ३२.२, अदबुद १९.९,३१.१,३ आउज ३२.४ आतोद्य अद्भुत, गु. अदबद आऊखउ ५.२७ आयुष्कम् , गु. आवखु अनइ ११.८ [सं. अन्यदपि गु. अने ऑबुलउ २१.७ आम्र, गु. आंबलो अनेरउ २३.३ अन्यतर, गु. अनेरो आगलिय : स्त्री.) २४. ८ अधिका (तुल० गु. अनेसउ २०.४ अन्यादृश आगळ) Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय आगिवाण ४,२७ अग्रानीक (तुल० गु. आगेवान) आछइ ७.१८, ५१, २०.१० सं. अस्ति, आडात्रेडा २९.१८ गु. आडात्रेडा आपणपउ १.४८,१०.२६ आत्मा, स्वः आपणि १०.४४ गु. आपणे आपुलउ २७.५, आपुलु, २०.१३ आत्मीयः (तुल० म. आपुला, गु. आपणुं, हिं अपना) आमोडउ २१.११, २९.१७ . आम्मुकुटः (तुल० गु. अंबोडो) । आयडूढिय ३८.५१ आकृष्ट आल ५. १० मिथ्याभियोग, गु. आळ आल २३.३६ मिथ्यावचन (तुल० गु. आळ) आलि १६.७६ मिथ्या आलि ३८.४६ दुर्विलसित .. आली २०.१ सखी आवट्टिय १२.३८ नष्ट आवागमण ९.९ गमनागमन, गु. आवा गमण आस १.७६ अश्व आसउज २४.४ आश्वयुज, हिं आसौज आसोय ५.५३ आश्वयुज, गु. आसो . इंदियाल ५.११, १०.२१ इन्द्रजाल इक-संथ १६.९ एकसंस्था इगसठि ४०.१३ एकषष्टि, गु. हिं. एकसठ इत्तलउ १२.१३ गु. एटलं, हिं. इतना इहरति ४०.१० इहलोके ईहू १.१२३, १९. २७,२०.२ ईहू, ईच्छ्-, उच्छाह ३३.४ उत्साह, गीतप्रकारविशेष ऊजिल १९.२ ऊर्जयंत उज्जाणउँ १२.३९ धावत् (तु उजावू) उडमर १२.६ उग्र भय उढण २६.५ परिधान उद्धरियलि ५.४४ उद्धृता उपरवट्ट २९.२२ अधिक (तुल० गु. उपरवट) उन्भ- २.२.२८ ऊर्वीकृ-,गु. भुं करवू उमागि १.७५ उन्मार्गे उम्माहियउ १०.५३, १९.८ उत्कण्ठितः उल्हारो २४.३ (?) उवझाय ४०.६ उपाध्याय उवर ५.९ उदर उवलक्खू २.४.२९ उपलक्ष्-, गु. ओळखवू उवास ३७.१ उपवास उसिणीस १३.१३ उष्णीष उसीसउँ ५.३४,४७ उच्छीर्षकम् ,गु. उशीसुं उसूर १९.१४ [सं.उत्सूर] गु. असूर ऊआस ६.९ उपबास ऊगट २२.१० उद्वर्तन, गु. ऊकटो, सर० हिं. उबटन ऊजिल ५.३९ ऊर्जयन्त ऊटवणिय ४.२९ उत्थापनिका (१) ऊबाहुल २३.३८ उत्कण्ठित ऊभउ १२.३१ ऊर्ध्वः, गु. उभो ऊमाहउ २३.१६ उत्कण्ठा ऊमाही २३.३९ उत्कण्ठिता ऊरिण ५.४३ उहण, ऋणमुक्त ऊलट १०.५३ हर्षोत्साह, गु. ऊलटे ऊसिय १४.२७ उत्सुक एकलडउ १.३८ एकाकी, गु. एकलडो एवड° २.३.१३ एतावत् , गु. एवईं ओडवू ७.१२ अर्पयओलगाणउ २९.१० सेवकः, गु. राज. ओळ. गाणो कउडी १६.४० कपर्दिका, गु. कोडी, हिं. कउली २७.२.६ कवली, राज. गु. कँवली, जैन सं. कपरिका कउसीसउ १०.१९ कपिशीर्षकं, गु. कोशीसुं कंचू २९.१७ कञ्चुक कंसाल ३२.३, ३६.९ वाद्यविशेष कट्ट- ३८.४५ कृन्त्, हिं. काटना कडेवर ३९.२८ कलेवर Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दकोश १३९ कणइर-कब २.३.२५ कर्णिकार-यष्टिका, गु. कणेरनी कांब कत्तिग २३.११, कत्तिय २४.५ कार्तिक कदिहिं ४०.५ कदापि, गु. कदी कन्ह १८.१७ कृष्ण, गु. कहान, हिं. कान्ह कमगा ३५.११ [सं. क्रमाग्र] चरणाग्र कमठाय ७.३०,३१,३४ कर्मस्थान (तुल० गु. कमठाण, कमठायो) कमढ १२.१९ कमठ कय ३७.४ अथवा, गु. के, हिं. कि कयलि १३. ४२ कदली, गु. केळ कयवन्नउ २५.१ कृतपुण्य कयाणउँ ५.१८ क्रयाणकम् (तुल० गु. करि याणु) करडि ३२.३ वाद्यविशेष करतार ५.१६, ३७.३९ फा. (गु.) किरतार कल २०.३ कर्दम, गु. कळ कवडि-जक्ख १९.१९ कपर्दियक्ष । कवित्त २०.६३ [सं. कवित्व] काव्य, हिं. कुमास ६.२९,३० कुल्माष कूच ४.२८ [सं.कूर्च] श्मशू कूवडिय २२.१५ कूपिका केकाण ५.१३ अश्व-जाति-विशेष केडउ करइ १२.४० अनुधावति, गु. केडो करे केवडियालउ २६.२ केतकीयुक्तः, गु. केव डियाळो केही ३८.१३ कीदृशी कोविलडी ३८.१ कोकिला, गु. कुवेलडी क्षित्तिग २३.११ कृत्तिका (?) खंचू- १२.३० गु. खेंचवु, हिं. खिंचना खंचि करि ३७.४ हिं. खिंच कर खपण ५.५०, खोपण ३८.४४ क्षति, लाञ्छन, गु. खांपण खंभायत . ७.३७ स्तंभतीर्थ, गु. खंभात खडहड्- ३०.३ गु. खडखडवू . . खर-छूच ४.२८ (?) खर-सिल ७.३२ खरशिला, आधारशिला खलहल २२.६ गु. खळखळ खाल २.३.३४,१२.४१ गु. .खाळ खिज्ज्- ९.१२ खिद्- (तुल० गु. खीजवू) खिल्ल- ९.१८, खिल्- २३.२७ क्रीड्र, गु. खेलवू, हिं. खेलना ... खिव्- २४.२ विद्युत्स्फुरणे, सि. खिवणु, पं खेउणा खीजविय २७.२. कर्थिता, गु. खीजवी खीना २३.९ खिन्ना खुप २२.१०, खूप २६.२ गु. खूप . खुत्तउ ९.१७, खूतउ २०.३ निमग्नः, गु. खूत्यो खेतल १२५८ क्षेत्रपाल खेलउ १४.४२,१५.१० क्रीडकः (तुल० गु. खेल) खेलाखेली १२.५७, १५.१९ पुनःपुनः ___ क्रीडनम् कवित कसमसतीय २७. २.६ गु. कसमसती कसवट्टउ ३८.६, कसवट्ट ५.२० कषपट्टः, । गु. कसोटी, हिं.कसौटी। कसार २४.७ गु. कंसार काणि ७.२३ चिन्ता कान्हइ ७.१८ समीपे, गु. कने गंधि (स्त्री.) ५.१५ गंध, गु. गंध (स्त्री.), कारिमय ५.१६ कृत्रिम, रचित, निष्पादित . कासग २७.४ कायोत्सर्ग किछउं २७.४.१ कीदृश किराण १४.१६ क्रयानक, म. किराणा . (तुल० गु. करियाणु, हिं. करियाना) किवाड ५.२३ कपाट, हिं. किवाड (तुल० गु. कमाड) कुंपल ३८.३४ कुड्मल, गु. कुंपळ कुडि ५.१५ [सं. कुटि] शरीर कुडीरउं ३९.२२ कुटीरकम् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० खेवउ २४.१२ अगुरूत्क्षेप खेह १२.१८ धूलि खोड्- ३२.४ खण्डय्खोड ३८.५५ क्षति, गु. खोड गवर ११.११ गजवर, राज. गेमर गजवडि २४.७ गजपटी, गजचित्रयुक्त वस्त्र गज्जु, विज्जु २३.३५ गर्जितम् विद्युत्; गु. गाजवीज गडाउ ७.३२ गर्त (तुल० गु. गडारो) गणहर ५.४२ गणधर गमार २३.१९ ग्राम्य, मूर्ख गयँदवय १९११ गजेन्द्रपद गल. ३३.५ गण्ड, गु. हिं. गाल गहिली २.३.३९ उन्मत्ता, गु. घेली गहवरि २४.५. क्षुब्ध, व्याकुल, गु. गभरावं, हिं. गमराना गांग ४.१५ गंगा गायण २६.७ गायक गारउ ५.३५ अभिमान गालिमसूरा २२.१४ गण्डोपधान, गु. गालमसूरिडं गुजरात २१.४८, गूजरात ७.११ गुडुङ ३९.२६, गोडउ १२.४१ चरणं, हिं. गोड, गु. गूडो गुड्डिया १५.९ पताका, गु. गूडी गुरुव ११.१७ विवाह भोज, गु. गोश्व गुलगुल- ३३.४ गजगर्जनरबे गुलियउ ९.१६ मधुर, गु. गळ्युं गूगूलिया ७.५ ब्राह्मण जाति विशेष, गु. गूगळी गूजस्देस ७.२,१० गूर्जर देश गूतउ २००३ व्याकुलीकृत गोठिय ७.२३ गोष्ठिक, गु. गोठी गोती ५.३० गोत्री गोयम १०.७ गौतम गोयल २९.१२ (१) गोरड २१.४ गौरी ( तुल० गु. गोरडी ) गोहडिय ४.१८ गोधा Jain Educationa International प्राचीन गुर्जर काव्य संचय घणउ २.४.७ [सं. घनः ] गु. घणो घबक्- २९. १७ गन्धप्रसरणे (?) घय २.४.५ घृत घर-घरणी ५.२८ गृहिणी घरट्ट २९.२२ पेषणी ( तुल० गु. घंटी) घलहल ५.३२ प्रभूत घाघरि ६.२२ [सं. घर्धरिका ] किङ्किणी घाट २६.५ कौसुम्भ वस्त्र, गु. घाट घाउ १६.१२, २९.१४ वञ्चितः घारित २०.१३ विषवेगमूच्छितः (तुल० गु. धारण) विदिणि ३१.३ रास-नृत्य-विशेष घुडुक्क २४.२ गर्जने घुसिण ३५.८, घुसण २९.१७ घुसृण घेउर २४.७ घृतपूर, गु. घेवर घोल ५२२ गु. घोळ, घोळवु चउमासयं १६.२८ चातुर्मासकम्, गु. चोमासुं चउवाह २४.२ चतुःपार्श्वम् (तुल० गु. चोपास) चंगिम १०४ सुन्दरता चंदाइच्च ३८.४९ चन्द्रादित्य चंदिम १२.४ चन्द्रिका चंपय १८.१६ चम्पक, गु. चंपो, हिं. चंपा चडावलि ५.४८ चन्द्रावती चडिउत्तरिय २३.१ आरोहावरोहिका, गु० चडऊतर चमक्कउ ३८.५२ शीघ्र - दंशः चयू - १७.१३ त्यागे चवेड १५.१३ चपेटा चव् २४.२ कथने, गु. चवकुं चांद्रण १२.३२ चन्द्रिका, गु० चाँदरणुं चारि १९.२९ चर्चरी चाड ३८.५४ भक्ति ( तुल० हिं. गु. चाड) चाणउरि ८.४ चाणूर चाह - ५ ४ दर्शने चि- १.३ चतुर् चित्तमास ३५.६ चैत्रमास, हिं. चैत For Personal and Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दकोश चिय ५.१५ चिता, गु. चेह चीत २४.१० चैत्र, हिं. चैत चुलसी १३.२५ चतुरशीति चेलुका १६.१२ शिशु सर० गु० चेलका च्यारि २५.१३ चत्वारि, गु. च्यार छडउ पयाणउ ५.१४ एकाकि प्रयाणम् ( तुल० गु. छडे परियाणे) छन्नवइ १२.२१ षण्णवति, गु. छन्नु, हिं. छानबे छह ३.३६ षट्, हिं. छह छात्र २६.५ छत्र छार ३९.२१ भस्म, गु. हि. छार छिरिका २९.१९ (?) छडी १२.४१ वृतिविवर, गु. छोंडी छुडुपुडु ६.२०, छडपडु २७.३.६ शीघ्र छुहिय २३.२४ क्षुधित छेय १९.२२, छेह १०.४४ [ सं . छेद ] अंत (तुल० गु. छेडो) छोह २९.१४ क्षोभ छोहलउ (? सोहलउ ) ५.११ उत्सव:, हिं. सोहला जन्नत्त ८.१२ जन्या यात्रा, हिं. जनेत ( तुल० गु. जान ) जन्य १०.६ यज्ञ जरासिंधु ५.३९, ८.४ जरासंध जलजलियउं २२.८ आर्द्रभूतम् (तुल० गु. झळझळयाँ) जवल २१.६ [सं० यमल ] सदृश जाईसर १४.३२ जातिस्मर, पूर्व-भ जाख ७.५१, २५.६ यक्ष जाचंध ४०.४ जात्यन्ध जाण १०.१५ ज्ञाता, गु. जाण जात ७.४५ यात्रा जादर ११.७, २०.७,२४.७ बहुमूल्य वस्त्रप्रकार जान ११.११ गु० जान ( तुल० हिं. जनेत ) जानउत्र २६.४ जन्यायात्रा, (चुल० हिं. जनेत ) जामइ २३.२१ याम्यते, दम्यते Jain Educationa International -भव - स्मरण १४१ जामलि २७.३.३ पार्खे, म. जवळ जालउर १२.४८ जाबालिपुर, राज. जालोर जालउरउ ५.२, ५.४९ जाबालिपुरीय ( तुल● गु. झारोळी) जिके ४०.२ ये, राज. जिके जिणहर ६.३५, १०.३६ जिनगृह जीपइ ११. १४ जीयते जीमणवार २८.९ भोज, गु. जमणवार ( तुल० हिं. ज्योनार) जी ४०.१२ जिह्वा जुन्ह १३.४४ ज्योत्स्ना 'जु २१.१ हिं. 'जू ( तुल० गु. जी ) जूतउ २०.३ युक्तः, गु. जूत्यो जेठ १६.२१ ज्येष्ठः ( तुल० गु. जेठो ) जेता ३९.२९ यावत्, हिं. जितना, गु. जेटलुं जेसल ५.४४ जयसिंह जुहार- २५.१० नमस्करणे, गु. जुहार, जुहारना हि. जोहार १९.२१ नमस्कार, गु. हिं. जुहार झकोल- २४.९ जलमज्जने ( तुल० गु. झकोळवु) झखू- २३.३६ प्रलापे झखोलिय २७.३ जलभृत झगमग- २२.११ प्रकाशप्रस्पन्दे, गु. झगमगवुं झगमग ११.१५ गु. हिं. झगमग झड ३.२२ निरंतर वृष्टि, गु. झडी झबक्क्- २२.६, २३.२ प्रकाशप्रस्पन्दे, सु. झबक झबझब २२.६ गु. झबझन झल २४.१३ ज्वाला झलकू - ३६.५ प्रकाशप्रस्पन्दे, गु. झळकवुं झलझल- १२.१९ उद्वेलने झलहल- २२.११ प्रकाशप्रस्पन्दे, गु. झळहळवं झंझ २३.११ कृश (?) (तुल० गु. झांझामूंझुं) झाण २२.२५ ध्यान झामल ३९.२६ निष्प्रभ झायू- १.१२६, १७.१० ध्याने For Personal and Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ झाल १.६४ ज्वाला, गु. झाळ झालियउ ४.१५ गृहीतः, गु. झाल्यो झिज्जू- २३.२ क्षये झिरिमिरि २२.६ गु. झरमर झुंपडउं ३८.१७ कुटी, गु. झंपडुं झुट्ठी ५.१० असत्या, हिं. झूठी, गु. जूठी झूझ २९.११ युद्ध चक्क ३६.९ तंत्रक्क, वाद्यविशेष टलू- २.२.२४ नाशे, गु. टळवु टलटल- १२.१९ कम्पने, गु. टळटळवु टहकउ १०.५६ कूजितम्, गु. टहुको टिंट ३५.३ द्यूतस्थान टिंटड २९.१२ निःसत्त्वः, गु. टेंटो टीली ११.१५ लघु तिलक टोहण २३.१५ क्षेत्रे पक्षि-वित्रासन - नादः ( तुल० गु. टोवुं, टोयो) ठवू - २४. १० स्थापने ९.१८ ते पणः ठाउ १०. ५५, ठात्र ४.१४ स्थान, गु. ठाम डंगुर ६.१.१ वादनदण्ड : ( तुल० गु. डंगोरों) डबोल- ३८.५७ निमज्जने, गु. डबोळवं डिंव १२.६ विप्लव डुंगर १९.८ गिरि, गु. डुंगर डुंब ५.३५ डोम्ब डोकरि ६.२८, २५.१३ वृद्धा, गु. डोकरी डोह्- २९.७ मलिनीकरणे ( तुल० गु. डहोळं ) ढणहण १४.३७ रुदनरवे ढुक्की ३७.१ समीपागमन दूकउ २९. १८ समीपागतः, गु. दूक्यो ढोय्- १३.४२ अर्पणे, हिं. ढोना त्थदंड १८.१० अनर्थदण्ड तच्छाविय ३.२५ तक्षित तडि २.३.३४ तटे, समीपे तडिच्छड १३.३७ विद्युच्छट ! तणु (स्त्री.) ३८.१ देह. ततलउ २३.२५ तावन्मात्रः (तुल ०। गु. तेदलो) Jain Educationa International प्राचीन गुर्जर काव्य संचय तेलवेट ७.४० उपत्यका, गु. तळेटी तलारउ ५.३७ नगररक्षकत्वम्, नगरक्षणकार्यम् तलाउलिय ६. १७ तडागिका ( तुल० गु. तळावडी) तलिण १३.३८ श्लक्ष्ण तल्लच्छय ३.१८ [सं. तल्लिन्स ] इच्छुक तांतण २७.४.३ तंतु, गु. तांतणो तक्खणि १.११२,११.१८,६.१६,३,२३३, तखणि ६.१२, ताखणि ६.११,३०, ताखिणि ६.११ [सं. तत्क्षणे ] तदा, बं. तखन " ताछू - २०१० तक्षणे ता. २२.१३ विस्तारणे ताडिय २९.१७ विस्तारित, संमुद्रणे तातडी ३८.४६ चिन्ता ताल - ५.२३ तालकेन मुद्रणे ताल (स्त्री.) ३२.३,३६.९ वाद्यविशेष तिउली ३२. ३ वाद्यविशेष तिथ २७.२.२ तत्र तिलतार ३८.२३ स्नेह तिलिमा ३६.९ वाद्यविशेष तिहुयण १४.७ त्रिभुवन तीथ ७.१७ तीर्थ तुडि ३०. ३,७ स्पर्धा तुडि वसिण १२.२९ अकस्मात् ते - २.३.१३ आकारणे, गु. तेडवु तेसट्ठि ३३.२ त्रिषष्टि तेता ३९.२९ तावन्मात्र, हिं. तितना, गु. तेलु तोतर २८.२५ तोतला तोतलु २७.४. २ गु. तोतळो वक्क ३३.४ वाद्यविशेष, गु. बाळु त्रीखउ २९.२८ तीक्ष्णः, गु. तीखो थक्कू - ३८.२६ स्थगने थट्ट ५.२०, थाट २६.६ (अव) श्रेणि ( तुल० For Personal and Private Use Only गु. ठठ) Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दकोश थणहर ३८.५ स्तन थरहर २२. ६ गु. थरथर थबक्क २२.१२ स्तबक थाहर ७.१९ स्थान, गु ठार थुणू- ५.४८ स्तवने थोडउ १९.२१ स्तोकः, गु. थोडो थोडिलउ ३७.२ स्तोकम् दंदडियउ ६.१५ पलायितः दग र ९.१३ [ सं . उदक- रजस् ] जल-कण दंगड, दंगडु ३९.१ द्रङ्गः, ग्रामः दउ ४.१५ कन्दुक, गु. दडो दsas २६ ३ विद्रवण दह २४.२ दस दापु १६.४ देयम्, गु. दापुं दालि ५.२२ दाळ, हिं. दाल दालिद ५.५० दारिघ्र ( तुल० गु. दळदर) दिखाल्- १६.५, १० प्रदर्शने ( तुल० हिं. दिखलाना) दिणियर ४.२२ दिनकर, सूर्य दिवालिय ५.४६ दीपावलिका, गु. दिवाळी, हिं. दिवाली दिह २४.२ दिशा दीन्हु ६.२१ दत्तम्, राज. दीनो दीसु वलइ ३८.४० गु. दी वळे दीह ३६.१ गु. दीर्घ दीह ९.७ दिवस, गु. दी दीes २७.३.६, ३९.२३ दिवस ( तुल० दहाडो) दुइ १९.१, १८ द्वौ, हिं. दो दुत्थ २८.२३ दुःख दुहेलउ १.२३, २४.११ दुष्करः, गु. दोहालो देवलवाडउ ७.२६ [सं. देवकुलपाटकः, गु. देलवाडा दोहलउ ५.३३ दोहद, स्पृहा (तुल० गु. डोळो) द्रेठ २१.४३ दृष्टि धंघउ ५.५, १०, धंधु ४०.४ दैनंदिनीया Jain Educationa International १४३ व्यवहारार्था प्रवृत्तिः (तुल० गु. धंधो, हिं. धंधा ) धण १४.२४, ३८. १२, धणि ९.९, १६.३९ प्रिया ( तुल० गु. धण ) धवलहर १४.२० धवलगृह प्रसक् १४.३९ प्रस्पन्दने ( तुल० गु. श्रासको ) धाड् ८.४ विनाशने धी ६.२२ दुहिता धुय २४.१५ ध्रुव धुरि ४.३४, १०.६१ आदौ, प्रारंभे ( तुल० गु. घरथी ) धूअ २.१.३, धूय ८.११,२७.१, धूव ८.१२, धू. १७.१२ दुहिता, कन्या धोवति ४०.४ गु. हिं. धोती प्रायउ १२.३४, धाय २९. १४ भ्रात, तृप्त, गु. धरायो नइहर ११.९, [सं. ज्ञातिगृह, प्रा. नाइहर] हिं. नइहर नडू- ८.७ आकुलीकरणे नड - पिक्खणउं ९.१५ नट प्रेक्षणकम् नाण ४.४७, ५.२, २३.४० ज्ञान नायल २९.१२ (१) नारिय-कुंजरु २१.९,४४, नारीकुंजर २९.१६ नारीमय कुंजर, कामदेव बिरुद - विशेष नालिय ५.५,६,२१ मूढ निंदुव २८.२८ निन्दू निचु १७.१७ नित्यम् नित्तुल- ३७.४ तोलने निरोप ७.२४ आदेश निलुक्क ३८.८ गुप्त, तिरोहित निवल ६.२५, ३१ निगड निवालिय २४.११ नवलमालिका निव्वइ २९.२२ निर्वृति नेउर ११.३,२१.१० नूपुर नेवत्थ ३४.२ नेपथ्य न्याइ २७.४.५ गु. न्याये पयठ्ठ ७.४४, पइठ ७.४३ प्रतिष्ठा For Personal and Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय पइसारो २४.६ प्रवेशः, गु. पेसारो पंखुडिय ४०.५ दल, गु. पांखडी पंगुर्- २३.२६ प्राङ्कुरय्-, गु. पांगरवू पंचालिय १२.३ पञ्चालिका, पुत्तलिका पखइ २७.४.४, पाखइ ४.३३ विना पखि १.७ पक्षे पग १२.५६,१४.१५, पाग २१.१०, ३८.५२ चरण, गु. पग पगि पगि ६.३ पदे पदे (तुल० गु. पगले पगले) पच्चल ३५.१ समर्थ पच्छिमहरए ६.२५ गृह पश्चाद्-भागे पछताविय २८.२० पश्चात्तापिता, हिं. पछताई, गु. पस्ताई पजुन्न ५.४७, १९.१८ प्रद्युम्न पटउली २७.२.६, पटोलउँ ५.२२ पट्टदुकुल, पट्टकूल, गु. पटोलु, पटोळी पटराणी २०.६ पट्टराज्ञी, गु. पटराणी पडच्च १२.३० प्रत्यञ्चा, हिं. पनच, गु. पणछ पडिखू. २३.३४ प्रतीक्षायाम् पडिछंदा २.३.१२ प्रतिच्छन्दसू पडिवन्न २३.२८,३४ प्रतिपन्नम्। पण १८.३ पञ्च पणवीस १२.१५ पञ्चविंशति पतीज- २३.२१,२२ प्रत्यये पतीजउ २०.१६ प्रतीत (तुल० गु. पतीज) पतीठिय ७.३८ प्रतिष्ठा कृता पनर ४०.४ पञ्चदश, हिं. पनरह, गु. पंदर परण. ११.९ परिणी- ,गु. परणवू परत ५.१२,१४,४०.१० परत्र, परलोक परता १०.६२ (?) परमप्पय ४०.२ परमात्मा परिक्कम १९.२५ परिक्रमा परिचयू- २२.२२ परित्यागे पलित्त ३८.१७ प्रदीप्त पलीवणउ ३८.१८ प्रदीपनकम् , गु. पलेवणुं पहुतउ २.१.१८ प्राप्तं, गतं, गु. पहोत्यो पाउंछणय १४.१२, १४.२१ [सं. पादप्रोञ्छनकम् गु. पायलूछणुं (तुल० हिं. पोंछना) पांगरण ३९.२९ प्रावरण, गु. पागरण पाँडर ४.२४ (१) पाखलि २७.३,४ परितः पाखियउ २१.८ पक्षी पाखे ६.५ परितः पाच- २०.२ सं. पच्यूपाछइ ३८.४७ पश्चात्, गु. पछी पाछोपउ ५.५१ (?) पातगी ३८.५४ पातकी पातलि २८.१९ गु. पातळ पात्र ११.११, २६.५ नर्तकी पान-बीड ५.२२ ताम्बूल-पुट, गु. पान-वीर्यु पाम्विउ ३०.७ प्राप्तः, गु. पाम्यो पालउ ५.३१ पादचारी (तुल० गु. पगपाळो) पालकी ४०.५ पर्यंकिका, शिबिका, गु. पालखी पालित-सूरि ४०.१० पादलिप्त-सूरि पावसकाल २२.२० प्रावृट्काल पिअ-हर २.४.९ पितृगृह, गु. पीहर, पीयर पिउ १६.१५ पिता 'पिक्क २.१.२२ निष्ठीवन, हिं. गु. पीक पियर २.४.१०, १४.६ पिता पियाण ४.२० प्रयाण | पिरायु २७.३ परकीयः, गु. परायो पिरिथिम ५.४३ पृथ्यी पिल्ल- ९.१८ प्रेरणे पिहाण ३६.५ पिधान पीठ ६.१९ आपण, गु. पीठ पीयल ४०.५ पीत, गु. पीळु पीहर ३७.४ पितृगृह, गु. पीहर पुडइनि ५.११, २४.८. पुटकिनी, कमलिनी पुरुसलउ २१.५० पुरुष Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दकोश - १४५ बारह मास २४.१ हि. बारहमासा, गु. बारमासा बाह ३३.५ बाष्प बिल्लं बिल्ला ३७.२ (१) बुबारव ३०.२ पूत्कार, आक्रोश (तुल० गु. - बूम) पुला- २७.२.७ पलायने पूणइ (? पूगइ) ६.१४ प्रभवति, गु. पूगे पूय ३१.३ पूजा पेट १२.३८ उदर, गु. पेट पोथउ १६.६ पुस्तक, गु. पोथु पोलि ६.५ प्रतोली, गु. पोळ प्रमार ७.२०,४६ परमार (तुल० हिं. पँवार) प्रह १०.६२ प्रगे, प्रभाते (तुल० गु. पहो) प्रवइ ४.३७ प्रभवति प्राण-तियाग १६.१७ प्राणत्याग प्राणि ६.३२ [सं. प्राणेन] हठात् , गु. पराणे फर १२.३० फलक फरफराव्- १२.३० गु. फरफरावQ फरूक्- २४.९ गु. फरूक फाँडउ ११.२० पाश, गु. फंदो फागु २२.२७, फाग २१.५० [सं. फल्गु, प्रा. फग्गु] हिं. गु. फाग फारक्क १२.३० फलकधारी फाली २०.७ उत्तरीय वस्त्र (तुल० गु. फाळियु) फिर- २०.५,२३.३८ भ्रमणे, हिं. फिरना, बुक्क १२. २५, ३६.९, बूक ६. १३ _ वाद्यविशेष बुहार- ५३.७ सम्मार्जने, हिं. बुहारना बूझ- १.५१ बोधे, गु. वूझq बेडी १.१०१, बेडुलडी १.१०० नौका, गु. बेडी, बेडली भंगाणउं १२. ३९ भङ्ग, गु. भंगाण भंडसाल ५.१८ भाण्डशाला (तुल० गु. भणसाळी) भंडाली ३८.५५ भाण्डावलि भग्गडउ ३८.५२ भग्नः, पलायमान भम- १.८२ भ्रमणे भमरडउ २०.१४ भ्रमरः (तुल० गु. भमरडो) भमही ११.१४ भ्रू (तुल० गु. भवु) भयणि २.३.१० भगिनी भरथ ४.३४ भरत भरथेसर ४.२९, ५.३८ भरतेश्वर भरहेसर ४.२९ भरतेश्वर भरुयछ २.३.१८ भृगकच्छ.ग. भरूच भलि (स्त्री.) २२.३८ हठ, दुराग्रह भलेरंउं ११.२४ भद्रतर, सुन्दरतर, गु. भलेलं भाऊ ३८.५,३८.२३,३४ भ्राता, म. भाऊ भादरवउ २४.३ भाद्रपदः, गु. भादरवो भादवउ २४. ३. भाद्रपदः, हिं. भादों भामटउ ४.१७ भ्रमणशीलः, गु. भामटो भिभलउ ४.१६ विह्वल भिज्ज- -२३.७ आर्दीभावे, गु. भीजवू भुंड-निलाड़ि २३.३१ अशुभ-ललाटा (तुल० फिरिका २९.१९ (१) फेसंडिय १२.१९ फेनपिण्ड फोरण १३.५० (१) बप्प ५.३,९.१ पिता, गु. हिं. बाप बप्पुडउ ५.३३, बापुडउ ३८.५८ वराकः, गु. बापडो बलद्द ४०.९ बलीवर्द, हिं. बलद, गु, बळद बलबंड ६.३२ बलात्कार बलिकिज्ज्- २५.१५, ३८.२२, वलिकीज् २७.४.२ बलिदाने बहकउ १०.५६ प्रसरणम् (तुल० गु. बहेक) बहिणि ५.२८ भगिनी बाईउ २७.५ हे नार्यः, गु. बाईओ बाउल २१.४९, ५०, वाउलि २१.१ रमणी बारवई ५.३९ द्वारावती Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ प्राचीन गुर्जर काव्य संचय मुंभर-भोली ६.२१, भंभर भोलिया २७.३ अतिशय-मुग्धा, गु. भमर भोळी भोलउ १०.५१ मुग्धः, गु. भोळो, हिं. भोला भोलविउ १०.५१, भोलिउ ९.१८ भ्रामितः, गु. भोळव्यो भोलुयारी २०.५ मुग्धतरा भ्रति १.१२४ भ्रान्ति भ्रमहइ २९.१७ भ्रू मउडबद्ध १२.१७, मउडबधा ४.२९ [सं. मुकुटबद्ध] सामन्त (तुल० गु. मडधो) मउरियउ २१.७, २४.१०, मुरियउ ११.१ मुकुलितः, पुष्पितः, गु. मोर्यो मउलउं ३८.५६ शनैः (तुल० गु. मोळु) मंगलचार २९.२२ मंगलाचार मजीण २४.६ (?) मज् झन ३८.४६ मध्याह्न मझारि ७.२१, २०.५ मध्ये (तुल० गु. मोझार) मट्टी ३९.२८ मृत्तिका, गु. माटी, हिं. __मिट्टी मडप्फर २२.८ दर्प म-न १६.४७, २०.८,३८.५५ मा मयगल १२. १८ गज, गु. मेगळ मयच्छिय ३८.२,१५ मृगाक्षी मयण १४.१८ सिक्थ, गु. मीण मयरहर २५.४ मकरगृह मरजाद ५.२८ मर्यादा मरट्ट ३८.३८ गर्व मरुअउ २४.११, मरुउ ११.१ मरुबक, गु. मरवो मल्लार ७.२० आनन्द-जनक मल्ह- १५.१०, ३८. ७. लीलागमने (तुल० गु. महालबुं) महतउ ७.१८,१६.५ मन्त्री, गु. महेतो । महतार ५.८ पिता (तुल० म, महतारा) महामुंडा १३.४९. (?) महिवट्ट २१.११, मयवट १९.१४ स्तन लेप (१) माउसाल ५.५२ मातुलगृह, गु. मोसाळ मांटिय १२.३८ सुभट, गु. माटी मांड ११.१० हठात् , बलात् (तुल० गु. मांड) माच्- २०.२ मदे, गु. माचवू माझि २३.२९ मध्ये माडिय ११.९, १५.२ माता, गु. माडी मादल ३२.३ मर्दल मायंड १२.१५,१५.४ मार्तण्ड मायंद १३.१८ माकन्द, आम्रवृक्ष मारणहार ३८.३३ मारक, गु. मारणहार, मारनार मारोमारि ५.२५ परस्परं पुनः पुनः मारणम् , गु. मारामारी मित्ताचार ५.३० मित्राचार, मैत्री मिय-कुंड १३.४० अमृतकुंड मिरिय २३.३६ मरिचि, गु. मरी मिल्ड्- २.२.२२,९.१९,२३.८ मोचने, गु. मेलबुं मुंढी ३९.२१ मुखे, गु. मोढे मुकलाव्- २२.३, २३.३८, मोकलावू २७.३.१ अनुज्ञाप्रार्थने मुहरी ११.१६ मधुरा मुहाडि २३.३१ साम्मुख्यम् मूछ २३.३३ मूर्छा मूछी २३.३२ मूञ्छिता मूझ- १.५१,२०.१ मून ४.३ मौन मृगडउ ३८.३० मृग (सर० गु. मरगलो) मेलावउ ५.२९ मेलनम्, गु. मेळावो मोढेरा ५.४८,मूढेरउ ७.५१ गु. मोढेरा यहु ५.११,११.२१ [सं. एषः, अप. इहु] हिं. यह, गु. (प्रादेशिक) ई रइवल्लह २२.२७ रतिवल्लभ रखवाल ५.३० रक्षक, गु. रखवाल Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दकोश १४७ रडविडियउ १२.४० भ्रान्तः, गु. रडवडयो। रणरण- २२.११ रणत्कारे (तुल० गु. रणकयु) रन्न ३०.८ अरण्य, गु. रान रमाउल ७.५०, रमालउ ११.१३ सश्रीक, सुन्दर, रमणीय रयणीयर १०.५७ रजनीकर रलीयाली २०.७ सुन्दरा राख ६.३ रक्षा राखे २५.९ कच्चित् , गु. रखे राजल ११.१३ राजिमती राठी ७.५ बाह्मण-जाति-विशेष रामति २७.३ क्रीडा, गु. रमत राव २.४.६, २५.४ गु. राव रासुलउ १५.१, रासुलडउ १५.२१ रास, (तुल० गु. रासडो) राह्न ५.३६ राघव रिण २३.१३ रण रिणतूर २३.४२ रणतूर रिमिझिमि २२.१५ हिं. रिमझिम (तुल० गु. लखण २.३.३९ प्रक्षेप लंघाविय ३७.६ लङ्घनं कारिता, गु. लंधावी लच्छि १२.४, लाछि १६.१६ लक्ष्मी लड्डाविय १६.३० प्रशंसित (तुल० गु. लडावयु) लहलहू- २२.११ गु. लसलसवु लांक २७.२.६ कटि-निम्न-देश, गु. लांक लागठउ ४.३२ (१) लाडणु २६.३ वरः लान्ह र ३८.४७ लघुः, म. लहान (तुल० गु. ___ नहानो) लापसिय २४.७ मधुरान्नविशेष, गु. लापसी लामी २०.१२ अभद्रा, प्रतिकूला, विषमा लिक्क्- ३०.६ गोपने लिटूठु १७.४ लेष्टुक लिल्लिर ३७.१, लिल्लर ३७.७ चीवर, गु. ___ लीरो लीह १७.१८ [सं. लेखा] रेखा, मर्यादा लुविय (स्त्री.) २८.२२ स्तवक, गु. लूम तृणु उत्तार- १९.१६ गु. लूण उतारवू लूय २४.१३ उष्णबात, गु. हिं. लू लूसड ६.१५ लुण्टाक लेसाल २७.४५,६ लेखशाला, गु. निशाळ. लेसालीउ २७.४.२-५ छात्र, गु. निशाळियो वइसदेउ २७.८ वैश्वदेव वंकुड १.२२ वक्र, गु. वांकडे वंदणय-मालिया १५.९ वंदनमालिका, हिं. बंदनवार वक्खाण- ११.२१ व्याख्याने वक्खाण्- ६.२ वर्णने वखाण्- २०.८,२६.१, ४०.१२ प्रशंसायाम्, गुं. वखाणवू वक्खाण १०.१२ व्याख्यान (तुल० गु. वखाण) वघेला ७.२६ गु. वाघेला वच्च्- ३८.२६ गमने वच्छरूव ४०.१० वत्सरूप, गु. वाछरू वछ २७.४.४, वाछ १४.२३, २७.४.१, वाछडउ १४.२३ वत्स, गु. वाछडो रूमझूम) रिसह ४.४२ ऋषभ रीस (स्त्री.) ३८.१३ रोष, गु. रीस रुंख ३८.३४, रुक्खडउ ३८.४५ वृक्ष, गु. रूखडो रुल्- ५.३२ लुठने रुलियामणउ २५.८, रलियावणउ १२.२४, १५.१९, आनन्दोत्साहजनकम् , सुन्दरम् , गु. ळियाम' रुली २६.४, रली ३८.४ आनंदोत्साह रूय १२.१४ रूप रूयउ ३७.६ रूपक रूवडउँ ७.३५, ६.२० गु. रूड़े रेवय १९.२४ रैवतक रेह १२.३ [सं. रेखा] कीर्ति रोक ३७.२ गु. रोकडु रोल ४.१ कोलाहल, गु. रोळ लंखू- २.३.३७ क्षेपणे, गु. नाखवू Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ . वज्जर्- ४.४३ कथने वट्ट ५.१३ वर्मा, गु. वाट वडउ नेसालीयउ २७.४.१ प्रधान-छात्रः, गु. वडो निशाळियो वणसइ २४.८ वनस्पति वणिउत्त २.१.७ वंणिक-पुत्र (तुल ० गु.वाणोतर) वंणिज्- ८.११ व्यवहरणे वंणिजारउ ५.१८ वाणिज्यकारकः, गु. वणजारो वतंस १०:५७ अवतंस वदीतु २५.१२ प्रख्यातः धम्मह २२.१४, ३८.७ मन्मथ । वय्- १.९ गमने वय १४.२५, १८.१३ व्रत वरासउ २०.९ विश्वासः, गु. भरोसो पलवल्- १२.३८, ३८.४३ शब्दकरणे, . प्रलापे (तुल० गु. वलवलवू) वलि वलि ५.६,३७ वारंवारं, पुनः पुनः, गु. वळी वळी । यवहर. ५.१८ व्यवहरणे, क्रये, गु. वहोरवू वहुआरी २०.५ वधू (तुल० गु. वहुवारु) वहुडि २८.१३ बधू, गु. वहुडी। वहुव ५.२८ वधू वाएसरि ७.१,२४ १ वागीश्वरी वालंभ २०.५, २१.४ वल्लभ, पति, गु. वालम, हिं. बालम विजनउ २८.९ व्यंजनम् विकमादीत ५.४३ विक्रमादित्य विगत्तउ ३०.३ ब्याकुलीकृतः विगोई ३८.५४ निन्दां प्रापिता, गु.वगोवी विच्च्- ३८.४० विक्रये विच्छड्ड १२.४९ आडम्बर विछोह २४.२ वियोग विष्टि ३९.२६ विष्टि, गु. वेठ विढत्तउ ३९.३८ अर्जितम् विणठउ २३.३ विनष्टम् (तुल० गु. वंठूयु) विनड्- ८.१५ व्याकुलीकरणे प्राचीन गुर्जर काव्य संचय विनाणु २५.२ विज्ञानम् वियाल ३८.४६ विकाल, सायंकाल विरध ५.१४ वृद्ध विलय ३५.६ वनिता विवीहउ २४.२ हिं. पपीहा, गु. बपैयो विसंतुलिय २८.११ व्याकुला विसहर १७.१८ विषधर,गु. वशियर विसीठु २९.२० विशिष्टः विहंगल २३.२३ विह्वल विहंच्- ५. ९ विभाजने, गु. वहेंचQ विहचण ५.८ विभाजन (तुल० गु. वहेंचणी) विहलिय ५.४० दुर्गत विहि (स्त्री.) ३८.३९,४० विधि, विधाता वीकण- ६.१९ विक्रये वीरवट्ट १२.२६ वीरपट्ट वूठउ १२.९, ३८.५८ वृष्टः वेच- ५.४, २५.६, ३७.२ व्यये, उपयोगे वेझू- २३.२६ वेधे (?) व्यालउ २८.२० सायंभोजनम् , गु. वालु वयू- ३७.१.२,५. व्यये ब्रांसियउ ३७.६ विश्वस्तः (?) सइंथउ २२.१३, सिंधुं २९.१७ सीमन्तः, गु. सेंथो सइतउ ७.२६,३६ सहितः सवि १९.२९, सउ २३.३८, सव ५.७, सिव २९.५ सर्वे, सर्व, गु. सहु, सौ, हिं. सब सउँ ५.३३ समम्, गु. शु सउण ३९.२५ शकुनि । संकंदिण १२.२ संक्रन्दन,इन्द्र सकारिय ६१९ संस्कारिता संच- ३७.२ संचये, गु. सांचवू संजोव्- ४०.१२ संयोजने, हिं. संजोना संधि (स्त्री.) २.४.३३ संधि-बंध १.२ संपडू- ५.२१ समापतने, गु. सांपडवू Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ शब्दकोश संभल्- ५.१९ श्रवणे, गु. सांभळg संभाल्- १२.२८,१४.१६ श्रावणे, गु. संभळावQ संभालइ १२.२ गु. संभाळे संवच्छर ५.४३ संवत्सर सखर २४.४ (?) सखाइय १४.१४ सहाय सच्चउर ५.४८ सत्यपुर, गु. साचोर सद्ध ३६.१४ श्राद्ध सद्धार ५.४० साहाय्य, गु. सधियारो सघारण ९.१६.१९ संधारण, साहाय्य सप्फुर १३.४६ स्फुर्ति-सहित समग्गलय ५.१८ २४.४ समग्र, सहित समल ६.५ (१) समसरिस २४.१५ समसदृश समहर १२.२९, समहरि ३०.१,४ संग्राम सम्माण्- ५.३३ उपभोगे सयर ११.१३ शरीर सयाणि ११.४, सियाणिय ६.७ [सं. सज्ञान, प्रा. सजाण] गु. शाणी, हिं. सियानी सरवणे २३.२ श्रवण सराविय ८.७,८ श्राविका सरीखउ १.९५ सदृक्षः, गु. सरीखो, सरखो सलवल्- १२.१९ गु. सळवळवू सलह- ७.१६,३५ श्लाघने हिं. [तुल० सराहना] सलूणी २२.१६ सलावण्या, गु. सलूणी, हिं. सलोनी सवडि २४.८ गु. सोड सवलह- २४.६ विलेपने ससिहर १०.५८ शशधर, गु. शशियर ससुरउ ५.२९ श्वशुरः, गु. ससरो सहजिगपुर ५.५२ गु. सेजकपर सहार २४.१० सहकार साइणि २८.२६ शाकिनी साखि (स्त्री.) ५.१ ० साक्ष्य, गु. साख (स्त्री.) साग ४.१९ स्वर्ग साज- २२.७ सज्जीकरणे साद ५.८ प्रत्युत्तर-शब्द, गु. साद साध २८.७ श्राद्ध सानिधि ७.४१ [सं.सान्निध्य] साहाय्य सारा ५.३० साहाय्य, गु. सार सासुतउ ४०.२ शाश्वत: सासुरय २.१.१९ श्वशुरगृह, गु. सासरूं सासुव ५.२९,२८.९,२० श्वश्र, गु. सासु साह- २२.९ ग्रहणे साहार १४.३ सहायक सिंहार २९.१८ संहार सिणगार ५.२२,२३.२७,३१.३, सणगार ५.४२ शृङ्गार, गु. शणगार सिय ५.५३ सित, शुक्ल सिरिमा ७.६ (१) सिविय १३.३५ शिंबिका सिहण ३५.२ स्तन सीझू- १०.६२ सिद्धौ सीय ५-३६. सीता सुआल १४.२३ सुकुमार, गु. सुंवाळो सुक्खासण २.३.३३, सुखासण ५.३१ सुखा सन, शिबिका सुणहउँ ३८.४९, ५२ श्वान सुतहार ७.३१ सूत्रधार, शिल्पी (तुल० गु. सुथार) सुद्धि २.३.१८,२३.१८ शुद्धि, वृत्त, वर्ता, गु. सूध सुपच्चल १३.१३ सुसमर्थ सुरहिय २१.६ सुरभित सुरिताण ७.१२ [फा. सुलतान] गु. सुलतान सुहाली २३.२४ सुकुमारिका, गु. सुवाळी सूझू. २०.१५ शुद्धौ (तुल० गु. सूझतुं) सूरिम १२.३ शौर्य सूहवि २७.८ सुधवा सेत २७.२.६ श्वेत सेत्तुंजय ४०.१२, सेत्तुज्जउ ५.३८, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० सेतुज ७. १५,सेत्रज १९.२ शत्रुजय, गु. शेव॒जो सेयाणिय ६.८, १४ शतानीक सेल २९.११ कुन्त सोना-पोरिस ४०.९ सुवर्ण-पुरुष सोलंकिय ७.१० [सं. शौकिक गु. सोलंकी हत्थियार १२.३८ गु. हिं. हथियार हलसाहि २३.२२ हले सखि हलहर ५.४२ हलधर हल्ल्- ८.१६ ईषच्चलने, गु. हलवू हल्लकलोल १५.१४ प्रक्षोभ (तुल० गु. हालक डोलक) प्राचीन गुर्जर काव्य संचय हल्लाबू. ३८.१४ चालने, गु. हलावq हल्लुम्फल ३६.१२ प्रक्षुब्ध हाउ ११.१० आमम् , गु. हा, हिं. हाँ हिंसा-रव ४.२१ वषारव हिटि ५.६ अधस्तात् , गु. हेठे हिल्लि २३.१५ हले, गु. एली हिवडाँ २२.२३ अधुना, गु. हवडा, हवे हुडुक्क ३६.९ वाद्यविशेष हुवह २४.१२ हुतवह हूल ७.४८ [सं. फुल्ल] पुष्प Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'दंगड' (रचना क्रमांक ३९) के पाठान्तर मुद्रित हो जाने के पश्चात् इस रचना की अन्य एक प्रति की सूचना मिली । ला. द. भारतीय संस्कृति विद्याभवन के पुण्यविजयजी संग्रह की प्रति क्रमांक ८६०१ के पत्र १८४-१८६ पर यह रचना दी गई है । उसमें कुल पद्य-संख्या ७२ है । अधिक पाठ एवं पाठान्तर नीचे दीए गए हैं । १.१. जाणियइ. १.३. दंगडइ. १.४. वसिसि. २.१. आलवणु. २.२ संजमु. २.४. छिज्जइ. २. के बाद नीचे का दोहा अधिक है: जे जिणसासणि लीणमणु अणुदिणु दटु(? ढु) संमत्तु । तिणि सिउं किज्जइ मित्तडी सिज्झइ जेण परत्तु ॥३ ३.१. सुपत्ति, दोधउं. ३.२. नियमेण ३.३. नमिउ, तहणम्मत्थो. ३.४. जम्मु. ४.१. निसंबल उ. ६.१. उच्छे नउं, लब्भिसिइ ६.२. तहिं. ६.३ काई उछिद्रह चालोयइ. ७.१. इह अपणां. ७.३. आगलि, ठाणिया. ७.४. वेसज्जु. ८. २. लेउ. ८.३. तुट्टइ. ८ ४. घसेउ. ९. यह दोहा क्रमांक २८ के बाद दिया गया है. ९.१. गिउं कडेवरु चेईहरि. ९.२. मणु मिल्हेविणु. ९.४. रे जीय सूनी सट्टि. १०.१ गइ १०.२. काई. १०.३. तहिं आहुडि उ. १०.४ दढगठिहिं. ११.४. तुस लेणु. १२.१. दिट्ठी माइ. १२.२. किम न. १३.१ गहिल्लडीय. १३.३. जिणवर नामी कुट्टडीय. १६.१. मा रूसउ मा. १६.४. दुल्लहु. १८.३. हल्लोहल्लइ जीवडइ. १९.२. धेउ. १९.३ तं तेहइ. १९.४ सुम. २०.३. जीवंतउ. २०.४. मूयइ सु मंगल होइ. २० के बाद नीचे का दोहा अधिक है:___ धम्मि न वेच्चइ रूयडइ मीठउ ग्रासु न खाइ । राउलि चोरि पलेवणइ धण पेषतां जाइ ॥ २१.१ जमह. २१.२. राधउं पक्खेलाई. २१.३ हुँतउं जेहिं. २१.४. छारछ रक्कउं. २२.१ कुल्लरि हुई वलहरणु. २२.२ हूउं. २२.३. भजि. सिइ. २३.१ बंधइ. २३.४. संजमु. २४.१. तउं. २४.२. तां. २४.३ कुडंबउं खाइसिइ. २४.४ माथइ पडिसिइ. २५.४ मरिउ २६. २ झामलि. २६.३ जीविहिं धम्मु न संचीयउं. २६.४. कीय. २७.१. अमउं. २७.२. विवहारु. २७.३. देउलि टिप्पहं दिन्हिसइं. २७.५. भाऊ साहारु. २८.१ कडेवरु इह. २८.२. मई हुतई करि धम्मु. २८.३, तई रयणनिहि. २८ के Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ बाद क्रमांक ९ वाला दोहा है । इसके बाद नोचे के पद्य अधिक हैं :दिउ दियावउ दया करउ दितु म वारउ कोइ । एउ परत्तह संबलडं विरलउ जाणइ कोइ । संपय संपय ताहं परि जि करई ताहरी सेव । आवई आवइ तांह परि जे पइ नमई न देव ॥३२ अद्धोखंडां तप किया हीयडा अन्नह जम्मि । सुक्कइ सरि सेवाल जिम मुया मणोरह तिम्म ॥३३ एकह भवि अवत्थ-सइं पावइ बहु भमाडइ । जिम नच्चावइ ए सचिहिं इह जीउ तिम नच्चेउ ॥३४ जहिं धरि अंगणि चेईहरि ऊभा मुनिवर बारि । तीह दिणि दिणि चंदणउं अंधारउं न कयाई ॥३५ अंधारउं धम्मेण विणु पसूयहं बप्पडलाह ! जाह न दोवउ गुरुवयणु उम्मीलणु नयणांह ।।३६ दिवसि चउत्थइ पंचमइ जहिं धरि साहु न इंति । तं धरु रंन्नह समसरिसु पिंडु मृगा इ भरंति ॥३७ उद्वरि जिणवर-वर-भवणु मुणिवर जे दिज्जइ दाणु । परतह लिज्जइ संबलउं तारिज्जइ अप्पाणु ॥३८ जिणवर-वयण-सिलाईयइ जांह न विद्धा कन्न । माणुस-वेसिइंहिं गोरूयहं तं तह वुद्धि न सन्न ॥३९ पर करि हियडा मनु करिहि जिण-वंदणउं न देइ । कलिज्जमि मोहण-विल्लडीय - तह लग्गाइ धराइं ॥४० -आयइ रोसडइ जे अवहेरि करंति । ते ऊपज्जइ मणूय-भवे जणह पियारा हुंति ॥४१ लग्गइ कोहि पलेवणइ डज्झइ गुण-र यणाई । उवसमि जलि जि न उल्हवइ ति सहई दुक्ख-सयाई ॥४२ जीव वहंतां नरइ गइ अवहंतां पुण सग्गि । दुन्नि निहालिय मग्गडा जहिं भावइ तहिं लग्गि ॥४३ धन्न-विहूणा धम्म करि धम्मीण इं धनु होइ । धणु चिंतंतउ जउ मरइ बिहुँ एक्को वि न होइ ॥४४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ जं अच्छइ के दीहडा तं घणु मीठउं रंधि । कल्लि जि दिट्ठा एकि मई जंता चिहुर बंधि ॥४५ धणु घर-मज्झे छडिउं परिअणु मुक्क मसाणि । जीविहिं सरिसा दुन्नि गय नहि पच्छिलइ वसाणि ॥४६ धम्मु न संचिउ तपु न कीउ नमिउ न जिणवर-देउ । जीव जु हीडइ दुत्थियउ तहं फुल्लहं फलु एउ ॥४७ दानु सील तपु भावना एह तरंडउ जांहं । नवकारिहिं वउलावणउं सिद्धि घरंगणि ताहं ॥४८ अइ-सीला वि न रुच्चई य साकर पित्त-वसेण । तह जिण-धम्मु न रुच्चई य जीवहं कम्म-वसेण ॥४९ हत्थिहिं किज्जइ कम्मडउं मणि झाइजइ देउ । अइसउ पहु सेवंतयहं अंगि न लग्गइ खेउ ॥५० संसारड[इ] भयामणइ आस कि बंधण जाइ । सुप्पइ अन्न मणोरडइ पुण अन्नेहि विहाइ ॥५१ जीवा किं विलवेसि तुं जस्स(?) छम्भिहिं सिउं वाणि । अप्पउं पोसइ पर दहइ करइ परत्तह हाणि ॥५२ जिम कम्मह तिम धम्मह वि जइ जीउ तत्ति करेउ । तउ नहु अंधउ वाउ जिम डालिहिं डालि भमेउ ॥५३ जिम घर-कारणि निसि-दिवसु इह जीउ सुप्पहि लागु । तिम जइ धम्मह दुइ घडीय तउ पामइ सिउ सग्गु ॥५४ मह घरु मह पुरु मह सयणु ए मह-महउ निवारि । जीव करतउ मह-महइ पुण पडिसि[३] संसारि ॥५५ गुड्डा-नमणिहिं कमणु गुणु होउं कुसुद्धउं जाह । लुद्धा बयइ रन्न-मई झाडंतरि हरिणाई(? हं)॥५६ तिल दहइ(? हि) जव दहइ(? हि) सप्पि दहि तोइ न तप्पइ अग्गि । जिणि पंचिंदिय वसि कियं तेहि वसेवउ सम्गि ॥५७ जिण-वंदणु वर-गुरु-विणउ तवु संज[मु] उवयारु । जं किज्जइ खण भंगुरह देहह इत्तिउ सारु ॥५८ संसारडइ भमंतड[६] लद्धां बे रयणाई । Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जिणवर-सामीउ साहु गुरु । चिंतामणि-तुल्लाई ॥५९ ति करत न वारीयइ जइ नवि संसउ होइ । लोइ सुणिज्जइ वरिस-सउ | विरलउ जीवइ कोइ ॥६० तत्ति पिराई करंतह जेण भरिज्जइ भंडु । तउ वरि लिज्जइ जिणवयणु जिम संसार तरंडु ॥६१ बीहिज्जइ पाइक्कडां दूरह आवियडांहं । कम्मह कह वि न छुट्टियइ अंगह उट्टि चडांह ॥६२ रे हीयडा कु-मित्त तुं गुणिहिं न लीणउ जाइ । संझह भरीउं भरणु जिम पसरिवि दाणउं(?) थाइ ॥६३ नित्तु निवल्ली त्रेवडीय ऊगिइ ऊगिइ सूरि । अप्पा मरणु न जाणीयइ किं ढूकडउं कि दूरि ॥६४ ऊपरवाडइं आविसिइ तणउ कियंतह हत्थु । कहि अवेलां वाहिसिइ नवि संबलु नवि सत्थु ॥६५ सिरि इक्केकउं पलीयउउं आविउं अग्गेवाणु । नीसरि जुव्वण-पाहुणा जे खंडेसिइ माणु ॥६६ गिउं जुब्बणु बंबलि करवि छडा पीयाणा देवि । जर थक्किय मत्थइ चडवि धवला गुड्डर देवि ॥६७ मोहु न मेल्हइ घर-तणउ जइ सिरि पलीया केस । वलि वलि जिण-धम्मह तणा को देसिइ उवएस ॥६८ २९.१ हीय डा, मिरीय. २९.२ मणु पसरंतु. २९.३ बित्तिय पुज्जइ पंगुरणं. २९.४ तित्तियं पाय. इसके बाद नीचे के पद्य अधिक हैं: हीयडा जिणवरु वंदियइ समइ विरू[य]उ कालु । जिम मच्छह तिम माणसहं पडइ अचिंतउं जालु ॥७० वीर विशाले लोयणे महु एतलं करिज्ज । बारह नव पंचह ऊयरि कम्मर(?)हेउ म निज्ज ॥७१ एह जाणेविणु भवियजणु जं कोइ माणु करिज्ज । संसारडउ लीलई तरीय सिद्धि-पुरी पा(?पा)मिज्ज ॥७२ ३० नहीं है । पुष्पिकाः इति ढुंगडउं समाप्तः । Jain Educationa Intemational For Personal and Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्र १०३ ६ १०४ २२ १०५ ९ १०९ ८ ११० ९ पृष्ठ पंक्ति १२ ४ संथव १४ ७ . निय-तणू-वलिण १९ १० घरि बइठा ही फलु २२ १७ दुक्खियइँ २२ २४ परिपालिगइ २५ २८ खीण-सर परिघल ३३ शीर्षक आबूरास ३५ ५ . मुणिवर ४४ १२ चडिउ ४५ २४ जो ऊलटि ४६ ११ रयणीयरु ५४ १७ ५५ २१ तिम जेम इकक ५५ २२ बंधु-जण तणु नहु बुल्लेई भद्दा त्रेवीसमु ८५ २० काछइ ८९ शीर्षक २२ ९५ शीर्षक २३. नेमिनाथ९९ २६ वाइ १०२ ४ अपूरव वात १०३ ५ सामलउ, वर वर इन्द्र च्यारि जे थंभ, रूपि तोइ जाणीउ ॥६ तिछ, आद-नरराउ आणहि स्फूर्जदूर्जच पमोऊ तिहुयण अवरे अच्छइ गूडि उछालहि हुई हारि ढक्क बुक्क रोमंच हिं] कंचुइय-तणु खुटिसइ (इसके बाद एक पंक्ति लुप्त हो गई है।) तह ११० २४ २ २ ११२ २० ११७ २१ १२० २५ १२३ ५ १२४ ७ १२५ ५ १२६ २३ १२९ ५ १२९ १४ चाउ प्राणहँ वूठा सुमंगल छज्जु Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LALBHAI DALPATBHAI BHARATIYA SANSKRITI VIDYA MANDIR L.D. SERIES S. NO. Name of Publications Price Rs. 41 10/ 5/ 40/ *1. Šivāditya's Saptapadārthī, with a Commentary by Jipavardhana Sūri, Editor : Dr. J.S. Jetly. (Publication year 1963) 2. Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts : Muniraja Shri Punyavijayaji's Collection, Pt. I. Compiler : Munira ja Shri Punyavijayaji. Editor : Pt. Ambalal P. Shah. (1963) 3. Vinayacandra's Kavyaśikṣā. Editor : Dr. H.G. Shastri (1964) 4. Haribhadrasūri's Yogaśataka, with auto-commentary, along with his Brahmasiddhantasamuccaya. Editor : Muniraja Shri Punyavijayaji. (1965) 5. Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts, Muniraja Shri Punyavijayaji's Collection, pt. II. Compiler : Munirāja Shri Punyavijayaji. Editor : Pt. A.P. Shah. (1965) 6. Ratnaprabhasūri's Ratnakarāvatārika, part I. Editor : Pt. Dalsukh Malvania. (1965) *7. Jayadeva's Gitagovinda, with king Mānānka's Commentary Editor : Dr. V. M. Kulkarni. (1965) 8. Kavi Lāvanyasamaya's Nemirangaratnākarachanda. Editor : Dr. S. Jesalpura. (1965) 9 The Nātyadarpana of Rāmacandra and Gunacandra : A Critical study : By Dr. K.H. Trivedi. (1966) *10. Ācārya Jinabhadra's Viseşāvaśyakabhāşya, with Auto-commen- tary, pt. I. Editor : Pt. Dalsukh Malvania. (1966) 11. Akalanka's Criticism of Dharmakirti's Philosophy : A study by Dr. Nagin J. Shah. (1966) 12. Jinamāņikyagani's Ratnakarāvatārikādyaslokasatarthi, Editor : Pt. Bechardas J. Doshi, (1967) 13. Ācārya Malayagiri's sabdanuśasana. Editor : Pt. Bechardas J, Doshi (1967) 14. Ācārya Jinabhadra's Viseşāvaśyakabhāsya, with Auto-commen- tary. Pt. II. Editor Pt. Dalsukh Malvania. (1968) Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts : Muniraja Shri Punyavijayaji's Collection, Pt. III. Compiler : Muniraja Shrl Punyavijayaji. Editor : Pt. A.P. Shah. (1968) 15/ 30/ 87 301 - 20 30/ • out of print Jain Educationa International For Personal and Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32/ 21. 21/ 20/ 12/ 16. Ratnaprabhasūri's Ratnākarāvatārikā, pt. II, Editor : Pt. Dalsukh Malvania. (1968) 17. Kalpalatāvíveka (by an anonymous writer). Editor : Dr. Murari Lal Nagar and Pt, Harishankar Shastry. (1968) 18. Ac. Hemacandra's Nigbantušesa, with a commentary of Sri. vallabhagani. Editor : Muniraja Shri Punyavijayji. (1968) 19. The Yogabindu of Ācārya Haribhadrasüri with an English Translation, Notes and Introduction by Dr. K.K. Dixit, (1968) 20. Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts : Shri Āc. Devasūri's Collection and Ac. Kșāntisüri's Collection : Part IV. Compiler : Munirāja Shri Punyavijayji, Editor : Pt. A.P. Shab. (1968) Ācārya Jinabhadra's Viseşāvaśyakabhāsya, with Commen- tary, pt. III. Editor : Pt. Dalsukh Malvania and Pt. Euchardas Doshi (1968) 22. The Sastravārtāsamuccaya of Ācārya Haribhadrasüri with Hindi Translation, Notes and Introduction by Dr. K.K. Dixit. (1969) 23. Pallipāla Dhanapala's Tilakmañjarisāra, Editor : Prof. N. M. Kansara. (1969) 24. Ratnaprabhasūri's Ratnakarāvatārikā pt. III, Editor : Pt. Dalsukh Malvania. (1969) 25. Ac. Haribhadra's Nemināhacariu Pt. 1 : Editors : M. C. Modi and Dr. H. C. Bhayani. (1970) 26. A Critical Study of Mahapurāņa of Puşpadanta, (A Critical Study of the Deśya and Rare words from Pușpadanta's Mahapuräna and His other Apabhramsa works). By Dr. Smt. Ratna Shriyan. (1970) 27. Haribhadra's Yogadrstisamuccaya with English translation, Notes, Introduction by Dr. K. K. Dixit. (1970) 28. Dictionary of Prakrit Proper Names, Part I by Dr. M. L. Mehta and Dr. K.R, Chandra, (1970) 29. Pramāņavārtikabhāşya Kārikardhapadasūci. Compiled by Pt. Rupendrakumar. (1970) 30. Prakrit Jaina Kathā Sāhitya by Dr. J.C. Jaina, (1971) 31. Jaina Ontology, By Dr. K, K. Dixit (1971) 32. The Philosophy of Sri Svāminārāyaṇa by Dr. J. A. Yajnik. 33. Āc. Haribhadra's Neminābacariu Pt. II : Editors : Shri M. C. Modi and Dr. H. C. Bhayani. 34. Up. Harşavardhana's Adhyātmabindu : Editors : Muni Shri Mitranandavijayaji and Dr. Nagin J. Shah. 35. Cakradhara's Nyāyamañjarigranthibhanga : Editor Dr. Nagin J. Shah, 40/ 30/ 30/ 301 401 6/ 36/ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36. Catalogue of Mss. Jesalmer collection: Compiler: Muniraja Shri Punyavijayaji. 37. Dictionary of Prakrit Proper Names Pt. II. by Dr. M. L. Mehta and Dr. K. R. Chandra. Karma and Rebirth by Dr. T. G. Kalghatagi, Jinabhadrasuri's Madanarekha Akhyāyikā: Editor Pt. Bechardasji Doshi. Pracina Gurjara Kavya Sañcaya: Editor: Dr. H. C. Bhayani and Shri Agarchand Nahata. 41. Jaina Philosophical Tracts: Editor Dr. Nagin J. Shah, 42. Saṇatukumaracariya Editors Prof. H. C. Bhayani 888888 38. 39. 40. 3 and Prof. M. C, Modi 43. The Jaina Concept of Omniscience by Dr. Ram Jee Singh 44. Pt. Sukhalalji's Commentary on the Tattvarthasutra Translated into English by Dr. K. K. Dixit. 45. Isibhāsiyaim, Editor: Dr. Schubring 46. Jinadevasuri's Haimanāmamālāsiloñcha, with a Commentary by Śrivallabha. Editor : Mahopadhyaya Vinayasagara. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only 40/ 35/ 6/-- 25/ 16/ 8/ 30/ 32/ 16/ 16/ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Educationa Interational For Personal and Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jalin Educationa Intematonai For Personal and Private Use Only