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प्राचीन गुर्जर काव्य संचय जइ विच्चिज्जइ सीसु जइ पणमिज्जइ वइरियहँ । वलइ न तह-वि हु दीसु जइ रुट्ठी विहि माणुसहँ ॥४० चंदाइच्चहँ केम भाऊ आवइ आथवणु । ता दाणव ता देव जा विहि जोइ सामुहउँ ॥४१
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जिम जिम सुयण सहंति परिहउ लघुयत्तण मणइ । तिम ति[म] पिल्लिज्जति पत्तावसरिहि दुग्जणहि ॥४२ ईवैइ रीती वलवलइ कोइल महुर-सरेण । जह मुणि झाणहँ टलवलइ अखलिउ पंचसरेण ॥४३ चंद म ऊगवि लोइ गउ साजण-तणउँ जसु । आपणु खाँपणु जोइ लाइय तुहुँ लाज ह मही (?) ॥४४ साजण समउ न कोइ जं रुटु वि अमयहँ निलउ । जइ कटिजइ तोइ सुरहिउँ चंदण-रुक्खडउ ॥४५
तुह विहि केही आलि एहु ज दूजणु निम्मियउँ । मज्झन पसरि वियालि जासु पराइ तातडी ॥४६ दूजणु मरमु लहेइ लान्हउ घायउ पर-तणउँ । पाछइ तं जि करेइ जं खंताह (?) न वीसरइ ॥४७ इयइ जिणि सउँ संगि निच्छइ आवइ दोसडउ । सो दूजण-जण-संग ओ अच्छउ काजु नहीं ॥४८ आगइ अमिउँ झरेइ पाछइ सुणहउँ जिउँ भसइ । दूजणु किं न मरेइ ओ फीडइ नीजइ नहीं ॥४९
जिम कन्नुप्पलि ताडियउँ मइँ पिउ पिम्म धरेइ । रण-भरि पहरण-पाडियउ तिम रोमंचु वहेइ ॥५० आयड्ढिय-करवाल रण-वल्लह पिय सुणि वयणु ।
जइ मिल्लहि वरमाल सुर-बहु तो म. संभरे ॥५१ ४१.१. केमि. ४२.२. भणइ. ४३. २. नहु. ४५.३. अपणु. ४५.२. यमयहं. ४. सुरहुंठ,
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