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४०. छन्द षट्पद (अपर नाम छप्पय, दिवड्ढ या सार्ध छन्द , अर्थात् वस्तुवदनक (अपर नाम रोला) और दोहा की द्विभङ्गी ।
कुछ दस साल पहले जब मैं मुनि श्री जिनविजयजी ने वहुत सी अद्यावधि अप्रकाशित प्राचीन गुर्जर रचनाओं के सम्पादन के लिये जो विपुल सामग्री इकट्ठी कर रखी थी उसमें से चुन कर एक कृति-संचय सम्पादित करने का कार्य में लगा था तब श्री अगरचन्द नाहटा के साथ इसी बारे में विचारविमर्श हुआ । वे भी इस दिशा में कुछ करने का सोच रहे थे । हम दोनों की सम्पदनार्थ निर्धारित रचनाओं में कुछ तो समान थी और उनके लिए एक ही समान प्रति का आधार था । नाहटाजी ने कितनी एक रचनाएं अन्यान्य पत्रिकाओं में प्रकाशित करने का प्रारम्भ भो कर दिया था । ऐसी प्रकाशित रचनाओं में मुद्रण की अशुद्धियाँ तथा शब्दविभाग, छन्दस्वरूप इत्यादि को दृष्टि से कुछ क्षतियां दिखाई देती थीं । इस सन्दर्भ में हमने सहयोग से प्राचीन गुर्जर कृतियों का एक संचय तैयार करने का तय किया । प्राचीनता और स्वरूपकी विविधता के आधार पर सम्पादनार्थ विविध कृतियों के लिए नाहटाजी ने हस्तप्रतियां सुलभ कर दों । फलस्वरूप प्रस्तुत संग्रह तैयार हुआ । इसकी बहुत-सी रचनाओं के लिए एक ही हस्तप्रति ज्ञात या उपलब्ध होने से कुछ स्थानों में पाठ अशुद्ध रहा है । और फलस्वरूप छन्द, अर्थ आदि की भी अस्पष्टता ज्ञात होती है। फिर भी ऐसे स्थान अधिक नहीं हैं ।
आशा है तेरहवों-चौदहवीं शताब्दियों के प्राचीन गुर्जर (अर्थात् मारु-गुर्जर) साहित्य के रचना-प्रकार, छन्दोवन्ध, भाषा आदि के अध्ययन के लिए प्रस्तुत संचय उपयुक्त होगा । प्राचीन गुर्जर साहित्य की प्रारम्भिक रचनाएं प्रकाश में लाने का प्रशस्य प्रयास श्री ची. डा. दलाल ने 'प्राचीन गुर्जरकाव्य संग्रह' के द्वारा किया था । उसके बाद श्री मो. द. देशाई के आकर ग्रन्थ 'जैन गूर्जर कवियो' द्वारा इस दिशा में कार्य करने के लिए एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सहायक साधन उपलब्ध हुआ । मुनि जिनबिजयजी ने अनेकानेक प्राचीन प्रतियों को प्रतिलिपि करवा कर एक बडी प्रकाशन योजना तैयार कर रखी थी। मगर स्वास्थ्य और दृष्टि की क्षोणता के कारण वे उसको कार्यान्चित कर न सके। स्वयं नाहटाजो भो कई वर्षों से एक एक करके कुछ रचनाएं पत्रिकाओं में दे रहे हैं । प्रस्तुत संग्रह इसी दिशा में किया गया एक छोटा सा प्रयास है ।
____ इस कार्य में मुनि जिनविजयजी की संचित सामग्री से हमें जो लाभ उठाया है इसलिए हम उनके ऋणी है । इस संचय के प्रकाशन का जो भार श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर ने ऊठा लिया और उसके निदेशक एवं हमारे मित्र दलसुखभाई मालवणिया से इस कार्य में विविध प्रकार की जो सहायता हमने पाई (जिसका पाना अब तो मेरा अधिकार सा हो गया है) उसके लिए हम उनके बहुत आभारी हैं। रामानन्द प्रेस के संचालक एवं कार्यकर-गण के सहकार के लिए भी हमारा धन्यवाद । १ जून, १९७५
हरिवल्लभ भायाणी
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