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प्राचीन गुर्जर काव्य संचय बरिसा सउ आऊखउ लोए असी वरिस नहु जीवइ कोई ।
झूठी कलि आसिगु भणइ दया-राजि नय नय अवतारु ।
धम्मु चलिउ पाडलिय-पुरे एका (?) कालु कलिहि संचारु ॥२७ माय भणेविणु विणउ न कीजइ बहिणि भणिवि पावडणु न कीजइ ।
लहुड बडाई हाइ तिय मुक्की लाज समुद मरजाद ।
घर घरिणिहि वीयापियइँ पिय-हत्थि धोवावइ पाय ॥२८ सासुव वहुव न चलणे लागइ हत्थाह इ पाडउणइ मागइ (१) ।
ससुरा-जिदूह नवि टलइ राजि करती लाज न भावइ ।
मेलावइ साजण-तण सिरि उग्धाडइ बाहिरि धावइ ॥२९ मित्तिहि मुक्का मित्ताचारा एकहि धरणिहि दुइ रखवाला ।
जे साजण ते खल थियइँ गोती चूका गोताचारा ।
हाणि-विधि-बड़्ढावण बिहुरहि वार करहि नहु सारा ॥३० कवि आसिग कलि-अंतरु जोइ एक-समाण न दीसइ कोइ
के नर पाला परिभमहि के गय-पुट्टि चडंति सुखासणि ।
केई नर कट्ठा वहहि के नर बइसहि राय-सिंहासणि ॥३१ के नर सालि दालि भुजंता घिय घलहलु मझे वि लहंता ।
के नर भूखा-दूक्खिय इँ दीसहि पर-धरि कम्मु करता।
जीवंता वि मुया गणिय ___ अच्छहि बाहिर-भूमि रुलंता ॥३२ के नर तंबोलु वि सम्माणहि विविह भोय रमणिहि सउँ माणहि ।
के वि अपुन्नई बप्पुडइँ अणहुंतइ दोहला करंता।
दाणु न दिन्नउ अन्न-भवि ते नर पर-घर-कम्मु करंता ॥३३ आसेवंता जीव न जाणहि अप्पहि अप्पउ नहु परियाणहि ।
चंचल जीविउ धुय मरणु विहि विद्धाता वसइ उसीसइ । .. मूढ! धम्मु परजालियइ अजर अमरु कलि कोइ न दीसइ ॥३४ नव निधान जसु हुंता वारि सो बलि-राय गयउ संसारि ।
बाहूबलि बलवंतु गउ धण-कण-जोवण करहु म गारउ ।
डुबह घर पाणिउ भरिउ पुहविहि गयउ सु हरिचंदु राउ ॥३५ २७. १ आऊषउ. २७. ५. धंमु. २९. १ कहूव, लग्गइ. ३१. २. दीसई. ३१. ३. नरि. ३२. १ नालि. ३२. ३. भूषादूषिय. ३२. ४ कंमु. ३२.५ जीवता. ३२. ५ लता. ३३. ३. अपुंनइ. ४. अणुहुंतइ ५. दिन्नउ अन्न, ६. कंमु. ३४. २ अप्पाउं. ३५. ४ जोयण.
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