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प्रस्तावना
जैन धर्म जनता का धर्म है । तीर्थंकरों ने अपना उपदेश तत्कालीन लोकभाषा में दिया जिससे अधिकाधिक लोग समझ सके और जीवन में उतार कर लाभ उठा सकें । चरम तीर्थंकर भगवान महावीर का धर्मप्रचारकार्य मगध देश के आसपास अधिक रहा, इसलिए उनकी भाषा को अर्धमागधी भाषा को संज्ञा दी गई है । अर्थात् उस भाषा में मगध देश की बोली की प्रधानता तो थी ही पर आसपास की अन्य बोलियों का भी समावेश था इसीलिए उसे अर्धमागधी कहा गया है । वर्तमान प्राचीन जैनागमों की भाषा यही मानी जाती है । यद्यपि वे आगम लगभग एक हजार वर्ष तक कण्ठाग्र रहे, इसलिए परवर्ती प्रभाव भी उनमें दिखाई देता है । पाश्चात्य विद्वानों ने एकादश अंगसूत्रों में से आयरंग, सूयगडंग की भाषा को सर्वाधिक प्राचीन माना है । यद्यपि ये ग्यारह अंगसूत्र एक ही समय तैयार हुए थे पर अन्य आगमो में भाषा का परिवर्तन आयरंग की अपेक्षा अधिक होगा।
क्षेत्र और काल का प्रभाव बोलियों पर पडता ही रहता है, इसलिए प्राकृत भाषा के भी अनेक क्षेत्रीय रूप सामने आये और आगे चलकर महाराष्ट्री और शौरसेनी प्राकृत में जैन ग्रंथ अधिक लिखे गये। महाराष्ट्री प्राकृत में श्वेताम्बर ग्रंथ और शौरसेनी प्राकृत में दिगम्बर ग्रंथ अधिक पाये जाते हैं। पांचवीं, छठी शताब्दी में बोलचाल की भाषा में अधिक परिवर्तन आया अतः तब से अपभ्रंश में भी साहित्य लिखा जाने लगा। दिगम्बर महाकाव्यादि आठवीं, नौवीं शती से सं १७०० तक अपभ्रंश में काफी लिखे गये । श्वेताम्बर समाज में अपभ्रंश साहित्य दिगम्बरों के बाद लिखा गया और अंतिम अवधि भी काफी पहले समाप्त हो गई । उपलब्ध स्वतंत्र श्वेताम्बर रचनाएं ग्यारहवीं शती तक की ही प्रायः मिलती हैं । - अपभ्रंश भाषा से भारत की प्रान्तीय बोलियों का विकास हुआ उनमें से राजस्थान और गुजरात में समान रूप से जो भाषा विकसित हुई उसे प्राचीन राजस्थानी या जूनी गुजराती कहा जाता है । कई विद्वानों ने उसे मरु गूर्जर भाषा की संज्ञा दी है । ग्यारहवीं शती से अपभ्रंश के साथ साथ इस मरु-गूर्जर भाषा का भी साहित्य फुटकर दोहादि के रूप में मिलने लगता है । स्वतंत्र उल्लेखनीय रचना के रूप में तेरहवीं शती से ही साहित्य उपलब्ध हैं । उस समय की हिन्दी भाषा भी मरुगूर्जर के समकक्ष ही थी । आगे चलकर क्षेत्रीय बोलियों का अन्तर बढ़ने लगा पर हिन्दी का प्राचीन साहित्य सुरक्षित नहीं रहा जबकि राजस्थान और गूजरात में वहां की भाषा का साहित्य पर्याप्त सुरक्षित रह गया । पन्द्रहवीं शताब्दी से इन दोनों प्रान्तों की भाषाओं में भी कुछ मौलिक अंतर पाया जाता है । सोलहवीं में वह अन्तर अधिक स्पष्ट होने से मारवाड़ी और गुजराती का साहित्य भिन्न भिन्न पहिचाना जाता है । प्रस्तुत ग्रंथ में जब तक यह अन्तर स्पष्ट नहीं हुआ तब तक की विविध शैलियों की रचनाओं संग्रह किया गया है ।
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