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________________ १६.७), विणु (१.३२, विण १,४२), आगइ (१०.१५), ऊपरि (२३.१०), भिंतरि (५,१५), कतिपय विशिष्ट प्रयोग :अस्तिवाचक क्रियापद-'आछई' (७.१८); 'अछइ' (२३.२४), छइ' (७.६,७). सहायक क्रियापद वाले क्रियारूप-'विलवंत अछई' (२३.११), 'लग्गी अछिसु' (२३.१६), ___ 'उम्माहियउ छइ' (१९.८); 'पड्या छइ' (६.२८), संयुक्त क्रियापदों के रूप—'शेअणह लग्गउ' (३७.७), 'मुणेवा चाहइ' (१.११२), 'उडिवि गयउ' (३७.८), 'नेइ लेसइ' (५.८), 'पूरि रहिउ' (१.१०९), 'वीसासि करि' - (३८.३२), 'खंचि करि' (३७.४). कर्तृवाचक 'अणहार' प्रत्यय -'मग्गणहार' (५.८), 'मारणहार' (३८.३२). लघुतावाचक ०ड प्रत्यय के, जो कि कुत्सा, लालित्य, प्यार इत्यादि को भी व्यक्त करता है अथवा केवल अंग-विस्तारक होता है, उदाहरण ये हैं : ___ दिवसडई (५.६), विमलड (७.९), वाछडउ (१४.२३), हियडउ (१४.३६), रासुलडउ (१५.२१), भाद्रवडइ (३६.३४), गोरड (२१ ४), दासडिय (२२.४), एकलडी (२३.५), वहुडिय (२८.१३). क्रमांक ३८ की कृति में हत्थडई (१२), सद्दडिहिं (२०), मृगडाहं (२९), गहिल्लडी (३९), रुक्खडउ (४५), तातडी (४६), दोसडउ (४८), भग्गडउ (५२), पहरडा (५७); ओर क्रमांक ३९ की कृति में दंगडए (१), मग्गडउ (५), वेसाहडु (७), हत्त्थडा (८), कुट्टडी (१३), वोहित्थडउ (१४), ऊमाहडा (१५), छारड (२१), दिहडइ (२३) मिलते है । ये दोनों रचनाएं दोहा-बद्ध हैं और जैसा कि हम सिद्धहेम-व्याकरण-गत अपभ्रंश उदाहरणों से जानते हैं, दोहाबद्ध रचनाओं के एक प्रवाह में स्वार्थिक ०ड. प्रत्यय का आधिक्य रहता था । ___ आंबुला (२१.७), रासुलडउ (१५.२१) इनमें ० उल० और थोडिलउ (३७.२) में • इल० ये अंग-विस्तारक प्रत्यय हैं । छंदोरचना १. कडवक-देह का छन्द वदनक : ६+४+४+१ ऐसे गण-विभाग युक्त सोल मात्राओं का चरण (अन्त्य ४ मात्राओं का स्वरूप - अथवा - -)। घत्ता का छन्द : ८(४+ ४)+१४ =६+४+४; अन्त्य चार मात्राओं का स्वरूप -) ऐसे माप के चरणों वाली षट्पदी । सभो कडवकों मे यही व्यवस्था । ____२. आरम्भ में एक गाथा (पूर्वदल में (४+४+४+४+४+ - अथवा 00. + ४+-; उत्तरदल में छठा गण एकमात्रिक, शेष के लिए वही व्यवस्था), बाद में आदि-घत्ता में षट्पदी की एक तुक जिसमें १०+८+१३ (अन्त ) ऐसा चरण-विभाग । यही छन्द सभी कडवकों की अन्तिम घत्ता में ।। कडवक १. कडवक-देह का छन्द पद्धडी (४+४+४+४ : चौथे गण में जगण आवश्यक, दूसरे गण में वैकल्पिक, अन्यत्र निषिद्ध) । कडबक २. कडवक-देह का छन्द मदनावतार, अपर नाम कामिनीमोहन (- ऐसे स्वरूप वाले चार गणों का प्रत्येक चरण) । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003831
Book TitlePrachin Gurjar Kavya Sanchay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani, Agarchand Nahta
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1975
Total Pages186
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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