________________
१०. अभयतिलक-ये श्रीजिनेश्वरसूरि के शिष्य थे और लक्ष्मीतिलक की भाँति बडे विद्वान थे । हेमचन्द्र के संस्कृत द्वयाश्रय काव्य की वृत्ति सं. १३१२ दीवाली के दिन पालनपुर में बनायी। न्यायालंकारटिप्पण', 'वादस्थल' तथा कई स्तोत्र भी आपके प्राप्त हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में 'महावीर-रास' छपा है जो पहले 'जैन युग' में भी छपा था। फिर हमें इस रासकी और भी प्रतियां मिली । दो प्रतियोंके आधार से इसका संपादन किया गया है । सं. १२९१ वै. शु. १० जाबालिपुर में इनकी दीक्षा और सं. १३१९ मिगसर सुदि ७ को आपको उपाध्याय पद मिला, उसी वर्ष में इन्होंने उज्जयिनी में तपामत के पं. विद्यानन्द को जीतकर जयपत्र प्राप्त किया ।
११. जिनपद्मसूरि-इनके सम्बन्ध में हमारा 'दादा जिनकुशलसूरि' द्रष्टव्य है ।
१२. विनयचंद्रसूरि-इनके रचित 'नेमिनाथ-चतुष्पदिका' प्रस्तुत ग्रन्थ में छपी है जिसमें बारहमासों का वर्णन है । ये रत्नसिंहसूरि के शिष्य थे और १४वीं शताब्दी के प्रारम्भ में
१३. देपाल- इनकी तीन लघु रचनाएं इस ग्रन्थ में छपी हैं । देपाल बहुत प्रसिद्ध कवि हुए हैं और इनकी रचनाएं भी काफी मिलती है । इसके जीवनप्रसंगों और रचनाओं पर विचार करने से देपाल नामक दो कवि हुए संभव है। क्योंकि 'जंबू-चौपाई' सं. १५२२ और कुछ अन्य रचनाएं इसके बाद की भी मिलती है जब कि प्रबन्ध ग्रन्थों से ये पन्द्रहवीं शती में हुए लगते हैं ।
१४. जिनेश्वरसूरि-इनके रचित 'महावीर जन्माभिषेक' प्रस्तुत ग्रन्थ में छपा है व 'शांतिनाथ बोली' में श्रीमालनगर में इनके स्थापित शांतिनाथ प्रतिमा का उल्लेख है। 'युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' और 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में इनका जीवनचरित्र छपा है । इनके रचित 'श्रावकधर्मविधि' की रचना सं. १३१३ पालनपुर में हुई । 'चन्द्रप्रभ-चरित्र' और कई स्तोत्रकुलकादि आपके रचित १५ अन्य लघु रचनाएं भी प्राप्त हैं ।
१५. जिनवल्लभसूरि-प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्तमें 'नवकार-फाग-स्तवन' छपा है, इसके अंतिम पद्य में "गुरु जिणवल्लभसूरि भणइ” पाठ है इससे इसके रचयिता श्री जिनवल्लभसूरि या इनके शिष्य होने की संभावना है । बारहवीं शती के जिनवल्लभसूरि बहुत बडे विद्वान आचार्य हुए हैं । 'नवकार-स्तवन' की पन्द्रहवीं शती के पूर्व की कोई प्रति नहीं मिलती एवं भाषा में परवर्ती प्रभाव अधिक है। ___जैसा कि पहले कहा गया है, इस ग्रन्थ में प्रकाशित बहुतसी रचनाओं की एक एक प्रति ही मिली । कई रचनाओं के पाठ भी आदि अंतमें त्रुटक मिले हैं । पाठ में काफी अशुद्धियां भी थी फिर टो भायाणी जी ने काफी परिश्रम करके पाठों का संपादन किया है। जिन रचनाओंकी एक से अधिक प्रतियाँ मिली उनका पाठ तो पर्याप्त शुद्ध हो गया परन्तु जिनकी अन्य प्रतियाँ नहीं मिलीं या त्रुटक मिलीं उनकी पूरी व शुद्ध प्रतियाँ कहीं प्राप्त हो जायं तो ठीक हो । प्रस्तुत संग्रह में तेरहवीं शती तक की विविध प्रकारकी रचनाएं हैं इनमें संधि, घोर, रास, चर्चरी, भास, फाग, चतुप्पदिका, बारहमासा, वीवाहला, धवल, तलहरा, बोली, कलश, जन्माभिषेक, संवाद, दोहा, दंगडु, स्तवन संज्ञक रचनाओंका समावेश है ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org