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३३ “जिनजन्मोत्सव ५६ दिक्कुमारीस्तवन' गा. २५
और भी कुछ रचनाएं इन्हीं प्रतियों में हैं वे जिनप्रभसूरिजी की होंगी । पर उनमें नामोल्लेख नहीं है । तेरहवीं शती का अन्त और चौदहवीं का प्रारंभ इनका रचनाकाल है ।
३१ 'मुनिसुव्रतजन्माभिषेक' गा. १३ ३२ ' जिनजन्माभिषेक' गा. १५
२ जयशेखरसूरि शिष्य – इनके रचित 'शील - सन्धि' में और कुछ विवरण कवि के सम्बन्ध में नहीं है और जयशेखरसूरि नामके कई आचार्य हो गए हैं इसलिए ये किस गच्छ के और कब हुए निश्चय नहीं कहा जा सकता । इनका समय चौदहवीं शताब्दी होना सम्भव है ।
३ वज्रसेनसूरि-- इनके रचित 'भरतेश्वर बाहुबली - घोर' से केवल इतना ही मालूम होता है कि ये देवसूरि की परम्परा में या पट्टधर थे । इसीलिए इनका समय तेरहवीं शती माना गया है ।
४ आसिग - - इस कविकी तीन रचनाएं प्रस्तुत ग्रन्थ में छपी हैं जिनमें से 'कृपण गृहिणीसंवाद' में तो केवल नाम ही लिखा है । 'चन्दनबाला - रास' के अन्त में जालोर नगर का उल्लेख है पर 'जीवदया - रास' के अन्त में कविने अपना अच्छा परिचय दिया है और उसीमें रचनाकाल सं. १२५८ आश्विन सुदि ७ दिया है । कवि शांतिसूरि का भक्त था । जालोर का निवासी और वाला मन्त्रीके वंशज वेहल के पुत्र आसाइतु का पुत्र होगा । कविने अपने मौसाल का भी उल्लेख किया है । 'जीवदयारास ' उसने सहजिगपुरके पार्श्वजिनालय में बनाया है । रचनाएं इस नहीं दिया ।
५ पाल्हण - इस कवि की 'आबूरास' और 'नेमि बारहमासा' संज्ञक दो ग्रंथ में छपी है पर कवि ने अपने नामोल्लेख के अतिरिक्त अपना कोई परिचय 'आबूरास' में रचना समय सं. १२८९ दिया है ।
६ देल्हण - इसके रचित 'गजसुकुमालरास' में देवेन्द्रसूरि के बचनोंसे रचे जानेका उल्लेख किया है । देवेन्द्रसूरि संभवतः कर्मग्रंथादि के रचयिता हों, अतः कवि का समय चौदहवीं शतीका प्रारम्भ संभव है ।
७ उपाध्याय विनयप्रभ - सं. १३८२ में श्रीजिनकुशलसूरिजी के पास आप दीक्षित हुए। सं. १४१२ कार्तिक सुदि १ खंभात में आपने 'गौतम - रास' बनाया और कार्तिक पूर्णिमा को संस्कृत में 'नरवर्म - चरित्र' की रचना की । इनकी शिष्यपरम्परा के संबन्ध में हमारा
"दादा जिनकुशलसूरि” द्रष्टव्य है ।
८ लक्ष्मी तिलक - ये जीनेश्वरसूरिजी के शिष्य थे । इनकी दीक्षा सं. १२८८ में हुई । जिनरत्नसूरि इनके विद्यागुरु थे । सं. १३११ में 'प्रत्येकबुद्ध - चरित्र' १०१३० श्लोक परिमित प्रल्हादनपुर में साल की समभ्यर्थना से बनाया । सं. १३१७ में 'श्रावक-धर्म - बृहद् - वृत्ति' की रचना जालोर में की जिसका परिमाण १५१३१ श्लोकों का है । तीसरी रचना 'शांतिनाथ-रास' इस ग्रन्थ में प्रकाशित है ।
९. राजतिलक – श्री. जिनप्रबोधसूरिजीने सं. १३२२ मिती वाचकपद दिया । इनके रचित 'शालिभद्र - रास' प्रस्तुत ग्रंथ में 'जैन युग' में पहले प्रकाशित हुआ था फिर हमें दो प्रतियां और मिली उन्ही से यह सम्पादन
ज्येष्ठ कृष्ण ९ को इन्हें प्रकाशित है । यह रास
किया गया है ।
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