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कुछ अन्य रचनाप्रकारों की रचना भी इसमें देनी थी पर प्रकाशक द्वारा ग्रन्थ की पृष्ठसंख्या सीमित होने से नहीं दे सके । . बीकानेर
अपाबंद नाहटा संगृहीत रचनाओं की भाषा संगृहीत कृतियों में देपाल की रचनाओं (क्रमांक २५, २६, २७) को, जो कि १५वों शताब्दी की हैं, छोडकर शेष १३वीं शताब्दी के आसपास की रचनाएं हैं । क्रमांक १, २, ३ वाली रचनाएं संधि प्रकार की हैं । संधियों की भाषा अपभ्रंश-प्रधान होती है। क्रमांक ३३, ३५, ३६ वाली रचनाओं की भाषा का स्वरूप भी ऐसा है । इनके अतिरिक्त वस्तु छंद एवं मदनावतार-छंद में निबद्ध रचनाओं या खंडों में (जैसे कि क्रमांक ९, १२, १४, ३३, ३४, ३५, ३७ आदि में) भी अपभ्रंश के रूपों की बहुलता होती है । शेष रचनाओं में भी अल्पाधिक मात्रा में अपभ्रंश का मिश्रण है । इस तरह संग्रहगत रचनाओं की भाषा में प्राचीन, समकालीन और उत्तरकालीन प्रयोग कहीं एक प्रकार के, कहीं दूसरे प्रकार के तो कहीं मिश्र रूप से पाये जाते हैं ।
यहां पर नये परिवर्तन को लक्षित कर कतिपय विशिष्ट रूपों एवं प्रयोगों का निर्देश किया जाता है:ध्वनि-परिवर्तन
शब्दों के अंत्य स्वर की अनुनासिकता दुर्बल या लुप्त हो गई है । इस बारे में लेखन में-हस्तप्रतियों में अत्यन्त अनिश्चितता होती है । उत्तरोत्तर समय के लेखन में अंत्यानुनासिक कम होते गये हैं। -. प्रत्ययों में से हकार लुप्त करने की वृत्ति प्रकट रूप से दिखाई देती है-जैसे कि मध्यम पुरुष ब० व० का "उ'<'हु'; प्रथम पुरुष ब० व० का 'ई' <'हिं'.
स्वरों के विच 'म्' का '_' ('व') होने की प्रादेशिक प्रक्रिया एकाध रचना (क्रमांक ४ वाली) में मिलती है । ____ इंदियाल', 'दिणियर', 'पियाण' आदि थोडे शब्द 'अय्' > 'इय्' इस परिवर्तन के उदाहरण हैं । रूपरचना
रूपरचना में हेमचन्द्र-निर्दिष्ट वैकल्पिक प्रत्ययों एवं क्वचित् प्राकृत रूपों का प्रयोग होते हुए भी अमुक अमुक प्रत्यय व्यापक या प्रधान रूप से प्रयुक्त हुए हैं । इनके अतिरिक्त कहीं कहीं नूतन प्रत्यय का प्रचार होने लगा है । नीचे दी गई विशिष्टताओं को इस दृष्टि से समझना चाहिये । निर्दिष्ट प्रत्ययों के विकल्प भी कहीं पाये जाते हैं, किन्तु ये छंद आ.द विशिष्ट कारणों से किये गये अपवाद-रूप हैं । आख्यातिक रूपरचना कुछ उल्लेखनीय बातें ये हैं:
प्रथम पु० ब० के प्रत्यय- ०हि (०हिं), ०३ (०ई) ('अछइ', २३.२४) आज्ञार्थ मध्यम पु० ए० व० का ,,- ०इ. " " " ब० व० के ,,--हु, ०उ (उ)
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