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प्राचीन गुर्जर काव्य संचय
वस्तु जंबू-दीवह जंबूदीवह भरहवासम्मि भूमीतल-मंडणउ मगध-देसु श्रेणिय नरेसरु । वर गुन्वर प्रामु तहि वि| वसइ वसुभूइ सुंदरु ॥ तस भज्जा पुहवी सयल- गुण-गण-रूव-निहाणु । ताण पुत्त विद्या-निलउ गोयमु अतिहि सुजाणु ॥७
भास
चरम जिणेसर केवल-नाणी चउविह संघ पयट्टा जाणी । पावापुरि सामिय संपत्तउ चउविह-देव-निकायह जुत्तउ ॥८ देवे समवसरणु तहि कीजइँ जिणि दीठइ मिथ्या-मति खीजइ । त्रिभुवन-गुरु सिंहासणि बयठउ ततखिण मोह दिगंति पइदउ ॥९ क्रोध मान माया मद पूरा जाइ नाठा जिम दिणि चूरा । देव-दुंदुभि आकासिहि वाजी धर्म-नरेसर आविउ गाजी ॥१० कुसुम-वृष्टि विरचइँ तहि देवा चउसठि इंद्र समागय सेवा । चामर छत्र सिरोवरि सोहइ रूविहि जिणवरु जग संमोहइ ॥११ उपसम-रस-भरु भरि वरसंता जोजन-वाणि वक्खाणु करता। जाणवि वद्धमाणु जिण पाया सुर नर किन्नर आवइँ राया ॥१२ कंति-समूहिं झलझलकता गयणि विमाणा रणरणकंता । पिक्खवि इंदभूइ मणि चिंतइ सुर आवइँ अम्ह जन्य-हुउंतइ ॥१३ नीरि तरंडक जिम ते वहता समवसरणि पुहुता गहगहता । तउ अभिमानिहि गोयमु जंपइ इण अवसरि कोपिहि तणु कंपइ ॥१४ मूढा लोक अजाणिउँ बोलइ सुर जाणंता इम काइँ डोलइ । मू आगइ को जाणु भणोजइ मेरह अवरि कि ऊपमा दीजइ ॥१५
वस्तु वीर जिण-वरु वीर जिण वरु नाण-संपन्नु पावापुरि सुरसहि उपन्नु नाहु संसार-तारणु । तहि देविहि निम्मविउ समवसरणु बहु-सुक्ख-कारणु।। जिणवरु जगु उन्जोयकरु तेजिहि करि दिणकारु । सिंहासणि सामिय ठियउँ हूयउ जयजयकारु ॥१६
भास तउ चडियउ घण माण-गजे इंद्रभूइ भूदेवु । हुंकारउ करि संचरिउ कवण सु जिणवरु देवु ॥१७
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