________________
नवकार-रास
घत्ता
जिण-नवकारु जु नरु निचु झायइ सो आवइ कहया-वि न पावइ । दुट्ठ कुट्ठ गह-भउ तसु नासइ वाहि जलणु जलु दूरिहि तासइ ॥१७॥ गुरु गिरि रन्नि पडिउ मणि धारइ भव-सायरु तसु लीलइ तारइ ।। हरि करि विसहर साइणि सीह रिउ-दल तासु न लंघहि लीह ॥१८॥ जो नर झायइ ए परमक्खर दूरिहि नासहि तसु सवि तक्कर । पंच पयइँ जो अणुदिणु झायइ लच्छि सयंवर तसु घरि आवइ ॥१९॥ विहि-सउ उजमइ जो नवकारु दुत्तर हेला तरइ संसारु । जो नरु सुमरइ अठसट्ठि अक्खर तासु सुरासुर वट्टहि किंकर ॥२०॥ पभणिउ यहु नवकारह रासु सयल-मंगल-गुण-गण-आवासु । जो नरु अणुदिणु निय-मणि झायइ सिव-पुर-लच्छि पवर सो पावइ* ॥२१॥
* अंत : इति श्रीनवकाररासः समाप्तः.
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org