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प्राचीन गुर्जर काव्य संचय महियलि सग्गि पयालि तह जसु जस-परिमल-गुरु-वित्थारु । सयलहँ आगम जो तिलओ जिणिहि भणिउँ सासय नवकारु ॥८॥ काम-धेणु चिंता-रयणु सुरतरु इहु भवि हुइ वंछिय-करु । जिण नवकारु सयल अहिउ भवियहु इह-पर-लोय-सुहंकरु ॥९॥
ठवणि
पाव-नासणु, पाव-नासणु, अत्थ-गंभीरु भुवणत्तय-सुह-करणु दुटु अट्ठ कम्महँ विहाडणु। कोह-दवानल-पवरु जलु कुगइ-पंथ निच्छइ निवारणु ॥ भव-सायर सो नरु तरइ मण-वंछिय-दायारु । पंचम-गइ निरुवम लहइ जो झायइ नवकारु ॥१०॥
दुन्नि वसह गुण-गण-धवल जिण-धर्मि किउ बहु भाउ । त संबल-कंबल ते सुर हुयइँ सुणि परमिट्ठि-पभाउ ॥११॥ सिद्ध पुरिसु नवकार-फलि अहि थिउ कुसुमह माल । त पुलिंदिय नरवइ-धू हुइय पाविय सुक्ख-विसाल ॥१२॥ तणु चइ पुलिंदु सु ऊपनउँ महियलि नरवइ-पुत्तु । त जाइ-सरणि निय-भउ मुणिउँ मणि वंछिउ तिणि पत्तु ॥१३॥ पाव-निरत गयणिहि भमंत समली वीधिय बाणि । त नवकारह फलि सा हुइय नरवइ-धू सुह-खाणि ॥१४॥ नर-भवि संपइ जे वरिय पत्त जि अमर-विमाणि । त सिद्धि-रमणि जे नर रमहि फल नवकारह जाणि ॥१५॥
ठवणि निसुणि संगतु, निसुणि संगतु, पुरिसु नामेण कोडुंबिउ गामि थिउ मुणिहिं वयणि नवकार झायइ । बीय-भविहि हुउ रयणिसिहो राय-रिद्धि मइ पवर पावइ । भुंजेविणु सुह-रज-सिरि केवल-नाणु लहेइ । जो परमिद्विहि मणि सरह मण-वंछिउ तसु होइ ॥१६॥
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