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प्राचीन गुर्जर काव्य संचय अड संपय नव-पूय-सहित इगसठि लहु अक्खर गुरु अक्खर सत्तेव जाणि जाणहु परमक्खर । गुरु जिणवल्लह-सूरि भणइ सिव सुक्खह कारण नरय-तिरय-गइ-रोग-सोग-बहु-दुक्ख-निवारण ॥ जलि थलि महियलि वण-गहणि समरणि होवइ चित्त । पंच-परमेष्टि-मंत्रह तणो सेवा कीजइ नित्त ॥१३
१३.२. जाणु जाणहि. १३.३. श्रीवल्लह; बहु सुक्खह. १३.५. करिज्यो मित्तु; हुइ इकचित्त, नित्त. १३.६. देज्यो नित्त; चित्त.
___अंत: इति श्रीनवकारफलस्तवनमिदं ॥॥ इति श्रीपंचपरमेष्टिस्तवनं समाप्त ॥ इति श्री नवकारस्तोत्रं । संम भवतु । बाई अमोली वाचनार्थः छः ॥ इति श्रीनवकारफलं संपूर्ण । सं १९६५ वर्षे का शुदि २ बुद्धवासरे लिषितमिदं ॥
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