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नेमिनाथ-चतुष्पदिका [रचना-समयः १३ वीं शताब्दी कर्ताः विनय चंद्रसूरि सोहग-सुंदर घण-लायण्णु सुमरवि सामिउ सामल-वन्नु । सखि-पति राजल-चडिउत्तरिय बारमास सुणि, जिम वज्जरिय ॥१
नेमि-कुमरु सुमरवि गिरनारि
सिद्धि राजल-कन्न कुमारि ॥आंकिणी। 'श्रा व णि सरवणि कडुयं मेहु गज्जइ, विरहि रि ! झिज्जइ देहु । विज्जु झबक्कइ रक्खसि जेव नेमिहि विणु, सहि ! सहियइ केम ? ॥२ सखी भणइ 'सामिणि ! मन झूरि दुज्जण-तणा म वंछित पूरि । गयउ नेमि, तउ विणठउ काइ अछइ अनेरा वरह सयाई' ॥३ बोलइ राजल तउ इहु वयणु 'नत्थी नेमि-समं वर-रयणु । धरइ तेजु गह-गण सवि ताव गयणि न उग्गइ दिणयरु जाव ॥४ भा द्रवि भरिया सर पिक्खेवि स-करुण रोअइ राजल-देवि । 'हा ! एकलडी मइ निरधार किम ऊवेखिसि, करुणा-सार ?॥५ भणइ सखी 'राजल ! म-न रोइ नीठुरु नेमि न अप्पणु होइ । सिंचिय तरुवर परि पलवंति। गिरिबर पुण कडडेरा हुंति' ॥६ 'साचउँ, सखि ! वरि गिरि भिज्जति किमइ न भिज्जइ सामल-कति । घण वरिसंतइ सर फुति सायरु पुणु घणु ओहड्ड लिंति' ॥७
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आ सो मा सह अंसु-प्रवाह 'दहइ चंदु चंदण हिम-सीउ 'सखि ! न-वि खीना नेमिहि रेसि जिणि दिक्खाडिउ पहिलउँ छेहु 'नेमि दयालू, सखि ! निरदोसु पसुय भराविउ मूकउ वाडु क त्ति ग क्षित्तिग ऊगइ संझ रात-दिवसु अछइ विलवन्त 'नेमि-तणी, सखि ! मूकि-न आस
राजल मिल्हइ विणु नमिनाह । विणु भत्तारह सउ विवरीउ' ॥८ मन आपणपउँ तउँ खय नेसि । न गणिउ अट्ठ-भवंतर-नेहु' ॥९ कीजइ उग्रसिण-ऊपरि रोसु । मुझ प्रिय-सरिसउ कियउ विहाडु' ॥१० रजमति झिझि(?)उ हुइ अति-झंझ ।
वलि वलि, दय करि दय करि, कंत ॥११ कायरु भग्गउ सो घर-वास ।
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