________________
नहीं मिठने से काफो भाग त्रुटक रह गया । फागुसंज्ञक रचनाओं में यह सबसे प्राचीन होने के कारण इसे डा० भोगीलाल सांडेसरा ने भी 'प्राचीन फागु संग्रह' में प्रकाशित कर दिया । पर अब न तो वे फुटकर पत्र ही जेसलमेर भण्डार में रहे हैं और इन न रचनाओं की कोई दूसरी प्रति ही मिली है ।
सं. १९९९ में हम जैसलमेर के ज्ञानभण्डारों का निरीक्षण करने गये थे उस समय जिस फुटकर सामग्री का उपयोग किया, देखा वह सामग्री फिर कहाँ चली गई, कोई पता ही नहीं लगा । जेसलमेर भण्डार में हमने ताड़पत्रों के बहुत प्राचीन त्रुटित पत्र देखे थे वे दूसरी बार जाने पर नहीं मिले । पुरानी सूचियों की सैकड़ों प्रतियाँ समय समय पर गोयब होती रही है । मुनि पुण्यविजय जी सम्पादित और अभी अभी प्रकाशित 'जेसलमेर भंडार सूची' के परिशिष्ट में वि. १८०९ की सूची छपी है, वह हमारे संग्रह की ही प्रति से छपी है। इसमें ऐसे अनेक ग्रन्थों के नाम है जो आज उपलब्ध नही हैं । 'गुर्वावली' नामक एक रचना ३२६ पत्रों की उस सूची में उल्लिखित है । इतनी बड़ी गुर्वावली आज तक कोई भी
और कहीं भी जानने में नहीं आई है। जेसलमेर ज्ञानभण्डार की बहुत सी प्रतियां नष्ट हो गई और बहुत सी चली गई यह लिखते हुए बहुत ही हार्दिक कष्ट होता है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में कुछ रचनाएं ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं । शान्तिनाथ के दोनो रासों में खेड़ के शान्ति जिनालय का महत्वपूर्ण विवरण है। इसी प्रकार 'महावीररास' में भी भीमपल्ली के महावीर जिनालय का महत्वपूर्ण विवरण है। आसिग कवि ने भी 'जीवदया-रास' में पर्याप्त महत्त्व की सूचनाएं दी हैं । 'आबू रास' तो पूर्णतया ऐतिहासिक है ही । अतः संग्रहीत रचनाएं केवल साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं पर ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं ।
खेड़, जालोर और भीमपल्ली के खरतरगच्छीय जिनालयों की प्रतिष्ठा आदि के ऐतिहासिक उल्लेख 'युगप्रधानाचार्य गुर्वावली' में भी पाये जाते हैं । इस गुर्वावली की एक मात्र प्रति बीकानेर के क्षमाकल्याणजी के भंडार में हमें प्राप्त हुई थी जिसे मुनि जिनविजयजी द्वारा सम्पादित करवाके उसे मूलरूप में और जिनदत्तसूरि सेवा संघ से हमने इसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करवा दिया है। सं. १२५८ में खेड़नगर के शांतिनाथ की प्रतिष्ठा का उल्लेख उक्त मूल गुर्वावली के पृ. ४४ में और जालोर के सं. १३१७ के प्रतिष्ठा उल्लेख पृ. ५१ में द्रष्टव्य है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में जो रचनाएं प्रकाशित हुई हैं, उनसे प्राचीन रचनाप्रकारों व शैलियों का बहुत अच्छा परिचय मिलता है । इनमें से कई रचनाप्रकारों की परम्परा तो शताब्दियों तक चलती रही है । इन रचनाप्रकारों में से कुछ की परम्परा के सम्बन्ध में हमारे शोधपूर्ण लेख भी प्रकाशित हो चुके हैं। कई रचनाप्रकारों की परम्परा आगे न चल पाई । घोर, तलहरा संज्ञक रचनाएं तो और कोई मिली भी नहीं । संधि, रास, चर्चरी. फाग, चौपाई, बारामासा, भास, विवाहला, धवल, बोली, कलश, जन्माभिषेक, संवाद संज्ञक रचनाएं तो काफी पायी जाती हैं ।
Jain Educationa Intemational
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org