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प्राचीन गुर्जर काव्य संचय तहि एरिसि तरुणतणि, विसय-सारु निच्छइ सरिज्जइ ।। पउमसिरि पउमहू वयणि, जंपइ सुणि भत्तार । सुर-नर-खयरह दुल्लहा, भुंजहि पंच पयार ॥६
____एहु जोवणु एहु जोवणु अथिरु मन्नेहि बोलावइ समसरिसु, पंच-दीह-पाहुणय-तुल्लउँ । विसयाण सुह मुह-रसिय, काइँ चित्तु तुह एहु भुल्लउ ॥ सुणि सुंदरि जंबू भणइ, जोवणु विसय म हारि । चंचल जोवणु एहु फलु, धम्मि विकिज्जइ नारि ॥७
कंत जीविय कंत जीविय तणउ फल एहु जं रमियइ घर-घरणि, नव-विलास-रस-हाव-भाविय । सिंगार-रस-रंग-सुह, विविह-भंग रय-भंग मारहि (१) ॥ पउमसेण जंपेइ सुणि, सामिय तवह न दीहु । विद्ध-समइ दुक्कर चरण, कर तुहुँ होइउ सीहु ॥८
जीउ सुंदरि जीउ सुंदरि सामि आपन्नु सा सेवि आवागमणु, किणइ भावि चंचल सहाविण । इणि कारणि धम्मु वर, तुरिउ रमणि किज्जइ सहाविण ॥ जंबु-कुमरु पभणेइ धणि, कम्मि कयंतह हत्थु । कहइँ अवेलह चालिसइ, न-वि संवल न-वि सत्थु ॥९
कणइसेणा कणइसेणा भणइ सुणि सामि एह रिद्धि बहुविह पवर, कणय रयण बहु विविह-भंगिहिं । जा उप्पमु पुणु लहइ, नव निहाण भंडार संगिहिं ॥ हत्थि कयं म-न पाइ करि, मिल्हि म कणयह कोडि । सावय-धम्मिण कंत तुहुँ, सव्वि किलेस वि तोडि ॥१०
भरहि मघविण भरहि मघविण संति सगरेण अरु कुंथु जिण-चक्कवइ, नव-निहाण सिरि जेहि छड्डिय । . . इह, चंचल अथिरु पुणु, नरय-गमणि नहु होइ अड्डिय ॥ सो पुण वुच्चइ वाणियउ, जो लाहइ वणिजेइ । तुच्छ रिद्धि जो परिहरई, सासइ-संपइ लेइ ॥११
कुडिल-कुंतल कुडिल-कुंतल चंद-सम-वयणि खामोयरि हंस-गइ, कमल-नयणि उन्नय-पओहरि ।
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