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जीवदया-रास [कर्ता : आसिग
रचना-समय : १२०१] उरि सरसति आसिगु भणइ नवउ रासु जीवदया-सारु । कन्नु धरिवि निसुणेहु जण! दुत्तरु जेम तरहु संसार ॥१ जय जय जय पणमउ सरसत्ती जय जय जय दिवि पुत्थाहत्थी ।
कसमीरह मुख-मंडणिय त तुढिइ हउ रयउ कहाणउँ ।
जालउरउ कवि वजरइ देहा-सरवरि हंसु वखाणउँ ॥२ पहिलउ अक्खउँ जिणवर-धम्म जिम सफल हुई माणुस-जम्मु ।
जीव-दया परिपालिजऍ माय बप्पु गुरु आराहिज्जइ ।
सव्वह तित्थह तरुवरहँ (?) घरिवइ (?) छाही-फलु पावीजइ ॥३ देव-भत्ति गुरु-भत्ति अराहहु हियडइ अखि धरेविणु चाहहु ।
धणु वेचहु जिणवर-भवणि खाहु पियहु नर ! बंधहु आसा ।
काया गढ तारुण्ण-भरि जं न पडहि जम-देवहँ पासा ॥४ सारय-सजल-सरिसु पर धंधउ नालिउ लोउ न पेखइ अंधउ ।
डुंगरि लग्गइ दव हरणि तिम माणुसु बहु दुक्खहँ आलउ ।
डज्झइ अवगुण-दोसडइ जिम हिम-बणि वण-गहणु विसालउ ॥५ नालिउ अप्पड अप्पइँ दक्खइ पायहँ हिट्रि बलंतु न पिक्खइ ।
गणिया लब्भहि दिवसडइँ जं जि मरेवउ तं वीसरियउ ।
दाणु न दिन्नउ तपु न किउ जाणतो वि जीउ छेतरियउ॥६ अरि जिय ! यउ चिंतिवि करि धम्मु वलि वलि दुल्लहु माणुस-जम्मु ।
नत्थि कोइ कासु वि तणउँ माय ताय सुय सज्जण भाई ।
पुत्त कलत्त कुमित्त जिम खाइ पियइ सवु पच्छइ थाई ॥७ धणि मिलियइ बहु मग्गणहार किं तसु जणणिहि किं महतार ।
कि केतउ मागइ धरणि पुत्रु होइ प्राणी णेइ लेसइ ।
विहचण-वारहँ पत्तगहँ बोलाविउ को सादु न देसइ ॥८ अशुद्ध पाठ : १. २. जीवादय. १. ५. कंनु. २. ४ तुट्ठी. ३, २. जमु. ३. ४ हिजइ. ४. ३, घणु, ६. १. अप्पओ. ६. २. वलं तु. ६. ५. दिनउ. ७. १. धंमु. ७. २. दुलहु, जंमु. ७. ४. भाय. ८. १. वहु.
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