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श्रीमहावीर-कलश
जा परिसु(?) निय-मणि धरइ वासवु गिरि-सिहरग्गि । ताम जिणेसरु लहुय-तणु चालइ मेरु कमग्गि ॥११
ताम उब्भड वियड दढ कढिण अमराहिव भर-थडह निविड-सरल-तरु घण-समूहह । मणि-रयण-कुटिम-तलह सुर-विमाण-आरूढ देवह ॥ निय-ठाणंतरि संठियउ जं सुर-गिरि चालेइ । वीर-जिणेसह लहुय तणु सुर-गिरि-सिरु चंपेइ ॥ १२
__ सयल-सुरगिरि-पउर-पायार सर सरवर विवर पर पउर गाम पट्टण विसालइ । थरहरिय नंदणवणइ निविड दुग्ग दुग्गम करालइ ।। करयल-रव उत्तट्ठ घण इम सुरयणु जंपेइ । .... 'वीर जिणेसर लहुय-तणु अहवा किंपि जिणेइ' ॥ १३
ताम जिण-वलु मुणवि सुर-नाहु जोडेवि कर सिरि धरइ 'खमह नाह अतुलिय-परक्कम । नव जाण (?) तुज्झ बलु वीर दमिय-कंदप्प-दुद्दम' ॥ पुण विज्जाहर-सुर-गणह जंपइ एहु सुरिंदु । 'लेवि कलस मा चिरु करहु न्हावहु वीर-जिणिंदु' ॥ १४
अंत : इति श्रीमहावीरकलसः समाप्तः.
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