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प्राचीन गुर्जर काव्य संचय दक्षिण-दिसि पंखुडिय नमो जपि आयरियाणं सोवन-वन्नह सीस-सहित सिरि-ऊपरि माणं । रिद्धि-सिद्धि-कारणिहि लाभ-ऊपरि जे ध्यावहि" पहिरवि पीयल वत्थ तेह मण-वंछिय पावहि ॥ इणि झाणिहि नव निधि हुवइ रोग कदिहि न-वि होइ । गज-रथ-हयवर-पालकी चमर छत्र सिरि जोइ ॥५ नील-वन्न उवझाय सीस पाढंताँ पच्छिम आराहिज्जइ अंग पुव्व धारंति मणोरम । पच्छिम-दिसि पंखुडिय कमल उप्परि जे झाणं पहिरवि नीला वत्थ तेह गुरु-वयण प्रमाणं ॥ गुरु लख लखहि जि ते विदुर तिह नर बहु फल हुंति । मन सुद्धि-विहूणा जे जपइ तिहि नर सिद्ध न हुंति ॥६ सव्व-साधु उत्तर विभाग सामलउ बइठ्ठउ जिण-धम्म लोय-पयासयंतु चारित-गुण-जिट्ठउ । मन-वयणिहि काएहि जपहिजे इक्कहि झाणहि पंच-वन्न विहि झाण जाणि गुरुएव-प्रमाणिहि ॥ अनंत चउवीसी जे हुइय हुइसइ अवर अनंत । आदि कोइ जाणइ नही इणि नवकारह मंत ॥७ 'एसो पंच नमुक्कारो, पद दस दिसि-अगनेइहि 'सव्व पाव पणासणो' पय जपइ नीरेइहि (?) । वाइव-दिसि झाएहि जपइ मँगलाणं च 'सव्वेसिं' 'पढमं हवइ ति मंगलं' ईसाण-विदेसिहि ॥ चिहुँ-दिसि चिहुँ विदिसिहि मिलिय अठदल कमल-विसेस ।
जो गुरु लख जाणी जपइ सो घण पाव हणेस ॥८ ५.२. जपइ नमो. ५.३.४. क्रम ऊलट-पुलट.५४. पीला, ति नर. ५५. हुइय, रोर निकंद कदे, कदइ, नहि. ५६. पालषी. ६.१. पाढंतय, पादता. ६.३. पउमासणि, पच्छिमसणि, कमल निय, सुह झाणं. ६.१. जोवहि(उ) परमाणंदु तासु गय, देव (देवांह) विमाण. ६.५. जे लक्खहि, तजेवि, जपइ तिहां, होइ. ६.६. तिहां, होइ.७.१. विभागि सामला बइठ्ठा. ७.२. जिट्टा. ७.३. जपइ ठाणहिं ७.४. तिहां नाझाण, ७.५. जगि हुईय, हुईण ए, होसी ७.६. एह नवकार महंत. ८.१. दस गेवहिं अग्गेइ. ८.२. वाइवदिसि झाएहि पढम, जाप; निराहहि, नीरेहिय, नीरेइ. ८.३. झाएहिं पढम, जपइ. ८.४. पदेसिं, पदेसइ. ८.५. चउ; कमल ठवेइ. ८.६. गुरु लघु; खवेइ, हवेइ, षणेइ, यणेस.
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