Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल किताब में पृष्ठ नं. २१५ से २२८ तक के पृष्ठ न होने की वजह से इस की इ-बुक में नहीं रख पाये हैं । यदि किसी वाचक के पास यह किताब मिलती है। और उसमें यदि यह उपर दर्शाये पृष्ठ है तो कृपया यह पृष्ठ स्केन कर भेजें । धन्यवाद. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त एक अध्ययन कर्मबन्धन और मुक्ति प्रक्रिया का तुलनात्मक विवेचन डा० कुमारी मनोरमा जैन 2010_03 For Private.& Personal use only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामनस्वी श्री जिनेन्द्र वर्णी जी 2010_03 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_03 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LALIT C. SHAH जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त एक अध्ययन कर्मबन्धन और मुक्ति प्रकिया का তষ্কে র্নিয়ে डा० कुमारी मठोरमा जैन रोहतक १९९३ श्री जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला पानीपत 2010_03 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: श्री जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला ५८/४, जैन स्ट्रीट, पानीपत (हरियाणा) दूरभाष: २१६५५ आर्थिक सहयोगः श्रीमती अशोक कुमारी जैन, धर्मपत्नी श्री आदेश कुमार जैन, हिसार * © सर्वाधिकार सुरक्षित प्रथम संस्करण १००० प्रतियों फरवरी १९९३ मूल्य ४८-०० मुद्रक: पारस प्रिन्टर्स एण्ड पब्लिशर्स बी० - ४५, सैक्टर ८ नोएडा - २०१३०१ दूरभाष: ८९-५११५२ 2010_03 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण और कृतज्ञता ज्ञापन प्रस्तुत ग्रन्थको लिखनेका प्रमुख श्रेय मेरे अध्यात्म गुरू, नित्य स्मरणीय, परमश्रद्धेय गुरूदेव श्री जिनेन्द्र वर्णीजीको प्राप्त है । जिन्होंने अपनी दिव्य ज्ञान ज्योति से पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित इस गहन विषय के मार्मिक तथ्योंका अवबोध कराने में अथक प्रयास किया है। उनके द्वारा प्रदीप्त की गई ज्योति अन्त तक पथप्रदर्शिकाके रूपमें प्रज्वलित रही। उनके जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश से जो सहायता मिली उसे शब्दोंमें व्यक्त नहीं किया जा सकता। इस जीवन में अध्यात्म ज्योति को प्रदीप्तकर अमृतत्व प्रदान करने वाले अध्यात्मयोगी परमश्रद्धेय गुरूदेवके श्री चरणोंमें यह कृति सादर समर्पित है। शोध प्रबन्धके रूपमें विषयका प्रतिपादन कराने का श्रेय महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक के तत्कालीन संस्कृत विभागाध्यक्ष परम आदरणीय डॉ० जयदेव विद्यालंकार जी को प्राप्त है ।उनका हृदय से धन्यवाद करती हूँ। ब० अरिहन्त कुमार जैन, कालका निवासी कु० कौशल जैन, डॉ० सुधा जैन, डॉ० निर्मला जैन, डा० सुधीकान्त भारद्वाज, डा० सागरमल जैन, डॉ० दरबारीलाल कोठिया, डॉ० आशामलैया आदि विद्वानों की शुभकामनाओं तथा सहयोग के लिए हृदयसे कृतज्ञ हूँ | दिवंगत पिता श्री रघबर दयाल जैनकी शुभ कामनाएं, आदरणीया माता श्रीमती कान्ती देवी, एवं भ्राताश्री अनन्तवीर जैन और मुख्याध्यापिका श्रीमती मोहिनी शर्मा के सहयोग लिए हृदय से कृतज्ञहूं। अन्त में जिनसे भी इस कार्य की पूर्णताके लिए यथाकिंचित सहयोग मिला सबका हृदयसे धन्यवाद करती हूं। श्री जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला पानीपतके प्रबन्धक श्री सरेश कुमार जैन ने इस शोध प्रबन्धको ग्रन्थमाला से प्रकाशित करवानेकी व्यवस्था की है और भाई आदेश कुमारने द्रव्य प्रदान कर प्रकाशन कार्यमें सहायता की है उसके लिए हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करती हुई प्रस्तुत कृति को पाठकोंके समक्ष प्रस्तुत करती हूं। जैन कर्मसिद्धान्त का तुलनात्मक अवबोध कराने में तथा कर्मबन्धनसे कर्ममुक्ति की साधना को स्पष्ट करने में यदि किंचित् मात्र भी सहायता इस ग्रन्थ से मिल सकी तो मेरा यह परिश्रम सफल होगा। यथा सार्मथ्य सुप्रयास होते हुए भी त्रुटियोंके लिए क्षमायाचना चाहती हूँ। विज्ञजनोंसे मेरा हार्दिक निवेदन है कि अपने उपयोगी सुझाव देकर अनुगृहीत करें। बाल ब० डॉ० मनोरमा जैन, रोहतक 2010_03 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्री जिनेन्द्र वर्णी जी की परम शिष्या बाल ब्र० डॉ० कुमारी मनोरमा जैन द्वारा लिखित प्रस्तुत ग्रन्थ को श्री जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला, पानीपत के द्वारा प्रकाशित करते हुए अति प्रसन्नता हो रही है । यह ग्रन्थ महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक द्वारा पी०एच०डी० की उपाधि के लिए स्वीकृत किया गया शोध प्रबन्ध है । इस शोध प्रबन्ध की प्रति को जिसने भी पढा उसने ही प्रकाशित कराने का आग्रह किया और विषय तथा प्रस्तुतीकरण की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की । जिज्ञासु जनों के सप्रेम आग्रह को देखते हुए हमने इस शोध प्रबन्ध को इस ग्रन्थमाला से प्रकाशित करवाने का निर्णय लिया। हमें आशा ही नहीं पूर्ण अपितु विश्वास है कि यह ग्रन्थ शोध छात्रों के लिए, जिज्ञासुओं के लिए और कर्मबन्ध से मुक्ति पाने वाले साधकों के लिए एक विशेष दिशा का निर्देशन करेगा । इस ग्रन्थ के प्रकाशन में रोहतक निवासी स्व० श्री रघबर दयाल जैन के सुपुत्र श्री आदेश कुमार जैन (मैनेजर स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया) की धर्मपत्नी श्रीमती अशोक कुमारी जैन ने माता श्रीमती कान्ती देवी की पुण्य स्मृति में ८१०० रुपये की धनराशि प्रदान कर अपने धन का सदुपयोग किया है । १००१ रुपये की धनराशि गुप्तदान में प्राप्त हुई है । ग्रन्थमाला की ओर से हम उनका धन्यवाद करते हैं । जिनवाणी प्रचारार्थ कृत यह सहयोग अवश्य ही उनके तथा उनके परिवार के शान्ति पथ को प्रशस्त करेगा । इस ग्रन्थकी प्रूफरीडिंग में तथा अन्य सभी प्रकाशन कार्यों में ब्र० अरिहन्त कुमार जैन का सहयोग अति सराहनीय है । ग्रन्थमाला की ओर से हम उनका हार्दिक धन्यवाद करते हैं। माता सरस्वती की यह निस्वार्थ सेवा उनके साधना पथ को प्रशस्त करे, यही प्रभु से प्रार्थना है । 2010_03 प्रकाशक (श्री जिनेन्द्रवर्णी ग्रन्थमाला) पानीपत Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश की रचना एक चमत्कार 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' के रचयिता तथा सम्पादक श्री जिनेन्द्र वर्णीका जन्म १४ मई १९२२ को पानीपतके सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व० श्रीजयभवान् जी जैन एडवोकेटके घर हुआ। केवल १८ वर्षकी आयुमें क्षय रोगसे ग्रस्त हो जाने के कारण आपका एक फेफड़ा निकाल दिया गया जिसके कारण आपका शरीर सदाके लिए क्षीण तथा रुग्ण हो गया। सन् १९४९ तक आपको धर्मके प्रति कोई विशेष रूचि नहीं थी। अगस्त १९४९ के पर्युषण पर्वमें अपने पिताश्री का प्रवचन सुननेसे आपका हृदय अकस्मात् धर्मकी ओर मुड़ गया। पानीपतके सुप्रसिद्ध विद्वान् तथा शान्त-परिणामी स्व० पं० रूपचन्द जी गार्गीयकी प्रेरणासे आपने शास्त्रस्वाध्याय प्रारम्भ की और सन् १९५८ तक सकल जैन-वाड्मय पढ डाला । जो कुछ पढ़ते थे उसके सकल आवश्यक सन्दर्भ रजिस्ट्रोंमें लिखते जाते थे। 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' के नामसे प्रकाशित जो अत्यन्त परिष्कत कति आज हमारे हाथमें विद्यमान है, वह इसका प्रथम रूप नहीं है। इससे पहले भी यह किसी न किसी रूपमें पाँच बार लिखी जा चुकी है। इसका यह अन्तिम रूप छठी बार लिखा गया है। इसका प्रथम रूप ४-५ रजिस्ट्रों में जो सन्दर्भ संग्रह किया गया था, वह था। द्वितीय रूप संदर्भ संग्रहके खुले परचोंका विशाल ढेर था। तृतीय रूप 'जैनेन्द्र प्रमाण कोश' नाम वाले वे आठ मोटे-मोटे खण्ड थे जो कि इन परचोंको व्यवस्थित करने के लिए लिखे गये थे। इसका चौथा रूप वह रूपान्तरण था जिसका काम बीचमें ही स्थगित कर दिया गया था। इसका पाँचवाँ रूपवे कई हजार स्लिपें थी जो कि जैनेन्द्र प्रमाण कोश तथा इस रूपान्तरणके आधारपर वर्णी जी ने ६-७ महीने लगाकर तैयार की थी तथा जिनके आधारपर अन्तिम रूपान्तरण की लिपि तैयार करनी इष्ट थी। इसका छठा रूप यह है जो कि 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' के नामसे आज हमारे सामने है। . यह एक आश्चर्य है कि इतनी रुग्ण कायाको लेकर भी वर्णी जो ने कोष के संकलन, सम्पादन तथा लेखनका यह सारा कार्य अकेले ही सम्पन्न किया है । सन् १९६४ में अन्तिम लिपि लिखते समय अवश्य आपको अपनी शिष्या ब्र० कुमारी कौशल का कुछ सहयोग प्राप्त हुआ था, अन्यथा सन् १९४९ से सन् १९६५ तक 2010_03 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (IV) १७ वर्षके लम्बे कालमें आपको तृण मात्र भी सहायता इस सन्दर्भ में कहीं से प्राप्त नहीं हुई। यहाँ तक कि कागज जुटाना, उसे काटना तथा जिल्द बनाना आदि का काम भी आपने अपने हाथ से ही किया । यह केवल उनके हृदयमें स्थित सरस्वती माता की भक्तिका प्रताप है कि एक असंभव कार्य भी सहज संभव हो गया और एक ऐसे व्यक्तिके हाथसे संभव हो गया जिसकी क्षीण कायाको देखकर कोई यह विश्वास नहीं कर सकता कि इसके द्वारा कभी ऐसा अनहोना कार्य सम्पन्न हुआ होगा। भक्ति में महान शक्ति है. यही कारण है कि वर्णीजी अपने इतने महान् कार्यका कर्तृत्व सदा माता सरस्वतीके चरणों में समर्पित करते आये हैं और कोश को सदा उसी की कृति कहते आये हैं। यह है भक्ति तथा कृतज्ञताका आदर्श । - यह कोश साधारण शब्द-कोश जैसा कुछ न होकर अपनी जाति का स्वयं एक ही कोश है। शब्दार्थ के अतिरिक्त शीर्षकों, उपशीर्षकों तथा अवान्तर शीर्षकों में विभक्त वे समस्त सूचनायें इसमें निबद्ध हैं जिनकी कि किसी भी प्रवक्ता, लेखक अथवा संधाता को आवश्यकता पड़ती है। शब्द का अर्थ, उसके भेद-प्रभेद, कार्यकारणभाव, हेयोपादेयता, निश्चय-व्यवहार तथा उसकी मुख्यता गौणता, शंका समाधान, समन्वय आदि कोई ऐसा विकल्प नहीं जो कि इसमें सहज उपलब्ध न हो सके। विशेषता यह है कि इसमें रचयिताने अपनी ओर से एक शब्द भी न लिखकर प्रत्येक विकल्पके अन्तर्गत अनेक शास्त्रोंसे संकलित आचार्यों के मूल वाक्य ही निबद्ध किए हैं। इसलिए यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि जिसके हाथ में यह महान् कृति है उसके हाथमें सकल जैन-वाड्म य है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशका अब तृतीय संस्करण प्रकाशित हुआ है । इसे भोपालकी जैन समाज ने देश-विदेशके विभिन्न विश्वविद्यालयों को अपनी ध नराशि से उपलब्ध कराने का प्रबन्ध किया है । इसका पंचम इण्डैक्स खण्ड, भारतीय ज्ञानपीठ से शीघ्र ही प्रकाशित हो रहा है । जैन दर्शनके अध्येताओं के लिये श्रद्धेय वर्णी जी की यह अभूतपूर्व देन है। सुरेश कुमार जैन पानीपत 2010_03 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहस्योद्घाटन - अहो । ऋषियोंकी परमानुकम्पा कि जो नवनीत उनके समाधिगत चित्तमें प्रादुर्भूत हुआ, जिस अमृत को उन्होंने अनेकों बलिदान देकर कठोर तपस्याओंसे प्राप्त किया, उसको वे बांट रहे हैं निःशुल्क । जो आये वह पीकर अमर हो जाये । कितनी करुणा है तथा कितना वात्सल्य है उन्हें प्राणी मात्र से कि विषय वासनाकी भट्टी में भड़ाभड़ जलते देखकर किस प्रकार उन्हें वहाँसे निकाल लेना चाहते हैं । जिस देवको उन्होंने हृदयकी गहन गुफ़ामें स्थूल व सूक्ष्म अनेकों आवरणका भेदन करके बड़े परिश्रमसे खोज निकाला है, जिसके कुछ क्षणके दर्शन मात्रसे भवभवके सन्ताप शान्त हो जाते हैं, कृत कृत्यताका अनुभव होता है और समस्त वासनायें शान्त होकर अक्षयानन्दकी प्राप्ति होती है, उस प्रभुके दर्शन कर लेने से उनकी वाणी सहज ही खिर उठी, कि ओ जगवासियों । तुम भी उस देवको अपने हृदयमें खोजो । यह परमात्मा इस देह रूप देवालयमें तिष्ठता है, परन्तु खेद है कि इन आंखोंसे उसका देखा जाना संभव नही है। उसके लिए दिव्य चक्षु चाहियें जिसकी प्राप्ति के लिए हृदयगत सूक्ष्म से भी सूक्ष्म आवरणका भेदन करना होगा । कुछ मात्र स्थूल आवरणोंके भेदनसे प्राप्त किंचित् प्रकाशमें कदाचित् उसके दर्शनोंकी भ्रान्ति हो जाया करती है । अत: भो भव्य । सभी भ्रन्तियोंसे बचकर उस महात्माका दर्शन, स्पर्शन तथा अनुभवन करो । प्रस्तुत ग्रन्थ इन भ्रान्तियोंका कारण दर्शाकर उनसे बचने का उपाय बताता है इन भ्रान्तियोंका कारण है कर्म । यद्यपि इस सिद्धान्तका विवेचन अन्य दर्शनकारों ने भी किया है परन्तु इस विषयका जितना विशद विवेचन जैनाचार्यों ने किया है वैसा अन्यत्र नहीं पाया जाता । संक्षेपमें उसका परिचय निम्न प्रकार है वस्तु मुख्यता दो प्रकारकी होती है-द्रव्यात्मक तथा भावात्मक । पारमार्थिक मार्ग में द्रव्यकी अपेक्षा भाव ही सर्वत्र प्रधान होता है । जीवके भावोंका निमित्त पाकर 'कर्म' नामक एक सूक्ष्म जड़ द्रव्य जीवके प्रदेशोंमें एक क्षेत्रावगाही होकर स्थित हो जाता है। तहां जीवका वह भाव तो भाव- कर्म कहलाता है और उसके निमित्तसे जो सूक्ष्म जड़ द्रव्य उसमें प्रविष्ट होता है वह द्रव्य-कर्म कहा जाता है । जीव तथा जड़का यह संबंध अनादिगत है । खानमें से निकले स्वर्ण-पाषाणकी भाँति जीवके साथ मन, वचन, काय इन तीन योगों का संबंध प्राकृतिक है, जिनके द्वारा वह नित्य ही कुछ न कुछ कर्म करता रहता है । इस कर्मका संस्कार चित्त 2010_03 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (VI) भूमिपर अंकित होता जाता है। प्रथम क्षणमें जो संस्कार उसमें प्रवेश पाता है वह 'आसव' कहलाता है और उत्तरोत्तर उसका परिपुष्ट होते रहना 'बन्ध' कहा जाता है। बन्धको प्राप्त यह संस्कार भीतर ही भीतर जीवको पुन: पुन: वही कर्म करनेके लिये उकसाया करता है। करणानुयोगमें इस सूक्ष्म जड़ द्रव्यको 'कर्म' संज्ञा दी गई है उसका कारण यह है कि इसके द्वारा जीवके सूक्ष्मसे सूक्ष्म भाव-कर्म का सरल रीतिसे कथन करना संभव हो जाता है । वास्तव में यहाँ इस द्रव्य-कर्मको बताना इष्ट नहीं है, न वह कुछ दु:ख ही देता है । उसपर से जीवके भाव कर्मको दर्शाना इष्ट है और वह ही दु:ख सुखमें हेतु होता है। द्रव्य-कर्म जीवके भावोंको मापनेका एक यंत्र मात्र है। अत: उस नामके कर्मसे उस प्रकारके भावका ही ग्रहण करना चाहिये। पूर्व-सञ्चित संस्कार या कर्म -बन्धसे तदनुकूल गति, इन्द्रिय व भोग आदि मिलते हैं, जिससे प्रेरित होकर जीव पुन: वही भाव या कर्म करता है। उससे फिर संस्कार तथा कर्म-बन्ध और उससे फिर गति आदि । यह चक्र अनादि से चला आ रहा है और चलता रहेगा। अब प्रश्न यह होता है कि यह चक्र कैसे रुके । इसका उपाय कर्म-सिद्धान्त बताता है। जड़ कर्म जीवको बल पूर्वक वैसा भाव कराता हो, ऐसा नहीं है। वह कुछ ऐसी स्थिति उत्पन्न करता है या करनेमें निमित्त होता है जिसमें कि जीवको प्राय: वैसाभाव करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। संस्कारका बल भी सदैव समान नहीं रहता, तीव तथा मन्द होता रहता है। तीन शक्तिसे युक्त कर्म तथा संस्कारके उदय में भले ही जीवको विवश तदनुकूल भाव करने पड़ें, परन्तु मन्द उदयमें यदि सद्गुरुकी शरण प्राप्त हो जाय और उनका उपदेश सुने तो तत्त्व चिन्तनकी दिशामें झुककर कदाचित् अहंकारसे निवृत्त होना उसके लिये संभव हो सकता है। ऐसी दशा उत्पन्न हो जानेपर पूर्व संस्कारोंका बल उत्तरोत्तर ढीला पड़ता जाता है और उनके स्थानपर कुछ नवीन संस्कारोंका निर्माण होने लग जाता है। इस प्रकार संस्कारोंकी और उनके साथ-साथ कर्मोंकी दिशा बदल जाती है । अशान्ति-जनक संस्कारोंकी गति रुद्ध हो जाती है। इसे 'संवर' कहते हैं। शान्तिजनक नवीन संस्कारोंका बल उत्तरोत्तर बढ़ने लगता है जिससे पुरातन संस्कारोंकी शक्ति क्षीण होने लगती है। धीरे धीरे वे मृत-प्राय: हो जाते हैं । इसको निर्जरा कहते हैं । यह समस्त प्रक्रिया आगममें अपकर्षण, संक्रमण, उदय, उदीरणा, उपशम, क्षय आदि विभिन्न नामोंसे विस्तार सहित बताई गई है। 2010_03 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (VII) इसी क्रमसे धीरे-धीरे आगे चलने पर साधक उन नवीन संस्कारों को भी क्षीण कर देता है और निर्विकल्प समाधि में स्थित हो जाता है, अर्थात् अन्तरंग तथा बहिरंग समस्त मानसिक व्यापारको रोककर समता भूमिमें प्रवेश कर जाता है। तब उसके हृदयमें उस ज्ञानमूर्ति के दिव्य दर्शन होते हैं जिसमें कि तीन लोक तीन काल हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष हो उठते हैं। जीवकी यह दशा 'जीवन्मुक्त कहलाती है। संस्कार-विहीन हो जानेपर कुछ काल पश्चात् कायिक तथा वाचिक क्रियायें भी स्वत: रुक जाती हैं और यह स्थूल शरीर भी किनारा कर जाता है। अब वह महाभाग्य 'विदेह मुक्त' होकर सदा के लिए चिदानन्द घनमें लीन हो जाता है | साधकके मार्गमें प्राय: भयंकर विध्न आते हैं। इस रहस्यको जानना सरल नहीं है। बड़े-बड़े तपस्वी उनसे अनभिज्ञ रहने के कारण धोखा खा जाते हैं। उनमें से एक प्रधान विध्न यह है कि जब साधक अशान्ति-जनक स्थूल संस्कारोंपर विजय पा लेता है और उसके प्रभावसे जब उसमें एक धीमीसी ज्योतिमयी रेखाकी झलक आती है तो वह अपनेको पूर्णकाम समझ बैठता है। इसका कारण यह है कि वह झलक इतनी स्वच्छ तथाशीतल होती है कि साधकके सर्व तापक्षण भरके लिए शान्त हो जाते हैं । इस भ्रान्तिके कारण साधक ज्यों ही कुछ प्रमाद करता है त्यों ही उसके प्रसुप्त संस्कार जागृत होकर उसे ऐसा दबोचते हैं कि बेचारेको सर उभारनेके लिए भी अवकाश नहीं रह जाता और पथ-भ्रष्ट होकर चिर कालतक जगतके कण-कणकी खाक छानता फिरता है। उसकी यह दशा अत्यन्त दयनीय होती है। आचार्यों की करुण कपाका कहाँ तक वर्णन किया जाये। बुद्धि से अगोचर इन सूक्ष्म संस्कारके प्रति साधकको जागरूक करने के लिये उन्होंने गुणस्थान परिपाटीके द्वारा उनकी अदृष्ट सत्ताका बोध कराया है। समाधिगत निर्विकल्प साधुके हृदयकी किसी गहराईमें बैठे उनकी सत्ताका दिग्दर्शन कराके उनके उदयकी संभावना के प्रति चेतावनी दी है। बुद्धि- गम्यकी अपेक्षा बुद्धिसे अतीत इन वासनागत संस्कारों को तोड़ना अत्यन्त क्लेशकर होता है । लब्धिगत इनका उन्मूलन किये बिना आनन्दघनमें प्रवेश होना संभव नहीं। अत्यन्त परोक्ष होनेके कारण इस विषयको शब्दों द्वारा समझाना कोई सरल काम नहीं है । इसे समझनेके लिए अत्यन्त केन्द्रित उपयोगकी तथा कटिबद्ध लम्बे अभ्यासकी आवश्यकता है। इसका यथार्थ परिचय करणानुयोगकी शरणमें जाये बिना संभव नहीं है । यह छोटी सी पुस्तक आपको उसकी शरणमें जानेकी प्रेरणा दे, बस इतनी ही मेरी प्रभुसे प्रार्थना है । अध्यात्म प्रेमियों के हृदयमें इस अनुयोगको पढ़ने की रुचि जागृत हो, बस इतनी मात्र ही मेरी भावना है। श्री जिनेन्द्र वर्णी 2010_03 FO Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 'जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त-एक अध्ययन' यह ग्रन्थ महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक द्वारा १९८७ में पी०एच०डी० की उपाधि हेतु स्वीकृत किया गया शोध प्रबन्ध है । इसमें कर्मबन्धनसे लेकर कर्ममुक्ति तक की प्रक्रियाका तुलनात्मक विवेचन किया गया है। कर्मसिद्धान्त भारतीय दर्शनका एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है, जिसे चार्वाक् दर्शनको छोड़कर अन्य सभी दर्शनों ने किसी न किसी रूपमें स्वीकार किया है । जैन दर्शनमें कर्मसिद्धान्तको नींवका पत्थर माना गया है क्योंकि समस्त दार्शनिक विषयोंका यह मूल आधार है । यद्यपि कर्मसिद्धान्त प्रधानता से करणानुयोगका विषय है, परन्तु द्रव्यानुयोग तथा चरणानुयोगमें भी यह सिद्धान्त अनुप्राणित है। क्योंकि द्रव्योंके रूप को जाने बिना कर्मका स्वरूप नहीं समझा जा सकता और कर्म मुक्तिके पथको चरणानुयोगके द्वारा ही प्रतिपादित किया जा सकता है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में जैन दर्शन मान्य कर्मसिद्धान्तसे संबंधित मूल तत्त्वोंका विश्लेषणात्मक तथा तुलनात्मक परिचय दिया गया है। संपूर्ण शोध प्रबन्धको सात अध्यायोंमें विभक्त किया गया है । अध्यायों से पूर्व कर्मसिद्धान्त की पृष्ठभूमि में सुख दु:ख का मूल कारण क्या है, बाह्य तथा आभ्यन्तर समस्त जगत में विषमता क्यों पायी जाती है, कर्मसिद्धान्त में नियति, पुरुषार्थ, देवादि का क्या स्थान है और विभिन्न दर्शनों के कर्मसिद्धान्तका परिचय देते हुए, जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त की मूल परम्परा और साहित्यका संक्षिप्त निर्देशन किया गया है। प्रथम अध्यायमें जैनदर्शन मान्य वस्तुस्वभावका परिचय कराया गया है। इसमें सत्ताका तुलनात्मक विवेचन किया गया है। जैन मान्य सत्ताको षड्द्रव्य रूप माना गया है-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। जीव और पुद्गल दोनों के पारस्परिक बन्धसे ही कर्म की उत्पत्ति होती है। जैन दर्शन में सत्ताको उत्पाद, व्यय और धौव्य युक्त माना गया है । जड़ और चेतन दोनों प्रकार की सत्ताओंमें पूर्व पर्यायका विनाश होता रहता है और नवीन पर्याय उत्पन्न होती रहती है परन्तु सत्ता ज्यों की त्यों ध्रुव बनी रहती है। इस सिद्धान्तको समझने के लिए ही षड्द्रव्यों के सामान्य और विशेष गुण और विभिन्न पर्यायोंका तुलनात्मक दृष्टिसे विवेचन किया गया है। 2010_03 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (IX) द्वितीय अध्यायमें कर्मसिद्धान्त से संबंधित प्रथम मूल तत्त्व जीव और जीवकी कर्मजनित अवस्थाओंका उल्लेख किया गया है। सर्वप्रथम जीवके कर्तृत्व, चेतनत्व आदि अष्ट विशेषताओं के द्वारा जैन मान्य जीवकी अन्य दर्शनों से तुलना की गयी है। शरीर में रहने वाला यह अमूर्तिक और चेतन तत्त्व ही एक शरीर से दूसरे शरीर में जाकर चारों गतियों में भ्रमण करता रहता है। पांच इन्द्रियों को क्रमपूर्वक धारण करने से इसे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय कहा जाता है। पांच प्रकारके स्थावर काय-पृथिवी, जल, अग्नि वायु तथा वनस्पति और एक प्रकारकी त्रसकाय-द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक; इस प्रकार छह शरीरों को धारण करने वाले षट् कायिक जीवों का विवेचन किया गया है। इस प्रकार कर्मजनित अवस्था में जीव अनेक प्रकारका हो जाता है। प्रत्येक जीव अपने कर्मका स्वयं कर्ता है, स्वयं ही भोक्ता है और स्वयं ही पुरुषार्थ करके कर्मजनित अवस्था को नष्टकर सिद्धावस्था को प्राप्त कर सकता है। तृतीय अध्यायमें कर्मसिद्धान्तसे संबंधित और अजीव तत्त्वमें प्रमुख पुद्गल द्रव्य और पुद्गलकी स्थूल सूक्ष्म अवस्थाओंका विवेचन किया गया है। अन्यदर्शनकार जिसे पंचभूत कहते हैं अंग्रेजी में जिसे मैटर कहा जाता है उस मूर्तिक और दृष्ट पदार्थको ही जैन दर्शनमें पुद्गल कहा गया है । यह संघात से मिल जाता है और भेदसे पृथक् हो जाता है इस भेद संघातसे पूर्णगलन को प्राप्त होनेके कारण ही इसकी पुद्गल संज्ञा दी गयी है। जीव अपने मन वचन व कायके योगों की क्रिया से और काषायिक प्रवृत्ति से चुम्बक की तरह सूक्ष्म कर्मपुद्गलों को आकर्षित करता रहता है । भौतिक जगतकी व्याख्या यधपि अन्य सभी दर्शनोंमें की गयी है परन्तु जीवके साथ नीरक्षीरवत् संबंध को प्राप्त कर्मपुद्गलोंका विवेचन केवल जैन दर्शनमें ही किया गया है। पुद्गलमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये चार-गुण पाये जाते हैं। पुद्गलका सबसे छोटा अंश परमाणु कहलाता है और दो या दो से अधिक परमाणुओंके मिलने से स्कन्धोंकी उत्पत्ति होती है। विविध प्रकारके स्कन्धों से आहारक, तैजस, भाषा, मनो और कार्मण नामक पंचविध वर्गणायें बनती हैं, इन वर्गणाओं से ही शरीरकी उत्पत्ति होती है । औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्माण पंचविध शरीरोंका मूलकारण पुद्गल ही है। शरीर, वचन, मन, प्राण, सुख, दु:ख, जीवन, मरण सब पुद्गल द्रव्यके ही कार्य हैं । जीवोंके शरीरों व इन्द्रियों का निर्माण भी पुद्गलसे ही होता है। जितना भी यह दृष्ट जगत है यहाँ सब पुद्गल ही दृष्टिगोचर होता है। जीवजबतक अपनी प्रवृत्तिसे इन सूक्ष्म कर्मपुद्गलों को संचित करता रहता है तब तक संसार पथ 2010_03 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (X) चलता रहता है । जब आसक्ति छोड़कर पुद्गलको पुद्गल रूपमें जान लेता है तब कर्मपुद्गलों का संचय नहीं होता और जीव मुक्तावस्थाको प्राप्त हो जाता है । चतुर्थ अध्यायमें कर्म के स्वरूप का तुलनात्मक विवेचन करते हुए जैन मान्य कर्मके स्वरूप का वर्णन किया गया है। जीव और कर्मके पौद्गलिक संबध को द्रव्य कर्म कहा जाता है और जिन कारणों से पौद्गलिक संबंध होता है उसे भावकर्म कहा जाता है । द्रव्य कर्मसे भाव कर्म और भाव कर्म से द्रव्य कर्म इस प्रकार कर्मबन्ध की यह परम्परा अनादि काल से प्रवाहित हो रही है। कर्मसिद्धान्त में द्रव्य कर्मों की दृष्टिसे ही वर्णन किया जाता है। कर्म जिस अवस्थामें बन्ध को प्राप्त होते हैं उसी अवस्था में नहीं रहते अपितु वर्तमान की क्रियाओं और विचारणाओंके द्वारा प्रतिक्षण उनमें परिवर्तन होता रहता है। इस परिवर्तन को दर्शाने के लिये ही बन्ध, उदय, सत्व, अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण, उपशम, उदीरणा, निधत्त और निकाचित इन दस करणोंका उल्लेख किया गया है । 1 पंचम अध्यायमें कर्मबन्ध के कारणों का सामान्य कथन किया गया है और विभिन्न दर्शनों में वर्णित कर्मबन्धके कारणों का उल्लेख करते हुए जैन मान्य कर्मबन्धके कारणों का सूक्ष्म विवेचन किया गया है। कर्मबन्धके मूल कारणों को जानकर ही उनको दूर करने का उपाय किया जा सकता है । बन्ध को प्राप्त कर्मों का कोई न कोई स्वभाव, बन्धे रहने का काल, शक्ति और प्रदेश अवश्य होते हैं। इसी को चतुर्विध बन्धके द्वारा दर्शाया गया है। स्वभावका कथन करने वाला 'प्रकृति बन्ध', काल को दर्शान े वाला 'स्थिति बन्ध', विपाक अर्थात् शक्तिकी हीनाधिकताको दर्शाने वाला 'अनुभागबन्ध' और कर्मों की विरलता तथा सघनता को दर्शाने वाला 'प्रदेशबन्ध' है । जैन कर्मसिद्धान्त में प्रकृतिबन्धको मूल आधार मानकर ही समस्त कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन किया है । कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ हैं - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु नाम, गोत्र और अन्तराय । देवताकी मूर्ति पर ढके वस्त्रके समान ज्ञानको आवृत्त करनेवाला ज्ञानावरणीय कर्म, राजद्वार पर बैठे प्रतिहारीके समान दर्शन गुणमें बाधा डालने वाला दर्शनावरणीयकर्म, शहद लिपटी तलवार की धारको चाटने पर जिस प्रकार सुख दु:ख का वेदन होता है उस प्रकार सुख दुःखका वेदन कराने वाला वेदनीय कर्म, मदिरा के सेवन से उत्पन्न मूर्च्छा के समान जीवको मोह से मूर्छित करने वाला मोहनीय कर्म; काल या सांकलके फन्दे में फंसे व्यक्ति के समान निश्चित काल तक जीवको एक ही शरीर में रोक रखनेवाला आयु कर्म; 1 2010_03 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (XI) चित्रकारकी तरह चित्र विचित्र आकृतिको बनाने वाला नामकर्म, कुम्हारके छोटे बड़े घट निर्माण के समान उच्च और नीच कुलमें उत्पन्न करनेवाला गोत्र कर्म, भंडारीकी तरह जीवके अनन्त गुणोंमें बाधा डालने वाला अन्तरायकर्म है। अष्टविध कर्मों की उत्तर प्रकृतियोंका भी संक्षिप्त विवचेन दिया गया है। इस प्रकार इस अध्यायमें जीव और कर्म पुद् गलों की संयुक्तावस्थाका कारण, मूलस्वरूप और उसकी विविध अवस्थाओंका निर्देशन किया गया है । इस प्रकारका विस्तृत विवेचन जैन दर्शनमें ही प्राप्त होता है । षष्ठ अध्यायमें अन्यदर्शनों में कथित मुक्ति मार्ग का निर्देशन करते हुए जैन दर्शनके मुक्ति के मार्गका कथन किया गया है । प्रस्तुत अध्यायमें जीव के पुरुषार्थकी सार्थकता का दिग्दर्शन कराया गया है। जीव अपने सत्य पुरुषार्थ से नवीन कर्म पुद्गलोंके आगमनको रोक सकता है और संचित कर्म पुद्गलों का विनाश कर सकता है । संवर और निर्जरा तत्त्वोंके द्वारा इस पुरुषार्थका विवेचन किया गया है । पूर्वबद्ध कर्म प्रवाहको रोकने के लिए व्रत, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय तथा चारित्रका मार्ग अपनाकर संवर पथ का अनुगमन किया जा सकता है और पूर्वबद्धकर्मों की निवृत्ति के लिए विविध प्रकारके बाह्य तथा आभ्यन्तर तपका उल्लेख किया गया है। विविध प्रकार की साधनाओं के द्वारा जीव क्रमिक विकास करता हुआ क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य तथा करण लब्धिको प्राप्त करता हुआ, मोक्षपथपर आगे बढ़ता जाता है । ' सप्तम अध्यायमें कर्ममुक्तिके विविध सोपानों का जैन मान्य चौदह गुणस्थानोंसे दिग्दर्शन कराया गया है । गुणस्थानों में कर्मों से लिप्त संसारी आत्मासे लेकर कर्मों से मुक्त जीवनमुक्त परमात्मा तक की अवस्थाका वर्णन किया गया है । सिद्ध अवस्था गुणस्थानोंसे अतीत की अवस्था है । अध्यायके अन्त में जीवनमुक्त अवस्था और मोक्षका विभिन्न दर्शनों से तुलनात्मक अध्ययन करते हुए जैन मान्य जीवनमुक्त और मोक्षावस्थाका प्रतिपादन किया गया है । अन्त में परिशिष्ट के रूपमें शोधप्रबन्ध में प्रयुक्त प्राकृत शब्दों का संस्कृत रूपान्तर और मौलिक एवं सहायक ग्रन्थों की सूची दी गयी है। 2010_03 डा० कुमारी मनोरमा जैन रोहतक Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) समर्पण और कृतज्ञताज्ञापन (2) प्रकाशकीय (3) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश की रचना (4) (5) प्रस्तावना पृष्ठभूमि विषयानुक्रमणिका रहस्योद्घाटन III-IV V-VII VIII-XI १-१३ सुख दुःख का कारण, बाह्याभ्यन्तर जगत् की विषमता, पंच समवाय, कर्मदर्शनशास्त्र का प्रधान विषय, जैन दर्शन का श्रेय, अर्थकर्त्ता तथा ग्रन्थकर्त्ता, करणानुयोग १४-३३ १. सामान्य परिचय २. अन्य दर्शनों में सत्ताका स्वरूप ३. जैन दर्शनमें सत्ता का स्वरूप ४. वस्तु के गुण- सामान्य, विशेष ५. साधारण या सामान्य गुण- अस्तित्व गुण, वस्तुत्व गुण, द्रव्यत्व गुण, प्रमेयत्व गुण, अगुरुलघुत्व गुण, प्रदेशत्व गुण, निष्कर्ष ६. वस्तु के असाधारण या विशेष गुण - (क) जीव द्रव्यके असाधारण गुण, (ख) पुद्गल द्रव्यके असाधारण गुण, (ग) शेष चार द्रव्यों- धर्म, अधर्म, आकाश और कालके असाधारण गुण । ७. जैन मान्य गुणोंकी न्याय वैशेषिकके गुणोंसे तुलना ८. पर्याय ९. पर्यायकी बौद्ध मान्य क्षणिकवादसे तुलना । १०. पर्यायके भेद (क) स्वभाव व्यंजन पर्याय, (ख) विभाव व्यंजन पर्याय, (ग) स्वभाव अर्थ पर्याय, (घ) विभाव अर्थ पयार्य । ११. वस्तुकी अनेकात्मकता १२. स्वचतुष्टय १३. अन्तिम इकाई १४. निष्कर्ष । द्वितीय अध्याय- जीव और जीवकी कर्मजनित अवस्थायें - ३४-५० (१.) सामान्य परिचय (२) जीव की आठ विशेषतायें - १. जीव का चेतनत्व गुण २. जीव का उपयोग ३. जीव अमूर्त है ४. जीव कर्ता और भोक्ता है ५. जीव देह परिमाण है ६. जीव संसारी है - संसारी जीवों के भेद प्रभेद - - (क.) गति के आधार पर जीवों का वर्गीकरण (ख) इन्द्रियोंके आधार पर जीवोंका वर्गीकरण (ग) प्राणों के आधार पर जीवों का वर्गीकरण · प्रथम अध्याय - वस्तुस्वभाव 2010_03 - एक चमत्कार I II Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (XIII) (घ.) काय की अपेक्षा जीवों का वर्गीकरण ७. जीव सिद्ध है। ८. जीव ऊर्ध्वगमन स्वभावी है। ३. जैन दर्शन में योग ४. जीवों की संख्या ५. निष्कर्ष तृतीय अध्याय-पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें- ५१.८४ १. जैन कर्म सिद्धान्त का अनिवार्य अंग २. पुद्गल द्रव्य के विशेष गुण ३. पुद्गल का मूर्तत्व गुण ४. कर्म भी मूर्तिक और पौद्गलिक हैं ५.पुद्गल अचेतन द्रव्य है। ६. पुद्गल द्रव्य की पर्याय - शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, आताप, उद्योत ७.पुद्गल द्रव्य के कार्य - शरीर, वचन, मन, प्राण, अपान, सुख, दु:ख, जीवन, मरण ८. संस्कार और चिदाभासी जगत् ९.पुद्गल द्रव्य के भेद प्रभेद - बादर-बादर, बादर, बादर-सूक्ष्म, सूक्ष्म-बादर, सूक्ष्म, सूक्ष्म-सूक्ष्म १०. परमाणुशाश्वत है, शब्द रहित है, एक प्रदेशी है , अविभागी है, मूर्तिक है। ११.अन्य दर्शनों से तुलना १२. परमाणु से स्कन्ध कैसे बनते हैं १३ पंचविध वर्गणायें-(क). आहारक वर्गणा (ख.) तैजस वर्गणा (ग). भाषा वर्गणा (घ.) मनो वर्गणा (ड.) कार्मण वर्गणा १४. कार्मण शरीर की शोध १५. पंचविध शरीरों का तुलनात्मक विवेचन १६. निष्कर्ष चतुर्थ अध्याय-कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें ८५-१०८ १, कर्म का स्वरूप २. तुलनात्मक परिचय-(क.) न्यायवैशेषिक से तुलना (ख.) मीमांसा दर्शन से तुलना (ग.) योग दर्शन से तुलना (घ.) सांख्य दर्शन से तुलना (ड.) वेदान्त दर्शन से तुलना (च.) बौद्ध दर्शन से तुलना (छ). पाश्चात्य दर्शनों से तुलना कर्म जगत्का सृष्टा है । ४. द्रव्य कर्म और भावकर्म कर्म की विविध अवस्थायें- १. बन्ध करण-(क.) अमूर्त जीवसे मूर्त कर्मों का संबंध कैसे ? (ख.) कर्म बन्ध अनादिकाल से है (ग.) कर्मबन्ध अनादि होते हुए भी सान्त है (घ.) कर्म सिद्धान्तमें द्रव्य बन्ध की प्रधानता २. उदय करण ३. सत्व करण ४. अपकर्षण करण ५. उत्कर्षण करण ६. संक्रमण करण ७. उदीरणा करण ८. उपशम करण ९. निधत्त करण १०. निकाचित करण ६. कर्म की अवस्थाओं का तुलनात्मक विवेचन ७. दस करणों का गुणस्थान की दृष्टि से निर्देशन ८. निष्कर्ष पंचम अध्याय- कर्मबन्ध के कारण तया भेद प्रभेद १०९-१६० १. विभिन्न दर्शनों में कर्मबन्ध के कारण 2010_03 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (XII १. उपनिषदोंमें कर्मबन्ध के कारण २. बौद्धदर्शन में कर्म बन्ध के कारण ३. न्याय वैशेषिक में कर्म बन्ध के कारण ४. मीमांसा दर्शन में कर्मबन्ध के कारण ५. वेदान्त में कर्मबन्ध के कारण ६. सांख्य दर्शन में कर्मबन्ध के कारण ७. योग दर्शन में कर्मबन्ध के कारण ८. जैन दर्शन में कर्मबन्ध के कारण[(१) मिथ्यात्व (२) अविरति (३) प्रमाद (४) कषाय (५) योग] कर्मबन्ध के भेद-प्रभेद-प्रकृति संबंधी एकत्र परिगणन तालिका (१) प्रकृति बन्ध-(१) ज्ञानावरणीय कर्म-ज्ञानावरणीय प्रकृति बन्ध के कारण, ज्ञानावरणीय कर्म की मूलोत्तर प्रकृतियों, मतिज्ञानावरण - अवग्रह मतिज्ञान, ईहामतिज्ञान, अवाय मतिज्ञान, धारणा मतिज्ञान; मतिज्ञानावरणीय की अट्ठाईस भेदों की तालिका, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मन:पर्ययज्ञानावरणीय, केवलज्ञानावरणीय (२) दर्शनावरणीय कर्म- दर्शनावरणीय प्रकृति बन्ध के कारण, दर्शनावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधि दर्शनावरण, केवल दर्शनावरण, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि (३) वेदनीय कर्म-वेदनीय कर्म के बन्ध के कारण, वेदनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ (8) मोहनीय कर्म-मोहनीय कर्म के बन्ध के कारण, मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ, वर्शन मोहनीय कर्म, चारित्र मोहनीय कर्म, चारित्र मोहनीय कर्म के भेद प्रभेद - कषाय मोहनीय-क्रोध चतुष्क, मान चतुष्क, माया चतुष्क, लोभ चतुष्क, शक्तियों के दृष्टान्त, नोकषाय मोहनीय, हास्य, रति,अरति,शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद (५) आयु कर्म-आयु के भेद और बन्ध के कारण (६) नाम कर्म- नाम कर्म के बन्ध के कारण, नाम कर्म के भेद-पिण्ड प्रकृतियाँ, प्रत्येक प्रकृतियाँ, बस दशक, स्थावर दशक; (७) गोत्र कर्म-गोत्र कर्म के भेद वबन्ध के कारण (८) अन्तराय कर्म-अन्तराय कर्म के भेद व बन्ध के कारण (२) स्थिति बन्ध-गणित परिचय, समस्त कर्मों की उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थिति और उत्कृष्ट तथा जघन्य आबाधा काल की सारिणी। (३) अनुभाग बन्ध- प्रकृतियों में अनुभाग बन्ध, घातिया-अघातिया कर्म निर्देश, घातिया-अघातिया कर्म प्रकृतियों की तालिका, विपाक की अपेक्षा कर्म प्रकृतियों की तालिका, पुण्य और पाप प्रकृतियाँ, पुण्य और पाप प्रकृतियों की तालिका (४) प्रदेशबन्ध (३) निष्कर्ष षष्ट अध्याय- कर्म मुक्ति का मार्ग संवर-निर्जरा १६१-१९० १. कर्मों की अनादिकालीन परम्परामें पुरुषार्थ का सार्थक्य 2010_03 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (XV) २. विभिन्न दर्शनों में मुक्ति के मार्ग का स्वरूप- (क) बौद्ध दर्शन में मुक्ति का मार्ग (ख) सांख्य दर्शन में मुक्ति का मार्ग (ग) योग दर्शन में मुक्ति का मार्ग (घ) न्यायवैशेषिक दर्शन में मुक्ति का मार्ग (ड) मीमांसा दर्शन में मुक्ति का मार्ग (च) वेदान्त दर्शन में मुक्ति का मार्ग (छ) जैन दर्शन में मुक्ति का मार्ग ३. कर्म प्रवाह को रोकने का उपाय- संवर- (क) परिचय (ख) संवर के भेद (ग) संवर के साधन की तालिका (१) व्रत (२) गुप्ति (३) समिति (४) धर्म (५) अनुप्रेक्षा- • अनुप्रेक्षाओं का महत्त्व (६) परीषह जय - लक्षण, भेद, परीषहों के कारण भूतकर्म, गुणस्थानों में परीषह व्यवस्था, (७) चारित्र - चारित्र का महत्त्व ४. पूर्व बद्ध कर्मों की निवृत्ति का मार्ग निर्जरा (क.) निर्जरा का लक्षण (ख.) निर्जरा के भेद (ग.) निर्जरा में तप की प्रधानता (घ) तप के भेद - बाह्य तप, आभ्यन्तर तप ५. पंच लब्धि - (१) क्षयोपशमलब्धि (२) विशुद्धि लब्धि (३) देशना लब्धि (४) प्रायोग्य लब्धि (५) करण लब्धि - त्रिकरण - (क) अध:करण (ख) अपूर्व करण (ग) अनिवृत्तिकरण (घ) ग्रन्थि भेद के द्विविध रूप, ६. निष्कर्ष सप्तम् अध्याय - कर्म मुक्ति के विविध सोपान गुणस्थान व्यवस्था - १९१-२२३ १. सामान्य अवलोकन २. त्रिविध आत्मा - बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा १. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ३. मिश्र गुणस्थान (सम्यक् मिथ्यादृष्टि) ४. असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान- त्रिविध सम्यग्दृष्टि - (क.) औपशमिक (ख.) क्षायिक (ग.) क्षायोपशमिक ५. संयतासंयत गुणस्थान ७. अप्रमत्त संयतगुणस्थान ९. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान · २. सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान 2010_03 ६. प्रमत्त संयत गुणस्थान ८. अपूर्व करण गुणस्थान १०. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान ११. उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान १२. क्षीण कषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थान १३. सयोग केवली गुणस्थान - विभिन्न दर्शनों में जीवनमुक्ति (क.) उपनिषद में जीवनमुक्ति (ख) गीता में जीवनमुक्ति (ग.) बौद्ध दर्शन में जीवन मुक्ति (घ) न्याय वैशेषिक में जीवन मुक्ति (ड.) सांख्य दर्शन में - Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (XVI) जीवनमुक्ति (च.) वेदान्त में जीवन मुक्ति, जीवनमुक्त योगी का महत्त्व १४. अयोग केवली गुणस्थान- विभिन्न दर्शनों में मोक्ष का स्वरूप (क.) बौद्ध दर्शन में मोक्ष (ख.) सांख्य योग में मोक्ष (ग.) न्यायवैशेषिक में मोक्ष (घ.) मीमांसा में मोक्ष (ड.) अद्वैत वेदान्त में मोक्ष (च.) जैन दर्शन में मोक्ष, तुलनात्मक विवेचन ३. निष्कर्ष उपसंहार २२४-२२८ परिशिष्ट (१) शोध प्रबन्ध में प्रयुक्त प्रमुख प्राकृत शब्दों के संस्कृत रूप I-III परिशिष्ट (२) सन्दर्भ ग्रन्थानुक्रमणिका (क.) मूल संस्कृत तथा प्राकृत ग्रन्थ (ख.) हिन्दी पुस्तकें (ग.) अंग्रेजी पुस्तकें (घ.) कोश ग्रन्थ, पत्र व पत्रिकायें। 2010_03 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ भूमि जीवन कासारसुखएवंशान्ति है।इसजीवन मेंधन, कुटुम्ब आदिविविधकर्मजन्य संयोग के कारण वर्तमान में प्राणी कितनाही दु:खीवचिन्तितहोरहा है परन्तुमूलत: समस्त प्राणियों की जन्मजात स्वाभाविक प्रवृत्ति सुख प्राप्तिकी ही होती है, परन्तु जीवन पर्यन्त बड़े से बड़ा लौकिक पुरुषार्थ और कठोरसे कठोर परिश्रम करते हुए भी उनकी यह प्रवृत्ति चरितार्थ नहीं होती। यह तथ्य निर्विवाद और सर्वसम्मत है। डॉ० दास गुप्तके शब्दों में “जो कुछ सुखके रुप में हमारे सामने आता है, वह सब दु:खका ही हेतु है, क्योंकि कोई भी सांसारिक सुख स्थायी आनन्द नहीं दे सकता। इस सुखकी प्राप्तिमें भी दु:ख है और सुख के छूटने में भी दु:ख है, २ सुखके लिए किये गये प्रयासका अवसान दु:ख तथा निराशाओं में क्यों होता है, यह प्रश्न सदा से ही चिन्तकों, मनीषियों और ऋषियों की विचारणा का विषय रहा है। इस प्रश्नका यथार्थ उत्तर प्राप्त करनेके लिए ही भारतीय तथा अन्य सकल दार्शनिक बाह्य तथा आभ्यन्तर जगत् का सूक्ष्म अध्ययन करते रहे हैं। बाह्यजगत्सेतात्पर्य इस समस्त भौतिक जगत से है, जो सदा इन्द्रियों के समक्ष उत्पन्न और नष्ट होता रहता है, इसी प्रकार आभ्यन्तर जगत्से तात्पर्य मानसिक जगत्से है, जिसे विविध प्रकार की वैकल्पिक चिन्तनाओंके रूप में मनुष्य अपने अन्दर अनुभव करता हैं और जिसकी गति भौतिक जगत् की अपेक्षा अधिक तीव्र है। यद्यपियेदोनोंपृथकपृथक् दृष्टिगोचर होते हैं, परन्तु यथार्थ में ये एक हैं, क्योंकि दोनों ही जगत् स्वभाव से ही उत्पन्न ध्वंसी है, अन्तर केवल इतना है कि बाह्य जगत् कारण है और आभ्यन्तर जगत् उसका कार्य, क्योंकि इन्द्रियोंके द्वारा भौतिक जगत् का ग्रहण होनेपर ही मनमें संकल्प विकल्पोंका आभ्यन्तर जगत् उत्पन्न होता है। __ सुख-दु:खकाहेतु जानने के लिये और बाह्य तथा आभ्यन्तरजगत्कीसत्यता और असत्यताकाअन्वेषणकरने के लिये हीदर्शन शास्त्रकाजन्म हुआ। अनादिकाल सेअनेकों ऋषियों और दार्शनिकोंने अपनी चिन्तनाओं और अनुभूतियोंका नवनीत प्रदान करके दर्शनशास्त्रका विस्तार किया है। भारतीयदर्शनकी अविछिन्नधारामें जहाँन्याय, वैशेषिक, १. जिनेन्द्र वर्णी, पदार्थ विज्ञान, पृष्ठ १ २. दास गुप्त, एस.एन.,भारतीय दर्शन का इतिहास, १९७८, भाग १ पृष्ठ ८१ (राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर) 2010_03 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन मीमांसक, सांख्य, योग, वेदान्त, शैव तथा शाक्त आदि अनेकों दर्शन प्रसिद्ध हैं, वहीं जैन तथा बौद्ध दर्शन भी अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। २ दार्शनिक चिन्तनका मुख्य लक्ष्य, जीवनके क्लेशोंको दूर करने का उपाय खोजना है, जिससे प्राणी उस स्वाधीन, निर्बाध और स्थायी सुख को प्राप्त कर सके, जिसे मोक्ष, निर्वाण आदि विभिन्न नामोंसे अभिहित किया जाता है। जैन दर्शनमें इसका स्पष्ट आभास “तीर्थंकर” या तीर्थकर शब्दसे मिलता है । व्युत्पत्ति से इसका अर्थ है, तीर्थ अर्थात् “पार करनेकी जगह बनाने वाला” और लक्षणासे अर्थ है, वह जिसने संसार रूपी महासागरसे पार जानेका उपाय ढूंढ लिया है।' जीवसे कर्मोंकी आत्यन्तिकी निवृत्ति ही मोक्ष, निर्वाण तथा तीर्थंकर पदकी प्राप्ति है। शैव वैष्णवादि दर्शनों में यह सुख ईश्वर के सायुज्यकी प्राप्ति के रूप में होता है, न्याय वैशेषिक इसे साक्षात् ईश्वरत्वकी प्राप्ति कहते हैं। इस प्रकारके सुखकी प्राप्तिका उपाय ही भारतीय दर्शनोंमें धर्म समझा जाता है, क्योंकि दु:खसे छुड़ाने के लिये मोक्ष मार्गके रूपमें इसी की ओर संकेत किया गया है - जैसा कि समन्तभद्राचार्य कहते हैं - देशयामि समीचीनं धर्म कर्म निर्वहणम् । संसार दु:खतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ दुःख तथा दुःख निवृत्ति के लिए बौद्धदर्शन में चार मूल तत्त्वों की स्थापना की गई है दुःख, दुःख समुदय, दु:ख निरोध, और दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा (मार्ग) | सांख्य तथा योग दर्शन में हेय, हेय हेतु, हान, और हानोपाय यह चतुर्व्यूह है, इसी प्रकार जैन दर्शन में सप्त तत्त्वों का उल्लेख मिलता है । जीव और अजीव नामक प्रथम दो तत्त्वोंके संयोगमें दुःखका स्वरूप निर्धारित किया गया है। आश्रव और बन्ध नामक दो तत्त्व दुःखके कारणोंका निरूपण करते हैं, संवर और निर्जरा तत्त्वमें दु:ख निरोधका उपाय है और मोक्ष तत्त्व दुःख का मूलतः, निरोध है । यहाँ तत्त्व शब्दका अर्थ अनादि अनन्त नहीं है, अपितु दु:ख निरोध के लिये जिनका ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है - वे ही वस्तुएं यहाँ तत्त्व रूप में वर्णित हैं । " जैनेतर दर्शनों में बाह्य तथा आभ्यन्तर जंगत् का अन्वेषण करते हुए अविद्या, अज्ञान, प्रकृति, माया आदिको इस जगत् का कारण बताया है, जिसके कारण व्यक्ति असत्य' को ही सत्य मान कर पुरुषार्थ करता है, परन्तु असत्य में किया गया पुरुषार्थ बालूको पेलनेके १. (क) हिरियन्ना एम०, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, १९८०, पृ० १५ (ख) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग २ पृष्ठ ३७० २. समन्तभद्राचार्य, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक-२ ३. ४. उमास्वामी, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय १, सूत्र ४ संघवी सुख लाल, विवेचना सहित तत्त्वार्थ सूत्र, १९७६, पृ० ६ 2010_03 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ भूमि समान व्यर्थ होता है। जिस प्रकार बालूको पेलनेसे तैलकी प्राप्ति असम्भव है, इसी प्रकार अज्ञानजनित अवस्था में सत्यपुरूषार्थ असम्भव है।जैनदर्शनमें इसे आश्रवतथा बन्धकहा गया है। संसारी जीव अपने यथार्थस्वरूपको नजाननेके कारण नित्य राग रंजित क्रियाओं कोकरता हुआकाँका बन्धकरतारहताहै, इसप्रकारकी क्रियाओंकोकरतेहुए आश्रवतथा बन्धसे छूटना किसी प्रकार भी संभव नहीं है। जैनेतर दर्शनोंमें दु:खसेछूटनेके लिए अविद्या निवृत्ति पर विशेष बल दियागया है, परन्तु जैनदर्शनमेंन केवल यथार्थ ज्ञानकी प्राप्ति अपितु उसके साथ ही संयम, तप आदि की विविध साधनाओंपर भी विशेष बल दिया गया है इसी लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र तीनों का सम्मिलित रूप ही मोक्ष मार्गके रूपमें अंगीकार किया गया है। जिसके द्वारा नवीन कर्मों को रोका जाता है और पूर्व बद्ध कर्मोकानाश कियाजाताहै। संवर और निर्जरातत्त्वोंके द्वारा इसी विषय का प्रतिपादन किया गया है। जीव तथा अजीव नामक दो तत्त्व कर्म सिद्धान्तकी आधारशिलायें हैं, आश्रव, बन्छ संवर और निर्जरा इन चार तत्त्वोंमें कोंके आनेका कारण, कर्मों का स्वरूप और कर्मोंसे छुटनेका उपाय बताया गया है मोक्ष तत्त्व इनका फल है। इस प्रकार यह दर्शन एक विचार प्रणाली न रहकर एक जीवन प्रणाली है, जिसमें नियमित आचरण की भी व्यवस्था की गई है। डा० हिरियन्नाके शब्दों में-जैन दर्शनका मूलमन्त्र है किज्ञानके लिएजीवन नहीं, अपितु जीवन के लिए ज्ञान है। सुख दु:ख का कारण सुख - दुखके कारणका अन्वेषण करते हुए सभी भारतीय दर्शनों में सुख दु:ख के कारणोंपर विचार किया गया है। सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, शांकर, जैन और बौद्ध सभी दर्शनों में दु:खका मूल कारण अविद्या को ही बताया है। बौद्ध दर्शन में कार्यकारण श्रृंखला की कड़ीमें अविद्याको मुख्य कड़ीके रूपमें स्वीकार किया गया है। सांख्य तथा न्यायवैशेषिकमें अविद्या को प्रकृति तत्त्वके रूपमें स्वीकार किया है, जैन दर्शनमें अविद्या के स्थान पर “मिथ्यात्व" कहा गया है, जिसका अर्थ है, वस्तुके यथार्थ स्वरूपको न जानकर विपरीतको ही यथार्थ मानना। मिथ्यात्व को ही सुख - दु:ख अथवा कर्मबन्ध के कारणोंमें सबसे प्रथम कारण कहा गया है। इस प्रकार सुख-दु:खका कारण प्राय: सभी दर्शनमें अविद्याको ही स्वीकार किया गया है चाहे उसका नाम तथा रूप कुछ भी हो, परन्त १. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । उमा स्वामी, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय १ सूत्र १ २. हिरियन्ना एम० भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १६ ३. मिथ्यादर्शनाविरति प्रमादकषाय योगा : बन्ध हेतवः । उमास्वामी, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ८, सूत्र १ 2010_03 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन अभिप्राय समान ही है । जो वस्तु अवास्तविक है, उसे वास्तविक समझना, जो अनात्म है उसे आत्म समझना ही अविद्या है। यही संसार भ्रमण तथा समस्त दु:खों का प्रतीक है । जैन दर्शनके अनुसार मिथ्यात्वके कारण ही जीव की अनन्त शक्तियाँ आच्छादित हो जाती हैं और उसका ज्ञान सीमित तथा इन्द्रियाधीन हो जाता है । इन्द्रियों में समस्त शेयों को युगपत ग्रहण करने की शक्ति नहीं होती, इसी कारण पूर्व विषयछूटता रहता है और अग्रिम का ग्रहण होता रहता है। समग्र को युगपत ग्रहण न कर पाना ही दु:ख का कारण है। उपनिषदों में भी कहा है, “यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति । भूमैव सुखं भूमात्वेव विजिज्ञासितव्य । २ इस अल्पता के कारण ही गत विषयों का स्मरण, अनागत की चिन्ता तथा इष्ट - अनिष्टकी कल्पना जागृत होती है। इष्ट विषयों की प्राप्तिकी कामना, राग और अनिष्ट विषयोंके वर्जनकी कामना द्वेष कहलाती है। यह इष्टानिष्ट, राग-द्वेष युक्त कामना ही नवीन कर्मके संचयमें कारण होती है। इस राग-द्वेष युक्त कामनाको ही आचार्य उमास्वामी ने आर्तध्यानके रूपमें निरूपण किया है - अर्ति का अर्थ है दु:ख या पीड़ा। पीड़ा से उत्पन्न हो वह आर्त है, अप्रिय वस्तु की प्राप्ति और प्रिय वस्तु के वियोग होने पर ही इस प्रकार की राग-द्वेष युक्त कामना उत्पन्न होती है। नवीन कर्म का संचय करने वाली यह कामना ही सुख-दु:ख का मूल कारण है, जिसे चार्वाक को छोड़ कर सभी भारतीय दर्शनों ने माना है। प्रत्येक जीवात्मा में यह हीनाधिक रूप से विद्यमान होती है और इसी हीनाधिकता के कारण ही बाह्याभ्यन्तर जगत् में विषमता दृष्टिगोचर होती है। बाह्याभ्यन्तर जगत् की विषमता इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष यह बाह्य जगत् और अन्तर्मन में कल्पित आभ्यन्तर जगत् सर्वत्र सर्वदा वैषम्यपूर्ण देखे जाते हैं। संसारमें जितने भी जड़ या चेतन पदार्थ दिखाई देते हैं, उन सबकी प्रकृति, शक्ति तथा स्थिति भिन्न-भिन्न होती है, कोई भी पदार्थ दूसरे पदार्थ के साथ सर्वथा साम्यता नहीं रखता । मनुष्य . मनुष्य रूपसे एक होते हुए भी कोई सुखी कोई दु:खी, कोई मूर्ख और कोई विद्वान् देखा जाता है। एक ही परिवारमें उत्पन्न होने वाले विभिन्न शिशुओंकी १. क्रमकरणव्यवधानग्रहणे खेदभवति · कुन्दकुन्द स्वामी, प्रवचनसार, तात्पर्यवृति, गाथा ६० २. छान्दोग्य उपनिषद्, अध्याय ७, खण्ड २३, मन्त्र १ ३. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय १, सूत्र ३१-३३ 2010_03 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ भूमि स्वाभाविक, शारीरिक, मानसिक, आर्थिक आदि सभी अवस्थाएं पृथक् - पृथक दृष्टिगोचर होती हैं । इसी प्रकार क्षेत्र की अपेक्षा भी कहीं पर संहार हो रहा हैं , कहीं पर निर्माण, कहीं पर उत्सव मनाये जाते हैं और उसी समय कहीं पर शोक छाया होता है । इसी प्रकार आभ्यन्तर जगत्में भी सब प्राणियों की चित्तवृत्तियाँ पृथक्-पृथक् दृष्टिगोचर होती हैं, इस प्रकार सर्वत्र बाह्याभ्यन्तर जगत् में विषमता ही विषमता दृष्टिगोचर होती है। ___ इन विषमताओंसे यह अनुमान किया जा सकता है कि विश्व में एक ऐसी अद्भुत शक्ति है, जो स्वतंत्र आत्माको विवश बनाकर, संसार में इतनी विविधता, विचित्रता और विषमतायें उत्पन्न कर रही है। जैन दर्शन में उस शक्ति को “कर्म" कहा जाता है । वेदान्त दर्शन में “माया” या अविद्या, सांख्य दर्शन में प्रकृति, वैशेषिक दर्शनमें अदृष्ट या संस्कार कहा जाता है।' जीव के स्वयंकृत कर्मों में वैषम्य है, इसी कारण उससे उत्पन्न होने वाला बाह्याभ्यन्तर जगत् भी वैषम्यपूर्ण दिखाई देता है, क्योंकि कारण से ही कार्य का अनुमान किया जा सकता है ।। __ बाह्याभ्यन्तर जगत् का यह वैषम्य सत्य है या असत्य, स्वाभाविक है या आगन्तुक, अहेतुक है या सहेतुक यह बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । चार्वाक दर्शन इस वैषम्य को सत्य, स्वाभाविक और अहेतुक मानता है, परन्तु यदि यह सत्य, स्वाभाविक और अहेतुक होता तो इसे दु:ख का कारण नहीं होना चाहिए था और इसका नाश नहीं होना चाहिए, परन्तु यह साक्षात् दु:खकारी तथा सन्तापकारी देखा जाता है और योगीजन इस वैषम्य से अतीत देखे जाते हैं, इसीलिए इसे कभी सत्य, स्वाभाविक और अहेतुक नहीं कहा जा सकता। लोक में प्रसिद्ध इन्द्रिय ज्ञान की असत्यता से यह सिद्ध होता है कि बाह्य तथा आभ्यन्तर जगत् असत् है, क्योंकि सत् सदा अनादि निधन, स्वत: सिद्ध, स्वाधीन और निर्विकल्पक होता है, जैसा कि पंचाध्यायी में कहा गया है - तत्त्वं सल्लाक्षणिकं सन्मानं वा यत: स्वत: सिद्धम्। तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्पं च॥' १. आत्माराम, जैन तत्त्वकलिका, १९८२, छठी कलिका, पृ० १४५, २. उपादान कारण सदृशं कार्यम् भवति, देवसेनाचार्य, बृहद्नयचक्र वि०स० १९७७, गाथा ३६८ की चूलिका ३. राजमल , पंचाध्यायी, पूर्वार्ध, श्लोक-८ 2010_03 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त- एक अध्ययन सत् का विनाश और असत् का उत्पाद तीन कालमें भी सम्भव नहीं है। समन्तभद्राचार्य ने कहा है- नैवाऽसतो जन्म सतो न नाशो ।" ६ अतः यह जगत् वैषम्य असत् है, स्वाभाविक न होकर कृतक और सहेतुक है, इसीलिए दु: खकारी और सन्तापकारी है। जैन दर्शनके अनुसार यह वैषम्य जीव तथा कर्म पुद्गलोंके अनादि संयोगसे उत्पन्न है। जीवके रागद्वेषादि परिणाम इस वैषम् हेतु हैं, परन्तु जीव तथा पुद्गल जैन मान्य दो द्रव्य हैं, जिनका स्वभाव पृथक्-पृथक् है । इसी कारण दोनों का संयोग स्वर्णपाषाण की भाँति है, जिसे कभी भी पृथक किया जा सकता है, सांख्यमें इसे प्रकृति और पुरूषका संयोग कहा है, वेदान्त में ब्रह्म पर अविद्याका आवरण कहा है। दोनों का पृथक्त्व ही मुक्त है । इन दोनोंका संयोग कैसे हुआ, इस विषयमें यद्यपि सभी दर्शनों में विभिन्नता है, परन्तु यह वैषम्य संयोगके ही कारण है, इसमें सभीका एक मत है पंच समवाय इस बाह्याभ्यन्तर जगत् के कारण पर विचार करते हुए अनेक प्रकारके वादों का जन्म हुआ । काल ही सबको उत्पन्न करता है, काल ही सबको नष्ट करता है, प्राणियों के सोनेपर भी काल जागृत रहता है, कालको ठगा नहीं जा सकता, इस प्रकार कालको ही जगत् का कारण मानने वाला कालवाद है, परन्तु कालवाद प्राणीके पुरुषार्थको पंगु बना देता है और मनुष्य को कर्म करने से विरत कर देता है, जिससे वह मुक्तिका पुरूषार्थ नहीं कर पाता । जगत् में जो कुछ भी व्यवस्था है स्वभाव के ही कारण है, इस प्रकार केवल स्वभाव को ही जगत् का कारण मानने वाला “स्वभाववाद है ।" संसारकी प्रत्येक घटना पहले से ही नियत है, इस प्रकार नियतिको ही मानने वाला “नियतिवाद" है, किसी निश्चित कारणके बिना अकस्मात् कार्य की निष्पत्तिको मानने वाला " यदृच्छावाद" है । केवल पूर्वकृत कर्मों के भरोसे बैठे रहना और किसी प्रकारका पुरुषार्थ न करना " दैववाद" है, इसमें मनुष्य भाग्य के हाथ का खिलौना बनकर जीता है । दैववाद पूर्व कुकर्म की सत्ता पर विश्वास रखता है. परन्तु नियतिवाद कर्म के अस्तित्वको १. (क) स्तोत्र, श्लोक २४ - (ख.) भावस्सणत्थि णासो णत्थि अभावस्स चैव उप्पादो, आचार्य कुन्दकुन्द, पंचास्तिकाय, गाथा १५, तुलनीय भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक १६ 2010_03 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ भूमि ही नहीं मानता, केवल पुरुषार्थको ही मानने वाला पुरुषार्थवाद है । इस प्रकार जगत् के कारणका अन्वेषण करते हुए विभिन्न कारणोंकी चर्चा की गई है। कर्मवादके समर्थक विचारकोंने इन सब वादका कर्मवादके साथ समन्वय करते: हुए पंच कारण समवाय को प्रस्तुत किया है। अनेकान्तवादी होनेके कारण जैन दर्शन यह स्वीकार नहीं करता है कि इनमें से केवल एक या दो कारण पर्याप्त हैं। कोई भी कार्य अपनी उत्पत्ति के लिए अनेकों कारणोंकी अपेक्षा रखता है, जैसे मिट्टीका पिण्ड घट रूप कार्यकी उत्पत्तिमें उपादान रूपसे समर्थ होते हुए भी कुम्हार, दण्ड, चक्र, डोरा, जल, काल, आकाश आदि अनेकों "नैमित्तिक" कारणोंकी अपेक्षा करता है । उसी प्रकार विभिन्न वादों का सहवर्तित्व ही कार्य की उत्पत्ति हेतु होता है । काल, स्वभाव, नियति, दैव (पुराकृत कर्म) और पुरूषार्थ (वर्तमान कर्म)। इन पाँचोंका समवाय ही जैन दर्शनमें मुख्यतासे स्वीकार किया गया है । इनमें से किसी एकको मानकर अन्यकी उपेक्षा करना मिथ्यात्व कहा गया है | इस तथ्य की पुष्टिमें कहा जा सकता है कि कृषक कृषि कर्ममें तभी सफल होता है जब पंच समवाय अनुकूल हों । खेतमें बीज बोने का समय अनुकूल हो, का अंकुरित होनेका स्वभाव हो, क्योंकि जला हुआ बीज समय पर बोने पर भी अंकुरित नहीं होगा, खेतमें उसे अंकुरित करने की शक्ति अर्थात् नियति हो, और पूर्वकृत शुभ कर्म का उदय हो, तब कृषकका पुरूषार्थ सिद्धहोता है । इस प्रकार यद्यपि मुख्य कारण वर्तमानका पुरुषार्थ है, परन्तु काल आदि सहकारी कारण हैं, दैव भी पूर्वकृत कर्मका ही परिणाम होता है। इस प्रकार पांचों कारण ही सम्मलित रूपसे कार्यकी निष्पत्ति में कारण होते हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद् तथा भगवद्गीतामें भी पाँचों कारणके संयोगको माना गया है । नियतिको जैनाचार्यों ने काललब्धि कहा है, वस्तुमें निहित स्वधर्म विशेषको “स्वभाव" कहा है' और विधि, ब्रह्मा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म, ईश्वर ये सब कर्म रूपी ब्रह्माके वाचक शब्द कहे हैं। " वर्तमान कर्मको पुरूषार्थ के द्वारा अभिहित १. नेमिचन्द्राचार्य, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, श्लोक, ८७९-८८३ २. आत्माराम, जैन तत्त्व कलिका, छठी कलिका, पृ० १५० ३. ४. ५. (क) श्वेताश्वतर उपनिषद्, अध्याय १, श्लोक २ (ख) भगवद्गीता, अध्याय १८, श्लोक, १४, १५ स्वेनात्मना असाधारणेन धर्मेण भवनं स्वभाव इत्युच्यते । राजवार्तिक, पृ० ५३९ विधिसृष्टा विधाता च दैवं कर्म पुराकृतम् । ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञेया: कर्मवेधसः || महापुराण, सर्ग ४, श्लोक ३७ 2010_03 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन किया जा सकता है, जिसे जैन दर्शन में विविध प्रकारकी साधनाओंके रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसके आधार पर दैव (पुराकृत कर्मों) के फल को भी परिवर्तित किया जा सकता है। प्रस्तुत शोध-प्रबंध में मुख्यतासेपंचसमवायों में से तीन को आधार माना गया है । स्वभाववाद जैन दर्शनका प्राण है, क्योंकि जैन दर्शनके अनुसार वस्तुमें जो शक्ति स्वत: न हो उसे कोई भी उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकता।' स्वभाववादको दृष्टिमें रखकर वस्तुकी स्वाभाविक व्यवस्था तथा जीव और अजीव तत्त्वोंका विवेचन किया गया है, क्योंकि स्वभावको जान कर ही उनके संयोग जनित विस्तारको जाना जा सकता है और इस संयोगकी निवृत्तिका उपाय किया जा सकता है । दैववादके आधारपर पुराकृत कर्मों की विचित्रता तथा पुरूषार्थके आधारपर वर्तमान कर्मों की विभिन्न अवस्थाओं का प्रतिपादन किया गया है । इसलिए कर्मों की बन्ध, उदय आदि दस अवस्थाओंको दर्शाया गया है और पुरूषार्थके क्रमिक विकासको ध्यानमें रखते हुए पंचलब्धि, संवर, निर्जरा तथा गुणस्थान व्यवस्थाको प्रस्तुत किया गया है। काल तथा काललब्धि (नियति) को दैव और पुरूषार्थमें ही गर्भित किया जा सकता है | __ इस प्रकार कर्म सिद्धान्त प्राणियों के प्रयत्न को निरर्थक सिद्ध नहीं करता और न ही निरुत्साहित करता अपितु यह सिद्धान्त भविष्यके प्रति आशावान् बनाता है और वर्तमानके प्रति सहिष्णु बनाता है। कर्म-दर्शनशास्त्र का प्रधान विषय . कर्म सिद्धान्त दर्शनशास्त्रका प्रधान तथा महत्त्वपूर्ण विषय है। सभी दर्शनों में इस विषय पर विशेष चिन्तन किया गया है। जैसे सुख-दु:ख का अन्वेषण करते हुए न्याय वैशेषिक में कहा गया है - संसार में कोई सुखी है, कोई दुखी है, किसीको खेती आदि करने से विशेष लाभ होता है, इसके विपरीत किसी को हानि होती है, किसी को अचानक सम्पत्ति मिल जाती है और किसी पर सहसा बिजली गिर जाती है, ये सब बातें किसी दृष्ट कारण के निमित्तसे नहीं हैं, अत: इनका कोई अदृष्ट कारण मानना चाहिए। १. नहि स्वतोऽसती शक्ति : कर्तुमन्येन पार्यते। ... कुन्दकुन्दाचार्य, समयसार, आत्मख्याति, गाथा ११९ २. हिरियन्ना, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १३१ ३. नेमिचन्द्राचार्य, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, सन् १९८० प्रस्तावना, पृष्ठ २ .. 2010_03 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठभूमि __ महात्मा बुद्धने भी कहा है - हे मानव सभी जीव अपने कर्मों से ही फल का भोग करते हैं। सभी जीव कर्मों के आप मालिक हैं, अपने कर्मों के अनुसार ही नाना योनियोंमें उत्पन्न होते हैं। अपना कर्म ही अपना बन्धु है, अपना कर्म ही अपना आश्रय है । कर्मसे ही प्राणी ऊँचे और नीचे होते हैं।' इसी प्रकार जन्म-मरणके कारणके विषयमें भी महात्मा बुद्धने कहा है - जिनमें क्लेश लगा है अर्थात् जिनका चित्त रागद्वेष से रहित नहीं है, वे जन्म ग्रहण करते हैं और जो क्लेशसे रहित हो गये हैं वे जन्म ग्रहण नहीं करते। _इस प्रकार सुख-दु:ख और जन्म-मरण के कारण पर सांख्य योगादि सभी दर्शनकारोंने गहरा अनुचिन्तन किया है। परन्तु इस विषयमें प्राय: सभी एक मत हैं कि जन्म-मरण का कारण व्यक्तिके अपने परिणाम होते हैं, परिणाम से कर्म और कर्मसे गतियों में भ्रमण होता है। गतियों की प्राप्ति होनेपर शरीर, शरीरमें इन्द्रियाँ, इन्द्रियोंसे विषयोंका ग्रहण और विषयों को ग्रहण करनेसे राग द्वेष उत्पन्न होता है। इस प्रकार अनादिकालसे जीवका यह संसार चक्र चला आ रहा बौद्ध दर्शन द्वारामान्य “प्रतीत्यसमुत्पाद" भी इसी अर्थ की विवेचना करता है। इसे द्वादश निदान, संसार चक्र, भाव चक्र, जन्म मरण चक्र, धर्म चक्र आदि अनेक नामों से संबोधित किया जाता है। इस सिद्धान्त में दु:ख तथा जन्म-मरणके हेतुओंका उल्लेख करते हुए बारह कड़ियोंका उल्लेख प्राप्त होता है-अविद्या, संसार, विज्ञान, नामरूप, षड़ायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, जाति और जरा-मरण । यह क्रम भूत, वर्तमान और भविष्यकी दृष्टिसे किया गया है। अविद्या और संस्कारका संबंध पूर्व जन्मसे है । अन्तिम दो जाति और जरामरणका संबंध भविष्यके जीवनसे है और मध्यके आठ कारणोंका संबंध वर्तमान जीवनसे है । अविद्या दु:खों का मूल कारण है इसीलिये कार्य कारण श्रृंखला अविद्या पर आकर रुक जाती है।' १. उद्धृत, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, प्रस्तावना, पृ०२ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, प्रस्तावना, पृ०२ ३. कुन्दकुन्दाचार्य, पंचास्तिकाय, वि.स. १९७२, गाथा १२८ ४. पंचास्तिकाय, गाथा - १२९ - १३०. ५. (क). संयुक्तनिकाय २१.३.९. (ख). सिन्हा हरेन्द्र प्रसाद, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, सन् १९८०. पृ०९५ 2010_03 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० . जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन - सांख्य और मीमांसा दर्शनमें भी संस्कारों तथा उसके बीजभूत कर्मका उल्लेख करते हुए कहा गया है- जिस प्रकार बीजसे अंकुर और अंकुरसे बीज होता है उसी प्रकार संस्कारसे कर्म तथा कर्मसे संस्कार उत्पन्न होता है। रागद्वेष से निवृत हो जाने पर भी योगी कुलालचक्रके भ्रमण की भाँति पूर्व संस्कार वश शरीरको धारण किये रहता है। ___कर्म के साधन मन वचन तथा काय ये तीन होते हैं जिनके द्वारा प्राणी प्रतिक्षण कुछ न कुछ करता रहता है और उनसे अन्त:करण में सहज रूप से संस्कारों का निर्माण होता रहता है । वे संस्कार शुभाशुभ, पुण्यपाप रूप में स्वीकार किये गये हैं। जैन दर्शनमें इनका विवेचन करते हुए कहा गया हैकायवाड्.मन:कर्म योग:""शुभ: पुण्यस्याशुभ: पापस्य २ अर्थात् मन वचन काय से प्राणी जो कुछ भी करता है, वह शुभ और अशुभ रूप होता है। शुभ पुण्यका कारण है और अशुभ पापका कारण है। इसी प्रकार मनुजीने मनुस्मृतिमें कहा है - "शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्देहसम्भवम्" अर्थात् मन-वचन-काय से किये जाने वाले कर्मों का फल शुभ या अशुभ होता है। योग दर्शन में भी इसी प्रकार पुण्य पाप के हेतु शुभाशुभ कर्मों का विवेचन प्राप्त होता है। - इस प्रकार पुण्य-पाप, शुभ-अशुभ कर्मों का उल्लेख किसी न किसी रूप में सभी दर्शनों में प्राप्त होता है।न्यायवैशेषिक इसे धर्म-अधर्म कहतेहैं, मीमांसा दर्शनमें इसे अपूर्व कहा गया है। योगदर्शनमें इसे ही कर्मके नाम से अभिहित किया गया है। बौद्धदर्शन में कुशल तथा अकुशल कर्मों के द्वारा कर्म विषयक सिद्धान्त का विवेचन किया गया है । जैन दर्शन का श्रेय सुख-दुख तथा जन्म-मरण का अन्वेषण करते हुए सभी दर्शनों ने जीवों के कर्मों तथा संस्कारों का उल्लेख किया है, परन्तु इस विषय का जितना सूक्ष्म तथा विस्तृत अध्ययन जैन दर्शन में प्राप्त होता है वह अन्यत्र प्राप्त नहीं होता। इसका १.. तिष्ठति संस्कारवशाच्चक्रममवद्धृत शरीर: सांख्यकारिका न.६७ २. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ६,सूत्र, १,३ ३. मनुस्मृति, अध्याय ११, श्लोक ३ ४. इच्छादेषपूर्विकाधर्माधर्मप्रवृत्ति-वैशेषिक सूत्र ६.२.१४ ५. कर्मेभ्य: अपूर्व प्रतीयेदाभिर्तत्वात्प्रयोगस्य। जैमिनी सूत्र २.१.४ ६. क्लेशमूल: कर्माशयो, योगसूत्र, २.१२ 2010_03 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ भूमि ११ कारण यह है कि अन्य दर्शनों में तात्त्विक विवेचना पर ही बल दिया गया है। कर्म. सिद्धान्त का उल्लेख अन्य दर्शनों में प्रासंगिक रूप से ही प्राप्त होता है । परन्तु जैन दर्शन की तात्त्विक और कार्मिक दोनों ही धारायें समान रूप से साथ-साथ चलती रही हैं। कार्मिक धारा के अन्तर्गत जैन दर्शन में कर्मवाद पर बहुत गहराई से चिन्तन किया गया है और सांगोपांग तर्क संगत एवं व्यवस्थित रूप से विपुल साहित्य लिखा गया है । कर्मग्रन्थ, कम्मपयड़ी, पंच संग्रह, षट्खण्डागम, कषायपाहुड, गोम्मटसार आदि विविध दिगम्बर तथा श्वेताम्बर ग्रन्थ कर्म सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं । योगदर्शनकार महर्षि पंतजलि ने दृष्ट और अदृष्ट जन्म वेदनीय के रूप में केवल दो अधिकारों की स्थापना की है। ' वेदान्त दर्शन में स्वामी शंकराचार्य ने आगामी, संचित और प्रारब्ध त्रिविध कर्मों का उल्लेख किया है। यह उल्लेख भी अत्यन्त संक्षिप्त तथा संकेत मात्र पाया जाता है, जिससे कर्मसिद्धान्त की गहनता का स्पष्ट परिचय प्राप्त नहीं होता । कर्म सिद्धान्त की गहनता का परिचय देने के लिए जैन दर्शन में दस अधिकारों की स्थापना की गई है। जिनमें आगामी, संचित और प्रारब्ध कर्म तो हैं ही परन्तु वर्तमान कर्मों के आधार पर उन कर्मों की शक्ति के हीनाधिक होने का सूक्ष्म विवेचन भी अन्य अधिकारों में प्राप्त होता है। इन बन्ध, उदय, सत्वादि दस अधिकारों के अन्तर्गत उन कर्मों के स्वभाव, आत्मा से संयुक्त होने की कालमर्यादा, स्वभाव की तीव्रता - मन्दता तथा कर्मों के परिमाण विभाग को दर्शाने के लिए प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्धे के अवान्तर अधिकारों की स्थापना की गई है । जीव के भावों के अनुसार कर्मों के विभिन्न भेद प्रभेदों का ज्ञानावरणादि अष्ट प्रकृतियों के रूप में उल्लेख प्राप्त होता है । इस प्रकार जीव के वर्तमान परिणामों के अनुसार कर्म बन्धन की परिणमन शील अवस्थाओं का बन्ध, उदय, सत्व, क्षय, उपशम, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, निधत्त और निकाचित इन दस अधिकारों में किया गया है, जिन्हें कर्म सिद्धान्त के "दस करण" कहा गया है। जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त के अन्तर्गत न केवल कर्मबद्ध अवस्था का अपितु कर्ममुक्त होने की अवस्था का भी चौदह सोपानों (गुणस्थान) द्वारा व्यवस्थित वर्णन प्राप्त होता है। इस प्रकार से सूक्ष्म विवेचन को प्रस्तुत करने का I १. क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्ट जन्म वेदनीय, योग सूत्र, २/१२ २. शंकराचार्य, तत्वबोध, सूत्र ४३ 2010_03 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन श्रेय केवल जैन दर्शन को ही प्राप्त है, अन्य दर्शनों में इस प्रकार से कर्मों का विश्लेषणात्मक परिचय प्राप्त नहीं होता। अर्यकर्ता तथा ग्रन्यकर्ता यह निर्विवाद है कि मानव मनीषा तथा संस्कारों के अनुसार इस भूमंडल पर सदा से दो विचार धारायें साथ-साथ चलती रही हैं - एक भौतिक और दूसरी पारमार्थिक । भौतिक संस्कृति जहाँ वैषयिक भोग के द्वारा जीवन को सुखमय बनाने के प्रति.लालायित करती है, वहाँ ही पारमार्थिक संस्कृति उसे वैषयिक भोग के त्याग द्वारा जीवन में आत्मानन्द की प्राप्ति कराती है । भौतिकता का आलम्बन बाह्म विषय है इसलिए यह परतन्त्र है, ज्ञान मात्र में अवलम्बित होने के कारण पारमार्थिक संस्कृति स्वतन्त्र है। यद्यपि सारा विश्व अधिकांशत: भौतिक संस्कृति का उपासक रहा है परन्तु इस भूखण्ड का एक छोटा सा भाग ऐसा भी है जो केवल पारमार्थिक संस्कृति पर विशास करता है। वह है भारतवर्ष, इसकी पावनधरा पर सदा से तत्त्वदृष्टा ऋषि तथा महर्षि उत्पन्न होते रहते हैं, जिनके कारण यह ऋषि भूमि के नाम से प्रसिद्ध है । ऋषियों की अविच्छिन्न धारा में जैनों के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर भी अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् उनकी भाषा अत्यन्त मधुर, मनोहर, गंभीर, विशद, हृदय स्पर्शी तथा अतिशय युक्त हो जाती है, जिससे तिर्यञ्च, देव, मनुष्य अपनी-अपनी भाषा में उसे ग्रहण कर लेते हैं, यही उनकी वाणी का अतिशय होता है। अनेकों भाषाओं को अपने में धारण किये रहने के कारण उनकी वाणी को "दिव्य ध्वनि" कहा जाता है। इस प्रकार भाषा की चिन्ता छोड़कर अपनी अतिशय युक्त वाणी से हृदय में स्थित अर्थ या भाव को जनगण मन तक पहुंचाने के कारण भगवान महावीर अर्थकर्ता कहलाते भगवान महावीर की वाणी के द्वारा अभिव्यक्त होने वाले अर्थ को उनके प्रधान शिष्य (गणधर) आचार्य इन्द्रभूति ने सूत्रों में बद्धकर दिया। वह सूत्रबद्ध साहित्य ही ग्यारह अंगों और चौदह पूर्वो के रूप में व्यवस्थित है। इस प्रकार १. तिर्यग्देव मनुष्य भाषाकार....अति मनोहर मधुर, गंभीर, विशद वातिशय सम्पन्न... षटखण्डागम, धवलाटीका, पुस्तक १ खण्ड १ सूत्र, पृ०६१ (अमरावती प्रकाशिनी संस्था) २. संखेनगुणमासास....विणिग्गयन्झुणि । धवला टीका, पुस्तक ९, खण्ड ,सूत्र ९, पृ०६२ ३. महावीरोऽर्थकर्ता-धवला टीका, पुस्तक १, खण्ड १. सूत्र १, पृ०६१ 2010_03 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठभूमि अनेक ग्रन्थों की रचना करने वाले इन्द्रभूति जो कि आज गौतम गणधर के नाम से प्रसिद्ध हैं, वे "ग्रन्थकर्ता" कहलाते हैं। जैन वाड्.मय की मौलिक शास्त्र रचना द्वादशांग वाणी के नाम से प्रसिद्ध है। प्रत्येक अंग अनेक पूर्वो में और प्रत्येक पूर्व अनेकों वस्तुगत अधिकारों में और प्रत्येक वस्तुगत अधिकार अनेक प्राभृतों में विभाजित किये गये हैं । इस प्रकार से विस्तृत जैन वाड्.मय में जैन दर्शन के मौलिक सिद्धान्तों का विस्तृत एवं स्पष्ट विवेचन प्राप्त होता है । करणानुयोग जैन बाड्.मय के इस विशाल साहित्य में कर्म सिद्धान्त का विवेचन करने वाला विभाग “करणानुयोग" कहलाता है । करण शब्द के दो अर्थ जैन दर्शन में प्रसिद्ध हैं - एक जीव के परिणाम और दूसरा इन्द्रिय । कर्म सिद्धान्त में करण शब्द परिणाम अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। जीव के राग द्वेषादि परिणाम ही उसके कर्म कहलाते हैं, जिनके फलस्वरूप उसे नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चतुर्गतियों में भ्रमण करना पड़ता है। यह भ्रमण ही संसार कहलाता है। इसलिए करणानुयोग में तीन बातों का उल्लेख किया गया है - जीव के परिणाम, विविध कर्म, और उनके फलस्वर. प्राप्त होने वाला चतुर्गति रूप संसार। जीव के परिणामों का विवेचन करने वाला जीवकाण्ड, विविध प्रकार के कर्मों तथा उनकी बन्ध उदयादि ॐाओं को दर्शाने वाला कर्मकाण्ड और संसार भ्रमण के स्वरूप का चित्रण करने वाला लोक विभाग, इन तीन अवान्तर विभागों द्वारा दर्पण के समान विषय का प्रतिपादन करने वाला अनुयोग करणानुयोग है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध जीव काण्ड और कर्मकाण्ड को आधार मानकर प्रस्तुत किया गया है। - १. चौदसपइण्णयाण...तेणिदभूदि..गंथ कत्तारो। धवला टीका, पुस्तक ९,खण्ड ४, सूत्र ४४, पृ० १२६ २. (क). करणा:परिणामाः, धवला टीका, पुस्तक १, खण्ड १, सूत्र १६, पृ० १८० (ख). करण चक्षुरादि, राजवार्तिक, अध्याय ६, सूत्र १३, पृ०५२३ ३. जो खलु संसारत्थो जीवो ततो दुपरिणामो। परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गति सुगति । पंचास्तिकाय, गाथा, १२८ लोकालोक विभक्तेर्युग परिवृतेश्चर्तुगतीनां च आदर्शमिव तयामतिरवैति करणानुयोगं च । समन्तभद्राचार्य, रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्लोक ४४ 2010_03 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय वस्तु स्वभाव - - दव्वं सल्लक्खणयं उप्पादव्वयधुवत्तसंजुत्तं । गुण पज्जयासयं वाजं तं भण्णंति सव्वण्हू॥ पंचास्तिकाय, गाथा १०. १, सामान्य परिचय वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जैन दर्शन की दृष्टि से जाने बिना, जैन कर्म सिद्धान्त को नहीं जाना जा सकता। इसीलिये सर्वप्रथम वस्तु क्या है, विभिन्न दर्शनों में वस्तु का क्या स्वरूप है, जैन दर्शन से वह किस प्रकार भिन्न है, जैन दर्शन में वस्तु के असाधारण गुण क्या हैं, इत्यादि वस्तु से संबंधित विभिन्न विषयों पर विचार करना आवश्यक है। __ वस्तु क्या है - इस विषय पर विचार करते हुए कर्म सिद्धान्त मर्मज्ञ जिनेन्द्र वर्णी ने कहा है, "जो कुछ भी यहाँ दिखाई दे रहा है या व्यवहार में आ रहा है, उन सबको वस्तु या पदार्थ कहने का व्यवहार लोक में प्रचलित है । वस्तु, पदार्थ और द्रव्य तीनों का एक ही अर्थ है। इसी को सैद्धान्तिक भाषा में कहा जाता है कि जो सत्ता रखता है या जो सत् है वही वस्तु पदार्थ या द्रव्य है। इस प्रकार वस्तु, द्रव्य, सत्, पदार्थ आदि सब एक ही अर्थ का प्रतिपादन करते हैं । जैन दर्शन का वास्तववाद, वास्तविकता तथा सत्ता में भेद नहीं करता। उसके अनुसार वस्तु ही सत् है और सत्ता ही वस्तु है । वस्तु के स्वरूप का विवेचन करते हुए आचार्य मल्लिषेण ने कहा है - “वसन्ति गुणपर्याया अस्मिन्निति वस्तु २ जिसमें गुण और पर्यायें रहती हैं, वह वस्तु है । मल्लिषेणाचार्य की यह परिभाषा उमास्वामीकी द्रव्यकी परिभाषा से १. (क) जिनेन्द्रवर्णी, पदार्थ विज्ञान, १९८२, पृ० ६, (जिनेन्द्रवर्णी ग्रन्थमाला, पानीपत) (ख) दवियदि गच्छदि ताईताइंसब्भावपज्जयाई जं। दवियं तं मण्णते अणंण भूदं तु सत्तादो॥ (पंचास्तिकाय गाथा ९) (ग) हवदिपुणो अण्णं वा तम्हा दव्वं सयं सत्ता (प्रवचनसार २.१३) २. मल्लिषेणाचार्य, स्याद्वाद् मंजरी, सन् १९३५ श्लोक २३, पृ० २७२ 2010_03 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु स्वभाव १५ साम्यतारखती है। उमास्वामी ने कहा है - "गुणपर्यायवद् - द्रव्यम्' अर्थात् गुण और पर्याय वाला द्रव्य है। इस प्रकार दोनों परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि जैन मान्य वस्तु और द्रव्य एक ही अर्थ के द्योतक हैं। जिस प्रकार अग्निका उष्णत्व से और जलका शीतत्व से पृथक् अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार गुण तथा पर्यायों से युक्त वस्तुका अपने गुण तथा पर्यायोंसे पृथक् अस्तित्व नहीं होता। २. अन्य वर्शनों में सत्ता का स्वरूप वेदान्त के अनुसार जो सत् है वह कभी परिवर्तित नहीं हो सकता इसीलिये ब्रह्म ही एक परमसत् है, जगत् केवल एक आभास मात्र है। शंकराचार्य की सम्पूर्ण धारणा विवर्त के सिद्धान्त पर आधारित है, जिसके अनुसार जैसे अज्ञान के कारण रस्सी में सर्प का बोध होता है, उसी प्रकार अज्ञानके कारण जगत् में अनेकत्व दष्टिगोचर होता है । यथार्थमें ब्रह्म ही एक मात्र वास्तविक सत्ता है अन्य कुछ नहीं। - बौद्धदर्शनका दृष्टिकोण वेदान्तसे पूर्णत: विपरीत है । बौद्धमत के अनुसार कोई भी वस्तु नित्य नहीं है। प्रत्येक वस्तु अपने उत्पन्न होने के दूसरे क्षणमें ही नष्ट हो जाती है, क्योंकि नष्ट होना पदार्थों का स्वभाव है । कूटस्थ नित्य वस्तु में अर्थक्रिया नहीं हो सकती, और वस्तुमें अर्थक्रिया न होनेसे उसे सत् भी नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार बौद्धमतमें क्षण स्थायी सत्ताको ही यथार्थ माना गया . सांख्य दर्शन में नित्य और अनित्य दोनों सत्ताओं को पुरूष और प्रकृति के रूप में स्वीकार किया गया है। पुरूष नित्य, स्थिर और चेतन तत्त्व का द्योतक है और प्रकृति अनित्य, अस्थिर और अचेतन तत्त्व की द्योतक है । इस प्रकार सांख्य दर्शन में कूटस्थ, नित्य और परिवर्तनशील दोनों सत्ताओं को स्वीकार किया गया है।' न्यायवैशेषिक दर्शनमें भी सत्ता के द्वैतको स्वीकार किया गया है। विश्व का निर्माण विभिन्न प्रकारके परमाणुओं और जीवात्माओं के सहयोगसे होता है।' १. उमास्वामी, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५, सूत्र ३७ २. जगद्विलक्षण ब्रह्म ब्रह्मणोऽन्यत्र न किंचन, शंकराचार्य, आत्मबोध सूत्र ६३ ३. सिन्हा हरेन्द्र, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, १९८०, पृ० १०५ १. सांख्य कारिका, ११.१ ५. सिन्हा हरेन्द्र, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ०२१० 2010_03 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन न्यायवैशेषिक के अनुसार विभु द्रव्योंको गतिहीन माना गया है और अणु द्रव्योंको गतिहीन और गतिशील दोनों प्रकारका माना गया है । इस प्रकार न्यायवैशेषिक का सत्ता विषयक दृष्टिकोण यद्यपि सांख्यकी तरह बहुवादी है, परन्तु न्यायवैशेषिकमें स्थिरताको वास्तविकताका एक सम्भव लक्षण माना गया है, जो सांख्य से भिन्नता रखता है। मीमांसा दर्शन भी न्यायवैशेषिककी भाँति बहुवादी है और भौतिक सत्ता के मूल में अनेक तत्त्वोंको स्वीकार करता है, परन्तु मीमांसा दर्शनमें स्थिरता के स्थान पर परिवर्तनशीलताके सिद्धान्तको माना गया है। नित्य होते हुए भी द्रव्यके रूप आगमापायी होते हैं, इस प्रकार कुमारिल भट्टने पदार्थों के उत्पाद-व्यय और स्थिति रूपको स्वीकार किया है। ३. जैन दर्शन में सत्ताका स्वरूप जैन दर्शन के अनुसार सत् को उत्पाद-व्यय और धौव्य युक्त माना गया है। उमास्वामीने सूत्रमें कहा है "उत्पाद्-व्यय धौव्य युक्तं सत्जै न मान्य सत का यह लक्षण उसे अन्य दर्शनोंसे पृथक करता है। जैन मान्य वस्तु या द्रव्य न तो वेदान्तकी भाँति पूर्ण कूटस्थ है और न ही सांख्य दर्शन की भाँति सत्ताका चेतन भाग कूटस्थ - नित्य और अचेतन भाग परिणामि - नित्य है । इसी प्रकार जैन मान्य वस्तु बौद्धदर्शनकी भाँति मात्र उत्पाद्-व्यय युक्त भी नहीं है। न्यायवैशेषिक की भाँति जैन मान्य चेतन व जड़ तत्त्वों में निष्क्रियता भी नहीं है । जैन मान्यता के अनुसार चेतन और जड़, मूर्त और अमूर्त, सूक्ष्म और स्थूल सभी सत् पदार्थ उत्पाद-व्यय और धौव्य रूप से त्रिरूप हैं।" . वस्तु त्रिरूप किस प्रकार है, इसका विश्लेषण करते हुए कहा गया है कि प्रत्येक सत्तात्मक वस्तु में दो अंश विद्यमान होते हैं। वस्तु का एक अंश तीनों कालो में शाश्वत रहता है, इसी कारण वस्तु को धौव्य कहा जाता है और दूसरा अंश सदा परिवर्तित होता है जिसके कारण वस्तुको उत्पाद व्यय युक्त कहा जाता है। 3. हिरियन्ना एम.भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ०२३२ २. वही, पृ० ३२२ (ख) भगवदगीता, २.१४ ३. तत्वार्यसूत्र, अध्याय ५, सूत्र ३० ४. वही, सूत्र ५. संघवी सुखलाल, तत्वार्थ सूत्र विवेचना, पृ० १३४ 2010_03 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ वस्तु स्वभाव दोनों अंशोंपर दृष्टि डालने से ही वस्तु का पूर्ण और यथार्थ स्वरूप ज्ञात हो सकता है। दोनों दृष्टियोंसे समन्वित स्वरूप ही सत् है। दोनों दृष्टियोंको जैन दर्शन में “द्रव्यार्थिक नय" और "पर्यायार्थिक नय" कहा जाता है। केवल ध्रुवताको लक्ष्य करने वाली दृष्टि द्रव्यार्थिक और उत्पादव्यय को लक्ष्य करने वाली दृष्टि पर्यायार्थिक है। इस प्रकार जैन मान्य सभी द्रव्य अपनी-अपनी जातिमें स्थिर रहते हुए भी निमित्तके अनुसार उसी प्रकार उत्पाद और व्ययको प्राप्त करते हैं, जिस प्रकार स्वर्ण, स्वर्णत्व रूपसे स्थिर रहते हुए भी कटक, कुण्डल.रूपसे परिवर्तनको प्राप्त करता है और सागरका जल-जल रूपसे स्थिर रहते हुए भी तरंगोंके रूपमें परिवर्तित होता है। जैन दर्शनका यह परिणामि-नित्यत्ववाद सांख्य दर्शनकी भाँति केवल जड़ प्रकृति तक ही सीमित नहीं है, परन्तु चेतन तत्त्व पर भी घटित होता है । जैन दर्शन सभी जीव अजीव तत्त्वोंको व्यापक रूपसे परिणामि-नित्य मानता है। इस प्रकार जैन मान्य सत्ताके सिद्धान्तके अनसार, यह संसार अनन्त और अविनाशी है, इसको रचने वाला कोई ईश्वर नहीं है, अपितु वस्तुका उत्पाद-व्यय युक्त स्वभाव है, जो उत्पाद-व्यय युक्त होते हुए भी मूल रूप में ध्रुव है।' इस प्रकार स्पष्ट है कि जैन दर्शन में सत्ता के विषय को अद्वैत या द्वैत के किसी एक सिद्धान्त के द्वारा स्पष्ट नहीं किया जा सकता, क्योंकि दोनों अंशों के सम्मलित रूपमें ही वस्तुका स्वरूप निहित है । उभयात्मक वस्तु स्वरूपके अवबोध के लिए जैन दर्शनमें अनेकान्तवादका प्रतिपादन किया गया है। ४. वस्तुके गुण वस्तुकी दृष्ट कार्यव्यवस्थामें दो प्रमुख कारण दृष्टिगोचर हाते हैं - अन्तरंग तथा बाह्य । अन्तरंग कारण उपादान कहलाता है और बाह्य कारण निमित्त कहलाता है। इनमें विवक्षित वस्तु उपादान कहलाती है। वस्तु के स्वभाव १. पूज्यपादस्वामी, सर्वार्थसिद्रि१९५५, अध्याय १, सूत्र ३३ पृ० १४० २. भार्गव दयानन्द, जैन एथिक्स १९६८, पृ०५ ३. आलाप पद्धति • श्लोक २ १. डॉ० ग्लासनेप, डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलासफी, १९४२, पृ०१ ५. अकलंकमट्ट, राजवार्तिक, पृ० ११८ ६. अकलंकभट्ट, न्याय विनिश्चय, श्लोक १३ 2010_03 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन में जो गुण उपादान रूपसे सदैव समान रहते हैं, उन्हें सहभावीगुण कहा जाता है। सहभावी गुण भी सामान्य तथा विशेषके भेदसे दो प्रकार के हो जाते हैं। जीवअजीव, जड़-चेतन सभी सत्ताभूत वस्तुओं में सामान्य रूप से रहने वाले गुणों को सामान्य या साधारण गुण कहा जाता है और विभिन्न द्रव्यों में विशेष रूप से रहने वाले गुणों को विशेष गुण कहा जाता है। यहाँ सर्वप्रथम सामान्य गुणों का ही विवेचन इष्ट है जो सभी द्रव्यों में सामान्य रूपसे पाये जाते हैं और जिनके कारण जैन मान्य वस्तु का स्वरूप अन्य दर्शनोंसे भिन्न हो गया है। ५. साधारण या सामान्य गुण सामान्य गुण दस हैं - अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरूलघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अमूर्तत्व, अचेतनत्व और मूर्तत्व । इनमें से प्रथम षद् गुण सभी द्रव्योंमें सामान्य रूप से पाये जाते हैं, चेतनत्व तथा अमर्तत्व जीवद्रव्यमें पाया जाता है, अचेतनत्व तथा मूर्तत्व पुद्गल द्रव्य में पाया जाता है और अचेतनत्व तथा अमूर्तत्व जैन मान्य शेष चार द्रव्यों (धर्म-अधर्म, आकाश और काल) में पाया जाता है । इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य में आठ-आठ सामान्य गुण हो जाते हैं। यहाँ सभी द्रव्यों में पाये जाने वाले षद सामान्य गुणों का विवेचन इष्ट (१) अस्तित्व गुण- जिस शक्ति या गुणके निमित्त से द्रव्यका किसी भी अवस्थामें नाश न हो उसे अस्तित्व गुण कहते हैं । इस गुणके फलस्वरूप वस्तु अनेकों चित्र-विचित्र रूपोंको प्राप्त होने पर भी सत्तात्मक गुणको सदैव धारण किये रहती है । असत् पदार्थ शशविषाणवत् व्यवहार का विषय नहीं हो सकता। (२) बस्तुत्व गुण-वस्तु का जो गुण अर्थक्रिया करने में समर्थ हो उसे वस्तुत्व कहते हैं। जैसे घड़े की अर्थक्रियाजल धारण करना है, इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्यकी पृथक्-पृथक् अर्थक्रिया है। अर्थक्रिया लक्षण प्रत्येक वस्त में समान होते हुए भी १. देवसेनाचार्य, वृहदनयचक्र, गापा ११ २. नयचक्र, गाथा १२ ३. एक्केक्का अट्ठा सामण्णाति सव्वदव्वाण, बृहदनयचक्र गाथा, १५ १. अत्विसहाबोसत्ता "वदनयचक्रगाथा,६१ ५. वस्तुनस्ताववक्रिया कारित्व लक्षण, स्यावादमंजरी, पृ० ३० । 2010_03 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु स्वभाव प्रयोजनकी अपेक्षा भिन्न हो जाता है, जिससे वस्तु एक दूसरेसे विलक्षण प्रतीत होती है। अपने स्वरूपके ग्रहण और अन्य के स्वरूपके त्यागसे ही वस्तुके वस्तुत्व गुण की व्यवस्था है। इस गुणके कारण घट, घटका ही कार्य करता है पटका नहीं। जीव द्रव्यका वस्तुत्व गुण ज्ञाता और दृष्टा होना है और पुद्गलका वस्तुत्व गुण बनना और नष्ट होना है, इस प्रकार द्रव्योंके स्वभावकी व्यवस्था भी वस्तुत्व गुणके द्वारा ही बन पाती है। (३) द्रव्यत्वगुण- वस्तुका जो गुण वस्तु की सभी पर्यायों में अन्वित रहता है, उसे द्रव्यत्वगुण कहते हैं। वस्तु के इसी गुणके कारण जीव द्रव्य नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव बनता है, पुद्गल द्रव्य स्कन्ध और परमाणुका रूप धारण करता है, काल द्रव्य समय, आवली, पहर आदि के नामोंसे पुकारा जाता है और आकाशद्रव्य घटाकाश, मठाकाश, लोकाकाश आदि रूपोंमें व्यवहृत होता है। . वस्तुका नित्य प्रवाहित होना स्वभावसे ही सिद्ध है, क्योंकि जगत् में प्रत्यक्ष रूपसे परिणमन दृष्टिगोचर होता है। यह स्वाभाविक परिणमन सत् है, क्योंकि सत् उत्पाद व्यय धौव्य युक्त कहा गया है। वस्तु का यह गुण, जैन मान्य वस्तुको बौद्धमान्य क्षणिकतासे और वेदान्तमान्य कूटस्थतासे पृथक् करता है । वस्तुके इसी गुणके कारण वस्तु का विभिन्न रूपों में निर्माण होता है । इस प्रकार सृष्टिकी विचित्रता को बनाने वाला यह गुण, ईश्वर कर्तृत्व का भी विरोध करता है। कुन्दकुन्दाचार्य ने द्रव्यत्व गुण का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है दवियदि गच्छदि ताई ताई सम्भावपज्जयाई जं। दवियं तं भयंते अणण्णभूदं तु सत्तादो॥ द्रव्यत्वगुणके कारण, द्रव्य विभिन्न सत्ताभूत पर्यायों में यथानाम रूप से परिवर्तन करता हुआ भी, सत्ता के साथ अनन्य रूप से अवस्थित है । सूर्यबिम्ब और अकृत्रिम चैत्यालयों को जैनदर्शन में त्रिकाल स्थायी कहा गया है, परन्तु त्रिकालस्थायी मानते हुए भी द्रव्यत्व गुण के कारण उसके सूक्ष्मपरिवर्तन को भी स्वीकार किया है। १. विमलदास, सप्तभंगी तरंगिनी, सन् १९१६, पृ० ३८ २. जैन तत्त्व कलिका, सप्तम कलिका, पृ० २३७ ३. कुन्दकुन्दाचार्य, पंचास्तिकाय, गाथा ९ ४. जिनेन्द्र वर्णी, नय दर्पण, १९६५ पृ० ५६३ 2010_03 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त-एक अध्ययन (४) प्रमेयत्वगुण - वस्तुका जो गुण, वस्तुको प्रमाणका विषय बनाये, उसे प्रमेयत्व गुण कहते हैं ।' प्रमेयत्व गुण के कारण वस्तु किसी भी देश अथवा काल में, किसी न किसी के ज्ञानका विषय अवश्य बनती है। जो वस्तु किसी भी देश कालमें ज्ञाता के ज्ञानका विषय नहीं बनती, वह वस्तु न रहकर शशविषाणवत् कल्पना मात्र रह जायेगी । जैन मान्यता के अनुसार जीवादि षट द्रव्यों का प्रमाण, केवल ज्ञान में प्रत्यक्ष झलकता है, इसीलिए वे प्रमेयत्व गुण को प्राप्त हैं। जीव, पुद्गल, आकाश व काल इन चार द्रव्योंको तो न्यूनाधिक रूप से अल्पज्ञ भी प्रत्यक्ष करते हैं, परन्तु धर्म और अधर्म द्रव्य (जिसका वर्णन अन्य दर्शन में द्रव्य रूप से नहीं है) सर्वज्ञ के ही ज्ञान का विषय होते हैं । इस प्रकार धर्मादि समस्त द्रव्यों का ज्ञान प्रमेयत्व गुण के कारण ही प्राप्त होता है । (५) अगुरुलघुत्व गुण- गुरूता और लघुता का अभाव अगुरुलघु कहलाता है । इस गुण के निमित्त से प्रत्येक द्रव्य अपने गुण और पर्यायों में गमन करता हुआ भी दूसरे द्रव्य रूप में परिणमन नहीं कर सकता, एक गुण दूसरे गुण में परिणमन नहीं कर सकता और द्रव्य के विभिन्न गुण अपनेसे पृथक् नहीं हो सकते। यह गुण सभी जीव, अजीव द्रव्योंमें पाया जाता है । यह गुण सभी द्रव्योंका नियामक है । सुखलाल संघवीके अनुसार इस गुणके कारण द्रव्य अन्य द्रव्य रूप नहीं हो सकता, द्र गुण गुणान्तर का कार्य नही करते और द्रव्य की नियत सहभावी शक्तियाँ पृथक नहीं हो पाती । अगुरुलघुत्व गुण के कारण वस्तु ताम्बे तथा सोने, अथवा नीर क्षीर की भाँति संश्लिष्ट हो जाने पर भी वस्तु के स्वाभाविक गुणों में अल्पमात्र भी कहीं हो पाती। जड़ वस्तु जड़ के गुणों सहित जड़ ही रहती है और चेतन वस्तु चैतन्य गुणों सहित चेतन ही रहती है। इस प्रकार हानिवृद्धिके अभाव के कारण ही, इस गुण को अगुरुलघु नाम दिया गया है ।" (६) प्रदेशत्व गुण- प्रदेशत्व गुण का लक्षण करते हुए आलापपद्धति में देवसेना वरैयागोपालदास, जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, १९६२, पृ० ३० जैन तत्त्वकलिका, सप्तम कलिका, पृ० २३७ जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, १९६२, पृ० ३० १. २. ३. 8. विवेचना सहित तत्त्वार्थ सूत्र, पृ० १२७ की टिप्पणी ५. अगुरूलघोर्भावोऽगुरुलघुत्वम्, आलापद्धति, पृ० ८९ 2010_03 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु स्वभाव २१ चार्य कहते हैं- “प्रदेशस्य भाव: प्रदेशत्वं क्षेत्रत्वं अविभागिपुद्गलपरमाणुनावष्टब्धम् प्रदेशके भावको प्रदेशत्व अर्थात् क्षेत्रत्व कहते हैं । वह अविभागी पुद्गल परमाणु के द्वारा घेरा हुआ स्थान मात्र होता है । वस्तु अपने उपरोक्त गुणों के साथ ही किसी न किसी आकृतिको भी अवश्य धारण करती है । वस्तु मात्रको आकृति प्रदान करने वाला गुण प्रदेशत्व गुण ही है, इसी गुण के कारण जीव, धर्म और अधर्म द्रव्य को असंख्यात प्रदेशी, आकाश को अनन्त प्रदेशी और पुद्गलको संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी कहा जाता है। आकृति या संस्थान का अर्थ यहां दृष्टिगोचर स्थूल आकार मात्र नहीं है, क्योंकि दृष्टिगोचर होने वाला आकार तो केवल मूर्तिक द्रव्योंमें ही पाया जाता है, परन्तु यहाँ प्रदेशोंके जिस आकारको ग्रहण किया गया है, वह मूर्तिक और अमूर्तिक, सभी द्रव्योंमें समान रूपसे पाया जाता है। अति सूक्ष्म होने के कारण परमाणु यद्यपि दिखाई नहीं देते, परन्तु उनसे निर्मित वस्तुओंकी आकृति दिखाई देती है, इससे यह स्पष्ट है कि इनके कारणभूत परमाणु कुछ न कुछ आकृति अवश्य रखते हैं। जीव यद्यपि अमूर्तिक है, परन्तु प्रदेशत्व गुण के कारण वह जिस शरीरमें जाता है, उसी आकतिको धारण कर लेता है। क्रियाके कारण वस्तुके आकार में भी परिवर्तन हो जाता है । जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्य ही क्रियावान् हैं। अत: इन दोनोंमें ही आकार परिवर्तन होता है। शेष द्रव्योंमें आकार तो है, परन्तु उनमें निष्क्रियता है, इसी कारण उनके आकार परिवर्तन नहीं होते। ____ इस प्रकार वस्तु में अस्तित्व आदिषट् सामान्य गुण पाये जाते हैं। इन छहों सामान्य गुणोंके क्रमकी भी सार्थकता है । वस्तु वही है जो सत्तात्मक है, इसीलिये अस्तित्व गुण को सर्वप्रथम रखा है, अस्तित्वयुक्त वस्तुका प्रयोजनभूत कार्य अवश्य होता है, द्रव्यत्वगुणके बिना प्रयोजनभूत कार्य सम्भव ही नहीं है, इन तीनों गुणोंसे युक्त वस्तु प्रमेयका विषय अवश्य होती है । द्रव्यों की सत्ता को पृथक्पृथक् रखने वाला अगुरूलघुत्व गुण और आश्रयभूत प्रदेशत्व गुण, अन्तमें कहा गया है। १. आलाप पद्धति , पृ०९१ २. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५, सूत्र ८-१० ३. जैन सिद्धान्त शिक्षण, पृ०९७, द्रव्यानुयोग प्रवेशिका, पृष्ठ १८,२२. ४. सिद्धान्त प्रवेशिका, पृ० ३० 2010_03 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन २२ निष्कर्ष जैन मान्य वस्तु स्वभाव के षट् सामान्य गुणों से यह स्पष्ट होता है कि जैन मान्य वस्तु या सत्ता षट् द्रव्य रूप है । वह अपने स्वभाव के कारण ही परिवर्तन को प्राप्त करती है, अन्य कारण उसमें निमित्त मात्र हैं। इस प्रकार जैनोंका यह सिद्धान्त बौद्धों के असत्कारणवादका निराकरण करता है, क्योंकि वास्तविक सत्ता के बिना कार्य की निष्पत्ति नहीं हो सकती। जैन मान्य वस्तुस्वरूप अद्वैत वेदान्तियों के सत्कारणवादसे भी भिन्न है, क्योंकि जैनोंने सत् रूपमें, जड़ और चेतन दोनों तत्त्वोंको स्वीकार किया है, जबकि वेदान्तमें केवल एक आत्मतत्त्वको ही सत् रूपमें स्वीकार किया है। __ जैन मान्य वस्तु न्यायवैशेषिकोंके असत्कार्यवाद से भी पृथक् है, क्योंकि जैनोंके अनुसार समस्त सृष्टि सत् रूप है, और सत् रूपमें रहते हुए ही अपने द्रव्यत्व गुणके कारण परिवर्तन करती है। इस प्रकार जैनोंका वस्त स्वरूप सांख्य के सत्कार्यवादसे काफी समानता रखता है, क्योंकि सांख्य दर्शन और जैन दर्शन दोनोंने जड़ और चेतन तत्त्वोंको सत् रूपमें माना है और इन दोनोंसे ही बाह्याभ्यन्तर जगत् रूप कार्यकी उत्पत्ति होती है। परन्तु सांख्य का चेतन तत्त्व निष्क्रिय है, जैनों ने दोनों तत्त्वों को क्रियाशील माना है। इस प्रकार जीव तथा पुद्गल भले ही अपनी क्रिया शक्तिके कारण एक दूसरेसे संबंधको प्राप्त हों, परन्तु उनकी सत्ता पृथक्-पृथक् है, इस विवेकको प्राप्त कर ही जीव अनादिकालीन कर्ममलको अपनेसे पृथक कर सकता है। जैन दर्शनके अनुसार जगत् का अस्तित्व तो है, परन्तु यह जगत् जीवका साध्य नहीं है, इसीलिये साधक को, आत्मा को आच्छादित करने वाले कर्ममलका अपगम करना होता है। श्री जिनेन्द्र वर्णी जी के शब्दों में षट् सामान्य गुणोंके समुदाय रूप वस्तु स्वंय सत्, नित्य और अनादि है। अभूतपूर्व नई वस्तु का निर्माण करना सम्भव नहीं है औरन ही बीजभूत मौलिक वस्तुका नाशसम्भव है। असत्की उत्पत्ति और सत् का विनाश तीन कालमें भी सम्भव नहीं है । समन्तभद्राचार्यने भी कहा है - "नैवासतो जन्म सतो न नाशो। गीताके द्वारा भी इसकी तुलनाकी जा सकती है। १. जैन तत्त्वकलिका, प्रस्तावना, पृ० २६ २. जिनेन्द्र वर्णी , कर्म सिद्धान्त, सन् १९८१, पृ०११ ३. समन्तभद्राचार्य, स्वयम्भूस्तोत्र, श्लोक २४ ४.. भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक १६ 2010_03 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु स्वभाव ___ अत: जैन दर्शनके अनुसार जीवकी भाँति पुदगलोंका अस्तित्व भी अनादि है, इनका नाश तो नहीं किया जा सकता, परन्तु आत्मा पर छायी कर्म रूप अवस्थाका विनाश अवश्य किया जा सकता है । ६. वस्तुके असाधारण या विशेष गुण जैन दर्शनके अनुसार वस्तुको षद् द्रव्योंके समूह रूप माना गया है । पद्रव्योंके पृथक्-पृथक् विशेष गुणोंको ही वस्तुके असाधारण या विशेष गुण कहा जाता है । असाधारण कहे जाने वाले गुण अपने-अपने द्रव्य की अपेक्षा साधारण होने पर भी भिन्न द्रव्य, अथवा द्रव्य समूहकी अपेक्षा असाधारण ही हैं। जैसे ज्ञान, सुखादि सर्वजीवोंमें सामान्य रूपसे पाये जाने के कारण जीव द्रव्य के प्रति साधारण हैं और द्रव्यों अथवा द्रव्य समूह में न पाये जानेसे उनके प्रति असाधारण हैं। प्रस्तुत प्रकरण में सामान्य रूपसे वस्तुका कथन है, इसी कारण वस्तु की अपेक्षा ये विशेष या असाधारण ही होते हैं। समस्त असाधारण गुण संख्यामें सोलह होते हैं - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, गतिहेतुत्व, स्थिति हेतुत्व, अवगाहन हेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व। इनमें से भावस्वरूप गुणों को अनुजीवी गुण कहते हैं, जैसे ज्ञान, दर्शन, सुखादि और अभाव स्वरूप गुणों को प्रतिजीवी गुण कहते हैं जैसे अचेतनत्व आदि । आगे पृथक्-पृथक् द्रव्य की दृष्टिसे उपरोक्त असाधारण गुणोंका विवेचन इष्ट है - (क) जीव द्रव्य के असाधारण गुण जीव द्रव्य में षट् विशेष गुण माने गये हैं - आलाप पद्धति में कहा गया है - “जीवस्य ज्ञानदर्शनसुखवीर्याणि चेतनत्वममूर्तत्वमिति षट्"" ज्ञान जीव का एक विशेष गुण है, जो स्व तथा पर दोनों को जानने में समर्थ है।' निर्विकल्प रूप से पदार्थों को ग्रहण करने की शक्तिको दर्शन कहते हैं।' आह्लाद या आनन्दका नाम सुख है। द्रव्यकी अपनी शक्ति विशेषको वीर्य कहते __ज्ञानसुखादय: स्वजातौ साधारणा अपि विजातोपुनरसाधारणा: योगेन्दुदेव परमात्मप्रकाश, विक्र.सं.२०१७, पृ.५८ २. आलाप पद्धति, पृ० ३२ ३. जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, पृ०४२ ४. आलाप पद्धति, पृ० ३२ जिनेन्द्र वर्णी, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, १९७१, भाग २, पृ० २५५ ६. पंचसंग्रह, गाथा, १३८ ७. 'सुखमालादनाकारम्' अकलंकभट्ट, न्यायविनिश्चय, अधिकार १, पृ०४२८ 2010_03 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन हैं । जिस शक्तिके निमित्त से जीव ज्ञाता-दृष्टा और कर्ता-भोक्ता होता है, जीवकी वह शक्ति चेतनत्व है। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि गुणोंसे रहित और इन्द्रियोंसे अग्राह्य होनेको अमूर्तत्व कहते हैं, जैसा कि नयचक्र में कहा गया है - - "रूवाइपिंडो मुत्तं विवरीय ताण विवरीयं”३ जीवद्रव्यके ये षद् असाधारण गुण जीवके स्वरूपके साथ प्रत्येक अवस्थामें विद्यमान होते हैं । कर्मोंसे लिप्त संसारी जीवोंमें ये गुण आवृत अवस्थामें होते हैं, परन्त मुक्तावस्थामें ये गुण पूर्ण रूपसे प्रगट हो जाते हैं। (ख) पुद्गल द्रव्यके असाधारण गुण जैन दर्शनके अनुसार पुद्गल द्रव्य में षद विशेष गुण पाये जाते हैं। आलाप पद्धतिमें इन गुणोंका नाम निर्देश किया गया है - “पुद्गलस्य स्पर्शरसगन्धवर्णामूर्तत्वमचेतनत्वमिति षट्" पुद्गलका सबसे प्रथम गुण स्पर्श है । स्पर्श गुणके द्वारा हल्का, भारी, शीत, उष्ण, नरम, कठोर, रूक्ष और स्निग्ध इन आठ प्रकारका ज्ञान होता है।' रस गुण के कारण खट्टा, मीठा, कड़वा, कषायला और चरपरा इन पाँच स्वादोंका ज्ञान होता है । गन्ध गुणके द्वारा सुगन्ध और दुर्गन्ध का ज्ञान होता है।" वर्णगुण के द्वारा कृष्ण, नील, पीत, शुक्ल और रक्त इन पाँच प्रकारके रंगोंका ज्ञान होता है। इन्द्रियग्राह्यताका होना मूर्तत्व है। चेतनत्व गुणका अभाव ही अचेतनत्व है। इस प्रकार स्पर्शादिके उत्तर भेद बीस और मूर्तत्व तथा अचेतनत्व मिलकर पुद्गल द्रव्यके कुल बाईस असाधारण गुण हो जाते हैं। (ग) शेष चार द्रव्यों के असाधारण गुण जीव और पुद्गलके अतिरिक्त शेष चार द्रव्योंमें चार विशेष गुण पाये जाते १. “द्रव्यस्यस्वशक्ति विशेषोवीर्यम् ।” पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, १९५५, पृ० ३२३ २. राजवार्तिक, पृ० २६ ३. वृहद्नयचक्र, गाथा, ६४ ४. आलाप पद्धति, पृ०३३ ५. सर्वार्थसिद्धि, पृ० २९३ ६. सर्वार्थसिद्धि, गृ० २९४ ७. . वही , पृ० २९४ ८. सर्वार्थसिद्धि, पृ०२९४ ९. पंचास्तिकाय, गाथा, ९९ १०. सालाप पद्धति, पृ० ३४ 2010_03 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु स्वभाव २५ हैं। धर्म द्रव्यका गुण गति हेतुत्व है। अपनी ही उपादान शक्तिसे जीव तथा पुद्गलको उसी प्रकार गति करने में सहायक होता है जैसे जल मछलीके गमन में सहायक होता है।' अधर्म द्रव्यका गुण स्थिति हेतुत्व है। अपनी ही उपादान शक्तिसे जीव और पुद्गल यदि ठहरना चाहे तो अधर्म द्रव्य उसी प्रकार सहायता देता है जैसे वृक्षकी छाया पथिकको ठहराने में सहायता देती है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल इन पाँचों द्रव्यों को अवकाश अर्थात् स्थान प्रदान करने वाला आकाशद्रव्य है। आकाशके इस गुणको अवगाहनत्व गुण कहते हैं। काल द्रव्यका गुण वर्तनाहेतुत्व है । जीव-पुद्गल धर्म, अधर्म और आकाश इन पाँचों द्रव्योंमें समय-समय पर जो परिवर्तन होता रहता है, उस परिवर्तन में काल द्रव्य निमित्त कारण होता है, जिस प्रकार शीतकालमें छात्रों के अध्ययनमें अग्नि सहकारी या निमित्त कारण है, उसी प्रकार पदार्थों की परिणतिमें काल द्रव्यका वर्तना गुण सहकारी है। इन चारों द्रव्योंमें प्रत्येकमें अमूर्तत्व और अचेतनत्व गुण भी पाये जाते हैं। अमूर्तत्वका जीवके गुणोंमें और अचेतनत्वका पुद्गलके गुणों में निर्देशन हो चुका है। उपरोक्त चारों द्रव्यों में अमूर्तत्व और अचेतनत्व की यदि पृथक्-पृथक् गणना करें तो आठ गुण और मिल कर चौबीस गुण कहे जा सकते हैं।' ७. जैन मान्य गुणों की न्यायवैशेषिक के गुणों से तुलना जैन दर्शन के उपरोक्त साधारण तथा असाधारण गुणों के विवेचन से स्पष्ट है कि जैन मान्य गुणोंका स्वरूप न्यायवैशेषिकके गुणोंसे भिन्न है। यद्यपि जैन दर्शनमें न्याय वैशेषिककी तरह गुणोंको द्रव्यके आश्रित और निगुर्ण कहा है। परन्तु न्यायवैशेषिकों की तरह पृथक् पदार्थके रूपमें गणना नहीं की है। १. द्रव्यसंग्रह, गाथा १७ २. द्रव्यसंग्रह, गाथा १८ ३. वही, गाथा १९ ४. वही, गाथा २ ५. वृहद् नयचक्र, श्लोक १३ (क.) द्रव्याश्रया निर्गुणा : गुणा:, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५, सूत्र ४१ (ख.) “द्रव्याश्रय्यगुणवान्..इति गुण लक्षणम्” वैशेषिक सूत्र, अध्याय १, आहिनक १, सूत्र १६ 2010_03 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन न्यायवैशेषिकने द्रव्यके साथ गुणोंका अयुतसिद्धसंबंध माना है, जो वृक्ष की डाली तथा फूलपत्तोंके समान होता है । जैसे डाली और फूल पत्ते वृक्षके आश्रित रहते हुए भी उससे पृथक् हैं, उसी प्रकार न्यायवैशेषिकके गुण, द्रव्य पर आश्रित रहते हुए भी उससे बिल्कुल पृथक् माने जाते हैं। जैन मान्य गुण इसके विपरीत अपने द्रव्यसे तादात्म्य संबंध रखते हैं। जिस प्रकार अग्निकी उष्णता अग्निके आश्रित रहते हुए भी अग्नि से तादात्म्य संबंध रखती है, अग्निसे कभी भी पृथक् नहीं हो सकती, उसी प्रकार जैन मान्य गुण, तादात्म्य संबंधके कारण भूत, भविष्य और वर्तमान तीन कालमें भी द्रव्यसे पृथक् नहीं हो सकते । जैसे दाहकत्व, प्रकाशकत्व, उष्णत्व से पृथक् अग्नि स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, वैसे ही जैन मान्य गुणोंसे पृथक् द्रव्य स्वतन्त्र नहीं है। ८. पर्याय.. गुणोंकी विभिन्न समयमें होने वाली अभिव्यक्ति ही पर्याय कहलाती है, अथवा गुणोंके विकारको पर्याय कहते हैं। देवसेनाचार्य ने पर्याय का व्युत्पत्यर्थ करते हुए कहा है- “याति पर्येति, परिणमति इति पर्याय द्रव्यको यद्यपि गुण और पर्यायोंका समूह कहा जाता है, परन्तु जैन मान्यता के अनुसार - गुण, द्रव्यके साथ प्रत्येक अवस्थामें तन्मय होकर रहते हैं और गुणोंकी अभिव्यक्ति करने वाला पर्याय क्रमपूर्वक ही द्रव्यके साथ रहता है, इसीलिये कहा गया है - “क्रमवर्तिन: पर्यायाः। क्रमवर्तीसे तात्पर्य है कि कालक्रमसे पर्यायोंकी अनन्त अवस्थायें बीत चुकी हैं और अनन्त भविष्यमें होंगी, परन्तु एक अवस्था वर्तमान कालमें रहती है। सुखलालसंघवीने पर्यायका विवेचन करते हुए कहा है - द्रव्यमें परिणमन उत्पन्न करने की शक्तिको गुण कहते हैं और गुण से उत्पन्न परिणमन को पर्याय कहते हैं। इसप्रकार गुण कारण है और पर्याय कार्य है। द्रव्यत्व गुण केकारण वस्तु में सदा परिणमन रूप कार्य होता रहता है। परिणमन करते हुए भी ये पर्याय, द्रव्य से पृथक् नहीं होते, अपितु सागर की तरंगों की भाँति सदा वस्तुमें से उदित होकर उसीमें लीन होते रहते हैं, जैसा कि निम्न श्लोक में दर्शाया गया है१. हिरियण्णा एम. भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० २३१ २. जिनेन्द्र वर्णी, पदार्थ विज्ञान, १९८२, पृ० १७ ३.. जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, पृ०३५ ४. आलाप पद्धति, पृ०९२ ५. आलाप पद्धति, पृ०८७ ६. तत्त्वार्थ सूत्र विवेचना, पृ०१४२ 2010_03 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु स्वभाव अनाद्यनिधने द्रव्ये स्व पर्यायाः प्रतिक्षणम् | उन्मज्जन्ति निमज्जन्ति जलकल्लोलवज्जले || ' पर्यायकी बौद्धमान्य क्षणिकवादसे तुलना जैनमान्य पर्यायका स्वरूप बौद्धमान्य क्षणिकवादसे भिन्न है । यद्यपि बौद्धोंके क्षणिकवादके अनुसार प्रत्येक वस्तु क्षण-क्षण में बदल रही है और जैन मान्य पर्याय भी गुणों के परिणमनके फलस्वरूप ही उत्पन्न हाती है, परन्तु मौलिक रूपमें दोनों का स्वरूप एक नहीं है। बौद्धोंकी परिवर्तनशीलता किसी स्थायित्व के आधार पर नहीं है । डॉ० हिरियन्ना के शब्दों में- “" निरन्तर परिवर्तन हो रहा है, परन्तु ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसका परिवर्तन हो रहा है, दूसरे शब्दों में बुद्धने केवल चेतनाकी अवस्था को स्वीकार किया है, चेतना को नहीं । ९. दयानन्द भार्गव ने भी बौद्ध तथा जैन के क्षणिकवाद और पर्यायमें अन्तर स्पष्ट करते हुए कहा है - बौद्धोंके अनुसार कुछ भी स्थायी नहीं है, प्रत्येक वस्तु परिवर्तनमें से गुजर रही है । और जैन मान्य पर्यायमें ऐसा परिवर्तन है जिसमें पूर्वावस्थाका विलय और उत्तरावस्थाका प्रागट्य हो रहा है, परन्तु द्रव्य निरन्तर दोनों अवस्थाओंमें स्थायी है ।" जैसे देवदत्त- बालक, युवा और वृद्धसभी अवस्थाओंमें देवदत्त ही है। आत्मा मनुष्यके रूपमें हो या पशु पक्षीके रूपमें उसमें चेतनत्वादि गुणकी स्थिति सदैव रहती है। इसी प्रकार पुद्गल चाहे सूक्ष्म हो या स्थूल द्वयणुक हो या त्रयणुक अनेक अवस्थाओंमें भी पुद्गलत्वको नहीं छोड़ता । " इस प्रकार जैन मान्य पर्याय क्षणिकवादसे भिन्न अर्थको ग्रहण करती है । १०. पर्याय के भेद पर्यायमें होने वाला परिणमन स्थूल और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार का होता है । स्थूल परिणमनको जैन सिद्धान्तमें व्यंजन पर्याय कहा जाता है और १. आलाप पद्धति, श्लोक २, पृ० ४२ २. हिरियन्ना, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १४३ ३. हिरियन्ना, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १४० ४. ५. २७. There is nothing permanent in this universe. जैन एथिक्स, पृ० ५१ Change means disappearance of previous state of Modification and appearance of a new one with continuity of the same substratum, जैन एथिक्स, पृ० ५२ ६. वसुनन्दि श्रावकाचार, गाथा २५ 2010_03 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन २८ सूक्ष्म परिणमनको अर्थपर्याय कहा जाता है।' ये दोनों ही पर्याय पुन: स्वभाव तथा विभाव के भेद से दो-दो प्रकारकी हो जाती है, जैसा कि निम्न सारिणीमें निर्दिष्ट किया गया है व्यंजन २. विभाव पर्याय १. स्वभाव (क) स्वभाव व्यंजन पर्याय प्रदेशत्व गुणके विकारको व्यंजन पर्याय कहते हैं। जिस व्यंजन पर्याय में किसी दूसरे के निमित्तके बिना अपने स्वभाव से ही परिवर्तन होता है, उसे स्वभाव व्यंजन पर्याय कहते हैं। जीवकी सिद्धपर्यायमें कोई अन्य निमित्त नहीं है, अपनी स्वाभाविक शक्तिसे ही वह इस पर्यायको प्राप्त करता है और चरम शरीर से किंचित् न्यून देहाकारमें स्थित होता है । (ख) विभाव व्यंजन पर्याय १. वसुनन्दि श्रावकाचार, गाथा २५ २. ३. ४. १. स्वभाव (क.) जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, पृ० ३६ (क.) जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, पृ० ३७ वृहद् नयचक्र, गाथा २६ 2010_03 अर्थ प्रदेशत्व गुणका जो विकार दूसरे पदार्थके निमित्तसे होता है वह विभाव व्यंजन पर्याय कहलाता है, जैसे जीवकी नारक तिर्यंच आदि पर्याय | नारक तिर्यञ्चादि पर्याय जीवमें कर्मरूप पुद्गलों के निमित्तसे उत्पन्न होते हैं और स्थूल हैं, इसीलिये इन्हें विभाव व्यंजन पर्याय कहा जाता है। दो अणुकादि स्कन्ध में परिणमित पुदगल विभाव व्यंजन पर्याय होते हैं । (ग) स्वभाव अर्थ पर्याय प्रदेशत्व गुणके अतिरिक्त अन्य समस्त गुणका जो विकार बिना किसी दूसरे के निमित्तसे हो उसे स्वभाव अर्थ पयार्य कहते हैं जैसे जीवके ज्ञानादिगुण सिद्धावस्था में भी जीवके अनन्तज्ञानादि गुणों में सूक्ष्मवर्तन होता रहता है, इसीलिये यह जीवकी स्वभाव अर्थ पर्याय है । अणुरूप पुद्गल द्रव्यमें स्थित रूप, रस, गन्ध, वर्ण पुद्गल की स्वभाव अर्थ पर्याय हैं । " २. विभाव २५ (ख.) वृहद नयचक्र, गाथा २१, (ख.) वृहद नयचक्र, गाथा २३,३३ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु स्वभाव (घ) विभाव अर्थ पर्याय प्रदेशत्व गुणके अतिरिक्त अन्य समस्त गुणोंका जो विकार, पर निमित्त से उत्पन्न होता है उसे विभाव अर्थ पर्याय कहते हैं।' जीवके राग द्वेषादि परिणाम कर्मपुद्गलों से उत्पन्न होने वाला सूक्ष्म परिवर्तन है, इसीलिये उसे विभाव अर्थ पर्याय कहा जाता है । इस प्रकार दोनों प्रकारकी द्रव्य अथवा व्यंजन पर्याय आकृतिका बोध कराती हैं और गुण अथवा अर्थ पर्याय गुणोंका बोध कराती हैं। व्यंजन पर्याय सामान्य होती हैं और अर्थ पर्याय विशेष होती हैं । ११. वस्तुकी अनेकात्मकता जैन दर्शनमें वस्तुको सामान्य विशेषात्मक कहा गया है।' वस्तुस्वभाव के अस्तित्वादि गुणों तथा उत्पन्न ध्वंसी पर्यायोंके विवेचनसे सामान्य विशेषात्मक गुणोंकी सिद्धि हो जाती है । जैन मान्य वस्तुके सामान्य और विशेष गुण न्यायवैशेषिक की तरह पृथक्-पृथक् अस्तित्व नहीं रखते, अपितु वे परस्पर इस प्रकार मिले हुये हैं कि सामान्य विहीन विशेष और विशेष विहीन सामान्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती । आलाप पद्धतिमें कहा है निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषस्तद्वदेव हि || २९ सामान्य और विशेषका परस्पर अविनाभावी संबंध है । ये दोनों एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते, क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तुकी एकान्त पक्षसे सिद्धिनहीं हो सकती । सामान्य और विशेष उभय पक्षको वस्तु स्वभावमें युगपत माननेके कारण ही जैन दर्शनको अनेकान्तवादी कहा जाता है । वस्तुके उभय स्वरूपको न मान कर केवल एकान्त पक्षको मानने वाले दर्शन एकान्तवादी कहे जाते हैं । जैन मान्य वस्तु, स्वभावसे विपरीत होनेके कारण, जैन दर्शनकारोंने एकान्तवादके कथनको शून्य, असत्, मिथ्या और वस्तुका घात करने वाला कहा है, , क्योंकि वस्तुमें एक ही समयमें द्रव्य दृष्टिसे नित्यत्व और पर्याय दृष्टिसे १. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति, गाथा १६, पृ० ३६ २. द्रव्यानुयोग प्रवेशिका, पृ० २३ ३. सामान्यविशेषात्मकं वस्तु, आलाप पद्धति, पृ० ८८ ४. ५. आलाप पद्धति, श्लोक ९, पृ० १०० अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते, सती शून्यो विपर्ययः । ततः सर्वम् मृषोक्तं स्यात्तदयुक्तं स्वघाततः । समन्तभद्राचार्य, स्वयम्भूस्तोत्र, श्लोक, ९८ 2010_03 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन अनित्यत्व देखा जा सकता है । व्यक्तिके व्यक्तित्वकी नित्यतामें बालक और वृद्ध, सभ्य और गंवार परस्पर विरोधी धर्म दृष्टिगोचर होते हैं। ये विरोधी धर्म अखण्ड द्रव्यकी दृष्टिसे हैं, क्रमवर्ती पर्यायकी दृष्टिसे तो जिस समय बालक है उस समय बूढा नहीं और जिस समय सभ्य है उस समय गंवार नहीं है। विरोधी धर्मों के सत्-असत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक, वक्तव्यअवक्तव्य अनेक रूप हो सकते हैं। वस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा सत् होते हुए भी पर द्रव्य, परक्षेत्र पर काल और भाव की अपेक्षा असत् है। इस प्रकार अस्ति-नास्ति और विधि-निषेध रूपधर्म वस्तु में साक्षात् देखे जा सकते हैं।' - वस्तुमें अनेक विरोधी धर्म कैसे सम्भव हैं ? इसके उत्तर में उदाहरण दिया जा सकता है कि जैसे एक मनुष्य अपने पुत्रका पिता है, उसी समय वह पिता का पुत्र भी है, मामाका भानजा भी है और भानजे का मामा भी है, इसी प्रकार नित्य अनित्य आदि विरोधी धर्म एक ही समयमें भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से सम्भव हैं । डॉ० हिरियन्नाके शब्दोंमें वस्तुको अनेक दृष्टिकोणोंसे देखा जा सकता है। प्रत्येक दृष्टिकोणसे एक भिन्न निष्कर्ष प्राप्त होता है। वस्तुका स्वरूप किसी एक दृष्टिकोणके द्वारा व्यक्त नहीं होता क्योंकि उसमें वैविध्य मूर्तिमान होता है। वस्तुके इस वैविध्य को ही अनेकान्त कहा गया है। १२. स्वचतुष्ट्य चतुष्टयका अर्थ है चौकड़ी। जैन दर्शनकारोंने वस्तु के अनेकान्त स्वरूप को विभिन्न दृष्टिकोणोंसे प्रतिपादन करने के लिये अनेक प्रकारकी चौकड़ियों का वर्णन किया है। जैसे द्रव्यके स्वभाव का प्रतिपादन करने वाले स्वचतुष्ट्य, द्रव्यके पर भावका प्रतिपादन करने वाले पर चतुष्ट्य, विरोधी धर्मों का प्रतिपादन करने वाले युग्मचतुष्ट्य, जीवकी अनन्त ज्ञानादि शक्तियोंका प्रतिपादन करने वाले अनन्त चतुष्ट्य आदि। प्रस्तुत प्रकरणमें वस्तु स्वभावकी व्याख्यामें स्वचतुष्ट्य ही इष्ट है। स्वचतुष्ट्यका अर्थ है कि स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावके द्वारा जो वस्तु १. स्यादस्ति च नास्तीति च नित्यमनित्यं त्वनेकमेकं च। तदतच्चेति चतुष्ट्ययुम्मैरिव गुम्फित वस्तु॥पंचाध्यायी, पूर्वार्ध, श्लोक २६२ २. हिरियन्ना, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १६४ ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृ० २७७ 2010_03 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु स्वभाव ३१ अस्तित्व रखती है, वही वस्तु परद्रव्य, परक्षेत्र, पर काल और परभाव के द्वारा अस्तित्व नहीं रखती। जैसे घड़ा पार्थिव रूप द्रव्यसे, घट प्रमाण क्षेत्र से, वर्तमान पर्याय रूप काल से और रक्तवर्णादि भाव से, अस्ति है, वही घड़ा अन्य जलादि द्रव्य से, अपने स्थान से अतिरिक्त क्षेत्र से, अतीत तथा अनागत काल से और श्वेतादि भावों से, नास्ति रूप है। आलाप पद्धतिमें इस भावको सूत्र रूप में निर्दिष्ट करते हुए कहा है - "स्वद्रव्यादिग्राहकेणास्तिभाव" "परद्रव्यादिग्राहकेण-नास्ति स्वभाव:"२ इसी प्रकार उत्पाद-व्ययको गौण करने वाली सत्ता नित्य है. और उत्पाद-व्यय को मुख्य रखने वाली सत्ता अनित्य है।' १३. अन्तिम इकाई स्वचतुष्ट्यके द्वारा वस्तुके चार विशेषों का परिचय प्राप्त होता है - द्रव्यात्मक, क्षेत्रात्मक, कालात्मक और भावात्मक । गुण तथा पर्याय जिसके आश्रय को प्राप्त होकर अपनी सत्ता को धारण करते हैं, वह सामान्य रूपसे द्रव्य कहलाता है | शुद्धगुण पर्यायोंके आधारभूत शुद्धात्म द्रव्यको जीवका स्व द्रव्य कहते हैं उसके अविभागी अंशको विशेष द्रव्य कहते हैं । पुद्गलका अविभागी अंश होनेके कारण परमाणु विशेष द्रव्य है । विभिन्न दृष्ट पदार्थोकी अवसान अवस्था अथवा अन्तिम इकाईकोही परमाणु कहाजाता है। यह परमाणु ही पुद्गल द्रव्यकी द्रव्यात्मक इकाई है, जिसे पुद्गलका स्वद्रव्य कहा जाता है। वस्तुकी आधारभूमि या निवास, क्षेत्र शब्दका वाच्य है , जैसे परमाणु पुद्गल द्रव्यकी द्रव्यात्मक इकाई है, उसी प्रकार एक परमाणु जितने स्थान को घेरता है उतना स्थान ही द्रव्य की क्षेत्रात्मक इकाई है, जिसे स्वक्षेत्र कहा जाता है। काल, द्रव्यके उस परिवर्तनशील हेतुका नाम है जिसके कारण वस्तु नित्य पर्यायोंके रूप में गमन करती है। परिणमन में हेतु होने के कारण ही काल को वर्तना कहा जाता है - १. पंचाध्यायी पूर्वार्ध, श्लोक, २६३ २. आलाप पद्धति, पृ० १०६ ३. आलाप पद्धति, पृ० १०७ शुद्धगुणपर्यायाधारभूत शुद्धात्म द्रव्यं द्रव्य भण्यते कुन्दकुन्दाचार्य, प्रवचनसार, गाथा ११५ की टीका ५. खंधाणं अवसाणोणादव्बो कज्जपरमाणु, नियमसार,गाथा २५ ६. पंचाध्यायी, पूर्वार्ध, श्लोक १४८ 2010_03 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ " कालो वर्तनमिति वा परिणमनं वस्तुन: स्वभावेन" । " काल की अन्तिम इकाईको जैन दर्शनकारोंने "समय" कहा है। एक परमाणु जितने समय में निकटवर्ती दूसरे प्रदेश का अतिक्रमण करता है, उतने समय को ही यहाँ समय कहा जाता है।' यही समय द्रव्यका स्वकाल कहा जाता है। घडी, घण्टा, दिन आदि सभी कालवाची अवस्थायें समय का ही स्थूल रूप हैं । बाल, वृद्ध, प्राचीन, नवीन, जन्म, मृत्यु आदि जितनी भी वस्तुकी पर्याय हैं, वे सब कालगत पर्यायों को व्यक्त करती हैं । जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन भाव शब्द वस्तुके गुण स्वभाव अथवा परिणामका वाचक है । पूर्वापर कोटि से व्यतिरिक्त, वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित द्रव्यका परिणाम ही वस्तुका स्वभाव कहा ता है, जो वस्तुका नित्य शुद्ध अंश होता है । इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप स्वचतुष्ट्यमें पुद्गल द्रव्य की अन्तिम इकाई परमाणु है, क्षेत्रकी अन्तिम इकाई प्रदेश है, कालकी अन्तिम इकाई "समय" है और भावकी अन्तिम इकाई अविभागी प्रतिच्छेद है। ये इकाईयाँ सभी द्रव्योंमें पृथक्-पृथक् होती हैं और इतनी सूक्ष्म होती हैं कि लोक में दृष्टिगोचर ग्राम, मिलीमीटर, सैकिण्ड और डिग्री या कैलोरी भी इन इकाईयों के स्थूल रूप ही होते हैं । १४. निष्कर्ष वस्तु स्वभावके द्रव्य, गुण, पर्याय, स्वचतुष्ट्य आदि विभिन्न विषयों के विश्लेषणात्मक परिचयसे यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि जैन मान्य वस्तु षड् द्रव्योंका समुदाय रूप है और प्रत्येक द्रव्य अपने विभिन्न गुणों और परिवर्तनों में से निकलते हुए भी अपनी स्थिरताको नहीं छोड़ते । प्रत्येक द्रव्यकी सत्ता त्रिकाल स्थायी है । गुण द्रव्यके आश्रित रहते हैं, परन्तु गुणोंको द्रव्योंसे पृथक् नहीं किया जा सकता, किसी वस्तुकी सत्ता उसके गुणोंके द्वारा ही प्रगट होती है और गुण वस्तुमें अग्निकी उष्णताके समान ओत-प्रोत होते हैं। इस प्रकार जैनोंके द्रव्य और गुणोंकी एकतासे न्यायवैशेषिकके द्रव्य और गुणोंकी विभिन्नताका खण्डन हो जाता है । १. पंचाध्यायी, पूर्वार्द्ध, श्लोक २७४ २. नेमिचन्द्राचार्य, गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ५७३ ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृ० ५०६ 2010_03 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ वस्तु स्वभाव जैन मान्य वस्तु स्वभावके द्वारा निर्गुण ब्रह्म और क्षणिकवादका भी खण्डन हो जाता है क्योंकि जैन दर्शनमें द्रव्य और गुणोंका ऐसा संबंध माना है, जो समकालीन समानता, एकता, असम्भव पार्थक्य और अनिवार्य सरलताका सूचक है।' . स्वचतुष्ट्य तथा अन्तिम इकाईके द्वारा पर्यार्यों की सूक्ष्मताका परिचय प्राप्त होता है, जैन मान्य पर्याय यद्यपि क्षणिकत्वकी सूचक है परन्तु यह क्षण स्थायी सत्ताको द्योतन नहीं करता । यह नित्य वस्तुकी केवल एक अवस्थाको ही प्रगट करता है, जिसमें वस्तुका नित्यत्व ओत-प्रोत है। इस प्रकार जैन दर्शन में वस्तुके एकान्त पक्षको न मानकर अनेकान्त पक्षकी स्थापना की गई है। __ जैन दर्शनानुसार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त वस्तुको सत् माननेसे नित्यत्वके अविनाशी, अनुत्पन्न और स्थिर रूप लक्षणका निराकरण हो गया है क्योंकि उत्पाद और विनाश के रहते हुए भी जो अपने नित्यत्वको नहीं छोड़ता वही जैन दर्शनकी दृष्टिमें नित्य और सत् है। द्रव्यके बिना पर्याय और पर्याय के बिना द्रव्यका अस्तित्व कभी भी सम्भव नहीं होता द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्याया द्रव्य वर्जिताः । क्व कदा केन किं रूपा दृष्टा मानेन केन वा ॥२ इस प्रकार द्रव्य पर्याय युक्त वस्तुको ही यर्थाथ सत्तामाना गया है । समस्त सत्ताको षड् द्रव्योंमें और षड् द्रव्योंको दो प्रकारके वर्गों में विभाजित किया गया है -जीव और अजीव । अजीव के पांच भेद हैं -पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। समस्त समस्यायें जीव तथा अजीवके एक मानने के कारण ही उत्पन्न होती हैं और दोनोंके पार्थक्य से सब समस्याओं का समाधान हो जाता है।' ___ कर्म सिद्धान्त में कर्म विषयक समस्या भी जीव तथा अजीवके संयोगसे ही उत्पन्न होती है और जीव और अजीवके पृथक् हो जानेसे कर्म समस्याका भी समाधान हो जाता है। १. डॉ० राधाकृष्णन, भारतीय दर्शन, १९७३ , भाग १, पृ०२८८ २. स्याद्वाद् मंजरी, १९७९, पृ०१९ ३. जीवमजीवं दव्वं, द्रव्यसंग्रह, गाथा १ All problems arise from this union and are solved with their disunion जैन एथिक्स, पृ०५२ 2010_03 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय जीव और जीव की कर्मजनित अवस्थायें जीवोत्ति हवदि चेदा उवओग विसेसिदोपहू कत्ता। भोत्ताय देहमेत्तोण हि मुत्तो कम्म संजुत्तो॥ पंचास्तिकाय · गाथा २७ १. सामान्य परिचय जैन दर्शन में वस्तु को षड्द्रव्य रूप कहा गया है - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इनमें से जीव चेतन है और अन्य सब अचेतन हैं। बाह्य जगत् में जीवकी जितनी अवस्थायें दृष्टिगोचर होती हैं, वे सभी जीव द्रव्य और अजीव द्रव्यके संबंधसे ही उत्पन्न होती हैं, इसीलिये कर्म सिद्धान्तसे संबंधित जीव और अजीव द्रव्योंके स्वरूपका परिचय और अन्य दर्शनोंसे तुलनात्मक विवेचन आवश्यक है | इस अध्यायमें जीव और उसकी अवस्थाओं का विवेचन ही इष्ट है, क्योंकि जीवका कर्मके साथ घनिष्ट संबंध होता है। व्युत्पत्तिके आधारपर जीवका अर्थ है – “जीवति, अजीवीत्, जीविष्यति इति वा जीव: २ अर्थात् जो तीनों कालोंमें अपनी पर्यायानुसार जीता है, जीता था और जीयेगा, इस त्रैकालिक जीवन गुण. वालेको जीव कहते हैं । कुन्दकुन्दाचार्य ने भी जीवका यही लक्षण किया है। __ संसारावस्था और मोक्षावस्था दोनों ही अवस्थाओंमें जीव एक प्रधान तत्त्व है। जैन दर्शनानुसार • कर्मसे लिप्त जो जीव संसारमें अनेक अवस्थाओं को धारण करता रहता है, वही जीव साधनाविशेषके द्वारा कर्मों का क्षय कर देने पर परमात्मा बन जाता है, उसीको जैन दर्शनमें ईश्वर या भगवानके रूप में माना गया है, उससे पृथक् किसी एक ईश्वरको जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता। जीव अपने समस्त अनुभवोंका स्वयं केन्द्र है, इसलिए यह स्वयं सत्य है। जीवकी सत्यता १. तत्त्वार्यसूत्र, अध्याय ५, सूत्र २,३,३९ २. राजवार्तिक, पृ० २५ ३. पंचास्तिकाय, गाथा ३० ४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग II, पृ० ३३० 2010_03 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव और जीव की कर्मजनित अवस्थायें को सिद्ध करने के लिए अन्य कोई यथार्थ सत्ता या सत्य नहीं है । ' अन्य भारतीय दर्शनों में जिस चेतन सत्ता को ब्रह्म, आत्मा या पुरुष कहा गया है, उसी चेतन सत्ताको जैन दर्शनमें जीव कहा जाता है। जीव और आत्मा एक ही सत्ता के दो भिन्न-भिन्न नाम हैं । यद्यपि चेतन सत्ताकी दृष्टि से जैन मान्य जीव की चार्वाकको छोड़ कर शेषसभी दर्शनों से समानता है, परन्तु जैनों ने जीव की जो अन्य विशेषताएं मानी हैं, वे विशेषतायें अन्य दर्शनोंसे किसी न किसी रूप में विभिन्नता रखती हैं । २. जीव की आठ विशेषतायें जैन दर्शन के अनुसार जीव की आठ विशेषतायें हैं, उन्हें नेमिचन्द्राचार्यने निम्न गाथा में निर्दिष्ट किया है - जीव उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो । भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोढगई ॥ * जीव चैतन्यमय, उपयोगमय, अमूर्त, कर्त्ता और भोक्ता, देह परिमाण, संसारी, सिद्ध और स्वभावसे ही ऊर्ध्व गमन करने वाला है । जीवकी इन आठ विशेषताओं का निर्देशन कुन्दकुन्दाचार्य ने भी किया है। आगे इन विशेषताओं पर पृथक्-पृथक् विचार करना इष्ट है । १. जीव का चेतनत्व गुण चेतन जीव का वह गुण है, जो सभी अवस्थाओंमें जीवके साथ रहता है । राजवार्तिक में कहा गया है कि “जीवस्वभावश्चेतना"" अर्थात् चेतना जीव का स्वभाव है । यह सामान्य रूप से सदा एक प्रकारकी ही होती है, परन्तु विशेष रूप से अर्थात् पर्याय दृष्टिसे दो प्रकारकी होती है - शुद्धचेतना और अशुद्धचेतना । ज्ञानी और वीतरागी जीवोंका केवल जानने रूप जो भाव होता है, वह १. For it there is neither any reality nor any truth. भार्गव दयानन्द, जैन एथिक्स, पृ० ३९ २. सिन्हा हरेन्द्र प्रसाद, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १३८ ३. द्रव्यसंग्रह, गाथा २ ४. पंचास्तिकाय, गाथा २७ ५. राजवार्तिक, पृ० २६ ६. पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, श्लोक १९२ 2010_03 ३५ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन शुद्धचेतना है। इसे ही ज्ञान चेतना भी कहते हैं, क्योंकि शुद्धचेतनाका भाव ज्ञाता दृष्टा भावसे जानना मात्र होता है । इष्टानिष्ट बुद्धिका सद्भाव ज्ञान चेतना में नहीं होता, क्योंकि ज्ञान चेतना वाला जीव अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंत सुख और अनंत वीर्य से सम्पन्न कर्म और कर्मफलके भोगसे रहित, स्वाभाविक सुख में तन्मय होता है। अशुद्धचेतना दो प्रकार की होती है - कर्मचेतना और कर्मफल चेतना। अशुद्धचेतना आत्मा और कर्म के संयोगसे युक्त होती है । इष्टानिष्ट बुद्धिपूर्वक अपने कर्मका अनुभव करने वाली चेतना, कर्मचेतना कहलाती है और इन्द्रिय जनित सुख-दुखका अनुभव करने वाली चेतना कर्मफल चेतना कहलाती है । अमृतचन्द्राचार्यने पंचास्तिकायकी टीकामें कहा है - "कार्यानुभूति लक्षणा कर्मफलानुभूति लक्षणा चाशुद्धचेतना"३ . इस प्रकार जैनदर्शनमें जीवको चेतना लक्षण वाला कहा गया है जो सर्व अवस्थाओंमें जीवके साथ रहता है। चेतनाके योग से ही इन्द्रियाँ जड़ होते हुए भी क्रियावती प्रतीत होती हैं और शरीरका अस्थिपंजर, चेष्टाहीन होते हुए भी सचेष्ट दिखाई देता है। चैतन्य के अभावमें जीवकी कल्पना करना भी असम्भव जैन दर्शन का चेतना संबंधी यह विचार न्यायवैशेषिकके चेतना संबंधी विचारसे भिन्नता रखता है, क्योंकि न्यायवैशेषिकमें चैतन्यको आत्मा का एक आगन्तुक गुण माना गया है। न्यायवैशेषिकके अनुसार आत्मा स्वभावत: अचेतन है। परन्तु शरीर, इन्द्रिय, मन आदिसे संयुक्त होनेपर आत्मा में चैतन्यका संचार होता है। जैन दर्शनका चेतना संबंधी यह विचार चार्वाक मतसे भी भिन्न है, क्योंकि चार्वाक ने चेतनाको पौद्गलिक माना है । चार्वाकके मतानुसार चैतन्य विशिष्ट देह ही आत्मा है, देहके नष्ट हो जाने पर आत्मा भी नष्ट हो जाता है जैन दर्शनके अनुसार, जीवनी शक्ति शरीरसे बिल्कुल पृथक् है, अत: यह विचार भ्रमात्मक है १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग II, पृ० २९६ २. पंचास्तिकाय, तत्त्वप्रदीपिका, गाथा ३८ ३. पंचास्तिकाय, तत्त्वप्रदीपिका, गाथा १६ ४. “चेतना लक्षणो जीव:" सर्वार्थसिद्धि, पृ० १४ ५. Atma is essentially non-conscious, जैन एथिक्स पृ० ४० ६. सिन्हा हरेन्द्र, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १४ 2010_03 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव और जीव की कर्मजनित अवस्थायें ३७ कि जीवन शरीरकी ही उत्पत्ति या सम्पत्ति है, क्योंकि मृत्यु के समय शरीर के विद्यमान रहनेपर भी उसमें चैतन्य का अभाव देखा जाता है। जैन दर्शनका चेतना संबंधी यह विचार सांख्य दर्शन और वेदान्त दर्शन से समानता रखता है, क्योंकि इन दोनों दर्शनों में चेतनाको आत्माका मूल स्वरूप माना गया है । __ इस प्रकार चेतना गुण को, यद्यपि सभी दर्शनोंने स्वीकार किया है, परन्तु जैन दर्शनका विचार न्यायवैशेषिक और चार्वाकसे विभिन्नता रखता है और सांख्य और वेदान्तसे समानता रखता है। २. जीवका उपयोग जीवके उपयोगका लक्षण करते हुए पंचास्तिकायकी तात्पर्यवृत्तिमें कहा गया है -- "आत्मनश्चैतन्यानुविधायी परिणाम: उपयोग:"३ आत्माके चैतन्यानुविधायी परिणामको उपयोग कहते हैं, अर्थात् जो परिणाम आत्माके चैतन्य गुणके साथ अन्वित रूपमें रहता है, वह परिणाम उपयोग कहलाता है । जीवकी चेतना शक्ति तो एक है, परन्तु वह स्व और पर पदार्थों को ग्रहण करने में प्रवृत्त रहती है, इसीलिये वीरसेन स्वामीने कहा है - "स्वपरग्रहणपरिणाम: उपयोग: चैतन्य के साथ अन्वित रूपसे परिणमन करने वाला, स्व और पर पदार्थों को ग्रहण करने वाला जीवका उपयोग जीवके साथ सर्वकालमें अनन्य रूपसे ही रहता है -- “जीवस्स सव्वकालं अणण्णभूदं वियाणीहि"५ यद्यपि जीव गुणी है और उपयोग जीवका एक विशेष गुण है, परन्तु जैन दर्शनमें गुण गुणीका तादात्म्य संबंध माना गया है और तादात्म्य संबंधके कारण ही जीवको उपयोग लक्षण वाला कहा गया है।६ चेतनाके साथ अनन्य रूप से रहने वाले जीवका उपयोग दो प्रकारका होता १. दास गुप्त, भारतीय दर्शन का इतिहास, भाग १, पृ० १९८ २. के०सी० सोगानी, एथिकल डॉक्ट्राइन इन जैनिज़म, १९६७, पृ० ३१ । जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर। ३. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति, गाथा ४० ४. षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक २, खण्ड १, पृ० ४१३ ५. पंचास्तिकाय, गाथा ४० ६. उपयोगो लक्षणम्, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय २, सूत्र ८ 2010_03 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन है - ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार ।' जब तक चेतनाकी शक्ति किसी विशेष पदार्थ के प्रति विशेष रूपसे उपयुक्त नहीं होती, तब तक वह दर्पण तलकी भाँति सामान्य रूपसे ज्ञानाकार मात्र होती है, उसमें पदार्थों की विशेषताओंका ग्रहण नहीं होता, केवल स्वरूप मात्रका ही ग्रहण होता है, चेतनाके इस सामान्य उपयोगको ही दर्शनोपयोग कहा गया है । २ चेतनाकी शक्ति जिस समय ज्ञानाकार मात्र न रहकर ज्ञेयाकार रूप हो जाती है, उस समय उसमें शुक्लत्व, कृष्णत्व आदि विशेष रूपोंका ग्रहण होने लगता है, जो स्वरूप मात्र न होकर ज्ञेयाकार रूप होता है, वह उपयोग ज्ञानोपयोग कहलाता है । इस प्रकार " निर्विकल्पकं दर्शनम् सविकल्पकम् ज्ञानम् ” कहा गया है । इस प्रकार दर्शन और ज्ञानके इन दो भेदों को क्रमशः "परिचय ज्ञान" और " विशिष्ट ज्ञान" भी कहा जा सकता है, क्योंकि पहले में विषय और विषयीका सम्पर्क मात्र होता है और दूसरेमें उस वस्तुके वर्ग और स्वरूपके बारेमें व्यापक जानकारी प्राप्त होती है । गोपालन एस. के अनुसार दर्शन तथा ज्ञान शब्दों का प्रयोग अनिर्णीत तथा निर्णीत स्तरोंके लिए किया गया है । " कर्ममलसे लिप्त, संसारी जीवों का ज्ञान और दर्शन पूर्णरूपेण स्पष्ट और निर्मल नहीं होता, परन्तु कर्मसे मुक्त शुद्धजीवोंका ज्ञान और दर्शन परिपूर्ण, स्पष्ट और निर्मल होता है, जिसे केवलज्ञान और केवलदर्शन कहा जाता है। जैन दर्शनमें आत्माको दर्शन और ज्ञानस्वभावी माना गया है। जैन दर्शन का यह विचार न्यायवैशेषिककी मान्यताका निराकरण करता है, क्योंकि न्यायवैशेषिकोंने ज्ञानको आत्माका आगन्तुक गुण माना है, यहाँ तक कि स्वप्न रहित नींद में भी आत्माके ज्ञान गुणका अभाव कहा है, जब कि जैन दर्शनमें जीवकी सभी अवस्थाओंमें, ज्ञान तथा दर्शन गुणों को चैतन्यके साथ अन्वित स्वीकार राजवार्तिक, पृ० ३४ जं सामण्णं गहणं भावाणं णैव कट्टुमायारं । अविसेसदूण अठ्ठे दंसणमिदि भण्ण्ए समये ।। द्रव्यसंग्रह, गाथा ४३ ३. ब्रह्मदेव टीका, द्रव्य संग्रह, गाथा ४३-४४ ४. ब्रह्मदेव टीका, द्रव्यसंग्रह गाथा ४ ५. गोपालन, एस., , जैन दर्शन की रूपरेखा, १९७३, पृ० ४९वाइलो ईस्टर्न लि० नई दिल्ली ६. द्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा २ ७. हिरियन्ना एम.. भारतीय दर्शन की रूपरेखा, १० २३० १. २. 2010_03 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ जीव और जीव की कर्मजनित अवस्थायें किया गया है। जिस प्रकार दीपक अपने प्रकाशसे स्वयं भी आलोकित होता है और बाह्य पदार्थोंको भी आलोकित करता है, उसी प्रकार जीव अपने ज्ञानसे स्वंयको भी जानता है और परको भी जानता है। डॉ० हिरियन्नाके शब्दोंमें, "ज्ञानके बिना जीव और जीवके बिना ज्ञानकी कल्पना ही नहीं की जा सकती, जैन दर्शनका यह विचार बौद्ध दर्शनसे स्पष्टत: अन्तर प्रगट करता है, क्योंकि बौद्ध दर्शनमें समस्त वस्तुओंको क्षणिक माना है, जीव भी अस्थायी है, इसमें रहने वाली शक्तियाँ भी अस्थायी हैं। ३. जीव अमूर्त है - जैन दर्शनमें केवल आकृतिको मूर्त नहीं कहा है, अपितु जो पदार्थ इन्द्रियग्राह्य हैं उन्हें मूर्त कहा है, जीव, क्योंकि इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं है, इसीलिये जीव को अमूर्त कहा जाता है । कुन्दकुन्दाचार्यने आत्माकी अमूर्तत्व शक्तिका प्रतिपादन करते हुए कहा है - _ “कर्मबन्धव्यपगमव्यंजितसहजस्पर्शादिशून्यआत्मप्रदेशात्मिका अमूर्तत्वशक्ति :५ अर्थात् आत्मामें आत्मप्रदेशोंसे अभिन्न अमूर्तत्व शक्ति होती है, जो स्पर्श रसादि पौद्गलिक गुणोंसे भिन्न और कर्मबन्धके अभावसे व्यक्त होती है। कुन्दकुन्दाचार्य के इस प्रतिपादनसे विदित होता है कि अमूर्तत्व शक्ति कर्मबन्धसे रहित होने पर ही प्रगट होती है, इसी कारण कर्मबद्ध जीवको स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णादि इन्द्रिय-ग्राह्य विषयोंके सद्भावके कारण मूर्त भी कह दिया जाता है, परन्तु जीवका यथार्थ स्वरूप अमूर्त ही है। ४. जीव कर्ता और भोक्ता है - जैन दर्शनमें जीवको कर्ता और भोक्ता माना गया है। कर्मसे लिप्त संसारी जीव भी कर्ता और भोक्ता है और कर्म से मुक्त सिद्धजीव भी कर्ता और भोक्ता - १. उपाध्याय यशोविजय, ज्ञानबिन्दुप्रकरण, संवत् १९९८, पृ० १३ २. हिरियन्ना, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १६० ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग III, पृ० ३२७ ४. आगासकालजीवा धम्माधम्मा य मुत्तिपरिहीणा, पंचास्तिकाय, गाथा ९७ ५. समयसार, आत्मख्याति, परिशिष्ट, शक्ति नं० २०, ६. द्रव्यसंग्रह, गाथा ७ 2010_03 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन है । संसारी जीवोंको कर्ता इसलिये माना गया है, क्योंकि वह अपने कर्मों के निमित्तसे सूक्ष्म और स्थूल शरीरोंका निर्माण करता है, सूक्ष्म शरीरोंका निर्माण करनेमें, यद्यपि उपादान कारण पुद्गल है, परन्तु निमित्त कारण जीवको ही माना गया है। कर्मसे लिप्त जीव, जिस प्रकार विभिन्न कर्मों का कर्ता है, उसी प्रकार सुख:दुख रूप पुद्गल कर्मफलोंका भोक्ता भी है। कर्मसे मुक्त जीवका कर्ता और भोक्ता मानना, जैन दर्शनकी एक विशिष्टता है। कर्मसे मुक्त होनेपर भी वह क्या करता है और क्या भोगता है, इसका उत्तर 'देते हुए नेमिचन्द्राचार्य ने कहा है कि शुद्ध जीव अपने अनन्तज्ञानादि भावों का कर्ता है,३ अनन्तज्ञानादि भावों से तन्मयता के कारण परम आनन्द रूप सुखामृत का भोक्ता है। ' आत्माको कर्त्ता माननेका यह सिद्धान्त, सांख्य दर्शनके विपरीत है, क्योंकि सांख्यमें पुरुषको अकर्ता कहा गया है और भोक्ता माननेका यह सिद्धान्त, बौद्धोंके क्षणिकवादका खण्डन करता है।" ५. जीव देह परिमाण है - कर्मों के निमित्तसे जीवको छोटा या बड़ा जैसा भी शरीर प्राप्त होता है, जीव उसमें उतनी ही अवगाहनाका हो कर रहता है, इसीलिये जीवको “अणुगुरुदेहपमाणो”६ कहा गया है । पूज्यपादजीने भी जीवके देह परिमाणत्वको स्वीकार करते हुए कहा है – “शरीरमणुमहद्वाधितिष्ठंस्तावदवगाह्य जीव छोटे शरीरमें छोटा और बड़े शरीरमें बड़ा कैसे हो जाता है ? इस प्रश्नका जैन दर्शनमें बहुत स्पष्ट रीतिसे वर्णन प्राप्त होता है। उमास्वामीने इसका कारण दर्शाते हुए कहा है - “प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत्"८ जैसे दीपकका प्रकाश छोटे स्थानपर संकुचित हो जाता है और बड़े स्थानपर विस्तृत हो जाता १. “पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो”, द्रव्यसंग्रह गाथा ८. २. “ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मफलं पमुंजादि” द्रव्यसंग्रह, गाथा ९ ३. द्रव्य संग्रह, गाथा ८ ४. द्रव्य संग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा ८ ५. जैन एथिक्स, पृ० ४२ ६. द्रव्यसंग्रह, गाथा १० ७. सर्वार्थसिद्धि, पृ० २७४ ८. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय, ४, सूत्र १६ 2010_03 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव और जीव की कर्मजनित अवस्थायें है, उसी प्रकार जीव, चींटी का शरीर धारण करते समय संकुचित हो जाता है और हाथीका शरीर धारण करते समय विस्तृत हो जाता है। इस प्रकारजीव जिस समय जिस शरीरमें समाहित होता है उसके अनुसार अपने को संकुचित या विस्तृत कर लेता है। हिरियन्नाके शब्दोंमें, “जैन दर्शन में एक विचित्र बात यह है कि वह जीव के आकारको सांसारिक दशामें घटने बढने वाला मानता है, यह वस्तु स्वभावकी परिवर्तनशीलताका भी द्योतक है, जो सामान्यत: अन्य विचारकों द्वारा नहीं मानी गयी है। जैनों के अनुसार जीव समस्त शरीरमें व्याप्त होकर रहता है, क्योंकि सिरसे लेकर पाँव तक जहाँ कहीं भी कोई संवेदन या पीडा होती है, उसका अनुभव जीवको उसी समय हो जाता है। गुणों और पर्यायोंसे युक्त, अपनी आत्माका अपने अनुभवसे अपने शरीरमें ही संवेदन होता है, शरीरसे बाहर अन्यत्र आत्माका संवेदन सम्भव नहीं है। अत: स्वसंवेदन जन्य अनुभवके आधारपर भी जीवका देह परिमाणत्व सिद्ध होता है। कुन्दकुन्दाचार्य के शब्दों में “सव्वत्थ अस्थि जीवो णा य एक्को एक्ककाय एक्कट्ठो”६ देह के मध्य सर्वत्र जीव है, उसके किसी एक देश में ही जीव रहता है, ऐसा जैन दर्शन नहीं मानता। जीवका देह परिमाणत्व मुक्तावस्थामें भी रहता है, परन्तु उस समय संसारी जीवोंकी भाँति संकोच विकासशील नहीं होता । संकोच विस्तार रूप परिवर्तनशीलताजीवमें तभी तक रहती है, जब तक जीव कमोंसे बद्ध रहता है और जन्म - पुनर्जन्मके द्वारा छोटे बड़े शरीरोंको धारण करता रहता है। कर्मों से मुक्त हो जाने पर जीवमें संकोच विस्तार गुण नहीं रहता, परन्तु देह परिमाणत्व उस समय भी रहता है, क्योंकि जैनोंने मुक्त जीवको अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार वाला माना है। १. दास गुप्त, एस.एन., भारतीय दर्शन का इतिहास, पृ० १९८ २. भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १५९ ३. हिरियन्ना, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १५९ ४. पदार्थ विज्ञान, पृ०७९ ५. स्वसंवेदन साध्येव, प्रवचनसार, गाथा १३७ की टीका ६. पंचास्तिकाय, गाथा ३४ ७. “किचणा चरमदेहदो सिद्धा” द्रव्यसंग्रह . गाथा १४ 2010_03 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन जैनोंके देह परिमाणत्वका यह सिद्धान्त उपनिषदोंके “अणु मात्र या अंगुष्ठमात्र सिद्धान्तसे भिन्न है। परन्तु उपनिषदोंमें जीव को अणुमात्र मानते हुए भी उसके चेतन प्रकाशको जैनोंके समान ही सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त माना है। जैनों का यह सिद्धान्त न्यायवैशेषिक, वेदान्त, मीमांसा और सांख्य दर्शन से भी विपरीत है क्योंकि इन दर्शनोंमें आत्माको व्यापक माना है। यदि जीव व्यापक है तो जैसे जीवको अपने शरीरमें होने वाले सुख दु:खका अनुभव होता है, वैसे ही पराये शरीरमें होने वाले सुख दु:ख का भी अनुभव होना चाहिए, परन्तु यह बात प्रत्यक्ष प्रमाणसे सिद्ध है कि पराये शरीरमें होने वाले सुख-दुखका अनुभव जीवको नहीं होता, अत: जीव अपने शरीरके ही बराबर है। अत: आगम, युक्ति और अनुभवसे यह सिद्ध हो जाता है कि जीव देह परिमाण ही है । ६. जीव संसारी है - संसारी जीवका लक्षण है – “कर्मचेतनाकर्मफलचेतनात्मका : संसारिण:"" अर्थात् कर्म तथा कर्मफल चेतनासे युक्त जीव संसारी होता है , ऐसे जीवका उपयोग अशुद्ध होता है और वह नित्य जन्म और पुनर्जन्म रूप संसारमें भ्रमण करता रहता है । जीवकी यह अवस्था जीवके स्वयं कृत कर्मों के द्वारा ही होती है, जीव एक शरीरको छोड़ कर दूसरा नया शरीर धारण करता है, इस प्रकार अनादि कालसे अनेक शरीरोंमें जो संसरण अथवा परिभ्रमण करता है, उसे ही संसार कहते हैं। अनादि कालसे इस संसारमें भ्रमण करने के कारण ही कर्मों से बद्ध जीवको संसारी कहते हैं। जैनोंका जीवको संसारी माननेका यह मत, सदाशिव सम्प्रदायके विपरीत है, क्योंकि सदाशिव सम्प्रदायके मतानुसार-जीव सदा ही शिव स्वरूप है, जन्ममरण केवल इन्द्रजाल और माया है। जैनोंने यद्यपि कर्मबद्ध जीवको संसारी कहा है, परन्तु संसारी होते हुए भी, सदाशिव होनेकी शक्ति उसमें विद्यमान रहती है, १. कठोपनिषद, अध्याय 8, श्लोक १३ २. द्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा १० । ३. सव्व गओ जदि जीवो सव्वत्थ वि दुक्ख - सुख - संपत्ति। जाइज्जण सा दिट्ठी णिय तणु माणो तदो जीवो।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १७७ पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति, गाथा १०९ एक्क चयदि सरीरं अण्णं गिण्हेदिणवणवे जीवो। पुणु पुणु अण्णं अपणं गिण्हदि मुंचेदि बहु बारं ।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा, ३२ ६. द्रव्यसंग्रह. बह्मदेवटीका. गाथा २ - 2010_03 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव और जीव की कर्मजनित अवस्थायें जिसे जीव पुरुषार्थ के द्वारा प्रगट कर सकता है। संसारीजीवके भेद प्रभेद-संसारीजीव अपने कर्मों की भिन्नताके अनुसार विभिन्न प्रकार की गतियोंमें भ्रमण करता रहता है, और विभिन्न प्रकारके शरीरोंको धारण करता रहता है। गति आदि विभिन्न अपेक्षाओंसे संसारी जीवके अनेक भेद - प्रभेद किये गये हैं, जो निम्न तालिका द्वारा स्पष्ट किये जा सकते हैं: संसारीजीव गति ४ इन्द्रिय ५ प्राण ६ काय ६ स्थावरकाय त्रसकाय नारक एकेन्द्रिय चारप्राणधारी पृथ्वीकाय तिर्यञ्च द्वीन्द्रिय षद् प्राणधारी अपकाय मनुष्य त्रीन्द्रिय सप्त प्राणधारी तेजकाय देव चतुरिन्द्रिय अष्ट प्राणधारी वायुकाय पंचेन्द्रिय . नव प्राणधारी वनस्पति काय - दश प्राणधारी समनस्क अमनस्क (क) गति के आधार पर जीव का वर्गीकरण गतियों का नाम निर्देशन करते हुए पूज्यपादजी ने कहा है - "गतिश्चतुर्भेदानरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्यगतिर्देवगतिरिति । २ नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति के भेद से गतियाँ चार प्रकार की हैं, इन गतियों में उत्पन्न होने वाले जीव भी नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव इन चार प्रकार के हो जाते हैं। इनमें नरक गति के जीव अधम और देवगति के जीव उत्तमकोटि के माने जाते हैं। जैन मान्यइन जीवों की तुलना, सांख्यमान्य भौतिकसर्ग केजीवों से कीजासकती है। सांख्य में भौतिक सर्ग में तीन प्रकार के भवों का विवेचन किया गया है - देवयोनि, तिर्यग्योनि और मनुष्योनि। देवयोनि को उत्तम, तिर्यग् योनि को अधम और मनुष्य योनि को मध्यम माना गया है। सांख्य में नरकगति को नहीं माना, शेष तीनों श्रेणियां जैन मान्य तीन श्रेणियों से समानता रखती हैं। है, जिनेन्द्र वर्णी, शान्तिपथ प्रदर्शन, १९८२, पृ०४३ जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला, पानीपत। २. सर्वार्थसद्धि, पृ० १५९ ३. सांख्य कारिका, ५३ 2010_03 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४४ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन (ख) इन्द्रियों के आधार पर जीवों का वर्गीकरण__इन्द्रियों की अपेक्षा संसारी जीवों को पांच प्रकार का कहा गया है। शरीर धारी जीवों में जानने के साधन के रूप में पांच इन्द्रियाँ होती हैं, परन्तु सभी जीव पाँचों इन्द्रियों को धारण करने वाले नहीं होते। कर्मों की न्यूनाधिक प्रगाढतावश संसारी जीव केवल एक, दो, तीन या चार इन्द्रियों को भी धारण करते हैं । पाँच इन्द्रियाँ - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र होती हैं, इन इन्द्रियों को सांख्य दर्शन में बुद्धिइन्द्रियाँ या ज्ञानेन्द्रियाँ कहा जाता है। एकेन्द्रिय जीवों में केवल एक स्पर्शन शक्ति पायी जाती है । पृथ्वी, अप, तेज, वायु, और वनस्पति कायिक जीव एकेन्द्रिय ही होते हैं।' . स्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियों वाले जीवों को द्वीन्द्रिय कहते हैं । जैसे कृमि, लद् आदि। इन जीवों में शेष तीन इन्द्रियों पर आवरण होता है, इसी कारण इनमें घाण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रियों का अभाव होता है । स्पर्शन, रसना और घ्राण, इन तीन इन्द्रियों वाले जीवों को त्रीन्द्रिय कहते हैं। जैसे जू, खटमल, चींटी आदि। इनमें चक्षु और श्रोत्र इन्द्रियों पर आवरण होता है, इसी कारण इन दो इन्द्रियों का अभाव होता है। स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु इन चार इन्द्रियों वाले जीवों को चतुरिन्द्रिय कहते हैं। जैसे मक्खी , मच्छर, मधुमक्खी , भंवरे, पतंगे आदि। इनमें श्रोत्र इन्द्रिय का अभाव माना जाता है, क्योंकि आवरण कर्म का उदय होता है। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पांचों इन्द्रियों वाले जीवों को पंचेन्द्रिय कहते हैं, देव, मनुष्य, नारकी और कुछ तिर्यञ्च गति के जीव पंचेन्द्रिय होते हैं। १. पंचेन्द्रियाणि, तत्त्वार्यसूत्र, अध्याय २, सूत्र १५ २. स्पर्शनरसनाघ्राणचक्षुः श्रोत्राणि, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय २, सूत्र १९ ३. सांख्यकारिका, २६ ४. पंचास्तिकाय, गाथा ११० ५. पंचास्तिकाय, गाथा ११४ ६. पंचास्तिकाय,गाथा ११५ ७. पंचास्तिकाय, गाथा ११६ ८. पंचास्तिकाय. गाथा ११७ 2010_03 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ जीव और जीव की कर्मजनित अवस्थायें पंचेन्द्रिय जीवों में भी जिन तिर्यञ्च जीवों में मन का अभाव होता है, उन्हें अमनस्क कहते हैं और शेष मन सहित जीवों को समनस्क कहते हैं। चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव अमनस्क ही होते हैं।' (ग) प्राणों के आधार पर जीवों का वर्गीकरण- . जीव में जीवितव्य के लक्षणों को प्राण कहते हैं ।२ गोम्मटसार में प्राणों की परिभाषा करते हुए कहा है - "जीवन्ति-प्राणति, जीवित व्यवहार योग्या भवन्ति जीवा: यैस्ते प्राणा:"३ अर्थात जिनके द्वारा जीव, जीवितव्य रूप व्यवहार के योग्य होता है, उन्हें प्राण कहते हैं। प्राण दसमाने गये हैं -पांच इन्द्रिय, मन-वचन और काय ये तीन बल, आयु और श्वासोच्छवास ।' एकेन्द्रिय जीव चार प्राणों को धारण करने वाले होते हैं, उनमें स्पर्शनेन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छवास पाया जाता है। वचनबल और रसना इन्द्रिय की वृद्धि हो जाने पर द्वीन्द्रिय जीवों में छह प्राण पाये जाते हैं। पांच प्राणधारी कोई भी जीव नहीं होता, क्योंकि रसना शक्ति के साथ ही बोलने की शक्ति भी द्वीन्द्रिय जीवों में आ जाती है । घाणेन्द्रिय की वृद्धि हो जाने पर, त्रीन्द्रिय जीव सप्तप्राणधारी हो जाते हैं, नेन्द्रिय युक्त होने से चतुरिन्द्रिय जीव अष्ट प्राणधारी होते हैं, श्रोत्रेन्द्रियं युक्त होने से पंचेन्द्रिय अमनस्क जीव नवप्राणधारी होते हैं और मनोबल सहित पंचेन्द्रिय समनस्क जीव दस प्राणधारी होते हैं।' (घ) काय की अपेक्षा जीवों का वर्गीकरण शरीर रूप परमाणु पिण्ड को काय कहते हैं। काय की अपेक्षा जीव छ: प्रकार के होते हैं। पृथ्वी कायिक अपकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, १. समणा अमणाणेया पंचिदिय णिम्मणा परे सव्वे, द्रव्य संग्रह, गाथा १२ २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० १५३ ३. गोम्मटसार जीव कांड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा २ ४. पंचेविदियपाणा मणवचिकायेसु तिण्णि बलपाणा। आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होति दस पाणा । गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा १३० ५. सर्वार्थसिद्धि, पृ. १७२ ६. (क) गोम्मटसार जीवकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीयपिका गाथा १३३ (ख) सर्वार्थसिद्धि, पृ० १७६ ७. शान्तिपथ प्रदर्शन, पृ०४४ 2010_03 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक । हिम, श्री जिनेन्द्रवर्णी के अनुसार • स्थावर जीवोंका शरीर पाँच जातियोंका होता है प्रथम पार्थिव जाति है, जिसमें मिट्टी, पाषाण, कोयला, धातु आदि सभी खनिज पदार्थ सम्मिलित हैं । द्वितीय जलीय जाति है, जिसमें जल, ओस आदि सम्मिलित हैं। तृतीय तेजो जाति है, जिसमें अग्नि, ज्वाला, अंगार आदि सम्मिलित हैं । चतुर्थ वायु जाति है, जिसमें विभिन्न प्रकारकी वायु सम्मिलित है। पंचम वनस्पति जाति है, जिसमें पेड़-पौधे, घास, फल, फूल आदि सभी वनस्पतियाँ सम्मिलित हैं । यद्यपि पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु में इस प्रकार स्पष्ट रूपसे प्राणोंकी सिद्धि नहीं होती, जैसी कि वनस्पतिमें होती है, परन्तु प्रत्यक्ष ज्ञानियोंने प्रत्यक्ष ही उनमें प्राणोंको देखा है। इन जीवोंके बारे में अपना मत प्रस्तुत करते हुए डॉ० हिरियन्ना ने कहा है – “जैनोंका एक विशिष्ट सिद्धान्त उनके सम्पूर्ण दर्शन और नीति संहिताओं में व्याप्त है, वह पुद्गल जीववाद है, इसके अनुसार न केवल प्राणी और पेड़- पौधे अपितु पृथ्वी, अग्नि, जल और वायुके छोटेसे छोटे कण भी जीवोंसे युक्त हैं " । " जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन - दास गुप्तके अनुसार जैन निम्नतर जीवोंका विभाजन करते हुए, एकेन्द्रिय जीवोंके वर्ग में, वर्तमान वनस्पति शास्त्रियोंकी भाँति, पौधोंमें जीवोंकी सत्ता तो मानते ही हैं, परन्तु अन्य चार भूत- पृथ्वी, जल, वायु और अग्निमें भी जीवों की सत्ता मानते हैं । " कायकी अपेक्षा षष्ठ प्रकारके जीव वसकायिक" कहलाते हैं । त्रसकायिक जीव द्वीन्द्रियसे लेकर समनस्क पंचेन्द्रिय तक होते हैं।" भयका कारण उपस्थित हो जानेपर जो जीव स्वयं अपनी रक्षार्थ भागने दौड़ने में समर्थ होते हैं, ऐसे जीव को बस कहा जाता है ।" १. राजवार्तिक, पृ० ६०३ २. शान्ति पथ प्रदर्शन, पृ० ४४ ३. शान्ति पथ प्रदर्शन, पृ० ४५ इस प्रकार जैनोंने चार दृष्टियोंसे जीवोंका वर्गीकरण किया है। इन चारों प्रकारके जीवोंमें चेतनत्व गुण पाया जाता है, परन्तु जहाँ तक चैतन्यकी मात्राका 2010_03 ४. हिरियण्णा, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १६१ ५. दास गुप्त, भारतीय दर्शन का इतिहास, पृ० १९९ ६. द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः “तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय २, सूत्र १४ ७. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ० ३९७ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ जीव और जीव की कर्मजनित अवस्थायें संबंध है, उसमें विभिन्नता पायी जाती है। कर्मों के धनीभूत आवरणसे जीवों में, चेतना कम विकसित होती है, और जिनके आवरण झीने पड़ते जाते हैं, ऐसे जीवोंमें चेतना का विकास भी बढ़ता जाता है । एकेन्द्रिय स्थावर जीवोंमें चेतना सबसे कम विकसित होती है, यह विकास का अल्पतम रूप है । द्वीन्द्रियादिमें चेतनाका विकास क्रमश: उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। संसारी जीवोंमें सबसे अधिक विकसित चेतना, समनस्क पंचेन्द्रिय जीवों में होती है। हरेन्द्र सिन्हाने भी जैन मान्य जीवोंके वर्गीकरणमें चेतनाके विकासके उपरोक्त दृष्टिकोणको स्वीकार किया है ।। ७. जीव सिद्ध है - सिद्धजीवोंका स्वरूप दर्शाते हुए नय चक्रमें कहा गया है - णट्ठट्ठकम्मसुद्धा असरीराणंतसोक्खणाणठा। परम पहुत्तं पत्ता जे ते सिद्धा खलु मुक्का ।। जिन जीवोंने अपने अष्टकर्मों को नष्ट कर दिया है ऐसे शरीर रहित, अनन्त सुख और अनन्तज्ञानसे युक्त, परमप्रभुत्वको प्राप्त, मुक्त जीव ही सिद्ध होते हैं। “जैनोंका सिद्धसंबंधी यह विचार चार्वाक् और मीमांसा मतका निराकरण करता है, क्योंकि चार्वाक् जीव मुक्ति को ही नहीं मानता और मीमांसा यद्यपि जीव मुक्तिको मानता है, परन्तु मुक्तिके समय रहने वाले ज्ञान और सुखको नहीं मानता । मीमांसाके अनुसार इस अवस्थामें आत्माके ज्ञान, सुख, दु:ख इत्यादि सब विशेष गुण लुप्त हो जाते हैं, यहाँ तक कि उस समय आत्मा की अपनी चेतना भी नहीं रहती। ८. जीव ऊर्ध्वगमन स्वभावी है - जीव स्वभावसे ही ऊर्ध्वगमन करता है, जैसे अग्नि शिखा स्वभावसे ही ऊपरको जाती है, उसी तरह कर्मबन्ध से मुक्त जीव, स्वभावसे ही ऊर्ध्वगमन करता है । मुक्त जीवका ऊर्ध्वगमन ही होता है, तिरछा आदि नहीं, परन्तु ऊर्ध्वगमन करते ही रहना जीवका स्वभाव नहीं है, जैसे अग्नि ऊर्ध्वगमन स्वभावी होने पर भी सदैव ऊर्ध्वगमन नहीं करती। वैसे ही लक्ष्य प्राप्तिके बाद जीव भी १. सिन्हा हरेन्द्र, भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, पृ० १४० २. नयचक्रवृहद्, गाथा १०७ ३. हिरियण्णा, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० ३३२ B. बंधेहि सव्वदो मुक्को, उड्ढं गच्छदि। पंचास्तिकाय, गाथा ७३ ___ 2010_03 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन ऊर्ध्वगमन नहीं करता, फिर भी ऊर्ध्वगमन स्वभावी है । ' ३. जैन दर्शनमें योग जीवकी उपरोक्त विशेषताओंके अतिरिक्त जैनदर्शनमें योग शब्दका भी प्रयोग हुआ है, परन्तु वह अन्य दर्शनोंके योगसे पृथक लक्षण वाला है । योग दर्शनमें योगका अर्थ चित्तवृत्ति निरोध कहा है, 'सांख्य और वेदान्त आदि दर्शनों में योग शब्दका अर्थ ध्यान समाधि आदिकी साधना के अर्थ में किया जाता है। जैन दर्शन में युज् धातुसे उत्पन्न योग शब्दका अर्थ चेतना की उस शक्ति विशेषसे है, जिसके द्वारा एक वस्तु दूसरी वस्तुके साथ अपना संबंध स्थापित कर लेती है । जीव में संकोच विस्तार रूप जो क्रियात्मक शक्ति पायी जाती है, उसे ही योग कहा जाता है ।" जैन दर्शनके अनुसार जीवमें यह परिस्पन्दन अथवा क्रिया मन, वचन, काय के निमित्त से होती है, जैसाकि पूज्यपादजीका कथन है "योगोवाड्० मनसकायवर्गणा निमित्त आत्मप्रदेश परिस्पन्द: ५ जीव द्रव्यको अमूर्तिक कहा गया है, अमूर्तिक द्रव्योंमें परमाणुओंकी तरह विभाग नहीं किया जा सकता, परन्तु जैसे आकाशमें विभाग न होने पर भी घटाकाश, पटाकाश आदिके रूपमें व्यवहार किया जाता है, उसी प्रकार जीवके प्रदेशका विभाग संभव नही है, परन्तु मन, वचन और कायके रूपमें व्यवहार किया जाता है ।' नेमिचन्द्राचार्यने जीव प्रदेशोंके इस परिस्पन्दनको " द्रव्य योग” कहा है और उनमें रहने वाली शक्ति विशेषको भाव योग कहा है, जो कर्मों को ग्रहण करने में कारण होती है ।" समस्त व्यवहार द्रव्ययोगके द्वारा ही किया जाता है, क्योंकि यह आत्माश्रित न होकर कार्मण शरीरके आश्रित होता है । ' चेतनाके आद्यस्पन्दनको ही वास्तवमें योग कहा जाता है, क्योंकि यह १. राजवार्तिक, पृ० ६४५ २. सिन्हा हरेन्द्र, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० २५८ ३. "युजेः समाधिवचनस्य योग: समाधिध्यानमित्यर्थ: " राजवार्तिक, पृ० ५०५ ४. “जीव पदेसाणं परिप्फंदो संकोच विकोचव्भमणसरूवओ” षटखण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १०, भाग ४, पृ० ४३७ ५. सर्वार्थसिद्धि, पृ० १८३ ६. द्रव्य संग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा, २७ ७. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा २१६, पृ० ४७३ ८. " आत्माश्रितो निश्चयनय, पराश्रितो व्यवहारनय” कुन्दकुन्दाचार्य, समयसार, आत्मख्याति गाथा २७२ ९. षटखण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १०, भाग ४, पृ० ४३८ 2010_03 - Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीव और जीव की कर्मजनित अवस्थायें आद्य स्पन्दन ही मन • वचन - काय रूपसे प्रगट हुआ करता है, जैसे तुष्णीक अवस्था में बैठे हुए किसी व्यक्तिको सहसा घूमने का विकल्प उत्पन्न हुआ, इस मने के विकल्प रूप आद्य परिस्पन्दनके फल स्वरूप मनके द्वारा चिन्तन, वचनके गरा वार्तालाप और काय के द्वारा अनेकविध चेष्टायें प्रारम्भ हो जाती हैं, इसी कार परिस्पन्दन रूप आद्य शक्तिके द्वारा ही जीव बाह्य पौद्गलिक जगत् से संयुक्त होकर, कर्म संचय करता रहता है । कुन्दकुन्दाचार्यने इसे ही चेतनाका जीभ कहा है, जब यह क्षोभ शान्त हो जाता है तब चेतना अपने स्वभाव में आ जाती है। । योग शब्द द्वारा अभिहित आत्म प्रदेशोंका यह परिस्पन्दन सिद्धावस्थासे हले तक बना रहता है। विकासक्रमके अन्तिम सोपानको इसीलिये अयोग वली कहा जाता है, क्योंकि वहाँ योगोंका अभाव हो जाता है। १. जीवोंकी संख्या जैन दर्शनमें जीवको वेदान्त दर्शनकी भाँति एक इकाई रूप नहीं माना गया , अपितु जैनोंके अनुसार जीवोंकी संख्या अनन्त है । इस संख्याका कभी भी अन्त नहीं होता । गोम्मटसारमें कहा गया है “सर्वो भव्यसंसारिराशिरनन्तेनापि कालेन नक्षीयते - अक्षयानन्तत्वात्"३ संसारी जीवोंकी राशि अनन्तकालमें भी क्षयको प्राप्त नहीं होती है, स्योंकि यह राशि अक्षयानन्त होती है, जो जो अक्षयानन्त होता है वह-वह अनन्त कालके द्वारा भी क्षयको प्राप्त नहीं होता । वार्तिककारने भी कहा है – “इस हिमाण्डमें अनन्त संसारी जीव हैं, इस संसार से ज्ञानी जीवोंकी मुक्ति होते हुए ही यह संसार जीवोंसे रिक्त नहीं होता क्योंकि जिस वस्तुका परिमाण होता है, उसीका जन्म होता है, वही न्यूनता को प्राप्त होती है अथवा समाप्त होती है। अपरिमित वस्तु न कभी न्यून होती है और न ही समाप्त होती है । इसी प्रकार जीवोंकी संख्या भी कभी न्यून नहीं होती, क्योंकि यह राशि अक्षय अनन्त है। । जैन गणित के अनुसार अनन्तका लक्षण भी यही है “एक एक संख्याके मटानेपर भी जो राशि समाप्त नहीं होती, वह राशि “अनन्त” होती है। अनन्त 1. "मोहक्रवोह विहीणो परिणामो अप्पणो हुसमो” प्रवचनसार, गाथा ७ २. न विद्यते योगो यस्य स भवत्ययोग: षटखण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, पृ० १९२ ३. गोम्मटसार जीवकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा १९६, पृ०४३७ १. स्याद्वाद् मंजरी, श्लोक २९, पृ० ३३१ . “जो रासी एगेगरूवे अवणिज्जमाणे...ण समप्पई सो रासी अणंतो, धवला, पुस्तक ३, खण्ड १, पृ०२६७ 2010_03 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन जीवोंमें से कुछ जीव अपनी पृथक् सत्ता को लिये हुए ही मुक्त हो जाते हैं। मुक्त 'हो जाने पर भी यह राशि अनन्त ही रहती है। ५. निष्कर्ष इस प्रकार संक्षेपमें कहा जा सकता है कि जैन मान्य जीवकी विशेषतायें अथवा गुण अन्य मतोंकी किसी न किसी मान्यताका निराकरण करते हैं। आत्माका जीवत्व व चेतनत्वगुण चार्वाककी आत्म विषयक मान्यतांका निराकरण करता है, जीव दर्शन-ज्ञान स्वभावी है, यह न्याय दर्शनकी मान्यताका निराकरण करता है, जीवका अमूर्तत्व मीमांसा मतके विपरीत है, जीव कर्ता है, यह कथन सांख्य मत के विपरीत है, जीव भोक्ता है, यह दृष्टि बौद्धोंके क्षणिकवादक खण्डन करती है। जीवका देह परिमाणत्व न्याय, मीमांसा और सांख्य मत विपरीत है । कर्मबद्धजीव संसारी होता है, यह मत सदाशिव सम्प्रदायका खण्ड करता है, जीवका मुक्त होना चार्वाक और मीमांसा मतके विपरीत है और जीवका ऊर्ध्वगमन स्वभावी होना माण्डलिक मतका निराकरण करता है । इन न विशेषताओं से जैनदर्शनके जीव विषयक दृष्टि का स्पष्ट परिचय प्राप्त हो जाता है। . जैन दर्शन मान्य जीव अनादि कालसे कर्मों से संयुक्त है, परन्तु फिर भी वह पूर्णतया कर्मों के आधीन नहीं है। कर्मबन्धनके चक्रको सतत गतिशील बनाये रखनेमें और कर्मबन्धन से मुक्त होने में जीव स्वयं समर्थ है। जीव स्वयं ही अपने पाप कर्मों से भिखारी बनता है और स्वत: ही मोक्ष पुरूषार्थके द्वारा भिखारी से भगवान बन सकता है। जैन दर्शन किसी अनादि सिद्धपरमात्माकी सत्ताको स्वीकार नहीं करता। सिद्धअवस्थाको प्राप्त जीव ही परमात्मा है। जीवोंकी गिनती नहीं की जा सकती, क्योंकि उनकी संख्या अनन्त है। प्रत्येक जीव अपनी स्वतं सत्ता को लिये हुए ही मुक्त होता है । १. कैलाशचन्द शास्त्री, जैन धर्म, १९७५, पृ० ११९ 2010_03 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें - - उवभोज्जमिंदिएहिं य इंदियकाया मणो य कम्माणि । जं हवदि मुत्तमण्णं तं सव्वं पोग्गलं जाणे ॥ (पंचास्तिकाय गाथा ८२) सामान्य परिचय जैन मान्य षड् द्रव्योंमें दूसरा द्रव्य पुद्गल है | इसमें चेतना नहीं होती, इसी कारण इसकी गणना अजीव द्रव्योंमें की जाती है। जैन दर्शनके अनुसार, जितना निश्चित ज्ञाता का अस्तित्व है, इतना ही निश्चित ज्ञेय अर्थात् ज्ञानकी वस्तुका भी अस्तित्व है। इसी कारण जैन दर्शनमें अजीव द्रव्यका भी अपना विशिष्ट स्वरूप है, इसे जीवका व्याघाती कहा गया है।' पुद्गल शब्द जैन दर्शनका एक विशेष पारिभाषिक शब्द है, जो भौतिक वस्तुओंका द्योतक है । यद्यपि सभी दर्शनकार तथा भौतिक विज्ञान भूतद्रव्यके रूपमें इस द्रव्यको स्वीकार करते हैं, परन्तु “पुद्गल" शब्दका प्रयोग केवल जैन दर्शनमें ही किया गया है, अन्य दर्शनों में इसका प्रयोग नहीं पाया जाता । जैन दर्शनमें जिसे पुद्गलवाद कहा है, उसे ही सांख्यने प्रकृतिवाद, न्यायवैशेषिकने आरम्भवाद या परमाणुवाद, वेदान्तने विवर्तवाद और चार्वाक ने भौतिकवाद कहा है। समस्त लोक दृश्य-अदृश्य, सूक्ष्म-बादर पुद्गलोंसे सब ओर से अत्यन्त गाढ़ रूप से भरा हुआ है। ओगाढ़गादणिचिदो पुग्गल दव्वेहिं सव्वदो लोगो। सुहुमेहि बादरेहिं य दिस्सादिस्सेहिं य तहेव ॥२ जैन कर्म सिद्धान्तका अनिवार्य अंगजैन मान्य पुद्गलका जैन कर्म सिद्धान्तसे घनिष्ट संबंध है, क्योंकि जैन १. हिरियन्ना एम०, भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, पृ० १५८ २. भगवती आराधना-गाथा १८२२॥ 2010_03 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन दर्शनमें जीव के साथ संबंधको प्राप्त होने वाले विशिष्ट पुद्गलोंको ही कर्म संज्ञा दी गयी है । यह सबंध संसारी जीवोंमें ही पाया जाता है, मुक्त जीवों में नहीं। इससे सिद्ध है कि जीवके साथ कर्म पुद्गलोंका तादात्म्य संबंध नहीं है, संयोग संबं है, जिसे दूर किया जा सकता है। अतः जीवके साथ कर्मपुद्गलों का संबंध अनादि होते हुए भी सान्त है । इस प्रकार पुद्गल जैन कर्म सिद्धान्तका अनिवार्य अंग है। जैन कर्म सिद्धान्तको समझने के लिए पुद्गल और पुद्गलकी सूक्ष्म स्थूल अवस्थाओं का परिचय पाना अनिवार्य है । २. पुद्गल द्रव्यके विशेष गुण पुद्गल शब्द अपना एक विशेष अर्थ रखता है। पुद्+गल, इन दो शब्दों के मिलने से पुद्गल शब्द बनता है। पुद् का अर्थ है - पूर्ण होना और गल का अर्थ है - गलना, अर्थात् टूटना, जो पूर्ण भी हो सकता है और टूट भी सकता है। पंद कैलाशचन्द्र शास्त्री के शब्दों में “जो टूटे-फूटे बने और बिगड़े वे सब पुद्गल द्रव्य हैं । " जैन मान्य पुद्गल यद्यपि बनता बिगड़ता रहता है, परन्तु फिर भी पुद्गलक अस्तित्व नष्ट नहीं होता, क्योंकि पुद्गलको जैनोंने वास्तविक सत्ता के रूप में माना है और जैन मान्य सत्ता, उत्पाद् - व्यय युक्त होते हुए भी अपने ध्रौव्यत्वको नहीं छोड़ती । पुद्गल द्रव्यमें स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, मूर्तत्त्व और अचेतनत्व ये छ विशेषतायें पायी जाती हैं, देवसेनाचार्यने कहा है - “पुद्गलस्यस्पर्शरसगन्धवर्णा: मूर्तत्त्वमचेतनत्वमिति षट् "५ पुद्गल द्रव्यमें प्रत्येक समयमें ये षट् गुण पाये जाते हैं । जैन दर्शनमें गुण गुणीके भेदको नहीं माना गया है, इसीलिये पुद्गल द्रव्यके ये गुण किसी भी अवस्थामें पुद्गलसे पृथक नहीं होते। इन गुणका पुद्गल से तादात्म्य संबंध है। आगे इन गुणोंकी पृथक-पृथक अनेक पर्याय हो जाते हैं, जिनकी संख्या बीस होती है । मूर्तत्व और अचेतनत्व मिलाकर कुल बाईस विशेषतायें हो जाती हैं। इस १. (क) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग दो, पृ० २५ (ख) Karman is a complexus of very fine matter. Glasenapp, The Doctrine of Karaman in Jain Philosophy p.3. २. पुरणगलनान्वर्थसंज्ञत्वात् पुद्गला, राजवार्तिक, पृष्ठ ४३४ ३. कैलाशचन्द शास्त्री, जैन धर्म, १९७५, पृ० ९३ ४. पूर्व निर्दिष्ट, अध्याय एक, पृ० २४ ५. आलाप पद्धति, पृ० ३३ 2010_03 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें प्रकार पुद्गल द्रव्य इन्द्रिय ग्राह्य होता है, क्योंकि उसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुणके विभिन्न पर्याय होते हैं।' सांख्य दर्शनमें भी पुद्गल स्थानीय प्रकृति तत्त्वमें ज्ञानेन्द्रियोंके रूपमें श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और त्वक् इन पाँच ज्ञानेन्द्रियोंका निर्देश किया गया है और शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्शको इन इन्द्रियों के विषय कहा है। जैन दर्शनमें शब्दको यद्यपि श्रोत्रेन्द्रियके विषयके रूपमें माना गया है, परन्तु पुद्गलके गुणोंमें शब्दकी चर्चा नहीं की गई है, क्योंकि शब्दको पुद्गल द्रव्यका पर्याय कहा गया है और शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, आतप और उद्योत ये दस प्रकारके पुद्गल द्रव्यके विशेष पर्याय हैं। आगे पुद्गलके गुणों तथा उसके विभिन्न पर्यायोंका संक्षिप्त परिचय आवश्यक है, क्योंकि पुद्गलके इस विस्तारमें ही बाह्य जगत् की विचित्रता और कर्मजनित वैषम्य छिपा हुआ है। पुद्गलके स्पर्श गुणकी आठ पर्याय हैं - कोमल - कठोर, हल्का- भारी, शीत - उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष। ये सभी पर्याय स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा ग्रहण किये जाने योग्य होते हैं, इसी कारण इन्हें स्पर्श कहा जाता है। उक्त आठ पर्यायोंको चार युगलों में निर्दिष्ट किया गया है । एक युगलकी एक ही पर्याय एक समयमें जानी जाती है। इस प्रकार स्पर्श गुणमें एक समयमें चार पर्याय ही उपलब्ध हो सकती हैं, जो पदार्थ कोमल है, वह हल्का, शीत और स्निग्ध भी हो सकता है।' रसना इन्द्रियके द्वारा अनुभूत विषय रस कहलाता है, वह कटु, तिक्त, कसैला, खट्टा और मधुर पांच प्रकारका होता है।' रसगुणकी एक समयमें एक ही पर्याय उपलब्ध हो सकती है, क्योंकि जिस समयमें कोई एक रस होगा, उस समयमें अन्य रसोंका होना असम्भव है। पुद्गलका गन्ध गुण घ्राण इन्द्रियका विषय है, जो सूंधा जाता है, वह गन्ध है । यह सुगन्ध और दुर्गन्धके भेदसे दो प्रकारका होता है। गन्ध गुणकी दो पर्यायों में से एक समयमें एक ही पर्याय व्यक्त होता है। चक्षु इन्द्रियके विषयको वर्ण कहते हैं अथवा जो देखा जाता है वह वर्ण है । यह काला, नीला, पीला, लाल और सफेदके भेदसे पांच प्रकारका होता है। १. 'जं इंदिएहिं गिन्झं रूवं - रसं - गंध - फास - परिणाम' कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २०७ २. सांख्य कारिका, न० २६ ३. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५, सूत्र २३ ४. सर्वार्थसिद्धि, पृ० २९३ ५. पदार्थविज्ञान, पृ० १९९ ६. सर्वार्थसिद्धि , पृ० २९३ ७. वही, पृ०२९४ ८. सर्वार्थसिद्धि , पृ०२९४ . morr9 2010_03 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन वर्ण गुणकी भी एक समयमें एक ही पर्याय उपलब्ध होती है। - इस प्रकारसे पुद्गलके चार गुणोंकी बीस पर्याय प्रसिद्ध हैं। पुद्गल द्रव्यमें एक समयमें सात पर्याय व्यक्त रूपसे देखे जा सकते हैं - स्पर्श गुणके चार, रसका एक, गन्धका एक और वर्णका एक ।' ये सात पर्याय भी पुद्गल द्रव्यके स्थूल रूपमें ही दृष्टिगोचर होते हैं, अणु रूप पुद्गलमें मृदु, कठिन, गुरू और लघु गुण नहीं होते । अणु रूप पुद्गलमें दो स्पर्श, एक रस, एक गन्ध और एक वर्ण केवल पांच पर्याय ही होते हैं । अणुओंके मिलनेसे ही मृदु, कठिन, गुरू, लघु ये चार गुण उत्पन्न होते हैं। ३. पुद्गल का मूर्तत्वगुण उमास्वामीने षड्द्रव्योंका विवेचन करते हुए पुद्गलोंको रूपवान् कहा है - "रूपिण: पुद्गला:” अर्थात् पुद्गल अपनी सभी अवस्थाओं में रूप, रस, गन्ध और वर्ण से युक्त होते हैं । रूपरसादि इन्द्रियग्राह्य गुण ही मूर्तिक कहे जाते हैं, पुद्गलके अतिरिक्त अन्य किसी भी द्रव्यमें ये इन्द्रियग्राह्य गुण नहीं पाये जाते, इसीलिये पुद्गलके अतिरिक्त अन्य कोई भी द्रव्य मूर्त नहीं है । इस प्रकार जैन दर्शनमें केवल आकार मात्र को ही नहीं, अपितु इन्द्रियग्राह्य पदार्थको मूर्त या रूपी कहा गया है। श्री सुखलालसंघवीके अनुसार-रूप, मूर्तत्व और मूर्ति ये सब शब्द समान अर्थके ही द्योतक हैं।' ४. कर्म भी मूर्तिक और पौद्गलिक हैं इन्द्रिय ग्राह्य होनेके कारण कर्मको भी मूर्तिक और पौद्गलिक माना गया है, क्योंकि कर्मका फल स्पर्शन आदि मूर्तिक इन्द्रियोंके द्वारा सुख दु:ख आदि फलके रूपमें प्राप्त होता है । कुन्दकुन्दाचार्यने कहा है - जम्हा कम्मस्स फलं विसयं फासेहिं भुजदे णियदं । जीवेण सुहदुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि ॥' अर्थात् कर्मोंके सुख दु:ख रूप फलको उत्पन्न करनेवाले इष्टानिष्ट पदार्थ मूर्त हैं और मूर्तिक इन्द्रियोंके द्वारा ही भोगे जाते हैं, इसीलिये कर्ममूर्त हैं और पुद्गलमय हैं। कर्मों के १. पदार्थ विज्ञान, पृ० १९९ २. “एय रस वण्ण गन्धं दो फासं"....पंचास्तिकाय, गाथा ८ ३. तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ५, सूत्र ४ ४. तत्त्वार्थसूत्र विवेचना, पृ० ११७ ५. पंचास्तिकाय, गाथा १३३ ६. “कम्मं सव्वं पुग्गलमर्य" समयसार, गाथा ४५ 2010_03 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें ५५ मूर्तत्वका स्पष्टीकरण करते हुए पूज्यपादजी ने कहा है - कर्मसे निर्मित शरीरको जैन दर्शनमें कार्मण शरीर कहा है । कार्मण शरीरका संबंध जिस समय इष्ट रूप गुड़ादि मूर्तिमान पदार्थों से होता है, उस समय उनसे सुख रूपमूर्त फलकी प्राप्ति होती है और जिस समय अनिष्ट रूप कांटे आदि मूर्तिमान पदार्थों से संबंध होता है, उस समय दु:ख रूप मूर्त फलकी प्राप्त होती है। इससे सिद्ध होता है कि कर्म पौद्गलिक हैं और पुद्गलके मूर्तत्व गुणके कारण कर्म भी मूर्तिक हैं । कर्मसे निर्मित सूक्ष्म शरीरके द्वारा अन्य स्थूल शरीरोंका निर्माण होता है जो साक्षात् मूर्तिक दृष्टिगोचर होते हैं। ५. पुद्गल अचेतन द्रव्य है पुद्गल में चेतना का अभाव होता है, इसलिए पुद्गल द्रव्य अचेतन है । अपनेको प्रकाशित करने की सामर्थ्य को चेतनत्व कहते है । पुद्गलमें स्वयं को प्रकाशित करनेकी सामर्थ्य नहीं होती, इसीलिए पुद्गलके विशेष गुणों में अचेतनत्वकी गणना की गई है । अचेतनत्वके कारण पुद्गलमें स्वंय अनुभवकी शक्ति नहीं होती, परन्तु वह अन्य चेतन द्रव्यके अनुभवका विषय हो जाता है। जैन मान्य पुद्गलके अचेतनत्व गुणकी तुलना, सांख्य मान्य प्रकृतिके जड़त्वसे की जा सकती है, क्योंकि सांख्य दर्शनमें भी प्रकृतिको चेतना रहित और विषयके रूपमें माना गया है। इस प्रकार पुद्गलको अचेतन और विषयके रूपमें माननेका सिद्धान्त जैन दर्शन और सांख्य दर्शनमें समान है । परन्तु चार्वाक् दर्शनसे यह सिद्धान्त भिन्नता रखता है। भौतिकवादी दर्शनोंमें चार्वाक दर्शनका प्रथम स्थान है । चार्वाक दर्शनमें जैन मान्य पुद्गलके सिद्धान्तके समान ही पंचभूतों की सत्ताको वास्तविक अवश्य माना है, परन्तु उन्होंने इन पंचभूतोंसे चेतनाकी उत्पत्ति मानी है, इसी कारण चार्वाक भौतिकवाद जैन मान्य पुद्गलवादके विपरीत हो जाता है, क्योंकि जैन दर्शनके अनुसार पुद्गल एक अचेतन द्रव्यके रूपमें माना गया है। ६. पुद्गल द्रव्यकी पर्यायें नेमिचन्द्राचार्य ने पुद्गल द्रव्य की दसविध पर्यायोंका निर्देशन किया है १. सर्वार्थसिद्धि , पृ० २८५ २. “अचेतनस्य भावो अचेतनत्वमचैतन्यमननुभवनम्” आलाप पद्धति, पृ० ९२ ३. सांख्य कारिका, न०११ ४. “चतुर्थ्य: खलु भूतेभ्यश्चैतन्यमुपजायते" सर्वदर्शन संग्रह, १०७ 2010_03 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन सो बंधो सुहुमो थूलो संठाण भेद तमछाया। उज्जोदादवसहिया पुग्गलदव्वस्स पज्जाया ।' अर्थात् पुद्गल द्रव्यकी शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, उद्योत और आतप ये दस पर्यायें हैं । पुद्गलके स्पर्शादि गुण तो परमाणुओंमें और स्थूल सूक्ष्म स्कन्धोंमें दोनों में ही रहा करते हैं, परन्तु शब्दादि दस पर्यायें अनन्त परमाणुओंसे युक्त स्कन्धों में ही हुआ करते हैं और अनेक निमित्तों से इनकी निष्पत्ति होती है, इसी कारण उमास्वामीने पुद्गलकी इन पयार्यों के लिए पृथक् सूत्र कहा है - "शब्द बन्ध सौक्ष्म्यस्थौल्य संस्थानभेद - तमश्छायातपोद्योतवन्तश्च” २ आगे इनका संक्षिप्त विवरण इष्ट है। जैन दर्शनमें शब्दको पुद्गलकी एक पर्यायके रूपमें माना गया है। न्यायवैशेषिकने शब्दको आकाशका गुण कहा है, परन्तु जैनोंने शब्दको पुद्गलका विकार मानकर न्यायवैशेषिककी इस मान्यताका निराकरण किया है, क्योंकि शब्द मूर्त है, यह बात युक्ति, अनुभव और आगमके द्वारा सिद्धहै । यदि शब्द आकाशका गुण होता तो वह आकाशके समान व्यापक और अमूर्त होता, परन्तु शब्द, मूर्त इन्द्रियों का विषय है, इसी कारण शब्द मूर्तिक और पौद्गलिक है । शब्द ध्वनि रूपमें परिणत होकर अर्थका प्रतिपादन करता है। शब्दके भेद प्रभेदोंको निम्न तालिका द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। शब्द - अभाषात्मक भाषा उत्पन्न भाषात्मक अक्षरात्मक अनक्षरात्मक प्रायोगिक वैससिक संस्कृत आदि दिव्यध्वनि पशुओं की तत वितत घन सुषिर संघर्ष से विभिन्न भाषायें भाषा ।।। उत्पन्न मृदंग ढोलक धंटा बांसुरी बिजली ध्वनि ध्वनि ध्वनि ध्वनि मेघादि की ध्वनि इस प्रकार शब्दके सभी भेदप्रभेदोंको पुद्गलका विकार कहा गया है, क्योंकि कण्ठ, तालु, जीभ, दांत, ओष्ठ आदिके विकारसे शब्द उत्पन्न होता है। शब्द श्रोत्रेन्द्रिय ग्राह्य है। १. वृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा १६ २. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ५, सूत्र २४ ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, गाथा २०६ ___ 2010_03 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें बम आदिकी तीव्र आवाजसे कानके पर्दे फट जाते हैं और तीव्र शब्दों के आगे सूक्ष्म शब्द दब जाते हैं । इन विविध कारणोंसे शब्दको पुद्गल द्रव्यका ही परिणाम माना जाता है। ___ अनेक पदार्थों का परस्पर एकक्षेत्रावगाह रूपसे संबंध हो जाने को बंध कहते हैं । दो धातुओंका परस्पर एक रूप हो जाना केवल पौद्गलिक बंध है अर्थात् पुद्गलका पुद्गलसे बंध है। कर्म और नोकर्म रूपसे जो जीव और पुद्गलका संयोग रूपबंध होता है, वह द्रव्य बंध है और राग द्वेष आदि रूपसे जो बन्ध होता है, वह भाव बन्ध कहलाता है। सूक्ष्मता दो प्रकारकी होती है - अन्त्य सूक्ष्मता और आपेक्षिक सूक्ष्मता। परमाणुओंमें अन्त्य सूक्ष्मता पायी जाती है और द्वयणुकादिमें आपेक्षिक सूक्ष्मता होती है । जैसे आमलेकी अपेक्षा बैर सूक्ष्म होता है। अतएव आपेक्षिक सूक्ष्मता अनेक भेदरूप हो जाती है। स्थूलता भी दो प्रकारकी होती है - अन्त्य स्थूलता और आपेक्षिक स्थूलता। सम्पूर्ण लोक में व्याप्त महास्कन्ध अन्त्य स्थूलता होती है और आपेक्षिक स्थूलता द्वयणुकादि स्कन्धोंमें होती है - जैसे बदरीफलकी अपेक्षा आमले में स्थूलता होती है । यह आपेक्षिक स्थूलता भी अनेक प्रकारकी हो जाती है । संस्थान आकृति विशेषको कहते हैं। पुद्गलकी अनेक प्रकारकी आकृतियाँ होती हैं । गोल, त्रिकोण, चतुष्कोण, दीर्घ, ह्रस्व आदि विभिन्न संस्थानों के रूपमें पुद्गल द्रव्यको देखा जा सकता है । जीवोंके शरीरके रूपमें स्वाति, कुब्जक आदि छह संस्थान प्रसिद्ध हैं। भेदका अर्थ विश्लेषण है | परस्पर संयुक्त हुए अनेक पदार्थों के पृथक् पृथक् हो जाने को भेद कहते हैं । यह औत्कारिक चौर्णिक खण्ड आदिके भेदसे अनेक प्रकार का होता है। जैसे चनेको दलनेसे दाल रूप खण्ड हो जाते हैं और दालको पीसनेसे चौर्णिक रूप हो जाता है। प्रकाशके विरोधी और दृष्टिका प्रतिबंध करने वाले पुद्गल परिणामको तम कहते हैं, वृक्षादि का आश्रय पाकर, प्रकाशका आवरण पड़नेपर, जो प्रतिकृति पड़ती है, उसे छाया कहते हैं । चन्द्रमा, जुगनु आदिका शीतल प्रकाश उद्योत है और सूर्य, अग्नि आदिका उष्ण प्रकाश आतप है। तम, छाया, आतप और उद्योत ये पुद्गल द्रव्यके विशेष परिणमनके द्वारा ही निष्पन्न हुआ करते हैं, इसी कारण १. जैन तत्त्वकलिका, सप्तम कलिका, पृ० २३३ 2010_03 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन शब्दादिके समान ये पुद्गल द्रव्यके ही परिणाम हैं। तमको जैन दर्शनमें अभाव रूप न मानकर पुद्गल द्रव्यकी पर्यायके रूपमें ही माना है, क्योंकि जैनोंके अनुसार अभाव काई प्रमाण सिद्ध विषय नहीं है।' ७. पुद्गल द्रव्य के कार्य जैन दर्शनके अनुसार यह विश्व छह द्रव्योंका समुदाय है । छहों द्रव्यों का परस्पर सह अस्तित्व है संघर्ष नहीं, क्योंकि छहों द्रव्य अपने स्वाभाविक गणों के कारण ही परिणमन करते हुए, परस्परमें उपयोगी होते है। विश्वव्यवस्था परनियंत्रण करने वाली कोई पृथक् सत्ता नहीं है, अपितु द्रव्योंमें निहित शक्तियाँ ही अपने गुणोंका उल्लंघन न करते हुए, अन्य द्रव्योंके लिए सहयोगी हो जाती पुदगल और संसारी जीवका परस्पर घनिष्ट संबंध है। पुद्गल असंख्य रूपों में संसारी जीवोंके लिए उपकार करता है । जीवके प्रति किये गये कार्यों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है - द्रव्य कर्म रूपसे शरीर, इन्द्रिय, मन, प्राण आदिका निर्माण करता है और मोह तथा अज्ञानमय परिणामोंके द्वारा सुख दु:ख, जीवन-मरण आदि रूपसे विविध कर्मों की रचना करता है। तत्त्वार्थ सूत्रमें पुद्गल द्रव्यके नोकर्म और कर्मरूप कार्यों को दो सूत्रोंमें वर्णित किया गया है - "शरीरवाड्० मन: प्राणापाना : पुद्गलानाम्" "सुख - दु:ख जीवितमरणोपग्रहाश्च"" पुद्गल के विभिन्न भेद-प्रभेदोंको मुख्य रूपसे पांच वर्गणाओंमें वर्गीकरण किया जा सकता है । पाँच वर्गणाओं को भी दो भागोंमें विभक्त किया गया है । नोकर्म वर्गणा और कर्मवर्गणा। इनका विस्तृत वर्णन पृथक् वर्गणा शीर्षकमें किया गया है । शरीरके योग्य नोकर्म पुद्गल वर्गणाओंका ग्रहण प्रत्येक संसारी जीव किया करता है। औदारिक आदि सभी शरीरोंका निर्माण पुद्गलसे ही होता है। द्वीन्द्रिय जीवोंसे लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक के सभी संसारी जीव भाषा रूप पुद्गलोंका ग्रहण किया करते हैं । जीवसे प्रेरित होकर वचन रूपमें परिणत होने १. वृहद् द्रव्य संग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा १६ २. जीवस्स बहु पयारं उवयारं कुणदि पुग्गलं दव्वं । देहं च इंदियाणि य वाणी उस्सास - णिस्सासं । कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २०८ ३. अण्णं पि एवमाई उवयारं कुणदि जाव संसारं। मोह-अणाण-मयं पि य परिणामं कुणदि जीवस्स ।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २०९ ४. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ५, सूत्र १९, २० 2010_03 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें वाले पुद्गल ही वाणीके रूपमें कार्य किया करते हैं । इसी प्रकार मनोवर्गणाओंका ग्रहण संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव किया करते हैं, जिससे संकल्प विकल्पात्मक कार्य किया जाता है । इसके अतिरिक्त स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्रादि इन्द्रियोंकी और श्वास् निश्वास अथवा प्राण-अपान रूप वायुकी रचना भी पौद्गलिक है ।सुखलाल संघवीके अनुसार ये सब जीवनप्रद होने के कारण संसारी जीवके लिए अनुग्रहकारी है और भाषा, मन, प्राण और अपान, इन सबका व्याघात और अभिभव देखने में आता है, इसी कारण ये भी शरीरकी भाँति ही पौद्गलिक हैं । नेमिचन्द्राचार्य ने भी पुद्गल को शरीर वाणी मन और श्वासोच्छवासका कारण मानते हुए तीन गाथाओंमें नोकर्म वर्गणाओं और कर्म वर्गणाओं रूप पौद्गलिक जगत्का वर्णन किया है। ___ संसारमें कोई भी पदार्थ केवल इष्ट या अनिष्ट नहीं होते, क्योंकि एक ही पदार्थ किसीको इष्ट प्रतीत होता है और किसीको अनिष्ट । एक ही व्यक्तिको भी एक समयमें कोई पदार्थ इष्ट प्रतीत होता है और कालान्तरमें वही पदार्थ अनिष्ट प्रतीत होने लगता है। रागके विषयभूत इष्ट पदार्थ सुखका कारण होते हैं और द्वेष के विषयभूत अनिष्ट पदार्थ दु:खका कारण होते हैं। ____ इसी प्रकार आयु कर्मके निमित्त से देहधारी जीवके वर्तमान शरीरमें प्राण और अपानका चलते रहना जीवन है और प्राणापानका विच्छेद हो जाना मरण है। अन्न जलादि पुद्गल पदार्थ प्राणधारण करने में उपकारी होते हैं, इसके विपरीत, शस्त्र, अग्नि आदि पुद्गल पदार्थ मरणमें निमित्त होते हैं । सुख दु:खमें वेदनीय कर्म और जीवन-मरणमें आयु कर्म कारण होता है। इस कारण संसारी प्राणीशुभाशुभरूप कर्म पुद्गलोंसे संयुक्त होकर सुखदु:ख,जीवन-मरण आदि परिणामोंको भोगते रहते हैं। मुक्तावस्थामें जीव सुखदु:ख, जीवन-मरण आदि परिणामोंसे रहित होते हैं, क्योंकि सुख-दु:ख और जीवन-मरण आदिके कारण भूत कर्मवर्गणा रूपपुद्गलों का मुक्तावस्थामें अभाव पाया जाता है । जीव जब कर्मपुद्गलोंसे मुक्त हो जाते हैं, तब कर्म पुद्गल जन्य सुख-दु:खादि परिणामोंसे भी मुक्त हो जाते हैं । इस प्रकार जीवके अतिरिक्त जो कुछ भी है सब पौद्गलिक है । ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच वर्गणाओंसे निर्मित पंचविध १. संघवी सुखलाल, तत्त्वार्थ सूत्र विवेचना, पृ० १२६ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा६०६-६०८ ३. जैन तत्त्वकलिका, सप्तम् कलिका, पृ०२३३ ४. Sphere of this Matter....... In fact all that is other than Jiva, 'Materialism in Indian thought p. 105. ___ 2010_03 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन शरीर, मन, वचन, सुख दुःख, जीवन-मरण आदि रूप विभिन्न स्कन्ध और परमाणु सब पुद्गल द्रव्यमयी हैं ।" ८. संस्कार और चिदाभासी जगत् संस्कार शब्द प्रायः सभी दर्शनों में किसी न किसी रूपमें प्राप्त होता है । बौद्धके द्वादश प्रतीत्य समुत्पादमें संस्कारकी गणनाकी गयी है, जिसका संबंध अतीत जीवनसे बताया गया है ।' न्याय और वैशेषिक दर्शनमें चौबीस गुणोंमें संस्कारकी गणनाकी गयी है और गति स्मृति और स्थितिके रूपमें तीन प्रकारका संस्कार माना गया है । ३ जैन दर्शनमें बौद्ध दर्शन और न्यायवैशेषिक दर्शनकी भाँति संस्कार शब्दका उल्लेख मौलिक पदार्थों या तत्त्वों के रूपमें तो प्राप्त नहीं है, परन्तु स्मृतिबीजके रूपमें संस्कार शब्दका प्रयोग अनेक स्थानों पर मिलता है । पूज्यपादाचार्यने बन्ध तथा मोक्ष के हेतुकी विवेचना करते हुए कहा है - अविद्याभ्यास-संस्कारैरवशं क्षिप्यते मनः । तंदैव ज्ञान संस्कारैः स्वतस्तत्त्वेऽवतिष्ठते ॥५ अर्थात् मिथ्याज्ञान रूप संस्कारोंके द्वारा मन विक्षिप्त होकर पराधीन हो जाता है और सम्यक्ज्ञान रूप संस्कारोंके द्वारा आत्मा स्वंय अपने स्वरूपमें स्थिर हो जाता है । इस प्रकार देह, वाणी अथवा बुद्धि आदिके द्वारा किसी भी कार्यको करते रहनेसे अभ्यासवश चेतनामें एक ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जो पुन: उसी कार्यको करने के लिए प्रेरित करती है, इसीको संस्कार कहा जाता है । संस्कारों द्वारा चालित चेतना, चेतनावत् प्रतीत अवश्य होती है, परन्तु वास्तवमें वह चेतना नहीं है, इसे चिदाभासी जगत कहा जा सकता है, जो पौगलिक होते हुए भी चेतनावत् प्रतीत होता है । अग्निके संयोगसे उत्पन्न होनेके कारण जिस प्रकार उष्णता जलका स्वाभाविक धर्म नहीं है, आगन्तुक है, इसी प्रकार मोह, राग, द्वेषादि चांचल्य, चेतनाके स्वाभाविक धर्म न होकर आगन्तुक हैं, क्योंकि ये संस्कारोंके संयोगसे उत्पन्न होते हैं । उष्णावस्थामें उष्णताको चाहे जलका विकार कह लें, परन्तु १.. पंचास्तिकाय, गाथा ८२ २. हरेन्द्र सिन्हा, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० ९५ ३. हरेन्द्र सिन्हा, वही, पृ० १९५ ४. संस्कारस्मृतिबीजमादधीत, अकलंक भट्ट, सिद्धि विनिश्चय, १९५१, पृ. १४ ५. पूज्यपाद, समाधिशतक, श्लोक ३७ 2010_03 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें ६१ वास्तवमें वह जलका विकार न होकर अग्निका होता है, उसी प्रकार जीवकी संसारावस्थामें दृष्ट यह वैषम्य भले ही जीवका विकार दिखाई देता हो, परन्तु वास्तवमें वह चेतनाका विकार न होकर संस्कार रूप पुद्गलोंका ही है।' संस्कार अशुभ भी हो सकते हैं और शुभ भी । क्रोधादिके संस्कार अशुभ कहलाते हैं और भक्ति, आत्मचिंतन, परोपकार, क्षमा आदिके संस्कार शुभ कहलाते हैं। शुभ संस्कार परम्परा रूपसे कर्म विनाशमें सहायक होते हैं और अशुभ संस्कार जन्म पुनर्जन्म रूप संसारका कारण बन कर भवभवान्तर तक जीवके साथ रहते हैं। ___ संसारावस्था में प्रत्येक जीवमें इतने संस्कार पड़े हुए हैं कि उनकी गणना नहीं की जा सकती। यही कारण है कि व्यक्तिको इच्छासे अथवा अनिच्छासे, ज्ञात भावसे अथवा अज्ञात भावसे, संस्कारों से प्रेरित होकर विभिन्न प्रकारके कार्यों में व्यस्त रहना पड़ता है। इन संस्कारोंके पौद्गलिक और मूर्त होनेके कारण ही जीवकी कर्मबद्ध अवस्थाको भी मूर्त कह दिया जाता है।' इस प्रकार संस्कारों को एक दृष्टिसे पौद्गलिक कहा गया है, परन्तु सर्वथा पौद्गलिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जिस प्रकार चूने व हल्दीके मिश्रणसे उत्पन्न लाल रंगको न चूनेका कह सकते हैं और न ही हल्दीका | उसी प्रकार चेतना तथा पुद्गलसे मिश्रित चिदाभासी तत्त्वको न अकेले जीवका कह सकते हैं और न ही अकेले पुद्गलका । जिस प्रकार स्त्री तथा पुरूषके संयोगसे उत्पन्न पुत्रका लोकमें विवक्षावश देवदत्तका पुत्र है या देवदत्ताका पुत्र है ऐसा कह दिया जाता है उसी प्रकार जीव तथा पुद्गलके संयोगसे उत्पन्न रागादि भाव रूप चिदाभासी जगत्को विवक्षावश अकेले जीवका या अकेले पुद्गलका भले ही कह दिया जाये परन्तु वास्तवमें वह दोनों के संयोगका ही परिणाम है ।' - तात्त्विक दृष्टिसे देखनेपर राग-द्वेषादि भाव अथवा इनके विविध विस्तार वाले जगत्की सत्ता ही नहीं है, क्योंकि अज्ञान भावमें ही रागादिक भावोंकी प्रतीति होती है, ज्ञानमें स्थित योगीको समाधि कालमें इनकी प्रतीति ही नहीं होती। जिस प्रकार शुद्धजीवमें.रागद्वेषादि भावोंकी उपलब्धि नहीं होती, उसी प्रकार रूप, रस, गन्ध, वर्ण वाले भौतिक पुद्गलमें भी रागद्वेषादि जगत् उपलब्ध नहीं होता। इस १. समयसार, गाथा ५१,५५ २. षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक ६, भाग १, पृ०४१ ३. “कर्मबद्धपर्यायापेक्षया स्यान्मूर्त:” सर्वार्थसिद्धि, पृ० १६१ २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश. भाग तीन. प०५६९ 2010_03 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन प्रकार शुद्ध तात्त्विक दृष्टिसे इनकी सत्ता ही सिद्ध नहीं होती। इस प्रकार जैन दर्शनमें रागादि भाव रूप चिदाभासी जगत्को अन्यदर्शनोंकी भाँति सर्वथा मिथ्या नहीं कहा है, अपितु अपने अनेकान्तवादका आश्रय लेकर एक अपेक्षासे इसे जीवका परिणाम कहा है, दूसरी अपेक्षासे पुद्गलका परिणाम कहा है. तीसरी अपेक्षासे दोनोंके संयोगसे उत्पन्न विलक्षण परिणाम कहा है और चतुर्थ दृष्टिसे रागादि भाव रूप जगत्की सत्ता ही नहीं है। __ इन चारों दृष्टियोंमें से कर्मसिद्धान्त, दूसरी दृष्टिको आधार मानकर अपनी विवेचना प्रस्तुत करता है । अत्यन्त विशुद्ध होने के कारण इस दृष्टिमें जीवको त्रिकाल निर्विकार और शुद्ध माना जाता है, जितना भी चिदाभासी जगत है, वह पुद्गलका ही कार्य है, क्योंकि मन बुद्धि आदि अथवा रागद्वेष आदि भावोंके रूपमें जो कुछ भी दृष्ट है, उसकी व्याप्ति पुद्गलके साथही घटित होती है, चेतनाके साथ नहीं। इन्द्रियोंके विषयभूत कार्मण पुद्गलोंके होने पर ही रागद्वेषादि चिदाभासी जगत्की सत्ता होती है। कार्मण वर्गणा रूप पुद्गलोंके न होने पर रागद्वेषादि चिदाभासी जगत्की सत्ता नहीं होती । जैसे मुक्त-जीवमें कार्मण शरीरका अभाव हो जानेके कारण रागद्वेषादि चिदाभासी जगत्की सत्ताका भी अभाव हो जाता है। ___ इस प्रकार जैन मान्य पुद्गलमें केवल महाभूत ही नहीं आते, अपितु चिदाभासी जगत् भी आ जाता है । इसी कारण शरीर आदि तथा कर्म, नोकर्म, वचन, मन, उच्छवास, निश्वास सुख-दु:ख, जीवन-मरण आदिको पुद्गलका ही कार्य माना गया है, नेमिचन्द्राचार्यने कहा भी है - "देहादीणिव्वत्तण कारणभूदा हु णियमेण। २ । उमास्वामीने भी शरीर वचन, कर्म आदि चिदाभासी जगत्को पुद्गलका ही कार्य कहा है। इसी तथ्यको हरमन याकोबीने भी स्पष्टतया कहा है कि जैन सिद्धान्तमें कर्मको पौद्गलिक कहा गया है। डॉ० हिरियन्ना के अनुसार भी जैन मान्य पुद्गल नित्य है, जिनमें प्राणियों के शरीर ज्ञानेन्द्रियाँ और मन भी सम्मिलित हैं। १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ०५७० २. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ६०६ ३. पूर्व निर्दिष्टं पुद्गलके कार्य 8. Jaina understanding of Karma is thoroughly materialistic के.के.मित्तल, मैटिरियलिजम इन इण्डियन थॉट, पृ० १२० ५. भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १६१ 2010_03 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें जैन मान्य पुद्गलका यह सिद्धान्त सांख्य मान्य प्रकृतिसे समानता रखता है, क्योंकि सांख्यमें भी महाभूत, तन्मात्रा, बुद्धि, अहंकार, मन, ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ इन सात तत्त्वोंको प्रकृतिका विकार कहा गया है। गीतामें भी विकारयुक्त क्षेत्रका प्रतिपादन करते हुए पंचमहाभूत, बुद्धि, मन, अहंकार, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, इच्छा, सुख-दु:ख आदि सबको चित्त शक्ति के विकारके रूप में ग्रहण किया गया है जो अचेतन होते हुए भी चेतन सदृश दिखाई देते हैं । केशववर्णी ने गोम्मटसार जीवकाण्डकी टीकामें पुद्गलको संसारी जीवोंका वाचक भी कहा है – “मूर्तिमत्सु पदार्थेषु संसारिण्यपि पुद्गला:"३ इस प्रकार शास्त्रलिखित कुछ ऐसे तथ्य हैं जो कि पुद्गल द्रव्यको जड़त्वसे ऊपर उठाकर चेतनत्वके निकट पहुंचा देते हैं । यद्यपि अगुरूलघुत्व गुणके कारण पुद्गल अपनी अचेतनत्व रूप जातिका उल्लंघन करके चेतनत्वको पाने में समर्थ नहीं हैं, परन्तु चेतनवत् प्रतीत अवश्य होता है, इसीलिये इसे चिदाभास कह दिया गया है परन्तु सैद्धान्तिक रूपमें जैन दर्शनमें चिदाभास शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। ९. पुद्गल द्रव्यके भेद प्रभेद... जैन दर्शनमें पुद्गलको विभिन्न दृष्टियोंसे अनेक भागोंमें वर्गीकृत किया गया है। सामान्यत: उसे दो भागोंमें विभक्त किया गया है अणु और स्कन्ध ।' डॉ० हिरियन्नाने भी जैन मान्य इन रूपोंका विवेचन करते हुए पुद्गलके दो रूप कहे हैं - एक सरल या आणविक और दूसरा यौगिक जिसे स्कन्ध कहते हैं ।" किसी भी वस्तुका विभाजन करते करते एक ऐसी स्थिति आ जाती है, जिससे आगे उसका विभाजन संभव नहीं होता। उस अविभाज्य अन्त्यांश को ही अणु कहा जाता है। ये अणुही घन, घनतर और घनतम संयोगसे स्थूल स्वरूपको प्राप्त होकर स्कन्ध कहलाते हैं। दूसरे शब्दोंमें जब दो या दो से अधिक परमाणु परस्पर बन्धको प्राप्त कर लेते हैं तब वे स्कन्ध कहलाते हैं। आचार्य अकलंक भट्ट ने कहा है १. सांख्य कारिका, न०३ २. भगवद्गीता, अध्याय १३, श्लोक १५, १६ ३. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ५९५, सन् १९७९, पृ०८२३ ४. अणव: स्कन्धाश्च, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ५, सूत्र २५ ५. भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, पृ० १६३ ६. भेदादणु:, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५, सूत्र २७ 2010_03 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E0 जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन “बन्धो वक्ष्यते तं परिप्राप्ता: ये अणव: ते स्कन्धा:"१ जितनी भी प्रत्यक्ष योग्य वस्तुएं हैं, वे सब यौगिक या स्कन्ध ही कहलाती हैं। एक स्थूल स्कन्धके भेदनसे दो या अधिक क्षुद्र स्कन्धों की उत्पत्ति होती है और दो या अधिक परमाणुओंके संघात अर्थात् मेल से भी स्थूल सूक्ष्म स्कन्धोंकी उत्पत्ति होती है । उमास्वामीने सूत्रमें कहा है - “भेद संघातेभ्य: उत्पद्यन्ते । २ नेमिचन्द्राचार्यने पुद्गल द्रव्यके प्रमुख छह भेदोंका निर्देशन किया है. बादरबादर, बादर, बादरसूक्ष्म, सूक्ष्मबादर, सूक्ष्म और सूक्ष्मसूक्ष्म । इनके द्वारा पुद्गलके स्थूलतमसे लेकर सूक्ष्मतम तक सभी रूपोंका दिग्दर्शन हो जाता है। कुन्दकुन्दाचार्यने पुद्गलद्रव्यको चार प्रकारका कहा है - स्कन्ध, स्कन्ध देश, स्कन्ध प्रदेश और परमाणु ।' समस्त परमाणुओंका एक पिण्ड रूप पुद्गल, “स्कन्ध कहलाता है। उस पुद्गल स्कन्धका अर्ध भाग *स्कन्ध देश कहलाता है । स्कन्धदेशका अर्धभाग "स्कन्ध प्रदेश" कहलाता है और जिसका विभाग न हो सके उसे परमाणु कहते हैं। इस प्रकार दो परमाणुओंके मिलापसे लेकर सकल पृथ्वी-खण्ड पर्यन्त स्कन्धोंके अनन्त भेद भी कहे जा सकते हैं। नियमसारमें भी गोम्मटसारके समान ही स्थूलता और सूक्ष्मताके आधार पर पुद्गल द्रव्यके छह भेदोंका कथन किया गया है, यद्यपि उपरोक्त चार भेदों में सभी भेद गर्भित हो जाते हैं, परन्तु पुद्गल द्रव्यके स्थूलतमसे लेकर सूक्ष्मतम तक सभी रूपोंका स्पष्ट परिचय इन छह भेदोंके द्वारा ही प्राप्त होता है। पुद्गल स्कन्ध का वह स्थूलतम रूप, जो खण्डित किया जानेपर पुन: अपने आप न मिल सके "बादरबादर" कहलाता है । पृथ्वी जातीय पाषाणादि पदार्थ “बादर बादर" हैं, इनका छेदन भेदन किया जा सकता है और इन्हें एक स्थानसे दूसरे स्थानपर ले जाया जा सकता है। १. राजवार्तिक, पृ०४९३ २. तत्त्वार्थ, सूत्र, अध्याय ५, सूत्र २६ ३. बादर-बादर बादर बादर-सुहमंच सुहमथूलं च। सुहुमं च सुहमसुहमं धरादिर्य होदि छब्भेयं ॥ गोम्मटसार जीव काण्ड, गाथा ६०३ ४. खंधा य खंधदेसा खंधपदेसा य होंति परमाणु। इति तेचदुवियप्पा पुग्गलकाया मुणेयव्वा ।। पंचास्तिकाय, गाथा ७४ ५. (क) गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ६०४ (ख) पंचास्तिकाय, गाथा ७५ ६. नियमसार, गाथा २१ ७. भूपब्बदमादिया भणिदा अइथूल)लमिदि खंधा, नियमसार, गाथा २२. 2010_03 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें पुद्गलका वह रूप जो खण्ड खण्ड होनेपर भी पुन: मिल जाये "बादर" कहलाता है। जलीय जातिके सभी पदार्थ जैसे घृत, दुग्ध, तैलादि पुद्गलोंको "बादर" कहा जाता है ।' पुद्गलका वह रूप जो देखने में स्थूल हो, परन्तु जो खण्ड-खण्ड न हो सके और हस्तादिसे ग्रहण न किया जा सके, ऐसे छाया, आतप, प्रकाश आदि पदार्थ "बादर सक्ष्म" कहे जाते हैं। स्पर्श, रस, गन्ध, शब्दादिक पुद्गल इससे सूक्ष्म होते हैं, उन्हें "सूक्ष्मबादर" कहा जाता है । ये नेत्रेन्द्रियको छोड़कर शेष चारों इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ होते हैं। जो स्कन्ध इन्द्रियोंसे भी ग्रहण करने में नहीं आते ऐसे कर्म समूहको "सूक्ष्म पुद्गल" कहा जाता है। ये कर्म वर्गणाके योग्य सूक्ष्म स्कन्ध होते हैं। कर्मवर्गणाके अयोग्य और कर्मवर्गणासे भी अति सूक्ष्म द्वयणुक स्कन्ध तकके सभी पुद्गल "सूक्ष्मसूक्ष्म" या "अतिसूक्ष्म" कहलाते हैं। डॉ० हिरियन्नाके अनुसार- सूक्ष्म अवस्थामें रहने वाला पुद्गल ही कर्म है, जो जीवमें प्रविष्ट होकर संसारका कारण बनता है। पूज्यपादजी ने भी कहा है - “कर्मग्रहणयोग्या: पुद्गला: सूक्ष्मा:, न स्थूला:"७ अर्थात् कर्मग्रहणयोग्य पुद्गल सूक्ष्म होते हैं, स्थूल नहीं । के०के०मित्तल ने भी जैनोंके भौतिकवाद पर विचार करते हुए कहा है कि जैन दर्शनमें कर्मको पौद्गलिक माना गया है । दासगुप्तके अनुसार पुद्गल द्रव्य स्थूल रूपसे दिखाई देने वाली सांसारिक वस्तुओंमें और सूक्ष्म रूपसे जीवको दषित करने वाले कर्मों में विद्यमान हैं।' १०. परमाणु पुद्गल स्कन्धोंका जहाँ अन्त हो जाता है, वह अन्तिम अंश "परमाणु" कहलाता है । परमाणुसे अणुतर, अन्य कोई नहीं होता। यह सभी पुद्गल १. सप्पीजलतेलमादीया, नियमसार, गाथा २२ २. छायातवमादीया थूलेदरखंधमिदि वियाणीहि, नियमसार, गाथा २३ ३. सुहमधूलेदि भणिया खंधा चउरक्खविसयाय, नियमसार, गाथा २३ ४. सुहमा हवंति खंधा पावोग्गा कम्मवग्गणस्य पुणो, वही, गाथा २४ ५. तब्विवरीया खंधा अइसुहमा इदि परुर्वेदि, नियमसार, गाथा २४ ६. भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, पृ० १६४ . ७. सर्वार्थसिद्धि, पृ०४०२ ८. मैटिरियलिजम इन इंडियन थॉट, पृ० १२० ९. दास गुप्त एस.एन.भारतीय दर्शनका इतिहास, पृ० २०४ १०. जस्सण कोइ अणुदरो सो अणुओ होदि सव्व दव्वाणं । जावे परं अणुत्तरं तं परमाणु मुणेयव्वा। पद्मनन्दि आचार्य, जम्बूद्वीप पण्णति, अधिकार १३, गाथा १७ ____ 2010_03 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन ६६ स्कन्धों का कारण होता है परन्तु स्वयं किसीका भी कार्य नहीं है। परमाणुकी मुख्य पांच विशेषताओंका वर्णन किया गया है । ' १. परमाणु शाश्वत है । २. परमाणु शब्द रहित है । ३. परमाणु एक प्रदेशी है । परमाणु अविभागी अथवा निरंश है । 8. ५. परमाणु मूर्तिक है । १. परमाणु शाश्वत है, क्योंकि यह त्रिकाल अविनाशी है, यद्यपि विविध परमाणुओं के मिलापसे यह एक पर्यायसे दूसरी पर्यायको प्राप्त होता रहता है, तथापि अपनी परमाणु रूप मूल सत्ता को कभी नहीं छोड़ता । परमाणुको तीक्ष्ण अस्त्रोंके द्वारा छेदा भेदा नहीं जा सकता, अग्निके द्वारा जलाया नहीं जा सकता और जलके द्वारा गलाया नहीं जा सकता क्योंकि ये अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं । स्कन्धके रूपमें इन्द्रिय ग्राह्य हो जाने पर भी परमाणु रूपमें इन्द्रिय ग्राह्य नहीं हैं, क्योंकि ये आदि, मध्य और अन्तसे रहित होते हैं । परमाणु यद्यपि जड़ और अचेतन होते हैं, परन्तु परमाणुकी यह नित्यता आत्माकी नित्यतासे साम्यता रखती है, क्योंकि आत्माकी नित्यताका दिग्दर्शन कराते हुए, गीतामें भी आत्माको अछेद्य, अदाह्य और अशोष्य कहा है, जिसे अग्नि जला नहीं सकती, शस्त्र काट नहीं सकता, जल गला नहीं सकता और पवन सुखा नहीं सकता । परमाणु इस अव्यक्त रूपकी साम्यता सांख्य मान्य प्रधान तत्त्वसे की जा सकती है, जो प्रकृतिकी उस अवस्था का द्योतक है जिसमें सत्व, रज और तम इन तीन गुणोंकी साम्यावस्थाके कारण प्रकृतिके गुण अव्यक्त रहते हैं । " २. परमाणु शब्द रहित हैं- जैन मान्यताके अनुसार परमाणु स्वयं अशब्द अर्थात् शब्द रहित हैं, परन्तु विभिन्न परमाणुओंके मिलापसे शब्द पर्यायको धारण कर लेता है । शब्दकी उत्पत्ति अनन्त परमाणुओंके समूह रूप पुद्गल वर्गणाओं से होती है, क्योंकि जब अनन्त परमाणुओं के समूह रूप स्कन्ध परस्पर संघटनको प्राप्त होते हैं, उसी समय शब्दकी उत्पत्ति होती है, परमाणु स्वयं अशब्दमयहोते हैं। जयसेनाचार्यकी तात्पर्यवृत्तिके शब्दोंमें “एक प्रदेशत्वेन कृत्वानंतपरमाणुपिंड लक्षणेन शब्द पर्यायेण सह विलक्षणत्वात् स्वयं व्यक्ति रूपेणाशब्द: ५ १. “सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागी मुत्तिभवो” पंचास्तिकाय, गाथा ७७ २. सत्थेण सुतिक्खेण छेत्तुं भेत्तुं च जं किरसक्कं । जलयणलादि हिं णासं ण एदिसो होदि परमाणु ॥ तिलोएपण्णति, अधिकार १ गाथा ९६ ३. भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक १३ ४. सांख्यकारिका, न० ८ ५. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति, गाथा ७९ 2010_03 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें ६७ ३. परमाणु एक प्रदेशी होता है- परमाणु जितने स्थानको घेरता है, क्षेत्रकी उस अल्पतम इकाईको प्रदेश कहा जाता है, स्कन्धोंका निर्माण अनेक परमाणुओंसे होता है, इसी कारण स्कन्ध तो बहुपदेशी होते हैं और दृष्टिपथ में आते हैं परन्तु स्कन्धों की पृष्ठभूमिमें अवस्थित परमाणु एक प्रदेशी होते हैं और दृष्टिपथमें नहीं आते। दृष्टिपथमें न आनेपर भी एक प्रदेशी परमाणु सभी पुद्गल स्कन्धों के कारण हैं, क्योंकि स्कन्धोंको परमाणुका कार्य कहा जाता है और एक प्रदेशी होने के कारण परमाणु शब्द रहित भी कहे गये हैं। ४. परमाणु अविभागी है, क्योंकि इसका कोई दूसरा भाग संभव नहीं है | सुखलाल संघवीके अनुसार परमाणुका कोई विभाग नहीं होता और न ही हो सकना संभव होता है क्योंकि परमाणुका आदि, मध्य और अन्त वह स्वंय होता है । परमाणु असमुदाय रूप होता है ऐसे निरंश या अविभागी परमाणुका ज्ञान, इन्द्रियोंसे नहीं होता, उसका ज्ञान आगम या अनुमानसे ही संभव है। ५. परमाणु मूर्तिक है, क्योंकि इसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये चार गुण पाये जाते हैं और पृथ्वी, जल अग्नि और वायु इन चार धातुओंका कारण है अर्थात् ये चारों पुद्गल जातियाँ परमाणुओंसे ही उत्पन्न होती है। इन चारों जातियों में स्पर्शादि चारों ही जातियोंके परमाणु पाये जाते हैं । पृथ्वीमें गन्ध गुणकी, जलमें रस गुणकी, अग्निमें वर्ण गुणकी और वायुमें स्पर्श गुणकी मुख्यता अवश्य होती है, परन्तु अन्य गुणों का अभाव नहीं होता | परमाणुके इन गुणों का विवेचन यद्यपि वैशेषिक दर्शनमें भी किया गया है परन्तु वैशेषिक दर्शनमें पृथ्वी आदि चारों भूतोंमें पृथक्-पृथक् गुणके परमाणुओंकी सत्ताको स्वीकार किया गया है। पार्थिव परमाणु में केवल गन्धगुण, जलीय परमाणुमें केवल रस गुण, अग्निके परमाणुमें केवल रूप गुण और वायुके परमाणुमें केवल स्पर्श गुण माना गया है। इस प्रकार वैशेषिक दर्शनमें गुणोंको मौलिक और नित्य माना गया है, परन्तु जैन दर्शन इन गुणोंको व्युत्पन्न और गौण मानता है क्योंकि स्वयं इन गुणोंमें अन्तर नहीं है, अपितु गन्ध रस आदि गुणों का विकास हो जाने पर ही इन गुणोंमें अन्तर आता है। जिस गुणका विकास हो जाता है वह गुण मुख्य हो जाता है और शेष गुण गौण हो जाते हैं । वैशेषिक दर्शनकी तरह जैन दर्शनमें परमाणुमें किसी एक १. वृहद् नयचक्र, गाथा १० २. संघवी सुखलाल, तत्त्वार्थसूत्र विवेचना, पृ० १३१ ३. हिरियन्ना, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० २३८ ४. हिरियन्ना, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १६३ 2010_03 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन निश्चित गुणको नहीं माना गया, अपितु प्रत्येक परमाणुमें दो स्पर्श, एक रस, एक गन्ध और एक वर्ण ये पांच गुण होते हैं। अर्थात् पुद्गलके बीस गुणोंमें से पुद्गल परमाणुमें पांच गुण पाये जाते हैं - पांच रसोंमें से कोई एक रस, पांच वर्षों में से कोई एक वर्ण, दो गन्धोंमें से कोई एक गन्ध तथा शीत-स्निग्ध, शीत-रूक्ष, उष्ण-स्निग्ध, उष्ण-रुक्ष इन चार स्पर्श युगलों में से कोई एक युगल होता है। परमाणमें इन गुणोंके अतिरिक्त एक अन्य गुण भी माना जाता है. वह है परमाणुओंका सक्रियत्व । जैन दर्शनके अनुसार परमाणु निष्क्रिय नहीं होते, क्योंकि जैन मान्य षट् द्रव्यों में से जीव और पुद्गल इन दोनों द्रव्यों को क्रियावन्त माना गया है। पुद्गलकी क्रिया में सहकारी कारण काल होता है । कालका कभी भी अभाव संभव नहीं होता, इसी कारण पुद्गल निष्क्रिय कभी भी नहीं होता।' इस परिवर्तनशीलता के कारण परमाणुके स्पर्शादि चारों गुणोंमें कुछ न कुछ तारतम्य स्वत: आता ही रहता है,' इसी तारतम्यताके कारण परमाणुओंका परस्पर बन्ध होता है। ११. अन्य दर्शनों से तुलना बौद्ध दर्शनमें भी परमाणुओंकी गतिशीलताके सिद्धान्तको माना गया है, परन्तु गतिशीलताके कारण परमाणुको शाश्वत नहीं माना । जैन दर्शनानुसार परमाणु गतिशील होते हुए भी शाश्वत हैं क्योंकि किसी भी कालमें और किसी भी शस्त्र, अग्नि, जल आदिके निमित्तसे परमाणुका विनाश संभव नहीं है। इस प्रकार जैन मान्य इस सिद्धान्तसे परमाणुओंके बौद्धमान्य सिद्धान्तका खण्डन हो जाता है। वैशेषिक दर्शनमें यद्यपि परमाणुओंकी गतिशीलताके सिद्धान्तको स्वीकार किया गया है, परन्तु परमाणु स्वयं गतिशील नहीं होते। वैशेषिकके मतानुसार १. एयरसवण्णगंध दो फासंसदकारणमसदं । खंधंतरिदंद्रव्वं परमाणुं तं वियाणेहि ॥ पंचास्तिकाय, गाथा ८१ २. पंचास्तिकाय, तत्त्वप्रदीपिका, गाथा ८१ ३. जीवा पुग्गलकाया सह सक्किरिया हवंतिण ये सेसा। पग्गलकरणा जीवाखंधा खलकाल करणा द॥ पंचास्तिकाय.गाथा ९८ ४. पुद्गलानां सक्रियत्वस्य बहिरंगसाधनं परिणामनिर्वर्तक: काल: न च कर्मादीनामिव कालस्याभावः। पंचास्तिकाय, तत्त्वप्रदीपिका, गाथा ९८ ५. पदार्थ विज्ञान, पष्ठ १९० ६. JamesHastings, Encyclopaedia of Religion and Ethics, Vol.111959,P.201 ७. पूर्व निर्दिष्ट - परमाणु शाश्वत है। 2010_03 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें परमाणु स्वयं निष्क्रिय और गतिहीन हैं, परन्तु उनको गति देने वाला कोई बाह्य कारण है, जिसे अदृष्ट अथवा ईश्वर कहा गया है । जैन दर्शन वैशेषिकों की इस मान्यताका भी निराकरण करता है, क्योंकि जैन दर्शनानुसार क्रियाशीलताकी शक्ति उपादान रूपसे पुद्गलमें ही होती है और काल उसका बाह्य निमित्त है । ईश्वर कर्तृत्व को जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता क्योंकि जैन दर्शनका सत्ता सिद्धान्त, सत्ताभूत पदार्थों को ही जगत् का कर्ता मानता है, परमात्म पदको प्राप्त आत्मा जगत् के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता। संक्षेपमें जैन मान्य परमाणुकी न्याय वैशेषिकके परमाणुसे समानता तथा विभिन्नताका विवेचन निम्न प्रकारसे किया जा सकता है - समानता१. जैन दर्शन और न्याय वैशेषिक दर्शन दोनोंने ही परमाणुको शाश्वत माना है, इनकी न सृष्टि होती है और न ही विनाश होता है। २. दोनों दर्शनोंका परमाणुवाद भौतिक जगत् की ही व्याख्या करता है । ३. विभिन्न परमाणुओंके संयुक्त होनेसे वस्तुओंका निर्माण होता है और परमाणुओंके विच्छेद होनेसे वस्तुओं का विघटन हो जाता है, इस तथ्यको दोनों दर्शनोंने ही स्वीकार किया है। विभिन्नता१. जैन दर्शनमें परमाणुको सक्रिय माना गया है, परन्तु न्याय वैशेषिक दर्शनमें परमाणु स्वयं निष्क्रिय और गतिहीन होते हैं, परन्तु ईश्वरकी शक्तिसे उसमें गतिशीलता आ जाती है, जैन दर्शनमें क्रियाशीलताको परमाणुका स्वाभाविक गुण माना गया है। २. जैनदर्शनमें सभी परमाणुओंको चतुर्गुण युक्त माना गया है, परन्तु न्याय वैशेषिकमें सबको समान रूपसे चतुर्गुण युक्त नहीं माना। ३. परमाणुओंके पारस्परिक संयोगका सिद्धान्त दोनों दर्शनों का भिन्न-भिन्न है। १. (क) James Hastings, Encyclopaedia of Religion and Ethics, VoI II P.201 (ख) प्रशस्तपाद भाष्य, पृ. २० २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृ० १६१ ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० १९ ४. संधवी सुखलाल, तत्त्वार्थसूत्र विवेचन, पृ० १३१, १३२ ___ 2010_03 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन वैशेषिक दर्शनमें परमाणुओंके संयोगको गुणाकार रूपमें माना गया है, परन्तु जैन दर्शनमें न्यायवैशेषिककी भाँति गुणाकार संयोगको नहीं माना गया।' बौद्धों के अनुसार अणुओंमें कोई पारस्परिक संयोग नहीं होता परन्तु जैन दर्शनका पौद्गलिक सिद्धान्त, बौद्ध मान्य इस धारणाका निराकरण करता है, क्योंकि परमाणुओंमें स्निग्ध और रूक्ष गुण पाये जाते हैं, जिसके कारण दो या दो से अधिक अणुओंसे स्कन्धोंका निर्माण होता है । १२. परमाणुसे स्कन्ध कैसे बनते हैं ? जैनाचार्यों ने परमाणुसे स्कन्ध बननेकी प्रक्रियाका अति सूक्ष्म और वैज्ञानिक ढंगसे प्रतिपादन किया है। इस प्रकारका वर्णन किसी भी अन्य दर्शनमें नहीं पाया जाता, इसी कारण परमाणुसे स्कन्ध निर्माणकी जैन मान्य प्रक्रिया अति विलक्षण कही जा सकती है। जैनदर्शनमें सभी परमाणुओंको चतुर्गुण युक्त और क्रियावान माना गया है। अपनी स्वाभाविक क्रियाके परिणाम स्वरूप परमाणुके स्पर्शादि गुणोंमें हीनाधिकता आती रहती है । ऐसे परमाणु जिनमें स्निग्धता अथवा रूक्षताका जघन्यांश अर्थात् एक ही अंश पाया जाता है, उनका परस्पर बन्ध नहीं होता। जिन परमाणुओंमें स्निग्धत्व और रूक्षत्व गुणोंका समान अंश हो अर्थात् समान गुण वाले दो परमाणुओंका भी परस्पर बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि स्निग्ध त्व गुण वाले परमाणु समान जातीय स्निग्धत्व गुण वाले अन्य परमाणुओंको विकर्षित करते हैं और रूक्षत्व गुण वाले विजातीय परमाणुओंको आकर्षित करते हैं। जैन मान्य यह सिद्धान्त विद्युत शक्तिमें भी स्पष्ट रूपसे देखा जा सकता है। और पुरूष तथा स्त्री जातिके असमान शरीरोंमें भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । दो या दो से अधिक ऐसे परमाणु, जिनके स्निग्धत्व और रूक्षत्व गुणके अंशोंमें भिन्नता पायी जाती है, मिलकर स्कन्धोंका निर्माण करते हैं।' दो अधिक गुणांश वाले परमाणुओंका ही परस्पर बन्ध हो सकता है । जिन १. न्याय सिद्धान्त मुक्तावली, कारिका १० २. नजघन्य गुणानाम्, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ५, सूत्र ३४ ३. गुण साम्ये सदृशानां, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ५, सूत्र ३५ 8. Like charge Repele and unlike attract each other. जिनेन्द्र वर्णी, कर्म सिद्धान्त, १९८१, पृ०२३ Two or more atoms which differ in their degree of smoothness and roughness May combine to form aggregates. Encyclopaedia of Religion and Ethics, Vol. II 1959, P. 199. ६. द्वयधिकादिगुणानांतु, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय - ५, सूत्र ३६ 2010_03 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें ७१ परमाणुओंमें गुणोंक अंश अधिक होते हैं, ऐसे परमाणु कम गुणांश वाले परमाणुओंको अपनेमें परिणत कर लेते हैं। अपने स्निग्धरूक्ष गुणोंके कारणस्कन्ध रूपमें परिणत होकर भी, परमाणु अपने स्वभावको नहीं छोड़ता, सदा एक द्रव्य रूप ही रहता है। १३. पंचविध वर्गणायें___वर्ग" जैन दर्शनका एक पारिभाषिक शब्द है । यह पुद्गल स्कन्धोंकी विभिन्न अवस्थाओंका परिचय कराता है। वर्गका लक्षण करते हुए कुन्दकुन्दाचार्यने कहा है – “शक्ति समूह लक्षणो वर्ग:"३ शक्तियों के समूहको वर्ग कहा जाता है । षड् द्रव्योंमें स्थित विभिन्न शक्तियोंको अनुभाग कहा जाता है । अनुभागके अविभाज्य, अन्त्यांशको अविभाग प्रतिच्छेद कहा जाता है, जो जड़ और चेतन सभी पदार्थों के गुणों में पाया जाता है। स्निग्धत्व, रूक्षत्व आदि समान गुणोंको धारण करने वाले परमाणु एक ही जातिके होते हैं। एक ही जातिके समान अविभाग प्रतिच्छेदों के समूहसे एक वर्ग बनता है और वर्गों के समूहसे वर्गणा बनती है - “वर्ग समूह लक्षणो वर्गणा"५ संक्षेपमें कहाजा सकता है कि समान अविभाग प्रतिच्छेद वाले परमाणुओंके समूहको वर्ग कहते हैं और वर्गों के समूहको वर्गणा कहते हैं। अविभाग प्रतिच्छेदोंकी हीनाधिकताके कारण वर्गणाओंकी अनन्त श्रेणियाँ हो जाती हैं, क्योंकि परमाणुओंकी हानि-वृद्धि हो जाने से वर्गणायें अपनी जाति बदल कर दूसरी जातिकी वर्गणामें परिणत हो सकती हैं। जीव के सर्वप्रकारके शरीरों और सूक्ष्म स्थूल स्कन्धोंकी उपादान कारण रूप प्रधान वर्गणायें पांच ही हैं - आहारक वर्गणा, तैजस वर्गणा, भाषा वर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मण वर्गणा; ये पांच वर्गणायें ही ग्रहण करने योग्य और व्यवहार्य हैं। ये पांच वर्गणायें ही स्थूल होकर औदारिकादि विभिन्न शरीरोंका निर्माण करती हैं । बाह्याभ्यन्तर जगत्का समस्त विस्तार इन पंचविध वर्गणाओंके कारण ही दृष्टिगोचर होता है। जैन दर्शनकी कर्मसिद्धान्त संबंधी समस्त धारणायें इन वर्गणाओं पर ही अवलम्बित १. बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च, वही, सूत्र ३७ २. स्निग्ध रूक्षत्व प्रत्ययबंधवशादनेक परमाणवेकत्व परिणति रूप स्कन्धांतरितोऽपि स्वभावमपरित्यजन्नुपात्तसंख्यत्वादेकमेवद्रव्यमिति । पंचास्तिकाय, तत्त्वप्रदीपिका, गाथा ८१ - ३. समयसार, आत्मख्याति, गाथा ५२ ४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० २११ समयसार, आत्मख्याति, गाथा ५२ ६. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग III, पृ०५२० तत्थ आहारतेजभाषामणकम्मइयवग्गणाओगहणपाओग्गाओ। षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १४, खण्ड ५, पृ० ५४५ 2010_03 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन हैं। इसीलिए इन वर्गणाओं का विस्तृत विवेचन आवश्यक है। क. आहारक वर्गणा आहारक नामकी प्रथम वर्गणा औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन प्रकारके.शरीरोंकी निर्मात्री है । ये तीनों शरीर, यद्यपि उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं, परन्तु तैजस और कार्माण शरीर की अपेक्षा अति स्थूल हैं । सुखलाल संघवी ने स्थूल - सूक्ष्मकी विवेचना करते हुए कहा है कि स्थूल और सूक्ष्मका अर्थ है, रचनाकी शिथिलता और सघनता । उदाहरणार्थ भिंडीकी फली और हाथीके दाँत दोनों समान आकारके होने पर भी भिंडीकी रचना शिथिल है और दाँत की रचना ठोस अर्थात् सघन है। औदारिक शरीर सबसे अधिक स्थूल है, वैक्रियिक उससे सूक्ष्म और आहारक शरीर इन सबसे सूक्ष्म है। ___ आहारक वर्गणाका प्रथम कार्य औदारिक शरीरका निर्माण करना है। उदार अर्थात् सब शरीरोंसे स्थूल होने के कारण ही इसे औदारिक शरीर कहा जाता है। मनुष्य, पशु, पक्षी और कीट पतंगादिके शरीर इसी कोटि में गिने जाते हैं। ये परस्पर एक दूसरेसे प्रतिघातित होते हैं। आहारक वर्गणाका दूसरा कार्य वैक्रियिक शरीरका निर्माण करना है । यह शरीर देव और नारकियोंको प्राप्त होता है । विशेष तपस्या द्वारा प्राप्त लब्धि विशेषसे वैक्रियिक शरीर मनुष्योंको भी प्राप्त हो सकता है। एक, अनेक, छोटा, बड़ा आदि नाना प्रकारके शरीरोंका निर्माण करना विक्रिया है, विक्रिया प्रयोजन होने के कारण ही इस शरीरको वैक्रियिक शरीर कहा जाता है। यह शरीर भी यद्यपि परमाणुओंके संयोगसे बनता है, परन्तु वैक्रियिक शरीरके परमाणुओंमें जातियताकी अपेक्षा भेद होता है । यद्यपि वैक्रियिक शरीरके परमाणु स्थूलताका उल्लंघन नहीं कर पाते, परन्तु फिर भी औदारिक शरीरकी अपेक्षा बहुत अधिक सूक्ष्म होते हैं। इसी कारण सिद्धान्तमें इनका कार्यभूत वैक्रियिक शरीर भी औदारिक शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म माना गया है। १. संघवी सुखलाल, तत्वार्थ सूत्र विवेचना, पृ०७२ २. पर पर सूक्ष्मम्, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय २, सूत्र ३७ ३. णाम णिरूत्तीए उरालमिदि ओरालिए" षट्खण्डागम १४, सूत्र २३७, पृ० ३२२ ४. वैक्रियकमौपपादिकं लब्धिप्रत्ययं च । तत्वार्थ सूत्र, अध्याय २, सूत्र ४६,४७ ५. सर्वार्थसिद्धि, पृ० १९१ ६. औदारिक स्थूल तत: सूक्ष्मम् वैक्रियिकम्, सर्वाथसिद्धि, पृ० १९२ 2010_03 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें ७३ आहारक वर्गणाका तृतीय कार्य आहारक शरीरका निर्माण करना है । यह शरीर वैक्रियिक शरीरकी अपेक्षा भी अधिक सूक्ष्म है। यह शरीर ज्ञानी, वीतरागी तथा तपस्वी योगियोंको ही प्राप्त होता है। इसकी जाति एक विशिष्ट प्रकारकी होती है। इसमें औदारिक शरीरकी भाँति रक्त आदि सप्त धातुएं और अस्थि चर्म आदि भी नहीं होते । यह शरीर श्वेतवर्ण वाले, एक हस्तप्रमाण पुतलेके रूपमें मुनिके मस्तकसे प्रगट होता है, ऐसी जैनोंकी मान्यता है। अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण यह किसी पदार्थका व्याघात नहीं करता और न ही अन्य से व्याघातित होता है। वज्रके समान कठोर पटलोंमें से भी पार होकर, यह कई लाख योजन तक बिना रूकावटके गमन करने में समर्थ होता है । इस प्रकारके गमन को “अप्रतिहत गमन” कहा जाता है। इस प्रकार आहारक वर्गणा एक ही जातिकी होते हुए भी उत्तरोत्तर सूक्ष्म तीन प्रकारके शरीरोंका निर्माण करती है, जो एक दूसरेसे विलक्षण तथा विजातीय होते हैं। ख. तेजस वर्गणा दूसरी वर्गणाका नाम तैजस है । इसके द्वारा तैजस शरीरका निर्माण होता है, जो औदारिक, वैक्रियिक तथा आहारक इन तीनोंकी अपेक्षा भी अधिक सूक्ष्म है। सूक्ष्म होनेके कारण यह शरीर इन्द्रिय गोचर नहीं होता, परन्तु औदारिक नामक स्थूल शरीरमें यह तेज या प्रभा उत्पन्न करता है। तैजस शब्द लोकमें अग्नि नामक महाभूत के लिए प्रयोग होता है। अग्निका ही अन्यतम रूप आणविक विस्फोट है, जिसके द्वारा पर्वतोंको भी विदारण किया जा सकता है। तेजस शरीरमें भी यह प्रलंयकारी शक्ति विद्यमान होती है। शास्त्रों में तैजस शरीरको दो प्रकारका कहा गया है - अनि:सरणात्मक और नि:सरणात्मक |अनि:सरणात्मक तैजस शरीर, औदारिक शरीरमें तेज, कान्ति अथवा दीप्ति उत्पन्न करता है, जठराग्निको उत्तेजित करता है और भुक्त अन्नका पाचन करता है। १. तत: सूक्ष्मं आहारक - सर्वार्थसिद्धि, पृ० १९२ २. उत्तम अंगम्हि हवे धादुविहीणंसुहं असंहणणम् । सुहसंठाणं धवलं हत्थ परमाणं पसत्थुदयम् । गोम्मटसार जीव काण्ड/गाथा २३७ ३. नयाहारक शरीरेणान्यस्य व्याघातो, नाप्यन्येनाहारकस्य, राजवार्तिक पृ० १५२ ४. अणेयजोजणलक्खगमणक्खमं अपड़िहयगमणम् - षट्खण्डागम धवला टीका पुस्तक ४, खण्ड १, पृ०२८ ५. तत: (आहारकादपि) सूक्ष्म तैजसम् । सर्वार्थसिद्धि, पृ० १९२ ६. तेयप्पहगुणजुतमिदि तैजइयम । षटखण्डागम १४, सूत्र २४०, पृ० ३२७ . ७. जंतमणिस्सरणप्पयं....वही, पृ० ३२८ 2010_03 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन निस्सरणात्मक तैजस शरीर, संयमके निधानभूत किसी मुनिको ही प्राप्त होता है, अस्मद् - युष्मद् शब्दोंसे निर्दिष्ट होने वाले सामान्य जनको नहीं। यह प्रशस्त तथा अप्रशस्तके भेद से दो प्रकारका होता है। प्रशस्त तैजस शरीर को लेकर जो जीव दायें कन्धेसे निकलता है वह दुर्भिक्ष, व्याधि, वेदना, उपसर्ग आदिके प्रशम द्वारा सब प्राणियों को तथा स्वयं अपनेको भी सुख शान्ति प्रदान करता है और अप्रशस्त तैजस शरीर बायें कन्धे से निकलकर स्व तथा परके अनिष्टका कारण होता है। तैजस शरीरके उपरोक्त लक्षणोंसे चार मुख्य विशिष्टताओंका द्योतन होता है - यह प्रकाशमयी होता है, प्रचण्ड उष्णता को धारण किये होता है, प्रलयकारी शक्ति और अमृतसावी शीतलता, दोनों शक्तियोंको धारण किये होता है। पार्थिव अग्निमें यद्यपि प्रकाश, उष्णता तथा प्रलयकी तीन शक्तियाँ पायी जाती हैं, परन्तु अमृतसावी शीतलता नहीं होती । अग्निकी भाँति सूर्यमें भी ये तीनों शक्तियाँ पायी जाती हैं । अमृतस्रावी शक्ति चन्द्रमामें देखी जा सकती है। जैनों द्वारा मान्य इस तैजस शरीरकी तुलना विद्युत शक्ति से की जा सकती है, क्योंकि विद्युतसे आश्रय लेने पर प्रकाश, फ्रीजका आश्रय लेने पर शीतलता, हीटर आदिका आश्रय लेने पर उष्णता और विस्फोटक पदार्थों का आश्रय लेने पर प्रलयंकारी शक्ति उत्पन्न हो जाती है। ग. भाषावर्गणा तीसरी वर्गणाका नाम भाषा वर्गणा है । परस्परमें संश्लिष्ट हुए भाषा वर्ग के परमाणु भाषाके निर्माणमें हेतु होते हैं । भाषा दो प्रकारकी होती है -साक्षर और अनक्षर ।' व्यवहार भूमि पर प्रसिद्ध हमारे इस कण्ठ द्वारसे जो ध्वनि निकलती है वह साक्षर होती है और जैन मान्य दिव्य ध्वनि, ढोल, भेरी, नगाड़ा, मेघ गर्जना आदि और द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवोंके मुखसे उत्पन्न हुई भाषा तथा बालक और मूक मनुष्योंकी भाषा अनक्षरात्मक होती है । भाषाके ये विभिन्न रूप भाषा वर्गणा के ही कार्य हैं। सुख लाल संघवीने तत्त्वार्थ सूत्र विवेचना में कहा है कि जैन मान्य शब्द में वैशेषिक, नैयायिक आदि दर्शनों के समान कोई गुण नहीं है, अपितु भाषा वर्गणाके पुद्गलोंका एक विशिष्ट प्रकार का परिणाम १. तेजा सरीरं दुविहं पसत्थमपसत्थं चेदि, षट्खण्डागम धवला ७, भाग २, पृ० ३०० २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, पृ० ३९४ ३. भाषा लक्षणो द्विविध: साक्षरोऽनक्षरश्चेति, सर्वार्थसिद्धि, पृ० २९४ 2010_03 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें ७५ है ।' यद्यपि भाषा शब्द सुनकर प्राय: अक्षर, शब्द, वाक्य आदिके सम्मिलित स्वरूपका ग्रहण होता है, परन्तु यहाँ इसका अर्थ वह सामान्य ध्वनि है, जो अक्षर, शब्द, वाक्य आदिमें सर्वत्र अनुगत है । स्वर तथा व्यंजनका समूह तथा उनके योगसे उत्पन्न शब्द व वाक्य आदि स्वयं सत्ताधारी नहीं है । ये सब ध्वनिके उपाधिकृत कार्य अथवा परिणाम हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने इन्हें पुद्गल की पर्याय कहा है | जैनकी एक विशेष मान्यता है कि सर्वकर्मों का क्षय हो जाने पर, केवलज्ञान होने के पश्चात्, अर्हत् देवके सर्वांगसे एक विचित्र गर्जना रूप ओंकार ध्वनि निकलती है । भगवानकी इच्छा न होते हुए भी भव्य जीवोंके कल्याणके लिए यह ध्वनि सहज ही निकलती है, इसमें तालु, दन्त, औष्ठ तथा कण्ठके हिलने रूप कोई व्यापार नहीं होता । यह वाणी सब प्राणियोंका हित करने वाली तथा वर्ण विन्यास रहित होती है ।" यह वाणी प्राणियोंका अज्ञान दूर करके उन्हें तत्त्वबोध कराने वाली होती है । सब प्रकारकी उपाधियोंसे रहित होने के कारण ही यह मेघ गर्जन अथवा घंटा निनाद जैसी होती है। इस प्रकार भाषा वर्गणा, आहारक वर्गणा जैसी स्थूल नहीं है, अपितु अपनी ही जातिका एक विशिष्ट स्कन्ध है जो आहारक वर्गणासे सूक्ष्मतर है । मनोवर्गणा घ. भाषा वर्गणासे भी सूक्ष्म चतुर्थ वर्गणाका नाम मनोवर्गणा है । भाषा वर्गणाके पारस्परिक संश्लेषसे, इस शरीरमें “मन” नामक सूक्ष्म शरीरकी रचना होती है | आगमके उल्लेखानुसार - हृदयस्थल पर अष्टदल कमलके आकार वाली एक विशेष प्रकारकी रचना है, जो मनोवर्गणाके स्कन्धोंसे उत्पन्न होती है। शरीरका अंग होने के कारण इस रचनाको " द्रव्यमन” कहा जाता है । ७ नेत्र, श्रोत्र आदि की भाँति यह भी यद्यपि एक इन्द्रिय है, परन्तु नेत्रादिकी भाँति प्रत्यक्ष न होनेके १. तत्त्वार्थ सूत्र विवेचना, पृ० १२९ २. प्रवचनसार, गाथा १३२ ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग दो, पृ० ४२९ ४. एदासिं भासाणं तालुवदंतोट्ठकंठवावारं । परिहरियं एक्ककालं भव्वजणाणंदरभासो | तिलोएपण्णति, अधिकार, १, गाथा ६२ ५. “ यत्सर्वात्महितं न वर्ण सहितं” पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति, गाथा १ ६. महापुराण, सर्ग २३, श्लोक ६९ ७. हिदि होदिहु दव्वमणं वियसिय अट्ठच्छदारविंदं वा । अंगोवंगुदयादो मणावग्गणखंददो णियमा ॥ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ४४३ 2010_03 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन कारण यह अनिन्द्रिय या ईषत् इन्द्रिय कहलाती है। मनके सकल कार्य आभ्यन्तर ही होते हैं, उनके लिए नेत्रादि इन्द्रियों का आश्रय नहीं लेना पड़ता, इसीलिए इस मनको "अन्तर्गतकरण" अथवा "अन्तष्करण" भी कहा जाता है। इस मन या अन्त:करणको अनेकविध विकल्प जाल रूप माना गया है। जैन मान्य मनकी तुलना सांख्य मान्य मनसे की जा सकती है, क्योंकि सांख्य दर्शनमें भी इस विचित्र इन्द्रियको संकल्प विकल्पात्मक माना गया है।" यद्यपि मनको अनिन्द्रिय कहा गया है, परन्तु सब इन्द्रियाँ इसीकी चेष्टासे ही चेष्टाशील हैं । इन्द्रिय जनित समस्त ज्ञान और क्रियाएं मनके द्वारा ही चालित होती हैं, इसीलिए मनको इन्द्रियोंका राजा भी कहा जाता है। मनके इस स्वरूप पर से इसकी कारणभूता मनोवर्गणाके स्वरूपका स्मष्ट अनुमान कियाजासकता है, क्योंकि कारणके गुणही कार्यमें अभिव्यक्त हुआ करते हैं। यह वर्गणा जहां ध्वन्यात्मक स्पन्दन का आश्रय है, वहाँ संकल्प, विकल्प, गुण, दोष, विचार औरस्मरणादिकार्यकरने के लिए भीसमर्थ है।' इसप्रकार यह वर्गणासूक्ष्मताकेक्षेत्रमें आगे बढती हुई, पौद्गलिक होते हुए भी जीवात्माके आश्रयसे चेतनवत प्रतीत होने लगती है। ड. कार्मण वर्गणा अन्तमें कार्मण नामकी उस वर्गणाका उल्लेख प्राप्त होता है, जो कर्मसिद्धान्तका मूल है। प्रसंगवश इसके कार्यभूत कर्म शब्दका उल्लेख पहले कई बार हो चुका है और अग्रिम अध्यायोंमें इसका विस्तृत विवेचन किया गया है। मन, वचन और कायके द्वारा जीवात्माकी कर्मचेतना जो कुछ भी विचारती है, बोलती है अथवा चेष्टा करती है वह सब उसका कर्म कहलाता है। कर्तृत्व युक्त होनेके कारण ही उसे कर्म चेतना कहा गया है। यद्यपि यह चेतनावत् प्रतीत अवश्य होती है, परन्तु यथार्थमें कामण वर्गणासे उत्पन्न होनेके कारण पौद्गलिक ही है क्योंकि इस वर्गणाके पुद्गल स्कन्ध कर्मों के योग्य होते हैं और रागद्वेषादि १. णोइंदियत्ति सण्णा तस्स हवे......गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाया ४४४ २. इन्द्रियानपेक्षत्वाच्चक्षुरादिवत् बहिरनुपलब्धेश्च अन्तर्गते - करणमन्त: करणमित्युच्यते। सर्वार्थसिद्धि, पृ० १०९ ३. नाना विकल्पजाल रूप मनोभण्यते। वृहदद्रव्य संग्रह, गाथा १२, पृ० ३० ४. संकल्पकमिन्द्रियं च, सौख्यकारिका, ने० २७ । ५. "युगपज्ज्ञानक्रियानुत्पलिमनसो हेतु:* राजवार्तिक, पृ०५७ ६. सवार्थसिद्धि, पृ० १०९ ७. पश्चनिर्दिष्ट- अध्याय ४,५ ८. स्वेहापूर्वेष्टानिष्ट विकल्परूपेण विशेष रागद्वेष परिणमनं ; कर्मचेतना, वृहदद्रव्यसंग्रह, (गाथा १५) ९. जैनेद्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ० ५२१ 2010_03 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें ७७ परिणामों के निमित्त से उत्पन्न होते हैं। धवलामें कहा गया है कि “कर्मणि भव वा कार्मणं कर्मैव वा कार्मणमिति कार्मणशब्द व्युत्पते:"।' कर्ममें होना अथवा कर्मरूपहोना ही कार्मण शब्दका व्युत्पत्ति अर्थ है। मनोवर्गणा नामक चतुर्थ वर्गणा यद्यपि अत्यधिक सूक्ष्म हो जाती है, परन्तु कार्मण वर्गणाकी इस पंचम श्रेणीको प्राप्त हो जाने पर यह सूक्ष्मता, चरम सीमाको प्राप्त हो जाती है। यहां आकर यह बौद्धमान्य आलय विज्ञान ओर मनोविज्ञानिकोंकी उपचेतनाके समान हो जाती है, जो जीवके द्वारा किये गये समस्त कर्मों के समस्त संस्कारोंको अपने में धारण करने में समर्थ है। समस्त संस्कारोंको धारण करने वाला कार्मणवर्गणाका कार्यभूत कार्मण शरीर, स्थूल शरीरके छूट जानेपर भी जीवके साथ भव भवान्तरमें भ्रमण करता रहता है। कार्मण वर्गणाओंके पारस्परिक संश्लेषसे उत्पन्न यह सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीरसे क्षीरनीरकी भाँति एक रूप रहता है, परन्तु सूक्ष्म होनेके कारण दृष्टिपथमें नहीं आता। यद्यपि तैजस शरीर भी सूक्ष्म है और स्थूल शरीरमें एकरूप होकर रहता है, परन्तु कार्मण शरीर तैजस शरीरसे अधिक सूक्ष्म है।' कार्मण वर्गणा रूप, रस, गन्ध वाले परमाणुओंका कार्य होने के कारण मूर्त, साकार और पौद्गलिक होते हुए भी इन्द्रियगोचर तथा अप्रतिघाती होनेके कारण अमूर्त निराकार और अपौद्गलिक प्रतीत होती है । यद्यपि पौद्गलिकत्व, मूर्तत्व और साकारत्वका इस वर्गणामें प्रत्यक्ष किया जाना संभव नहीं है परन्तु मूर्त विषयों द्वारा फलभोग किये जानेके कारण इसका ज्ञान, अनुमान प्रमाणसे या आगम प्रमाणसे किया जा सकता है। कार्मणशरीर जीवोंके समस्त आगामी कर्मों का प्ररोहक, आधार तथा उत्पादक है और त्रिकालगोचर समस्त सुख तथा दु:ख का बीज है। यद्यपि यह शरीर दृष्टिपथ में नहीं आता, परन्तु इसके बिना औदारिक शरीरका कोई मूल्य नहीं है। मृत्युके समय बाहरका यह स्थूल शरीर जीवसे पृथक् हो जाता है, परन्तु कार्मण शरीर अनादि कालसे, भव भवान्तरमें भी सदा जीवके साथ ही जाता है। यह कार्मण शरीर, उस समय तक जीवसे पृथक् नहीं होता, जब तक जीव स्वयं १. षट्खण्डागम, धवला १४, खण्ड ५, पृ० ३२८ २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग एक, पृ०७५ ३ तेजसात् कार्मणं सूक्ष्ममिति-सर्वार्थसिद्धि,पृ० ३७ ४. अप्रतिघाते, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय २, सूत्र ४० ५. सर्वार्थसिद्धि, पृ० १९ ६. सव्वकम्माण परूहणुप्पादयं सुहृदुक्खाणं बीजमिदि-षटखण्डागम १४, सूत्र २४१ ___ 2010_03 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन साधनाके द्वारा कोका विनाश नहीं कर देता । कर्मवर्गणाओंका जीवसे पृथक् हो जाना ही कर्मों का विनाश है । तैजस शरीर भी एक सहायकके रूपमें सदा इसके साथ रहता है। परलोकयात्रामें ये दोनों शरीर ही अनादिकालजीवके साथ रहते आये हैं और सभी संसारी जीवोंके होते हैं ।' कार्मण शरीरका कार्य जीवोंके संस्कारोंको धारण करना है और तैजस शरीरका कार्य औदारिक आदि शरीरोंमें चेष्टा तथा स्फूर्ति उत्पन्न करना है । उपरोक्त सर्व लक्षणों के आधारपर यह निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि कार्मण शरीर तथा इसकी योनिभूता कार्मण वर्गणाका स्वरूप अत्यधिक विलक्षण और सूक्ष्म है । मन-वचन-कायसे मनुष्य जो कुछ भी कार्य करता है, उसके समस्त संस्कार चित्त भूमिपर अंकित होते जाते हैं। इन संस्कारोंके अंतिम अंश "संस्काराणु" कहलाते हैं जिनका आगे विभाग संभव नहीं होता। जिस प्रकार भौतिक परमाणुओंके संश्लेषसे भौतिक स्थूल शरीर बनते हैं, उसी प्रकार संस्काराणुओंके संश्लेषसे सूक्ष्म शरीर बनता है, जिसे यहाँ कार्मण शरीर कहा गया है । यह शरीर ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्म स्कन्धोंका समूह है । १४. कार्मण शरीरका शोध यद्यपि कार्मण शरीरके स्वरूपका शोध कार्य नगण्य तुल्य है, परन्तु फिर भी इस विषयमें जो विचारनायें उपलब्ध हैं, उन्हें इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता यद्यपि यह जड़ है, परन्तु सर्वथा जड़न होकर जड़ तथा कर्मचेतनाके मध्यमें स्थित कोई ऐसी वस्तु है, जिसमें दोनोंके अंश विद्यमान हैं। जिस प्रकार दो विभिन्न धातुओंके पदार्थों को परस्पर वैल्ड करने पर उनकी मध्यवर्ती सन्धिमें एक ऐसी धातु बन जाती है, जिसमें दोनों के अंश विद्यमान होते हैं, यदि ऐसा न हो तो दोनों धातुएं परस्परमें बन्धनको प्राप्त नहीं हो सकती, इसी प्रकार स्थूल शरीर और कर्मचेतनाके मध्यमें स्थित कार्मण शरीरमें, भौतिक तथा चिदाभासी दोनोंके तत्त्वांश विद्यमान हैं, यदि ऐसा न होता, तो बाहरका यह पार्थिव शरीर, चिदाभासी चेतना अथवा कर्मचेतनाके साथ बन्धनको प्राप्त नहीं होता। शरीर तथा जीवके बन्धनमें हेतु देते हुए आचार्योने जीवके समस्त औदयिक तथा १. अनादि संबंधे च, सर्वस्य, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय २, सूत्र ४१-४२ २. गोम्मटसार जीव काण्ड, गाथा १४१ ३. जैन खूबचन्द, एपीप इन टु जैनिजम, १९७३, पृ० १९९ 2010_03 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें क्षायोपशमिक भावोंको अर्थात् काषायिक और वैकल्पिक जगत् को कथंचित् पौद्गलिक तथा मूर्तीक स्वीकार किया है, परन्तु यह पौद्गलिकत्व रूप, रस, गन्ध, स्पर्श वाले पुद्गल जैसा नहीं है । कार्मण शरीर वाला यह पुद्गल, वह मध्यवर्ती धातु है, जो रूप, रस, गन्ध वाले जड़ पुद्गलको रूप, रस, गन्ध विहीन चिदाभासी पुद्गलके साथ संयुक्त करती है । इस प्रकार जड़ परमाणु और चिदाभासी संस्काराणु दोनों के संश्लेषसे बना कार्मण शरीर विलक्षण है, जिसमें किसी न किसी रूपमें दोनोंके अंशोंका स्पर्श पाया जाता है। कार्मण वर्गणाओंसे निर्मित कार्मण शरीरकी तुलना सांख्य मान्य सूक्ष्म शरीरसे की जा सकती है। कार्मण शरीरका उपादान कारण पुद्गल और निमित्त कारण आत्माको माना गया है। पुद्गल द्रव्य अचेतन होकर भी कर्मबद्ध संसारी जीवात्माके संसर्गसे, कर्मरूपमें परिणत होकर चेतनके सदृश ही व्यवहार करता है। सांख्यमत में सूक्ष्म शरीर पुरूषाधितिष्ठित होकर मनुष्य, देव, तिथंच रूप भूतसर्गका निर्माण करता है। जैनमतानुसार आत्मा स्वयं मनुष्य, पशु, देव और नारक रूप नहीं है, अपितु आत्माधितिष्ठित कार्मण शरीर भिन्न भिन्न यौनियोंमें जाकर मनुष्य, देव, नारक इत्यादि रूपोंका निर्माण करता है, क्योंकि पुनर्जन्मके चक्रको गतिशील रखने वाले मूलभूत बीज कार्मणशरीरमें ही होते हैं, जो विभिन्न जीवोंमें विभिन्न प्रकारकी क्रियाओंके अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं । इसी विभिन्नताके आधारपर ही कार्मण शरीरसे बने स्थूल शरीरोंमें विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है । कार्मण शरीर समस्त पूर्व कर्मों का फल देने वाले सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओंका पुंज होता है । यह आत्माकी पूर्ण ज्ञान शक्तिको आवृत्त करता है और आनन्द स्वरूपको विकृत कर क्रोधादिमें परिणत करता है। जिनेन्द्र वर्णीने कार्मणवर्गणाओंको टेपसे उपमित किया है, जिस पर वक्ताओंके विविध भाषण, गीत तथा संगीत अंकित हो जाते हैं। टेप को आँखोंसे देखने पर वह एक प्लास्टिककी पट्टी मात्र दिखाई देती है, उसके ऊपर जो विशेषपदार्थ लिप्त होता है, वह हमें दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार औदारिक शरीर तो हमें दिखाई देता है, परन्तु उसमें लिप्त कार्मण वर्गणाओंसे बना शरीर दिखाई नहीं देता। १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ० ३२७ २. मालवणिया, दलसुख, आत्ममीमांसा, १९५३, पृ० १०५ ३. सांख्यकारिका, कारिका न. ४० ४. जैन खूबचन्द, एपीप इन टु जैनिज़म पृ० १९८ ५. जैन रतनलाल, आत्म रहस्य, १९६१, पृ०९५ ६. कर्म रहस्य, पृ० ११९ 2010_03 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त - एक अध्ययन! मनसे, वचनसे अथवा कायसे हम जो कुछ भी अच्छा या बुरा विचारते हैं। अच्छा या बुरा बोलते हैं अथवा अच्छा या बुरा करते हैं, वे ज्योंके त्यों कार्म शरीरपर टेपरिकार्डरकी भाँति अंकित हो जाते हैं । यही चित्तका वह अक्षयको बन जाता है जिसे उपचेतना भी कहा जाता है । ८० जिस प्रकार मशीन माध्यमसे हम टेपपर अंकित ज्योंका त्यों सब कुछ सुन सकते हैं, उसी प्रकार विशेष काल प्राप्त होने पर मन, वचन, काय माध्यम से, कार्मण वर्गणाओंपर अंकित सब कुछ ज्यों का त्यों अनुभव कर सकते हैं। जैसा संस्कार उस पर अंकित होता है, वैसा ही मनके द्वारा हम विचारते हैं। वचन के द्वारा हम बोलते हैं और शरीरके द्वारा वैसा ही कार्य हम करते हैं। जैस ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा जानते हैं, वैसा ही कर्मेन्द्रियोंके द्वारा करते हैं और अन्त:करण के द्वारा भोगते हैं । इस प्रकार ज्ञातृत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्वका वाहक तथ परिचालक कार्मण शरीर ही है । सूक्ष्मता के कारण यद्यपि यह दृष्टिपथमें नहीं आता, परन्तु कर्मके क्षेत्रम इसका महत्व सर्वोपरि है। जड़ होते हुए भी टेप के समान मन-वचन-कायक संस्कारों को ग्रहण कर लेने के कारण चेतनवत् प्रतीत होता है । १५. पंचविध शरीरोंका तुलनात्मक विवेचन 1 जैनदर्शनानुसार उपरोक्त पंचविध वर्गणाओंसे पांच शरीरोंका निर्माण माना गया है - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण । पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि औदारिक शरीर सबसे स्थूल होता है । औदारिक से सूक्ष्म वैक्रियिक, वैक्रियिकसे सूक्ष्म आहारक, आहारकसे सूक्ष्म तैजस और कार्मणशरी सबसे सूक्ष्म होता है । मनुष्य व तिर्यञ्चोंका स्थूल और दृष्टिगत शरीर औदारिक होता है । देव और नारकियोंका शरीर जन्मसे ही वैक्रियिक होता है, परन्तु मनुष्यों को यह शरीर विशेष तपस्याके बलसे ही प्राप्त हो सकता है । आहारव शरीर विशेष तपस्वियोंको केवल मनुष्यगतिमें ही प्राप्त होना संभव है और तैजस और कार्मण शरीर सभी संसारी जीवोंको प्राप्त है। अंतिम दोनों शरीरोंका संबंध सभी संसारी जीवोंके साथ नित्य ही रहता है, स्थूल शरीरके छूटने पर भी यह शरीर जीवके साथ ही रहता है। ये दोनों शरीर प्रतिघात रहित होते हैं । इनकी गतिमें १. औदारिक, वैक्रियिकाहारक तैजसकार्मणानि शरीराणि तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय, २, सूत्र ३६ २. औपपादिकं वैक्रियिकम्, लब्धि प्रत्ययंच, तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय २, सूत्र ४६, ४७ ३. शुभंविशुद्धमव्याधाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव, वही, सूत्र ४९ ४. पूर्व निर्दिष्ट, वर्गणायें । 2010_03 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ पुद्गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें किसी भी प्रकारसे बाधा संभव नहीं है । यह स्पष्टीकरण कार्मण और तैजस वर्गणामें निर्दिष्ट किया जा चुका है। __ जैनमान्य पंच शरीरों में से स्थूल शरीरके रूपमें औदारिक शरीर और सूक्ष्म शरीरके रूप में कार्मण शरीरको तो प्राय: सभी दर्शनोंमें किसी न किसी रूप में माना गया है, परन्तु तैजस शरीरका उल्लेख, अन्य दर्शनोंमें जैनोंकी तरह पृथक रूपसे नहीं किया गया। तैजसको प्रतिभा और ओजके रूपमें प्राय: सभी दर्शनोंने स्वीकार किया है । वेदान्तमें भी औदारिक, कार्मण और तैजस शरीरोंको माना गया है। वेदान्तमें औदारिकको स्थूल शरीर कहा है, जो सभी जीवोंके प्राप्त होता है और कार्मण और तैजस नामक शरीरको सूक्ष्म शरीर कहा है जो संसार चक्रमें घूमते हुए जीवके साथ नित्य रहता है । आगामी शरीरके बीज सूक्ष्म शरीरमें ही संचित रहते हैं। जैन मान्य औदारिक शरीरको वेदान्त, सांख्य और न्यायवैशेषिकादि सभी दर्शनों में स्थूल शरीर कहा गया है, व्यक्त होने के कारण इस शरीरको “व्यक्त" संज्ञा भी दी गई है। सूक्ष्म तथा अव्यक्त होने के कारण कार्मण शरीरको “अव्यक्त” या सूक्ष्म शरीर कहा जाता है, अन्य शरीरोंका कारण होने के कारण इस शरीरको कारण शरीर और लिड्० शरीर भी कहा जाता है । जैनमान्य इन दी शरीरोंका सांख्यादि दर्शनोंसे निम्न प्रकार तुलनात्मक अवलोकन किया जा सकता है - १. जिस प्रकार जैन दर्शनमें औदारिक शरीरको कार्मण शरीरसे भिन्न माना गया है, उसी प्रकार सांख्य दर्शनमें भी सूक्ष्म शरीर को स्थूल शरीरसे भिन्न माना गया है। जैन मतानुसार यद्यपि दोनों शरीर पौद्गलिक हैं, परन्तु औदारिक शरीरका निर्माण आहारक नामकी वर्गणाओंसे और कार्मण शरीरका निर्माण कार्मण नामकी वर्गणाओंसे होता है । सांख्यदर्शन में भी दोनों शरीरोंका कारण पृथक्-पृथक् माना है । सांख्यने एकको मातृपित जन्य और दूसरों को तन्मात्रिक कहा है। ३. जैन मतानुसार औदारिक शरीर मत्युके समय छुट जाता है और जन्मके समय पुन: नवीन उत्पन्न हो जाता है, परन्तु कार्मण शरीर मृत्युके समय १. जैन, खूबचन्द, ए पीप इन टु जैनिज़म, १९७३,पृ० १९८ २. सांख्यकारिका, नं० ३९ 2010_03 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन एक स्थान से दूसरे स्थान पर जीवके साथ ही गमन करता है ।' सांख्यमतानुसार भी स्थूल शरीर छूटता रहता है और नवीन उत्पन्न होता रहता है, परन्तु सूक्ष्म शरीर जीवके साथ एक स्थानसे दूसरे स्थानपर गति करता रहता है ।२ जैन दर्शनानुसार अनादिकालसे संबद्ध कार्मण शरीर मोक्षके समय पृथक हो जाता है, सांख्य मतमें भी मोक्षके समय सूक्ष्म शरीर जीवसे पृथक् हो जाता है। जैन दर्शनमें कार्मण शरीरको उपभोग रहित माना गया है, इसी प्रकार सांख्य दर्शनमें भी सूक्ष्म शरीरको उपभोग रहित कहा गया है ।' अर्थात् औदारिक शरीर इन्द्रियों के द्वारा भोग करता है, परन्तु अन्तका सूक्ष्म या कार्मण शरीर, इन्द्रियोंके द्वारा भोग करने में समर्थ नहीं होता। ६. सांख्यमें सूक्ष्म शरीरको जैनोंके समान ही अव्याहत गति वाला माना गया है । सांख्य मान्य प्रकृति, अचेतन होते हुए भी, पुरूष संसर्गके कारण, चेतनके समान व्यवहार करती है, इसी प्रकार जैन मान्य पुद्गल द्रव्य अचेतन होते हुए भी आत्मसंसर्गसे कर्म रूपमें परिणत होकर चेतन सदृश ही प्रतीत होते हैं। जैन दर्शनानुसार मोह, राग, द्वेषादि भावोंका निमित्त पाकर पौद्गलिक द्रव्य कार्मण शरीरके रूपमें आत्माके साथ संबंधित हो जाता है । इस प्रकार भावों व कार्मणशरीरमें यद्यपि सांख्यके समान बीजांकुरवत् कार्य-कारण भाव है, परन्तु सांख्यके समान, जैन दर्शनमें रागादि भावको केवल प्रकृतिका नहीं माना अपितु उनका उपादान कारण जीवको और निमित्त कारण पुद्गलको माना है, क्योंकि जैन दर्शनमें जीवको सांख्य दर्शनके समान कूटस्थ नहीं माना, वह संसार अवस्थामें रागद्वेषादि भावोंके रूपमें परिणमन करता रहता है । कार्मण शरीरका उपादान कारण पुद्गल ही है। जैन मान्य रागद्वेषादि भावोंको सांख्य मान्य प्रत्यय सर्गमें समाविष्ट किया जा सकता है। अविग्रहगतौ कर्मयोगः, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय २, सूत्र २५ २. सांख्य कारिका,४० ३. सांख्य कारिका ४४, डॉ० ब्रजमोहन चतुर्वेदी, अनुराधा व्याख्या १९६९ पृ० १५३ ४. निरूपभोगमन्त्यम्, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय २, सूत्र ४५ . ५. संसरति निरूपभोगम, सांख्यकारिका, ४० ६. आत्ममीमांसा, पृ० १०४ 2010_03 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गल द्रव्य और पुद्गल की सूक्ष्म स्थूल अवस्थायें ८३ इस प्रकार कहा जा सकता है कि जैन मान्य पाँच शरीर, आहारक आदि वर्गणाओं का कार्य है। जैन दर्शनमें चर्तुगति में भ्रमण करने वाले समस्त जीवों के शरीरों की विशेषताओंका जैसा सूक्ष्म विश्लेषण किया है, वैसा किसी अन्य दर्शनमें नहीं किया गया है । यद्यपि स्थूल और सूक्ष्म शरीरों का विवेचन प्राय: सभी भारतीय दर्शनों में प्राप्त होता है, परन्तु अन्य शरीरों का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। सूक्ष्म शरीरका विश्लेषण सांख्य दर्शनमें अतिसूक्ष्मतासे किया गया है, इसी कारण जैन मान्य कार्मण शरीरकी सांख्य मान्य सूक्ष्म शरीरसे अत्यधिक समानता है, परन्तु जैन दर्शनमें कार्मण शरीरका जितना विस्तृत, सांगोपांग और सूक्ष्मतासे वर्णन किया गया है, वैसा अन्य किसी भी दर्शनमें प्राप्त नहीं होता । कर्म सिद्धान्त विषयक सभी विचारणायें कार्मण शरीरपर ही अवलम्बित हैं । कर्म की विविध अवस्थायें, कर्मबन्धके कारण, बन्धके भेद प्रभेद और कर्म मुक्तिके सोपान, इन सभीमें कार्मण शरीरका महत्व सर्वोपरि है । वस्तुत: कार्मण शरीर इन सबकी आधारशिला है । निष्कर्ष पुद् गलका यह सिद्धान्त जैन कर्मसिद्धान्तका मूल है। पुद्गल परमाणुओंके समूहसे वर्गणाओंका और वर्गणाओंसे शरीरोंका निर्माण होता है । अनेक जन्मों में विभिन्न शरीरोंके द्वारा ही जीव अच्छे या बुरे कर्मों को भोगता रहता है | शरीरों में कर्मण शरीर सबसे सूक्ष्म और अन्य शरीरोंका कारण है । इसी कारण इसको बनाने वाले परमाणु भी सूक्ष्मतम माने गये हैं । आत्मा अनादिकालसे इन कर्म समूहों से बन्धी हुई है । इन कर्मों से छुटकारा होना ही आत्माकी मुक्ति है । डॉ० गोपीनाथ कविराजने पुद्गलके विषयमें अपने विचार प्रगट करते हुए लिखा है - " चार्वाकको छोड़कर हिन्दु, बौद्ध, और जैन सभी दर्शनों में भौतिकताके सिद्धान्तको एक बुराई के रूपमें स्वीकार किया गया है और इसके बन्धनसे छुटकारा दिलाने का पक्ष लिया है।" जैन पारिभाषिक शब्दावली के अनुसार सांख्य, योग और वेदान्त में कर्म को केवल पौद्गलिक माना है । बौद्ध दर्शनमें कर्म को केवल आत्मिक स्वीकार किया है, परन्तु जैन दर्शनानुसार द्रव्य कर्म को सूक्ष्म पुद्गलोंका माना जाता है, जो रागद्वेषादि भाव कर्मों का निमित्त पाकर जीवके साथ संबद्ध होते हैं । इस प्रकार १. के०के० मित्तल, मैटेरियलिज़म इन इंडियन थॉट, पृ० २ २. Wordly existence means bondage of both spirit and Matter. Tatia Nath mal, studies in Jaina Philosphy, p. 228. Jain cultural Research Society Banaras, 2010_03 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन द्रव्य कर्म से भाव कर्म और भाव कर्म से द्रव्यकर्म का अनादि कालीन चक्र चल रहा उपरोक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि जैन मान्य पुद्गलका कर्म सिद्धान्तके क्षेत्रमें महत्वपूर्ण स्थान है । जीवसे संयुक्त, कर्मफल देने वाली शक्तिको धारण करने वाले, पुद्गलके परमाणु, अत्यन्त सूक्ष्म हैं जो मनुष्यकी मृत्युके समय भौतिक स्थूल शरीरके पृथक होने पर भी, नेत्रोंसे अदृष्ट होकर आत्माके साथसाथ एक गतिसे दूसरी गतिमें चले जाते हैं । ये परमाणु पौद्गलिक होते हुए भी इतने सूक्ष्म हैं कि घरकी दीवार, छत आदिमें भी प्रवेश करके सरलतापूर्वक आत्माके साथही निकल जाते हैं । ये सूक्ष्म परमाणु संसारी आत्माके साथ प्रत्येक अवस्थामें नीर क्षीरके समान एक होकर रहते हैं। कर्मफल देनेकी शक्तिसे युक्त, सूक्ष्म परमाणुओं के समूहको ही सूक्ष्म शरीर या कार्मण शरीर* कहा जाता है । मनुष्यको जब उसके पूर्व कर्म का फल मिल जाता है, तो उस कर्म से संबंधित परमाणु कर्मफल देने की शक्तिसे विहीन होकर साधारण परमाणु जैसे हो जाते हैं और इनका संबंध कार्मण शरीरसे छूट जाता है। नवीन कर्म करने से नवीन सूक्ष्म परमाणु पूर्वसे विद्यमान कार्मण शरीरमें प्रवेश करके, कर्म संज्ञाको प्राप्त कर लेते हैं और उनमें कर्मानुसार फल देनेकी शक्ति उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार पूर्वकर्मों के फल भोगसे कर्मपरमाणु कर्मबद्ध आत्मासे छूटते रहते हैं और नवीन कमों के उपार्जनसे सूक्ष्म परमाणु कार्मण शरीर और आत्मासे अथवा कर्मबद्ध आत्मासे एकक्षेत्रावगाह होते रहते हैं । इस प्रकार संसारी जीव सूक्ष्म पुद्गलों के संयोगसे पुन: - पुन: कर्मबन्धके चक्रमें फंसा रहता है। ये पौद्गलिक कर्म जीवके साथ किस कारणसे संयुक्त होते हैं ? किस रूपमें रहते हैं और किस प्रकार घटते बढ़ते रहते हैं इसका स्पष्टीकरण अगिम अध्यायोंमें किया जाना है। 2010_03 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें - २. कम्मत्तणेण एक्कं दव्वं भावोत्ति होदि दुविहं तु। पोग्गल पिंडो दव्वं तत्सत्ती भावकम्मं तु॥ बंधुक्कड्ढ़णकरणं संकममोकड्ढुदीरणा सत्तं । उदयुवसामणिधत्ति णिकाचणा होति पड़िपयड़ी ।। (गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ६,४३७) १. कर्मका स्वरूप श्री जिनेन्द्रवर्णीने कोशमें कर्मका सामान्य परिचय देते हुए कहा है -- कर्म शब्दके अनेक अर्थ हैं, उन सबको तीन भागोंमें विभाजित किया जा सकता हैकर्मकारक, क्रिया और जीवके साथ बन्धने वाले विशेष जातिके पुद्गल स्कन्ध ।' व्याकरण शास्त्र में कर्म कारकको कर्म कहा जाता है जिसे कर्ता अपनी क्रिया के द्वारा प्राप्त करना चाहता है । पाणिनीने अष्टाध्यायी में कहा है - "कर्तुरीप्सिततमं कर्म" । सधारणतया कर्म शब्दका अर्थ “क्रिया” समझा जाता है । खाना, पीना, सोना, चलना आदि विभिन्न क्रियायें कर्मकी द्योतक हैं, विभिन्न व्यवसायोंके अर्थमें भी कर्म शब्दका प्रयोग होता है। न्याय शास्त्रमें उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण और गमन रूप पांच सांकेतिक क्रियाओंमें कर्म शब्दका व्यवहार किया जाता है। पौराणिक परम्परामें व्रत, नियम आदि धार्मिक क्रियायें कर्म रूप मानी जाती हैं। तीसरे प्रकारके कर्मका निरूपण केवल जैन सिद्धान्तमें ही किया गया है। जीव मन, वचन और कायके द्वारा जो क्रियायें करता है, उनसे प्रभावित होकर, एक विशेष जातिके सूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध जीवके साथ बँध जाते हैं। बँधको प्राप्त १. जिनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग, दो पृ० २५ २. अष्टाध्यायी, अध्याय १, पाद ४, सूत्र ४९ ३. तर्कभाषा, पृ० २४४, सर्वोदयप्रेस जत्तीवाड़ा मेरठ, सन् १९७६ ४. पूर्व निर्दिष्ट. अध्याय तीन (कर्मग्रहणयोग्या: पुद्गला :- सूक्ष्मा: न स्थूला:) सर्वार्थसिद्धि पृ०४०२ 2010_03 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त- एक अध्ययन ये पौद्गलिक स्कन्ध ही कर्म संज्ञाको प्राप्त करते हैं । दरिद्र, श्रीमान, सबल, निर्बल आदिकी विषमताएँ भी कर्म के अस्तित्वको सिद्ध करती हैं। कर्म ग्रन्थमें कहा गया है कि विभिन्न हेतुओंसे, जीव कर्म योग्य पुद्गल द्रव्यको आत्म प्रदेशोंसे बाँध लेता है। आत्मसम्बद्ध पुद् गल द्रव्यको ही कर्म कहते हैं । प्रत्येक प्राणीका वर्तमानमें अपना निजी व्यक्तित्व होता है, जो कि दूसरे से भिन्न होता है । यह विभिन्नता पूर्व संचित कर्म के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होती है, विभिन्नताका यह सिद्धान्त ही कर्मसिद्धान्त कहलाता है । कर्म वह सूक्ष्म पुद्गल है, जिसे प्रत्येक जीवित प्राणी अपनी व्यक्तिगत प्रेरक शक्तियों के कारण आकर्षित करता रहता है, न केवल आकर्षित करता है, अपितु अपने में नीर क्षीरके समान एकीभूत भी कर लेता है। जीवके साथ एकीभूत हो जाने पर ये कर्म जीवकी व्यक्तिगत विशेषताओं में परिवर्तन कर देता है इस प्रकार यह एक प्रकारका संचित शक्तियों का कोश बन जाता है। यह कोश घड़ीमें दी गई चाबीकी तरह होता है, जो प्रतिक्षण स्वयं व्यय होता रहता है, घड़ीकी चाबी की तरह व्यय अवश्य होता है परन्तु कर्म प्रतिक्षण पुनः संग्रहित भी होता रहता है । आर० गांधीने जैन दर्शन मान्य कर्मकी उपरोक्त यथार्थताको स्पष्ट करते हुए कहा है कि कर्मको यद्यपि हम आँखों से देख नहीं सकते, परन्तु कर्म की सत्ता वैसी ही यथार्थ है, जैसे हमारे चारों ओरकी भित्तियाँ यथार्थ हैं ।" यह सिद्धान्त केवल मनुष्यों पर ही घटित नहीं होता अपितु सभी प्रकारके छोटे बड़े जीवित प्राणियों पर भी घटित होता है ।" प्रत्येक वह आत्मा जो मुक्त नहीं हुआ है अर्थात् प्रत्येक संसारी जीव कर्मके इस चक्रसे बन्धा हुआ है । कर्म सिद्धान्तको समझे बिना जैन दर्शनका कोई भी अन्य सिद्धान्त यथार्थ रूपमें स्पष्ट नहीं हो सकता । 1 २. तुलनात्मक परिचय चार्वाक को छोड़कर जैन दर्शनकी भाँति ही न्याय, वैशेषिक, बौद्ध, वेदान्त आदि विभिन्न दर्शनोंमें भी कर्म सिद्धान्तको स्वीकार किया गया है, तथापि जैनदर्शनकी कर्म विषयक धारणा अन्य दर्शनोंसे सर्वथा पृथक् है । अत: तुलनात्मक १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग दो, पृ० २५ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा २, पृ० २ ३. कीरई जीएण हेऊहिं जेणं तु भण्णए कम्मं, देवेन्द्रसुरि, कर्मग्रन्थ, प्रथम भाग, गाथा १ ४. Karama is according to the Jain Philosophy a reality, as real as the Walls around us are, only the walls, walls we see, but Karma one cannot see. Gandhi Virchand R., 'The Karma Philosophy' P.3. Devchand Lal bhai Pustakoddhar Fund, bombay Ibid p. 3. ५ 2010_03 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें ८७ दृष्टिसे अन्य सभी दर्शनोंके कर्म सिद्धान्त पर पृथक् पृथक् विचार करना आवश्यक है - (क.) न्याय वैशेषिक से तुलना न्यायवैशेषिक दर्शनमें कर्मको “अदृष्ट" कहा गया है। धर्म व अधर्म रूप क्रियाओं का जो संस्कार आत्मापर पड़ता है वही "अदृष्ट" है । विश्वकी समस्त वस्तुएं यहाँ तक कि परमाणु भी अदृष्टसे प्रभावित होते हैं।' इस अदृष्टका फल ईश्वरके माध्यम से प्राप्त होता है । जैनोंके मतानुसार पुद्गल द्रव्य अनादिकालसे विद्यमान है । मन, वचन, कायकी क्रियाओंके द्वारा पुद्गलमें एक विशेष प्रकारका संस्कार उत्पन्न होता है, जिससे पुद्गल कर्म रूप में परिणत हो जाता है । यह संस्कार पुद्गल द्रव्यसे अभिन्न है, इसीलिए कर्मको भी पौद्गलिक कहा जाता है । नैयायिकोंने भी संस्कारको अचेतन कहा है, क्योंकि नैयायिकों के मतानुसार आत्मा ही चेतन है, उसके गुण चेतन नहीं हैं। इस दृष्टिसे जैन मान्य कर्म और न्याय मान्य संस्कारमें समानता है । परन्तु न्यायवैशेषिकोंके अनुसार अदृष्टका फल ईश्वरके माध्यम से प्राप्त होता है, जबकि जैन मतानुसार जीव स्वयं कर्मका कर्त्ता है और उसका फल भी उसीके अनुसार स्वयं भोगता है । कर्मफलकी व्यवस्थामें जैन किसी ईश्वरीय शक्तिके नियंत्रणको स्वीकार नहीं करता । ३ (ख.) मीमांसा दर्शनसे तुलना अन्य दार्शनिक जिसे कर्म, संस्कार, योग्यता, सामर्थ्य या शक्ति कहते हैं, उसे मीमांसा दर्शनमें अपूर्व नामसे कहा गया है । अपूर्वकी उत्पत्ति वेदविहित कर्मसे होती है । यह अपूर्व जैनोंके भाव कर्मके समान है । मीमांसाके अनुसार कर्मसिद्धान्त स्वचालित है। इसे संचालित करनेके लिए ईश्वरकी कोई आवश्यकता नहीं है। मीमांसाका यह सिद्धान्त जैन मान्य कर्मसिद्धान्तसे समानता रखता है । (ग) योग दर्शनसे तुलना योगदर्शन में संस्कारको वासना, कर्म या अपूर्व भी कहा गया है । अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पांच कर्म और कर्म से पांच क्लेश, इस प्रकारके कार्यकारण भावको, बीजाड्०कुरकी तरह अनादि माना है । जैनोंने भी १. सिन्हा हरेन्द्र, भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, पृ० १६ } २. दलसुख मालवणिया, आत्म मीमांसा, पृ० १०० ३. जिनेन्द्रवर्णी, कर्म सिद्धान्त, पृ० ३ ४. हरेन्द्र सिन्हा, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १६ 2010_03 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन इसी प्रकार मन, वचन, कायकी क्रियासे कर्म और कर्मसे पुन: मन वचन कायकी क्रियाको बीजांकुरकी तरह अनादि माना है । परन्तु कर्मों के स्वरूपकी दृष्टिसे दोनों मतोंमें भिन्नता है। दलसुखमालवणियाने जैन दर्शनसे योगका अन्तर स्पष्ट करते हुए कहा है कि योग दर्शनमें क्लेश और कर्मका संबंध आत्मासे नहीं माना गया, इसे अन्त:करण प्रकृतिका परिणाम या विकार कहा गया है, परन्तु जैन मान्यतानुसार संसारी जीवके साथ ही कर्म के संबंधको माना गया है । (घ.) सांख्य दर्शनसे तुलना सांख्य दर्शनका कर्मसिद्धान्त यद्यपि जैन दर्शनसे समानता रखता है. परन्तु सांख्य दर्शनने पुरूषको कूटस्थ माना है और कर्मको प्रकृतिका विकार माना है । अचेतन प्रकृतिको ही कर्म तथा कर्मफलका कारण माना गया है । प्रपति स्वंय ही कर्मबन्धनमें बंधती है और स्वयं ही कर्मबन्धनसे मुक्त भी हो जाती है । डॉ० हिरियण्णाके अनुसार प्रकृति पुरूषको बन्धनमें केवल जकड़ती ही नहीं है अपितु उससे मुक्त भी करती है। परन्तु जैन दर्शनने कर्मको केवल जड़ पुद्गलका नहीं माना अपितु जीव और पुद्गलके संयोगका परिणाम कहा है । जैन दर्शनके अनुसार अनादिकालसे जीव कोसे बंधा हुआ है । यह कर्मबद्ध जीव ही अपने भाव कर्मसे नित्य द्रव्य कर्मों का संचय करता रहता है । रागद्वेष रूप आभ्यन्तर परिणाम भावकर्म हैं और उसके द्वारा जो सूक्ष्म पुद्गलों का आकर्षण होता है, वही जीवके साथ बद्ध होकर द्रव्यकर्मकी संज्ञाको प्राप्त करते हैं। यह द्रव्यकर्म पुन: भावकर्मका निमित्त कारण हो जाता है। इस प्रकार जैन दार्शनिकों के अनुसार संसारकी सत्ताका अर्थ है, जीव और पुद्गल दोनोंका बन्धनको प्राप्त है। जाना और मुक्तिका अर्थ है, दोनोंका बन्धनसे मुक्त हो जाना । कर्म वास्तवर्म आत्मा और पुद्गलके मध्यका संबंध है, जो सांसारिक अवस्थाके अन्त तक बना रहता है। (०) वेदान्त दर्शनसे तुलना वेदान्तका मायावाद भी जैन मान्य कर्म सिद्धान्तका स्थान नहीं ले सकता यद्यपि वेदान्तने विश्ववैचित्र्यका कारण मायाको ही माना है और जैनोंने भी संसारकी विविधताका कारण कर्मको ही माना है, परन्तु वेदान्तमान्य माया और जैन मान्य कर्मके स्वरूपमें भेद है । माया सत् और असत्से अतीत औ १. आत्म मीमांसा, पृ० १०२ २. सांख्यकारिका, ६२ ३. हिरियन्ना, भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, पृ० २७० ४. टॉटियानथमल, स्टडीज़ इन जैन फिलासफी, पृ० २२८ 2010_03 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९ कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें अनिवर्चनीय है । परन्तु जैनमान्य कर्म जीव और पुद्गल दोनों द्रव्यों के विशिष्ट संयोगसे उत्पन्न होता है । द्रव्यको जैन दर्शनमें सत्तात्मक माना गया है ।२. (च.) बौद्धदर्शनसे तुलना __बौद्ध दार्शनिकों का यह मत है कि जो कर्म मनुष्य करता है, उस कर्मके अनुसार ही संस्कार पड़ जाते हैं। मनुष्यको पूर्वकृत कर्मों का फल इन संस्कारों के कारण ही मिलता है । आत्मारामने बौद्धके कर्मसिद्धान्तका, उनके ही क्षणिकवाद द्वारा खण्डन करते हुए कहा है कि क्षणिकवादके कारण आत्मामें कर्मकर्तृत्व और भोक्तृत्वकी व्यवस्था घटित नहीं हो सकती। नथमल टॉटियाने भी बौद्ध मान्य कर्मसे जैन मान्य कर्मकी विभिन्नता दर्शाते हुए कहा है कि बौद्ध दर्शनके अनुसार कर्मका संबंध केवल चेतनासे है, परन्तु जैन दर्शनने कर्मका संबंध जीव और पुद्गल दोनोंसे ही माना है।' बौद्ध कर्मको सूक्ष्म पुद्गलके रूपमें स्वीकार नहीं करते ।' बुद्धने कहा है “चेतना ही कर्म है ऐसा मैं कहता हूं"६ यहाँ चेतना को आरम्भ की दृष्टि से कहा है क्योंकि सभी कर्मों का प्रारम्भ चेतना से ही होता है। (छ.) पाश्चात्य दर्शनोंसे तुलना . ईसाई और इस्लामी दर्शनोंने भी कर्मको स्वीकार किया है । पुण्य कर्मका फल स्वर्ग प्राप्ति और पाप कर्म का फल नरक प्राप्ति बताया है, परन्तु इन दर्शनोंने कर्मफल देने के लिए एक ईश्वरकी सत्ताको माना है, जो न्यायके दिन आत्माओं को उनके पुण्य अथवा पाप कर्मों के अनुसार सदा के लिए स्वर्ग या नरकमें भेज देता है। जैन दर्शन कर्मफल देने के लिए इस प्रकारकी किसी भी ईश्वरीय सत्ताको नहीं मानता । जैनों ने स्वर्ग और नरकको, पुण्य पापका फल अवश्य माना है, परन्तु फलभोगके पश्चात् जीव स्वयं वहाँसे दूसरी योनिमें चला जाता है। उपरोक्त तुलनात्मक अध्ययनसे स्पष्ट है कि सांख्य, न्यायवैशेषिक, मीमांसा, बौद्ध, वेदान्त आदि सभी भारतीय दर्शनोंने तथा ईसाई इस्लामी आदि पाश्चात्य दर्शनोंने कर्मकी सत्ताको जैन दर्शनके समान ही किसी न किसी रूपमें १. सदसद्भ्यामनिर्वचनीयं वेदान्तसार, खण्ड ६ २. तत्वार्थसूत्र, ५.१.२,३ ३. आत्माराम, जैन तत्व कलिका, षष्ठ कलिका, पृ०१४६ ४. टॉटिया नथमल, स्टडीज, इन जैन फिलॉसफी, पृ० २२८ y. Buddhist do not regard the Karma as subtle matter, Encyclopaedia of religion and ethics, Vol. VII P. 472. ६. अंगुत्तरनिकाय- उद्धृत - बौद्धदर्शन और अन्य भारतीय दर्शन - पृ० ४६३ ७. रतनलाल, आत्मरहस्य. १०१०६ 2010_03 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन स्वीकार अवश्य किया है और उसके पुण्य पाप रूप फलको भी माना है परन्तु कर्मके स्वरूपपर विचार करने पर स्पष्ट है कि जैन दर्शनमें कर्मका जो स्वरूप निर्धारण किया गया है, वैसा स्वरूप अन्य किसी भी दर्शनने नहीं माना है । जैन दर्शनने कर्मफलको देने वाले किसी चेतन व्यक्ति या ईश्वरको भी नहीं माना है। प्राणियोंको कर्मों के अनुसार फल स्वयं मिलता रहता है । यह एक स्वाभाविक व्यवस्था है, इसमें किसी ईश्वरकी आवश्यकताको जैनोंने नहीं माना। - जैन दर्शनमें कर्मके भेद प्रभेदका जैसा सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन किया गया है, वैसा विस्तृत तथा सूक्ष्म वर्णन अन्य किसी भी दर्शनमें नहीं किया गया है। जैन दर्शनमें कर्मके द्रव्यात्मक और भावात्मक दोनों पक्षोंको ग्रहण किया गया है । पौद्गलिक संबंध, द्रव्यात्मक पक्षका पोषक है और जीव भावात्मक पक्षका पोषक है। इस विधिसे द्रव्य तथा भाव रूप कर्मका प्रतिपादन अन्य दर्शनोंमें नहीं किया गया है । इस प्रकार विविध दृष्टियोंसे जैन दर्शनके कर्मकी अन्य दर्शनों के कर्मसे विभिन्नता देखी जा सकती है। ३. कर्म, जगत् का सृष्टा है जैनदर्शन मान्य कर्मके स्वरूपसे यह स्पष्ट हो जाता है कि शरीरादि भौतिक जगत् और रागद्वेषादि भाव जगत् की सृष्टि करने वाले, जीवके स्वकृत कर्म ही हैं। कर्मका कर्ता स्वयं अपने कर्मों का अनुगमन करता है। इसी कारण जैन दर्शनमें कर्मको जगत् का सृष्टा भी कह दिया गया है, क्योंकि जैनमतमें कर्मों के अनुसार फल प्राप्त करने में किसी अन्य सत्ता अथवा ईश्वरके हस्तक्षेपका निराकरण किया गया है और गीता द्वारा मान्य अवतारवाद' को भी जैन दर्शन स्वीकार नहीं करता। जगत् में जो विषमता दृष्टिगोचर होती है, यह ईश्वर कृत नहीं है अपितु जीवके अपने कर्मों के परिणाम स्वरूप ही है। जिस प्रकारका अच्छा या बुरा कर्म होता है उसी प्रकारका फल प्राप्त होता है। कर्मों की विषमताओंके कारण ही प्राणियोंकी देह, बुद्धि आदिकी विषमतायें दृष्टिगोचर होती हैं । जैन दर्शनके इस मतको अरविन्दने भी स्वीकार किया है । अरविन्द आश्रमकी संचालिका माँ ने अपने भक्तोंको उत्तर देते हुए कहा भी है - "भगवान भक्तोंको उस तरह नहीं देख सकते जैसे मनुष्य देखते हैं और न ही उन्हें दण्ड देने या १. कत्तारमेवानुयातिकर्म, उत्तराध्ययनसूत्र, १३, २३ २. भगवद्गीता, ४.८ ३. श्रीमती स्टीवनसन, हर्ट ऑफ जैनिज़म, पृ० १७५ ४. जीवा पुग्गलकाया अण्णोण्णागाढगहणपडिबद्धा। काले विजुज्जमाना सुहदुक्खं दिति भुजति ॥ पंचास्तिकाय गाथा ६७ 2010_03 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें ९१ पुरस्कार देने की आवश्यकता होती है । वस्तुत: स्वयं कार्यों के अन्दर ही उनके प्रतिफल और परिणाम निहित होते हैं । ' इस प्रकार उपरोक्त कथनसे यह निश्चित है कि जैन दर्शनमें कर्मकी व्याख्या इस ढंग से की गई है कि ईश्वर, ब्रह्म, विधाता, दैव और पुराकृतकर्म, सब कर्म रूपी ब्रह्मा के पयार्यवाचक हो गए हैं । ४. द्रव्य कर्म और भावकर्म जैन परम्परामें कर्मका, केवल क्रिया रूप ही मान्य नहीं है, अपितु क्रिया द्वारा आत्माके संसर्ग में आनेवाले एक विशेष जातिके सूक्ष्म पुद्गलको भी द्रव्य कर्मके रूपमें माना है। इस प्रकार जैन दर्शनमें कर्म के दो रूप माने गये. -भाव कर्म और द्रव्य कर्म । जीवकी क्रिया भाव कर्म है और उसका फल द्रव्य कर्म है । कर्मकी I जीवसे संबंधित क्रिया भावात्मक होने के कारण "भावकर्म” कहलाती है और कर्मकी पौद्गलिक अवस्था द्रव्यात्मक होने के कारण " द्रव्यकर्म” कहलाती है। भाव कर्म जीवके उपयोग रूप होता है। मोह राग और द्वेषको भाव कर्म कहा जाता है । (इनका विस्तार चारित्र मोहनीयके प्रकरण में किया जायेगा ) पुद्गल वर्गणाओंके पारस्परिक बन्धसे जो स्कन्ध बनते हैं, वे द्रव्य कर्म हैं। ये द्रव्य कर्म, वर्गणा भेदसे पांच प्रकारके कहे गये हैं । (देखिये अध्याय ३) इनसे ही स्थूल और सूक्ष्म शरीरोंका निर्माण होता है । जीवका योग या प्रदेश परिस्पन्दन, द्रव्यकर्म और भाव कर्मके मध्यकी सन्धि है ।" इन दोनोंमें परस्पर कार्य कारण संबंध है । भाव कर्म कारण और द्रव्य कर्म कार्य है परन्तु द्रव्य कर्मके अभावमें भावकर्मकी भी निष्पत्ति नहीं होती, इसी कारण द्रव्यकर्म भी भाव कर्मका कारण है। मुर्गी और अण्डे के समान भाव कर्म और द्रव्य कर्मका कार्य कारण भाव अनादिसे ही है ।" यह संबंध कहाँसे प्रारम्भ हुआ, यह कहना कठिन है, क्योंकि जैन मतानुसार जीव और पुद्गलका संबंध अनादि कालसे है। टॉटियाके अनुसार यह एक दृढ यथार्थ है, जिसे अन्य सभी दर्शनोंने भी स्वीकार किया है। कर्मोंकी अनादिकालीन सत्ता को अन्य दर्शनोंकी भाँति १. पुरोधा, दिसम्बर १९७८, पृ० १८, अरविन्द सोसाईटी, पांडीचेरी २. महापुराण, ४.३७ ३. आप्त परीक्षा, श्लोक ११३-११४ ४. कर्म सिद्धान्त, पृ० ४७ सन् १९८१ ५. आत्म मीमांसा, पृ० ९६ ६. स्टडीज इन जैन फिलॉसफी, पृ० २२७ · 2010_03 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन जैन दर्शनमें भी स्वीकार किया गया है । यद्यपि सन्ततिके दृष्टिकोणसे भावकर्मऔर द्रव्यकर्मका कार्य कारण भाव अनादि है, परन्तु व्यक्तिश: विचार करने पर, किसी एक द्रव्य कर्मका कारण, एक भावकर्म ही होता है। अपने राग द्वेष रूप परिणामों के कारण ही जीव, द्रव्यकर्मके बन्धनमें बद्ध होता है और उसीके फलस्वरूप संसारमें परिभ्रमण करता है। दलसुख मालवणियाने दोनोंके कार्य कारण और निमित्त नैमित्तिक संबंध का निरूपण करते हुए स्पष्टीकरण किया है कि- जैसे घट को बनाने में मिट्टी उपादान कारण और कुम्हार निमित्त कारण है, इसी प्रकार द्रव्यकर्मका उपादान कारण पुद्गल और निमित्त कारण भाव कर्म है । जैसे यदि कुम्हार न हो तो मिट्टी स्वयं घट रूपमें परिणत नहीं हो सकती, उसी प्रकार यदि भाव कर्म न हो तो पुद्गल द्रव्यकर्ममें परिवर्तित नहीं हो सकता । इसी प्रकार द्रव्यकर्म भी भाव कर्मका निमित्तकारण है। इस प्रकार द्रव्यकर्म और भाव कर्मका कार्यकारण भाव निमित्त नैमित्तिक रूप हैं ।२ यद्यपि जीव और कर्मका संबंध अनादि है और कार्य कारण रूपसे यह चक्र चलता रहता है, परन्तु विशेष अभ्यास और आत्मिक शक्तिसे इस चक्रको रोका जा सकता है। द्रव्यकर्म और भावकर्मका कार्यकारण संबंध अनादि होते हुए भी अनन्त नहीं है। जैसे खानसे निकले सोने में, सोने और मिट्टीका संबंध अनादि कालसे है, परन्तु आगमें तपानेसे उस अनादि संबंधका विच्छेद हो जाता है। इसी प्रकार जब जीव, निरन्तर अभ्यास द्वारा, भावकों पर नियंत्रण कर लेता है, तब द्रव्यकर्म तथा भावकों का यह अनादि प्रवाह रुक जाता है। आगम प्रमाण से सिद्ध है कि अनेक आत्माओंने ज्ञान, ध्यान, तप आदिकी विविध साधनाओंके द्वारा इस अनादिसंबंधका विच्छेद किया है। इसी कारण द्रव्य कर्म तथा भावकर्मका संबंध अनादि होते हुए भी सान्त है। उपरोक्त कथनका सारांश यह है कि जीवके योग अर्थात् मन वचन कायकी क्रिया मात्रसे कर्मशक्ति उत्पन्न नहीं होती, अपितु जीवके उपयोग अर्थात् राग, द्वेष, मोह आदि परिणामोंसे समीपवर्ती सूक्ष्म परमाणुओंका आकर्षण होता है, जिससे वे जीवके सम्पर्कमें आकर कर्म रूपमें परिणत हो जाते हैं । इस प्रकार रागद्वेषादि परिणाम रूप भावकर्मसे द्रव्यकर्म उत्पन्न होते हैं । यदि मन, वचन, कायकी क्रिया, भाव निरपेक्ष हो तो द्रव्यकर्मका संचय नहीं होता। जैनमान्य अर्हन्त अवस्था जिसे अन्य दर्शनोंमें जीवनमुक्त अवस्था कहा गया है, ऐसी ही १. पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, श्लोक ५५ २. आत्म मीमांसा, पृ०९७ ३. “कम्ममलविप्पमुक्को" पंचास्तिकाय, गाथा २८ 2010_03 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें ९३. अवस्था है, जिसमें द्रव्य कर्म और भाव कर्मकी अविच्छिन्नं धाराको रोक दिया गया है । ५. कर्म की विविध अवस्थायें जैन कर्म सिद्धान्त कर्मकी विविध अवस्थाओंका अति सूक्ष्म वर्णन किया गया है । सैद्धान्तिक भाषामें इन अवस्थाओंको 'करण' कहा जाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशर्मे करणकी परिभाषा करते हुए कहा गया है कि, "जीवके शुभ अशुभ आदि परिणामोंकी करण संज्ञा है ।' गुणोंकी अवस्थाको "परिणाम" कहा जाता है । यह प्रतिक्षण परिणमनशील रहता है । आत्माके परिणामों को संज्ञा देनेका कारण बतलाते हुए धवलाकारने कहा है कि 'जीवके शुभ-अशुभ परिणाम ही कर्मों की विविध अवस्थाओं का मूल कारण है,' इसीलिए साधकतम भावकी विवक्षामें भी परिणामोंको 'करण' कहा जाता है । नथमल टॉटियाने कहा है कि क्रियाओंकी विभिन्नता का कारण, जीवकी वीर्य अर्थात् ऊर्जा शक्तिकी हीनाधिकता है । इस विभिन्नताके कारण ही कर्मपुद्गलों की विभिन्न अवस्थायें हो जाती हैं, जिन्हें जैन पारिभाषिक शब्दावली में 'करण' कहा जाता है । " करण दस होते हैं - बन्ध, उदय, सत्व, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उपशम, उदीरणा, निधत्त और निकाचित । ये दस करण प्रत्येक कर्म प्रकृतिमें होते हैं ।' कर्मके विशेष स्वभावको प्रकृति कहते हैं, जिनका विस्तार कर्मबन्ध अधि कारमें किया जायेगा । यहाँ क्रमशः दस करणों का पृथक्-पृथक् विवरण देना इष्ट है | (१) बन्धकरण सभी भारतीय दर्शनोंमें कर्म बन्धके संसरणको एक आवश्यक सिद्धान्तके रूपमें स्वीकार किया गया है। ज्ञान, ध्यान और तप रूप समस्त साधनायें, इस बन्धनसे मुक्तिके लिए ही की जाती हैं। बन्धनके स्वरूपके विषयमें जैन दर्शनकी अपनी विशिष्ट विचारना है। इस विचारना के अनुसार आत्माके साथ सूक्ष्म १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग दो, पृ० ४ २. परिणामोऽवस्था, पंचाध्यायी, पूर्वार्ध, श्लोक ११७ ३. षटखण्डागम, धवला टीका ६ / १ पृ० २१७ ४. स्टडीजज़ इन जैन फिलॉसफी, पृ० २५४ ५. बंधुक्कड्ढणकरण संकममोकद्दुदीरणा सत्तं । उदयुवसामणिधत्ती णिकाचणा होंति पड़िपयड़ी | गोम्मटसार, कर्मकाण्ड गाथा ४३७ 2010_03 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन जातिके कर्मपुदगलोंका नीर क्षीरके समान अथवा लोहाग्निके समान एक हो जाना ही बन्ध है । राजवार्तिक के अनुसार-“आत्मकर्मणोरन्योन्य प्रवेशलक्षणो बन्ध:"१ अर्थात् जैसे लोहे और अग्निका एक ही क्षेत्र है और नीर तथा क्षीर मिलकर एक क्षेत्रावगाही हो जाते हैं उसी प्रकार आत्माके साथ बन्धको प्राप्त होकर, सूक्ष्म पुद्गल एक क्षेत्रावगाही हो जाते हैं । जीवके एक-एक प्रदेश पर कर्मों के अनन्त प्रदेश, अत्यन्त सघन और प्रगाढ रूपसे अवस्थित होकर रहते . श्री जितेन्द्र वर्णी ने बन्धके संश्लेष संबंधकी व्याख्या करते हुए कहा है कि बन्धको प्राप्त मूल पदार्थ, भले ही वे जड़ हों या चेतन अपने शुद्ध स्वरूपसे च्युत होकर एक विजातीय रूप धारण कर लेते हैं। अपने कथनको स्पष्ट करते हुए उन्होंने आक्सीजन और हाईड्रोजनका उदाहरण दिया है । आक्सीजन और हाईड्रोजन दोनों ही गैसें अग्निको भड़काने की शक्ति रखती हैं, परन्तु परस्पर बन्धको प्राप्त हो जाने पर जलका रूप धारण कर लेती हैं। दोनों गैसें संश्लेष संबंधको प्राप्त होकर, यद्यपि विजातीय रूप धारण कर लेती हैं, परन्तु वस्तुके स्वाभाविक गुण उस अवस्था में भी नष्ट नहीं होते अव्यक्त या तिरोभूत अवश्य हो जाते हैं जिन्हें पुन: व्यक्त या आविर्भूत किया जा सकता है। जैसे प्रयोग विशेष द्वारा जलको पुन: आक्सीजन और हाईड्रोजनमें बदला जा सकता है, वैसे ही आत्मा और कर्मका संश्लेष संबंध यद्यपि विजातीय हो जाता है परन्तु इस बन्ध अवस्थामें भी जीव और पुद्गलके गुण तिरोहित भले ही हो जाते हैं, परन्तु नष्ट नहीं होते। जीव कर्मपुद्गलोंका ग्रहण क्यों करता है ? इसके उत्तरमें कहा जा सकता हे कि जीव अनादि कालसे ही कर्मसे संबंधित है, जैसे खानसे निकले स्वर्ण और पाषाणका संबंध अनादि कालसे है उसी प्रकार जीव और कर्मका संबंध भी अनादिकालसे है । अनादिकालसे कर्म बद्धजीव ही रागद्वेषादि भाव कर्मों के कारण द्रव्य कर्म रूप सूक्ष्म पुद्गलोंको ग्रहण करता है - १. राजवार्तिक, पृ०२६ २. जीवपएसेक्कक्के कम्मपएसाह अंतपरिहीणा। होति घणणिविडभूओसंबधो होइ णायव्वो। कर्म प्रकृति, गाथा २२ ३. जिनेन्द्र वर्णी, कर्म सिद्धान्त, पृ० ३७ ४. कनकोपले मलमिव स्वर्णपाषाणे स्वर्णपाषाणयोः । संबंधस्य अनादिरिव “गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा २ 2010_03 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें "सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्तेस:बन्ध:” अर्थात् रागद्वेषादि कषाय रूप परिणतिके कारण ही जीव कर्मयोग्य सूक्ष्म पुद्गलोंको ग्रहण करता है। दलसुख मालवणियाने इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि जिस समय जीव रागद्वेष युक्त होता है, उसी समय जीव प्रदेशों के साथ आने वाले परमाणु, कर्म संज्ञाको प्राप्त करते हैं, इससे पूर्व वे परमाणु कर्म होने के योग्य कहलाते हैं। मुक्तावस्थामें जीवमें रागद्वेषादि भाव नहीं होते, इसीलिए मुक्त जीवोंका पुद्गल परमाणुओंसे संयोग होते हुए भी वह संयोग बन्धकी कोटिमें नहीं आता २ अत: जीव के काषायिक भाव ही पुद्गलोंको ग्रहण करने में कारण हैं । इस प्रकार ग्रहण किये गए पुद्गल आत्माके साथ एकीभावको प्राप्त हो जाते हैं । दास गुप्तने इस संबंधका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि जिस प्रकार तैलाक्त शरीरसे धूल चिपक जाती है, उसी प्रकार रागद्वेषयुक्त जीवके समस्त भागोंमें कर्मद्रव्य लिप्त हो जाता है। इस प्रकारके बन्धको द्रव्य बन्ध कहते हैं।' दूसरे शब्दोंमें यह भी कहा जा सकता है कि मन, वचन और कायकी क्रियाओंसे, आत्मा चुम्बकके समान, पौद्गलिक कर्म द्रव्य को आकर्षित करता है। आत्मामें प्रवेशकर यह कर्म द्रव्य आत्माके गुणों को आच्छादित कर देता है। क. अमूर्त जीवसे मूर्त कर्मों का संबंध कैसे पुद्गलके विवेचनसे स्पष्ट है कि कर्म पुद्गल रूप होने के कारण मूर्तिक हैं और जीवको जैन दर्शनमें अमूर्तिक कहा गया है । मूर्त अग्नि और जलका अमूर्त आकाशपर जिस प्रकार प्रभाव नहीं पड़ता, उसी प्रकार मूर्त कर्मोंका अमूर्त जीव पर प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए परन्तु अमूर्त जीव पर मूर्त कर्मों का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । इसका समाधान करते हुए कर्मसिद्धान्त मर्मज्ञोंने कहा है कि ज्ञान आत्माका गुण होनेके कारण अमूर्त है, परन्तु मदिरा सेवन कर लेनेसे आत्माका ज्ञान गुण लुप्त हो जाता है। अमूर्त गुणोंपर मूर्त मदिराका प्रभाव जिस प्रकार स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, उसी प्रकार अमूर्त जीवसे मूर्त कर्मों का संबंध भी संभव है। १. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ८, सूत्र २. २. आत्ममीमांसा, पृ०६२ ३. एकीभाव गत इव मया य: स्वयं कर्मबन्धो वादिराज आचार्य, एकीभावस्तोत्र, श्लोक १ ४. दास गुप्त, भारतीय दर्शनका इतिहास, पृ० २०३ ५. “कम्मादपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो", द्रव्य संग्रह गाथा ३२ ६. दास गुप्त, भारतीय दर्शनका इतिहास, पृ० २०३ ७. जैन तत्त्व कलिका, षष्ठ कलिका, पृ० १५५ 2010_03 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन मूर्त अमूर्त के संबंध में दूसरा हेतु यह भी दिया जा सकता है कि जैन दर्शनमें जीवकी शुद्धावस्थाको यद्यपि अमूर्त माना गया है, परन्तु संसारावस्थामें भ्रमण करते हुए जीवको अनादिकालसे ही कर्मों से बद्ध माना गया है।' कर्म आत्माको स्वर्ण पर लगे मै लकी भाँति आच्छादित कर लेते हैं। इस अपेक्षासे संसारी जीवको मूर्त भी कहा जाता है । संसारी जीवोंके मूर्तत्वका कारण कर्म है, क्योंकि कर्म से लिप्त मूर्त संसारी जीवों से ही, पुनः पुनः मूर्त कर्मों का संबंध होता है । कर्मसे मुक्त अमूर्त सिद्धजीवों में, तीन कालमें भी कर्मों का संबंध होना संभव नहीं है । कर्मबन्ध अनादि कालसे है - 1 ख. ९६ जीव तथा कर्मका यह बन्ध कबसे हुआ ? इस पर सभी दर्शनकारों ने विचार किया है और एकमतसे यह स्वीकार किया है कि जीव और कर्मका यह बन्ध अनादिकालसे चला आ रहा है। दलसुख मालवणियाने विभिन्न मतों का विवरण देते हुए आत्ममीमांसामें कहा है कि शंकराचार्यने ब्रह्म और मायाका संबंध अनादि माना है, रामानुजने भी जीवको अनादिकालसे ही बद्ध स्वीकार किया है, निम्बार्क और माध्वाचार्यने भी कर्म के कारण जीवका संसार माना है और कर्मको अनादि माना है । वल्लभके मतानुसार जिस प्रकार ब्रह्म अनादि है, उसी प्रकार उसका कार्य जीव भी अनादि है । अत: जीव तथा अविद्या का संबंध भी अनादि है । " सांख्य मतानुसार भी प्रकृति और पुरूषका संयोग ही बंध है और वह अनादिकालसे चला आ रहा है। प्रकृतिसे उत्पन्न लिंगशरीर अनादि है और यह अनादि कालसे ही पुरूषके साथ संबद्ध है ।" इसी प्रकार योगदर्शनानुसार भी दृष्टा पुरूष और दृश्य प्रकृतिका संयोग अनादिकालीन है और वही बन्ध है । 1 जैन दर्शनमें भी जीव और कर्म के संबंधको अनादि माना गया है । यह संबंध कैसे हुआ, कहांसे प्रारम्भ हुआ और किसने किया, यह प्रश्न आकाश पुष्प की तरह व्यर्थ है -- तथानादि स्वतो बन्धो जीव पुद्गल कर्मणोः कुतः केन कृतः कुत्र प्रश्नोऽयं व्योमपुष्पवत् ॥७ १. जीवकर्मणोरनादि संबंध इत्युक्तं भवति । सर्वार्थ सिद्धि, पृ० ३७७ २. संसारावत्थाए जीवाणममुत्तत्ताभावादो. षटखण्डागम, धवला टीका पुस्तक १३, खण्ड ५, पृ० ११ ३. जीवस्स मुत्ततणिबंधणकम्माभावे तज्जनिदमुत्तत्तस्स वितत्थ अभावेण सिद्धाणनममुत्तभाव सिद्धीदो, वही, पृ० ११ ४. आत्ममीमांसा, पृ० ६३ ५. सांख्यकारिका, ५२ ६. योगदर्शन, २. १७ ७. पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, श्लोक ५५ 2010_03 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें ९७ जब यह कहा जाता है कि जीव और कर्मका संबंध अनादि है, तब इसका अभिप्राय यह है कि परम्परासे अनादि है। अनादिकालसे जीव कर्मसे संयुक्त है। जीव पूर्वकर्मों को भोगकर जीर्ण करता रहता है और राग द्वेषके कारण नवीन कोंका उपार्जन करता रहता है। जब तक प्राणीके पूर्वोपार्जित समस्त कर्म नष्ट नहीं हो जाते और नवीन कर्मों का आगमन रुक नहीं जाता तब तक कर्मबन्धकी अनादिकालीन परम्पराका विच्छेद नहीं होता। जिस प्रकार पिता और पुत्रका अनादि संबंध होता है, बीज और वृक्षका अनादि संबंध होता है उसी प्रकार कर्म और आत्माका अनादि संबंध होता है, इसमें पहले पीछे का प्रश्न नहीं है। इसीलिए कर्मसिद्धान्त मर्मज्ञोंने आत्मा एवं कर्मके संबंधको अनादि माना है यथाऽनादि: स जीवात्मा, यथाऽनादिश्च पुद्गल: । द्वयोर्बन्धोऽप्यनादि: स्यात् संबंधो जीव कर्मणोः ।। जीव अनादिकालसे है, पुद्गल भी अनादिकालसे है और जीव और पुद्गलका बंध भी अनादि कालसे ही है। जीवने कर्म उत्पन्न नहीं किये हैं और कर्मने जीवको उत्पन्न नहीं किया, क्योंकि इन दोनोंका आदि ही नहीं है । यदि दोनोंमें से एक को भी आदि माना जाता तब तो किसी प्रकार से एक से दूसरेकी उत्पत्ति संभव थी, परन्तु दोनोंमें परस्पर जन्य जनक भाव नहीं है अत: दोनों ही अनादि कालसे जीवके साथ बद्ध हैं।२ ग. कर्मबन्ध अनादि होते हुए भी सान्त है - कर्मों के प्रवाह रूप समष्टिकी दृष्टि से जीवोंको अनादिकालसे ही कर्मबद्धकहा गया है, व्यष्टिगत कर्मों की अपेक्षा पूर्वबद्ध कर्म पृथक् होते जाते हैं और अग्रिम कोंका जीवके साथ बन्ध होता जाता है । इस प्रकार अनादिकालसे जीव और कर्मका संबंध चला आ रहा है, परन्तु यह संबंध अनादि होते हुए भी अनन्त नहीं है, जीवके अनादिकालीन संबंधका विच्छेद किया जा सकता है, इसलिए यह संबंध अनादि होते हुए भी सान्त है । सिद्धोंमें इस अनादिकालीन संबंधका विच्छेद आगमप्रमाणसे सिद्ध है । घ. कर्म सिद्धान्तमें द्रव्यबंधकी प्रधावता यह बन्ध तीन प्रकारका होता है -- जीव बन्ध, अजीव बन्ध और उभय बन्ध । संसार व धन आदि बाह्य भौतिक पदार्थों के साथ जीवको बांध देने के १. पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, श्लोक ३५ २ जीवहें कम्म अणाइजिय जणियर कम्मण तेण। कम्मेजीउ वि जणिउण वि दोहिं वि आइण तेण ॥ परमात्म प्रकाश, अधिकार १, गाथा ५९ ३. षटखण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १३, खण्ड ५, पृ० ११ । 2010_03 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन कारण, मिथ्यात्व रागादि प्रत्यय जीवबन्ध या भाव बन्ध कहलाते हैं।' स्कन्ध निर्माणके कारणभूत परमाणुओंका पारस्परिक बन्ध, अजीव बन्ध या पुद्गल बन्ध कहलाता है । जीवके प्रदेशोंके साथ कर्म प्रदेशोंका एकक्षेत्रावगाह हो जाना उभय बन्ध या द्रव्य बन्ध है । यद्यपि इनमें भावबन्ध ही प्रधान है, क्योंकि इसके बिना कर्मों का जीवके साथ बन्ध होना संभव नहीं है, परन्तु प्रस्तुत शोधमें कर्मको प्रधान मानकर बन्धका परिचय दिया जा रहा है, इस कारण यहां सर्वत्र द्रव्य बन्धको ही प्रधान मानकर प्रतिपादन करना इष्ट है । बन्धके कारण तथा उसके भेद प्रभेदोंका कथन अग्रिम अध्याय में किया जायेगा । यहाँ केवल दस करणके रूपमें बन्ध करणका सामान्य परिचय दिया गया है । (२) • उदयकरण कर्मों के विपाक अर्थात् फलोन्मुख अवस्थाको “उदय" कहते हैं। पूर्व संचित कर्म जब अपना फल देता है, तो उस अवस्थाको जैन कर्मसिद्धान्तकी भाषामें उदय कहा गया है । जीवके पूर्वकृत शुभ या अशुभ कर्म चित्तभूमि पर सदा अंकित रहते हैं। वे सब अपने-अपने समय पर परिपक्व दशाको प्राप्त होकर जीवको फल देकर नष्ट हो जाते हैं। कर्मके उदयमें जीवके परिणाम उस कर्मप्रकृतिके अनुसार ही हो जाते हैं। कर्मोका यह उदय - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा रखकर ही होता है। यह उदय सविपाक और अविपाकके भेदसे दो प्रकारका होता है। उदय क्रमसे परिपाक कालको प्राप्त होने वाला "सविपाक उदय" कहलाता है। विपाक कालसे पहले ही तपादि विशिष्ट क्रियाओंके द्वारा कर्मों को फलोन्मुख अवस्थामें ले आना "अविपाक उदय कहलाता है । (जैसे आम कटहल आदिको क्रिया विशेषके द्वारा पका लेते हैं।) कर्म प्रकृतियों की अपेक्षा भी उदय “स्वमुखोदय और परमुखोदय" के १. यस्तु जीवस्यौपाधिक मोहरागद्वेषपर्यायरेकत्व परिणाम: स केवल जीवबन्धः” प्रवचनसार, तत्त्वप्रदीपिका, पृ० १७७ २. दोतिण्णि - आदि पौम्गलाणजोसमवाओ सोपोग्गलबंधोणाम, षटखण्डागम, धवला टीका,१३/५, पृ०३४७ ३. जीवकर्मोंभयोबन्ध: स्यान्मिथ: साभिलाषुकः । जीव कर्म निबद्धो हि जीवबद्धं हि कर्म तत् ।। पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, श्लोक १०४ ४. उदयो विपाकः । सर्वार्थसिद्धिः, पृ० ३३२ ५. कम्मवसा खलु जीवा: । समणसुत्ते, गाथा ६१ ६. पंचसंग्रह, प्राकृत, अधिकार १ गाथा ५१३ ७. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३९९ 2010_03 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें I भेदसे दो प्रकारका है । जो प्रकृति अपनी प्रकृति रूप होकर ही उदयमें आती है, उसे स्वमुखोदय कहते हैं - जैसे क्रोधका क्रोध रूपमें ही उदय होना । परन्तु कभी कभी किसी विशेष स्वार्थ के कारण क्रोध, क्रोध रूपमें ही उदयमें न आकर मान या माया रूपसे भी उदयमें आ जाता है । इस प्रकार संक्रमित होकर उदयमें आनेको " परमुखोदय" कहते हैं । ' उदयमें भेदकी अपेक्षा सभी एक सौ अड़तालीस प्रकृतियाँ उदय योग्य हैं और अभेदकी अपेक्षा चार वर्ण, चार रस, एक गन्ध, सात स्पर्श, पांच बन्धन और पांच संघात, ये छब्बीस प्रकृतियाँ छोडकर शेष एक सौ बाईस प्रकृतियाँ उदयके योग्य हैं । (३) सत्त्वकरण जीवसे संबद्ध हुए कर्म स्कन्ध, तत्काल फल नहीं देते । बन्धने के दूसरे समयसे लेकर फल देनेके पहले समय तक वे कर्म आत्माके साथ अस्तित्व रूपमें रहते हैं । कर्मों की उस अवस्थाको सत्ता या सत्त्व कहा जाता है । जैसे धान्यको संग्रह कर लिया जाता है और आवश्यकता पड़ने पर उस संग्रहमें से थोड़ा-थोड़ा निकाला जाता है | जब तक वह बाहर नहीं निकलता तब तक वह संग्रह निधि रूपमें रहता है । धान्यके संग्रहके समान ही पूर्व संचित कर्म के आत्मामें अवस्थित रहनेको सत्त्व कहते हैं । " सत्तामें रहने वाले कर्मकी तुलना, अन्य दर्शनोंमें कहे गये संचित कर्म से की जा सकती है । ये कर्म जीवके परिणामोंको किसी भी प्रकारसे प्रभावित नहीं करते। आठ कर्मों की सर्व एक सौ अड़तालीस प्रकृतियाँ जो बन्धके भेद प्रकरणमें कही गई हैं, सत्ताकी हैं । इनका निम्न गाथामें निर्देश किया गया है पंच णव दोणि अट्ठावीसं चउरों कमेण ते णउदी । दोणिय पंच य भणिया एदाओ सत्त पयड़ीओ ॥ ५ 66 सत्त्वके दो भेद किये जा सकते हैं “ उत्पन्न स्थान सत्त्व" और "स्वस्थान सत्त्व ।” अपकर्षण आदिके द्वारा अन्य प्रकृति रूपसे किया गया सत्त्व, उत्पन्न स्थान सत्त्व कहलाता है और बिना अन्य प्रकृति रूप हुआ सत्त्व स्वस्थान सत्त्व - १. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीव तत्त्वप्रदीपिका, गाथा ३४२ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ३७ ३. “ विदियसमयप्प हुड़ जाव फलदाण हेट्ठि समओत्ति ताव संतववएसं पड़िवज्जंति”, कषायपाहुड, पुस्तक संख्या १, पृ० २९१ ४. पंचसंग्रह, प्राकृत, अधिकार ३, गाथा ३ (धण्णस्स संग्रहो वा संत) ५. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ३८ 2010_03 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन कहलाता है। (४) अपकर्षण करण "स्थित्यनुभागयोर्हानिरपकर्षणम्” कोंकी स्थिति अर्थात् बंधे रहनेका समय और अनुभाग अर्थात् शक्ति, इन दोनोंमें हानि हो जाना अपकर्षण कहलाता है। कर्मों की स्थितिका अपकर्षण हो जाने पर कर्म जितने कालके लिए बन्धको प्राप्त हुए थे, उनका वह काल पहले से बहुत कम हो जाता है। जिस प्रकार कर्मों की स्थितिमें कमी हो जाती है, उसी प्रकार अनुभाग अर्थात् फलदान शक्तिमें भी कमी हो जाती है, तीव्रतम शक्ति वाले संस्कार एक क्षणमें मन्दतम हो जाते हैं । । । उदाहरणतया किसी जीवने पहले अशुभ कर्मका बंध किया, उसके पश्चात उसकी भावनामें निर्मलता आ जाती है। ऐसी अवस्थामें पहले बन्धे हुए अशुभ कर्मों की स्थिति कम हो जाती है और फल देने की शक्ति भी कम हो जाती है । यही वह रहस्य है, जिससे वर्तमान कर्मों के द्वारा अनागतको सुधारा जा सकता है और पूर्वसंचित कर्मों का क्षय किया जा सकता है। अपकर्षण भी दो प्रकार का होता है - व्याघात और अव्याघात । व्याघात अपकर्षणको “काण्डकघात" भी कहते हैं। इससे जीवमें इतनी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि वह गुणाकार रूपसे कर्मों को क्षय कर देता है । यह मोक्षका साक्षात कारण है और ऐसा अपकर्षण उच्चकोटि के ध्यानियों को ही होता है । इसके विपरीत अव्याघात अपकर्षणमें साधारण रूपसे कर्मों की स्थिति और अनुभागमें हानि होती है। अपकर्षण तभी संभव है, जब तक कर्म उदयावलीमें नही आते । उदयकी सीमामें प्रवेशकर जाने पर अपकर्षण संभव नहीं होता क्योंकि सत्तागत कर्मों का ही अपकर्षण हो सकता है । (५) उत्कर्षणकरण "स्थित्युनुभागयोवृद्धिः उत्कर्षणम्” – कर्मों की स्थिति अर्थात् बंधे रहने का समय और अनुभाग अर्थात् शक्तिमें वृद्धिहो जाना उत्कर्षण कहलाता है । १. गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाषा, गाथा ३५१ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा ४३८ ३. कर्मरहस्य, पृ० १७२-१७३ ४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ११६ ५. कर्म रहस्य, पृ० १७४ ६. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा ४३८ 2010_03 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें कों की स्थितिका उत्कर्षण हो जाने पर कर्म जितने कालके लिए बन्धको प्राप्त हुए थे, उसका उल्लंघन करके बहुत कालके पश्चात् उदयमें आते हैं। जिस प्रकार स्थितिमें वृद्धिहो जाती है, उसी प्रकार अनुभाग अर्थात् फलदान शक्तिमें भी वृद्धिहो जाती है। मन्दतम शक्ति वाले संस्कार एक क्षणमें ही तीव्रतम हो जाते उदाहरणतया किसी जीवने पहले अशुभ कर्मका बन्ध किया, उसके पश्चात् उसकी भावना और अधिक कलुषित हो जाए तब पहले बंधे हुए अशुभकर्मों की स्थिति बढ जायेगी और फल देनेकी शक्ति भी तीव्र हो जायेगी। उत्कर्षण भी दो प्रकारका होता है - व्याघात और अव्याघात । जिस समय पूर्वसत्तामें स्थित कर्म परमाणुओंसे नवीन बन्ध अधिक हो, परन्तु इस अधिकका प्रमाण एक आवलि (जैन मान्य गणित की एक विशेष गणना) से अधिक न हो, तब वह अवस्था व्याघात दशा कहलाती है। इसके अतिरिक्त शेष उत्कर्षणकी र्निव्याघात अवस्था ही होती है। उत्कर्षण, कर्मकी उसी अवस्थामें संभव होता है, जबतक कर्म उदयकी सीमामें प्रवेश न करें, सत्ता रूपमें ही हों । उदयकी सीमा में प्रवेश हो जाने पर उत्कर्षण संभव नहीं होता। (६) संक्रमणकरण “परप्रकृति रूप परिणमनम् संक्रमणम्" अर्थात् पहले बंधी कर्म प्रकृतिका अन्य प्रकृति रूप परिणमन हो जाना संक्रमण है।' कोशकारके शब्दोंमें – “जीवके परिणामोंके वशसे पूर्व बद्धकर्म प्रकृतिका बदलकर, अन्य प्रकृति रूप हो जाना संक्रमण है।' कुसंगतिके प्रभावसे सज्जन भी दुर्जन हो जाते हैं और सत्संगतिके प्रभावसे दुर्जन भी सज्जन हो जाते हैं। यह संक्रमणकरण ही है जो अभ्यासके अनुसार व्यक्तिके स्वभावको ही बदल देता है। इस प्रकार शुभ प्रकृति अशुभ रूपमें और अशुभ प्रकृति शुभ रूपमें संक्रमित हो जाती है। यह संक्रमण केवल प्रकृतिमें ही नहीं होता, अपितु प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश कर्मों की चारों अवस्थाओंमें (इनका स्पष्ट निर्देश अग्रिम १. कर्म रहस्य, पृ०१७२-१७३ २. कषायपाहुड़, ७, भाग ५, पृ० २४५ ३. कर्मरहस्य, पृ० १७४ ४. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका गाथा, ४३८ ५. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृ०८२ 2010_03 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन अधिकारमें है ) परिवर्तन होता है । इस प्रकारसे संक्रमण चार प्रकारका हो जाता है - प्रकृति संक्रमण, स्थिति संक्रमण, अनुभाग संक्रमण और प्रदेश संक्रमण | संक्रमण प्रत्येक प्रकारके कर्मों में नहीं होता और न ही प्रत्येक अवस्था में होता । संक्रमणके विषयमें कुछ अपवाद हैं १. आठ मूल प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण नहीं होता, संक्रमण केवल उत्तरप्रकृतियों में ही होता है । २ ३. ४. उत्तर प्रकृतियों में भी आयु कर्म की चार प्रकृतियोंका एक दूसरे में संक्रमण नहीं होता । दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय कर्म प्रकृतियोंका परस्पर संक्रमण नहीं होता, परन्तु इनकी उत्तरप्रकृतियोंका होता है । उदयावलिका, बंधावलिका, उत्कर्षणावलिका और संक्रमणावलिका आदिको प्राप्त कर्मस्कन्धों में संक्रमण नहीं होता । अर्थात् वे कर्म स्कन्ध जो उदय, बन्ध, उत्कर्षण और संक्रमण की सीमामें जा चुके हैं, उनका संक्रमण नहीं होता । " इस प्रकार से कर्मों के अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण रूपमें सूक्ष्म विवेचन अन्य किसी भी दर्शनमें प्राप्त नहीं होता, इस कारण इनकी अन्य दर्शनों से तुलना संभव नहीं है । जैन मान्य अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणके सिद्धान्तसे यह भी सिद्ध हो जाता है कि जिस रूपमें कर्मों का बन्ध होता है, कर्म उसी रूपमें फलोन्मुख नहीं होते । वर्तमान पुरुषार्थके आधार पर उनकी स्थिति और शक्तिमें हीनाधिकता होती रहती है । 1 (७) उदीरणा करण ३५ “भुंजणकालो उदओ उदीरणापक्वपाचणफलं "५ कर्मों के फल भोगने के कालको उदय कहते हैं और भोगनेके कालसे पहले ही अपक्व कर्मों को पकानेका नाम उदीरणा है । आत्मारामने उदीरणाका विवेचन करते हुए कहा है कि जो कर्म स्कन्ध भविष्यमें उदयमें आने वाले हैं, उन्हें विशिष्ट प्रयत्न, तप, परिषह सहन, त्याग व ध्यान आदि से खींचकर, उदयमें आये हुए कर्म स्कन्धोंके साथ ही भोग १. स्टडीज इन जैन फिलासफी, पृ० २५५ २. णत्थि मूल पयडीणं संकमणं... गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ४१० ३. दंसणच रित्तमोहे आउचंउक्के णं संकमणं गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ४१० - ४. जैन साहित्यका वृहद् इतिहास, भाग ४, पृ० ११९ ५. पंचसंग्रह, प्राकृत, अधिकार ३, गाथा ३ 2010_03 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें १०३ लेना उदीरणा है। इस प्रकार उदीरणाके द्वारा लम्बे समयके बाद उदयमें आनेवाले कर्मों को पहले ही भोग लिया जाता है। डॉ० टॉटिया और डॉ० ग्लासनेपने इनको " प्रीमैच्योर रियलाइजेशन” अर्थात् अपरिपक्व प्रत्यक्षीकरण अथवा समयसे पूर्व भोगमें आना कहा है । (८) उपशमकरण · कर्मों के उदयको कुछ समयके लिए रोक देना उपशम कहलाता है ।' कर्मकी इस अवस्थामें उदय अथवा उदीरणा संभव नहीं होते। जिस प्रकार राखसे आवृत अग्नि, आवृत अवस्थामें रहते हुए अपना विशेष कार्य नहीं कर सकती, किन्तु आवरणके हटते ही पुन: प्रज्वलित होकर अपना कार्य करने को समर्थ हो जाती है, उसी प्रकार उपशमन अवस्थामें रहा हुआ कर्म, उस अवस्थाके समाप्त होते ही अपना कार्य प्रारम्भ कर देता है अर्थात् उदयमें आकर फल प्रदान करना प्रारम्भ कर देता है ।" कतकफल या निर्मलीके डालने से जिस प्रकार मैले पानीका मैल नीचे बैठ जाता है और कुछ समयके लिए स्वच्छ जल ऊपर आ जाता है, इसी प्रकार कर्मों की उपशमन अवस्थामें परिणामोंकी विशुद्धिके कारण कर्मों की शक्ति अनुद्भूत हो जाती है। कर्मों की यह क्षणिक विश्रान्ति ही उपशम कहलाती है।" उपशम अवस्था यद्यपि क्षणिक होती है, परन्तु इस अवस्थाका मोक्ष मार्ग में अत्यन्त महत्त्व है क्योंकि जितने समयके लिए कमका क्षोभ शान्त हो जाता है, उतने समयमें जीवात्मा समता और आनन्दका अनुभव करता है। यह अल्पकालीन आनन्द ही उसे पुन: पुन: कर्मों से पूर्ण मुक्तिकी प्रेरणा करता रहता है। श्री जिनेन्द्र वर्णी के अनुसार संस्कारोंके उपशमसे प्राप्त क्षणिक आनन्द व्यक्ति की सकल प्रवृत्तियोंको अपनी ओर उन्मुख कर लेता है, उसकी स्मृति, चित्त पर अंकित हो जाती है। एक बार किसी वस्तुका स्वाद आ जाने पर जिस प्रकार व्यक्ति पुन: पुन: उसकी प्राप्तिके लिए ललचाता है और प्रयत्न करता है, उसी प्रकार उपशमसे प्राप्त रसोन्मुखता, उसे निरन्तर कर्मों को पूर्ण क्षय करने और आत्माभिमुख होने की ओर प्रयत्नशील बनाये रखती है । ६ १. जैन तत्त्व कलिका, छठी कलिका, पृष्ठ १८० २. (क) टॉटिया स्टडीज इन जैन फिलॉसफी, पृ० २६७ (ख) ग्लॉसनेप द डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ४६४ ४. जैन साहित्यका वृहद इतिहास, भाग ४, पृ० २५ ५. राजवार्तिक, पृ० १०० ६. कर्म रहस्य, पृ० १७५ 2010_03 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन उपशम अवस्थामें उदय, उदीरणा, निधत्ति और निकाचना ये चार करण नहीं होते । अर्थात् उपशमावस्थामें कर्मों की फलोन्मुखताका और कर्मों की अपरिवर्तनीय जातिका अभाव होता है । १०४ (९) निधत्तकरण कर्मकी वह अवस्था निधत्ति कहलाती है जिसमें उदीरणा और संक्रमणका सर्वथा अभाव होता है और कर्मोंका उत्कर्षण और अपकर्षण संभव होता है ।' अर्थात् कर्मों की इस विशेष अवस्थामें आत्माके साथ कर्म इस प्रकार संबंधित हो जाते हैं कि कर्मों में उत्कर्षण और अपकर्षणके अतिरिक्त उदय उदीरणा संभव नहीं होते । (१०) निकाचित करण कर्मकी उस अवस्थाका नाम निकाचना है जिसमें उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, और उदीरणा ये चारों अवस्थायें असंभव होती हैं । कर्मों की इस अवस्थाको नियति कहा जा सकता है। क्योंकि इस अवस्था में कर्मों का फल उसी रूपमें अवश्य प्राप्त होता है जिस रूपमें बन्ध को प्राप्त हुआ था । इसमें इच्छा, स्वातन्त्र्य या पुरूषार्थ का सर्वथा अभाव रहता है। किसी विशेष कर्म की ही यह अवस्था होती है । जैन सम्मत निकाचित कर्मको योग सम्मत नियतविपाकी कर्मके सदृश माना जा सकता है । ६. कर्मकी अवस्थाओंका तुलनात्मक विवचेन जैन दर्शनमें कर्म की अवस्थाओंका जिस प्रकार सूक्ष्मतासे विवेचन किया गया है, इस प्रकार का सूक्ष्म विवेचन अन्य किसी भी दर्शनमें प्राप्त नहीं होता । इसी कारण यद्यपि उपरोक्त सभी अवस्थाओं की तुलना संभव नहीं है, परन्तु कुछ अवस्थाओं की तुलना योग दर्शन और वेदान्त दर्शनसे की जा सकती है । जैन दर्शनमें जिसे उपशम करण कहा गया है उसे योगदर्शनमें तनु अवस्था कहा जाता है और जैन दर्शन मान्य " संक्रमण करण और उदीरणाको योग दर्शन १. जैन साहित्यका वृहद् इतिहास, भाग ४ पृ० २५ २. निधत्तिकरणद्रव्यं संक्रमणोदययोर्निक्षेप्तुमशक्यम्. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा ४५० ३. निकाचित करणद्रव्यं, उदयावलिसंक्रमोत्कर्षणापकर्षणेषु निक्षेप्तुमशक्यम् गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा ४५० ४. ५. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ४, पृ० २५ योगदर्शन भाष्य, २, १३ 2010_03 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें १०५ मान्य " अनियतविपाक” के समान समझा जा सकता है । जैन मान्य निकाचित करणकी योग मान्य “ नियत विपाक" से समानता है, क्योंकि निकाचित अवस्थाके कर्मों के फलों में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, उनका विपाक नियमसे निश्चित समयमें, उसी रूपमें ही होता है । ' जैन दर्शनके "सत्वकरण" को वेदान्त दर्शनके संचित कर्म के समान समझा जा सकता है, क्योंकि यह कर्मों की वह अवस्था है, जिसमें कर्म अपना फल प्रदान न करते हुए भी संचियमान कोषके रूपमें विद्यमान रहते हैं । जैन दर्शनकी उदयावस्थाको वेदान्त मान्य प्रारब्ध कर्मके समान समझा जा सकता है जिसका भोग अवश्य करना पड़ता है। जैन मान्य बन्ध अवस्थाकी तुलना वेदान्त मान्य " क्रियमाण कर्मों" से की जा सकती है क्योंकि वर्तमानमें मन-वचन- कायके द्वारा किये गये कर्म ही मोह, राग, द्वेषादिके कारण बन्धको प्राप्त हो जाते हैं और इनका फल आगामी समयमें प्राप्त होगा । इसी कारण वेदान्त दर्शनमें क्रियमाण कर्मको आगामी कर्म भी कहा जाता है । श्री निवासने कहा भी है कि जैन मान्य बन्धु उदय और सत्त्व करणका यह विभाजन वेदान्त मान्य आगामी, प्रारब्ध और संचित कर्मके अनुरूप है । २ निम्नलिखित तालिकामें गुणस्थानों में अर्थात् विकासक्रमके सोपानों में दस करणोंका दिग्दर्शन कराया गया है । गुणस्थानों का विस्तृत विवेचन आगे पृथक् अध्यायमें किया जाना है। यहां केवल दस करणों की दृष्टिसे निर्देशन किया गया है । मिथ्यादृष्टिसे लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त दसकरण संभव होते हैं, क्योंकि यहां तक जीवोंमें कर्म की प्रत्येक अवस्था किसी न किसी रूपमें पायी जाती है। अपूर्वकरण गुणस्थानमें परिणामोंकी विशुद्धि अधिक हो जाने से अग्रिम गुण स्थानोंमें निधत्ति और निकाचना नामक प्रगाढ कर्मों का अभाव हो जाता है और उपशम या क्षपक किसी भी एक श्रेणीका निर्धारण हो जाने के कारण उपशम करणका भी अभाव हो जाता है । " उपशान्त और क्षीण मोह नामक गुण स्थानों में उपशम, निधत्ति और निकाचना नामक कर्मोंका अभाव तो होता ही है, परन्तु साथ ही मोहनीय कर्मकी प्रकृतिका १. टॉटिया नथमल, स्टडीज़ इन जैन फिलॉसफी, पृ० २६० २. This Classification of Karama corresponds exactly to that of the Hindus 'Agamin, prarabdha and samcita' Shri Niwas, P. T. outlines of Indian Philosophy 1909 P. 62 Banaras. ३. आदिमसत्त्वे तदो सुहुम कसाओति संकमेण विणा । छच्य सजोगिन्ति तदो सत्तं उदयं अजोगित्ति... गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ४४२ ४. “ उवसंतं च णिधत्ती णिकाचिदं तं अपुव्वोत्ति" गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ४५० 2010_03 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ गुणस्थान १. मिथ्यादृष्टि २. सासादन ३. सम्यक्मि ध्यात्व ४. अविरत सम्यकदृष्टि ५. देशसंयत ६. प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत ७. ८. अपूर्वकरण ९. अनिवृत्तिकरण बन्ध १ " 99 " 节 ㄌ 21 "3 發 १०. सूक्ष्मसाम्पराय ११. उपशान्तमोह १२. क्षीणमोह १३. सयोगकेवली १४. अयोगकेवली x " " 我 दस करणोंका गुणस्थानकी दृष्टिसे निर्देशन उत्क - अपक. - संक्र. उदी. सत्ता उदय उप र्षण मण रणा र्षण शम ४ ५ २ " 3 2010_03 " " 男 ל y 5 野 奶 ॐ X ३ n 男 野 66 剪 " ת X 野 男 " 男 列 ग 野 男 育 X X X X " " - 功 5 " 奶 " जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन X ६ Y " 好 " 19 野 剪 . 开 39 " ছ " Я 努 " Я ८ 33 39 ५ n " " 37 X X X X X X निधति निका. - चना १० ९ " 剪 " " " 券 X X X X X X " , 門 21 99 ת 刘 . I क्षय हो जानेसे संक्रमण करण का भी क्षय हो जाता है । सयोगीमें भी छह करण ही होते हैं । ' सयोग केवली गुणस्थानके अंतिम समय में बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण और उदीरणा करणोंका भी क्षय हो जाता है और अयोग केवलीमें केवल दो ही करण होते हैं, " अयोगे सत्त्वोदयकरणे द्वे एव" । X X X X. X X दस करणों के उपरोक्त गुणस्थान संबंधी विवेचन से यह ज्ञात होता है कि निधत्ति और निकाचना नामक कर्मकी अवस्थायें, यद्यपि प्रगाढ होती हैं, परन्तु मिथ्यात्व अथवा अविद्याके नाश हो जानेपर और कषायोंके तीव्रतम वेगों के समाप्त हो जाने पर इन कर्मों की ये अवस्थायें विध्वंस हो जाती हैं । कर्मों की प्रगाढ़ता मन्द होने पर कुछ समयके लिए जीव शांतिका अनुभव करता है। जैसेजैसे विकासके मार्ग पर अग्रसर होता जाता है, वैसे वैसे ही कर्मों का अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण भी नहीं होता । जीव यथारूप ही कर्मों को भोगता है । सिद्ध १. “संक्रमणकरणं बिना षड़ेव सयोगपर्यन्तं भवंति ” गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्व प्रदीपिका, गाथा ४४२ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्व प्रदीपिका, गाथा ४४२ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें १०७ अवस्थासे कुछ समय पूर्व तक जीवकी आयु सत्तामें होती है और शरीरादि नामकर्म का उदय पाया जाता है। निष्कर्ष दसकरणों का उल्लेख कर्मों की अवस्थाओं के अनुरूप क्रमपूर्वक आगे पीछे किया गया है, परन्तु वस्तुत: इनका कोई क्रम नहीं है। वस्तु स्थितिमें इनको युगपत् देखा जा सकता है | किसी भी एक समयवर्ती क्रियामें युगपत विभिन्न अवस्थाओंको घटित किया जा सकता है। किसी भी एक क्रियाके द्वारा नवीन कर्मों का बन्ध, पूर्व कर्मों का उदय और सत्तामें पड़े कर्मों का अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण हो सकता है। इस प्रकार एक परिणामसे छह करण युगपत् सिद्धहो जाते हैं। निधत्त और निकाचित जातिके कठोर संस्कारों में बन्ध, उदय और सत्त्व ये तीन करण ही संभव होते हैं। ___टाटिया के अनुसार - आत्मामें होने वाला प्रत्येक परिवर्तन कर्ममें आने वाले प्रत्येक परिवर्तनके साथ तथा इसके विपरीत क्रममें भी समान रूपसे सहभागी होता है। उन्हीं के अनुसार- कर्मकी प्रक्रियाको पूर्व कल्पित “शक्ति की प्रक्रिया" कहा जा सकता है अथवा शक्तिकी प्रक्रियाको पूर्व कल्पित “कर्मकी प्रक्रिया" कहा जा सकता है। उपरोक्त दस करणोंके विवेचनसे स्पष्ट है कि जैन दर्शनके अनुसार जीव, जिस रूपमें कर्मोका बन्ध करता है, वे कर्म उसी रूपमें फलदायी नहीं होते । बन्ध से उदय तकके मध्यवर्ती कालमें, वर्तमान कर्मों के अनुसार, पूर्वकृत कर्मों में संक्रमण, अपकर्षण, उत्कर्षण आदि अनेकविध परिवर्तन प्रत्येक समयमें होते रहते हैं । डॉ० भार्गवके अनुसार, पूर्वकृत कर्मों को पुरूषार्थ के द्वारा परिवर्तित किया जा सकता है, दूषित कमों में सुधार किया जा सकता है और वर्तमान कुत्सित आचरणके द्वारा पूर्वकृत कर्मों को उत्तेजक अथवा विकृत भी किया जा सकता है। - 3. "Every change in the soul synchronizes with the corresponding change in Karaman and vice versa." Tatia Nathmal; studies in Jaina Philosophy P. 254. २. वही, पृ०२५५ 2. "The previous action can be alterd, amended, aggravated or affected through exertion" Bhargava Dayanand, Jain Ethics P. 63... 2010_03 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन जैन दर्शनानुसार वर्तमान पुरूषार्थके द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों में परिवर्तन किया जा सकता है, इसी कारण आचार्यों ने नवीन कर्मपुद्गलों के प्रवाहको रोकने के लिए संवर पथ और पूर्वबद्ध कर्मों का समूल नाश करने के लिए निर्जरा पथका दिग्दर्शन कराया है। इनका वर्णन आगे षष्ठ अध्यायमें किया गया है । 3. That is why the acaryas have asked us to exert and stop the inflow of fresh Karmic matter and also to annihilate the previous Karmas. Ibid. P. 63. २. कर्म मुक्तिका मार्ग, अध्याय ६ 2010_03 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १. मिथ्यात्दर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा:बन्धहेतव : २. सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स: बन्ध: ३. प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तविधयः; (तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ८, सूत्र १-३।) सामान्य परिचय कर्मबन्धके विषयमें पूर्व अध्यायमें विस्तृत वर्णन किया जा चुका है। पुद्गलका जीवके साथ नीर-क्षीरके समान संबंध हो जाना ही कर्मबन्ध है । कर्म बन्धको प्राय: सभी दर्शनोंने किसी न किसी रूपमें स्वीकार किया है । जीव और अजीव तत्त्वों के एक हो जानेसे ही संसारकी समस्त समस्यायें तथा विषमतायें उत्पन्न होती हैं, दोनों तत्त्वोंके पृथक् हो जाने पर सब समस्यायें स्वत: ही दूर हो जाती हैं। जीव और अजीव तत्त्वोंका परस्परमें बन्ध किस कारणसे होता है यह जानकर ही इससे मुक्ति का उपाय किया जा सकता है। कमों के बन्धको एक मतसे स्वीकार करते हुए भी सभी दर्शनोंमें कर्मबन्धके स्वरूपके विषयमें अपना विशिष्ट मत है। इसी कारण कर्मबन्धके कारणोंको भी सभी दर्शनों में विभिन्न रूपसे कहा गया है। अत: विभिन्न दर्शनोंकी दृष्टिसे कर्मबन्धके कारणोंका विश्लेषणात्मक अध्ययन आवश्यक है। १. विभिन्न दर्शनोंमें कर्मबन्धके कारण१. उपनिषदोंमें कर्म बन्धका कारण उपनिषदों में कर्मबन्धका कारण बताते हुए कहा गया है कि देहादि अनात्म पदाथोंमें आत्माभिमान करना ही कर्मबन्धका कारण है। इसे ही असुरोंका ज्ञान भी कहा गया है, जिसके कारण आत्मा परवश हो जाता है । परवश हो जाने पर आत्मा व्यापक ज्ञानसे वंचित रह जाता है और जन्म, जरा, मृत्यु आदिको ही यथार्थ मानकर कर्म बन्ध करता रहता है ।२ १. छान्दोग्य उपनिषद, अध्याय ८, खण्ड ८, मंत्र ४.५ २. वही, अध्याय७, खण्ड २३, मंत्र १. 2010_03 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन २. बौद्ध दर्शनमें कर्म बन्धका कारण बौद्ध दर्शनमें निर्दिष्ट चार आर्य सत्योंमें द्वितीय आर्य सत्य, दु:ख समुदयमें, दु:खके कारणों का निर्देश किया गया है । दु:खके बारह कारणोंको एक श्रृंखलाके रूपमें निर्दिष्ट किया गया है, इनको द्वादश प्रतीत्यसमुत्पाद कहा जाता है । कार्यकारण श्रृंखलामें अविद्या को ही सबसे प्रथम दु:खका कारण माना गया है। बौद्ध दर्शनमें प्रतीत्य समुत्पादके द्वारा बन्धके कारणोंको निर्दिष्ट कर कर्मवादकी स्थापना की गई है। आश्रवसे अविद्याका समुदय और अविद्यासे आश्रव होता रहता है। ३. न्यायवैशेषिक दर्शनमें कर्म बन्धका कारण न्याय दर्शनमें बन्धके प्रमुख कारण रागद्वेष और मोह कहे हैं। रागसे काम, मात्सर्य, स्पृहा, तृष्णा और लोभ ये पाँच दोष उत्पन्न होते हैं, द्वेषसे क्रोध, ईर्ष्या, असूया, तृष्णा और आमर्ष ये पाँच दोष उत्पन्न होते हैं और मोहसे मिथ्याज्ञान, विचिकित्सा मान और प्रमाद ये चार दोष उत्पन्न होते हैं । इन चौदह दोषों के कारणही प्राणी संसारमें बन्धको प्राप्त होता है। इन दोषोंमें मोह सबसे प्रधान दोष माना जाता है, क्योंकि मोहके कारण अविद्या राग व द्वेष उत्पन्न होते हैं, जिससे देहादि अनात्म वस्तुओंमें, आत्माकी प्रतीति होने लगती है । वैशेषिक दर्शनमें अविद्याके चार कारण बताये गये हैं - संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और स्वप्न। अविद्या का कारण बताते हुए कणादने कहा है- “इन्द्रियदोषात्संस्कारदोषाच्चाविद्या"६ ४. मीमांसा दर्शनमें कर्म बन्धके कारण वैदिक अनुष्ठान विधियोंको, सम्यक् प्रकारसे प्रतिष्ठित करने के लिए, जैमिनीने मीमांसा सूत्रोंका प्रणयन किया। मीमांसा दर्शनमें कर्म अनेक प्रकारके कहे गये हैं - नित्य कर्म, नैमित्तिक कर्म, काम्य कर्म, प्रतिषिद्ध कर्म आदि । इनमेंसे स्नान, सन्ध्यावन्दनादि नित्यकर्म और अनिष्ट ग्रहशान्ति, प्रायश्चितादि नैमित्तिक कर्म, बन्धके कारण नहीं होते, इन कर्मों को यज्ञार्थ कर्म भी कहा जाता है । पुत्र प्राप्ति अथवा स्वर्ग प्राप्ति आदिफलोंकी कामना रखकर किये जाने वाले काम्य कर्म और महान् पातकयुक्त गोवधादि प्रतिषिद्ध कर्म, बन्धके कारण कहे जाते हैं।" १. सिन्हा, हरेन्द्र प्रसाद, भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, पृ०९४ २. मज्झिमनिकाय, १.१.९. ३. तत्रैराश्य राग द्वेषमोहार्थान्तराभावात्, न्यायसूत्र, ४, १, ३ ४. वात्सायनभाष्य, न्याय सूत्र, ४,१,३ ५. तेषां मोहः, पापीयान्नामूढस्येतरेतरोत्पत्ते: , न्यायसूत्र ४,१,६ ६. वैशेषिक सूत्र, ९, २, १० ७. “यज्ञात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:", भगवद्गीता, ३,९. 2010_03 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ MANGAL कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद . वेदान्तमें कर्म बन्धके कारण- वेदान्तमें अज्ञानको ही बन्धका मूल कारण कहा गया है। वेदान्तके अनुसार अज्ञानको सत् और असत्से भिन्न अनिर्वचनीय कहा गया है, क्योंकि सत् बस्तुका ब्रह्मकी तरह नाश नहीं होता और असत् आकाश पुष्प अथवा वन्ध्यापुत्रके समान प्रतीतिमें नहीं आता, परन्तु अज्ञानका नाश भी होता है और प्रतीतिमें भी आता है । अज्ञानके कारण ही जीव संसार चक्रमें बन्धा हुआ है । ६. सांख्य दर्शनमें कर्म बन्धके कारण सांख्य दर्शनमें भी ज्ञानके विपर्ययको कर्म बन्धका कारण कहा गया है। अनुराधा व्याख्या करते हुए चतुर्वेदीने कहा है कि विपर्ययात् पदसे, ज्ञानके विपरीत अज्ञानका ग्रहण होता है, जो मोक्षके विपरीत संसार बन्धका कारण है। यह बन्धन भी तीन प्रकारका होता है - प्राकृतिक, वैकृतिक और दाक्षणिक । प्रकतिको आत्मा मानकर उसकी उपासना करना प्राकृतिक बन्ध है, पंचमहाभूत, इन्द्रिय, अहंकार और बुद्धिको ही पुरूष मानकर उपासना करना वैकृतिक बन्ध है और यज्ञकी समाप्तिपर प्राप्त दक्षिणामें ही आस्था रखकर आजीवन यज्ञादि कर्म करते रहना दाक्षणिक बन्ध है। महर्षि रमणने कहा है कि चेतन और जड़ जगत्के बीच भ्रामक अहंका रहस्यमय आर्विभाव ही सब क्लेशोंका मूल है । अर्थात् बन्ध का कारण है। ७. योग दर्शनमें कर्म बन्धके कारण योग दर्शनके अनुसार क्लेश संसारका अर्थात् बन्धका मूल कारण है । सब क्लेशोंका मूल अविद्या है। सांख्य दर्शनमें जिसे विपर्यय कहा गया है, योग दर्शनमें उसे ही क्लेश कहा गया है । वाचस्पति मिश्रने सांख्यतत्व कौमुदीमें योगदर्शन मान्य पंच क्लेशोंको क्रमश: तमस, मोह, महामोह, तामिस और अन्धकार कहा है- अविद्याऽस्मिता, राग-द्वेषाभिनिवेशा: यथासंख्यं तमो, मोह, महामोह, तामिसान्ध-तामिस संज्ञका पंच विपर्यय: विशेषाः ।' योग दर्शनके अनुसार अनित्य, अशुचि, दु:खमय और अनात्म वस्तु में नित्य, शुचि, सुखमय और आत्मबुद्धि करना ही अविद्या है। १. “अज्ञान सदसदभ्यामनिर्वचनीय" सदानन्द, वेदान्तसार, खण्ड ६ २. विपर्ययादिष्यतेबन्धः, सांख्यकारिका, ४४ ३. सांख्यकारिका ४४, अनुराधा व्याख्या, १९७४, पृ० १५४ ४. रमण महर्षि, कृष्ण स्वामीनाथन्, पृ०८० ५. सांख्य तत्त्व कौमुदी १९३५, पृ०४३७, मैट्रोपोलियन प्रिटिंग एण्ड पब्लिशिंग हाऊस, कलकत्ता। ६. अनित्याशुचिदु:खानात्मसुनित्यशुचि सुखात्मख्यातिरविद्या, योग सूत्र २,५ 2010_03 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन। ८. जैन दर्शनमें बन्धके कारण यद्यपि जैन दर्शनमें भी अन्य भारतीय दर्शनोंकी भाँति अज्ञान, अविद्या क्लेश आदि बन्धके कारणों का उल्लेख प्राप्त होता है, परन्तु जैन दर्शन बन्धन संबंधी विचारों में निजी विशिष्टता है । इस विशिष्टताका कारण जैनोंका जीव तथा पुद्गलके प्रति स्वतंत्र विचार कहा जा सकता है। जैनोंने जीवोंको अनन्त माना है। प्रत्येक जीवमें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति रूप अनन्त चतुष्ट्य पाया जाता है। पौद्गलिक संबंध हो जाने पर, बन्धकी अवस्थामें ये अनन्त शक्तियाँ आवृत है। जाती हैं, जिसके फलस्वरूप अनन्त शक्तियाँ, शक्ति रूपमें ज्योंकी त्यों रहते हुए भी, उसी प्रकार व्यक्त नहीं हो पाती, जिस प्रकार मेघके आवरणके कारण सूर्यका प्रकाश व्यक्त नहीं होता । प्रकाशका न्यून या अधिक व्यक्तपना आवरणको प्रगाढता अथवा विरलता पर निर्भर करता है । आवरण प्रगाढ होनेपर प्रकाश कम व्यक्त होता है, आवरणकी प्रगाढता हीन होते जाने पर प्रकाशकी मात्रा बढ़ती जाती है और आवरणके पूर्णतया नष्ट हो जाने पर आत्माका प्रकाश पूर्ण व्यक्त हो जाता है । आवरण का पूर्णतया क्षय हो जाना ही आत्माकी कर्मों से मुक्ति कहीं जाती है, इससे पूर्व सभी आत्मायें हीनाधिक रूपमें, कर्मों के आवरणसे मलिन मानी जाती है । इस आवरणको ही प्रमुखतया बन्ध कहा गया है। आत्मा अनादिकालसे इस आवरण युक्त अवस्थामें ही विद्यमान है । इस आवरण युक्त अवस्था अथवा कर्म बन्धके कारणों का विश्लेषण करते हुप सुखलाल संघवीने कहा है-जैनदर्शनमें बन्धके कारणों की चर्चा तीन प्रकार की गई है - एक परम्परामें, कषाय और योग दो ही बन्धके हेतु माने गये हैं, दूसरी परम्पराके अनुसार, मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार बन्धके हेत माने गये हैं, तीसरी परम्पराके अनुसार मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद कषाय और योगये पाँच बन्धके हेतु माने गये हैं। उमास्वामीने तत्त्वार्थ सूत्र में इन पाँच हेतुओंका ही उल्लेख किया है । मिथ्यात्वाविरति-प्रमादकषाय योगा: बन्धहेतवः"२ जैन आगमोंमें न्याय दर्शनके समान रागद्वेष और मोहको भी बन्धका कारण माना गया है । इन दोनोंके मूलमें मोह ही है। इन कारणोंकी संख्या और नामोंमें भेद अवश्य दृष्टिगोचर होता है, परन्तु तात्विक दृष्टिसे अन्तर नहीं है । राग और द्वेषका समावेश कषायमें हो जाता है, प्रमाद एक प्रकारका असंयम ही है, इसी कारण १. तत्त्वार्थसूत्र विवेचन, पृ० १९२ २. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ८, सूत्र १ ३. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन ३२,सूत्र ७ ४. स्थानांग सूत्र,२,२ 2010_03 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबन्धके कारण तथा भेदप्रभेद ११३ प्रमादको असंयम अथवा अविरतिमें समाविष्ट कर देने पर चार हेतु रह जाते हैं। इसी प्रकार मिथ्यात्व और असंयम ये दोनों कषायके स्वरूपसे भिन्न नहीं है, अतः इन दोनों को कषायमें गर्भित कर कषाय और योग ये दो हेतु कहे जाते हैं । ' जैसे चिकने शरीरपर धूली अधिक लगती है उसी प्रकार मिध्यात्व कषाय आदि से आत्मा में कर्म होने योग्य पुद्गल परमाणु एक क्षेत्रावगाह रूपसे संचित हो जाते हैं। पांचों कारणोंका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है १. मिथ्यात्व बन्धका सबसे प्रथम तथा प्रधान कारण मिथ्यादर्शन है । आत्मासे विपरीत श्रद्धाको मिथ्यादर्शन कहते हैं ।' स्वात्म तत्त्वसे अपरिचित संसारी आत्मायें शरीर, धन, पुत्र, स्त्री आदिमें ममत्व बुद्धि रखती हैं। इन सबकी प्राप्तिको इष्ट तथा इनसे विच्छेदको अनिष्ट मानती हैं और इष्टके प्रति प्रवृत्त तथा अनिष्टकी ओरसे निवृत होने का प्रयास करती हैं। यही रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति बन्धका मुख्य कारण बन जाती है। रागद्वेषात्मक प्रवृत्तिका मूल कारण मिथ्या श्रद्धा है । यह मिथ्या श्रद्धा दो प्रकारसे उत्पन्न होती है - १. परोपदेशपूर्वक २. नैसर्गिक । सुखलालके अनुसार विचार शक्तिका विकास होनेपर भी, जब किसी एक ही दृष्टिको पकड़ लिया जाता है और वह दृष्टि तत्त्वके विपरीत हो, तब ऐसे दर्शनको ही मिथ्यादर्शन कहते हैं, परोपदेशपूर्वक होने से उसे, “ अभिगृहीत मिथ्यादर्शन" कहा जाता है । अनादिकालीन आवरणके कारण, जिस समय केवल मूढतासे ही तत्त्वके विपरीत श्रद्धा हो, तब उसे नैसर्गिक या उपदेश निरपेक्ष होने से " अनभिगृहीत मिथ्यादर्शन" कहा जाता है । दृष्टि या पन्थ सम्बन्धी सभी ऐकान्तिक आग्रह अभिगृहीत मिथ्यादर्शन हैं, यह मनुष्य जैसी विकसित अवस्थामें ही संभव है, दूसरा अभिगृहीत मिथ्यात्व कीट, पतंग आदि अविकसित चेतना वाली अवस्थामें भी संभव है । ४ मिथ्यात्वके कारण जीव धर्मके स्थानपर अधर्मको, सुमार्गके स्थानपर कुमार्गको, साधुत्वके स्थानपर असाधुत्वको और अमूर्त के स्थानपर मूर्त विषयोंको ग्रहण करता है । " मिथ्यात्वको यद्यपि कर्मबन्धका प्रमुख कारण माना गया है, परन्तु केवल मिथ्यात्वही बन्धका कारण नहीं है, अपितु आत्माके स्वाभाविक १. भगवती आराधना, गाथा १८२१ २. “स्वात्म श्रद्धान विमुखत्वम् मिथ्यादर्शनम् ” नियमसार, तात्पर्यवृत्ति, गाथा ९१ ३. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३७५ ४. तत्त्वार्थ सूत्र विवेचन, पृ० १९३ ५. स्थानांग सूत्र, १०.१ 2010_03 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन गुणोंके आवृत्त होनेपर ही बन्ध होता है।' २. अविरति कर्मबन्धका दूसरा कारण अविरति है। "विरमण विरति:" अर्थात् विरक्ति होना विरति है और विरतिका अभावही अविरति है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिगह इन पांचों दोषोंसे विरक्त न होना ही अविरति कहा जाता है। दूसरे शब्दोंमें कहा गया है कि आभ्यन्तरमें, निज परमात्मस्वरूपकी भावनासे उत्पन्न, परम सुखामृतका अनुभवकरते हुए भी, बाह्य विषयोंमें अहिंसा, असत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन व्रतोंको धारण न करना ही अविरति है । बन्धके कारण रूप इस अविरतिको बारह प्रकारका कहा जाता है - पृथ्वी, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस इन षदकायिक जीवोंपर दया न करना और मन, स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु तथा कर्ण इन षट्करणों के विषयोंका सेवन करना। पूज्यपादजी ने कहा है - अविरतिद्वादशविद्या: षट्कायषट्करण विषयभेदात्"" ३. प्रमाद कर्मबन्धका तीसरा कारण प्रमाद है । सुख लाल संघवीने प्रमादका विवेचन करते हुए कहा है कि प्रमादका अर्थ है आत्मविस्मरण । आत्मविस्मरणका स्पष्टीकरण करते हुए पुन: कहा है - कुशल कार्यों में अनादर अर्थात् कर्त्तव्य अकर्तव्यकी स्मृतिमें असावधानी करना ही आत्मविस्मरण है। पूज्यपादजी ने प्रमाद शब्द का अर्थ करते हुए कहा है - "प्रमाद: कुशलेष्वनादर:"६ क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य आदि धर्मों में अनुत्साह या अनादर भावके भेदसे प्रमाद अनेक प्रकारका है । प्रमादके मुख्यतया पांच भेद कहे गये हैं - विकथा, कषाय? इन्द्रियराग, निद्रा और प्रणय । विकथा चार प्रकारकी कही गई है - स्त्री कथा. राजकथा, चौरकथा, और भोजनकथा। कषायके भी चार प्रकार हैं - क्रोध, मान, माया और लोभ । स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और श्रोत्र, इन पांचों इन्द्रियोंसे 1. Bondage in the ultimate analysis consists in the obstructed an mutilated condition of the various capacities of the soul. Tatia Nathmal, studies in! Jaina philosophy P. 151. २. अविरमणे हिंसादि पंचविहो सो हवइणियमेण” आचार्य कुन्दकुन्द, बारस अनुवेकरवा, गाथा ४८ ३. द्रव्यसंग्रह, टीका, गाथा ३०, पृ०८८ ४. सर्वार्थसिद्धि, अध्याय ८, सूत्र १, पृ० ३७५ ५. तत्त्वार्थ सूत्र विवेचन, पृ० १९३ ६. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३७४ ७. राजवार्तिक, पृ०५६४ ८. भगवती आराधना, विनिश्चय टीका, पृ०८१२ 2010_03 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद ११५ संबंधित रागको “ इन्द्रियराग" कहा गया है और बाह्य पदार्थों में ममत्व होना प्रणय है । इस प्रकार प्रमादके सब मिलाकर पन्द्रह भेद कहे गये हैं। पंचसंग्रहमें इन पंद्रह भेदोंको गाथामें कहा गया है विका तहा कसाया इंदियणिद्दा तहेव पणओ य । चदु चदु पण एगेगं होंति पमादा हु पण्णरसा ॥ चार्ट द्वारा इन्हें निम्न रूपसे प्रदर्शित किया जा सकता है। - प्रमाद १५ विकथा ४ कषाय ४ स्त्रीकथा क्रोध राजकथा मान भोजनकथा माया चौरकथा लोभ - सवार्थसिद्धि, पृ० ३२१ सवार्थसिद्धि, पृ० ३२१ इन्द्रियराग ५ स्पर्श रसना घ्राण चक्षु कर्ण 2010_03 निद्रा १ ४. कषाय 1 कर्मबन्धका चतुर्थ कारण " कषाय" है । कषायको प्रमादमें भी गर्भित किया जा सकता है, क्योंकि प्रमादके भेदों में कषायको गिनाया गया है । क्रोधादि परिणाम आत्माको कुगतिमें ले जाते हैं, आत्माको कषते हैं अर्थात् आत्माके स्वरूपकी हिंसा करते हैं, इसीलिये इन्हें कषाय कहा जाता है । ३ ५. योग कर्मबन्धका पंचम कारण योग है । यहाँपर योगका अर्थ है- मन, वचन और कायकी क्रियायें । इन तीनोंकी क्रियाओंसे कर्मबद्ध आत्मा में पुनः पुनः कर्मों का संचय होता रहता है। योग दो प्रकारका होता है - कषाय सहित और कषाय रहित । कषाय सहित योग संसारका कारण होने के कारण साम्परायिक कहलाता है । सम्पराय संसारका पर्यायवाची है, ' संसारका हेतु होनेके कारण ही इसे साम्परायिक नाम दिया गया है। कषाय रहित योग ईर्यापथ नामके क्षणिक बन्धका कारण होता है। ईर्याकी व्युत्पत्ति ईरणं है, जिसका अर्थ है गति ।' ईर्यापथ बन्ध अगले क्षण १. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३४ ५ २. पंचसंग्रह, प्राकृत, अधिकार १, गाथा १५ कषति हिनस्त्यात्मानं, राजवार्तिक, पृ० ५०८ ४. कायवाड्. मन: कर्मयोगः, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ६, सूत्र १ प्रणय १ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन ही बिना फल दिये नष्ट हो जाता है। इसकी स्थिति एक समय मात्रकी होती है।' इस प्रकार कषाय सहित मन, वचन तथा कायकी क्रियायें साम्परायिक और कषाय रहित मन, वचन, काय की क्रियायें ईर्यापथ कहलाती हैं, जो क्रमश:संसार तथा मोक्षका कारण होती हैं, मैत्र्युपनिषदमें भी इसी भावको निर्दिष्ट किया गया है। __मिथ्यात्वसे लेकर योग तकके इन पांच कारणों में उत्तरबन्ध हेतु होनेपर पूर्वबन्ध हेतु हो यान भी हो, परन्तु जहाँ पूर्व बन्धके कारण होंगे, वहाँ उत्तर कारण अवश्य होंगे। जैसे योग होने पर मिथ्यात्व, अविरति आदि हों या न भी हों, परन्तु मिथ्यात्व होनेपर अविरति, प्रमाद कषाय और योग अवश्य होंगे। बन्धके इन कारणोंको कैसे नष्ट किया जाता है इसका वर्णन अग्रिम अध्यायों में किया जायेगा। २. कर्मबन्धके भेद प्रभेद जैन दर्शनमें कर्म बन्धके भेदोंका विवेचन अति सूक्ष्म दृष्टिसे किया गया है। जैसे एक आम्रफल स्वभावकी दृष्टिसे मीठा या खट्टा हो सकता है, रस की दृष्टिसे कम या अधिक रस वाला हो सकता है, काल की दृष्टिसे एक या दो दिन रह सकता है, इसके पश्चात् सड़ने लगता है और वजनकी दृष्टिसे भारी अथवा हल्का हो सकता है। इस प्रकार आमका स्वभाव, रस, स्थिति और घनता आदिका सम्मिलित रूप ही आम है । आमकी तरह ही जीवके साथ बन्धको प्राप्त हुए कोका बन्ध भी चार प्रकारका होता है - कर्मों के स्वभाव, कार्य तथा गुणोंको बताने वाला बन्ध "प्रकृति बन्ध" कर्मों के कालका निर्धारण करने वाला बन्ध “स्थिति बन्ध" कर्मों की विपाक शक्तिको दर्शाने वाला वन्ध अनुभाग बन्ध" और कर्मों के पिण्डत्वको दर्शाने वाला बन्ध प्रदेश बन्ध' कहलाता है । उमास्वामीने सूत्रमें इन चारों भेदोंका निर्देशन करते हुए कहा है - "प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशास्तद्विधय:"६ इन चारोंमें से प्रकृति और प्रदेश बन्ध, मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिसे होते हैं । मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको जैन दर्शनमें योग कहा जाता है। स्थिति और अनुभाग बन्ध कषायों अर्थात् कलुषित परिणामोंसे होते हैं । नेमिचन्द्राचार्यने कहा है – “जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ३६१ २. सकषायाकषाययो: साम्परायिकर्यापथयो: तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ६, सूत्र ४ ३. मैत्र्युपनिषद्, अध्याय ६, श्लोक २४ ४. संघवी सुखलाल, तत्त्वार्थ सूत्र विवेचन, पृ० १९४ The Jaina divide Karma according to its nature, duration essence and content. Mrs. Stevenson, The Heart of Jainism P. 176 ६. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय८, सूत्र ३ ७. “कायवाड्.मन: कर्मयोग:" तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ६, सूत्र १ 2010_03 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १ कसायदो होति" " कषाय सहित किया गया शुभ या अशुभ कर्म ही स्थिति तथा अनुभाग बन्ध की वृद्धिकरता है और संसारका कारण होता है, परन्तु कषाय रहित किया गया कर्म स्थिति और अनुभाग बन्धकी वृद्धि नहीं करता । संसारकी वृद्धि करने वाले कषाय सहित कर्मको “साम्परायिक" और संसारकी वृद्धि न करने वाले कषाय रहित कर्मको “ईर्यापथ” कर्म कहा जाता है “सकषायाकषाययो: साम्परायिकेर्यापथयो: "२ ईर्यापथ कर्मकी तुलना गीताके निष्काम कर्म से की जा सकती है, क्योंकि ईर्यापथ कर्म में भी निष्काम कर्मके समान ही इच्छाका अभाव होता है, जिसमें पुनर्जन्म रूप संसार फलको उत्पन्न करने की शक्ति नहीं होती । " उपरोक्त निर्दिष्ट चतुर्विध बन्धोंका विस्तृत विवेचन इष्ट है. (१) प्रकृतिबन्ध - प्रकृतिका अर्थ है स्वभाव । ' जैसे नीमकी प्रकृति कटु है और गुड़की प्रकृति मधुर है । अग्नि स्वभावसे ही ऊर्ध्वगमन करती है, वायुका स्वभाव तिर्यग्गमन करना है और जलका स्वभाव अधोगमन करना है। इसी प्रकार अन्य कारणों से निरपेक्ष कर्मों का जो मूल स्वभाव है, वह प्रकृति बन्ध कहलाता है । प्रकृति, शील और स्वभाव ये सब एकार्थ वाची शब्द हैं । ६ श्रीमती स्टीवन्सनके अनुसार प्रत्येक मनुष्य अपने स्वभावके अनुसार कर्मों की रचना करता है । यदि कोई स्वभावसे कटु है, तो कटु कर्मको ही संचित करेगा और मधुर स्वभाव वाला मधुर कर्मों को ही संचित करेगा । बन्धकी इस कोटिको ही प्रकृति बन्ध कहते हैं । " कर्मका स्वभाव एक प्रकारका ही नहीं होता अपितु परिणामों तथा मनवचन- कायकी क्रियाओंकी अनेकताके कारण अनेक प्रकारका होता है । जीव जैसा कर्म करता है, उसके निमित्तसे वैसी कर्म प्रकृतियाँ कार्मण शरीरके साथ बन्धको प्राप्त हो जाती हैं। एक ही बाह्य शरीर, जिस प्रकार देखने, चलने, ग्रहण करने आदिकी विभिन्न शक्तियों से युक्त होता है, इसी प्रकार एक ही कार्मण शरीर १. द्रव्यसंग्रह, गाथा ३३ २. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ६, सूत्र ४ ३. कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः । जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥ गीता, अध्याय २, श्लोक ५१ ४. अनंतसंसारफलणिवत्तणसत्तिविरहादो” षटखण्डागम, धवला १३, भाग ४, पृ० ५१ ५. “पयड़ी एत्थ सहावो” पंचसंग्रह प्राकृत, अधिकार ४, गाथा ५१४ ६. १. पयड़ी सील सहाव, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा २ ७. श्रीमती स्टीवनसन, हर्ट ऑफ जेनिज़म, पृ० १६२ ११७ 2010_03 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन विभिन्न स्वभाव वाली प्रकृतियों को प्राप्त होकर ज्ञानावरणादि अनेक भेदों वाला हो जाता है। यदि प्रतिक्षण होने वाले परिणामों तथा क्रियाओंके आधारपर कर्म प्रकृतियोंकी गणना करें तो उनकी गणनासंभव ही नहीं है परन्तु आचार्योंने फलदान शक्तिकी विभिन्नताको देखते हुए अगणनीय कर्म प्रकृतियों का ज्ञानादि गुणोंको आवृत करने वाले, ज्ञानावरणादि अष्टविधकर्मों के द्वारा निर्देशन कर स्वभावोंकी विचित्रताका स्पष्ट दिग्दर्शन प्रस्तुत किया है । ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मों का बन्ध ही प्रकृति बन्ध कहलाता है।' ___रतनलालने अष्टविधकर्मबन्धके सामान्य स्वरूपका विवेचन करते हुए कहा है कि मनुष्य द्वारा खाया गया भोजन जिस प्रकार आमाशयमें जाकर पाचन क्रिया द्वारा रक्त मांस आदि सप्तविध धातुओं में परिवर्तित हो जाता है, उसी प्रकार जीवसे संबद्ध हुए कर्म परमाणुओंमें अनेक प्रकारकी कर्मशक्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। विभिन्न कर्म शक्ति युक्त परमाणुओंको मुख्यतया आठ भेदों में विभक्त किया जा सकता है। आठ भेदोंके उत्तर भेद करनेपर १४८ भेद हो जाते हैं । उनमें भी कुछ धातिया और कुछ अघातिया होते हैं । सर्वप्रकृतियों का पुण्य रूप और पापरूपमें भी वर्गीकरण किया जा सकता है। सर्व प्रकतियोंमें कुछ.पदगल विपाकी कुछ क्षेत्र विपाकी कुछ 'भव विपाकी और कुछ जीव विपाकी होती हैं।' आगे तालिकामें विभिन्न अपेक्षाओंसे कथित १४८ कर्म प्रकृतियोंका नाम निर्देशन किया गया है - 3. Subtle matter for instance is that matter which is transformed into the different kinds of Karman. Encyclopoadia of Religion and ethics vol I P. 468 २. “शक्तितोऽनन्तसंज्ञश्च सर्व कर्मकदम्बकम्" पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, श्लोक १००० ३. "ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मांतत्त्तद्योम्यपुद्गलद्रव्यस्वीकार : प्रकृतिबन्धः" नियमसार तात्पर्यवृत्ति, गाथा ४० ४. रतनलाल, आत्मरहस्य १९६१, पृ० १०० ५. ते पुण अट्ठविहं या अड़दालसयं असंखलोगे वा। ताण पुण घादित्ति अघादित्ति य होति सण्णाओ। गोम्मटसार कर्मकाण्ड, श्लोक ७ ६. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ५, सूत्र २५, २६ 2010_03 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद कर्म प्रकृति संबंधी एकत्र परिगणन तालिका कुल प्रकृतियाँ-१४८ जानावरणीय ५ - वेदनीय २ - आयु ४ गोत्र २ । __दर्शनावरणीय ९ . मोहनीय २८ नाम ९३ अन्तराय५ ज्ञानावरणीय-५ दर्शनावरणीय -९ वेदनीय - २ मोहनीय-२८ १. मतिज्ञानवरणीय १. चक्षु दर्शनावरणीय १.साता २. श्रुतज्ञानावरणीय २. अचक्षु " २. असाता ३. अवधि " ३. अवधि " ४.मन:पर्यय . ४. केवल " चारित्रमोह दर्शन मोह ५. केवल " ५.निद्रा " ६.निद्रा निद्रा १. मिथ्यात्व ७. प्रचला कषाय १६ नोकषाय ९ २.सम्यग्मिध्यात्व ८. प्रचला प्रचला ३. सम्यक् ९.स्त्यानगद्धि १.क्रोध चतुष्क १.हास्य २.मान " २. रति ३.माया " ३. अरति ४. लोभ , ४.शोक ५. भय ६.जुगुप्सा ७. स्त्रीवेद ८.पुरूषवेद ९. नपुंसकेवद आयु.४ नाम. ९३ गोत्र -२ अन्तराय.५ १. नरक १. उच्च १.दानान्तराय २.तिर्यच २.नीच २.लाभान्तराय ३. मनुष्य ३. भोगान्तराय १.देव ४. उपभोगान्तराय ५.वीर्यान्तराय पिण्डप्रकृतियाँ स्थावर दशक प्रत्येक प्रकृतियाँ त्रसदशक (इनका नाम निर्देशन नाम कर्ममें किया गया है) 2010_03 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन १. ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञान, अवबोध, अवगम और परिच्छेद ये सब एकार्थ वाचक नाम हैं। ज्ञानको जो आवृत करता है, वह ज्ञानावरणीय कर्म है। पूज्यपादजीने आवरणका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है – “आवृणोत्यावियतेऽनेनेति वा आवरणम् अर्थात् जो आवृत करता है अथवा जिसके द्वारा आवरण किया जाता है, वो आवरण है। ज्ञानावरण कर्म आत्माको इस प्रकार आवृत किये रहता है कि अर्थका ज्ञान नहीं होने पाता। ज्ञानावरणीय कर्मका स्वरूप दर्शाते हुए ब्रह्मदेवने कहा है - "सहजशुद्धकेवलज्ञानमभेदेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाधारभूतं ज्ञानशब्द वाच्य परमात्मानं वा आवृणोतीति ज्ञानावरणं" । केवलज्ञानादि अनन्तगुणोंका आधारभूत ज्ञान शब्दसे कथनीय परमात्म स्वरूपको आवृत करने वाला कर्म ज्ञानावरणीय कर्म है। ज्ञानावरणीय कर्मकी उपमा देवताकी मूर्ति पर ढके हुए वस्त्रसे दी जा सकती है। देवताकी मूर्ति पर ढका हुआ वस्त्र, जिस प्रकार देवताको आच्छादित कर लेता है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञानको आच्छादित किये रहता है। आवरण जितना कम प्रगाढ़ होगा, उतना ज्ञानका प्रागट्य भी बढता जाता है । आवरणका स्वरूप दर्शाते हुए यशोविजयजी ने दो प्रमुख तथ्यों की ओर निर्देश किया है - (क) आवरण एक प्रकारका द्रव्य है। (ख) यह द्रव्य कितना ही निबिड़ क्यों न हो, परन्तु अपने आवार्य ज्ञान गुणको सर्वथा आवृत नहीं कर सकता ।' आवरणके स्वरूपके विषयमें भी दो धारणायें हैं । बौद्ध और न्यायवैशेषिकोंने भी क्लेशावरण, ज्ञेयावरण आदि आवरणों को स्वीकार किया है। परन्तु इसे चित्त का एक संस्कार मात्र कहा है, जड़ रूप नहीं माना, परन्तु सांख्य और वेदान्तने इस आवरणको जड़ रूप माना है । सांख्यके अनुसार बुद्धितत्त्व का आवारक तमोगुण है, जो एक सूक्ष्म, जड़ द्रव्यांश मात्र है, जिसे सांख्य परिभाषा अनुसार प्रकृति या अन्त:करण कह सकते हैं। वेदान्तके अनुसार भी आवरणको अज्ञान और एक प्रकारका जड़ द्रव्य ही कहा गया है। १. णाणमवबोहो अवगमो परिच्छेदो इदि एयट्ठो। तमावरेदित्तिणाणावरणीय कम्मं । षट्खण्डागम, धवला ६, भाग १, पृ०६ २. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३८० ३. बृहद् द्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा ३१ ४. ज्ञानावरणीयस्य कर्मण: का प्रकृति: देवतामुखवस्त्रमिव ज्ञानप्रच्छादनता" वही, गाथा ३३ ५. यशोविजय उपाध्याय, ज्ञानबिन्दु प्रकरणम्, संवत् १९९८, पृ० १४ ६. वही, पृ० १५ 2010_03 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १२१ जैन दर्शनानुसार, ज्ञानावरण कर्म हों या अन्य कर्म, सबको अत्यन्त स्पष्ट रूपसे एक प्रकारका जड़ द्रव्य ही कहा है, परन्तु इसके साथ ही अज्ञान और रागद्वेषादि आत्मगत परिणामोंको बौद्ध, न्यायादि दर्शनोंके समान संस्कारात्मक भी माना गया है, जो जड़ कर्मों का कारण तथा कार्य भी है । जैन दर्शनमें जिसे ज्ञानावरणीय कर्म कहा जाता है, उसे ही बौद्ध दर्शनमें अविद्या और ज्ञेयावरण, सांख्ययोगदर्शनमें अविद्या और प्रकाशावरण और न्यायवैशेषिक तथा वेदान्त दर्शनमें अविद्या और अज्ञान कहा जाता है। वेदान्त, सांख्य तथा न्यायवैशेषिक दर्शनमें पुरूषको यद्यपि कूटस्थ नित्य माना गया है और जैन दर्शनने जीवको परिणामि नित्य माना है। परन्तु आवृत और अनावृत विषयमें जैन दर्शनकी वेदान्त दर्शनसे साम्यता है। उपाध्याय यशोविजयजी ने दोनों दर्शनोंकी साम्यता दिखाते हुए कहा है - जैन मतानुसार ज्ञान आवरक तत्त्व, चेतनत्वमें ही रहकर, अपने स्वाश्रय चेतनको ही आवृत करता है, जिससे स्वपर प्रकाशक चेतना अपना पूर्ण प्रकाश नहीं करने पाती, न ही पर पदार्थों को पूर्ण रूपसे प्रकाशित कर पाती है । वेदान्तके अनुसार भी अज्ञान ब्रह्मनिष्ठ होकर ही उसे आवृत करता है, जिससे अखण्डत्व रूपसे प्रकाश नहीं हो पाता । जैन प्रक्रियाका शुद्धचेतन और ज्ञानावरक तत्त्व वेदान्त प्रक्रियाके चिद्रूप ब्रह्म और अज्ञानसे साम्यता रखते हैं ।२ . ज्ञानावरणीय प्रकृति बन्धके कारण ज्ञानको आवृत करने वाले कर्म किस कारणसे आत्मासे संयुक्त होते हैं, इसका निर्देशन करते हुए उमास्वामीने पद कारणों का निर्देश किया है - "तत्पदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता: ज्ञानदर्शनावरणयो:"३ ज्ञान अथवा ज्ञानके धारक पुरूषोंकी अविनय करना और उनके प्रति मनमें दुष्ट भाव लाना प्रदोष है, अपने ज्ञानको छिपाना निह्नव है, ईर्ष्या के कारण योग्य पात्रको भी ज्ञान न देना 'मात्सर्य' है, ज्ञानमें विध्न डालना 'अन्तराय' है। ज्ञानके प्रकाशक साधनोंकी मन वचन कायसे विराधना करना आसादना" है और प्रशंसनीय ज्ञानमें दूषण लगाना अथवा ज्ञानका अभ्यास करने वालों को क्षुधादिक बाधा पहुंचाना 'उपघात' है।' इन छह प्रमुख कारणोंके अतिरिक्त १. पूर्व निर्दिष्ट, अध्याय दो। २. उपाध्याय यशोविजय, ज्ञानबिन्दु प्रकरणम्, संवत् १९९८, पृ०१५-१६ ३. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ६, सूत्र १० ४. सर्वार्थसिद्धि, पृ०.३२७ 2010_03 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ' जैन दर्शन में कमान्त -एक अध्ययन अन्य भी अनेक कारणोंसे ज्ञानावरणीय कर्मका बन्ध होता है - जैसे आचार्य या उपाध्यायके प्रतिकूल चलना, अकाल अध्ययन करना, अनादरसे पाठ सुनना, स्वपक्षका दुराग्रह करना, अविनय पूर्वक ज्ञान प्राप्त करना आदि ज्ञानावरणीय प्रकृति बन्धके कारण कहे जा सकते हैं। उपरोक्त सभी कारणोंमें ज्ञान प्राप्तिके साधनोंका तिरस्कार दृष्टिगोचर होता है अत: ज्ञान प्राप्ति के साधनोंका तिरस्कार करने वाला जीव ज्ञानावरणीय जाति के कर्म पुद्गलोंसे आवृत हो जाता है । । ज्ञानावरणीय कर्मकी मूलोत्तर प्रकृतियाँ पूर्ण ज्ञानका प्रतिबन्धक कर्म केवलज्ञानावरण कहा जाता है, परन्तु पूर्ण ज्ञानका प्रतिबन्धक यही आवरण, अपूर्ण ज्ञानका जनक भी होता है। जैसे मेघावृत सूर्यका अपूर्ण प्रकाश भी वस्त्र, भित्ति आदिके उपाधि भेदसे नाना रूप हो जाता है, उसी प्रकार अपूर्ण ज्ञानावरण भी विविध आवरणों के तारतम्यसे मति, श्रुत, अवधि व मन:पर्यय रूपसे चार प्रकारका हो जाता है । इस प्रकार ज्ञानावरण की पांच उत्तर प्रकृतियाँ हैं – १. मतिज्ञानावरण २. श्रुतज्ञानावरण ३. अवधिज्ञानावरण ४. मन:पर्ययज्ञानावरण ५. केवलज्ञानावरण - १. मतिज्ञानावरण. इन्द्रिय और मनके निमित्तसे शब्द, रस, स्पर्श, रूप और गन्धादि विषयोंमें जो अवबोध उत्पन्न करता है, वह मतिज्ञान है और मतिज्ञानको आवृत करने वाले कर्मपुद्गलोंको ज्ञानावरणीय कहते हैं। मतिज्ञानावरणके चार भेद हैं - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। इनको पांच इन्द्रियों और मनसे गुणित करने पर चौबीस भेद हो जाते हैं। अन्य भेद प्रभेद करनेपर ३३६ भेद माने गये हैं। इन सब प्रकारके मतिज्ञान को आवरण करने वाली असंख्यात प्रकृतियाँ हो जाती हैं । मतिज्ञानके विविध आवरणों को जानने के लिए मतिज्ञानके विविध भेदों को जान लेना आवश्यक है इसी कारण मतिज्ञानके विविध भेदोका संक्षिप्त परिचय देना इष्ट है। १. अवग्रह मतिज्ञान - पदार्थके अव्यक्त ज्ञानको 'अर्थावग्रह' कहते हैं । १. राजवार्तिक, पृ० ५२९ २. “मतिज्ञानमावृणोति आब्रियतेऽनेनेति मतिज्ञानावरण", गोम्मटसार कर्मकाण्ड जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा ३३ ३. क. अभिणिबोहियणाणावरणीयस्स कमस्स चउव्विहं वा चदुवीसदिविधं, षट्खण्डागम ,धवला टीका १३, भाग ५, पृ०२३. ४ ख. मदिणाणावरणीय पयडीओ..असंरवेज्जलोग्गमेत्ताओ, षटखण्डागम. धवला १२. भाग ४. ५० ५०१ ए 2010_03 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १२३ अव्यक्त ज्ञानसे पहले होनेवाला अत्यन्त अव्यक्त ज्ञान 'व्यंजनावग्रह' है। व्यंजनावग्रहमें सत्ताकी प्रतीति मात्र होती है और अर्थावग्रहमें “यह कुछ है" इस प्रकारका ग्रहण होता है । अर्थावग्रहका काल प्रमाण एक समय मात्र होता है।' अर्थावग्रह पांचों इन्द्रियों और मनके भेदसे छह प्रकारका होता है परन्तु व्यंजन अवग्रह, मन तथा चक्षु इन्द्रियसे नहीं होता इसी कारण यह चार प्रकारका होता है। व्यंजनावग्रह अत्यधिक अव्यक्त होनेके कारण नेत्र और मनका विषय नहीं हो पाता। २. ईहा मतिज्ञान- अवग्रहके द्वारा ग्रहण किये गये अत्यन्त अस्पष्ट ज्ञानको स्पष्ट करने के प्रति उपयोगकी उन्मुखता विशेषको ईहा कहते हैं । यह भी पाचों इन्द्रियों और मनके भेदसे छह प्रकारका है। ईहाका काल प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है । ३. अवायमतिज्ञान- ईहासे जाने गये पदार्थ के विषयमें जो निश्चित ज्ञान होता है, उसे अवाय कहा जाता है। जैसे यह स्थाणु ही है स्तम्भ नहीं, इस प्रकार का निश्चय हो जाना अवाय है । यह भी पांच इन्द्रियों और मनके भेदसे छह प्रकारका है। इसका काल प्रमाण भी अन्तर्मुहूर्त ही है। ४. धारणा मतिज्ञान-अवायसे जाने हुए पदार्थका कालान्तरमें विस्मरण न हो। ऐसे ज्ञानको धारणा कहते हैं | पूज्यपादजी ने कहा है - “अवेतस्य कालान्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा।" धारणाका काल संख्यात, असंख्यात वर्षोंकामाना गया है। सामान्यरूपसे मतिज्ञानके अट्ठाईस भेद कहे गये हैं, उन सबको आवरण करने वाले कर्म, मतिज्ञानावरणीयक कहे जाते हैं। आगे तालिका में मतिज्ञानावरणीयके २८ भेदों को निर्दिष्ट किया गया है - अगले पेज पर दी गई तालिकाको दो दृष्टियोंसे देखा जा सकता है - स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रवण इन चार इन्द्रियों द्वारा होने वाला मति ज्ञान व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणाके भेदसे पाँच प्रकारका होता है। (5x4 - 20) चक्षु इन्द्रिय और मनके द्वारा व्यंजनावग्रह नहीं होता, इसी कारण इनके द्वारा होनेवाला ज्ञान चार प्रकारका ही होता है। (4x2 = 8) दूसरी दृष्टिसे देखने पर व्यंजनावग्रह चार प्रकारका होता है और अर्थावग्रह ,ईहा, १. देवेन्द्रसुरि, कर्मग्रन्य, भाग प्रथम, गाथा ५, अनुवादक सुखलाल, पृ०१४ २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ३६३ ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश.भाग १.१०२१० ४. कर्म ग्रन्थ भाग १, गाथा ५, अनुवादक सुखलाल, पृ० १४ सर्वार्थसिद्धि, पृ०१११ ६. कर्मग्रन्थ, भाग १, गाथा ९, १० ३०. 2010_03 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन मतिज्ञानावरणीयके अट्ठाईस भेदों की तालिका घ्राण चक्षु - ४ स्पर्शन श्रवण मन इन्द्रिय इन्द्रिय इन्द्रिय इन्द्रिय इन्द्रिय भेद. ५ ५ ५ ५ ४ - २८ १. व्यंजनावग्रह व्यंजनावग्रह व्यंजनावग्रह x व्यंजनावग्रह २. अर्थावग्रह अर्यावग्रह अर्थावग्रह अर्थावग्रह अर्थावग्रह अर्थावग्रह ६ ३. ईहाईहाईहाईहाईहाईहा ६ ४. अवाय अवाय अवाय अवाय अवाय अवाय ६ ५. धारणा धारणा धारणा धारणा धारणा धारणा - अवाय तथा धारणा छह-छह प्रकारके होते हैं । अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और ध रणामें मनकी क्रियायें होती हैं, परन्तु व्यंजनावग्रहमें मनकी क्रिया नहीं होती। श्रुतज्ञानावरण कर्मका ज्ञान श्रुतज्ञानके परिचयके बिना संभव नहीं है, इसी कारण पहले श्रुतज्ञानका सामान्य स्वरूप तथा भेद प्रभेदोंका संक्षिप्त परिचय इष्ट है। २. श्रुतज्ञानावरणीय मतिज्ञानसे जाने हुए पदार्थके अवलम्बनसे तत्संबंधी अन्य पदाथों का ज्ञान कराने वाला, श्रुतज्ञान कहलाता है, उमा स्वामीने सूत्र में कहा है “श्रुतं मतिपूर्वद्वंयनेकद्वादशभेदम्”, जैसे एक घड़ेको इन्द्रिय और मनके द्वारा जान लेनेपर उसी जातिके भूत, भविष्यत और वर्तमानमें किसी भी देशमें स्थित अर्थात् विभिन्न देशकालवर्ती घटोंके संबंधमें जो विचार होता है, वही श्रुत ज्ञान है। सुखलालने श्रुतज्ञानके विषयमें कहा है कि किसी भी विषयका श्रुतज्ञान प्राप्त करने के लिए उसका मतिज्ञान पहले आवश्यक है । इसीलिए मतिज्ञान, श्रुतज्ञानका कारण तो है, परन्तु केवल बहिरंग कारण है, अन्तरंग कारण तो श्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम ही है। किसी विषयका मतिज्ञान हो जाने पर भी यदि क्षयोपशम न हो तो श्रुतज्ञान नहीं हो सकता । मतिज्ञान केवल वर्तमान कालमें प्रवृत्त होता है, 3. All, except the first stage of these five stages of the process, are the activities of the mind. Virchand. R. Gandhi, The Karma philosophy P. 20. २. पंच संग्रह, प्राकत, गाथा ३. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र ९ ४. राजवार्तिक, पृ०४८ . 2010_03 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SALMAIvallopathetana . . . बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १२५ तज्ञान त्रैकालिक विषयोंमें प्रवृत्त होता है । मतिज्ञानमें शब्दोल्लेख नहीं होता और श्रुतज्ञान शब्दोल्लेख सहित होता है' पुस्तकोंके पढ़ने अथवा सुननेसे जो जान प्राप्त होता है, वह भी श्रुतज्ञान कहलाता है । श्रुतज्ञानके अनेक भेद हैं। उन सबको आवरण करने वाले कर्मोको “श्रुतज्ञानावरणीय" कहते हैं। श्रुतज्ञानावरणीयकी संख्यात प्रकृतियाँ हैं जितने अक्षर हैं तथा जितने अक्षर संयोग हैं उतनी ही श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृतियाँ हैं।' ३. अवधिज्ञानावरणीय अवधिज्ञानको जो कर्म आवृत करते हैं उन्हें अवधिज्ञानावरणीय कहते हैं। अवधिज्ञान अनेक प्रकारका है इसी कारण उनको आवृत करने वाले कर्म भी अनेक होते हैं । अवधिज्ञानका परिचय देते हुए जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशमें कहा गया है कि परिणामोंकी विशुद्धताके प्रभावसे कदाचित् किन्हीं साधकोंको एक विशेष प्रकारका ज्ञान उत्पन्न हो सकता है, जिसकी सहायतासे पांचों इन्द्रियों और मनके अवलम्बनके बिना भी अंतिम स्कन्ध पर्यन्त परमाणु आदि मूर्तीक पदार्थों को प्रत्यक्ष रूपसे जाना जा सकता है। इसे ही “अवधिज्ञान" कहा जाता है। यह ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा अवधि अर्थात् सीमासे युक्त होकर अपने विषयभूत पदार्थको जानता है, इसलिए भी इसको अवधिज्ञान कहा जाता है।" - अवधिज्ञान दो प्रकारका होता है | जो अवधिज्ञान जन्म लेते ही प्रकट हो जाता है वह "भव प्रत्यय" है । इसके लिए विशेष साधनाकी आवश्यकता नहीं होती। देव तथा नारकियोंको न्यूनाधिक रूपमें जन्मसिद्ध अवधिज्ञान अवश्य होता है, जिससे वे अपने पहले भवोंको भी जान लेते हैं।६ तपस्या तथा साधना विशेषके द्वारा उत्पन्न होने वाला अवधिज्ञान “गुण प्रत्यय" कहलाता है, यह मनुष्योंको तथा कभी-कभी तिर्यंचोको भी होता है । तिर्यचों और मनुष्योंको होनेवाला अवधिज्ञान छ: प्रकारका होता है। १. तत्वार्थ सूत्र विवेचन, पृ०२४ २. कर्मग्रन्थ, भाग १, गाथा ९, पृ० ३० ३. सुदणाणावरणीयस्सकम्मस्ससंखेन्जाओपयडीओ।जावदियाणि अक्खराणि, अक्खरसंजोगावा। षटखण्डागम १३, भाग ५, सूत्र ४४,४५ ४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० १९२ ५. पंच संग्रह, प्राकृत, अधिकार १, गाथा १२३ ६. भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम्, तत्त्वार्थसूत्र अध्याय १, सूत्र २१ ७. “क्षयोपशमनिमित्त षडविकल्प: शेषाणाम". तत्त्वार्थसूत्र अध्याय १. सूत्र २२ 2010_03 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन गुण प्रत्यय अवधिज्ञान अनुगामी अननुगामी वर्धमान हीयमान अवस्थित अनवस्थित जो अवधिज्ञान जीवके साथ दूसरे भवमें भी जाता है उसे अनुगामी कहा हैं, दूसरे भवमें न जाने वाला ज्ञान अननुगामी कहलाता है, विशुद्ध परिणामों प्रभावसे जो ज्ञान नित्य वृद्धिको प्राप्त होता रहे उसे वर्धमान कहा गया है। संक्ले परिणामों के कारण जो ज्ञान घटता रहे उसे हीयमान कहते हैं । घटने बढ़नेसे अवधिज्ञानको अवस्थित कहते हैं और घटने बढ़ने वाले अवधिज्ञानको अनवरि कहते हैं। पूर्वोक्त भिन्न भिन्न प्रकारके अवधिज्ञानोंको आवरण करने वाले को अवधिज्ञानावरणीय कहते हैं। अवधिज्ञानके भेदोंके असंख्यात विकल्प भी सं हैं इसी कारण अवधिज्ञानावरणकी असंख्यात प्रकृतियाँ हैं।' ४. मन:पर्ययज्ञानावरणीय मनपर्ययज्ञानका अर्थ करते हुए पूज्यपादजीने कहा है “परकीयमनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते । साहचर्यात्तस्य पर्ययणं, परिगमनं मन:पर्यय: बिना पूछे दूसरेके मनोगत बातको प्रत्यक्ष जान लेना मन: पर्ययज्ञान है मन:पर्ययज्ञान अवधिज्ञानसे अधिक सूक्ष्म तथा विशुद्ध होता है । इसका विष्णु अवधिज्ञानके विषयसे अल्प होता है । यह दो प्रकारका होता है - ऋजुमति औ विपुलमति । ऋजुमति केवल वर्तमानमें चिन्तित पदार्थको ही जानता है, परन विपुलमति चिन्तित, अचिन्तित, अर्धचिन्तित और चिन्तित पूर्व सभी पदार्थों जानने में समर्थ होता है।" सुखलालने इस विषयका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है - चिन्तनी वस्तुके भेदके अनुसार चिन्तनमें प्रवृत मन भिन्न भिन्न आकृतियोंको धारा करता रहता है, वे आकृतियाँ ही मनकी पर्याय हैं, उन आकृतियोंको जानने वाले ज्ञान ही मन:पर्ययज्ञान है । मन:पर्ययज्ञानी आकृतियोंको देखकर ही व्यक्ति १. सर्वार्थसिद्धि, पृ० १२७, कर्मग्रन्थ भाग १, गाथा ८ २. कर्मग्रन्थ, भाग १,गाथा९ ३. ओहिणाणावरणीयस्स कम्मस्स असंखेज्जजाओ पयडीओ...... . असंखेज्जविपप्पत्तादो, षट्खण्डागम, धवला १३, भाग ५, पृ० २८९ ४. सर्वार्थसिद्धि, पृ०९४ ५. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ० २७२ 2010_03 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद ૨૨૭ चिन्तनका अनुमान कर लेता है।' ऋजुमतिकी अपेक्षा विपुलमति विशुद्धतर होता है, क्योंकि वह सूक्ष्मतर और अधिक विषयों को स्पष्ट जान सकता है । ऋजुमति उत्पन्न होने के बाद नष्ट भी हो सकता है परन्तु विपुलमति केवलज्ञानकी प्राप्ति तक रहता है। उपरोक्त सभी मन:पर्ययज्ञानोंको आवरण करने वाले कर्मोंको मन:पर्यय ज्ञानावरणीय कहते हैं। ५. केवलज्ञानावरणीय केवलज्ञानावरण सर्वघाती प्रकृति है क्योंकि यह पूर्णतया केवलज्ञानको आवृत किये होती है। केवलज्ञानावरणीय कर्मको केवलज्ञानके स्वरूपके बिना नहीं जाना जा सकता । अत: पहले केवलज्ञान का सामान्य परिचय आवश्यक है | जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशमें केवलज्ञानका परिचय देते हुए कहा है - केवलज्ञान जीवन्मुक्त योगियों का एक निर्विकल्प अतीन्द्रिय और अतिशय ज्ञान है, जो मन तथा बुद्धिके प्रयोगके बिना ही सर्वकाल व सर्वक्षेत्रमें सर्वपदाथों को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जानता है। इसी कारण वे योगी सर्वज्ञ कहलाते हैं। केवलज्ञान की विशेषतायें निम्न प्रकार कही गयी हैं । केवलज्ञान सर्वांगसे जानता है - आवरण कर्मों के विनाश हो जाने पर केवली सभी अवयवोंसे पदार्थों को जानता है। २. केवलज्ञानमें तीनों लोक प्रतिबिम्बवत् झलकने लगते हैं। ३. केवलज्ञानमें त्रिकालवर्ती पदार्थ एक समयमें ही भासित होते हैं। ४. केवलज्ञान सभी पदार्थों को अक्रम रूपसे अर्थात् युगपत जानता है । सुखलाल ने संक्षेपमें इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है - यह ज्ञान चेतनाशक्तिके पूर्ण विकासके समय प्रगट होता है। अत: इसके अपूर्णताजन्य भेद प्रभेद नहीं हैं । कोई भी वस्तु या भाव ऐसा नहीं है, जो केवलज्ञान द्वारा प्रत्यक्ष न जाना जा सके। इसीलिए केवलज्ञान की प्रवृत्ति सब द्रव्यों और सब पर्यायोंमें मानी जाती है। उमा स्वामी ने सूत्र में कहा भी है “सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य।"७ १. तत्त्वार्थसूत्र विवेचन, पृ० २९ २. विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र २४ ३. कर्मग्रन्थ, भाग १, गाथा ९, पृ० ३० ४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग दो, पृ० १४४ ५. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग दो, पृ० १४६ ६. तत्त्वार्थसूत्र विवेचन, पृ० ३२ ७. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र २९ or 1679 2010_03 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन केवलज्ञानको आवरण करने वाले कर्मों को केवलज्ञानावरणीय कहते हैं, केवलज्ञानावरणीय कर्मकी केवल एक प्रकृति है, यह पूर्णज्ञानकी प्रतिबन्धक होनेके कारण सर्वघाती कहलाती है। २. दर्शनावरणीयकर्म दर्शनगुणका आवरण करने वाला दर्शनावरणीय कर्म है, अर्थात् जो पुद्गल स्कन्ध, जीवके साथ संश्लेषात्मक संबंधको प्राप्त होकर, दर्शन गुणको रोकता है, अर्थात् अर्थका अवलोकन नहीं होने देता, वह दर्शन गुणको घातने वाली दर्शनावरणीय प्रकृति कहलाती है। राजद्वार पर बैठा हुआ प्रतिहारी जिस प्रकार राजाके दर्शन नहीं होने देता वैसे ही दर्शनावरणीय कर्म दर्शन गुणको आच्छादित करता है।' दर्शनावरणीय प्रकृतिबन्धके कारण ज्ञानावरणीय कर्मके समान ही दर्शनावरणीय कर्मके भी वही छ: कारण बतलाये गये हैं । तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा गया है - “तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयो:"५ दूसरेके ज्ञानमें दोष निकालना, अपने ज्ञानको छिपाना, ज्ञानीके प्रति ईर्ष्या भाव रखना, ज्ञान तथा ज्ञान प्राप्तिके साधनों में बाधा डालना अथवा अन्य कारणसे विनाश करना, किसीकी आँखें फोडना, विपरीत प्रवृत्ति करना, दृष्टिका गर्व करना, दीर्घ निद्रा लेना, दिनमें सोना, आलस्य करना, सम्यग्दृष्टिमें दूषण लगाना, हिंसा करना और यतिजनों के प्रति ग्लानिभाव आदि करनेसे दर्शनावरणीय कर्मका आश्रव होता है। दर्शनावरणीय कर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ दर्शनावरणीय कर्मकी नो प्रकृतियाँ हैं – चार आवरण रूप और पांच निद्रायें। इनका निर्देश निम्न चार्ट में किया गया है - - - १. कर्मग्रन्थ, भाग १, गाथा ९, पृ०३० २. केवलणाणावरणीयस्स कम्मस्स एकाचैव पयड़ी, षट्खण्डागम, धवला, १३, भाग ५, पृ० ३४५ ३. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३७८ ४. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा २० ५. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ६, सूत्र १० ६. राजवार्तिक, पृ०५१९ ७. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीव तत्त्वप्रदीपिका, गाथा ३३ 2010_03 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १२९ दर्शनावरणीय आवरण चतुष्क पांच निद्रा चक्षु अचक्षु अवधि केवल निद्रा निद्रा-निद्रा प्रचला प्रचला-प्रचला स्त्यानगृद्धि चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शनको आवरण करने वाले कर्मों को दर्शनावरणी चतुष्क कहा जाता है। आगे प्रत्येककासंक्षिप्त परिचय देना आवश्यक १. चक्षुदर्शनावरण- आँखके द्वारा जो पदार्थों का सामान्य ग्रहण होता है, उसे चक्षु दर्शन कहते हैं । उस सामान्य ग्रहणको रोकने वाला कर्म 'चक्षुदर्शनावरण' कहलाता है | चक्षुदर्शनावरण कर्म के उदयसे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीवोंको जन्मसे ही आँखें नहीं होती। पंचेन्द्रिय जीवों की आँखें भी इस कर्मके उदयसे नष्ट हो जाती हैं अथवा उनमें अनेक प्रकारके दृष्टि दोष उत्पन्न हो जाते हैं। २. अचक्षुदर्शनावरण- आँखको छोड़कर त्वचा, जीभ, नाक, कान और मनसे जो पदार्थों के सामान्य धर्मका प्रतिभास होता है, उसे 'अचक्षुदर्शन' कहते हैं। अचक्षुदर्शनको आवृत करने वाला कर्म 'अचक्षुदर्शनावरण' कहलाता है । इस कर्मके उदयसे जीवोंमें इन्द्रिय और मन संबंधी व्यापारकी शक्ति जन्मसे ही नहीं होती अथवा जन्मसे होने पर भी कमज़ोर अथवा अस्पष्ट हो जाती है । ३. अवधिदर्शनावरण- इन्द्रिय और मनकी सहायता के बिना ही, आत्माको रूपी पदार्थों के सामान्य धर्मका अवबोध कराने वाला अवधिदर्शन है । अवधि दर्शनको आवृत करने वाला कर्म 'अवधिदर्शनावरण' कहलाता है । ४. केवलदर्शनावरण- संसारके सम्पूर्ण पदार्थों का सामान्य अवबोध कराने वाला दर्शन केवलदर्शन है। केवल दर्शनको आवृत करने वाला कर्म 'केवलदर्शनावरण' कहा जाता है। ५. निद्रा-कर्मके जिस उदयसे ऐसी नींद आये कि सोया हुआ जीवथोड़ीसी आवाजसे ही जाग जाये, उस कर्मको निद्रा कहते हैं। १. (क.) चक्खूदिट्ठी अचक्खूसेसिदियओहिकेवलेहिं च । दसणमिह सामन्नं तस्सावरण तयं चउहा ॥ कर्मग्रन्थ, प्रथम भाग, गाथा १० (ख.) राजवार्तिक, पृ० ५७३ 2010_03 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन ६. निद्रा-निद्रा-कर्मके जिस उदयसे ऐसी नींद आये कि सोया हुआ जीव जोरसे आवाज देने या हिलानेपर भी कठिनतासे जागे उस कर्मको निद्रा-निद्रा कहते हैं। ७. प्रचला- कर्मके जिस उदयसे ऐसी नींद आये कि जीव खड़े-खड़े या बैठे बैठे ही सो जावे उसे प्रचला कहते हैं।' ८. प्रचला-प्रचला- प्रचला-प्रचलाके उदयसे पुरूष मुखसे लार बहाता है और उसके हस्तपादादि चलायमान हो जाते हैं। ९. स्त्यानगृद्धि-स्त्यानगृद्धि कर्मके उदयसे जीव दिनमें अथवा रात में सोचे हुए कार्यको नींदकी अवस्थामें ही कर लेता है और उसको कार्यकी स्मृति भी नहीं रहती। कर्मग्रन्थके अनुसार इस प्रगाढ़ निद्राकी अवस्थामें जीवको अर्धचक्रीश्वर अर्थात् वासुदेवकी शक्तिका आधा बल प्राप्त होता है । ३. वेदनीय कर्म जीवको जो कर्म सुख अथवा दु:खका वेदन कराता है, वह वेदनीय कर्म है।' मिथ्यात्व आदि प्रत्ययों के वशसे कर्म पर्यायमें परिणत और जीवके साथ समवाय संबंधको प्राप्त सुख दु:खका अनुभव करनेवाले पुद्गल स्कन्ध ही “वेदनीय" नामसे कहे जाते हैं। इस कर्मके फलस्वरूप जीवके अव्याबाध सुख अर्थात् अतीन्द्रिय सुखका घात होता है और जीव भौतिक सुख तथा दु:खमें ही उलझा रहता है। ये आकुलता रूप होते हैं और आत्मिक आल्हाद्, शान्ति, आनन्द तथा निराकुल अतीन्द्रिय सुखसे विपरीत होते हैं । वेदनीय कर्मके दृष्टान्तमें मधुलिप्त खड्गका उदाहरण दिया जाता है। जिस प्रकार शहद लिपटी तलवारकी धार को चाटनेसे पहले अल्प सुख और फिर अधिक दु:ख होता है, वैसे ही पौद्गलिक सुखमें दु:खोंकी अधिकता होती है। १. (क.) गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीव तत्त्वप्रदीपिका, गाथा २३-२४ (ख.) सुहपड़िबोहा निद्दा, निद्दा-निदा य दुक्खपड़िबोहा पयला ठिओवविठ्ठस्स पयलपयला य चंकमओ कर्मग्रन्थ, प्रथम भाग, गाथा दो २. “पयलापयलुदयेण यवहेदिलाला चलति अंगाई,गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा २४, पृ०१६ ३. गोम्म्टसार कर्मकाण्ड, जीव तत्त्व प्रदीपिका, गाथा २३ ४. थीणद्धी अद्धचक्किअद्धबला, कर्मग्रन्थ भाग १, गाथा १२ ५. वेद्यस्यसदसल्लक्षणस्य सुखदु:ख सम्वेदनम्, सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३८० षट्खण्डागम, धवला,६,भाग १,पृ०१० ७. "मधुलिप्तखड्गधारास्वादनवदल्पसुखबहुदु:खोत्पादकता” वृहद् द्रव्य संग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा ३३. 2010_03 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद वेदनीय कर्मके बन्धके कारण साता वेदनीय कर्मका कारण बताते हुए तत्त्वार्थसूत्र में कहा है - “भूतवत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोग: क्षान्ति शौचमिति सद्वेद्यस्य ।। सभी प्राणियोंपर अनुकम्पा रखनेसे, व्रतियों की सेवा करनेसे, दान देनेसे, बाल और वृद्ध तपस्वियोंकी सेवा करनेसे, हृदयमें शान्ति और पवित्रता रखनेसे और संयम करनेसे साता वेदनीय कर्मका बन्ध होता है । इसके विपरीत आचरणसे दु:खके कारणभूत असाता वेदनीयकर्मका बन्ध होता है । असाताके फलस्वरूप देह हमेशा रोगपीड़ित रहता है और बुद्धि व शुभ क्रियायें सब नष्ट हो जाती हैं, वह प्राणी अपने हितके उद्योगमें तत्पर नहीं हो सकता। इस प्रकार सुखके कारणभूत कार्यों का सम्पादन 'साता वेदनीय' और दु:खके कारणभूत कार्यों का सम्पादन 'असाता वेदनीय' कर्म के बन्धका कारण होता है। वेदनीय कर्मकी उत्तरप्रकृतियाँ - वेदनीय कर्म दो प्रकारका होता है - सुखका कारणभूत सातावेदनीय कर्म और दु:खका कारणभूत असातावेदनीय कर्म है । विशिष्ट देव आदि गतियों में इष्ट सामग्रीके सन्निधानके कारण जिसके फलस्वरूप अनेक प्रकारके शारीरिक और मानसिक सुखोंका अनुभव होता है वह "सातावेदनीय" है और जिसके फलस्वरूप नरकादि गतियोंमें अनिष्ट सामग्रीके सन्निधानके कारण, अनेक प्रकारके अतिदु:सह मानसिक और शारीरिक दु:खों का अनुभव होता है, वह "असातावेदनीय" है ।' ४. मोहनीय कर्म- जीवको जो मोहित करता है या जिसके द्वारा जीव मोहा जाता है, वह मोहनीय कर्म है । धतूरा, मदिरा, कोदों आदिका सेवन करनेसे जैसे व्यक्ति मूर्छित सा हो जाता है, उसमें इष्ट- अनिष्ट, हेय-उपादेयको जाननेका विवेक नहीं रहता, उसी प्रकार मोहनीय कर्म प्राणियों को इस प्रकार मोहित कर देता है कि जीवको पदार्थका यथार्थ बोध होने पर भी वह तदनुसार कार्य नहीं कर पाता। १. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ६, सूत्र १२ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ८०१ ३. सदसवेद्ये तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ८, सूत्र ८ ४. राजवार्तिक, पृ०५७३ ५. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३८० ६. “मद्यपानवद्धेयोपादेयविचार विकलता” बृहद् द्रव्य संग्रह, ब्रह्मदेवटीका, गाथा ३३ ه م 2010_03 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन इसी कारण मोहको " अरि” अर्थात् शत्रु कहा गया है। शेष समस्त कर्म मोहके ही आधी हैं। मोहके बिना शेष कर्म अपना कार्य नहीं कर पाते, इसी कारण मोहनीय कर्मको सब कर्मों में प्रधान कर्म माना गया है। इसके अभावमें शेष कर्मों का सत्त्व, असत्त्व के समान हो जाता है, क्योंकि जन्म मरण की परम्परा रूप संसारोत्पादनकी सामर्थ्य उनमें नहीं रहती । मोहनीय कर्मके बन्धके कारण सत्यमार्ग की अवहेलना करनेसे और असत्यमार्गका पोषण करने से, आचार्य, उपाध्याय, गुरू, साधुसंघ आदि सत्यके पोषक आदर्शों का तिरस्कार करने से दर्शन मोहनीय कर्म का बन्ध होता है, जिसके फलस्वरूप जीवके संसारका अन्त नहीं होता । स्वयं कषाय करने से अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ आदि प्रवृत्ति करने से, जगदुपकारी तपस्वियोंकी निन्दा करने से, धर्म के कार्यों में अन्तराय करने से मद्य, मांस आदिका सेवन करने तथा कराने से निर्दोष प्राणियों में दूषण लगाने से, अनेक प्रकारके संक्लेशित परिणामोंसे, चारित्र मोहनीय कर्मका बन्ध होता है। ' हास्य, अति प्रलाप, विचित्र क्रीड़ायें, पापशील व्यक्तियों की संगति, परपीड़न, अपनी इच्छा पूर्ण करने के लिए पर को शोकाभितप्त करना, दूसरों को त्रास देना, स्वयं भयभीत रहना, दूसरोंकी बदनामी करना, क्रोध, मान, ईर्ष्या, छल, कपट, तथा स्त्री भावों में रुचि रखना, अनंग क्रीड़ा, अनाचार आदि का सेवन ये परिणाम क्रमश: हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री, पुरूष, नपुंसक वेद, ये नोकषाय चारित्र मोहनीय कर्मके बन्धका कारण होते हैं । " मोहनीय कर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ मोहनीय कर्म दो प्रकारका है - दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीयकी तीन और चारित्र मोहनीयकी पच्चीस इस प्रकार मोहनीय कर्म की कुल अट्ठाईस प्रकृतियाँ हैं।" उन्हें इस प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है “जन्ममरणप्रबन्धलक्षणसंसारोत्पादसामर्थ्यमन्तरेण तत्सत्त्वस्यास त्त्वसमानत्वात् ” षट्खण्डागम, धवला १ भाग १, पृ० ४३ २. केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ६, सूत्र १३ ३. राजवार्तिक, पृ० ५२५ १. ४. राजवार्तिक, पृ० ५२५ ५. (क.) षटखण्डागम, ६ / १ सूत्र १९-२० (ख.) कर्मग्रन्थ, प्रथम भाग, गाथा १७ 2010_03 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १३३ मोहनीयकर्म (२८) दर्शन मोहनीय-३ . चारित्र मोहनीय-२५ मिथ्यात्व सम्यक्मिथ्यात्व सम्यक्त्व कषाय १६ नोकषाय ९ क्रोध मान माया लोभ चतुष्क चतुष्क चतुष्कं चतुष्क हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा स्त्रीवेद पुरूषवेद नपुसंक वेद १. दर्शनमोहनीय कर्म दर्शन, रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा और स्पर्शन ये सव एकार्थ वाचक नाम हैं । आत्मा, आगम या पदार्थों में रूचि या श्रद्धाको दर्शन कहते हैं । उस दर्शनको जो मोहित करता है अर्थात् विपरीत कर देता है, उसे दर्शन मोहनीय कर्म कहते हैं । यह दर्शन मोहनीय तीन भागोंमें विभक्त होता है - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व । मिथ्यात्वके उदयसे जीव सर्वज्ञ प्रणीत मार्गसे विमुख, तत्त्वार्थके श्रद्धान करने में निरुत्सक और हिताहितके विचार करने में असमर्थ होता है, यही "मिथ्यात्व" दर्शनमोहनीय है । यही मिथ्यात्व प्रक्षालन विशेषके द्वारा क्षीणाक्षीण भेदशक्ति वाले कोदोके समान, अर्धशुद्ध स्वरस वाला होनेपर “सम्यग्मिथ्यात्व" कहलाता है। वही मिथ्यात्व जब शुद्ध परिणामों के कारण, अपने उदयको रोक देता है और उदासीन रूपसे अवस्थित रहकर आत्माके भावको नहीं रोकता तव सम्यक्त्व कहलाता है । इसका वेदन करने वाला सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। इस प्रकार मिथ्यात्व प्रकृति अश्रद्धा रूप होती है, और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति श्रद्धा व अश्रद्धासे मिश्रित होती है । सम्यक् प्रकृतिकी श्रद्धामें शिथिलता अर्थात् अस्थिरता होती है, जिसके कारण चल, मलिन और अगाढ़ ये तीन दोष उत्पन्न होते हैं। यह प्रकृति श्रद्धा गुणका घात नहीं करती, परन्तु शंकादि दोषोंको उत्पन्न करती है। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टिको ही इसका उदय होता है। १. षट्खण्डागम धवला, ६/१, पृ० ३८ २. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३८५ 2010_03 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त-एक अध्ययन बन्धकी अवस्थामें मोहनीयकर्म केवल मिथ्यात्व रूप ही होता है, परन्तु सत्त्वावस्थामें यह तीन प्रकारका हो जाता है। जिस प्रकार धानको चक्की पर दलनेसे चावल, कणी और भूसी तीन भाग हो जाते हैं | उसी प्रकार सम्यक्त्वके उन्मुख हुआ जीव जब मिथ्यात्वका दलन करता है, तो एक प्रकारका मोहनीय कर्म, तीन कर्म रूप परिणमित हो जाता है । इस प्रकार सादि सम्यग्दृष्टि जीवकी अपेक्षा दर्शनमोहनीयके तीन भेद हैं और अनादि मिथ्यादष्टि जीवकी अपेक्षा केवल एक मिथ्यात्व ही भेद है। सादिसे तात्पर्य है जिसका सम्यक् पथ प्रारम्भ हो चुका है। २. चारित्र मोहनीय कर्म आत्म स्वरूपमें आचरण करना चारित्र है, उसका घात करने वाला कर्म चारित्र .मोहनीय है ।२ पंचाध्यायीमें कहा है - कार्यम् चारित्रमोहस्य चारित्राच्च्युतिरात्मन: अर्थात् चारित्र मोहका कार्य आत्मा को चारित्र से च्युत करना है, क्योंकि कषायोंके उद्रेकसे ही आत्मा चारित्रसे च्युत होता है, कषायों के अभावमें नहीं । जैसा कि पंचाध्यायीमें कहा है - कषायाणामनुद्रेकश्चारित्रं तावदेव हि । नानुद्रेक: कषायाणां चारित्राच्च्युतिरात्मन:।' भेदप्रभेद चारित्र मोहनीय कर्म के दो भेद हैं । कपाय मोहनीय कर्म और नोकपाय मोहनीय कर्म । कषाय मोहनीय के सोलह भेद हैं और नोकपाय मोहनीय के नवभेद हैं | इन भेदोंका निर्देश कर्मग्रन्थ की गाथा में इस प्रकार किया गया है – "सोलस कसाय नव नो कसाय दुविहं चरितमोहनीय" । अणअप्पच्चक्खाणा पच्चक्खाणा य संजलणा॥" आगे चारित्र मोहनीय के इन पच्चीस भेदों का संक्षिप्त परिचय दिया जाता १. षटखण्डागम, धवला, १३/५, पृ० ३५८ २. कर्मग्रन्थ, प्रथम भाग, गाथा १३ ३. पंचाध्यायी उत्तरार्ध, श्लोक ६९० ४. पंचाध्यायी उत्तरार्ध, श्लोक ६९२ ५. कर्मग्रन्थ, प्रथमभाग, गाथा १७ 2010_03 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १३५ १. कषाय मोहनीय चारित्रको घात करने वाले कषाय चार होते हैं - क्रोध, मान, माया और लोभ । प्रत्येक कषाय पुन: चार प्रकारका हो जाता है- अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन । क्रोध, मान, माया तथा लोभ आदि का विवेचन यद्यपि योगादि अन्य दर्शनों में भी प्राप्त होता है, परन्तु इनके अनन्तानुबन्धी आदि चार भेदों के द्वारा जैसा सूक्ष्म प्रतिपादन जैन दर्शनमें किया गया है, वैसा अन्यत्र नहीं पाया जाता । इन सबका संक्षिप्त परिचय आवश्यक है, जो निम्न प्रकार है(क.) क्रोध चतुष्क अपना और परका अनुपकार करने के क्रूर परिणाम क्रोध हैं । जिस क्रोध के कारण जीव अनन्त काल तक संसार में भ्रमण करता है, वह अनन्तानुवन्धी क्रोध है । इसका दृष्टान्त पर्वतकी गहरी दरारसे दिया जाता है, जो फटनेपर पुन: नहीं मिलती । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी क्रोध किसी भी उपायसे शान्त नहीं होता। ईषत् प्रत्याख्यानम् = अप्रत्याख्यानम् । “अनागतदोषापोहनं प्रत्याख्यानम्" जिस के उदयसे थोड़ा ही प्रत्याख्यान होता है, उसे अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी उपमा सूखे तालावमें मिट्टी के फट जाने से जो दरार हो जाती है, उससे दी जा सकती है। जैसे वर्षा होने पर मिट्टीकी दरार पुन: मिल जाती है, उसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण क्रोध विशेष परिश्रमसे शान्त हो जाता है। प्रत्याख्यानावरण क्रोध रेत की लकीर के समान मन्द होता है, जैसे रेत की लकीर हवा से तुरन्त भर जाती है, उसी प्रकार यह क्रोध शीध्र शान्त हो जाता है परन्तु यह महाव्रत में बाधा पहुंचाता है । संज्वलन क्रोध वह मन्दतम कषाय है, जो पानीकी लकीर के समान शीघ्र मिट जाता है, ऐसा क्रोध प्राय: साधुओं को होता है । इन चारों का फल क्रमश: नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति की प्राप्ति है ।२ (ख) मान चतुष्क ___ अभिमान के कारण दूसरे के प्रति नमने की वृत्ति न होना मान है। मान २. राजवार्तिक, पृ०५७४ (क.) जलरेणुपुदवीपव्वराई सरिसो चउव्विहो कोहो, कर्मग्रन्थ, भाग प्रथम, गाथा १९ (ख.)सिलभेयपुढविभेयाधूलीराई यउदयराइसमा। णिर तिरणरदेवत्तं उविंति जीवाह कोहवसा।। पंचसंग्रह, प्राकृत, अधिकार १ गाथा १११ राजवार्तिक, पृ० ५७४ ३. ___ 2010_03 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त-एक अध्ययन भी अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से चार प्रकार का है जो उत्तरोत्तर मन्द होता जाता है। इसकी उपमा, शैल, अस्थि, काष्ठ और बेंत से दी जाती है । इनका फल क्रमश: नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गति की प्राप्ति है । इनका संक्षिप्त स्पष्टीकरण इस प्रकार किया जा सकता है अनन्तानुबन्धी मान शैल स्तम्भके समान होता है, ऐसे मानको अत्यधिक उपायों के द्वारा भी झुकाया नहीं जा सकता। ऐसा मानी जीव नरकगति कर्मका बन्ध करता है । अप्रत्याख्यानावरण मान अस्थिके समान होता है, जो बहुतसे उपायोंसे झुकाया जा सकता है, ऐसा मानी जीव तिर्यंच गति कर्मका बन्ध करता है। प्रत्याख्यानावरण मान काष्ठकी तरह से होता है, जो थोड़ेसे परिश्रमसे ही झुक जाता है। ऐसा मानी जीव मनुष्य गति कर्मका बन्ध करता है । संज्वलन मान वृक्षकी लता अथवा बेंतके समान होता है जो शीघ्र ही झुक जाता है इसी प्रकार संज्वलन मानी जीव आग्रहको छोड़कर शीघ्र ही झुक जाता है । इस प्रकारके सरल भावसे देवगतिकी प्राप्ति होती है। ग. माया चतुप्क मायाका अर्थ है, कपटाचार अथवा स्वभावका टेढ़ापन । सर्वार्थ सिद्धिमें कहा गया है- “आत्मन: कुटिलभावो माया निकृति: २ मायाका दूसरा नाम निकृति या वंचना है । माया भी अनन्तानुवन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलनके भेदसे चार प्रकारकी है। इनकी उपमा क्रमश: वेणु मूल अर्थात् बांसकी गंटीली जड़, भेड़का सींग, गोमूत्र और खुरपेसे दी गई है, ये उत्तरोत्तर मन्दताको प्राप्त होती जाती है । इनका फल भी क्रमश: नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गतिकी प्राप्ति है। इनका संक्षिप्त स्पष्टीकरण इस प्रकार किया जा सकता है - अनन्तानुबन्धिनी माया गठीली बांसकी जड़के टेढेपनके समान है, जो किसी भी प्रकार दूर नहीं किया जा सकता। ऐसा मायाचारी जीव नरकगति कर्मका बंध करता है। १. (क.) सेलसमो अटिठसमो दारू समो तह य जाण वेत्तसभो।। णिर, तिर णर देवत्तं उविति जीवाह माणवसा ।। पंचसंग्रह प्राकृत, अधिकार १ गाथा ११२ (ख.) “तिणिसलयाकट्ठठियसेलत्थंभोवमो माणो।" कर्मग्रन्थ, प्रथमभाग, गाथा १९ सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३३४ (क)वंसीमूलं मैसस्स सिंग गोमुत्तियं च खोरूप्यं । णिर तिर णर देवतं उविंति जीवा हुमायवसा।। पंचसंग्रह, प्राकृत, अधिकार १, गाथा ११३ (ख) मायावलेहिगोमुतिमिढ सिंगधणवंसिमूलसमा। कर्म ग्रन्थ, प्रथम भाग, गाथा २०, पृ०५१ 2010_03 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १३७ अप्रत्याख्यानावरणी मायाकी वक्रता मेषके सींगके समान होती है जिसे कठिनतासे अनेक उपायोंके द्वारा दूर किया जा सकता है। ऐसा मायाचारी जीव तिर्यञ्च गति कर्मका बन्ध करता है । प्रत्याख्यानावरणीमायाकी वक्रता गोमूत्रकी वक्रताके समान है । जैसे चलती हुई गायका मूत्र शीघ्र ही अपनी वक्रताको छोड़ देता है, उसी प्रकार प्रत्याख्यानावरणी मायाकी वक्रता थोड़े परिश्रमसे ही दूर हो जाती है । ऐसा जीव मनुष्य गति कर्मका बन्ध करता है । संज्वलनी माया की वक्रता बांसके छिलके जैसी होती है, जो बिना परिश्रमके दूर हो जाती है। ऐसा जीव देवगति कर्मका बन्ध करता है । लोभ चतुष्क धन आदिकी तीव्र आकांक्षा या गृद्धि लोभ है' यह भी अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलनके भेद से चार प्रकारका है । इनकी उपमा क्रमश: किरमजीका दाग, पहियेकी कीचड़, काजल और हल्दी के रंगसे दी गई है। इनका प्रभाव उत्तरोत्तर मन्द होता जाता है । इनका फल भी क्रमश: नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गतिकी प्राप्ति है । घ. अनन्तानुबन्धी लोभ किरमजीके रंग सदृश है, जो किसी भी उपायसे नहीं छूटता । अप्रत्याख्यानावरणलोभ गाड़ीके पहिये की कीचड़ जैसा है, जिसका दाग अतिकठिनतासे छूटता है । प्रत्याख्यानावरण लोभ सामान्य कीचड़ अथवा के रंग सदृश होता है, जो अल्प परिश्रमसे छूट जाता है । संज्वलन लोभ हल्दी के रंग सदृश है, जो सहज ही छूट जाता है । उपरोक्त सोलह कषायोंकी शक्तियोंके दृष्टान्त निम्न तालिका द्वारा प्रदर्शित किये जा सकते हैं। कषाय की अवस्था क्रोध अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलन १. २. ३. शक्तियोंके दृष्टान्त माया वेणुमूल मान शिलारेखा शैल बालुरेखा अस्थि मेषश्रृंग धूलिरेखा दारू (काष्ठ) गोमूत्र जलरेखा वेत्र 2010_03 लोभ किरमजी का रंग, (दाग) चक्रमलरंग तिर्यञ्च कीचड़ मनुष्य देव खुरपा, लेखनी हल्दी राजवार्तिक, पृ० ५७४ (क) किमिरायचक्कमलकद्दमो य तह चेय जाण हारिदं । णिरतिरणरदेवत्तं उर्विति जीवा हु लोहवसा ॥ पंचसंग्रह प्राकृत, अधिकार १ गाथा ११४ (ख) "लोहो हलिदखंजणकद्दमकिमिरागसामाणो” कर्मग्रन्थ, प्रथम भाग, गाथा २० जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, पृ० ३८ फल नरक Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन २. नोकषाय नोकषायको अकषाय भी कहा जाता है । सर्वार्थसिद्धिमें पूज्यपाद जी ने नोकषायका लक्षण करते हुए कहा है – “इषदर्थे नम्, प्रयोगादीषत्कषायो ऽकषाय।"१ किंचित् अर्थमें न का प्रयोग होनेसे ईषत् कषायको अकषाय या नोकषाय कहाजाता है। गोम्मटसारमें कहा गया है-- "ईषत्कषाया: नोकषायास्तान् वेद्यन्ति वेद्यन्ते एभिरिति नोकषायवेदनीयानि नवविधानि ।”२ नोकषायके नवभेद हैं। भांड़ आदि की चेष्टाको देखकर हंसी उत्पन्न कराने वाला, हास्य मोहनीय कर्म कहलाता है। देश, धन, स्त्री आदि में रति अर्थात् प्रीति उत्पन्न कराने वाला रति मोहनीय कर्म है । देश, परिवार, स्त्री आदिमें अप्रीति अर्थात् उद्वेग (शास्त्रीय भाषामें जिसे द्वेष कहते हैं) उत्पन्न कराने वाला "अरति मोहनीय कर्म है । इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग होने से दु:ख देने वाला, शोक मोहनीय कर्म है। भयके साधन उपस्थित होनेपर घबराहट अथवा डर उत्पन्न कराने वाला, भय मोहनीय कर्म है। मांस, विष्ठा आदि वीभत्स पदार्थों को देखकर घृणा उत्पन्न कराने वाला जुगुप्सा मोहनीय है । पुरूषके साथ रमने की इच्छा उत्पन्न करने वाला स्त्रीवेद मोहनीय है, स्त्रीके साथ रमने की इच्छा उत्पन्न करने वाला पुरूपवेद मोहनीय है । स्त्री और पुरूष दोनों के साथ रमणकी इच्छा उत्पन्न करने वाला नपुंसक वेद मोहनीय है। ५. आयु कर्म जीवितव्य कालमें जो कर्म जीवको नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवमें से किसी विवक्षित शरीरमें निश्चित अवधि तक रोके रखता है, उस भवधारणके निमित्त कर्मको आयु कर्म कहते हैं। आयुकर्मका उदय जीवको उसी प्रकार रोके रखता है, जिस प्रकार एक विशेष प्रकारकी सांकल या काष्ठ का फन्दा अपने छिद्रमें पग रखनेवाले व्यक्तिको रोके रखता है, आयु कर्म जीवको पूर्व भव छोड़कर अग्रिम भव धारण नहीं करने देता।' आयु दो प्रकारकी होती है-भुज्यमान आयु और बध्यमान आयु। वर्तमान समयमें १. सर्वार्थसिद्धि, पृ०३८५ (क) गोम्मटसार कर्मकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका, गाथा ३३ . (ख) कर्मग्रन्थ, भाग प्रथम, गाथा २१, २२ पृ०५२-५५ ३. भवधारणनिमित्तमायु: "प्रवचनसार, तत्त्वप्रदीपिका, गाथा १४६ "निगडवदगत्यन्तरगमननिवारणता" वृहद द्रव्य संग्रह, ब्रहादेव टीका गाथा ३३ ه ه 2010_03 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १९३९ भोग रही है उसे भुज्यमान आयु कहते हैं और भुज्यमान आयुमें ही जो अग्रिम भवी आयुका बन्ध होता है, उसे ही बध्यमान आयु कहते हैं । ' देह अथवा शरीरको " भव" कहा जाता है। आत्मा आयुकी सहायता से ही शरीरको धारण करता है, अत: शरीर धारण कराने में समर्थ आयुकर्मको भवायु भी कहा जाता है । मरण समयमें भुज्यमान आयुका विनाश हो जाता है और बध्यमान आयु का उदय होने वाला होता है | जीव भुज्यमान आयुकर्मके उदयसे जीता है और बध्यमान आयुकर्म के उदयसे मर जाता है । इस बध्यमान आयुका अपवर्तन और उत्कर्षण हो सकता है, परन्तु भुज्यमान आयुका उत्कर्षण संभव नहीं है परन्तु अपवर्तन अवश्य हो सकता है, अपवर्तनको कदली घातमरण कहा जाता है । विष सेवन, रक्त स्राव, शस्त्रघात, संक्लेश आधिक्य, आहार और श्वासोच्छवासके रुक जाने से जो मरण होता है उसे कदलीघात मरण कहा जाता है ।" भुज्यमान आयुका अपवर्तन सब जीवों के लिए संभव नहीं होता । उमास्वामीने सूत्रमें कहा है औपपादिक चरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः "" अर्थात् उपपाद शरीर वाले देव, नारकी तथा उसी भवसे मोक्ष जाने वाले चरम शरीरी और असंख्यात वर्ष की आयु वाले भोगभूमिके तिर्यञ्च तथा मनुष्योंकी आयुका अपवर्तन नहीं होता । जीवनमें आयु बन्धके योग्य केवल आठ अवसर आते हैं जो आठ अपकर्ष काल कहे जाते हैं । इन आठ अपकर्षों में से हीन अथवा अधिक जो भी स्थिति बन्ध हो जाता है, वही उस आयुकी स्थिति समझी जाती है ।' तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कट विशुद्ध परिणामों से और जघन्य स्थिति बन्ध उत्कट संक्लेश परिणामोंसे होता है, इसके विपरीत नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कट संक्लेश परिणामों से और जघन्य स्थिति बन्ध उत्कट विशुद्ध परिणामोंसे होता है । " १. २. ३. ४. ५. ६. 19. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ३३४ आउगवसेण जीवो जायदि जीवदि य आउगस्सुदय । गोवा मरद य पुव्वायु णासे वाइति । भगवती आराधना, विनिश्चय टीका, गाथा २८ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीव तत्त्वप्रदीपिका, गाथा ६४३ भावपाहुड, गाथा २५ तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय २, सूत्र ५३ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा ६४३ सव्वविदीणमुक्कस्सओ टु उक्कस्ससंकिलेस्सेण । विवरीदेण जहण्णो आउगतियवज्जियाणं तु ॥ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा १३४ 2010_03 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन आयु कर्मके भेद और बन्धके कारण आयु कर्मके चार भेद हैं - नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु ।' यह प्राणी जैसा चिन्तन करता है वैसा ही उसका परिणाम हो जाता है, और उसी प्रकारके आयु कर्मका बंध हो जाता है। पाषाणकी रेखाके समान क्रोधी. पर्वतके समान मान करने वाला, बाँसकी जड़के समान मायाचारी और कृमिरागके समान लोभ करने वाला जीव नरकायुका बन्ध करता है। आचार्य नेमिचन्द्रने कहा है कि मिथ्यादृष्टि, बहु आरम्भी, तीव्र लोभी, रौद्र परिणामी और शील रहित जीव नरकायुका बन्ध करता है। “माया तैर्यग्योनस्य" अर्थात् जो प्राणी मायाचारी हो, विपरीत मार्गका उपदेशक हो, षड्यन्त्र, छल, प्रपंच और भेद उत्पन्न करने वाला हो, दूसरोंके सद्गुणोंको छिपानेवाला और दोषों को प्रगट करने वाला आर्त-रौद्र परिणामी मायाचारी जीव तिर्यञ्चायुका बन्ध करता है। ___ “अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य” “स्वभावमार्दवं च"५ अल्पारम्भ, अल्प परिग्रह और स्वभावकी मृदुतासे मनुष्य आयुका बन्ध होता है । बालतप, अकाम निर्जरा, मन्द कषाय, दान युक्त प्रवृत्ति और संयमके करनेसे जीव देवायुका वन्ध करता है। जो प्राणी हमेशा दूसरे जीवोंकी रक्षामें तत्पर रहता है, वह दीर्घायु इसके विपरीत परजीवोंका घात करने वाला अल्पायु प्राप्त करता है । ६. नामकर्म नाना मिनोति निर्वर्तयतीतिनाम" नानाप्रकारकी रचनाकरनेवाला "नामकर्म है।" नमयत्यात्मानं नम्यतेऽनेनेति वा नाम" आत्माको नमानेवाला अथवा जिसके द्वारा आत्मा नमता है, उस कर्मकोभी नामकर्म कहाजाता है। नमन रूप स्वभावके कारणही यह कर्मजीव के शुद्ध स्वभावको आच्छादित करके उसका मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारकादि पर्याय भेदको उत्पन्न करता है। मनुष्य, तिथंचादि नामकरण करना ही नामकर्मकी प्रकृति या स्वभाव है। नाम कर्मको चित्रकारसे उपमित किया जा सकता है, क्योंकि यह कर्म १. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ८, सूत्र १० २. तिलोएपण्णति, अधिकार २, गाथा २९३ ३. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ८०४ ४. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ६, सूत्र १६ ५. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ६, सूत्र १७, १८ ६. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ६, सूत्र २०-२१ ७. . भगवती आराधना, विनिश्चय टीका, गाथा ४४६, पृ०६५१ ८. गदियादि जीव भेदं देहादी पोग्गलाण भेदं च। गदियंतरपरिणमणं करेदि णाम अणेयविहं || गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा १२ ९. नाम्नो नरकादि नामकरणम्, सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३७९ 2010_03 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद चित्रकारकी भाँति गति, शरीर, संस्थान, वर्ण, गन्ध आदि विभिन्न प्रकारके चित्रोंसे जीवको चित्रित करता है।' नाम कर्मके बन्धके कारण नाम कर्मकी प्रकृति दो प्रकारसे बन्धको प्राप्त होती है। मन, वचन, काय की कुटिलतासे, श्रेयोमार्गकी निन्दासे, कुटिल मार्गमें स्वयं प्रवृत्त होने और अन्यको प्रवृत्त करानेसे अशुभ नाम कर्मका बन्ध होता है। ऐसा जीव आत्म प्रशंसा, परनिन्दा करता हुआ, प्रमादी, विषय लोलुपी, हिंसक और मिथ्याभाषी होकर, नित्य पापकर्मोंसे अशुभ नाम कर्मका बन्ध करता रहता है। इसके विपरीत मन वचन और काय की सरलता पूर्वक प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्यादि भावोंको धारण करनेसे शुभ नाम कर्मका बन्ध होता है । इस प्रकार शुभ कार्योंसे शुभ नाम कर्म और अशुभ कार्यों से अशुभ नाम कर्मका बन्ध होता है।' अन्य दर्शनोंमें शरीर, जाति, अंगोपांग आदिका रचयिता ईश्वरको माना गया है, परन्तु जैनदर्शनानुसार संसारी जीव स्वयं नामकर्म योग्य पुद्गलोंको आकर्षित करता है । बन्धको प्राप्त नाम कर्म ही कालान्तर में शरीरादिकी रचनाके रूपमें फलोन्मुख होता है। नाम कर्मके भेद नाम कर्मकी मूल प्रकृतियाँ बयालीस और उत्तर प्रकृतियाँ तिरानवें हैं । ६ इन प्रकृतियोंको चार भागों में विभक्त किया जा सकता है -- पिण्ड प्रकृतियाँ, प्रत्येक प्रकृतियाँ सदशक और स्थावर दशक। इनको अग्रतालिका द्वारा निर्दिष्ट किया जा सकता है। १. चित्रकार पुरुषवन्नानारूपकरणता । वृहद् द्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा ३३ २. योगवक्रता विसंवाद चाशुभस्य नाम्न: तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ६, सूत्र २२ ३. तद्विपरीतं शुभस्य, अध्याय ६, सूत्र २३ ४. शुभ: पुण्यस्याशुभ: पापस्य, वही, सूत्र ३ ५. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ८, सूत्र ११ ६. षट्खण्डागम ६, पुस्तक १, सूत्र २८ ७. वीरचन्द, आर. गाँधी, द कर्म फिलॉसफी १९१३, पृ० ३६, ३७ 2010_03 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन नामकर्म स्थावर पिण्ड प्रकतियाँ प्रत्येक प्रकतियाँ असदशक स्थावर दशक (८) (१०) (१०) गति ४ परघात वस जाति ५ उपघात बादर सूक्ष्म शरीर ५ उच्छवास पर्याप्त अपर्याप्त अंगोपांग३ आतप प्रत्येक साधारण बन्धन ५ उद्योत स्थिर अस्थिर संघात ५ अगुरूलघु अशुभ संहनन ६ निर्माण सुभग दुर्भग संस्थान६ तीर्थकर सुस्वर दुस्वर वर्ण ५ आदेय अनादेय गन्ध२ यश:कीर्ति अयशकीर्ति रस५ स्पर्श आनुपूर्वी ४ विहायोगति २ नामकर्मके उत्तर भेदोंका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार किया गया है१. पिण्ड प्रकृतियाँ एकसे अधिक प्रकृतियों के समूहमें निर्दिष्ट होने वाली प्रकतियों को पिण्ड प्रकृतियाँ कहा जाता है। ये समूहोंमें वर्गीकृत हैं और संख्या में पैंसठ हैं। जीवको एक भवसे दूसरे भवको प्राप्त कराने वाली प्रकृतिको गति नाम दिया गया है। यह नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवके भेदसे चार प्रकारकी है। चारों गतियों में जीवोंको अव्यभिचारी और सादृश्य धर्मसे एकत्रित करने वाली प्रकृति, जाति है ।' एकेन्द्रियादि जीव समान होकर भी इन्द्रिय भेदके कारण परस्पर एक्यको प्राप्त नहीं होते, यही अव्यभिचारीपन है और इन्द्रियत्वकी दृष्टिसे समान है, यही सादृश्यता है। १. एकेन्द्रिय जाति २. द्वीन्द्रिय जाति ३. त्रीन्द्रिय जाति ४. चतुरिन्द्रिय जाति और ५. पंचेन्द्रिय जातिके भेदसे जाति पाँच प्रकारकी कही गई शरीरोंका निर्माण करनेवाली प्रकृतिको शरीर नामकर्म कहते हैं। यह १. औदारिक २. वैक्रियिक ३. आहारक ४. तैजस और ५. कार्मणके भेदसे पाँच प्रकारका है। शरीरके १. षदखण्डागम धवा १, पृ० १३५ २. पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, श्लोक ९७६-९७९ ३. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३८९ ४. षट्खण्डागम ६/१, सूत्र ३० ५. गोम्मटसार कर्म काण्ड, गाथा ३३ 2010_03 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १४३ अंगोंको बनाने वाला “अंगोपांग नाम कर्म" कहलाता है । इसके तीन भेद हैं . औदारिक शरीरके अंगों की रचना करने वाला औदारिक अंगोपांग, वैक्रियिक शरीरकी रचना करने वाला वैक्रियिक अंगोपांग और आहारक शरीरकी रचना करने वाला आहारक अंगोपांग कहलाता है । तैजस और कार्मण शरीर सूक्ष्म होने के कारण अंगोपांग रहित होते हैं। शरीरका निर्माण करने वाले पुद्गल स्कन्धोंको परस्पर बाँधने वाला कर्म बन्धन नामकर्म है । बन्धन नामकर्मके अभावमें शरीर लकड़ियोंके ढेर जैसा हो जाता है। उपरिनिर्दिष्ट पाँच शरीरोंके आधारपर बन्धन भी पाँच प्रकारका हो जाता है । विभिन्न शरीरोंके परमाणुओंको परस्पर मिलाकर छिद्र रहित, एक रूप करने वाले कर्मको संघात नाम कर्म कहते हैं। संघात के अभावमें शरीर तिलके मोदकके समान अपुष्ट रहता है, यह भी पाँच शरीरोंके आधारपर पाँच प्रकारका होता है । शरीरको आकार प्रदानकरने वाला कर्म संस्थान नामकर्म कहलाता है। संस्थान नामकर्म विभिन्न प्रकारके आकारके आधार पर छह प्रकारका हो जाता है - सामुद्रिक शास्त्रके अनुसार शरीरकी समुचित आकृति बनाने वाले कर्मको समचतुरस संस्थान कहते हैं। न्यग्रोध अर्थात् वट वृक्षके समान नाभि के ऊपरसे मोटे और नीचेसे पतले शरीरका आकार बनाने वाले कर्मको न्यग्रोध परिमंडल कहते हैं। सर्पकी बांबीके समान ऊपरसे पतले और नीचेसे मोटे शरीर बनाने वाले कर्मको स्वाति संस्थान कहते हैं, कुबड़ा शरीर बनाने वाला कर्म कुब्जक संस्थान, बौना शरीर बनाने वाला कर्म वामन संस्थान और भयानक आकृति बनाने वाले कर्म को हुंडक संस्थान कहते हैं।" अस्थि बन्धनोंमें विशिष्टता उत्पन्न करने वाला कर्म संहनन नामकर्म कहलाता है । वेष्टन अर्थात् त्वचा, अस्थि और कीलीके बन्धनोंके आधारपर इसे छह प्रकारका कहा गया है - १. वज्रऋषभनाराच २. वज्रनाराच ३. नाराच, ४. अर्धनाराच ५. कीलित और ६. असंप्राप्त सृपाटिका | वज्रऋषभनाराच संहनन सबसे उत्तम होता है, आगेके संहनन क्रमश: हीन होते जाते हैं । - १. षट्खण्डागम६/१, सूत्र ३७ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीव तत्त्व प्रदीपिका, गाथा ३३ ३. षट्खण्डागम, धवला ६/१, पृ०५३ ४. सर्वार्थसिद्धि, पृ०३९० ५. षदखण्डागम ६/१ सूत्र ३४ ६. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३९० 2010_03 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन शरीरको रंग प्रदानकरने वाला कर्म वर्ण नामकर्म कहलाता है । १. कृष्ण २३ नील ३. रक्त ४.पीत और ५. श्वेतके भेदसे वर्ण पांच प्रकारका होता है । गन्ध नामकर्म से १. सुगन्ध तथा २. दुर्गन्धका बोध होता है। १. तिक्त २. कटु ३. अम्ल ४. मधुर और ५. कसेला, रस भेद उत्पन्न करने वाला, रस नामकर्म है। १. कठोर २. मृदु ३. गुरू ४. लघु ५. शीत ६. उष्ण ७. स्निग्ध और ८. रूक्ष भेदको उत्पन्न करने वाला अष्ट प्रकारका स्पर्श नामकर्म है।' जीवके देह छोड़नेके पश्चात् परन्तु दूसरे जन्मसे पूर्व, विग्रह गतिमें, पूर्व शरीरका आकार प्रदानकरने वाले कर्मको आनुपूर्वी नामकर्म कहते हैं। आनुपूर्वी नामक कर्मशक्तिकी सहायतासे ही जीव मृत्युके पश्चात् अगले भवमें गमन करता है। गतियों के आधार पर यह चार प्रकारका होता है - १. नरकगत्यानुपूर्वी २. तियंचगत्यानुपूर्वी ३. मनुष्यगत्यानुपूर्वी और ४. देवगत्यानुपूर्वी । आकाशमें गमन करने वाले नामकर्मको विहायोगति नामकर्म कहते हैं । मनुष्य तथा मोर आदिकी चालके समान शुभ गमनको १. प्रशस्त विहायोगति कहते हैं और ऊँटकी चालके समान अशुभ गमनको २. अप्रशस्त विहायोगति कहते हैं।' २. प्रत्येक प्रकृतियाँ नामकर्मकी कुछ प्रकृतियाँ ऐसी हैं जो पृथक्-पृथक् ही अपना अस्तित्व रखती हैं, इसीलिए उन्हें “प्रत्येक” संज्ञा दे दी गई है। ये प्रकृतियाँ संख्यामें आठ हैं -परजीवोंका घात करने वाले तीक्ष्ण सींग और नख जैसे अवयव उत्पन्न करने वाले कर्मको परघात नामकर्म कहते हैं, इसके विपरीत अपना ही उपघात करने वाले बड़े सींग स्थूलोदर जैसे अवयव उत्पन्न करने वाले कर्मको उपघात नामकर्म कहते हैं, श्वासोच्छवास करने वाला कर्म उच्छवास कहलाता है, आतप युक्त शरीरका निर्माण करने वाला कर्म आतप कहलाता है, जैसे सूर्यका बिम्ब और अग्नि । चन्द्रमावत् शीतल शरीर बनाने वाला उद्योत नाम कर्म है, जो कर्म शरीरको लोहेके गोले की भाँति भारी और आककी रूईकी तरह हल्का न होने दे, ऐसे कर्मको अगुरूलघु नामकर्म कहते हैं । शरीरके अंगोपांगकी समुचित रूपसे mov १. राजवार्तिक, पृ०५१७ २. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३९० ३. षट्खण्डागम ६/१सूत्र ४१ ४. गोम्टसार कर्मकाण्ड, गाथा ३३ षट्खण्डागम, धवला ६/१, पृ०५९ षट्खण्डागम६/१ सूत्र ४१ 2010_03 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १४५ रचना करने वाला निर्माण नाम कर्म है । यह स्थान निर्माण और प्रमाण निर्माणके भेदसे दो प्रकारका है । समुचित स्थानपर इन्द्रियोंकी रचना करने वाला स्थान निर्माण कहलाता है और समुचित प्रमाणमें इन्द्रियोंकी रचना करने वाला प्रमाण निर्माण कहलाता है। अहंत पदके कारण भूत नामकर्मको तीर्थकर नामकर्म कहते हैं । इस प्रकार ये आठ प्रत्येक प्रकृतियाँ कही गयी हैं। ३. प्रसदशक त्रसादि दस प्रकृतियोंको त्रस दशक कहा जाता है। त्रस नामकर्मके उदयसे जीवका द्वीन्द्रियादिकमें जन्म होता है। स्थूल शरीर को प्राप्त कराने वाला कर्म बादर नामकर्म होता है। आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन, इन छह पर्याप्तियोंको पूर्ण कराने वाला कर्म पर्याप्तिनामकर्म होता है। एक शरीरका एक जीवही स्वामी हो, ऐसा नामकर्म प्रत्येक शरीर नामकर्म कहलाता है। शरीरकी धातुओं तथा उपधातुओंको स्थिर रखने वाले कर्म को स्थिर नामकर्म कहते हैं, इसके द्वारा रोगोंका शमन होता है। शरीरके अवयवोंको सुन्दर बनाने वाला कर्म शुभ नामकर्म है। दूसरोंको सुन्दर प्रतीत होने वाले शरीरकी प्राप्ति “सुभगनामकर्म" से होती है । स्वरकी मधुरता सुस्वर नामकर्मसे होती है, कान्तियुक्त शरीरको प्राप्त कराने वाला आदेय नामकर्म है और संसारमें जीवकी प्रशंसा और कीर्तिका प्रसार करने वाला यश: कीर्ति नामकर्म है । इस प्रकारसे दस त्रसादि प्रकृतियाँ हैं। ४. स्थावर दशक स्थावरादि दस प्रकृतियोंको स्थावर दशक कहा जाता है । पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति आदि एकेन्द्रियों में उत्पन्न कराने वाला स्थावर नामकर्म है।' परस्परमें प्रतिघात न होने वाले शरीरकी प्राप्ति सूक्ष्म नामकर्म से होती है । आहारादि पर्याप्तियोंकी अपूर्णता अपर्याप्ति नाम कर्म के उदयसे होती है। साधारण नामकर्मके उदयसे एक शरीरमें ही अनेक जीवोंको स्वामित्व प्राप्त होता है। अस्थिर नामकर्म शरीरकी धातुओं और उपधातुओंको स्थिर अवस्थामें नहीं रहने देता और शरीरको रोगी बना देता है। असुन्दर शरीरकी प्राप्ति कराने वाला अशुभ नामकर्म है । कान्ति रहित शरीरकी प्राप्ति कराने वाला अनादेय नामकर्म १. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३८९ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ३३ ३. (क) गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीव तत्त्वप्रदीपिका, गाथा ३३ (ख) “यदुदयाद् द्वीन्द्रियादिषु जन्म तत् स नाम" सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३९ ४. “यन्निमित्त एकेन्द्रियेषु प्रादुर्भावस्तत्स्थावर नाम सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३९१ 2010_03 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त-एक अध्ययन है । गुण होने पर भी दूसरोंको अच्छा न लगे ऐसे कर्मको दुर्भग नामकर्म कहते हैं कटु स्वर उत्पन्न कराने वाला कर्म दुस्वर नामकर्म कहलाता है । संसारमें जीवका अपयश कराने वाला कर्म अयश: कीर्ति नामकर्म है। ७. गोत्र कर्म गोम्मटसारके अनुसार सन्तान क्रमसे चले आने वाले जीवके आचरणको गोत्र संज्ञा दी गई है । ' जैसे कुम्हार छोटे अथवा बड़े घटोंको बनाता है वैसे ही गोत्र कर्म जीवको उच्च अथवा नीच कुलमें उत्पन्न करता है । गोत्र, कुल, वंश और सन्तान ये सब एकार्थवाचक नाम हैं । गोत्र कर्मके भेद व बन्धके कारण गोत्र कर्मकी उच्च गोत्र और नीच गोत्रकी दो प्रकृतियाँ हैं । जाति, कुल, बल, रूप, ज्ञानादिकी विशेषता होनेपर भी बड़प्पन अथवा अहंकारकी प्रतीति न करने वाला, सरल, विनयी और भस्मसे ढकी अग्निकी भाँति अपने गुणों और दूसरे के दोषों को छिपाने वाला जीव उच्च गोत्रका बन्ध करता है । जाति, कुल, बल, रूप, ज्ञानादिमें अपने को उच्च समझकर, अहंकार तथा माया युक्त प्रवृत्ति करने वाला और भस्मसे ढकी अग्निकी भाँति अपने दोषों और दूसरे के गुणों को आच्छादन करने वाला जीव नीच गोत्रका बन्ध करता है । " महत्त्वशाली, लोकपूजित कुलों में उत्पन्न कराने वाली प्रकृति उच्च गोत्र है और निन्दित, दरिद्र और दु:खाकुल कुलोंमें उत्पन्न कराने वाली प्रकृति नीच गोत्र है । ५ ८ क. अन्तराय कर्म अन्तराय शब्दका अर्थ विघ्न है, अन्तर अर्थात् मध्यमें, विघ्न बनकर आने वाला कर्म " अन्तराय कर्म" कहलाता है।' यह कर्म भण्डारी की तरह जीवके दान, लाभ आदि कार्यों में बाधक बन जाता है, ' अर्थात् जिस प्रकार भंडारमें अपार सम्पत्ति होते हुए भी भंडारी उसके देनेमें विघ्न बनता है, वैसे ही जीवके पास अनन्त दान, लाभादि की शक्ति होते हुए भी अन्तराय कर्म उस शक्तिके १. (क) गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा ३३; (ख) सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३९२ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा १३ २. ३. वृहद् द्रव्य संग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा ३३ ४. (क) राजवार्तिक, पृ० ५३१; (ख) भगवती आराधना, विनिश्चय टीका, पृ० ६५३ ५. राजवार्तिक, पृ० ५३१ ६. धवला, १३, ५, पृ० ३८९ ७. भाण्डागारिकवद्दानादिविघ्नकरणतेति, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा २१ 2010_03 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद उपयोगमें बाधक बनता है। अन्तराय कर्मके भेद और बन्धके कारण अन्तराय कर्मके पांच भेद कहे गये हैं – “दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम्" दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, और वीर्यान्तराय । दानान्तरायके कारण जीव देने की इच्छा रखते हुए भी दान नहीं दे सकता, लाभान्तरायके कारण किसी भी प्रकारकी वस्तुको प्राप्त करने की इच्छा होते हुए भी जीव उसे प्राप्त नहीं कर सकता, भोगान्तरायके कारण जीव भोगने की इच्छा रखते हुए भी भोग नहीं सकता। अलंकारादि उपभोगके साधन होते हुए भी उनको भोग न पाना उपभोगान्तराय है और उत्साहित होने की इच्छा रखते हुए भी उत्साहित न हो पाना वीर्यान्तराय है। वीर्य एक प्रकारकी शक्ति विशेष होती है। अन्तराय कर्म उस शक्तिमें बाधक हो जाता है, जिसके कारण व्यक्ति जानता हुआ भी करने योग्य कार्य नहीं कर पाता । दूसरों के दानलाभादि कार्यों में विध्न डालने वाला जीव ही अन्तराय कर्मका बन्ध करके स्वयं दान लाभादिसे वंचित हो जाता है । २. स्थिति बन्ध कर्मों का विभाजन उनके स्थिति कालके आधारपर भी किया जा सकता है | कुछ कर्म क्षण भरमें ही नष्ट हो जाते हैं और कुछ कर्म हजारों वर्षका समय लेते हैं। यह समय परिमाण ही स्थितिबन्ध है। स्थितिका अर्थ है अवस्थान काल, यह गतिसे विपरीत अर्थका वाचक है | जीवके रागादि भावोंका निमित्त पाकर, उपरोक्त अष्टविध कर्मों में परिणत वर्गणायें जितने समय तक जीवके साथ बद्ध रहती हैं, उतने समयको ही, उस कर्मकी स्थिति कहा जाता है । पूज्यपादजीने इसका उदाहरण देते हुए कहा है - जैसे गाय, भैंस, बकरी आदिके दूधका माधुर्य एक निश्चित काल तक ही रहता है, उसके पश्चात् वह विकृत होने लगता है, उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मों का स्वभाव भी एक निश्चित काल तक ही रहता है । यह निश्चित काल ही कर्मों का स्थिति बन्ध कहलाता है । धवलाकारने स्थितिबन्ध की परिभाषा करते हुए कहा है कि मन-वचन-कायकी क्रियाके or mor १. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ८, सूत्र १३ २. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३९४ ३. हर्ट ऑफ जैनिज़म , पृ० १६२ ४. सर्वार्थसिद्धि, पृ०२२ ५. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३७९ 2010_03 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन फलस्वरूप कर्ममें परिणत पुद्गल स्कन्ध कषायके वशीभूत होकर जितने काल पर्यन्त जीवके साथ बद्धावस्थामें रहते हैं उतने कालको कर्मों का स्थितिबन्ध कहते हैं। कषायकी मन्दता और तीव्रताके अनुसार ही कर्मों की स्थितिमें अन्तर पड़ता तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायुको छोड़कर सब प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध, उत्कट संक्लेश परिणामसे होता है और जघन्य बन्ध उत्कट विशुद्धपरिणामसे होता है । उक्त तीनों आयुका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध उत्कट विशुद्धपरिणामसे और जघन्य स्थिति बन्ध, उत्कट संक्लेश परिणामोंसे होता गणित परिचय जैन दर्शनमें स्थितिबन्धका वर्णन अलौकिक गणितके द्वारा किया गया है इस कारण यहाँ उस गणितका सामान्य प्रमाण जान लेना आवश्यक है ।' एक करोडको एक करोड़से गुणा करने पर जो लब्ध आवे उसे कोड़ाकोई. कहते हैं । दस कोड़ाकोडी अद्धापल्यों का एक सागर होता है । अद्धापल्यके कालको जानने के लिए एक उपमा दी गई है - दो हजार कोस गहरे, दो हजार कोस चौड़े गोल गढेमें, भेड़के बालों को इतना छोटा करके डालो कि उसका दूसरा भाग न हो सके । प्रत्येक सौ वर्ष बाद एक-एक बाल निकालने पर जितने वर्षों में वह पूरा भरा हुआ गढा रिक्त हो, उतने वर्षों का एक व्यवहार पल्य है । व्यवहार पल्यसे असंख्यात गुणा उद्धार पल्य होता है और उद्धारपल्यसे असंख्यात गुणा अद्धापल्य होता है । अड़तालीस मिनटका एक मुहूर्त होता है । आवलीसे ऊपर और मुहूर्तसे नीचे के कालको अन्तर्मुहूर्त कहते हैं । एक श्वासमें संख्यात आवली होती है । नीरोग पुरूषकी नाड़ीके एक बार चलनेको श्वासोच्छवास कहते हैं। एक मुहूर्त में तीन हजार सात सौ तिहत्तर श्वासोच्छवास होते हैं। __ जैनागममें विभिन्न कर्मों की जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थितिके समयका निर्धारण किया गया है। इस निर्धारणसे तात्पर्य है कि वे कर्म उस निश्चित समयके पश्चात् पके फलकी भाँति जीवसे स्वयं पृथक् हो जाते हैं। कर्मका बन्ध हो जाने के १.. (क) षट्खण्डागम, धवला, ६/१ पृ० १४६ (ख) के.सी.सोगानी, एथिकल डॉक्टराइन इन जैनिजम १९६७, पृ०५० २. गोम्म्टसार कर्मकाण्ड, गाथा १३४ ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग दो, पृ० २१६ 2010_03 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १४९ पश्चात् वे उसी समय फलोन्मुख नहीं हो सकते, अपितु कुछ काल पश्चात् परिपक्व दशाको प्राप्त होकर ही उदयमें आते हैं, इस मध्यवर्तीकालको ही आबाधा काल कहते हैं ।' अग्रिम चार्ट में अबाधाकाल और कर्मों की जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थिति निर्दिष्ट की गई है । समस्त कर्मोंकी उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थिति और उत्कृष्ट तथा जघन्य आबाधाकालको निम्न सारिणी में चित्रित किया गया है । अष्ट कर्मों की उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थिति और आबाधाकाल मूलप्रकृति उत्कृष्ट स्थिति जघन्य स्थिति १. ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय ३० कोड़कोड़ी सागर " " ७० " 到 ३३ सागर २० कोड़ोकोड़ीसागर 勢 ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयु ६. नाम ७. गोत्र ८. अन्तराय ३० अन्तर्मुहूर्त तीन हजार वर्ष तिर्यंच, मनुष्य और देव इन तीन आयुको छोड़कर, शेष सभी प्रकृतियों की स्थितिका उत्कृष्ट बन्ध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों से होता है और जघन्य स्थिति बन्ध उससे विपरीत अर्थात् संक्लेशके कम होने से होता है । " 5 . 2010_03 " अन्तर्मुहूर्त १२ मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त " ८ मुहूर्त " उत्कृष्ट आबाधाकाल तीन हजार वर्ष गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीव तत्त्वं प्रदीपिका, गाथा १३४ " " सात हजार वर्ष १ / ३ पूर्व कोटाकोटि दो हजार वर्ष जघन्य * आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त 39 , 5 21 " तिर्यंच, मनुष्य और देव इन तीनों आयुका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध, उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामोंसे और जघन्य स्थिति बन्ध उससे विपरीत अर्थात् संक्लेश परिणामोंसे होता है । " १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० २५८ २. आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थिति: सप्ततिमहनीयस्य, नामगोत्रयोविंशतिः, त्रयस्त्रिंशतसागरोपमाण्यायुष्यस्य तत्त्वार्थ सूत्र, ८ सूत्र १४ - १७ ३. अपराद्वादशमुहूर्तावेदनीयस्य, नामगोत्रयोरष्टौ, शेषाणामन्तर्मुहूर्तम् वही, सूत्र १८-२० ४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृ० ४६१ ५. पंच संग्रह प्राकृत, अधिकार ४, श्लोक ४२५ ६. " Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ३. अनुभाग बन्ध विविध कर्मों के पाक अर्थात् फल देनेकी शक्तिको अनुभव या अनुभाग कहते हैं । अनुभाग बन्धकी परिभाषा करते हुए उमास्वामी ने कहा है “विपाकोऽनुभव: "" अनुभाग बन्ध कर्मों के नामके अनुसार ही होता है। उमास्वामीने सूत्रमें कहा है “ स यथानाम" २ अर्थात् ज्ञानावरणी कर्मका फल ज्ञानके अभावको अनुभव करना, दर्शनावरणी कर्मका फल दर्शनके अभावको अनुभव करना और वेदनीय कर्म का फल साता अथवा असाताको अनुभव करना है । इसी प्रकार अन्य सभी कर्मोंका फल उसके नामके अनुसार भिन्न-भिन्न होता है । यह अनुभाग बन्ध कषायों की तीव्रता मन्दता और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके अनुसार अनेक प्रकारका होता है । शुभकर्मों में अनुभाग सुख रूप और अशुभ कर्मों में अनुभाग दुःख रूप होता है । बकरी गाय और भैंसके दूधमें जिस प्रकार पृथक् पृथक् तीव्र मन्दादि माधुर्य विशेष होता है, उसी प्रकार कर्मपुद्गलों में अपनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही अनुभव अथवा अनुभाग होता है ।' जीवके भावों के अनुसार ही फलदान शक्तिमें तरतमता होती है। जैसे उबलते हुए तेलकी एक बूंद शरीरको जला डालती है, परन्तु कम गर्म मन भर तेल भी शरीरको जलाने में समर्थ नहीं है, इसी प्रकार अधिक अनुभाग युक्त थोड़ेसे कर्म जीवके गुणों का घात करने में समर्थ होते हैं, परन्तु अल्प अनुभाग युक्त अधिक कर्म भी जीवके गुणों का घात करनेमें समर्थ नहीं होते। इसी कारण कर्मवन्धर्मो अनुभागकी ही प्रधानता है । कर्म प्रदेशों के अधिक होने पर यह आवश्यक नहीं कि कर्म के अनुभागमें भी वृद्धि हो क्योंकि अनुभाग बन्ध कषायसे होता है । I जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त- एक अध्ययन श्रीमती स्टीवनसनने कर्मशक्तिकी मन्दता और तीव्रता को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट चित्रित किया है - दो लड़कों की गेंद गायपर लग जाती है। एक लड़का गेंद लगने पर बहुत पछताता है और दूसरा गौरवका अनुभव करता है । पछताने वाले लड़के के कर्मका अनुभाग मन्द होगा और दूसरेका तीव्र अनुभाग होगा । " शक्ति वाला अनुभाग एक देश रूपसे गुणोंका घात करता है, इसी १. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ८, सूत्र २१ २. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ८, सूत्र २२ ३. तेषामेव दुग्धानां तारतमयेन रसगतशक्तिविशेषोऽनुभागो भव्यते तथा जीवप्रदेशस्थित कर्म स्कन्धानामपि सुखदु:खदान समर्थ शक्ति विशेषोऽनुभागबन्धो विज्ञेयः " द्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा ३३ ४. षट्खण्डागम धवला १२/४, पृ० ११५ ५. हर्ट ऑफ जैनिजम, पृ० १६२ 2010_03 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १५१ कारण इसे देशघाती कहा जाता है और अधिक शक्ति वाला अनुभाग पूर्ण रूपेण का घात करता है, इसी कारण उसे सर्वघाती कहा जाता है । पाप प्रकृतियों का अनुभाग पाप अथवा अशुभ ही होता है और पुण्य प्रकृतियोंका अनुभागं पुण्य अथवा शुभ ही होता है । प्रकृतियोंमें अनुभाग बन्ध ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों की मूल सैंतालीस प्रकृतियोंका अनुभाग बन्ध संक्लेश परिणामोंकी तरतमताके आधार पर किया जा सकता है। आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रकृतियोंकी तरतमावस्था को लता, दारू, अस्थि और शैलके उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया है ।" अनुभागकी अधिकता उत्तरोत्तर घातकी अधिकताकी सूचक है । लता और दारूका दृष्टान्त अल्प अथवा देशघाती प्रकृतियों का सूचक है। अस्थि और शैलका दृष्टान्त सर्वघाती प्रकृति का सूचक है । सर्वघाती प्रकृतियाँ आत्मशक्तिके एक भी अंशको प्रगट नहीं होने देती । घातिया - अघातिया कर्म निर्देश अनुभागकी दृष्टिसे मूलोत्तर कर्म प्रकृतियों का दो रूपों में विभाजन किया गया है - घातिया कर्म और अघातिया कर्म । जीव के अन्तरंग भाव मुख्यत: चार कोटियों में विभाजित किये जा सकते हैं - ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य, ३ इन चारों भावोंके विकृत अथवा आच्छादित करने वाले घातिया कर्म भी उनके अनुरूप ही चार प्रकारके होते हैं - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय । १ ज्ञानको आच्छादित करने वाली प्रकृति ज्ञानावरणीय, दर्शनको आच्छादित करने वाली प्रकृति दर्शनावरणीय, मनको विकृत करने वाली प्रकृति मोहनीय और विघ्नकी कारणभूता अन्तराय नामकी प्रकृति है । घातिया कर्म प्रकृतियाँ भी दो प्रकार की हैं - सर्वघाती प्रकृतियाँ और देशघाती प्रकृतियाँ ।" अपनेसे प्रतिबद्ध जीवके गुणों को पूरी तरहसे घातने का जिस अनुभागका स्वभाव है, उस अनुभागको सर्वघाती कहते हैं और विवक्षित एक १. सत्ती य लदादारू अट्ठीसेलोवया हु घादीणं । दारूअणंतिम भागोत्ति देसघादी तदो सव्वं ॥ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा १८० २. ताण पुणघादित्ति अघादित्ति य होंति सण्णाओ, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ७ ३. पूर्वनिर्दिष्ट, अध्याय दो । ४. तत्र ज्ञानदर्शनावरणमोहान्तरायाख्या: घातिका । राजवार्तिक, पृ० ५८४ ५. “घातिकाश्चापि द्विविधाः सर्वघातिका: देशघातिकाश्च राजवार्तिक, पृ० ५८४ 2010_03 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन देशरूपसे आत्मगुणोंका आच्छादन करने वाली कर्म प्रकृतियोंको देशघाती कहते हैं।' केवलज्ञानावारण, दर्शनावरणषट्क - (पांचनिद्रा और केवलदर्शनावरण) मोहनीयकी बारह - (अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान चतुष्क) और मिश्र व मिथ्यात्व ये इक्कीस प्रकृतियाँ सर्वघाती हैं। सम्यग्मिथ्यात्व अबन्ध प्रकृति है। शेष चार ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, पांच अन्तराय, सम्यकत्व, संज्वलन चतुष्क और नो नोकषाय ये छब्बीस देशघाती प्रकृतियाँ हैं।' . इसी प्रकार शेष चार कर्म वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र में जीवके ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यादि गुणोंका विनाश करने की शक्ति नहीं पायी जाती। इसलिए ये कर्म अघातिया कर्म कहलाते हैं । जीव विपाकी नाम और वेदनीय कर्मोको घातिया नहीं माना जा सकता, क्योंकि उनका कार्य अनात्मभूत सुभग, दुर्भग आदि जीव पर्यायोंको उत्पन्न करना है, इनमें जीवके गुणोंका विनाश करने की शक्ति नहीं होती।' वेदनीय कर्म रति और अरति मोहनीय कर्म के साथ ही जीवके गुणोंको घातता है, इस कारण इसे घातियामें मोहनीयसे पहले गिना है। यह स्वयं अघातिया है परन्तु मोहनीयके संयोगसे घातियावत् कार्य करता है।६ इसी प्रकार अन्तराय कर्मको यद्यपि घातियाकर्म अनुभागमें ही गिना है, परन्तु नाम, गोत्र और वेदनीय, इन तीन कर्मके निमित्त से ही इसका व्यापार है। इसी कारण अघातियाके पीछे अन्तमें अन्तराय कर्म कहा है । अन्तरायकर्मका नाश शेष तीन घातिया कर्मों के नाशका अविनाभावी है और अन्तराय कर्मका नाश हो जाने पर अघातिया कर्म भुने हुए बीजके समान नि:शक्त हो जाते हैं । घातिया अघातिया कर्म प्रकृतियों को अग्रिम तालिकामें निर्दिष्ट किया गया है १. “सर्वप्रकारेणात्मगुणप्रच्छादिका:कर्मशक्तय:सर्वघातिस्पर्द्धकानिमण्यन्ते, विवक्षितेकदेशेन आत्मगुण प्रच्छादिका: शकतय: देशघातिस्पर्द्धकानि भण्यन्ते वृहद्रव्य संग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा ३४ २. केवलणाणावरणं दंसणछक्कं च मोह बारसयं । तासव्वघाइसण्णा मिस्सं मिच्छत्तमेयवीसदिमं । पंचसंग्रह प्राकृत गाथा, ४८३ ३. णाणावरणचउक्कं दसणतिगमंतराइगे पंच। तं होंति देशघाई सम्म संजलण णोकसाया य |पंचसंग्रह प्राकृत, गाया ४८४ ४. “जीव गुणविणाससत्तीए अभावा" षट्खण्डागम धवला ७/२, पृ० ६२ ५. “जीक्गुणविणासयत्ततविरहादो” वही, पृ० ६३ ६. घादिव वेयणीर्य मोहस्स वलेण घाददे जीवं” गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा १९ ७. शेष घातित्रितयविनाशाविनाभाविनो भ्रष्टबीजवन्निशक्तिकृताघातिकर्मणी.....१, षट्खण्डागम, धवला १/१ पृ०४४ 2010_03 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद • घातिया ४७ देशघाती २६ ज्ञानावरण ४ दर्शनावरण ३ मोहनीय १४ अन्तराय ५ मति सम्यक्मोह १ दान • चक्षु श्रुत अचक्षु अवधि अवधि मन:पर्यय घातिया - अघातिया कर्म प्रकृतियों की तालिका कुल प्रकृतियाँ १४८ वेदनीय २ साता असाता संज्वलन ४ लाभ नोकषाय ९ भोग उपभोग वीर्य आयु ४ नरक तिर्यंच मनुष्य देव 2010_03 अघातिया १०१ अघातिया १०१ सर्वघाती, २१ ज्ञानावरण १ दर्शनावरण ६ मोहनीय १४ केवल केवल मिथ्यात्व मोह १ निद्रा मिश्रमोह १ निद्रा-निद्रा अनन्तानुबन्धी ४ प्रचला अप्रत्याख्यान४ प्रचलाप्रचला प्रत्याख्यान ४ स्त्यानगृद्धि नाम ९३ पिण्ड प्रकृतियाँ ६५ प्रत्येक प्रकृतियाँ ८ त्रस दसक १० स्थावर दशक १० गोत्र २ नोट ः नामकर्म की प्रकृतियों के भेदों के नाम पीछे नामकर्म में देखे । १५३ उच्च नीच Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययी विपाककी अपेक्षा १४८ कर्म प्रकृतियोंकी तालिका (७८) जीव विपाकी' (६२) पुद्गल विपाकी (४) क्षेत्र विपाकी' (४) भवविपाकी नरक गत्यानुपूर्वी तिर्यन्च गत्यानुपूर्वी मनुष्य गत्यानुपूर्वी देवगत्यानुपूर्वी नरकायु तिर्यन्चायु मनुष्यायु देवायु ८ स्पर्श ५ज्ञानावरणीय ५शरीर ९ दर्शनावरणीय ५ संघात २८ मोहनीय ६ संस्थान ५अन्तराय ६ संहनन (ये ४७घातिया हैं) ३ अंगोपांग २ गोत्र ५ वर्ण २ विहायोगति २ गन्ध ४ गति ५रस ५जाति १ तीर्थंकर १ अगुरूलघु १त्रस १ उपघात १स्थावर १ परघात १ यश:कीर्ति १ आतप १ अयश:कीर्ति १ उद्योत १बादर १ निर्माण १सूक्ष्म १ प्रत्येक शरीर १ पर्याप्त १ साधारण शरीर १ अपर्याप्त १ स्थिर १ आदेय १ अस्थिर .१ अनादेय १ शुभ १ सुस्वर १ अशुभ १ दुस्वर ५बन्धन १ सुभग १श्वासोच्छवास १. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ४९-५१ २. वही, गाथा ४७ ३. वही, गाथा ४८ ४. वही, गाथा ४८ 2010_03 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाड़ लता दारू कम बन्धके कारण तथा भदप्रभेद १५५ पुण्य और पाप प्रकृतियों चार घातिया कर्मोंकी सैंतालीस प्रकृतियाँ पाप रूप होती हैं। वेदनीय, आयु, नाम, और गोत्र, इन चार अधातिया कर्मोकी एक सौ एक प्रकृतियोंका विभाजन पुण्य और पाप दोनोंमें किया जा सकता है, इन्हें प्रशस्त और अप्रशस्त भी कहा जाता है। पुण्य प्रकृतियों के अनुभागकी उपमा गुड़, खांड, शक्कर और अमृतसे की गई है, जो उत्तरोत्तर अधिक मिष्टताकी सूचक हैं। पुण्य प्रकृतियोंकी फलदान शक्ति भी उत्तरोत्तर अधिक होती जाती है। पाप प्रकृतियोंके अनुभाग की उपमा नीम, कॉजी, विष और हलाहलसे दी गई है। जो उत्तरोत्तर अधिक कटुताकी सूचक हैं | पाप प्रकृतियोंकी फलदान शक्ति भी उत्तरोत्तर अधिक होती जाती है। इन दृष्टान्तोंको निम्न सारिणी द्वारा स्पष्ट किया जा सकता हैप्रकृतियाँ उत्तरोत्तर अधिक अनुभाग के सूचक दृष्टान्त पुण्य प्रकृतियाँ गुड़ शक्कर अमृत पाप प्रकृतियाँ नीम कॉजी विष हलाहल घातिया प्रकृतियाँ अस्थि शैल देशघाती लता - - सर्वघाती - अस्थि शैल घातिया अघातिया समस्त एक सौ अडतालीस प्रकृतियोंको पुण्य पाप अथवा प्रशस्त अप्रशस्तकी दृष्टिसे अग्रिम तालिकामें नाम निर्देशन किया गया है। ___ नोट: संकेतों के पूरे नाम प्रकृति परिचय में दिये जा चुके हैं। पुण्य पाप कर्म प्रकृतियों की तालिका ___ नाम भेद पुण्य प्रकृतियाँ भेद पाप प्रकृतियों क. घातिया १. ज्ञानावरणीय मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय केवल २. दर्शनावरणीय चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल, निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्तयानगृद्ध ३. अन्तराय - - ५ दान, लाभ, भोग, उपभोग , वीर्य १. मोहनीय२ .. १. “शुभाघातिकर्म संबंधिनी पुर्नगुडखण्डशर्करामृतरूपेण चतुर्धा भवति” द्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा ३३ १. “अशुभाघातिकर्म संबंधिनी निम्बकांनीरविष हलाहल रूपेण चतुर्धा भवति" द्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा ३३ 1. (क) गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ४१-४४ (ख) तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ८, सूत्र २५-२६ दारू - - 2010_03 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ नाम अ. दर्शन मोहनीय ब. चारित्र मोहनीय ख. अघातिया ५. वेदनीय ६. आयु ७. गोत्र ८. नाम कर्म गति जाति शरीर बन्धन संघात निर्माण अंगोपांग संस्थान संहनन स्पर्शादि आनुपूर्वी अगरुलघु उपघात परघात आतपत्रिक विहायोगति त्रस चतुष्क स्थावर चतुष्क सुभगषटक दुभंग षटक तीर्थंकरत्व भेद १ ३ १ २ १ ५ ५ ५ १ ३ १ १ २० २ : १ १ ३ १ ४ 1 पुण्य प्रकृतियाँ सातावेदनीय मनुष्य तिर्यच देव उच्च गोत्र 2010_03 मनुष्य, देव पंचेन्द्रिय 9 औ०, वै० आ० तै०, का० औ०, वै०, आ० तै०, का० औ०, वै०, आ० तै०, का० निर्माण औ०, वै०, आ०, समचतुरस्र वज्रवृषभनाराच ८ स्पर्श, ५ रस, २ गंध ५ वर्ण देव, मनुष्य अगरुलघु परघात आतप, उद्योत, उच्छवास प्रशस्त त्रस, बादर, प्रत्येक, पर्याप्त ६ सुभग, सुस्वर, स्थिर, शुभ, आदेय, यशः भेद ३ २५ १ १ १ २ ४ ५ ५ २० २ १ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन पाप प्रकृतियाँ मिथ्यात्व, सम्यक् मिध्यात्व, सम्यक् १६ कषाय ९ नोकषाय ४ असातावेदनीय नरक आयु नीच गोत्र तिर्यंच, नरक एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रय, चतुरिन्द्रय न्यग्रोध, स्वाति, कुब्जक, वामन, हुंडक वज्रनाराच, अर्धनाराच, नाराच, कीलक, असंप्राप्तसृपाटिका ८ स्पर्श, ५ रस, २ गंध, ५ वर्ण नरक, तिर्यंच अप्रशस्त स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त दुभंग, दुस्वर, अस्थिर, अशुभ, अनादेय, अयश १ तीर्थंकर ६८ १०० नोट- स्पर्शादि की २० प्रकृतियां पुण्य तथा पाप दोनों में गर्भित की हैं। अत: (१००+६८)-२० = १४८ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद ४. प्रदेश बन्ध जैन दर्शनमें कर्म बन्धका विभाजन कमों के घनत्वके आधार पर भी किया गया है। कुछ कर्म अत्यधिक कर्म पुद्गलोंके और कुछ कर्म अल्प पुद्गलोंके समूह रूप होते हैं, इस प्रकार घनत्वकी दृष्टिसे किया गया बन्ध प्रदेश बन्ध कहलाता है।' प्रदेशका लक्षण करते हुए जयधवला टीकामें कहा गया है – “निर्भाग - आकाशावयव: प्रदेश: २ आकाशका ऐसा अवयव जिसका दूसरा विभाग न हो सके अर्थात् आकाशके अविभागी अंशको प्रदेश कहते हैं और यह अविभागी अंश एक परमाणुके समान स्थान घेरता है। पूज्यपादजी ने प्रदेश शब्दका व्युत्पत्ति अर्थ करते हुए कहा है- “प्रदिश्यन्ते इति प्रदेशा: परमाणव:"३ अर्थात प्रदेशोंका दिग्दर्शन परमाणुओं द्वारा होता है। कर्म प्रकृतियों के कारणभूत सूक्ष्म, एकक्षत्रावगाहा, अनन्तानन्त पुद्गलपरमाणुओंका आत्म प्रदेशों के साथ संबंधको प्राप्त होना ही प्रदेश बन्ध कहलाता है। जिनेन्द्र वर्णीजी ने कोशमें इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि जिस प्रकार अखण्ड आकाशमें प्रदेश भेदकी कल्पना करके अनन्त प्रदेश बताये गये हैं, उसी प्रकार सभी कर्मों में प्रदेशोंकी गणनाका निर्देश किया गया है। उपचारसे पुद्गल परमाणुको भी प्रदेश कहते हैं। पुद्गल कर्मों के प्रदेशोंका जीवके प्रदेशोंके साथ बन्धको प्राप्त होना प्रदेशबन्ध कहा गया है।" प्रदेश बन्ध, कर्म रूपसे परिणत पुद्गल स्कन्धों के परमाणुओं की संख्याका निर्धारण करता है । मन, वचन और कायके योगोंकी तीव्रता होने पर अधिक प्रदेशोंका बन्ध होता है और मन्दता होनेपर अल्प प्रदेशोंका बन्ध होता है। इस प्रकार योगशक्तिकी हीनाधिकता पर ही कर्मपरमाणुओंकी हीनाधिकता अवलम्बित है। जब तक यह जीव कर्मबन्धकी कारणभूता कषाय विशिष्ट, मन वचन काय के योगोंकी प्रवृत्ति को नहीं रोकता, तब तक बन्धकी श्रृंखला निरन्तर बनी रहती है। प्रवृत्ति को रोकनेपर ही बन्ध श्रृंखलाका विच्छेद होता है। १. हर्ट आफ जैनिजम, पृ० १६२ २. कवाय पाहुड, २/२ पृ०७ ३. सर्वार्थसिद्धि, पृ० १९२ ४. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ८, सूत्र २४ ५. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० १३५ ६. "इयत्तावधारण प्रदेश: सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३७९ ७. उद्धृत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ० १३६ 2010_03 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन ___एक समयमें जितने कर्म प्रदेशजीवके साथ संयुक्त होते हैं, उससंख्याको एकसमय प्रबद्ध कहा जाता है। पंच संग्रहके अनुसार एक जीव पांच रस, पांच वर्ण, दो गन्ध और शीतादि चार स्पर्श रूपमें परिणत पुद्गल परमाणुओंको एक समयमें ग्रहण करता है।' जीवके भावोंका निमित्त पाकर प्रतिसमय जितने परमाणुस्वयं कर्म रूपमें परिणत होते हैं उनका अष्ट मूल प्रकृतियोंमें हीनाधिक रूपसे विभाजन हो जाता है। मूल प्रकृतियोंमें आयु कर्मके प्रदेश सबसे अल्प मात्रामें होते हैं, नाम और गोत्र कर्मका भाग आयु कर्मसे अधिक होता है, परन्तु परस्पर में समान होता है। नाम और गोत्रसे अधिक भाग ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्मका होता है । इन तीनोंके प्रदेश परस्पर समान मात्रामें होते हैं। इन तीनोंसे भी अधिक भाग मोहनीय कर्मका होता है। मोहनीय कर्मसे भी अधिक भाग वेदनीयका होता है क्योंकि वेदनीय कर्म सुख दु:ख का निमित्त होता है । यह प्रतिक्षण निर्जीर्ण होता रहता है। शेष सात कर्मों के प्रदेश बन्धकी हीनाधिकता स्थिति बन्ध के समान ही है। उत्तर प्रकृतियों में प्रदेश बन्धका विभक्तीकरण निम्न प्रकार किया जा सकता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीय की उत्तर प्रकृतियों में प्रदेशों की मात्रा क्रमश: हीन होती जाती है । जैसे ज्ञानावरणीय कर्ममें मतिज्ञानावरणके सबसे अधिक कर्म प्रदेश होते हैं, श्रुतज्ञानावरण आदि के क्रमश: उससे हीन होते जोते हैं। इसी प्रकार दर्शनावरण और मोहनीय के कर्म प्रदेश भी क्रमश: हीन होते जाते है | नामकर्म और अन्तराय कर्मकी उत्तर प्रकृतियों में प्रदेशों की मात्रा क्रमश: बढ़ती जाती है क्योंकि दानान्तरायमें सबसे हीन और वीर्यान्तरायमें सबसे अधिक प्रदेशोंकी.मात्रा होती है । वेदनीय, गोत्र और आयु कर्म के प्रदेश उत्तरप्रकृतियों में विभक्त नहीं होते, क्योंकि एक समयमें साता या असातामें से एक ही वेदनीय कर्म, उच्च और नीचमें से एक ही गोत्र कर्म, और चार आयुमें से एक समयमें एक ही आयुकर्मका बन्ध १. पंच संग्रह प्राकृत, अधिकार ४, गाथा ४९५ २. आउगभागो थोवो णामागोदे समो तदो अहियो। घादितिये विय तत्तो मोहे तत्तोतदो तदिए । गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा १९२ ३. सुहृदुक्खणिमित्ता दोवहुणिज्जरगोत्ति वेयणीयस्स। सव्वेहितो बहुगं दव्वं होदित्ति णिदिळें ।। वही, गाथा १९३ ४. उत्तरपयड़ीसु पुणो मोहावरणा हवंति हीणकमा। अहियकमा पुणणामा विग्धा यणभंजण सेंसे गोम्मटसार कर्मकाण्ड. गाथा १९६ oc 2010_03 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १५९ होता है। . इस प्रकार कर्मबन्धमें विभिन्न कर्म प्रकृतियों में प्रदेशों की हीनाधिकताको दर्शाने के लिए ही प्रदेश बन्धका सूक्ष्म विवेचन किया गया है । निष्कर्ष उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय ये पांच कर्मबन्धके कारण होते हैं। इन भाव कर्मों के निमित्त से ही ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों का आगमन होता रहता है । जीवकी प्रत्येक क्रियामें ये कर्म छिपे होते हैं, इसी कारण पूर्व कर्म फलोन्मुख होकर जीव से पृथक हो जाते हैं। बन्धको प्राप्त कर्म केवल एक प्रकारका ही नहीं होता, जिस प्रकार खाया हुआ भोजन पच जानेपर रक्त, मांस आदि अनेकविध रूपों में बदल जाता है, उसी प्रकार बन्धको प्राप्त कर्मों का स्वभाव भी अनेक प्रकारका हो जाता है। कुछ कर्म ज्ञानपर आवरण डालते हैं और कुछ अवलोकन शक्तिपर, कुछ कर्म जीवके स्वाभाविक गुणोंको नष्ट कर डालते हैं और कुछ कर्म जीवके स्वाभाविक गुणोंको नष्ट न करते हुए भी शरीर, आयु, गोत्र आदि स्थूल रूपों में दृष्टिगोचर होते हैं। उपरोक्त निर्दिष्ट कर्म की एक सौ अड़तालीस प्रकृतियाँ दु:ख रूप होती हैं, और कुछ सुख रूप, कुछ पाप रूप होती हैं और कुछ पुण्य रूप । इस प्रकार से कर्मबन्धके स्वभावका सूक्ष्मतम विश्लेषण जैन दर्शनमें ही किया गया है । जैन दर्शनमें कर्म के स्वभावकी व्याख्या करने वाली कर्म प्रकृतियों का अत्यधिक विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है । जैन मान्य सम्पूर्ण कर्म सिद्धान्त, इन प्रकृतियोंको केन्द्र मानकर ही समस्त व्याख्याओं को प्रस्तुत करता है । इन प्रकृतियों के आधार पर ही पूर्व अध्याय में निर्दिष्ट, कर्म की बन्ध, उदय, सत्ता, उदीरणा आदि विविध अवस्थाओं का, संसार के प्रत्येक जीवकी दृष्टिसे, सूक्ष्मतम रूपमें कथन किया गया है और अग्रिम अध्यायमें निर्दिष्ट कर्म मुक्ति के मार्ग तथा गुणस्थान सम्बन्धी सम्पूर्ण धारणा इन कर्म प्रकृतियोंपर ही केन्द्रित है। जिस प्रकार केन्द्रकी कीली निकाल देने से चक्र अस्त व्यस्त हो जाता है, उसी प्रकार जैन कर्म सिद्धान्त द्वारा मान्य, इन कर्म प्रकृतियों की उपेक्षा कर देने पर, जैन मान्य नैतिकता आदि के अन्य सभी सिद्धान्त भी छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। कर्मसिद्धान्त, कर्मबद्ध संसारी जीवों पर ही लागु होता है, इसी कारण कर्म सिद्धान्तसे सम्बन्धित अन्य गुणस्थान आदिकी व्यवस्था भी संसारी जीवों पर ही लाग होती है। 2010_03 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन ___ चतुर्विध कर्मबन्धकी व्याख्यामें प्रकृति बन्धके अतिरिक्त कर्मों के कालकी सीमाका निर्धारण स्थिति बन्धके द्वारा किया गया है। कुछ कर्म हजारों वर्षों के लम्बे कालके लिए बन्धको प्राप्त होते हैं और कुछ क्षणिक बन्धको प्राप्त होते हैं। बन्धनेके पहले समयसे लेकर फलोन्मुख होनेके समय तकके समयको कर्मोका स्थिति बन्ध कहा जाता है । अनेक पौराणिक आख्यानोंसे यद्यपि कर्मों की स्थितिका आभास प्राप्त होता है , जिससे यह सिद्ध होता है कि अन्य दर्शनों में भी कोंके स्थिति बंध को स्वीकार अवश्य किया है, परन्तु जैनदर्शनकी भाँति कर्मसिद्धान्तके मुख्य अंगके रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया और न ही, जैन दर्शनके समान अन्य दर्शनोंमें कर्मके एक-एक स्वभावका, जघन्य और उत्कृष्ट समयका निर्धारण किया गया है | कर्मों की स्थितिका अपकर्षण और उत्कर्षण संबंधी विवेचन भी अन्य दर्शनोंमें जैन दर्शनके समान स्पष्ट नहीं किया गया है। तीव्र रागद्वेषादि परिणामोंके द्वारा बन्धको प्राप्त कर्म तीव्र रूपसे ही फलोन्मुख होते हैं और मन्द परिणामों के द्वारा बद्ध कर्म मन्द रूपसे ही फलोन्मुख होते हैं। इस प्रकार कर्मकी विपाक शक्ति को अनुभागबन्धके द्वारा निर्दिष्ट किया गया है और कर्मों की सघनता और विरलताको दर्शाने वाले प्रदेश बन्धके द्वारा कर्म परमाणुओं की संख्याका अवधारण किया गया है । जिस प्रकार रूईका गोला विरल होता है और लोहेका गोला सघन होता है इसी प्रकार कर्मों का बन्ध भी विरल और सघन दो प्रकार का होता है। विरल प्रदेश बन्धमें कर्म परमाणुओं की मात्रा कम होती है और सघन प्रदेश बन्धमें कर्म परमाणुओं की मात्रा अधिक होती है। __इस प्रकार कर्मों के कारण प्रत्ययों तथा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश इन चुतुर्विध बन्धके निर्देशनसे, जैन मान्य कर्मकी धारणाका सुस्पष्ट अवलोकन हो जाता है । कर्मों के कारण और बन्ध के स्वरूपको जानकर ही विविध साध नाओंके द्वारा कर्मों के कारणभूत प्रत्ययोंको दूर किया जा सकता है। कारण प्रत्ययोंका जैसे-जैसे अभाव होता जाता है, वैसे-वैसे ही कर्मों की प्रकृति, पापसे पुण्य, स्थिति-उत्कृष्टसे जघन्य, अनुभाग-तीवसे मन्द और प्रदेश-सघनसे विरल होते चले जाते हैं। अन्तमें समस्त कारण प्रत्ययोंका अभाव हो जाने पर कर्म बन्धका ही विघटन हो जाता है और जीव सिद्धावस्थाको प्राप्त कर लेता है। कर्मबन्धके नवीन कारणोंको रोक देना संवर कहा जाता है और पूर्वबद्ध कर्मोंको जीर्ण करना निर्जरा कहा जाता है। इनका विवेचन अग्रिम अध्यायमें किया गया है। 2010_03 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्याय कर्ममुक्तिका मार्ग संवर निर्जरा - आश्रव निरोध: संवरः स: गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रै: तपसा निर्जरा च; (तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ९, सूत्र १-३) १.. कोंकी अनादिकालीन परम्परामें पुरुषार्थका सार्थक्य जीव, पुद्गल, कर्मबन्ध, बन्धके भेद प्रभेदों और कर्मों की विविध अवस्थाओंके निर्देशनसे यह स्पष्ट है कि जीवके योग तथा उपयोगके निमित्तसे कर्म पुद्गलोंका बन्ध होता रहता है और परिपाक काल आनेपर उदय हो जाता है । फलोन्मुख होनेके समय जीवके जैसे परिणाम होते हैं, उसी प्रकारका बन्ध पुन: हो जाता है। इस प्रकार बन्धसे उदय और उदयसे बन्धका चक्र स्वत: चलता रहता है। इस प्रकारकी अटूट परम्परा अनादि कालसे चल रही है। क्या इस अटूट परम्पराका अन्त किया जा सकता है। यदि किया जा सकता है तो कैसे किया जा सकता है ? कौन सा ऐसा समय है, जिसका उपयोग करके जीव अपने पुरूषार्थको सार्थक्य कर सकता है ? इन प्रश्नोंका युक्तियुक्त उत्तर दिया जा सकता है । इस अटूट परम्पराको छिन्न-भिन्न करने की शक्तिजीवमें विद्यमान होती है। दासगुप्तके अनुसार यदि जीवमें अनन्त वीर्य नहीं होता, तो वह अनन्त काल तक बन्धन बद्ध रहता। कर्मने जीवकी अनन्त शक्तियोंको आवृत भले ही किया हुआ है, परन्तु ये कर्म जीवको महत्तम कल्याणकी स्थितिसे वंचित नहीं कर सकते। अत: कर्मकी अटूट परम्परा को छिन्न-भिन्न अवश्य किया जा सकता है। कर्मके इस अनादि चक्रको सान्त बनाने के लिए संवर तथा निर्जरा के पथका अनुगमन आवश्यक है। कर्म प्रवेश का निरोध करने वाली प्रक्रिया संवर कहलाती है और पूर्वबद्ध कर्मोकी समय से पूर्व विपाककी क्रिया निर्जरा कहलाती है। संवर १. दास गुप्त, भारतीय दर्शनका इतिहास, पृ० २१६ २. वही, पृ०२०४ 2010_03 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन और निर्जराके लिए पुरूषार्थ करनेका विशेष समय कौन सा होता है, इसका निर्देशन करते हुए द्रव्य संग्रहमें कहा गया है - बुद्धिमान पुरूष शत्रुकी निर्बल अवस्थाको देखकर यदि मारनेका पुरूषार्थ करे तो उस समय में किया गया पुरूषार्थ कार्यकारी हो जाता है । उसी प्रकार स्थिति और अनुभाग बन्ध जिस समय मन्द शक्तिसे उदयमें आ रहे हों, उस समय जीव निर्मल भावना रूपी खड्गके द्वारा कर्मशत्रुओंका हनन कर सकता है। यदि यह मन्द उदयका समय निकल जाता है, तो व्यक्ति पुन: संस्कारोंके प्रभाववश पुरूषार्थ करने में असमर्थ हो जाता है। अत: कर्मों के मन्द उदयमें ही जीव संवर निर्जराके पथपर चलने में समर्थ हो सकता है और यह अवसर अनेक बार प्राप्त हुआ करता है। प्रबुद्ध प्राणी इस अवसरका लाभ उठाकर अपनेको मुक्ति पथ पर आरूढ़ कर लेते हैं । ___ कर्मों की श्रृंखलाका अथवा संसार चक्रका अथवा दु:खोंका निवारण करनेके लिए, प्राय: सभी दर्शनोंने मुक्तिके मार्गको किसी न किसी रूपमें स्वीकार किया है । विभिन्न दर्शनों द्वारा मान्य मुक्तिके मार्गका विवेचन किया जाना इष्ट है - २. विभिन्न दर्शनोंमें मुक्तिके मार्गका स्वरूपक. बौद्ध दर्शनमें मुक्तिका मार्ग बौद्ध दर्शनका चतुर्थ आर्य सत्य दु:ख निरोध मार्ग है । बौद्ध दर्शन में निम्न अष्टौगिक मार्गके द्वारा दु:ख निरोध अर्थात् मुक्तिके मार्ग का कथन किया गया है-१. सम्यक्दृष्टि २. सम्यक् संकल्प ३. सम्यक् वाक् ४. सम्यक् कर्मान्त ५. सम्यक् आजीविका ६. सम्यक् व्यायाम ७. सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि। इस अष्टांगिक मार्गको तीन भेदोंमें गर्भित किया जा सकता है - सम्यक् दृष्टि और सम्यक् संकल्प प्रज्ञाके अन्तर्गत हैं, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम ये चार शीलके अन्तर्गत हैं और सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि, समाधिके अन्तर्गत हैं । इस प्रकार प्रज्ञा, शील और समाधिको कर्म मुक्तिका मार्ग कहा है। अहिंसा, अचौर्य, सत्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहको शीलमें ही गर्भित किया गया है और समाधिके उत्तरोत्तर विकासको प्राप्त होने वाले तीन भेद किये गये हैं - श्रुतमयी समाधि, चिन्तमयी समाधि और समाधिजन्य निश्चय । ये तीनों सोपान वेदान्त मान्य श्रवण, मनन और निदिध्यासनसे समानता रखते हैं। १. द्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा ३७ २. सिन्हा हरेन्द्र, भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, १९८०, पृ० १०१ ___ 2010_03 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा ख. सांख्य दर्शनमें मुक्तिका मार्ग सांख्य दर्शनमें पुरूष और प्रकृतिमें विभिन्नताका बोधकराने वाले सम्यग्ज्ञानको ही मुक्तिमार्गका प्रदर्शक माना गया है, क्योंकि तत्त्वज्ञानके होने से पुरूष प्रेक्षककी तरह तटस्थ भावसे प्रकृतिको देखता है ।' हरेन्द्र सिन्हाके अनुसार सांख्य मतमें कर्मको दुःखात्मक माना गया है। दुःखात्मक कर्मके द्वारा मोक्षकी प्राप्ति संभव नहीं हो सकती। इसके विपरीत ज्ञान, जाग्रत अनुभवकी तरह यथार्थ होता है, इसीलिए सम्यक्ज्ञान से ही मोक्षकी प्राप्ति होती है । JT. योग दर्शनमें मोक्षका मार्ग योग दर्शनमें निम्न अष्टांग मार्गके द्वारा मुक्तिपथका निर्देशन किया गया है - १. यम २. नियम ३. आसन ४. प्राणायाम ५. प्रत्याहार ६. धारणा ७. ध्यान और ८. समाधि । अहिंसा, असत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के भेदसे यम पांच प्रकार का है, यम जैन मान्य पंच व्रतोंके समान ही है। शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पांच नियम कहे गये हैं, शेष छह मार्ग प्राणवायुपर नियंत्रण करने, बाह्य विषयोंसे इन्द्रियोंको हटाने, ध्यानकी निरन्तरता और पूर्ण लवलीनताके सूचक हैं । न्यायवैशेषिक दर्शनमें मोक्षका मार्ग घ. - अपवर्गकी प्राप्तिका क्रम निर्देशन करते हुए न्यायसूत्रमें कहा गया है। “दु:ख जन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानम् उत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायाद अपवर्ग"" मिथ्याज्ञानकी निवृत्ति तत्त्वज्ञानसे होती है, तत्त्वज्ञान होने से साधकको विषयों में दोष दिखाई देने लगता है, जिससे वह मोक्ष प्राप्तिके साधनोंमें प्रवृत्ति करने लगता है । आत्मसाधना में प्रवृत्ति करने से क्रियमाण, संचित और प्रारब्धकर्मों का नाश हो जाता है और जन्म परम्पराका नाश करते हुए प्राणी समस्त दुःखों से अतीत हो जाता है । न्यायवैशेषिक दर्शनमें इस प्रकार ज्ञान और कर्म के समुच्चयको ही मुक्तिका साधन माना गया है। १६३ वैशेषिक दर्शनमें निम्न नैतिक कर्तव्योंके द्वारा मुक्ति पथ का निर्देशन किया गया है - श्रद्धा, अहिंसा, प्राणीहितसाधना, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, १. सांख्यकारिका, ६४-६५ २. सिन्हा हरेन्द्र, भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, १९८०, पृ. २४५ ३. योग सूत्र, २, २९-३२ ४. न्यायसूत्र १-१-२ 2010_03 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन अनुपधा (हार्दिक पवित्रता) अक्रोध, स्नान, भोजन की पवित्रता, देवोपासना, उपवास और अप्रमाद । ' उपरोक्त नैतिक आदर्शों का बिना फलकी इच्छासे, तत्त्वज्ञानपूर्वक पालन करनेसे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है। अत: न्यायवैशेषिक दर्शन ने यद्यपि मोक्षका साक्षात् कारण ज्ञानको माना है, परन्तु परम्परा रूपसे कर्मको भी मोक्षका कारण माना गया है। ड. मीमांसा दर्शनमें मुक्तिका मार्ग मीमांसा दर्शनमें मोक्षकी द्विविध साधना कही गई है - १. काम्य और प्रतिषिद्ध कर्मों का त्याग २. नित्य कर्मोंका सदैव अनुष्ठान । मीमांसा दर्शनमें कर्मके साथ ही ज्ञानको भी मुक्ति पथका साधन माना है। ज्ञानसे तात्पर्य यह विवेक हो जाना है कि आत्माका संसारसे संबंध वास्तविक होते हुए भी अनिवार्य नहीं है। मोक्षावस्थामें आत्माका संसारसे संबंध विच्छेद हो जाता है । इस प्रकार मीमांसा दर्शनमें मोक्षके साधनके रूपमें ज्ञानकी आवश्यकता और नित्य कर्मों के अनुष्ठानको स्वीकार कर ज्ञानकर्म समुच्च्यवादको माना गया है।' च. वेदान्त दर्शनमें मुक्तिका मार्ग वेदान्त दर्शनमें एक मात्र ज्ञानको ही मुक्तिका साधन स्वीकार किया गया है। ज्ञान और कर्मको अन्धकार और प्रकाश तथा उष्णता और शीतलताके समान विपरीत माना गया है । अज्ञान रूपी अन्धकारका निवारण एक मात्र ज्ञान रूपी प्रकाशसे ही होता है, अत: मोक्ष प्राप्ति में कर्मों की आवश्यकता नहीं है, मात्र ज्ञानकी ही आवश्यकता है। सुरेश्वराचार्यने स्पष्ट कहा है कि उत्पाद्य, आप्य, संस्कार्य और विकार्य रूपमें ही क्रियायोंके फल दृष्टिगोचर होते हैं, परन्तु आत्मा इन चारों क्रियाफलोंसे अतीत है, अत: मोक्ष प्राप्ति कर्मों के द्वारा नहीं हो सकती । शंकराचार्यने भी ज्ञानके अतिरिक्त मुक्तिका कोई अन्य साधन नहीं माना। १. प्रशस्तपाद भाष्य, बनारस १९२४, पृ० ६४० २. ........तत्त्वज्ञानान्श्रेियसम्, वैशेषिक सूत्र, १.१.४ ३. तत्त्वज्ञानस्य साक्षाज्जनकता कर्मणस्तु परम्परयेत्याशय:” उदयनाचार्य, किरणाबली भाष्य, बनारस १९२०, पृ०२१ ४. हिरियन्ना एम, भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, पृ० ३३३, ३३४ ५. सुरेश्वराचार्य, नैषकर्म्यसिद्धि, अध्याय १, श्लोक २४ ६. उत्पाद्यमाप्यं संस्कार्यम् विकार्यच क्रियाफलम्। नैवमुक्तिर्यतस्तस्मात् कर्म तस्या न साधनम् । नैष्कर्म्य सिद्धि, १-५३ ७. ब्रह्मैवाहमस्मिइत्यपरोक्ष ज्ञानेन निखिल कर्मबन्धविनिर्मक्त स्यात तत्त्वबोध 99 2010_03 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा १६५ छ. जैन दर्शनमें मुक्तिका मार्ग जैन दर्शनमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र तीनों के सम्मिलित रूपको ही मोक्षका साक्षात् मार्ग कहा गया है । जीवादि सप्त तत्त्वोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, उन्हींका अधिगम सम्यग्ज्ञान है और रागादिका परिहार सम्यग्चारित्र है। इस प्रकार जैन दर्शन ने सांख्य और वेदान्त दर्शनोंकी भाँति केवल मात्र ज्ञानको ही मुक्तिका साधन नहीं माना, न ही न्यायवैशेषिक और मीमांसा दर्शनोंकी भाँति ज्ञान कर्म समुच्चयको मोक्षका मार्ग माना है और भक्ति योगकी भाँति केवल समर्पण और श्रद्धाको भी मोक्षका साधन नहीं माना है, अपितु तीनोंके संयोगको ही मोक्षका कारण कहा गया है। पूर्ण निरोगकी प्राप्तिके लिए जिस प्रकार औषधिका श्रद्धान, ज्ञान व सेवन रूप क्रिया आवश्यक है, उसी प्रकार समस्त कर्ममलसे मुक्ति प्राप्त करने के लिए श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र तीनोंकी ही आवश्यकता है। सम्यक् दर्शन और सम्यक्ज्ञान सहित, चारित्र ही मोक्षका साध न होता है, ज्ञान और श्रद्धानसे रहित नहीं। तीनोंको ही रत्नत्रय कहा गया है, क्योंकि इनके द्वारा आत्माको अनादिकालीन कर्मबद्धतासे मुक्ति प्राप्त होती है। अमृतचन्द्राचार्यने रत्नत्रयको साक्षात् निवार्णका हेतु कहा है | मोक्षमार्गका पुरूषार्थी जीव ज्यों-ज्यों रत्नत्रयकी पूर्णताकी ओर बढता जाता है, उसके कर्मबन्धन ढीले पड़ते जाते हैं। रत्नत्रयका पालन संवर और निर्जरा युक्त साधनाके द्वारा ही होता है। ३. कर्म प्रवाहको रोकनेका उपाय संवर परिचय जीवको बन्धनमें डालनेवाले कर्माणुओंके प्रवाहका रूक जाना ही संवर है । १. अत: सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रमितिएतत्रितय समुदितमोक्षस्यसाक्षान्मार्गोवेदितव्यः । सर्वार्थसिद्धि, पृ०७ २. जीवादीसदहणं सम्मतं तेसिमधिगमो णाणं। रायादीपरिहरणं चरण एसो दुमोक्खपहो। समयसार, गाथा १५५ ३. राजवार्तिक, पृ०१४ ४. यत: क्रिया, ज्ञान श्रद्धारहिता नि:फलेति, यतो मोक्षमार्ग त्रितयो कल्पना ज्यायसीति, राजवार्तिक, पृ० १४ । ५. तिण्डंपिय संजोगे होदि हु जिणसासणे मोक्खो, मूलाचार गाथा ८९९ ६. आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव, पुरूषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक ३० ७. रत्नत्रयमिह हेतुनिर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य, वही, श्लोक २२० ८. पुरूषार्थसिद्धयुपाय: श्लोक २१२.२१४ 2010_03 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन उमास्वामीने संवरका लक्षण करते हुए कहा है - "आश्रव निरोध: संवर: अर्थात् जिस निमित्तसे कर्म का आगमन होता है, उस निमित्तका प्रतिरोध हो जाना ही संवर है । बन्ध प्रकरणमें पहले ही निर्दिष्ट किया जा चुका है कि मिथ्यात्व. अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच बन्धके मुख्य कारण हैं। इसके विपरीत सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और योगोंकी निवृत्ति, ये नवीन कर्मों के निरोधके हेतु होनेसे संवर कहे जाते हैं। मोक्षमार्गके विकासका क्रम संवरसे ही प्रारम्भ होता है। जैसे-जैसे आश्रव निरोध होता जाता है वैसे-वैसे ही गुणस्थानकी भी वृद्धि होती जाती है । गुणस्थान मोक्षमार्गके सोपान हैं, जिनका वर्णन अग्रिम अध्यायमें किया जाना है। संवरके भेद संवरके दो भेद कहे गये हैं – भाव संवर और द्रव्य संवर | जीवके साथ संश्लेष संबंधको प्राप्त - मिथ्यात्व, अविरति, कषाय आदि आत्माके स्वगुण नहीं हैं, इसी कारण इन्हें आत्मासे पृथक् किया जा सकता है । सम्यक्बोधके द्वारा ही मिथ्यात्वादिको दूर किया जा सकता है। सम्यक्बोधके परिणाम स्वरूप अज्ञान जनित अवस्था का क्षीण होना भाव संवर है और अज्ञान जनित अवस्थाके क्षीण होनेसे कर्मपुद्गलोंका ग्रहण न होना द्रव्य संवर है । संवरके साधन कर्म प्रवाहको रोकनेके मुख्य सात साधन कहे गये हैं। परन्तु उनके उत्तरभेदोंकी गणना करने पर कुल बासठ भेद हो जाते हैं, जो अग्र तालिका द्वारा निर्दिष्ट किये जा सकते हैं - १. तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ९, सूत्र १ २. पूर्व निर्दिष्ट कर्म बन्धके कारण। ३. संसार निमित्तक क्रियानिवृत्तिर्भाव संवर, तन्निरोधे तत्पूर्वक कर्म पुद्गलादान विच्छेदो द्रव्य संवरः । सर्वार्थसिद्धि, पृ०४०६ ४. (क.) वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजओज। चारित्तं बहु भेया णायव्वा भाव संवर विसेसा। द्रव्यसंग्रह, गाथा ३५ (ख.) स गुप्ति समितिधर्मानुप्रेक्षा परिषह जय चारित्रैः, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ९ सूत्र २ ५. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ९, सूत्र ४.९, १८ 2010_03 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कममुक्ति कामागसंवर निर्जरा १६७ संवर 10 व्रत गुप्ति मन तृषा १ अहिंसा २सत्य ३अस्तेय ४ ब्रह्मचर्य ५अपरिग्रह काय समिति धर्म अनुप्रेक्षा परिषहजय चारित्र (३) (५) (१०) (१२) (२२) (५) =६२ ईर्या क्षमा अनित्य क्षुधा सामायिक वचन भाषा मार्दव अशरण छेदोपस्थापना ऐषणा आर्जव संसार शीत् परिहारविशुद्धि आदान निक्षेपण सत्य एकत्व उष्ण सूक्ष्मसांपराय उत्सर्ग शौच अन्यत्व दंशमशक यथाख्यात संयम अशुचि नग्नत्व आश्रव अरति त्याग संवर अकिंचन्य निर्जरा चर्या ब्रह्मचर्य लोक निषधा शय्या धर्मस्वाख्यातत्व आक्रोश तप वध याचना अलाम रोग तृणस्पर्श मल सत्कार पुरस्कार प्रज्ञा अज्ञान अदर्शन १. व्रत "हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्” अर्थात् हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रहसे निवृत्त होना व्रत है । इनसे एक देश रूपसे निवृत्त होना अणुव्रत कहलाता है और सर्वदेश निवृत्ति को महाव्रत कहते हैं । प्राणियों की हिंसा न करना अहिंसावत है, झूठ न बोलना सत्यव्रत है, बिना दिये दूसरेकी वस्तु ग्रहण न करना अस्तेयव्रत है, मैथुन प्रवृत्तिका त्याग करना, ब्रह्मचर्य है और पदार्थों को आसक्ति पूर्वक ग्रहण न करना अपरिग्रहव्रत है।' १. तत्त्वार्थस्त्र. अध्याय ७. सत्र १. २. ८-१२ 2010_03 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन २. गुप्ति उमास्वामीने गुप्तिकी परिभाषा देते हुए सूत्र में कहा है- “सम्यग्योगनिग्रहो गुप्ति । अर्थात् योगोंका भली भाँति निग्रह करना गुप्ति है । योगोंसे अभिप्राय है - मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति । मन, वचन और कांयकी प्रवृत्तिको बुद्धि और श्रद्धा पूर्वक सन्मार्गमें गुप्त करना और उन्मार्गसे रोकना ही यहाँ गुप्ति शब्दका भावार्थ है। पूज्यपादजीने इस सूत्रकी टीका करते हुए इसी अभिप्रायको व्यक्त किया है- “यत: संसार कारणादात्मनो गोपनं सागुप्ति:"२ अर्थात जिसके बल से संसारके कारणोंसे आत्माका गोपन अर्थात् रक्षा होती है, वह गुप्ति है। यह गुप्ति तीन प्रकार की होती है - मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति । __ राग-द्वेष आदि विकारोंसे मनका गोपन करना मनोगुप्ति है, असत्य भाषणादिसे निवृत्ति होना अर्थात् मौन होना वचन गुप्ति है, औदारिक शरीरकी क्रियाओंसे और हिंसा चोरी आदि पाप क्रियाओंसे निवृत्ति होना कायगुप्ति है। ३. समिति राजवार्तिककारने समितिका लक्षण करते हुए कहा है - "सम्यगिति: समितिरिति” अर्थात् सम्यग् प्रकारसे प्रवृत्ति करनेका नामही समिति है। गुप्तिमें असत् क्रियाक निषेधकी और समितिमें सक्रियाके प्रवर्तनकी मुख्यता है, इसीलिए समिति प्रवृत्ति प्रधान होती है। समिति पांच प्रकारकी होती है - ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान निक्षेपण और प्रतिष्ठापण समिति । इन पांचों समितियों को कर्मविनाशका कारण कहा गया है। किसी भी जन्तुको क्लेश अथवा बाधा न हो, इस प्रकार सावधानी पूर्वक चार हाथ आगे पृथ्वीको देख कर चलना ईर्या समिति है। सत्य, हितकारी, परिमित और सन्देह रहित वचन बोलना 'भाषा समिति' है, शुद्ध और निर्दोष आहार करना 'एषणा समिति' है', वस्तु मात्रको भली भाँति देखकर लेना और रखना 'आदान निक्षेपण' समिति है और देखभाल करके जीव रहित स्थान में ही मलमूत्रादिका त्याग करना — उत्सर्ग समिति' है । राजवार्तिककार ने भी इन पाँचों समितियों का इसी प्रकार लक्षण १. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९, सूत्र ४ २. सर्वार्थसिद्धि, पृ०४०९ ३. नियमसार, गाथा ६९-७० ४. राजवार्तिक, पृष्ठ ५९३ ५. (क.) चारित्र पाहुड, गाथा ३७, (ख.) ईर्याभाषैणादाननिक्षेपोत्सर्गा: समितयः, तत्त्वार्थसूत्र अध्याय, ६. मूलाचार, गाथा ११-१५ 2010_03 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ १६९ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा स्वीकार किया है और इन्हें साधना पथका मूल माना है। ४. धर्म रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें धर्मका लक्षण करते हुए कहा गया है - देशयामि समीचीनं धर्म कर्म निर्वहणम् । संसार दु:खत: सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥२ समीचीन रूपसे कर्मों का नाश करके, जो प्राणियोंको संसार के दु:खोंसे हटाकर, उत्तम मोक्षसुखमें स्थापित करता है, वही धर्म कहा जाता है। पूज्यपादजीने भी कहा है – “इष्टस्थाने धत्ते इति धर्म:” जो इष्टस्थान अर्थात् मोक्षमें पहुंचाता है, उसे धर्म कहते हैं । कुन्दकुन्दाचार्यने भावपाहुड़में कहा है - ___मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ।” मोह अर्थात् रागद्वेषादि, क्षोभ अर्थात् योगोंका चांचल्य इनसे रहित आत्माके परिणामको ही धर्म कहते हैं । यह धर्म कमों के प्रवाहको रोकने में साक्षात् कारण होता है। इस धर्मको दसलक्षणोंसे युक्त माना गया है। धर्मके ये दश लक्षण उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य हैं। ख्याति, लाभ, पूजादिके अभिप्राय से धारण किया गया क्षमादि धर्म उत्तम नहीं कहा जाता । इसी कारण ख्याति, पूजादिकी भावनाकी निवृत्तिके लिए ही उत्तम विशेषण लगाया गया है। क्रोधको उत्पन्न कराने वाले बाह्य निमित्त मिलने पर भी क्रोध न करना उत्तमक्षमा है, उस समय जीव यह सोचता है कि बाह्य कारण तो निमित्त मात्र हैं, वास्तवमें यह सब मेरे अपने ही पूर्वकृत कर्मों का परिणाम है। चित्तमें मृदुता और व्यवहारमें भी नम्रवृत्तिका होना मार्दव है । उत्तम मार्दव धर्मको धारण करने वाला जीव जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य, बुद्धि, प्रज्ञा, लाभ, शक्ति आदिको विनश्वर मानकर अभिमानके काँटेको निकाल देता है । मन, वचन और कर्मकी एकता ही उत्तम आर्जव है, इससे कुटिलता तथा मायाचारीके दोषों का निवारण होता है । १. राजवार्तिक, पृ० ५९४ २. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, गाथा २ ३. सर्वार्थसिद्धि, पृ०४०९ ४. भावपाहुड, गाथा ८३ ५. दशलक्ष्मयुतंसोऽयं जिनधर्म; प्रकीर्तितः, ज्ञानार्णव, अधिकार २, श्लोक १० ६. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९, सूत्र ६ ७. चारित्रसार, पृ०५८ ___ 2010_03 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन हितकारी और यथार्थ वचन बोलना ही सत्य धर्म है । लोभ का त्याग करना ही उत्तम शौच है । इन्द्रियोंपर नियंत्रण रखना संयम है। मलिन वृत्तियों को निर्मूल करने के लिए यथाशक्ति कठोर साधना करना तप है । अपने पास होने वाले ज्ञानादिको प्राणिमात्र के हितके लिए प्रदान करना त्याग धर्म है, किसी भी वस्तुमें ममत्व बुद्धि न रखना आकिंचन्य धर्म है । ज्ञानादिके अभ्यासके लिए इन्द्रिय विषयोंका त्याग करके, ब्रह्मचर्य व्रत पूर्वक गुरूकुलमें निवास करना ब्रह्मचर्यधर्म है। धर्मके इन दस लक्षणोंका वर्णन पूज्यपादजी और कुन्दकुन्दाचार्यने सर्वार्थसिद्धि और बारस अणुवेक्खामें किया है।'.. उक्त दस धर्मों का विवेचन गीतामें निर्दिष्ट दैवी सम्पदासे साम्यता रखता है, क्योंकि गीतामें दैवी सम्पदाके अन्तर्गत मार्दव, आर्जव, क्षमा, शौच, दया, दान, संयम आदि विविध गुणोंका वर्णन किया गया है। ५. अनुप्रेक्षा श्री जिनेन्द्र वर्णीने कोशमें अनुप्रेक्षाका परिचय देते हुए कहा है कि किसी बात का पुन: पुन: चिन्तन करते रहना अनुप्रेक्षा है। मोक्ष मार्गकी वृद्धिके अर्थ बारह प्रकारकी अनुप्रेक्षाओंका कथन जैनागममें प्रसिद्ध है, इन्हें बारह भावनायें भी कहते हैं । इन भावनाओंका चिन्तन करने से शरीर और भोगोंसे विरक्ति और साम्य भावमें स्थिति होती है । उमास्वामीने इन बारह अनुप्रेक्षाओंको सूत्रमें कहा है जो इस प्रकार हैं - “अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्याश्रवसंवरनिर्जरालोक बोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा:।" अनित्य, अशरणादि बारह भावनाओंका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है -- १. अनित्यानुप्रेक्षा- क्षीर-नीरके समान जीवके साथ निबद्ध यह शरीर और भोगोपभोगके साधन, नित्य और स्थिर नहीं हैं, सभी नाशको प्राप्त होने वाले हैं, ऐसा चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है। इस प्रकारके चिन्तनसे प्राप्त शरीर और भोगों में, आसक्ति कम हो जाती है और उनका वियोग होनेपर दु:ख नहीं होता। . १. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४१२-४१३, बारस अणुवेक्खा , गाथा ७१.८० २. भगवद्गीता, अध्याय १६, श्लोक १,२,३ ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग प्रथम, पृ०७२ ४. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९, सूत्र ७ ५. बारस अणुवेक्खा, गाथा ६ 2010_03 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा १७१ २. अशरणानुप्रेक्षा- संसारमें अपनी आत्माके अतिरिक्त, अन्य कोई भी शरण शाश्वत नहीं है। कर्मों को नष्ट करके जन्म, मृत्यु, भय, रोगादिसे यह आत्मा अपनी रक्षा स्वंय ही कर सकता है। इस प्रकार का चिन्तन करनेसे संसारकी सब वस्तुओं और संबंधियोंसे ममत्व दूर हो जाता है और आत्मामें प्रीति उत्पन्न होती है। ३. संसारानुप्रेक्षा- यह जीव जन्म, जरा, मरण, रोग और भय, इन पांच प्रकारके संसारमें अनादि कालसे भ्रमण कर रहा है । यह पंचविध संसार हर्षविषाद, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंका स्थान है, ऐसा चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है ४. एकत्वानुप्रेक्षा- यह जीव अकेला हीशुभाशुभ कर्मों को बान्धताहै, अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही मरता है और अपने कर्मों का फल भी जीव एकाकी ही भोगता है। इस प्रकारका चिन्तन करनेसे स्वजन विषयक राग और परजन विषयक द्वेष दूर हो जाता है। ५. अन्यत्वानुप्रेक्षा- शरीर जड़, स्थूल और आदि अन्त युक्त है और आत्मा चेतन, सूक्ष्म और अनादि अनन्त है । बन्धकी अपेक्षासे दोनों एक प्रतीत होते हैं, परन्तु लक्षण भेदसे दोनों नितान्त पृथक् हैं । इस प्रकार शरीरसे अन्यत्वका चिन्तन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है।' ६. अशुचित्वानुप्रेक्षा- यह देह स्वयं अशुचि है और अशुचि पदार्थोसे ही इसका निर्माण हुआ है । स्नान, लेपन व सुगन्धित पदार्थों के द्वारा भी इसकी अशुचिताको दूर करना शक्य नहीं है, ऐसा चिन्तन करना अशचित्वानप्रेक्षा है। ऐसा चिन्तन करनेसे शरीरके श्रृंगार विषयक आसक्ति कम हो जाती है और शरीरसे ममत्व कम हो जाता है। ७. आसवानुप्रेक्षा- इन्द्रियभोगोंसे कर्मों का आसव होता रहता है । यह आसव ही संसार चक्रका कारण है, जब तक कर्मों का प्रवाह आसवित होता रहेगा, तब तक मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । आसवानुप्रेक्षाका महत्त्व बताते हुए १. बारस अणुवेक्खा , गाथा ११ २. वही, गाथा २४ ३. वही, गाथा १४ ४. सर्वार्थसिद्धि, पृ०४१५ ५. वही, पृ०४१६ ६. बारस अणुवेक्खा, गाथा ५९ 2010_03 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन “सम्यग्ज्ञान पत्रिकामें कहा गया है कि मिथ्यात्वादि कारणोंसे नित्य कर्मों का आगमन होता रहता है ऐसा विचार कर व्यक्ति कमों के आनेके कारण को दूर करने और सम्यक्त्व आदिको ग्रहण करनेका प्रयास कर सकता है।' ८. संवरानुप्रेक्षा- मन, वचन, काय से दुर्वृत्तिके द्वारोंको बन्द करके शुभ प्रवृत्ति करना और संवरके गुणोंका चिन्तन करना संवरानुप्रेक्षा है। कर्मागम द्वार के बन्द होनेपर ही कर्ममुक्ति संभव है। ९. निर्जरानुप्रेक्षा- पूर्वबद्ध कर्मों का झड़ना अर्थात् क्षय होना निर्जरा है । कर्मबन्धनको नष्ट करनेके लिए सविपाक और अविपाक निर्जराका चिन्तन करना निर्जरानुप्रेक्षा है। इसमें सहसा प्राप्त हुए कदुक विपार्कोका समाधान करना सविपाक निर्जरा है । तपध्यान द्वारा संचित कर्मों को नष्ट करनेका चिन्तन अविपाक निर्जरा है। १०. लोकानुप्रेक्षा- यह जीव अशुभ विचारोंसे नरक और तिर्यच गति, शुभ विचारोंसे देव और मनुष्य गति प्राप्त करता है । शुभ और अशुभ दोनों ही भावनायें चतुर्गतिमें भ्रमण कराने वाली हैं, केवल आत्म चिन्तन विषयक शुद्ध भावना ही पंचमगति मोक्षको देने वाली है, ऐसा जैनाचार्योंने माना है। लोक शिखर पर अर्घ चन्द्राकार स्थानको जैनोंने पंचमगति माना है, जहाँसे पुनरागमन नहीं होता। इस प्रकार तीनों लोकोंका चिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है।' ११. बोधिदुर्लमत्वानुप्रेक्षा- मोक्षमार्गमें अप्रमत्तभाव पूर्वक साधना करने के लिए यह चिन्तन किया जाता है कि समस्त कर्मों का नाश करने वाला बोध अर्थात सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। निरन्तर उसकी प्राप्तिका उपाय करते रहना चाहिए। इस प्रकारका चिन्तन करना बोधि दुर्लभत्वानुप्रेक्षा है। १२. धर्मस्वाख्यातत्त्वानुप्रेक्षा- क्षमादि धर्मकी प्राप्ति न होनेसे जीव अनादि कालसे भ्रमण कर रहा है। परन्तु इसका लाभ होनेपर नाना प्रकारके अभ्युदयोंकी प्राप्तिपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति अवश्य होती है, ऐसा चिन्तन करना धर्मस्वाख्यातत्त्वानुप्रेक्षा है। १. सम्यग्ज्ञान, जनवरी १९८५, पृ० ११. २. बारस अणुवेक्खा , गाथा ६३ ३. वही, गाथा ६७ ४. वही,गाथा ४२ ५. बारस अणुवेक्खा , गाथा ८३ । ६. सर्वार्थसिद्धि. प०४१९ 2010_03 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा अनुप्रेक्षाओंका महत्त्व मोक्षमार्ग में द्वादश अनुप्रेक्षाओंका अत्यधिक महत्त्व माना गया है । शुभचन्द्राचार्यने ज्ञानार्णवमें इस महत्त्वका प्रतिपादन करते हुए कहा है“विध्यांति कषायाग्निर्विगलति रागो विलीयते ध्वान्तम् । उन्मिषति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यासात् ” ” अर्थात् इन द्वादश भावनाओंके निरन्तर अभ्याससे, पुरूषोंके हृदयमें उत्पन्न होने वाली कषायरूपी अग्नि नष्ट हो जाती है, रागभाव गलित हो जाता है, अज्ञानरूपी अन्धकार विलीन हो जाता है और ज्ञानका दीपक प्रकाशित हो जाता है । अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन करता हुआ जीव उत्तमक्षमादि धर्म को भली प्रकारसे धारण करनेमें समर्थ होता है और आगे कहे जाने वाले परीषों को जीतने के लिए उत्साहित होता है । बारस अणुवेक्खा में कुन्दकुन्दाचार्यने कहा है बारह भावनाओंके चिन्तनके फलस्वरूपही भूतकालमें पुरूषोंने सिद्धत्वको प्राप्त किया है और भविष्य कालमें भी प्राप्त करेंगे। आचार्य पद्मनन्दिने इन भावनाओंको कर्मक्षयका कारण बताते हुए कहा है द्वादशापि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभिः । तद्भावना भवत्येव, कर्मणः क्षय कारणम् ॥ इस प्रकार बारह अनुप्रेक्षाओंका निरन्तर गहन चिन्तन कर्मों के क्षयका कारण होता है, क्योंकि इससे कर्म प्रवाहमें वृद्धि करने वाली वृत्तियाँ रुक जाती हैं । इसीलिए इन्हें संवरका उपाय कहा गया है । परीषह जय ६. (क) लक्षण अंगीकृत धर्ममार्ग में स्थिर रहने के लिए और कर्मबन्धनके विनाशके लिए जो स्थितियाँ समभाव पूर्वक सहन करने योग्य हों, उनको परीषह कहते हैं । उमास्वामीने सूत्रमें परीषहकी यही परिभाषाकी है १७३ १. ज्ञानार्णव, अधिकार १३, दोहा २ २. बारस अणुवेक्खा, गाथा ९० ३. पद्मनन्दिपंचविंशतिका, अधकिार ६, श्लोक ४२ ४. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९, सूत्र ८ - " मार्गाच्यवन निर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहा: "४ राजवार्तिककार अकलंक भट्टने परीषहका व्युत्पत्तिपरक अर्थ करते हुए कहा है - " परिषद्यत इति 2010_03 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन परीषह" जो सहनकी जायें वे परीषह हैं और परीषहको जीतना परीषह जय कहलाता है। ख. भेद यद्यपि परीषहों की संख्या कम और अधिक भी कल्पितकी जा सकती है, तथापि आचार्यों ने बाईस परीषोंकी ही गणना की है। वे ये हैं - क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, संत्कार - पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन ।३ इन बाईस परीषहोंका अर्थ इनके नामसे ही स्पष्ट है । इनको समभावपूर्वक सहन करते हुए, योगीजन अपने मार्गसे विचलित नहीं होते। इन बाईस परीषहोंमें शीत और उष्ण परीषह परस्पर विरोधी हैं। शीतके होनेपर उष्ण और उष्णके होने पर शीत संभव नहीं है। इसी प्रकार चर्या अर्थात् चलना, शय्या अर्थात् सोना, निषद्या अर्थात् बैठना ये भी परस्पर विरोधी हैं । इन तीनोंमें से एक समयमें एक ही संभव है । इस प्रकार उक्त पांचों परीषहोंमें से एक समय में दो ही संभव हैं । इसी कारण एक जीवके एक साथ अधिक से अधिक उन्नीस परीषह संभव माने गये हैं। ग. परीषहोंके कारण भूतकर्म अष्टविध कर्मों में कुल चार कर्म ही उपरोक्त बाईस परीषहों के कारण माने गये हैं । ज्ञानावरणीय कर्मके उदयसे प्रज्ञा और अज्ञान ये दो परीषह होते हैं। प्रज्ञा कितनी ही अधिक क्यों न हो परन्तु सर्वज्ञताकी अपेक्षा अल्प ही होती है, यह ज्ञानावरणीय कर्मके कारण होती है। अन्तरायकर्मके फलस्वरूप “अलाभ परीषह" होती है, मोहनीय कर्ममें से दर्शन मोहके कारण “अदर्शन" परीषह होते हैं और चारित्र मोहनीय कर्मके फलस्वरूप नग्नत्व, अरति, स्त्री, निषधा, आक्रोश, याचना और सत्कार सात परीषह होते हैं । इस प्रकार आठ परीषह मोहनीय जन्य, एक अन्तराय जन्य और दो परीषह ज्ञानावरणीय जन्य, कुल ग्यारह परीषह १. राजवार्तिक, पृ० ५९२ २. सर्वार्थसिद्धि, पृ०४०९ ३. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९, सूत्र ९ ४. एकादयो भाज्यायुगपदेकस्मिन्नेकोनविंशतिः, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ९, सूत्र १७ ५. "ज्ञानावरणे प्रज्ञाऽज्ञाने" तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९, सूत्र १३ ६. “दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभी” वही, सूत्र १४ ७. “चारित्र मोहेनाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्कारा:" तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ९, सूत्र १५ 2010_03 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा हो जाते हैं। शेष ग्यारह - "ढाधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल" ये वेदनीय कर्म के कारण उत्पन्न होते हैं।' घ. गुणस्थानों परीषह व्यवस्था- गुणस्थान, मोक्ष मार्गके सोपान हैं जिनका वर्णन अग्रिम अध्यायमें किया जाना है। येसंख्यामें चौदह होते हैं प्रथम नौगुणस्थानोंमें बाईस परीषह संभव होते हैं, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानमें चौदह परीषह संभव हैं। मोहनीय कर्मजन्य आठपरीषहोंका इनमें अभाव होता है। ज्ञानावरणीय और अन्तराय जन्य प्रज्ञा, अज्ञान और अलाभ इन तीन परीषहोंकाभीतेरहवेंगुणस्थानमें अभावहोजाता है। इस प्रकार कुलग्यारह परीषह तेरहवें गुणस्थानमें संभव माने जाते हैं। चारित्रसारमें अदर्शन और अरति परीषहका नवें गुणस्थानमें अभाव माना है। ७. चारित्र भगवती आराधनामें चारित्रका लक्षण करते हुए कहा गया है “चरति याति येन हितप्राप्ति अहित निवारणं चेति चारित्रम्” “चर्यते सेव्यते सज्जनैरिति वा चारित्रं सामायिकादिकम् अर्थात् जिससे हितकोप्राप्त करते हैं और अहित का निवारण करते हैं, उसे चारित्र कहते हैं। पं० सुखलालने चारित्रका लक्षण करते हुए कहा है कि आत्मिक शुद्ध दशा में स्थिर रहनेका प्रयत्न करना चारित्र है। परिणाम विशुद्धिके तरतमभावकी अपेक्षा चारित्र पांच प्रकारका कहा गया है--सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म साम्पराय और यथाख्यात। समभाव में स्थित रहनेके लिए समस्त अशुद्ध प्रवृत्तियोंका त्याग करना सामायिक चारित्र है। यह चारित्रसमस्तपापोंसे निवृत्तिरूप और दुरवगम्यहै। सामायिक चारित्रको ग्रहणकरनेपर जीव उसमें स्थिर नहीं रह पाता और पुन: सावद्य प्रवृत्तियोंमें आ जाता है। इस प्रकारकी अस्थिरता आने पर प्रायश्चित करके पुन: स्थिरताको प्राप्त करना छेदोपस्थापना चारित्र है। प्राणि-हिंसासे निवृत्तिको परिहार कहते १. वेदनीये शेषाः, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय९, सूत्र १६ २. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ९, सूत्र १०-१२ ३. चारित्र सार, पृ०१३२ ४. भगवती आराधना, विनिश्चय टीका, पृ०४१ ५. तत्त्वार्थ सूत्र विवेचन, पृ०२१७ ६. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ८, सूत्र १८ ७. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ४७० ८. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ४७१ ___ 2010_03 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन हैं, उससे जो विशिष्ट विशुद्धि प्राप्त होती है उसे परिहारविशुद्धि कहते हैं। परिहा विशुद्धि चारित्रको धारण करने वाला जीव पापसमूहसे वैसे ही लिप्त नहीं होते जिस प्रकार कमलका पत्ता पानीमें रहते हुए भी पानीसे लिप्त नहीं होता।' जिर चारित्रमें समस्त कषाय नष्ट हो चुके हैं, परन्तु लोभका अति सूक्ष्म रूप शेष रहतं है, उसे सूक्ष्मसाम्पराय कहते हैं और समस्त कषायों अथवा मोहनीय कर्मवे क्षयसे आत्मस्वभावके अनुरूप लक्षण वाला यथाख्यातचारित्र कहलाता है। क. चारित्रका महत्त्व चारित्रके अन्तर्गत पूर्व कथित गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परिषहजय ये पांचों संवरके उपाय गर्भित हो जाते हैं, इसीलिए महापुराणमें चारित्रर्क भावनाओंका निर्देश करते हुए कहा गया है - ईर्यादिविषया यत्ना मनोवाक्कायगुप्तयः । परीषह सहिष्णुत्वम् इति चारित्र भावना ।' आत्मस्वभावमें प्रवृत्ति करना ही चारित्र कहलाता है। स्वभाव रूप प्रवृत्तिके कारण चारित्रको ही धर्म कहा गया है । कुन्दकुन्दाचार्यने प्रवचनसारमें यही कहा है - "चारित्तं खलु धम्मो" अर्थात् चारित्र ही धर्म है, यह मोक्ष प्राप्तिका साक्षात कारण है । चारित्र रहित ज्ञानको निरर्थक कहा जाता है। चारित्रसे सम्पन्न अल्प ज्ञानी भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है । परन्तु चारित्रसे रहित अधिक शास्त्रोंको जानने वाला भी मुक्ति लाभ नहीं कर सकता। नेत्रके होते हुए भी यदि कोई कुंएमें गिरता है तो उसके नेत्र व्यर्थ हैं, उसी प्रकार प्रवृत्ति रहित ज्ञान व्यर्थ माना जाता है । भगवती आराधनामें भी कहा गया है – “ज्ञानं प्रवृत्तिहीनं असत्समम्" चारित्रके महत्त्वका प्रतिपादन करते हुए प्रवचनसारमें कहा गया है कि श्रद्धान और ज्ञानसे युक्त जीव यदि चारित्र के बलसे रागादि असंयमसे निवृत नहीं होता तो उसका श्रद्धान और ज्ञान मोक्षके लिए कार्यकारी नहीं हो सकता। इस प्रकार चारित्र का मोक्षमार्गमें अत्यन्त महत्त्व है, श्रद्धा और ज्ञानकी सभी प्रवृत्तियाँ चारित्रके होनेपर ही सार्थक होती हैं। १. गोम्मटसार जीक्काण्ड, गाथा ४७३ २. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ४७४,५७५ ३. महापुराण, सर्ग, २१, श्लोक ९८ ४. प्रवचनसार, गाथा ७ ५. णाणं चरित्तहीणं-णिरत्थयं सव्वं, कुन्दकुन्दाचार्य, शीलपाहुड, गाथा ५ ६. भगवती आराधना, विनिश्चय टीका, गाथा १२, पृ०५६ ७. प्रवचनसार, तात्पर्यवृत्ति, गाथा २३७ 2010_03 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा ४. पूर्वबद्ध कर्मोकी निवृत्तिका मार्ग निर्जरा(क) निर्जराका लक्षण निर्जरा जैन दर्शनका एक पारिभाषिक शब्द है, जिसका प्रयोग कर्मों के जीर्ण होने के अर्थ में किया जाता है। भगवती आराधनामें निर्जराका लक्षण करते हुए कहा गया है- “पुव्वकदकम्मसडणं तु णिज्जरा” अर्थात् पूर्वबद्ध कर्मों का झड़ना निर्जरा है। बारस अणुवेक्खामें कहा है – “बंधपदेशग्गलणं णिज्जरणम्"२ आत्म प्रदेशोंके साथ बँधे हुए कर्म प्रदेशोंका आत्मप्रदेशोंसे गलना अर्थात् पृथक् होना निर्जरा है। जिस प्रकार मन्त्र, औषधि आदिसे नि:शक्त किया हुआ विष दोष उत्पन्न नहीं कर सकता, उसी प्रकार तपादिसे नि:शक्त किये गये कर्म संसार चक्रको नहीं चला सकते, इस प्रकार तपोविशेषसे कौकी फलदान शक्तिको जीर्ण कर देना ही निर्जरा है। ख. निर्जरा के भेद निर्जरा दो प्रकारकी होती है - भाव निर्जरा और द्रव्य निर्जरा। दास गुप्तके अनुसार भाव निर्जरासे तात्पर्य है, इस प्रकारका वैचारिक परिवर्तन, जिससे कर्म प्रदेशोंका नाश हो सके और द्रव्य निर्जरा से तात्पर्य है, कर्मों की विनाश प्रक्रिया जो फलभोगके द्वारा अथवा समयसे पूर्व तपादिके द्वाराकी जाती है।' - इस प्रकार द्रव्य निर्जरा दो प्रकारकी हो जाती है - सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा।' क्रमसे परिपाक कालको प्राप्त होकर और अपना शुभ अथवा अशुभ फल देकर जो कर्मों की निवृत्ति होती है, उसे सविपाक निर्जरा कहते हैं। यह निर्जरा केवल फलोन्मुख हुए कर्मों की ही होती है। चतुर्गतिके सभी जीवोंको सविपाक निर्जराही होती है। इसके विपरीत अविपाक निर्जरा, परिपाक कालसे पहले ही, तपादि विशेष साधनों के द्वाराकी जाती है । यह निर्जरा पक्व, अपक्व १. भगवती आराधना, गाथा १८४७ २. बारस अणुवेक्खा ,गाथा ६६ ३. राजवार्तिक, पृ० २७ ४. (क.) दासगुप्त, भारतीय दर्शनका इतिहास, पृ० २०४; (ख.) पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति, गाथा १४४ ५. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३९९ ६. वही, पृ० ३९९ ७: भगवती आराधना, गाथा १८४९ ८. बारस अणुवेक्खा , गाथा ६७ 2010_03 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन सभी कर्मों की होती है और विशेष पुरूषार्थ करने वाले जीवोंको ही होती है।' अविपाक निर्जराका मोक्ष मार्गमें विशेष महत्त्व है । अविपाक निर्जरामें कर्मों के फलित होनेसे पहले ही तपस्या द्वारा फलीभूत करके उनको क्षीण कर दिया जाता है। जैसे आम आदिको पकनेसे पहले ही पाल आदि में रख उसे पका लिया जाता है उसी प्रकार विशेष तपस्या द्वारा फलीभूत होनेसे पहले ही कर्मोको फलोन्मुख कर लिया जाता है। सिद्धान्तकी भाषा में इस प्रकार कहा गया है - तपादि औपक्रमिक क्रिया विशेषकी सामर्थ्य से उदयावलीमें प्रविष्ट हो करके जो कर्म अनुभव किया जाता है, वह अविपाकज निर्जराका द्योतक है ।२ । जैनदर्शनका अविपाकज निर्जराका सिद्धान्त वेदान्तके उस सिद्धान्तसे साम्यता रखता है जिसके अनुसार ज्ञानप्राप्तिसे संचित कर्मों को प्रभावहीन बनाया जाता है, जैसा कि शंकराचार्यने तत्त्वबोधमें कहा है - “संचितं कर्म ब्रह्मैवाहमितिनिश्चयात्मकम् ज्ञानेन नश्यति" मोक्षपुरूषार्थीको प्रारब्धकर्मके प्रति अनासक्त रहना चाहिए, क्योंकि प्रारब्ध कर्म अनासक्त भावसे भोगकर ही समाप्त किये जा सकते हैं और संचित कर्म तपस्याके द्वारा क्षय किये जा सकते हैं । तपके बिना केवल संवरसे ही मोक्ष नहीं होता। जैसे संचित धन उपभोगमें लाये बिना समाप्त नहीं होता, वैसे ही संचित कर्म तपस्या के बिना समयसे पूर्व नष्ट नहींहोते, इसीलिए कर्म निर्जराके लिए तप आवश्यक है ।' यह निर्जरा संवर पूर्वक ही होती है क्योंकि जैसे तालाब में जलप्रवाह यदि आता ही रहे तो पूर्व संचित जलका निकलना व्यर्थ हो जाता है, इसी प्रकार नवीन कर्मों का आगमन यदि होता ही रहे तो निर्जरा व्यर्थ हो जाती है। कर्मों के आगमनको रोककर ही यथार्थ निर्जरा होती है।' ___इस प्रकार उत्तराध्ययन सूत्रमें भी कहा है बडे तालाबके पानीके आने के मार्गको रोक देने के समान संयत जीवकोकर्मों का आश्रव नहीं होता और तत्पश्चात् करोड़ों जन्मोंके संचित कर्मको तपस्या के द्वारा निर्जीर्ण किया जा सकता है। १. बारस अणुवेक्खा, गाथा ६७ २. सर्वार्थसिद्धि, पृ०३९९ ३. तत्त्वबोध, सूत्र ४४ ४. भगवती आराधना, गाथा १८४६-१८४७ भगवतीआराधना, गाथा १८४५ जहां महातलायस्स सन्निरूद्धे जलागमे । उस्सिंचणाएं तवणाएं कमेण सोसण भवे ॥ एवं तु संजयस्सा वि पाव कम्म निरासवे। भय कोडिसंचियं कामं तवसा निज्जरिज्जइ॥ उतराध्ययन सूत्र ३३,५-६ 2010_03 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा १७९ कर्मों की विपुल निर्जरा आत्मशुद्धिके लिए किये गये तपसे ही संभवहै, पूजा, प्रतिष्ठा तथा कीर्तिकी भावनासे किये गये तपसे आत्मशुद्धि नहीं होती।' आत्मशुद्धिके अभावमें कर्मों की निर्जरा भी नहीं होती। अधिकांश तथा संपूर्ण निर्जरा मनुष्य गतिमें ही संभव हैं क्योंकि अन्य गतियों का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव मुक्तिके योग्य नहीं होता। ग. निर्जरामें तपकी प्रधानता पूज्यपादजीने तपका लक्षण करते हुए कहा है – “कर्मक्षयार्थ तप्यते इति तप:३ अर्थात् कर्मक्षयके लिए पुरूषार्थ करनाही तप है । इसीको राजवार्तिककार अकलंक भट्टनेइस प्रकार कहा है – “कर्मदहनात्तप:" कर्मको दहन अर्थात् भस्म कर देनेके कारण ही इसको तप कहा जाता है । आचार्य पद्मनन्दिने इसी भावको प्रगट करते हुए कहा है – “कर्ममलविलयहेतोर्बोध दृशा तप्यते तप: सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रको धारण करने वाले साधु द्वारा कर्मरूपी मैलको दूर करने के लिए जो तपस्याकी जाती है, वही वास्तवमें तप कहलाता है। चारित्रके लिए जो उद्योग और उपयोग किया जाता है उसको भी तप कहते हैं, 'वह तप साक्षात् इच्छा निरोध रूप ही होता है। " तपसे संवरऔर निर्जरा दोनों ही होते हैं। घ. तपके भेद तपके दो भेद कहे गये हैं १. बाह्य तप २. आभ्यन्तर तप। बाह्यपदार्थों के अवलम्बनसे और अन्यको दृष्टिगोचर होने वाला तप “बाह्यतप” कहलाता है। यह बाह्यतप छहप्रकारका कहा गया है, जैसा कि उमास्वामीने तत्त्वार्थसूत्रमें निर्दिष्ट किया है - ... "अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्त शय्यासनकायक्लेशा: बाह्यतप: १. उमराव कुंवर, गणधरगौतम: तपसाधना जयगुंजार, निर्वाण अंक, १९८५ पृ०७ २. जैन मित्र, संपादकीय वक्तव्य, तीन अप्रैल, १९८६ गांधी चौक, सूरत ३. सर्वार्थसिद्धि,पृ० ४१२ ४. राजवार्तिक, पृ० ६१९ ५. पद्मनन्दि पंचविंशतिका, अधिकार १, श्लोक ९८ ६. भगवती आराधना, गाथा १० ७. इच्छानिरोधस्तपोविदु: मोक्षपंचाशिका, श्लोक ४८ ८. सर्वार्थसिद्धि, प०४३९ ९. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ९ सूत्र १९ 2010_03 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन आहारका त्याग करना अनशन है, भूखसे कम भोजन करना अवमौदर्य है, वस्तुओं को सीमित करना वृत्ति परिसंख्यान है, जिह्वा की लालसा का पोषण करने वाले घी, दूध आदि रसोंका त्याग करना रसपरित्याग है, एकान्त स्थानमें रहना विविक्तशय्यासन तप है, सर्दी-गर्मी और विविध आसनों के द्वारा शरीरको कष्ट देना काय क्लेश तप है ।" १८० बाह्य द्रव्यों की अपेक्षासे रहित अन्यके द्वारा दिखाई न देने वाला, मानसिक क्रिया प्रधान तप, ' आभ्यन्तर तप' कहलाता है । ' आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का होता है, जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा गया है – “प्रायश्चित विनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्" धारण किए हुए व्रतमें प्रमादजनित दोषका शोधन करना प्रायश्चित है, ज्ञान तथा ज्ञानके धारण करनेवालों में आदरभाव रखना विनय है, योग्य साधनों के द्वारा सेवा सुश्रुषा करना वैयावृत्ति है, ज्ञान प्राप्तिके लिए विविध प्रकारका अध्ययन करना स्वाध्याय है, अहंकार और ममत्वका त्याग करना व्युत्सर्ग है। और चित्तके विक्षेपोंका त्याग करना ध्यान है ।" गीतामें शारीरिक, वाचसिक और मानसिक इन तीन प्रकारके तपका उल्लेख प्राप्त होता है ।" ये तीनों तप जैन मान्य आभ्यन्तर तपसे समानता रखते हैं । इस प्रकार बाह्य तथा आभ्यन्तर विविध प्रकारके तपसे कर्मों की निर्जरा करके मोक्षकी प्राप्तिकी जाती है राजवार्तिकमें कहा गया है कि जो जीव मन, वचन और काय गुप्तिसे युक्त होकर अनेक प्रकारसे तप करता है वह मनुष्य विपुल कर्म निर्जरा करता है । पूज्यपादजीने समाधिशतकमें कहा है आत्मदेहान्तर ज्ञानजनिताहलादनिर्वृतः तपसा दुष्कृतं घोरं भुंजानोऽपि न खिद्यते ॥ ७ १. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४३८ २. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४३९ ३. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ९, सूत्र २० ४. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४३९ ५. भगवद्गीता, अध्याय १७, श्लोक १४-१६ ६. राजवार्तिक, पृ० ५८४ ७. समाधिशतक, श्लोक ३४ 2010_03 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा १८१ आत्मा और शरीरके भेद विज्ञानसे उत्पन्न हुए आनन्दसे जो आनन्दित है वह द्वादशविध तपके द्वारा उदयमें लाये गये भयानक दुष्कर्मों के फलको भोगता हुआ भी खेदको प्राप्त नहीं होता । इस प्रकार जैन दर्शनमें पुरुषार्थपूर्वक कर्मों की हानि करनेके लिए संवर और निर्जराके पथको अपनाया गया है । संवर और निर्जराके पथपर चलते हुए जीव, अपने को कर्मबन्धनोंसे उन्मुक्त कर सकता है । कर्मोंन्मूलनका यह पथ पुरुषार्थकी अपेक्षा रखता है, जैसे जैसे पुरूषार्थ में वृद्धि होती जाती है, कर्मों का भार जीवपर से हल्का होता जाता है । इस पुरूषार्थ के विकासक्रममें सबसे पहले जीवको पंचलब्धियों की प्राप्ति होती है जिससे आत्मा बहिरात्म भावको छोड़कर अन्तरात्मा के भावकी ओर अभिमुख हो जाता है अतः आगे पंचलब्धियों का विवरण आवश्यक है । ५. पंच लब्धि कर्ममुक्तिके पुरूषार्थ स्वरूप जीवको विविध शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं, जिसके फलस्वरूप जीव, मुक्तिके सोपानोंपर अग्रसर हो जाता है इन्हें जैन सिद्धान्तमें लब्धि कहा जाता है । जीवके कर्मोंन्मूलनके क्रममें पंच लब्धियका महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्री जिनेन्द्र वर्णी के शब्दों में- “ज्ञानकी शक्ति विशेषको लब्धि कहते हैं ।” सम्यक् श्रद्धाकी प्राप्तिमें पांच लब्धियोंका होना आवश्यक है ? और सम्यक् श्रद्धाके बिना कर्मोंन्मूलन संभव नहीं है, पुरुषार्थकी अभिव्यक्तिका यह क्रमिक विकास पांच भागों में विभक्त है । उन पाँचोंके नाम हैं- क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करण लब्धि, २ इन पांचों लब्धियोंके द्वारा जीव सत्पुरुषार्थ जागृत हो जाता है और मोक्ष प्राप्तिकी विशिष्टपात्रता उपलब्ध हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप जीव कर्मोदयकी अटूट श्रृंखलाको छिन्नभिन्न कर उत्तरोत्तर उन्नत हुई दृष्टिके द्वारा मुक्ति पथकी ओर अग्रसर होजाता है । पद्मनन्दी पंचविशतिकामें यही अभिप्राय दर्शाते हुए कहा गया है लब्धिपंचक सामग्री विशेषात्पात्रतां गतः । भव्य सम्यग्दृगादीनां यः सः मुक्तिपथे स्थितः । १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ० ४२४ २. खयउवसमियविसोही देसणपाउग्गकरणलद्धी य चत्तारि वि सामण्णा करणं सम्मत्तचारित्ते । नेमिचन्द्राचार्य, लब्धिसार, गाथा ३ ३. पद्मनन्दि पंचविशतिका, अधिकार ४, श्लोक १२ 2010_03 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन उपरोक्त पंचलब्धियोंमें प्रथम चार लब्धियाँ सामान्य हैं | ये भव्य और अभव्य दोनों जीवोंको प्राप्त होती हैं, परन्तु करण लब्धि केवल भव्य जीवोंको अर्थात् जिनकी श्रद्धा सम्यक् हो जाती है उनको ही प्राप्त होती है। दयानन्द भार्गवने भी कहा है कि चारों लब्धियोंकी सार्थकता पंचम् लब्धिकी प्राप्तिसे ही होती है । २ श्रीजिनेन्द्रवर्णीके शब्दोंमें ये वस्तुत: मुमुक्षुके पांच आद्य सोपान हैं जिनके द्वारा उत्तरोत्तर उन्नत होती हुई दृष्टि तत्त्वलोकमें प्रवेशपानेको समर्थ हो जाती है। २ अब क्रमश: पंचलब्धियोंका संक्षिप्त परिचय प्राप्त करना अनिवार्य है। १. क्षयोपशम लब्धि __ पंचलब्धियों में प्रथम लब्धि क्षयोपशम लब्धि है । क्षयका अर्थ है - कर्मों का नष्ट होना और उपशमका अर्थ है - कर्मों का विलोप होना । इस प्रकार पूर्व संचितकमों की शक्तिके अत्यन्त हीन होकर फलोन्मुख होनेको “क्षयोपशम लब्धि” कहते हैं। ऐसी अवस्थामें जीव को हिताहितका विवेक प्राप्त हो जाता है और वह पठन पाठन, मनन चिन्तन आदि में इस शक्तिका उपयोग करता है। यह लब्धि बुद्धि पूर्वक किये गये प्रयत्नसे प्राप्त नहीं होती अपितु स्वत: पुण्यके फलस्वरूप प्राप्त हो जाया करती है। डॉ० नथमल टॉटियाने भी कर्मोन्मूलनके क्रममें इस लब्धिके महत्त्वका कथन किया है। २. विशुद्धि लब्धि प्रथम क्षयोपशम लब्धिके परिणामस्वरूप जीवके पूर्व संचित् कर्मों की शक्ति इतनी घट जाती है कि जीवके परिणाम विशुद्ध होते जाते हैं। इस विशद्धिके कारण जीवको साता अर्थात् सुख पहुंचाने वाले कर्मों का उदय हो जाता है और असाता अर्थात् सुखके विरोधी कर्मों की हानि हो जाती है। श्री जिनेन्द्रवर्णीने विशुद्धिको प्राप्त जीवकी विशेषता पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि विशुद्धि लब्धिको प्राप्त जीव स्वदु:ख सहिष्णु और परदु:ख कातर बन १. षदखण्डागम, धवला टीका, पुस्तक ६, खण्ड १, सूत्र १, पृ० २०५ २. भार्गव दयानन्द, जैन -एथिक्स, पृ० २०८ ३. कर्मरहस्य,पृ० १९२ ४. कम्ममलपडलसत्ती पड़िसमयमणंतगुणविहीणकमा। होदूणुदीरदि जदा, तदाखओवसमलद्धी दु । लब्धिसार, गाथा ४ जैन एथिक्स, पृ० २०८ ६. टॉटिया नथमल, स्टनडीज इन जैनिज़म,पृ० २७० अशभ कर्मानभागस्यानंतगणहानौ सत्यां तत्कार्यस्य संक्लेश परिणामस्य हार्नियथा भवति"- लब्धिसार टीका. गाथा ५ - 2010_03 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा १८३ 1 जाता है । वह स्वदोषोंका दर्शक और पर गुणका ग्राहक हो जाता है । उसमें नि:स्वार्थ सेवा तथा मैत्री, प्रमोद, कारुण्य आदि गुणोंकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है ।' विशुद्धि लब्धिको प्राप्त जीवके उक्त गुणोंकी तुलना गीताकी दैवी सम्पदासे की जा सकती है, क्योंकि दैवी सम्पदा प्राप्त पुरूषमें भी उपरोक्त लक्षणों का वर्णन किया गया है। मूलाचारमें निर्दिष्ट उपगूहन (स्वदोषों का और पर गुणों का दर्शन, परदोषोंका और स्वगुणों का गूहन ) और वात्सल्य आदि गुणों से भी विशुद्धिलब्धि प्राप्त जीवके गुणोंकी साम्यता दृष्टिगोचर होती है । इस प्रकार विशुद्धिलब्धिको प्राप्त जीव, अपने दैवी गुणों द्वारा अशुभ कर्मों का उन्मूलन कर देता है और शुभ कर्मों के द्वारा सुखका उपभोग करता है । ३. देशना लब्धि द्वितीय विशुद्धिलब्धिके परिणाम स्वरूप जीवका अभिमान मन्द हो जाता है और मृदुताकी अधिकता हो जाती है । अन्त: करणके शुद्ध हो जाने पर जीवको ऐसे गुरूकी प्राप्ति हो जाती है जो उसे षट्द्रव्यों (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल) और नव पदार्थों (जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप) का उपदेश देता है । इस प्रकार उपदेश देने वाले गुरूकी प्राप्ति और उपदिष्ट अर्थके ग्रहण, धारण और विचारण शक्तिके समागम को देशना लब्धि कहते हैं । उपदिष्ट अर्थको ग्रहण करनेपर ही देशना लब्धि संभव है, अन्यथा नहीं । इसका प्रतिपादन करते हुए भगवती आराधना में कहा गया है कि शब्दको सुनकर उसके अर्थको समझ लेना, परन्तु श्रद्धा सहित चिन्तन मनन पूर्वक ग्रहण न करना देशना नहीं कहलाता, क्योंकि चिन्तन-मननके बिना सुना हुआ भी निरर्थक हो जाता है श्रद्धान सहचारि-बोधाभावाच्छुतमप्यश्रुतमिति”५ पुरुषार्थसिद्धयुपायमें भी कहा गया है कि जो केवल शब्द मात्रके व्यवहार को साध्य मानता है, वह देशना नहीं है। १. कर्मरहस्य, पृ० १९४ २. श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १६, श्लोक १-३ ३. मूलाचार, गाथा २० ४. (क.) छद्दव्वणवपयत्थोपदेसयरसू रिपहुदिलाहो जो । देसिदपदत्य धारणलाहो वा तदियलद्धी दु ॥ लब्धिसार, गाथा ६ (ख.) षटखण्डागम, धवला टीका, पुस्तक ६, खण्ड १, पृ० २०४ ५. भगवती आराधना, विनिश्चय टीका, गाथा १०५, पृ० २५० ६. पुरूषार्थसिद्धि उपाय, श्लोक ६ 2010_03 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन . श्री जिनेन्द्र वर्णी ने देशनालब्धिका वर्णन करते हुए कहा है कि विनय, प्रेम, भक्ति, निरभिमानता आदि गुणों के प्राप्त होने पर ही शरणापन्न शिष्यको देशनालब्धिकी प्राप्ति होती है। गीताके चतुर्थ अध्यायमें भी ऐसा कहा गया है कि ज्ञानीजन, अभिमान रहित सेवाभावी और शरणापन्न शिष्यको ही तत्त्वज्ञानका उपदेश देते हैं। ४. प्रायोग्य लब्धि देशनाको प्राप्त जीवका आत्मोत्कर्ष इतना बढ़ जाता है कि प्रायोग्य लब्धि में आयु कर्मको छोड़कर शेष समस्त कर्मों की स्थिति अन्त:कोटाकोटि वर्ष रह जाती है यह लब्धि भव्य और अभव्य दोनों को सामान्यरूपसे प्राप्त होती है।' कोटा कोटि जैन दर्शनकी एक पारिभाषिक संख्या है, जो एक करोडको एक करोड़से गुणा करने पर प्राप्त होती है। इस प्रमाणसे कम समयको अन्त:कोटोकोटि कहा जाता है। इस प्रकार प्रायोग्य लब्धिको प्राप्त जीवमें कर्मों की स्थितिको घटाने की शक्ति प्राप्त हो जाती है । जैनदर्शनमें प्रायोग्य लब्धिका इतना ही कथन है कि कर्मों की स्थिति बहुत अधिक घट जाती है । करण लब्धिसे पूर्व ही कमों का इतना नाश होना इस बात का सूचक है कि देशनाको प्राप्त जीवका आत्मविश्वास दृढ हो जाता है और गुरूकी प्राप्ति हो जानेसे जीवका चित्त शान्त हो जाता है । श्री जिनेन्द्र वर्गीके शब्दोंमें करणानुयोगकी भाषा में जिसे कर्मों की स्थितिका अपकर्ष कहा जाता है उसे ही अध्यात्म भाषा में आत्मोत्कर्ष कह सकते हैं।' ५. करण लब्धि पूर्व निर्दिष्ट चारों लब्धियोंकी सार्थकता करण लब्धि के प्राप्त होने पर ही है और यह लब्धि भव्य जीवोंको ही प्राप्त होती है । गोम्मटसार जीवकाण्डमें कहा है – “करणलब्धिस्तु भव्य एव स्यात् ६ जैन दर्शनमें "भव्य" का अर्थ सम्यक श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) प्रगट होने की योग्यता रखने वाला जीवहै । भव्य जीवोंमें १. कर्म सिद्धान्त, पृ० १४३ २. श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४, श्लोक ३४ ३. अंतोकोड़ाकोड़ी विट्ठाणे ठिदिरसाण जं करणं। पाउग्ग लद्धिणामा भव्वाभव्वेसु सामण्णा || लब्धिसार गाथा ७ ४. पूर्वनिर्दिष्ट अध्याय ५, स्थितिबन्ध ५.. कर्म रहस्य, पृ० १९८ ६. गोम्टसार जीवकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा ६५१ ७. सर्वार्थसिद्धि, पृ० १६१ 2010_03 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा १८५ संसारसे मुक्त होनेकी अथवा कर्मसन्ततिका विनाश करनेकी योग्यता होती है । ऐसी योग्यतासे रहित जीवोंको अभव्य कहा जाता है। पूर्वोक्त चार लब्धियाँ भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीव प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु करण लब्धिकी प्राप्ति केवल भव्य जीवोंको ही होती है । इस लब्धिको प्राप्त जीवोंकी श्रद्धा पूर्णतया सम्यक् हो जाती है और कर्म विनाश करने अथवा आत्मोन्नति करने के लिए जीवका आभ्यन्तर पुरूषार्थ प्रारम्भ हो जाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशके अनुसार करण लब्धि तथा अन्तरंग पुरूषार्थमें केवल भाषाका ही भेद है । श्री जिनेन्द्र वर्णीने कहा है कि करणलब्धिको प्राप्त जीव अपने चित्तकी वृत्तियोंको बाहरसे भीतरकी ओर उसी प्रकार समेट लेता है, जिस प्रकार कछुआ अपने सब अंगोंको बाहरसे अन्दरकी ओर समेट लेता है। करण लब्धिको प्राप्त जीवकी तुलना गीताके स्थिर बुद्धिवाले पुरूषसे की जासकती है, जो अपनी इन्द्रियोंको विषयों से कछुएकी तरह समेट लेता है।' त्रिकरण करण तीन होते हैं-अध:करण या यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ।गोम्मटसारमें कहागयाहै-“करणानित्रीण्यध:प्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिकरणानि"" - कर्मबन्ध अधिकारमें मोहनीय कर्मके दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं १. दर्शनमोह २. चारित्र मोह । दर्शन मोहके कारण जीवकी श्रद्धा विपरीत हो जाती है। विपरीतश्रद्धाको सम्यक बनाने के लिए अथवा दर्शन मोहके आवरणको नष्ट करने के लिए अथवा मानसिक ग्रन्थियोंका भेदन करनेके लिए जीवको त्रिकरणकी प्रक्रियामेंसे निकलना पड़ता है । डॉ० सागरमलने तीनों करणोंका विवेचन करते हुए कहा है कि मोहने आत्माको बन्दी बना रखा है। उस बन्दीगृहके तीन द्वार हैं। आत्माको मुक्त कराने के लिए तीनों द्वारोंके प्रहरियोंपर विजय लाभ करना आवश्यक है। इन पर विजय लाभ करने की प्रक्रियाको ग्रन्थिभेद कहते हैं । यह प्रक्रिया ही अध:करणादि त्रिकरणके द्वारा निर्दिष्ट की गई है। १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ० २२२ २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ०४२७ ३. कर्म रहस्य, पृ० १९९ ४. श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ५८ ५. गोम्मटसार कर्मकांड, गाथा ८९७, पृ० १०७६ ६. पंचम अध्याय • बन्धके कारण तथा भेद प्रभेद ७. वैशाली इन्स्टीच्यूट, रिसर्च बुलेटिन नं. ३, हिन्दी भाग, पृ०८०, सन् १९८२ 2010_03 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन श्रावक प्रज्ञप्तिमें कहा गया है कि जिस समय कर्मबद्धता ढीली हो जाती है, उस समय आत्मामें ग्रन्थि भेदनकी शक्ति आ जाती है - तीइ वि यथोवमित्ते खविए इत्थतरम्भि जीवस्स । हवइ हु अभिन्नपुव्वो गंठी एवं जिणा बिन्ति ॥' एक बार ग्रन्थि भेदन हो जानेपर जीव मुक्तिकी ओर अवश्य अग्रसर हो जाता है। आगे तीनों करणोंका पृथक्-पृथक् विवेचन इष्ट है - अध:प्रवृत्तकरण पं० सुखलाल के शब्दोंमें . अत्यल्प आत्मशद्धिको जैनशास्त्रमें यथा प्रवृत्ति करण कहते हैं। अनेक प्रकार से शारीरिक और मानसिक दु:खोंकी संवेदनाओंको सहन करते हुए और संसार चक्रमें भ्रमण करते हुए जीवको पूर्वोक्त चार लब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । चतुर्थ लब्धिके परिणाम स्वरूप कर्मका आवरण बहुत अधिक शिथिल हो जाता है, जिसके फलस्वरूप ही आत्मामें स्व नियन्त्रणकी शक्ति आ जाती है और वह तीव्रतम (अनन्तानुबन्धी) क्रोध, मान माया और लोभपर नियंत्रण करने लगता है। यहींसे कर्म विजयकी यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। डॉ० सागरमलके शब्दों में इस अवस्थामें चेतन आत्मा और जड कर्म संघर्षके लिए एक दूसरे के समक्ष आ जाते हैं । इस प्रकार इस करणमें आत्मा वासनाओंकी शक्तिके समक्ष संघर्ष के लिए खडे होनेका साहस करता है। इस अवस्थामें कभी कभी मोहवश अर्जुन की युद्धपूर्व वृत्तिके समान पलायन वृत्ति भी आ जाती है, परन्तु देशनालब्धि द्वारा प्राप्त गुरूपदेश, उसे इस पलायनवृत्तिसे रोक लेता है। अध:प्रवत्तकरणका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है । “अन्त्तोमुहुत्तोमेत्तो तक्कालो होदि तत्थ परिणामा:” | ख. अपूर्वकरण___ अपूर्वकरणकी परिभाषा करते हुए वीरसेन स्वामीने कहा है- “करणा: परिणामा: १. श्रावक प्रज्ञप्ति, गाथा ३२, बम्बई, विक्रम सम्वत् १९६१, उद्धृत जैन एथिक्स पृ० २०९ २. श्रावक प्रज्ञप्ति गाथा ३३ ३. वैशाली इंस्टीच्यूट रिसर्च बुलेटिन नं० ३, हिन्दी भाग पृ०८१ ४. . स्टडीज़ इन जैनिज़म फिलॉसफी, पृ० २७१ ५. डॉ० सागरमल, रिसर्च बुलेटिन नं०३,पृ० ८२ ६. गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २ 2010_03 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा १८७ न पूर्वा: अपूर्वा:" अर्थात् इस अवस्था में जीव ऐसे शुद्ध परिणामोंको प्राप्त करता है, जो इससे पूर्व कभी प्राप्त नहीं हुए थे, इसी कारण इस अवस्थाको अपूर्वकरण अन्वर्थक संज्ञा प्राप्त है। डॉ० सागरमलके कथनानुसार इस अवस्था में आत्मा दृढसंकल्प पूर्वक संघर्षके लिए तत्पर हो जाता है और राग और द्वेष रूपी कर्म शत्रुओंको परास्त कर देता है । राग-द्वेष आदि प्रधान कर्म शत्रुओंके परास्त हो जाने से आत्मा जिस आनन्दका लाभ करता है, वह सभी पूर्व अनुभूतियोंसे विशिष्ट प्रकारका होता है । इसीलिए यह प्रक्रिया अपूर्वकरण कहीजाती है। . अपूर्वकरणकी अवस्थामें आत्मा कर्म शत्रुओंपर विजय लाभ करते हुए जिन प्रक्रियाओंको करता है, उन्हें अपूर्वकरणके चार आवश्यक कहा जाता है। इनके नाम हैं - १. गुणश्रेणी २. गुण संक्रमण ३. स्थिति खण्डन और ४. अनुभाग खण्डन। गुणश्रेणी ऐसी अवस्था को कहा जाता है, जब जीव कर्मों के विपाक कालके पूर्व ही उन्हें फलोन्मुख कर लेता है। अर्थात् जीवके शुद्धभावों के परिणाम स्वरूप कर्मों की सत्ता छिन्न भिन्न होने लगती है और वे समयसे पूर्व ही फल देकर पृथक हो जाते हैं। गुण संक्रमण ऐसी अवस्थाको कहा जाता है जिसमें कर्मों का अवान्तर प्रकृतियों में रूपान्तर होजाता है - जैसे वेदनीय कर्मकी असाता प्रकृतिका उसी कर्मकी सातामें रूपान्तर हो जाना।' इसीप्रकार कर्मबन्ध अधिकारमें निर्दिष्ट अष्टकर्मों का उत्तरप्रकृतियों के गुणों में परिवर्तन हो जाता है और यह परिवर्तन अशुभको शुभ रूपमें रूपान्तरित कर देता है । स्थितिखण्डन अपूर्वकरणमें एक ऐसी अवस्था आती है जिसमें कर्मों की सत्तागत स्थिति (काल) खण्डित हो जाती है। इसका अभिप्राय: यह है कि यदि किसी कर्मकी स्थिति अधिक हो तो विशुद्ध परिणामोंके फलस्वरूप उसकी स्थिति कम हो जाती है इसीको स्थिति घात या स्थिति खण्डन कहा जाता है। १. धवला, पुस्तक १, खण्ड १, सूत्र १६, पृ० १८० २. वैशाली इंस्टीच्यूट, रिसर्च बुलेटिन नं० ३, हिन्दी विभाग, पृ० ८२ ३. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग दो, पृ० १२ ४. लब्धिसार, गाथा ५३, पृ० ८४ धवला पुस्तक ६, खण्ड १; सूत्र ५, पृ० २२४ ५. क्षपणसार,गाथा ५८३. ६. क्षपणसार, गाथा ४१८ 2010_03 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन अनुभागखण्डन वह अवस्था है, जिसमें कर्मों की तीव्रता अर्थात् प्रगाढतामें कमी आ जाती है अर्थात् कर्मों की शक्ति मन्द हो जाती है, जिससे जीवका आवरण झीना पड़ जाता है, यह मन्दता अशुभ कर्म में ही आती है, शुभ प्रकृतियों का अनुभाग घात नहीं होता । लब्धिसार में कहा है - "सुहपयड़ीणं णियमा णत्थित्ति रसस्सखंडाणि”? १८८ अपूर्वकरणकी प्रक्रियामें डॉ० सागरमलने पंच " अपूर्व बन्ध” का भी कथन किया है, जिसका अर्थ है कि क्रियमाण क्रियाओंसे होने वाले बन्धका अल्पकालिक और अल्पतर मात्रामें ही बन्ध होना । इसीको लब्धिसारमें बन्धापसरण कहा गया है ।' स्थिति खण्डन और बन्धापसरण दोनोंका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है, लब्धिसारकी टीकामें कहा है। “एकैकस्थितिखण्डनिपतनकाल:, एकैकस्थितिबन्धापसरण कालश्च समानावन्तर्मुहूर्तमात्रो"" इससे तात्पर्य यह है कि सत्तागत स्थितिका खण्डन और वर्तमान क्रियाओंसे होनेवाले बन्धका अल्पकालिक (बन्धापसरण) होना दोनों एक ही समयमें घटित होते हैं । बन्धापसरणकी तुलना गीताके निष्काम कर्म योगसे की जा सकती है। अतः बन्धअपसरण उसी अवस्थामें होता है जबकि जीवके अन्तःकरणसे राग द्वेष आदि कर्मशत्रुओं का अभाव हो जाता है । राग-द्वेष के नष्ट होनेपर क्रियमाण अर्थात् वर्तमान क्रियाओंके प्रति अनासक्ति हो जाती है और आसक्तिके अभावमें वह आगामी कर्मबन्ध करनेमें कार्यकारी नहीं होते अथवा कम शक्ति और स्थितिको लेकर कर्मबन्ध करते हैं । गीतामें राग और द्वेषको कल्याणमार्ग में विघ्न उत्पन्न करने वाला शत्रु कहा गया है । इनको वशमें करने पर ही निष्काम कर्म किया जा सकता है, " जो बन्धका कारण नहीं होता । ग. अनिवृत्तिकरण अनिवृत्तिका अर्थ करते हुए वीरसेन स्वामीने कहा है, “निवृत्तिर्व्यावृत्तिः, न विद्यते निवृत्तिर्येषां तेऽनिवृत्तयः " । " निवृत्ति शब्दका अर्थ व्यावृत्ति है, व्यावृत्ति का तात्पर्य है न छूटना । कभी व्यावृत्त न होने वाले परिणामोंको ही अनिवृत्ति कहते १. लब्धिसार, गाथा ८०, ८१ २. सागरमल, वैशाली इंस्टीच्यूट, रिसर्च बुलेटिन नं० ३ पृ० ८३ ३. लब्धिसार, गाथा ५४ लब्धिसार, गाथा ७९ ४. ५. गीता, अध्याय ३, श्लोक ३४ ६. षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, खण्ड १, सूत्र १७, पृ० १८३ 2010_03 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा १८९ हैं और इस प्रकारके परिणामोंको विकसित करने वाली प्रक्रिया अनिवृत्तिकरण कहलाती है। __ इस अवस्थामें सबसे अधिक. शक्तिशाली (अनन्तानुबन्धी) कषायोंका समूल नाश हो जाता है और दर्शनमोह कर्मपर भी पूर्णतया विजय प्राप्त हो जाती है । दर्शनमोह कर्मको विजय करने के लिए, इस अवस्थामें एक विशेष प्रकारकी प्रक्रिया होती है, जिसे अन्तरकरण कहते हैं अन्तरकरणमें कर्मों की अटूट पंक्ति टूटकर दो भागों में विभाजित हो जाती है - एक पूर्व स्थितिमें और दूसरी उपरितन स्थिति में । दोनोंके बीचमें अन्तर अर्थात् रिक्तता आ जाती है। दर्शनमोहके नष्ट होनेसे मिथ्यात्व नामक प्रकृति तीन भागोंमें विभाजित हो जाती है, जिन्हें क्रमश: सम्यक्त्व मोह, मिथ्यात्व मोह और मिश्रमोह कहा जाता है। डॉ० सागरमलने इन तीनों प्रकृतियोंका दृष्टान्त देते हुए कहा है कि- सम्यक्त्व मोह श्वेत काँचका आवरण है, मिश्रमोह हल्के रंगीन कांचका आवरण है और मिथ्यात्वमोह गहरे रंगीन काँचका आवरण है। पहले में सत्यका स्वरूप वास्तविक दिखाई देता है, दूसरे में कुछ विकृत रूपमें और तीसरेमें उससे भी अधिक विकृत दिखाई देता है। यह मध्यान्तर एक अन्तर्मुहूर्त समय तक रहता है । इसके पश्चात् यथार्थ दृष्टिकोणको प्राप्त करकेजीव विकासके अग्रिम सोपानोंपर चढ जाता है । अनिवृत्तिकरणका काल भी एक अन्तर्मुहूर्त मात्र माना गया है ।' ग्रन्यिभेदका विविध ग्रन्थि भेदकी यह प्रक्रिया दो बार होती है पहली बार प्रथम गुणस्थानके अन्तिम चरणमें और दूसरी बार सातवें, आठवें और नवें गुण स्थान में । इसका कारण यह है कि मोहनीय कर्मकी दो शक्तियाँ होती हैं - दर्शनमोह और चारित्र मोह। प्रथम गुणस्थानके अन्त में जीव दर्शनमोहकी शक्तिपर विजय प्राप्तकरता है और दर्शनविशुद्धिको प्राप्त होता है अर्थात् जीवकी श्रद्धा मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वमें परिणत हो जाती है । परन्तु जैन दर्शनके अनुसार साधनाकी पूर्णता दर्शन - १. जैन एथिक्स, पृ०२१० २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ४६७ ३. पूर्व निर्दिष्ट कर्मबन्ध अधिकार ४. वैशाली इंस्टीच्यूट, रिसर्च बुलेटिन नं. ३, पृ० ८३ ५. षटखण्डागम, धवला टीका, पुस्तक ६, खण्ड १, सूत्र ४, पृ० २२१ ६. पूर्वनिर्दिष्ट, कर्मबन्धके भेद , मोहनीयकर्म ७. पूर्वनिर्दिष्ट, करणलब्धि 2010_03 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन विशुद्धि न होकर चारित्र विशुद्धि है दर्शन विशुद्धि प्राप्त हो जानेपर आगे विकास करते हुए चारित्र विशुद्धि अनिवार्य रूपसे होती है । सप्तम्, अष्टम् और नवम् गुणस्थानमें ग्रन्थि भेदकी यह प्रक्रिया चारित्र विशुद्धिके लिए होती है , जो चारित्र मोहनीय कर्मको नष्ट करती है।' निष्कर्ष __ कर्म मुक्तिके मार्गसे यह स्पष्ट होता है कि कोंने अनादिकालसे जीवको बन्धनमें भले ही जकड़ा हुआ है, परन्तु फिर भी उसमें इतना अनन्त बलहै कि यदि दृढ व्यवसाय पूर्वक कर्मों से मुक्त होना चाहे तो विविध प्रकारके पुरूषार्थों के द्वारा मुक्त हो सकता है। कर्म मुक्तिके प्रथम चरणमें नवीन कर्मों के आगमनको रोकना आवश्यक होता है, क्योंकि यदि संचित कर्म नष्ट कर दिये जायें और नवीन कर्म आते जायें तो कर्मोंसे मुक्त होना संभव नहीं हो सकता । इसी कारण व्रत, समिति, गुप्ति,परीषहजय, चारित्र आदिकी विविध क्रियाओं के द्वारा नवीन कर्मों के आगमनको रोका जा सकता है और आभ्यन्तर विविध तपस्याओंके द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों को निर्जीर्ण किया जा सकता है। प्रारम्भिक पुरूषार्थ ही इतना बलशाली होता है कि कर्मों की स्थितिका अत्यधिक अपकर्षण हो जाता है और पांच लब्धियोंमें अन्तिम करण लब्धिको प्राप्त कर व्यक्तिकी मिथ्याधारणायें भी सम्यक्त्वमे परिणत हो जाती हैं । कर्म मुक्तिके इस क्रमिक विकासको जैन दर्शन में कर्म मुक्तिके विविध सोपानोंके द्वारा दर्शाया गया है, जिसे जैन दर्शन में गुणस्थान कहते हैं। १. पश्चनिर्दिष्ट, गुणस्थान व्यवस्था। 2010_03 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय कर्ममुक्ति के विविधसोपान-गुणस्थानव्यवस्था मिच्छो सासण मिस्सो अविरदसम्मो य देस विरदोय। विरदा पमत्त इदरो अपुव्व अणियदि सुहमो य॥ उवसंत खीणमोहो सजोगकेवलि जिणो अजोगी य। चउदस जीवसमासा कमेण सिद्धा य णादव्वा ॥ गो०जी०, गाथा ९, १० बन्धहेत्वभाव निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः, तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय १०, सूत्र २ सामान्य अवलोकन प्राचीन जैनागम ग्रन्थों में आत्मा के विकासकी यात्राको गुणस्थानों के द्वारा अति सुन्दरतापूर्वक समुचित ढंगसे विवेचित किया गया है। गुणस्थान सिद्धान्त न केवल साधककी विकास यात्राकी विभिन्न मनोभूमियों का चित्रण करता है-अपितु आत्माकी विकास यात्राके पूर्वकी भूमिकासे लेकर गन्तव्य आदर्श तक समुचित व्याख्या भी प्रस्तुत करता है । गुणका अर्थ है-विकास और स्थानका अर्थ है-सोपान । इस प्रकार गुणस्थान विकासके सोपान होते हैं। आत्मा के स्वाभाविक गुणोंकी वृद्धि और आत्मा से संयुक्त कर्मपुद्गलोंकी हानि का दिग्दर्शन कराते हैं और पूर्ण अज्ञान तथा मिथ्या धारणाकी अवस्था से लेकर आत्मा की पूर्ण पवित्रता तथा अन्तिम मुक्ति तक का निर्देशन करते हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशके अनुसार मोह और मन, वचन-कायकी प्रवृत्तिके कारण जीवके अन्तरंग परिणामोंमें प्रतिक्षण होने वाले उतार चढ़ावोंका दिग्दर्शन कराने वाले गुणस्थान हैं। गुणस्थानों के द्वारा पूर्व निर्दिष्ट कर्म बन्धके कारणोंका कमिक अभाव भी स्पष्ट दर्शाया गया है। ज्यों ज्यों गुणस्थानों में आरोहण होता जाता है. कर्म बन्ध के पूर्व-पूर्व कारणोंका विनाश होता जाता है । सबसे पहले बन्धका प्रथम मूल कारण मिथ्यात्व दूर होता है, इसके पश्चात क्रमश: अविरति, प्रमाद और कषाय दूर होते हैं । अन्तिम गुणस्थानमें बन्धका अन्तिम कारण योग भी दूर हो जाता है। - 1. Fourteen steps which, by a gradual increase of good qualities and decrease of Karma, lead from total ignorance and wrong belief to absolute purity of the soul and final liberation. James Hastings, Encyclopidio of Religion and Ethics 1964, Vol. VII P. 472, २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग II, पृ०२४५ ___ 2010_03 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन बन्धके कारणों के दूर होनेपर जीव कर्म बन्धसे मुक्त हो जाता है। जैन दर्शनके अनुसार आत्माके गुणोंको आवृत करने वाले कर्मों में मोह ही प्रधान है। इस आवरणके हटते ही शेष आवरण सरलतासे हटाये जा सकते हैं। डॉ० सागर मल ने गुणस्थान सिद्धान्तकी विवेचना प्रधानतया मोह शक्तिकी तीव्रता, मन्दता तथा अभावके आधार पर ही की है। साधनाके लक्ष्यका बोधन होने देने वाली शक्ति को जैन दर्शनमें “दर्शन मोह" कहा जाता है, बोध होते हुए भी, जिस शक्तिके द्वारा स्वरूपाचरण नहीं हो पाता उसे चारित्र मोह कहते हैं। इनमें दर्शन मोह प्रबलतर है, क्योंकि बोधको प्राप्त आत्मा चारित्र मोह पर विजय पा ही लेता है। ___ जीवके आरोहण अवरोहण क्रममें अनन्त सोपान सम्भव हैं । उत्कृष्ट परिणामों से लेकर जघन्य परिणामों तक अनन्त हानि-वृद्धिके क्रमको कथनकी कोटिमें लानेके लिए उन्हें चौदह श्रेणियों में विभाजित किया गया है। यह चौदह गुणस्थान इस प्रकार हैं१. मिथ्यादष्टि २. सासादन- सम्यग्दृष्टि ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि ४. असंयत सम्यग्दृष्टि ५. संयतासंयत ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. अपूर्वकरण ९. अनिवृत्तिकरण १०. सूक्ष्मसाम्पराय ११. उपशान्तमोह १२. क्षीणमोह १३. सयोग केवली १४. अयोगकेवली ।। यहाँ सम्यग्दृष्टिके लिए जो असंयत विशेषण दिया गया है वह अन्त: दीपक है, इसीलिए वह अपनेसे नीचे के समस्त गुणस्थानोंके असंयतत्व को व्यक्त करता है। इससे ऊपर वाले गुणस्थानोंमें सर्वत्र संयम है। सम्यग्दृष्टि पद नदीके प्रवाहके समान ऊपरके समस्त गुणस्थानों में अनुवृत्तिको प्राप्त करता है अर्थात् आगेके समस्त गुणस्थानोंमें सम्यग्दर्शन पाया जाता है । प्रमत्त शब्द अन्त: दीपक है । इसलिए यह शब्द षष्टम् गुणस्थान से पूर्वके सम्पूर्ण गुणस्थानोंमें प्रमादके अस्तित्वको सूचित करता है। अर्थात षष्ट गुणस्थान तक सब प्रमत्त हैं और इससे ऊपर अप्रमत्त हैं । ग्यारहवें गुणस्थानमें आया हुआ छद्मस्थ पद अन्त:दीपक है, इस कारण यह अपनेसे पूर्ववर्ती समस्त गुणस्थानोंके १. . सागरमल, गुणस्थान सिद्धान्त -एक तुलनात्मक अध्ययन, पृ०७९ वैशाली इन्स्टीच्यूट रिसर्च, बुलेटिन नं०३, १९८२ २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-दो, पृ० २४५ ३. षट्खण्डागम १, भाग १, सूत्र ९.२२ ४. षट्खण्डागम, धवला, १, भाग १, पृ० १७३ ___ 2010_03 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था . १९३ छद्मस्थ अर्थात् आवरणपनेका सूचक है । सयोगकेवली गुणस्थानमें सयोग पद अन्त: दीपक है । यह नीचेके सम्पूर्ण गुणस्थानोंके सयोगपनेका प्रतिपादक है।' __संवरके स्वरूपका विशेष परिज्ञान करने के लिए चौदह गुणस्थानोंका विवेचन आवश्यक है। इनमेंसे प्रथम चार गुणस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि में औदयिक पारिणामिक क्षायोपशमिक और औपशमिक आदि भाव पाये जाते हैं । ये चारों दर्शनमोहकी अपेक्षा प्रधान हैं । प्रथम चार गुणस्थानों में चारित्र नहीं है। इससे आगे के देशसंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त संयतमें क्षायोपशमिक भाव है । यहाँ उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम की अपेक्षा चारित्रमोह की प्रधानता से कथन किया गया है। इससे ऊपरके अपूर्वकरणादि गुणस्थान भी चारित्र मोहकी अपेक्षा ही कहे गये हैं। इनमें उपशम तथा क्षपक दो श्रेणियाँ होती हैं। गुणस्थानके विषयमें वीरचन्द गांधीने एक विशेष दृष्टिकोण प्रदान करते हुए कहा है कि जैन दर्शन में गुणस्थानों का विवेचन न्याय के अनुसार किया गया है, कालकी दृष्टि से नहीं, क्योंकि प्रात: के समय कोई जीव निम्न सोपानपर हो सकता है, और वही जीव दोपहर बाद उच्चतर सोपानोंपर भी जा सकता है, इसी प्रकार प्रात: उच्च सोपानवर्ती जीव दोपहर बाद निम्न सोपानपर भी आ सकता है। जीव जिस किसी सोपान पर भी आरोहण या अवरोहण करे उस सोपानके निश्चित कर्म उसमें अवश्य ही पाये जायेगें। गुणस्थान व्यवस्था के अनुसार जीवको प्रथमसे तृतीय गुणस्थान तक बहिरात्मा, चतुर्थसे बारहवें गुणस्थान तक अन्तरात्मा और अन्तिम दो गुणस्थानमें परमात्मा कहा जाता है। त्रिविध आत्मा-- आगम में आत्माके तीन रूपों को स्वीकार किया गया है- बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। उपनिषदमें आत्मा के तीन रूपों का कथन करते हुए कहा गया है. “त्रिविध: पुरुषोऽजायतात्माऽन्तरात्मा परमात्माचेति ।” शरीरको १. षट्खण्डागम, धवला टीका १, भाग १, पृष्ठ १७६, १९०, १९१ चारित्तंणत्थि जदोअविरद अंतेसु ठाणेसु, गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा १२ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा १३-१४ 14 Stages are in their logical order and not in chronological order. In the morning you may be in a low stage and afternoon in a higher one or vice versa. The Karma Philosophy, P.60 वृहदद्रव्यसंग्रह, गाथा १४ (६) आत्मोपनिषद् १,१ 2010_03 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन ही आत्मा मानना और शरीरके जन्म-मरण को ही आत्माका जन्म-मरण मानने वाले अज्ञानी पुरुष बहिरात्मा होते हैं । इच्छा, द्वेष, सुख, दु:ख, काम, मोह, आदिको ही आत्म रूपमें न मानने वाला आत्मा अन्तरात्मा होता है और सर्वगुणोंसे रहित, शुद्ध, सूक्ष्म, निरंजन, शब्द, रूप, रस रहित, निराकार आत्माको परमात्मा कहा गया है।' जैन दर्शनमें भी आत्मा के इन तीनों रूपों का वर्णन किया गया है, जो मूल रूपमें उपनिषद्से समानता रखते हैं। आत्माके इन तीनों रूपों का गुणस्थानकी दृष्टिसे निम्न प्रकार कथन किया जा सकता है आत्मा परमात्मा जघन्य बहिरात्मा अन्तरात्मा उत्कृष्ट उत्कृष्ट उत्कृष्ट प्रथमगुणस्थानवर्ती बारहवें गुणस्थानवर्ती सिद्ध गुणस्थान से अतीत मध्यम मध्यम - मध्यम द्वितीयगुणस्थानवर्ती ५ से ११ गुणस्थान अयोग केवली १४ गुणस्थानवर्ती जघन्य जघन्य तृतीय गुणस्थानवर्ती चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सयोग केवली (अविरत सम्यग्दृष्टि) १३ गुणस्थानवर्ती बहिरात्मा-अन्तरात्मा-परमात्मा ___उपरोक्त चार्टमें चौदह गुणस्थानोंमें तीन प्रकारकी आत्माओंका दिग्दर्शन कराया गयाहै-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा।बन्धके पांचो कारण-(मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषायऔरयोग) जिनजीवोंमें पायेजाते हैं ऐसेजीवबहिरात्माकहलाते हैं। बहिरात्मा जीवोंमें मिथ्यात्व कर्मका उदय होता है, तीव्र कषायोंका समावेश होता है और ये देह और आत्माको एक माननेके कारण ही बहिरात्मा कहे जाते हैं। प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थानमें जीव उत्कृष्ट बहिरात्मा है, दूसरे सासादन गुणस्थानमें जीव मध्यम बहिरात्मा है और तीसरे १. आत्मोनिषद १,२,३,४ २. जीवा हवंति तिविहा बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य । कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १९२ ३. मिच्छत्त परिणदप्पा तिव्व कसाएण सुठ्ठ आविट्ठो। जीवं देह एक्कं मण्णंतो होदि बहिरप्पा। कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १९३ 2010_03 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था १९५ सम्यक्मिथ्यात्व अथवा मिश्र गुणस्थानमें जघन्य बहिरात्मा होता है, क्योंकि बहिरात्मा का मुख्य कारण मिथ्यात्व भाव क्रमश: हीन होता जाता है। ___बाह्य ऐन्द्रिय विषयोंसे जीवकी दृष्टि हट कर जब अन्तर्मुखी हो जाती है और वह आत्मा और देहके भेदको जानने लगता है, तब वही जीव अन्तरात्मा कहलाता है। 'चतुर्थ अविरतगुणस्थानसे लेकर बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान तक जीव अन्तरात्मा होता है। बन्धके पांच कारणों में से योगको छोड कर शेष चार कारणों को जीत लेने वाला क्षीण मोहीजीव उत्कृष्ट अन्तरात्माहै, पंचमसे ग्याहरवें गुणस्थान तक के जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं और चर्तुथगुणस्थानवर्ती अविरतसम्यक्दृष्टि जीव जघन्य अन्तरात्मा हैं। कर्ममलसे रहित आत्माको परमात्मा कहा जाता है जो केवलज्ञानसे परिपूर्ण होता है। परमात्मा भी दो प्रकारका होता है-“परमप्पा वि य दुविहा अरहता तह य सिद्धाय" | जीवन्मुक्त सयोगकेवली और अयोगकेवली अवस्थाको प्राप्त आत्मा अर्हन्त कहलाते हैं और विदेहमुक्त अवस्थाको प्राप्त सिद्ध कहलाते हैं।' १. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान-- मिथ्यादृष्टि शब्दका व्युत्पत्यर्थ करते हुए वीरसेनस्वामीने कहा है- “मिथ्या वितथा तत्र दृष्टि: रुचि: श्रद्धा प्रत्ययो येषां ते मिथ्यादृष्टयः५ अर्थात् मिथ्या शब्दका अर्थ है-वितथा, असत्य और दृष्टि शब्दका अर्थ है, रुचि, श्रद्धा या विश्वास । मिथ्यात्व कर्मके उदयसे जिन जीवों को मिथ्या श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है, ऐसे जीवोंको मिथ्यादृष्टि जीव कहा जाता है। ऐसे जीव देह, स्त्री, पुत्रादिमें अनुरक्त होते हैं, विषय कषायसे संयुक्त होते हैं और अपने आत्म स्वभावसे विरत होते हैं। बाह्य पदार्थों में अनुरक्त होने के कारण मिथ्या श्रद्धा युक्त जीवों को बहिरात्मा भी कहा जाता है। इस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव अनेक प्रकारके कर्मों से बन्धा हुआ संसारमें परिभ्रमण करता रहता है। १. जे जिण-वयणेकुसला यं जाणंति जीव देहाणं णिज्जिय दुट्ठट्ठ मया अंतरप्पा य ते तिविहा । कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १९४ २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १९५-१९७ ३. वही, गाथा १९२ ४. ससरीरा अरहता केवलणाणेण मुणिय सयलथा। ___णाण सरीरा सिद्धा सव्वुत्तम सुक्ख संपता।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १९८ ५. षट्खण्डागम, धवला टीका, १ भाग १, पृ० १६२ ६. देहादिस अणरत्ता विसयासत्ताकसायसंजत्ता. अप्पसहावे सुत्ता ते साहू सम्मपरिचत्ता । कुन्दकुन्दाचार्य, रयणसार, गाथा १०६ ७. बहिरात्मा तुप्रथमं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमेवनातिक्रमते, चैनसुखदास, जैनदर्शनसार,१९५०, पृ०९ ८. बंधई बहुविधकर्माणि येन संसारं भ्रमति, परमात्म प्रकाश, १, गाथा ७७ 2010_03 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन कर्म सिद्धान्तकी भाषामें कहा जा सकता है कि मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती जीव, दर्शनमोहनीयकी कर्मप्रकृतियोंके प्रगाढ़ बन्धनमें बंधा होने के कारण तत्त्वार्थ श्रद्धा से विमुख होता है, ' तत्त्वार्थ श्रद्धानके अभाव में शुभाशुभ, कर्तव्याकर्तव्य तथा लक्ष्यका विवेक मिथ्यादृष्टि जीवको नहीं होता । १९६ जैनदर्शनके अनुसार समस्त विश्वकी अधिकांश आत्मायें मिथ्यात्व गुणस्थान में ही हैं, इस गुणस्थानमें मिथ्या श्रद्धानके कारण संवरका अभाव होता है । मिथ्यादृष्टि जीव एकान्त, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान इन पांच प्रकारके मिथ्या परिणामोंसे कलुषित होता है। इन पांच प्रकारके मिथ्यात्वका परिचय कराते हुए वीरसेन स्वामीने कहा है --- सत्-असत्, एक- अनेक, नित्य- अनित्य आदि धर्मों में एकान्त श्रद्धा रखना एकान्त मिथ्यात्व है । सीपको चांदी समझने के समान विपरीत श्रद्धा रखना विपरीत मिथ्यात्व है । विपरीत मिथ्यात्वके वशीभूत हुआ आत्मा हिंसा, झूठ, चोरी, व राग, द्वेष, मोह आदि को ही सुख तथा मुक्तिका कारण मान लेता है । ज्ञान, दर्शन, तप, संयम आदि की अवहेलना करके एक मात्र विनयको ही मुक्तिका कारण मानना वैनयिक मिथ्यात्व है, "यह स्थाणु है या पुरुष" इस प्रकारके संशयमें ही भटकाने वाला मिथ्या श्रद्धान संशयमिथ्यात्व कहलाता है, ज्ञानके अभाव रूप श्रद्धानको अज्ञान मिथ्यात्व कहते हैं । अज्ञान मिथ्यात्व के वशीभूत हुआ जीव हिताहितके विवेकसे रहित होकर अहित में ही प्रवृत्ति करता रहता है । बौद्धदर्शनमें भी मिध्यात्वको अविद्याजनित अवस्था कहा गया है, जिसके फलस्वरूप मिथ्यादृष्टिका प्रादुर्भाव होता है और व्यक्ति असत् को सत्, अनात्माको आत्मा, नश्वरको अविनाशी और दुःखको ही सुख समझने लगता है । " मिथ्यात्व दशाकी तुलना गीताकी तामस प्रवृत्तिसे की जा सकती है जहाँ प्राणियों की ज्ञान शक्ति, मायासे कुण्ठित रहने के कारण पापमय और आसुरी हो जाती है । १. राजवार्तिक, पृ०५८८ २. मिध्यादृष्टि गुणस्थाने संवरो नास्ति, वृहद् द्रव्यसंग्रह, ब्रह्मदेव टीका, गाथा, ३४ एयंतविणय विवरीयसंसयमण्णाणमिदि हवे पंच, बारस अणुवेक्खा, गाथा ४८ ३. 8. ५. ६. षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक ८, भाग १, पृ० २० सिन्हा हरेन्द्र, भारतीय दर्शनकी रूपरेखा, पृ० १० भगवद्गीता अध्याय ७, श्लोक १५ 2010_03 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था १९७ मिथ्यात्वके वशीभूत हुआ प्राणी चाहे इन्द्रिय संयम आदि व्रतों का आचरण भी करता हो, परन्तु आत्मा अनात्माके ज्ञानसे रहित होने के कारण मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही अटका रहता है। इसी कारण समन्तभद्राचार्यने कहा है- “अश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्ततनूभृताम्" ।' गीतामें भी हठपूर्वक इन्द्रिय संयम करने वाले और मनसे विषयोंका स्मरण करने वाले अज्ञानी जीवको मिथ्याचारी कहा है,२ क्योंकि शरीर धारियोंको संसार में भटकाने वाला अज्ञान ही है। अज्ञानावस्था में की गई सभी क्रियायें निष्फल होती हैं, अत: अज्ञानसे बढ़कर अकल्याणकर अन्य कुछ नहीं है। __ अज्ञानका नाश किये बिना अग्रिम सोपानोंपर आरोहण असम्भव है। इस वर्गमें भी कुछ आत्मायें कषायोंके तीव्रतम वेगोंपर नियन्त्रण कर विकासाभिमुख हो जाते हैं। ऐसी आत्मायें दर्शनमोहकी ग्रन्थि को भेदने के लिए पूर्वोक्त'त्रिकरणकी प्रक्रियामें सफल होकर सीधा चतुर्थ सोपान को प्राप्त कर लेते हैं । भाग्यके भरोसे न रहकर जो आत्मा परिणाम विशुद्धिका निरन्तर अभ्यास करता है, वह क्रमश: उन्नतिको अवश्य प्राप्त कर लेता है।' इस गुणस्थानमें मिश्रमोहनीय कर्म, सम्यक्त्व मोहनीय कर्म, आहारकशरीर नाम कर्म, आहारक अंगोपांग नाम कर्म और तीर्थकर प्रकृति का उदय सम्भव नहीं है । मिथ्यात्वमोहनीय, नपुंसकवेद, नरकआयु, नरकगति, नरकगत्यानुपर्वी, एकसे चारइन्द्रिय जाति, हुंडकसंस्थान, असम्प्राप्तसृपाटिका संहनन, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन सोलह कर्म प्रकृतियोंका उदय केवल इसी गुणस्थानमें होता है। इससे आगे इनका उदय नहीं होता, क्योंकि ये सब प्रकतियाँ अत्यधिक निम्न कोटि की मानी जाती हैं। मिथ्यात्व प्रकृतिके अन्तके साथ ही इन सब प्रकृतियोंका अन्त हो जाता है। २. सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान सासादनका लक्षण करते हुए पंच संग्रहमें यह गाथा कही गयी हैसम्मत्तरयणपव्वय सिहरा दो मिच्छभावसमभिमुहो। णा सिय सम्मत्तो सो सासण णामो मुणेयव्वो ॥६ MMS रत्नकरण्डश्रावकाचार,श्लोक ३४ भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक ६ पूर्वनिर्दिष्ट अध्याय ६, पंच लब्धि कुरलकाव्य, परिच्छेद ६२, श्लोक १० मिच्छत्तहुडसंढासंपत्तेसक्खथावरादावं । सुहुमतियं वियलिंदी णिरयदुणिरयाउग मिच्छे ।। गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ९५ पंचसंग्रह, प्राकृत, अधिकार १, गाथा ९ __ 2010_03 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन अर्थात् सम्यक्त्व रूपी रत्नपर्वतके शिखरसे च्युत मिथ्यात्व रूपी भूमिके सम्मुख, सम्यक्त्वके नाशको प्राप्त जो जीव है, उसे सासादन नाम वाला जानना चाहिए। इस गाथासे स्पष्ट है कि सासादन गुणस्थान, प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थानकी अपेक्षासे विकासात्मक कहा जा सकता है, परन्तु यथार्थमें यह आत्माकी पतनोन्मुख अवस्थाका द्योतक है। कोई भी आत्मा प्रथम गुणस्थानसे विकास करके यहाँ नहीं आता, अपितु ऊपर की विकासात्मक श्रेणियों से पतित होकर, पुन: मिथ्यात्वको प्राप्त होने से पूर्व, इस गुणस्थानको प्राप्त करता है। राजवार्तिककारने सासादन सम्यग्दृष्टिका वर्णन करते हुए कहा है- “तस्य मिथ्यादर्शनस्योदये निवृत्तं अनन्तानुबन्धी कषायोदयकलुषीकृतान्तरात्मा जीव: सासादन सम्यग्दृष्टिरित्याख्यायते" अर्थात् सासादन सम्यग्दृष्टि जीवमें मिथ्यादर्शनके उदयका अभाव होता है और अनन्त काल तक रहने वाले तीव्रतम कषायों (अनन्तानुबन्धीचतुष्क)२ से उसका अन्तरात्मा कलुषित होता है । वस्तुत: तीव्रतम कषायका जागृत होना ही जीवके पतनका कारण होता है, जो इसे सम्यक्त्वके शिखरसे मिथ्यात्वकी ओर अभिमुख कर देता है । वास्तवमें इस गुणस्थान में गिरने वाले जीवका सम्यक्त्व दृढ़ नहीं होता, ऐसे सम्यक्त्व को जैन दर्शनमें उपशम सम्यक्त्व कहा जाता है। श्रीमती स्टीवन्सनने उपशमसम्यक्त्वकी तुलना ऐसी आगसे की है, जो भस्म के नीचे छिपी हुयी है, इसी प्रकार जीवके मिथ्याकर्म, सम्यक् कर्मके प्रभावसे कभी कभी लम्बे समय तक नियन्त्रित रहते हैं, परन्तु भस्ममें छिपी आगकी तरह किसी भी समय प्रगट अवश्य हो सकते हैं। उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त जीवके अनन्तानुबन्धी कषाय कुछ समयके लिए प्रगट नहीं होते, परन्तु जब भी वह प्रगट होते हैं, तो वह पतित होकर सासादन गुणस्थानमें आ जाता है । इस प्रकार सम्यक्त्वका आसादन अर्थात् अवहेलना करनेसे इस गुणस्थानकी प्राप्ति होती है। इसी कारण इसे सासादन कहा जाता है और मिथ्यादर्शनसे अभी दूर है इसी कारण सम्यग्दृष्टि कहा जाता है ।' बृहत्कल्पभाष्यमें इस गुणस्थानको तीन उदाहरणों के द्वारा स्पष्ट किया गया है। १. एक व्यक्ति खीर का भोजन करता है और उसके पश्चात् उसे किसी १. राजवार्तिकालंकार, अध्याय ९, सूत्र १, पृ० ५८८ २. पूर्व निर्दिष्ट अध्याय ५ ३. हर्ट ऑफ जैनिजम, पृ० १८६ गलॉसनैप डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी, पृ० ७७ । ५. वृहत् कल्पभाष्य, भाग १, गाथा १२६, १२८ उद्धृत जैन एथिक्स पृ० २१३ 2010_03 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था १९९ कारणवश वमन हो जाता है, वमन के पश्चात् भी उसे पूर्व मिठासका आस्वादन रहता है। इसी प्रकार सम्यक्त्वको छोड़ने के पश्चात् भी किंचित आस्वादन रहने के कारण, सास्वादन नाम दिया गया है। २. आकाशसे पृथ्वीपर गिरने वाला व्यक्ति, यद्यपि ऊपरके स्वादको छोड चुका है, परन्तु पृथ्वी पर अभी नहीं पहुंचा । यह मध्यकी अवस्था ही सासादन कही जाती है। ३. मिष्ठान्न भोजन करने के पश्चात सोनेको गया हुआ व्यक्ति, जब तक गहरी निद्रामें नहीं चला जाता, तब तक भोजनका आस्वादन करता रहता है। इसी प्रकार सम्यक् अथवा सत् से मिथ्यात्व अथवा तमकी ओर जाने वाला जीव, जब तक गाढ़ तममें नहीं चला जाता तब तक सम्यक्का आस्वादन करता रहता है। उपरोक्त तथ्योंसे स्पष्ट हो जाता है कि सासादन गुणस्थान मध्यकी स्थिति है और इसका समय बहुत कम होता है । डॉ० ग्लॉसनेप ने कहा है कि कोई भी जीव इस गुणस्थान में कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह आवलीपर्यन्त ही रहता है। आवली जैन दर्शन द्वारा मान्य गणितका एक सैद्धान्तिक काल प्रमाण है जो क्षण भरकी अल्पतम अवस्थाका सूचक है । इस गुणस्थानसे आगे निम्न कर्म प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता। अनन्तानुबन्धी चतुष्क, तीन निद्रायें (स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला) चार संहनन (वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलित) चार संस्थान (न्यग्रोध परिमण्डल, स्वाति, कुब्जक और वामन) तिर्यंच गति, तिर्यंच आयु, तिर्यंचानुपूर्वी, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, उद्योत, नीच गोत्र, स्त्रीवेद, अप्रशस्त विहायोगति । ३ इस गुणस्थान से आगे एक से चार इन्द्रिय, स्थावर शरीर, चार अनन्तानुबन्धी कषाय इन नौ प्रकृतियोंकी उदय और उदीरणा नहीं होती। ३. मिश्र गुणस्थान (सम्यक् मिथ्यादृष्टि)-- मिश्र गुणस्थानकी परिभाषा करते हुए जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशमें कहा गया है कि दही व गुड़के मिश्रित स्वादके समान, सम्यक् और मिथ्या मिश्रित श्रद्धा और ज्ञानको धारण करनेकी अवस्था विशेष ही सम्यग्मिथ्यात्व या मिश्रगुणस्थान कहलाती है। गोम्मटसार जीवकाण्डमें इस गुणस्थान का लक्षण इस गाथा द्वारा स्पष्ट किया गया है गलासनेप डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी, पृ० ७७ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग II, पृ०२१६ ३. गोम्मटसार कर्मकाण्ड. गाथा ९६ गलैसनैप, डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी, पृ० ७८ ५. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० ३१८ ai di 2010_03 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन दहिगुड़मिव वा मिस्सं पुह भावं णेह कारिदुं सक्कं । एवं मिस्सय भावो सम्मामिच्छोत्ति णादव्यो ।' तात्पर्य यह है कि समीचीन और मिथ्या दोनों प्रकार की दृष्टि वाला जीव ही सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहलाता है। यह एक अनिश्चयकी अवस्था होती है, जिसमें जीव सत्य और असत्यके मध्य ही झूलता रहता है, न वह सत्यकी ओर उन्मुख हो पाता है और न ही असत्यको स्वीकार कर पाता है। सम्यकबोधको प्राप्त चतर्थ गुणस्थानवी जीवों में जब सम्यक्बोध के प्रति संशय उत्पन्न हो जाता है, उसी समय वे पतित होकर, इस अनिश्चयकी अवस्था को प्राप्त होते हैं, प्रथम गुणस्थानवी जीव, जब सम्यक् बोध की अवस्था की ओर उन्मुख होता है, उस समय भी मिथ्यात्वको त्यागने और सम्यक् को ग्रहण करने से पहले जीव क्षण भरके लिए, इस अनिश्चयात्मक अवस्थाको प्राप्त होता है। श्री जिनेन्द्र वर्गीके शब्दोंमें सम्यम्त्वसे गिरते समय अथवा मिथ्यात्व से चढ़ते समय अल्प समय के लिए इस अवस्थाका वेदन होना सम्भव है ।२ ___ इस प्रकार इस श्रेणीमें जीव मिथ्यात्व गुणस्थान या उपरिम चतुर्थ गुणस्थानसे आता है । अनिश्चयात्मक अवस्थाके समाप्त होने पर यदि जीव मिथ्याधारणाको अपनाता है तो नीचेके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको प्राप्त कर लेता है और यदि सम्यक् धारणाको अपनाता है, तो ऊपरके सम्यक् बोध वाले चतुर्थ गुणस्थानको प्राप्त कर लेता है । २ इस तथ्य को डॉ० ग्लैस्नैप ने भी इसी रूपमें स्पष्ट किया है । वीरसेन स्वामी ने कहा है कि इस गुणस्थान से जीव प्रथम या चतुर्थ दो ही गुणस्थानों में जा सकता है, इनके अतिरिक्त अन्य गुणस्थानों में इस अवस्था वाला जीव नहीं जा सकता। मिश्रगुणस्थानकी तीन विशेषतायें हैं जो निम्न गाथामें कही गयी हैं-- सो संजमं ण गिण्हदि देससंजमं वा ण बंधदे आउं। सम्मं वा मिच्छं वा परिवज्जिय मरदि णियमेण ।।६ . १. २. ३. ४. . गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा २२ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० ३१७ टॉटिया, स्टडीज इन जैन फिलॉसफी, पृ०२७७ गलैसनैप, डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी, पृ० ७८ तस्स मिच्छ्त्तसम्मत्तस हिदासंजदगुणे मोत्तूण गुणंतरगमनाभावा षट्खण्डागम, धवला टीका पुस्तक ४, खण्ड १, सूत्र ९, पृ० ३४३ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा २३ ६. 2010_03 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था २०१ अर्थात् १. मिश्र गुणस्थान में कर्मों का ऐसा आवरण पड़ा होता है कि जीव किसी प्रकारसे पूर्णरूपेण या अल्प मात्रामें भी संयम करने में समर्थ नहीं होता। २. यह गुणस्थान अत्यल्प समयके लिए होता है और इसमें मिश्रित भाव होते हैं। इसी कारण भावी नरक, मनुष्य, तिथंच और देव इन चारों आयुकर्मका बन्ध जीव इस मिश्रित अवस्थामें नहीं कर सकता । ३. इस अवस्थामें जीव, मरणको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि मिश्रभावमें मरण सम्भव नहीं है । मिश्र परिणामको त्याग कर मिथ्यादृष्टि अथवा अविरतसम्यकदृष्टि गुणस्थान को प्राप्त करने के पश्चात् ही जीव मरण को प्राप्त होता है | डॉ० कलघाटकीने इस सन्दर्भ में आधुनिक मे व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहा है कि मिश्रगुणस्थानकी अवस्था में मृत्यु सम्भव ही नहीं होती, क्योंकि मृत्युके समय आत्मामें संघर्षकी शक्ति नहीं होती। इसी कारण मृत्युसे पूर्व ही वह संघर्ष समाप्त हो जाता है और आत्मा मिथ्या या सम्यक् एक दृष्टिकोण अपना लेता है। मिश्रगुणस्थानवर्ती जीवकी अनिश्चयात्मक अवस्था गीताके संशयात्मा जीवसे कुछ भिन्न होती है। मिश्रगुणस्थानवर्ती जीव यद्यपि संशयात्मा जीवके समान भ्रम अर्थात् संशयकी स्थिति में ही होता है और सम्यक, तथा मिथ्याका निर्धारण नहीं कर पाता, परन्तु गीता में कहा गया है “संशयात्मा विनश्यति २ अर्थात् संशयात्मा नष्ट हो जाता है। परन्तु मिश्रगुणस्थानवर्ती जीवका संशय यदि मिथ्यात्व रूप परिणमित हो तभी वह नष्ट होता है, अन्यथा सम्यक् रूपमें परिणमित होने पर वह उपरिम सोपानपर भी अग्रसर हो सकता है, क्योंकि वासनात्मक एवं सांसारिक प्रवृत्तियों का पक्ष लेने वाला जीव ही मिथ्यात्वमें गिर कर नष्ट होता है, परन्तु त्यागमय नैतिक मूल्योंकी ओर उन्मुख जीव उन्नत अवस्थाको ही प्राप्त करता है। मोहनीय कर्मकी दर्शन मोहकी अवस्थामें ही मिश्रभावोंका उदय होता है, जिसे मिश्रमोहनीय कर्म कहते हैं जिसका वर्णन मोहनीय कर्म में किया गया है। इस गुणस्थान के पश्चात् मिश्रमोहनीय कर्म उदय और उदीरणामें नहीं आता।' सागरमल, गुणस्थान सिद्धान्त एक तुलनात्मक अध्ययन पृ० ८८ उद्धृत, वैशाली इंस्टीच्यूट, रिसर्च, बुलेटिन नं०३ २. गीता, अध्याय ४, श्लोक ४० ३. पूर्व निर्दिष्ट, कर्मबन्ध अधिकार, मोहनीय कर्म ___ गलैसनैप डॉक्टराईन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी, पृ०७९ 2010_03 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन ४. असंयतसम्यग्दृष्टि असंयत्सम्यग्दृष्टिकी परिभाषा करते हुए वीरसेन स्वामीने कहा है“समीचीन दृष्टि: श्रद्धा यस्यासौ सम्यग्दृष्टि: असंयतश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च असंयतसम्यग्दृष्टि:" १ तात्पर्य यह है कि तृतीय गुणस्थानवर्ती जीव जिस समय सम्यक्की ओर उन्मुख होता है, तो वह चतुर्थ गुणस्थानमें आ जाता है । इस गुणस्थान वाले जीवकी श्रद्धा सम्यक होती है अर्थात् वह सत्यको सत्यके रूपमें और असत्यको असत्यके रूपमें ही समझता है, परन्तु तदनुसार आचरण नहीं कर पाता, इसी कारण उसे असंयत सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। इस प्रकार इस गुणस्थानवर्ती जीवका ज्ञानात्मक और श्रद्धात्मक पक्ष तो सम्यक होता है, परन्तु आचरणात्मक पक्ष सम्यक् नहीं होता। ___चतुर्थ गुणस्थानवी जीवकी तुलना गीताके “सम्यव्यवसित पुरुष से की जा सकती है। गीताके नवम् अध्यायमें कहा गया है कि जिसका निश्चय यथार्थ है, यदि वह आचरणसे रहित भी है तब भी उसे साधु ही समझना चाहिए। क्योंकि आचरणसे रहित यथार्थ श्रद्धा वाला जीव, अपनी सत्य श्रद्धाको कभी न कभी कार्यान्वित अवश्य ही कर लेता है, परन्तु सम्यक् श्रद्धाके अभावमें सम्यक् आचरण करना कदापि सम्भव नहीं है। सम्यक् श्रद्धाके कारण वह सांसारिक भोगोंको भोगता हुआ भी उनको त्याज्य ही समझता है । पंचाध्यायीके श्लोक के अनुसार, "उपेक्षा सर्वभोगेषु सदृष्टैर्दुष्टरोगवत्" अर्थात जैसे रोगको अनुभूत करते हुए भी रोगीको रोगमें आसक्ति नहीं होती इसी प्रकार सम्यक् दृष्टिकी भोग को भोगते हुए भी उसमें आसक्तिनहीं होती अपितु रोगकी तरह उपेक्षा भाव ही रहता है। त्रिविध सम्यक्दृष्टि सम्यक् दृष्टि जीव तीन प्रकार के होते हैं - औपशमिक, क्षायिक, और क्षायोपशमिक । ये तीनों अवस्थायें मोहनीय कर्मकी सात प्रकृतियों (दर्शन मोहकी तीन और अनन्तानुबन्धीचतुष्क) के प्रशम, क्षय और क्षयोपशम से प्राप्त १. २. ३. धवला, पुस्तक, १, खण्ड १, सूत्र १२, पृ० १७१ गीता, अध्याय ९, श्लोक ३० पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, श्लोक २६१ पूर्वनिर्दिष्ट, अध्याय ५, मोहनीय कर्म 2010_03 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था २०३ होती हैं । इस विषयका प्रतिपादन ज्ञानार्णवसे उद्धृत निम्न श्लोकमें किया गया है सप्तानां प्रशमात्सम्यक् क्षयादुभयतोऽपि च। प्रकृतीनामिति प्राहुस्त्रैविध्यं सुमेधसः ॥' सात प्रकृतियों के प्रशम अर्थात् उपशमसे औपशमिक, क्षयसे क्षायिक और क्षयोपशमसे क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि होता है, परन्तु इस अवस्थामें चारित्र मोहनीय कर्मके अन्य अप्रत्याख्यानावरणादि कषाय (चारित्र-मोहकी शेष २१ कषाय) का उदय रहनेसे वह असंयत होता है। क. औपशमिक सम्यकदृष्टि उपशमसे होने वाले औपशमिक सम्यग्दृष्टिका वर्णन करते हुए वीरसेनस्वामी ने कहा है "दंसणमोहुवसमादो उप्पजइयजं पयत्थ सद्दहणं। उवसमसम्मत्तमिणं पसण्णमलपंकतोयसमम्॥' जीव जिस समय दर्शनमोहकी प्रकृतियोंका उपशम कर अर्थात् दबा कर आगे बढ़ता है, उस समय उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है, उपशम सम्यक्त्वकी तुलना ऐसे जलसे की जा सकती है जिसका मल अथवा कीचड़ नीचे बैठ गई है। यद्यपि ऐसा सम्यक्त्व वर्तमान अवस्थामें शुद्धहोता है, परन्तु उसके मलयुक्त होनेकी शीघ्र ही संभावना रहती है। यह सम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थानसे प्रारम्भ होता है और ग्यारहवें गुणस्थान तक रहता है। ख. क्षायिक सम्यकदृष्टि पूज्यपाद स्वामीने क्षयका अर्थ करते हुए कहा है “क्षय आत्यन्तिकी निवृत्ति:" कर्मों का आत्मासे सर्वथा दूर हो जाना क्षय कहलाता है और कर्मोका क्षय करने वाला जीव क्षायिक सम्यक्दृष्टि होता है। .. वीरसेन स्वामीने क्षायिक सम्यक्दृष्टिका प्रतिपादन करते हुए कहा है. “एदासिं सत्तण्हं णिरवसेसखएण खइयसम्माइट्ठी उच्यई । ६ दर्शन मोहकी १. २. ३. १. ज्ञानार्णव, अधिकार ६, श्लोक ७ पूर्वनिर्दिष्ट, अध्याय ५, मोहनीय कर्म गोम्मटसार जीव काण्ड, गाथा २६ षट्खण्डागम, धवला टीका पुस्तक १, भाग १, सूत्र १४४, पृ० ३९६ सर्वार्थसिद्धि, अध्याय २, सूत्र १, पृ० १४९ षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, सूत्र १२, पृ० १७१ 2010_03 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन तीन और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन सप्त प्रकृतियों के सर्वथा विनाशसे जीव क्षायिक सम्यक्दृष्टि कहा जाता है । क्षायिक सम्यक्दृष्टि की विशेषता दर्शाते हुए वीरसेन स्वामी ने पुन: कहा है खइयसम्माइट्ठीण कयाइ वि मिच्छत्तं गच्छई, ण कुणई। संदेहं पि मिच्छत्तुब्भवं दवण णो विम्हयं जायदि।' अर्थात् क्षायिक सम्यक्दृष्टि जीव कभी भी मिथ्यात्व और सन्देह को प्राप्त नहीं होता और मिथ्यात्व जन्य अतिशयोंको देखकर विस्मयको भी प्राप्त नहीं होता । नेमिचन्द्राचार्यने ऐसे सम्यक्त्वको मेरुके समान निष्कम्प, निर्मल तथा अक्षय अनन्त कहा है सत्तण्णं पयड़ीणं खयादु खइयं तु हो दि सम्मत्तं । मेरु वि णिप्पकंपं सुणिम्मलं अक्खयमणंतं ॥२ क्षायिक सम्यक्दृष्टि जीव का सम्यक्त्व अक्षय और अनन्त होने के कारण ही चतुर्थ गुणस्थानसे प्रारम्भ होकर अन्तिम गुणस्थान तक स्थिर रहता है और वह जीव सर्वकर्म प्रकृतियों का विनाश कर परमात्म स्वरूपको प्राप्त कर लेता है। ग. क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव जब वासनाओंका आंशिक रूपमें क्षय और आंशिक रूपमें ही उपशम करके यथार्थताका बोध करता है, उस समय उसे क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। वीरसेनस्वामीने इसका प्रतिपादन करते हुए कहा है दसणमोहुदयादो उप्पज्जई जं पयत्व सद्दहणं। चलमलिनगाढं तं वेदग सम्मत्तमिहमुणसु॥ दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे जो चल, मलिन, और अगाढ़ रूप श्रद्धा होती है उसको वेदक सम्यक्त्व कहते हैं । वेदक सम्यक्त्व ही क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है- खओवसमियं वेदगसम्मत्तमिदि घड़दे"" इस सम्यक्त्व में अस्थायित्व और मलिनता होती है, इस कारण दमित वासनाओंके पुन: प्रकट होनेकी सम्भावना रहती है। १. षट्खण्डागम, धवला टीका पुस्तक १, भाग १, सूत्र १२, पृ० १७१ लब्धिसार,गाथा १६४ षट्खण्डागम धवला टीका पुस्तक १, भाग १, सूत्र १४५, पृ० ३९६ वही, सूत्र १४४ पृ० ३९६ षट्खण्डागम, धवलाटीका, सूत्र ५, पुस्तक ५, पृ० २०० ४. ५. 2010_03 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था २०५ डॉ० सागरमलने औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि की तुलना स्थविरवादी बौद्ध परम्पराकी श्रोतापन्न अवस्थासे की है, जिस प्रकार औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीवमें सम्यक् मार्गसे पराड्.मुख होनेकी सम्भावना रहती है, उसी प्रकार श्रोतापन्न साधकमें भी मार्गच्युत होने की सम्भावना रहती है। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टिकी तुलना ऐसे वृद्ध पुरुष से की जा सकती है, जो लकड़ीको शिथिलता पूर्वक पकड़ कर चलता है, जिस प्रकार शिथिलता पूर्वक लकडीको पकड़नेसे वह वृद्ध कभी भी गिर सकता है, उसी प्रकारी शिथिल श्रद्धाके कारण क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि कभी भी विचलित हो सकता है। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव चतुर्थ असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे प्रारम्भ होकर, सप्तम अप्रमत्त गुणस्थान तक होते हैं। इससे आगेकी श्रेणियों में इस जीवका सम्यक्व क्षय अथवा उपशममें से एक श्रेणीको प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार चतुर्थगुणस्थानवी जीवकी तीन अवस्थायें निर्दिष्ट की गई हैं। महायानी बौद्धसाहित्यके “बोधि प्रणिधिचित्त" से इस अवस्थाकी तुलना की जा सकती है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती आत्माकी दृष्टि सम्यक् होती है, चाहे वह तीनों अवस्थाओंमें से किसी भी अवस्थाको प्राप्त क्यों न हो। वह यर्थाथ मार्गको जानता है और उस पर चलने की भावना भी रखता है, परन्तु मार्गपर चलना प्रारम्भ नहीं करता । बोधिप्रणिधिचित्तमें भी इसी प्रकार यर्थाथ मार्गमें गमन की और लोकपरित्राण की भावना होती है, परन्तु वह भावना कार्यमें प्रवृत्त नहीं होती। अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, वज्र वृषभनाराच संहनन, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, औदारिक शरीर और औदारिक अंगोपांग (कर्मबन्ध अध्याय में निर्दिष्ट) इन दस कर्म प्रकृतियोंका बन्ध इस गुणस्थान से आगे नहीं होता।" डॉ० ग्लॉसनैप ने भी इस तथ्य का निर्देशन किया है। ५. संयतासंयत गुणस्थान-- यह विकास की पंचमश्रेणी है । वीरसेन स्वामी ने संयतासंयतका व्युत्पत्यर्थ सागरमल, गुणस्थान सिद्धान्त एक तुलनात्मक अध्ययन, पृ० ८०, वैशाली इंस्टीच्यूट, रिसर्च बुलेटिन नं०३ षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, सूत्र १२, पृ० १७१ षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, पृ०३९७ सागरमल, गुणस्थान सिद्धान्त एक तुलनात्मक अध्ययन पृ० ८९ उद्धृत वैशाली इंस्टीच्यूट रिसर्च बुलेटिन नं०३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ०९८ गलॉसनैप डॉक्टराईन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी ___ 2010_03 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन “संयताश्च ते असंयताश्च संयतासंयता:" करते हुए कहा है जो संयत होते हुए भी असंयत होते हैं उन्हें संयतासंयत कहते हैं | संयम धारण करने वाला संयत कहलाता है और संयम धारण करनेकी अभ्यास दशामें कुछ संयम और कुछ असंयम अर्थात् एकदेश संयम धारण करने वालेको संयतासंयत कहते हैं। श्री जिनेन्द्र वर्णीके मतमें संयम धारण करने की अभ्यासदशा में कुछ असंयम परिणामसे युक्त श्रावक संयतासंयत कहलाता है। एक ही जीवमें संयम तथा असंयम दोनों विरोधी भाव कैसे सम्भव हो सकते हैं, इस तथ्य का विश्लेषण करते हुए वीरसेन स्वामी ने कहा है "संयमासंयमयोरेकद्रव्यवर्तिनस्त्रसस्थावर निबन्धनत्वात्। ३ अर्थात संयम और असंयम इन दोनों भावोंकी उत्पत्ति के कारण भिन्न भिन्न हैं । त्रस प्राणियों (दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक) की हिंसा से विरत अर्थात् वैराग्य रखने वालेको संयत कहा गया है और स्थावर अर्थात् एकेन्द्रिय जीवों की हिंसासे अविरत अर्थात् वैराग्य न रखने वाले जीवको असंयत कहा जाता है। पंचम गुणस्थानवी जीव त्रस जीवोंकी हिंसासे संयत होते हुए भी स्थावर जीवोंकी हिंसा से संयतं नहीं होता, इसी कारण एक ही जीवमें दोनों भाव घटित हो जाते हैं । इस गुणस्थानको एकदेश संयमकी अपेक्षा "देश विरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान" भी कहा जाता है। डॉ० सागरमल के अनुसार यह श्रद्धा की अपेक्षासे पंचमगुणस्थान है परन्तु आचरणकी अपेक्षासे प्रथम ही समझना चाहिए, क्योंकि सम्यक्श्रद्धाका आचरण रूपमें अभ्यासका प्रारम्भ इसी गुणस्थानसे होता है।' पंचम गुणस्थानकी प्राप्तिके लिए "अप्रत्याख्यानावरणीय" नामक चार कषायों पर नियन्त्रण करना आवश्यक होता है। इन कषायोंका वर्णन चारित्र मोहनीय कर्ममें निर्दिष्ट किया गया है। जीव इन कषायोंपर नियन्त्रण किये बिना आचरण करने में समर्थ नहीं होता। अप्रत्याख्यानावरण कर्मके दूर होने पर ही श्रावक एक देश आचरण करने में समर्थ होता है। साधक साधना पथ पर चलते हुए फिसलता तो है, परन्तु उसमें सम्भलनेकी क्षमता भी रहती है। इसी कारण देश १. २. ३. धवला पुस्तक १, भाग १, सूत्र १३, पृ० १७३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृ० १३४ धवला पुस्तक १, भाग १, सूत्र १३, पृ० १७३ सागरमल, गुणस्थान सिद्धान्त एक अध्ययन, पृ०१० वैशाली इंस्टीच्यूट, रिसर्च बुलेटिन नं०३ षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, सूत्र १३, पृ० १७४ जैन एथिक्स, पृ० २१५ ६. ___ 2010_03 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था संयत जीव समय-समय पर संक्लिष्ट और विशुद्ध होता रहता है। लब्धिसारमें भी कहा गया है "देसोसमये समये सुज्झतो संकिलिस्समाणो य" इस गुणस्थानकी विशिष्टता दर्शाते हुए वसुनन्दि श्रावकाचार में यह कहा गया है“सिज्झइ तइयम्मि भवे पंचमए कोवि सत्तमट्ठमए"२ श्रावकोंके आचरणको पालन करने वाला संयतासंयत क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव, तीसरे भवमें या देव और मनुष्योंके सुख भोगकर पांचवें, सातवें या आठवें भवमें सिद्ध पदको प्राप्त कर लेता है । जैन मान्य इस गुणस्थान की तुलनागीताके ऐसे योगीसे की जा सकती है जो सिद्धि के लिए प्रयत्नशील है, वह सिद्धिको अवश्य प्राप्त कर लेता है, चाहे अनेक जन्मोंमें ही प्राप्त क्यों न हो। इस गुणस्थान से आगे प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, और लोभका बन्ध नहीं होता और तिर्यंचगति, तिथंच आयु, उद्योत, नीचगोत्र और प्रत्याख्यान चतुष्क कर्म प्रकृतियोंकी उदय और उदीरणा भी नहीं होती।' ६. प्रमत्तसंयतगुणस्थान प्रमत्तसंयत जीवका व्युत्पत्यर्थ करते हुए वीरसेनस्वामीने कहा है- “प्रकर्षण मत्ता: प्रमत्ता:, सं सम्यक् यता: विरता: संयता: प्रमत्ताश्चते संयताश्च प्रमत्तसंयता" प्रकर्षसे मत्त प्रमादी जीवको प्रमत्त कहते हैं और सम्यक् प्रकारसे विरत अर्थात् संयमी जीवको संयत कहते हैं। इस प्रकार प्रमत्त होते हुए भी जो जीव संयमको प्राप्त हैं उन्हें प्रमत्तसंयत कहते हैं, ये षष्ठगुणस्थानवर्ती कहे जाते हैं। ___ इस गुणस्थानमें आकर जीवका संयम एक देश नहीं रहता अपितु वह पूर्ण संयमको धारण कर लेता है । हिंसा, झूठ, चौरी, कुशील और परिग्रह आदि अनैतिक आचरणका आंशिक त्याग यहाँ पूर्ण त्यागमें परिवर्तित हो जाता है। दयानन्द भार्गवने भी निष्कर्ष रूपमें कहा है कि वह न केवल हानि रहित जीवोंकी हिंसासे विरत होता है अपितु हानिकारक जीवों की हिंसासे भी विरत हो जाता है। १. लब्धिसार, गाथा १७६ २. वसुनन्दिश्रावकाचार, गाथा ५३९ गीता, अध्याय ६,श्लोक १५ (क) गलैसनैप डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी,पृ०८२ (ख) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ३९० ५. षट्खण्डागम, धवला, पुस्तक १, भाग १, सूत्र १४, पृ० १७५ ६. जैन एथिक्स, पृ०२१५ - - 2010_03 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन इसी प्रकार समस्त अनैतिकताका पूर्ण रूपेण त्याग कर देता है। इसगुणस्थानवी जीवके अनन्तानुबन्धी चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क और अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क ये बारह चारित्रमोहके कषाय उपशमित हो चुके होते हैं, परन्तु संज्वलन नामक मन्द कषाय और हास्यादि नव किंचितकषाय' उदयमें होते हैं। इन कषायको ही प्रमाद कहा जाता है। नेमिचन्द्राचार्यने कहा है संजलणणोकसायाणुदयादो संजमो हवे जम्हा। मलजणणपमादो विय तम्हा हु पमत्त विरदो सो। अर्थात संज्वलन आदि मन्द कषायोंसे संयमका घात नहीं होता, परन्तु संयममें प्रमाद जनित दोष आ जाता है जिसके कारण कभी कभी जीव आचरणसे स्खलित हो जाता है। इसीलिए प्रमत्तसंयमी जीव को चित्रल आचरण वाला भी कहा जाता है। जीवके संयमको कलुषित करने वाला प्रमाद पन्द्रह प्रकारका होता है, जिसका वर्णन पहले बन्धके कारणों में किया गया है। इस गुणस्थानमें जीवका काल निर्धारण करते हुए डॉ० ग्लॉसनैपने कहा है कि इसका अल्पतम काल एक समय है और अधिकतम काल एक मुहूर्त है। इस समयके पश्चात् यदि वह प्रमादको विजय कर लेता है तो अप्रमत्त होकर अग्रिम सोपानमें चला जाता है अन्यथा पुन: पंचम गुणस्थान में आ जाता है। इस गुणस्थानकी तुलना श्रोतापन्न अवस्थासे की जा सकती है जहां कामधातु अर्थात् तीव्र वासनायें समाप्त हो जाती है, परन्तु रूपधातु (मन्द राग, मोह, द्वेष) शेष रह जाती है।६ - इस गुणस्थानसे आगे कर्मकी असाता, अशुभ, अयश:कीर्ति, अस्थिर, अरति और शोक " इन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता। ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान अप्रमत्तसंयत गुणस्थान विकासकी सप्तम श्रेणी है। इस श्रेणी में आकर जीवमें २. पूर्वनिर्दिष्ट-अध्याय ५, चारित्र मोहनीय कर्म गोम्मटसार जीवकाण्ड,गाथा ३३ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३३ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३४ डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी, पृ०८२ सागर मल, गुणस्थान सिद्धान्त एक अध्ययन, पृ० १०० उद्धृत वैशाली इंस्टीच्यूट, रिसर्च, बुलेटिन न०३ (क) जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग,३, पृ०९८ (ख) गलैसनैप डॉक्टराइन ऑफकर्मइन जैन फिलोसफी, पृ०८३ ७. 2010_03 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था प्रमाद जनित कोंका भी अभाव हो जाता है। वीरसेन स्वामी ने इस गुणस्थानका लक्षण करते हुए कहा है- “प्रमत्तसंयता: पूर्वोक्त लक्षणा:", न प्रमत्तसंयता अप्रमत्त संयता: “पंचदशप्रमाद रहित संयता इति यावत्" प्रमत्तसंयत जीवका निर्देश पहले किया जा चुका है, पन्द्रह प्रमादोंसे रहित जीव अप्रमत्त संयत कहलाता है। संज्वलनादि कषायों के तीव्र उदयसे जीव प्रमत्त कहलाता है, अर्थात् वह अपने लक्ष्यके प्रति पूर्ण सावधान नहीं रह पाता । कषायोंकी मन्दता हो जाने पर प्रमादजनित दोष समाप्त हो जाते हैं और जीव अप्रमत्त संयत हो जाता है। आचार्य नेमिचन्द्र ने जीवकाण्ड में अप्रमत्त संयत जीवकी उक्त विशेषताओंको निम्न गाथामें कहा है संजलणणोकसायाणुदयो मंदो जदा तदा होदि। अपमत्त गुणो तेण य अपमत्तो संजदो होदि॥२ अप्रमत्तसंयत जीवके आरोहण और अवरोहण के क्रमको दर्शाते हुए वीरसेन स्वामीने कहा है तस्स संकिलेस विसोहीहि सह पमत्तापुव्वगुणमोत्तूण गुणंतरगमणभावा । मदस्स वि असंजदसम्मादिठिवदिरित्त गुणंतरगमणाभाव। अर्थात् अप्रमत्तसंयत जीवमें किसी कारणवश संकलेश परिणामकी वृद्धि हो जाये तो वह प्रमत्तगुणस्थानमें आता है यदि विशुद्ध परिणामों की वृद्धि हो जाये तो वह अग्रिम अपूर्वकरण गुणस्थानमें चला जाता है परन्तु मृत्युके समय चतुर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें आ जाता है। लब्धिसारमें भी यही विवरण प्राप्त होता है। अप्रमत्त संयत अवस्था में जीव निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्तयानगृद्धि इन तीन प्रकारकी तीव्र निद्राओंपर विजय पा लेता है। अप्रमत्त संयत गुणस्थानमें जीव मन्द कषायोंसे संघर्ष करता रहता है । दयानन्द भार्गवने इस अवस्था की तुलना लकड़ीके ऐसे टुकड़े से की है, जो लहरों के उतार चढ़ाव से MM षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, सूत्र १५, पृ० १७८ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ४५ षट्खण्डागम धवला टीका, पुस्तक ४, भाग १, सूत्र ९, पृ० ३४३ लब्धिसार,गाथा ३४५. पूर्वनिर्दिष्ट अध्याय ५, दर्शनावरणीय कर्म 2010_03 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन ऊपर नीचे होता रहता है ।' डॉ० ग्लॉसनैपके अनुसार इस गुणस्थानमें जीव अन्तर्मुहुर्तसे अधिक समय तक नहीं रह सकता और इस गुणस्थानसे आग देवायुका बन्ध भी नहीं होता। दो श्रेणियाँ सप्तम गुणस्थानसे आगे जीव दो रूपोंमें कर्मोंपर विजय करता है । जिसे जैन पारिभाषिक शब्दों में श्रेणी कहा जाता है। प्रथम उपशम श्रेणी और दूसरी क्षपक श्रेणी । राजवार्तिककार अकलंकभट्टके शब्दोंमें “इत ऊर्ध्व गुणस्थानानां चतुर्णा द्वे श्रेण्यौ भवत: उपशमकश्रेणी क्षपक श्रेणी चेति । क. उपशम श्रेणी उपशमक श्रेणी में मोहनीय कर्मका समूल नाश नहीं किया जाता अपितु साधक कर्मों को दमित करता हुआ अर्थात् दबाता हुआ आगे बढ़ता है “यत्र मोहनीर्य कर्मोपशमयन्नात्मा आरोहति सोपशमक श्रेणी। इस अवस्था में एक प्रकारसे शत्रु सेनाका अवरोध करते हुए प्रगतिकी जाती है। इसी कारण यह विजय यात्रा विजेताके लिए अहितकर होती है, क्योंकि अवरुद्ध की गई कर्मशक्ति कभी भी समय पाकर पुन: उसपर आक्रमण कर सकती है। इसकी उपमा ऐसे पानीसे दी जा सकती है, जिसकी गन्दगीको फिटकरी आदि के द्वारा नीचे तलमें बिठा दिया जाता है और कुछ समयके लिए पानी बिल्कुल स्वच्छ हो जाता है । इस अल्पकालिक विशुद्धिके कारण ही उपशमश्रेणी वाला जीव अपने कर्मोन्मूलनके क्रमको समाप्त कर अन्तिम सोपान तक नहीं जा सकता । ग्यारहवें गुणस्थान तक जाकर पुन: कर्मों के प्रगट हो जाने से जीव नीचे गिर जाता है । वीरसेन स्वामीके मत में “ओवसमियं चारित्तं ण मोक्खकारणं, अंतोमुत्तकालादो उवरि णिच्छएण मोहोदयणिबंधणत्तादो"" औपशमिक चारित्र मोक्ष का कारण नहीं है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् निश्चयसे चारित्र मोह का उदय हो जाता है। १. जैन एथिक्स, पृ० २१६ । २. . (क) गलैसनैप डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलासफी पृ० ८३, ८४ (ख) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० ९८ तत्त्वार्थराजवार्तिकालंकार, अध्याय ९, सूत्र १, वार्तिक १८, पृ० ५९० षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक ६, भाग १, सूत्र १४, पृ० ३१७ M वही ___ 2010_03 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था ख. क्षपक श्रेणी क्षपक श्रेणीकी परिभाषा करते हुए राजवार्तिककारने कहा है. “यत्र तत् (मोहनीय) क्षयमुपगमयन् (आत्मा) उद्गच्छति सा क्षपक श्रेणी" अर्थात् जब आत्मा चारित्र मोहनीय कर्मको समूल नष्ट करता हुआ आगे बढ़ता है तब उसे क्षपक श्रेणी वाला कहा जाता है। इसमें कर्मशत्रुओंको अवरुद्ध नहीं किया जाता अथवा दबाया नहीं जाता अपितु विध्वंस कर दिया जाता है। इसी कारण वे पुन: जागृत होने में समर्थ नहीं होते। क्षपक श्रेणी द्वारा अवरोहण करने वाला आत्मा, विकास करता हुआ समस्त कर्मों का नाश करके अन्तिम सिद्धिको प्राप्त कर लेता है। एक आत्मा, एक जीवनमें दोनों श्रेणियोंमें से एक श्रेणीसे ही चढ़ सकता है। ८. अपूर्वकरण गुणस्थान अष्टम गुणस्थानमें आकर जीव उपरोक्त निर्दिष्ट उपशम या क्षपक श्रेणियों में से किसी एक श्रेणीको अपनाता है। यह आत्माकी एक विशिष्ट अवस्था है, जिसमें कर्मावरण अत्यधिक झीने हो जाते हैं । कर्मावरणके मन्द हो जानेसे जीवको असीम आनन्द की अनुभूति होती है, जो इससे पूर्व कभी नहीं हुई थी। इस अपूर्व आनन्दके कारण ही इस गुणस्थानको अपूर्वकरण कहा जाता है । वीरसेन स्वामी ने कहा है “करणा: परिणामा: न पूर्वा: अपूर्वा: । यद्यपि प्रथम गुणस्थानमें दर्शन मोहकी ग्रन्थि भेदके समय होने वाले परिणामों को भी अपूर्व कहा जाता है, परन्तु यहाँ चारित्र मोहके आवरणभी दूर हो जाते हैं, इस कारण इस गुणस्थानमें मात्र मन्द कषाय (संज्वलन) ही शेष रहते हैं। अन्य कषायों को उपशमश्रेणी वाला जीव उपशमित कर देता है और क्षपक श्रेणी वाला जीव क्षय कर देता है। चारित्र मोहके आवरणके अत्यन्त मन्द हो जानेसे आत्मामें एक विशिष्ट प्रकारकी शक्ति उत्पन्न हो जाती है । उस शक्तिके फलस्वरूप पूर्वबद्धकों की स्थिति (काल) और अनुभाग (तीव्रता) बहुत अधिक मात्रा में कम हो जाता है। अशुभ फल देने वाले कर्मों का फल अतिमन्द हो जाता है और समयसे पूर्व ही कर्मों के फलको भोग लिया जाता है। इसे जैन पारिभाषिक शब्दावलीमें स्थितिघात, १. तत्त्वार्थराजवार्तिकालंकार, अध्याय ९, सूत्र १, वार्तिक १८, पृ० ५९० २. गलैसनैप डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलॉसफी, पृ०७३ ३. षखण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, सूत्र १६, पृ० १८० 2010_03 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन अनुभागघात, गुणसंक्रमण और गुण श्रेणी कहा जाता है, इनका निर्देशन त्रिविध करणमें किया गया है। इस गुणस्थानमें जीव कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है । क्षपक श्रेणी वाला जीव अन्तर्मुहूर्त तक ही रहता इस गुणस्थानकी तुलना बौद्धमान्य सकृदागामी भूमिसे की जा सकती है, जहाँ साधक मोह, राग, द्वेषको समाप्त प्राय: कर देता है और अनागामी भूमिकी ओर अग्रसर होता है। हास्य, रति, भय और जुगुप्सा नामक किंचित् कषायोंका और निद्रा, प्रचला नामक मन्द दर्शनावरण का तथा अन्य अनेक कर्मों का बन्ध इस गुणस्थानसे आगे नहीं होता। ९. अनिवृत्तिकरण बादरसाम्पराय गुणस्थान वीरसेन स्वामीने नवम गुणस्थानका लक्षण करते हुए कहा है- “निवृत्ति: व्यावृत्तिः, न विद्यते निवृत्तिर्येषां ते अनिवृत्तयः । साम्पराया: कषाया: बादरा: स्थूला: बादराश्च ते साम्परायाश्च अनिवृत्तिबादरसाम्पराया: ।५ अर्थात् जिन परिणामोंकी निवृत्ति नहीं होती, उन्हें अनिवृत्ति और स्थूल कषायोंको बादर साम्पराय कहते हैं । इस प्रकार अनिवृत्तिरूप स्थूल कषायोंको अनिवृत्तिबादर साम्पराय कहते हैं । इस गुणस्थानवी जीव, संज्वलन नामक मन्द कषायोंका स्थूल रूप से उपशमन या क्षय करते हैं, इसीलिए इसे बादर साम्पराय कहा गया है। गोम्मटसार जीवकाण्डमें कहा गया है होंति अणियटिणोते पडिसमयं जस्सि एक्कपरिणामा। विमलयरझाणहुतवहसिहा हि णिद्दड़ढ-कम्मवणा॥ एक समयवर्ती जीवों के परिणामों में विशद्धिकी अपेक्षा किसी प्रकारका भेद नहीं होता, ऐसे अनिवृत्तिकरण परिणाम वाले जीव, विमलतर ध्यान रूपी अग्निकी शिखाओंसे कर्मरूपी वनको दग्ध कर देते हैं। उनकी ध्यानरूपी अग्नि में तीनों प्रकारके वेद (पुरुष, स्त्री, नपुंसक) और क्रोध, मान, माया तथा स्थूल लोभका पूर्ण रूपेण क्षय अथवा उपशमन हो जाता है । अर्थात् इस गुणस्थानसे आगे सूक्ष्मलोभको छोड़कर वेद और संज्वलनकी चारों कषायोंका बन्ध नहीं होता।" १. पूर्वानिर्दिष्ट, करणलब्धि, त्रिविधकरण २. जैन एथिक्स, पृ० २१६ सागरमल, गुणस्थान सिद्धान्तएक अध्ययन पृ० १०० वैशाली इंस्टीच्यूट रिसर्च बुलेटिन,नं०३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० ९८ धवला पुस्तक १, भाग १, सूत्र १७, पृ० १८३ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ५७ ७. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ०९९ سه م م م م 2010_03 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था २१३ इस गुणस्थानकी तुलना बौद्धमान्य सुदुर्जया भूमिसे की जा सकती है जो अतिकठिनतासे प्राप्त होती है। १०. सूक्मसाम्परायगुणस्थान राजवार्तिककारने सूक्ष्मसाम्परायका व्युत्पत्ति अर्थ करते हुए कहा है “साम्पराय: कषाय: यत्र सूक्ष्म भावेनोपशान्ति क्षयं च आपद्यते तौ सूक्ष्मसाम्परायौ वेदितव्यौ । अर्थात् साम्पराय कषायोंका सूक्ष्म रूपसे भी उपशम या क्षय करने बाला, सूक्ष्मसाम्प्राय उपशमक या क्षपक कहलाता है। इस गुणस्थानकी प्राप्ति चारित्रमोहकी अठाईस कर्म प्रकृतियों में से सत्ताईस कर्मप्रकृतियोंके क्षय अथवा उपशमसे होती है। एक मात्र सूक्ष्मरूपसे संज्वलन लोभ शेष रह जाता है। डॉ० नथमल टॉटिया ने विकासके इस उच्च सोपानपर रहने वाले सूक्ष्म लोभकी व्याख्या, अवचेतन रूपमें शरीर के प्रति रहने वाले रागके अर्थमें की है। यह राग कुसुमली रंगके समान अत्यन्त कम लालिमा वाला होता है। इस गुणस्थानमें जीव कमसे कम एक समय और अधिक से अधिक अन्तर्मुहर्त तक रहता है। इस गुणस्थानसे आगे पाँचज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पांच अन्तराय, यश:कीर्ति और उच्चगोत्र इन सोलह कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । इस गुणस्थान तक वेदनीय कर्मकी साता प्रकृतिको छोड़कर शेष सभी की बन्ध व्युच्छित्ति हो जाती है।' ११. उपशान्तकषाय वीतराग छस्थ गुमणस्थान ग्याहरवें गुणस्थानका लक्षण करते हुए धवलामें कहा गया है उपशान्त कषायो येषां ते उपशान्त कषाया: । वीतो विनष्टो रागो येषां ते वीतरागा:। छदृमज्ञानदृगावरणे तत्र तिष्ठन्तीति छद्मस्था: । वीतरागश्च ते छद्मस्था: वीतरागछद्मस्थाः। एतेन सरागछद्मस्थस्य निराकृतिरवगन्तव्याः । उपशान्तकषायश्च ते वीतरागछद्मस्थाश्च उपशान्तकषायवीतराग छद्मस्था: ।५ . १. राजवार्तिक अध्याय ९, सूत्र १, पृ०५९० टॉटिया नथमल, स्टडीज इन जैन फिलॉसफी, पृ० २७८ पंचसंग्रह, प्राकृत, अधिकार १, श्लोक २२ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ०९९ षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, सूत्र १९, पृ० १८८ ५. 2010_03 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन अर्थात् जिन जीवोंकी कषाय उपशान्त हो गयी हैं और राग विनष्ट हो गया है, परन्तु ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मों के सूक्ष्म आवरणसे जो आवृत हैं, वे जीव “उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ" कहे जाते हैं । वीतराग विशेषणसे दशमगुणस्थान तकके सराग छद्मस्थोंका निराकरण हो जाता है । २१४ उपशान्तकषाय गुणस्थानमें केवल उपशम श्रेणी वाला जीव ही आरोहण करता है, जैसा कि इसके नामसे ही स्पष्ट है। इस गुणस्थान में जीव अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। इसके पश्चात् कषायके जागृत हो जाने से पुन: नीचे गिर जाता है, पतनके बाद पुनः क्षायिक श्रेणी द्वारा विकासकी ओर उन्मुख होता है और मुक्तिको प्राप्त करता है । १२. क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्य गुणस्थान- क्षपक श्रेणी वाले जीव ग्याहरवें गुणस्थान में न जाकर दसवेंसे बारहवें गुणस्थान में आते हैं । इस गुणस्थानका लक्षण करते हुए धवलामें कहा गया है I " क्षीणः कषायो येषां ते क्षीणकषायाः ।” क्षीणकषायाश्च ते वीतरागाश्च क्षीणकषायवीतरागा: छद्मनि आवरणे तिष्ठन्तीति छद्मस्था: । क्षीणकषायवीतरागाश्च ते छद्मस्थाश्च क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्था: " । अर्थात् जिन जीवों की कषाय क्षीण हो गयी है, वीतरागी हैं परन्तु ज्ञान और दर्शनके आवरण में रहते हैं, उन्हें क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ कहते हैं । सबसे प्रबल माना जाने वाला मोहनीय कर्मका आवरण इस गुणस्थान में पूर्णतया नष्ट हो जाता है । परन्तु ज्ञान और दर्शनके किंचित् मात्र आवरण शेष रह जाते हैं । जीवके गुणों का घात करने वाले चार घातिया कर्मोंका उदय इस गुणस्थानसे आगे नहीं होता। इस सोपान पर आ जाने पर पुन: पतनका कोई भय नहीं रहता । यह चारित्रकी उच्चतम अवस्था है । १३. सयोग केवली गुणस्थान - जैन दर्शनके अनुसार व्यक्ति अपने कर्मोंका विनाश करके स्वयं परमात्मा बन सकता है। उस परमात्माकी दो अवस्थायें होती हैं - एक शरीर सहित जीवनमुक्त अवस्था और दूसरी शरीर रहित देह मुक्त अवस्था । प्रथम शरीर सहित जीवनमुक्त अवस्था ही सयोग केवली गुणस्थान कहलाता है। इस अवस्थामें जीव यद्यपि परमात्म संज्ञाको प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु फिर भी वे तीनों योगों सहित होते हैं, इसीलिए उन्हें सयोगी कहते हैं और १. २. षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, सूत्र २०, पृ० १८९ षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, सूत्र २३, पृ० १९१ 2010_03 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसत्थ प्रशस्त पह पाउग्गलद्धि प्रभु प्रायोग्यलब्धिं पाणा प्राण विकल्प वियुक्त विप्रमुक्त विकलेन्द्रिय विपरीत विषय विशद्धिलब्धि प्राभृत (III) विपय्प विजुज्ज विप्पमुक्को वियलिंदी विवरीय विसयं विसोहीलद्धि विहीण वेयणीय वेगुम्विय संकमण संकिलेस पाहुड़ पुग्गल पुढ़वि पुवायु पोग्गलपिंडो पोग्गलविवाई फास बंधपयड़ी बहिरप्पा बायर बैइंदिय विहीन संठाण भण पुद्गल पृथ्वी पूर्वायु पुद्गलपिण्ड पुद्गलविपाकी स्पर्श बन्धप्रकृति बहिरात्मा बादर द्वीन्द्रिय कथ भावमोक्ष भोक्ता मिथ्यात्व मोक्षपथ राशि लोकाकाश लोकाकाश वर्गणा वर्तनलक्षण: वनस्पति व्रत संसारत्थ सत्तपयड़ी सत्ति सत्थ सद्दहण सप्पी भावमुक्ख भोत्ता वेदनीय वैक्रियिक संक्रमण संक्लेश संस्थान संसारस्थ सत्वप्रकृति शक्ति शस्त्र श्रद्धान सर्पि समनस्क सर्वगत सर्वघाति शाश्वत सामान्य सुतीक्ष्ण श्रुतज्ञानावरणीर सुखप्रतिबाधा सूक्ष्म समणा सव्वगअ सव्वघाइ मिच्छत्त मोक्खमह रासी लोगागास लोयायास चग्गणा वट्ठणलक्खो वणफदी सस्सद सामण्णा सुतिक्खण सुदणाणावरणीय सुहपड़िबोहा सुहुम वद विग्धं विध्न 2010_03 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ सन्दर्भ-ग्रन्थानुक्रमणिका मूल संस्कृत तथा प्राकृत ग्रन्यअष्टाध्यायी आचार्य पाणिनि आत्मबोध आचार्य शंकर, ओरियन्टल बुक एजेन्सी पूना, १९५२ आत्मोपनिषद् एक सौ आठ उपनिषद्, संस्कृति संस्थान, बरेली, १९६८ आप्तपरीक्षा आचार्य विद्यानन्दि, वीरसेवा मंदिर सरसावा, संवत् २००६ आलाप पद्धति आचार्य देवसेन, सन्मतिसुमन माला चौरासी, अनुवादक तथा टीकाकार पंडित दीपचन्द वर्णी, वीर निर्वाण संवत् २४५९ उत्तराध्ययन सूत्र गुड़गांव, १९५४ एकीभाव स्तोत्र आचार्य श्रीवादिराज, हुम्बुज श्रमण सिद्धान्त पाठावलि, जयपुर, १९८२ कठोपनिषद् ईशादिनोउपनिषद्, गीताप्रेस गोरखपुर, वि०सं० २०१० कर्मग्रन्थ श्रीमद्देवेन्द्र सूरि आचार्य, जैन पुस्तक प्रचारक मंडल, आगरा, १९३९ कर्मप्रकृति श्री नेमिचन्द्राचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ, सन् १९४४ कषाय पाहुड़ श्री गुणधराचार्य दिगम्बर जैन संघ, मथुरा चौरासी विक्रम सं० २००० कार्तिकेयानुप्रेक्षा स्वामी कार्तिकेय कुमार विरचित, राजचन्द्र ग्रन्थमाला, ई० १९६० कुरल काव्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य, पं० गोविन्दराज जैन शास्त्री, वीर निर्वाण सं० २४८० क्षपणसार श्री नेमिचन्द्राचार्य, परमश्रुतप्रभावक मंडल अगास, १९८० गोम्मटसार कर्मकाण्ड श्री नेमिंचन्द्राचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ, १९८० गोम्मटसार जीवकाण्ड श्री नेमिचन्द्राचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ, १९७८ 2010_03 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र पाहुड चारित्रसार ज्ञानार्णव छान्दोग्योपनिषद् जम्बुद्वीप प जैन दर्शनसार जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग १, २, ३, ४ ज्ञानबिन्दु प्रकरण तत्त्वबोध तत्त्वार्थ सूत्र तर्क भाषा तिलोपणति द्रव्य संग्रह नियमसार नैष्कर्म्य सिद्धि न्याय विनिश्चय न्याय सूत्र न्यायसूत्र पंच संग्रह प्राकृत पंच संग्रह संस्कृत पंचाध्यायी 2010_03 (V) श्री कुन्दकुन्दाचार्य, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बंबई, वि०सं० १९७७ श्री चामुण्डराय, महावीर जी, वीर निर्वाण सं० २४८८ श्री शुभचन्द्राचार्य, राजचन्द्र ग्रन्थमाला, ईसवी १९०७ गीता प्रेस गोरखपुर, वि०सं० २०१३ आचार्य पद्मनन्दि, जैन संस्कृति संरक्षण संघ, सोलापुर वि०सं० २०१४ पं० चैन सुखदास, सद्द्बोध ग्रन्थमाला, जयपुर, १९५० श्री जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ ई० १९७०, ७१ ७२, ७३ यशोविजय उपाध्याय, सिंघईजैन ज्ञानपीठवि० सं० १९९८ श्री शंकराचार्य, स्टीम प्रेस, बम्बई, संवत् १९८८ श्री उमा स्वामी, जबलपुर, १९७९ श्री केशव मिश्र, साहित्य भंडार, मेरठ, १९७६ आचार्य यतिवृषभ, जीवराज ग्रन्थमाला, सोलापुर वि०सं० १९९९ श्री नेमिचन्द्राचार्य, देहली, ई० १९५३ श्री कुन्दकुन्दाचार्य, जैन ग्रन्थ रत्नाकार, बंबई १९१६ श्री सुरेश्वराचार्य, पूना, १९२५ आचार्य अकलंक भट्ट, भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस गौतम, पूना, १९३९ वात्स्यायन भाष्य, बनारस, १९२० आचार्य अमितगति; भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, ई० १९६० आचार्य अमितगति; भारतीय ज्ञान पीठ, काशी, १९६० राजमल पं० देवकीनन्दन, महावीर आश्रम, कारंजा, १९३२ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (VI) पंचास्तिकाय पद्मनन्दि पंचविंशतिका परमात्म प्रकाश पुरुषार्थ सिद्धयुपाय प्रवचनसार बारस अणुवेक्खा भगवद्गीता भगवती आराधना मनु स्मृति महापुराण मुण्डकोपनिषद् श्री कुन्दकुन्दाचार्य; परम श्रुत प्रभावक मंडल बंबई वि०सं० १९७२ आचार्य पद्मनन्दि; जीवराज ग्रन्थमाला, ई०१९३२ आचार्य योगेन्दु देव; राजचन्द्र ग्रन्थमाला, वि०सं० २०१९ आचार्य अमृतचन्द, रोहतक, सन् १९३३ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य; परमश्रुत प्रभावक मंडल, अगास १९८४ कुन्दकुन्दाचार्य, रोहतक, वी०नि०सं० २४७९ गीता प्रेस गोरखपुर, वि०सं० २०२८ आचार्य शिवकोटि; सखाराम दोशी, सोलापुर ई० १९३५ आचार्य मनु, बंबई १८९४ आचार्य जिनसेन; भारतीय ज्ञानपीठ काशी, ई० १९५१ ईशादिनौ उपनिषद, गीता प्रेस गोरखपुर, वि०सं० २०१० आचार्य कुन्दकुन्द, अनन्तकीर्ति ग्रन्थमाला, वि०सं० १९७६ महर्षि पतंजलि, गीताप्रेस गोरखपुर, वि०सं०२०१३ श्री समन्तभद्राचार्य; हुम्बुज श्रमण सिद्धान्त पाठावलि, जयपुर, १९८२ श्रीअकलंकभट्टाचार्य;भारतीयज्ञानपीठ, वि०सं०२००८ आचार्य नेमिचन्द्र-सिद्धान्तचक्रवर्ती, परमश्रुत प्रभावक मंडल, अगास, १९८० आचार्य वसुनन्दि, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि०सं० २००७ श्री नेमिचन्द्राचार्य-ब्रह्मदेव टीका, परमश्रुत प्रभावक मंडल, अगास, सन् १९७९ गुरु श्री चतुर्विजय; पुण्य विजय, भावनगर, १९३३ मूलाचार योगसूत्र रत्नकरण्ड श्रावकाचार राजवार्तिक लब्धिसार वसुनन्दि श्रावकाचार वृहद् द्रव्यसंग्रह वृहत् कल्पभाष्य 2010_03 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदान्तसार वैशेषिक सूत्र श्वेताश्वतर उपनिषद् प्रवचनसार श्रावक प्रज्ञप्ति षदखण्डागम षड्दर्शन सम्मुचय सप्तभंगीतरंगिणी समणसुत्तं समयसार (VII) सदानन्द योगी, लोक भारती प्रकाशन, इलाहबाद १९६८ प्रशस्तपाद भाष्य, बनारस १९२३ ईशादिनो उपनिषद्, गीता प्रेस गोरखपुर, वि०सं० २०१० उमास्वाति, बम्बई वि०सं० १९६१ आचार्य पुष्पदन्त व भूतबलि, धवला टीका सहित अमरावती, १९३९ आचार्य हरिभद्र सूरि; भारतीय ज्ञानपीठ, १९८१ श्री विमलदास, परमश्रुत प्रभावक मंडल. वि०सं०१९७२ सर्वसेवासंघ, वाराणसी, १९७५ श्री कुन्दकुन्दाचार्य, अहिंसा मंदिर प्रकाशन ,देहली, १९५८ श्री पूज्यपादस्वामी, वीरसेवा मंदिर, निर्वाण सं० २०२१ माधवाचार्य, पूना, १९५१ आचार्य पूज्यपाद, भारतीय ज्ञानपीठ ई० १९५५ श्री ईश्वरकृष्ण, डॉ० ब्रजमोहन चतुर्वेदी, अनुराधा व्याख्या, दिल्ली १९७६ वाचस्पति मिश्र, पूना १९३४ आचार्य अकलंक भट्ट; भारतीय ज्ञानपीठ ई०१९५१ आत्माराम, जैन प्रकाशन समिति, लुधियाना,वि०सं० २०३२ आचार्य मल्लिषेण; परमश्रुत प्रभावक मंडल, बंबई वि०सं. १९९१ आचार्य समन्तभद्र; वीर सेवा मंदिर, सरसावा ई० १९५१ समाधिशतक सर्वदर्शन संग्रह सर्वार्थसिद्धि सांख्यकारिका सांख्य तत्त्व कौमुदी सिद्धि विनिश्चय स्थानांग सूत्र स्याद्वाद मंजरी स्वयम्भूस्तोत्र हिन्दी ग्रन्यआत्मा राम जैन तत्त्वकलिका, आत्म ज्ञानपीठ, मानस मण्डी, पंजाब, १९८२ 2010_03 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (VIII) कृष्णस्वामीनाथन् रमण महर्षि, नैशनल कुक ट्रस्ट इण्डिया, १९७७ कैलाश चन्द शास्त्री जैन धर्म, दिगम्बर जैन संघ मथुरा, १९७५ कैलाश चन्द शास्त्री द्रव्यानुयोग प्रवेशिका, वीरसेवा मंदिर ट्रस्ट, १९७४ कैलाश चन्द शास्त्री करणानुयोग प्रवेशिका; वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट, १९७४ कैलाश चन्द शास्त्री चरणानुयोग प्रवेशिका; वीरसेवा मंदिर, ट्रस्ट १९७४ गोपालन एस. जैन दर्शन की रूपरेखा; वाइली ईस्टर्न लि० १९७३ गोपीनाथ कविराज विजिज्ञासा, भारतीय विद्या प्रकाशन दास गुप्त एस.एन. भारतीय दर्शन का इतिहास भाग १, हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर, १९७८ मालवणिया दलसुख आत्म मीमांसा; जैन संस्कृति संशोधन मंडल, बनारस, १९५३ मेहता मोहन लाल जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, १९६८ रतनलाल आत्म रहस्य; सस्ता साहित्य मंडल, दिल्ली१९६१ राधा कृष्णन् भारतीय दर्शन; राजपाल एण्ड सन्स, दिल्ली, १९७३ वर्णी जिनेन्द्र कर्म रहस्य; जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला, पानीपत, १९८१ वर्णी जिनेन्द्र कर्म सिद्धान्त; जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला, पानीपत, १९८२ वर्णी जिनेन्द्र नय दर्पण, जैन पारमार्थिक संस्था, इन्दौर, सन् १९६५ वर्णी जिनेन्द्र पदार्थ विज्ञान; जिनेन्द्रवर्णी ग्रन्थमाला, पानीपत, १९८२ वर्णी जिनेन्द्र शान्तिपथ प्रदर्शन; जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला, पानीपत, १९८२ वरैया गोपाल दास जैन सिद्धान्त प्रवेशिका; शान्तिवीर नगर, महावीर जी, १९६२ संघवी सुखलाल तत्त्वार्थसूत्र विवेचन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९७६ सिन्हा हरेन्द्र भारतीय दर्शन की रूपरेखा; मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, १९८० हिरियण्णा एम. भारतीयदर्शन की रूपरेखा; राजकमलप्रकाशन, दिल्ली १९८० 2010_03 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (IX). अंग्रेजी पुस्तकें1. Bhargav Dayanand, Jain Ethics, Moti Lal Banarsidas, Delhi 1968%B Gandhi Vir Chand, R. The Karma Philosophy, Bombay, 1913. Glasonapp Helmuth, The Doctrine of Karman in Jaina Philosophy, Bombay, 1942. Jain khub Chand, A peep into Jainism, Delhi, 1973. K.K. Mittal, Materialism in Indian Thought, 1974, Munshi Ram Manohar Lal, Delhi. K.C. Sogani, Ethical Doctrines in Jainism, 1967, Jain Sanskrit Samarkshaka Sangh Sholapur. ___Stevenson, The Heart of Jainsim, 1970, MunsiRam, Manoharlal, delhi. 8. Tatia Nathmal, Studies in Jaina Philosophy, 1951, Jain Cultural Research Society, Banaras. 9. Shri Niwas. P.T. outlines of Indian Philosophy, 1909, Banaras. कोश ग्रन्य, पत्र व पत्रिकायें- . 1. Hasting James, Encyclopaedia of Religian and Ethics, TET ...... London, Vol. II, VII, 1964. 2. Karl H. Potter, Encyclopaodia of Indian Philosophy Bibliography Motilal Banarsi Das, Vol. I. 1974. जिनेन्द्रवर्णी, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग १,२,३,४ भारतीय ज्ञानपीठ १९७०,७१,७२, ७३ वामन शिवराम आष्टे, संस्कृत हिन्दी कोश; मोतीलाल बनारसी दास १९७३ ___ सम्पादक श्री नवल जी, नालन्दा विशाल शब्द सागर, नई सड़क देहली सम्वत् २००७ वैशाली इंस्टीच्यूट रिसर्च बुलेटिन नं. ३, वैशाली, बिहार, १९८२ 7. जय गुंजार, गौतम निर्वाण अंक, अक्टूबर १९८५, ब्यावर, राजस्थान 8. जैनमित्र, ३ अप्रैल १९८६ , गांधी चौक, सूरत 9. पुरोधा, दिसम्बर १९७८, अरविन्द सोसाईटी, पोडीचेरी 10. सम्यग्ज्ञान, अप्रैल १९८३, दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर 11. सम्यग्ज्ञान, जनवरी १९८५, दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर 12. सम्यग्ज्ञान, जनवरी, १९८६ दिगम्बर जैन, त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर 13. सम्यग्ज्ञान, अप्रैल १९८६, दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर 2010_03 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनेन्द्र वर्णी साहित्य शान्ति पथ प्रदर्शन नय दर्पण समण सुत्तम् पदार्थ विज्ञान कर्म रहस्य कर्म सिद्धान्त सत्य दर्शन कुन्दकुन्द दर्शन सर्व धर्म समभाव प्रभुवाणी अध्यात्म लेखमाला जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त-एक अध्ययन (कर्म बन्धन और मुक्ति प्रक्रिया का विवेचन) लेखिका : डॉ० कुमारी मनोरमा जैन Science Towards Monism Life the God Hood (By Sh. Jal Bhagwan Advocate) 50.00 30-00 21.00 10.00 16-00 12.00 15.00 4-00 1.00 2-00 10-00 48-00 13. 10.00 6.00 14. कार्यालय: श्री जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्यमाला, 58/4 जैन स्ट्रीट, पानीपत 131103 नोट: श्री जिनेन्द्रवर्णी ग्रन्यमालासे प्रकाशित उपरोक्त पुस्तकों पर 300 रु० से अधिक के आर्डर पर 25% छूट/पैकिंग वडाकखर्च अतिरिक्त। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश (भाग 1 से 4) भारतीय ज्ञानपीठ, 18 इन्स्टीटयूशनल पंचम भाग प्रेस में। एरिया, लोधी रोड, दिल्ली-३ वर्णी दर्शन शान्ति निकेतन, ईशरी उपासना (पूजा) उदासीन आश्रम, इन्दौर महायात्रा 20/ सर्वसेवासंध प्रकाशन, राजधाट, वाराणसी जैन तीर्थ क्षेत्र मानचित्र पन्नालाल जैन आर्चिटेक्ट, 4983, शिवनगर, करोल बाग, दिल्ली श्रद्धाबिन्दु अप्रकाशित 20. भोपाल में दिए हुये प्रवचनों के कैसेट भी उपलब्ध है। 2010_03 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनेन्द्र वर्णी साहित्य शान्ति पथ प्रदर्शन नय दर्पण समण सुत्तम् पदार्थ विज्ञान कर्म रहस्य कर्म सिद्धान्त सत्य दर्शन कुन्त कुन्द दर्शन सर्वधर्म समभाव प्रभुवाणी अध्यात्म लेखमाला जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त-एक अध्ययन (कर्म बन्धन और मुक्ति प्रक्रिया का विवेचन) लेखिका : डॉ० कुमारी मनोरमा जैन Science Towards Monism Life the GodHood (By Sh. Jal Bhagwan Advocate) Bo-00 30-00 21-00 10.00 लगाम 16.00 12.00 "28-00 4-00 1-00 2-00 10-00 48-00 12. 13. 10-00 14. 6.6-00 कार्यालय: श्री जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला, 58/4 जैन स्ट्रीट, पानीपत 131103 नोट: श्री जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला से प्रकाशित उपरोक्त पुस्तकों पर 500 रु० से अधिक के आर्डर पर 25% छूट/पैकिंग व डाकखर्च अतिरिक्त। 15. 17. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश (भाग 1 से 4) भारतीय ज्ञानपीठ, 18 इन्स्टीटयूशनल पंचम भाग प्रैस में। एरिया, लोधी रोड, दिल्ली-३ वणी दर्शन शान्तिनिकेतन, ईशरी-42 उपासना (पूजाऐं) उदासीन आश्रम, इन्दौर महायात्रा 20/ सर्वसेवासंध प्रकाशन, राजधाट, वाराणसी जैन तीर्थ क्षेत्र मानचित्र पन्ना लाल जैन आचिंटैक्ट, 4983, शिवनगर, करोल बाग, दिल्ली श्रद्धाबिन्दु अप्रकाशित 18. 20. भोपाल में दिए हुये प्रवचनों के कैसेट भी उपलब्ध है। SanEducationtinternational-2010-03