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कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें
"सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्तेस:बन्ध:” अर्थात् रागद्वेषादि कषाय रूप परिणतिके कारण ही जीव कर्मयोग्य सूक्ष्म पुद्गलोंको ग्रहण करता है।
दलसुख मालवणियाने इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि जिस समय जीव रागद्वेष युक्त होता है, उसी समय जीव प्रदेशों के साथ आने वाले परमाणु, कर्म संज्ञाको प्राप्त करते हैं, इससे पूर्व वे परमाणु कर्म होने के योग्य कहलाते हैं। मुक्तावस्थामें जीवमें रागद्वेषादि भाव नहीं होते, इसीलिए मुक्त जीवोंका पुद्गल परमाणुओंसे संयोग होते हुए भी वह संयोग बन्धकी कोटिमें नहीं आता २ अत: जीव के काषायिक भाव ही पुद्गलोंको ग्रहण करने में कारण हैं । इस प्रकार ग्रहण किये गए पुद्गल आत्माके साथ एकीभावको प्राप्त हो जाते हैं । दास गुप्तने इस संबंधका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि जिस प्रकार तैलाक्त शरीरसे धूल चिपक जाती है, उसी प्रकार रागद्वेषयुक्त जीवके समस्त भागोंमें कर्मद्रव्य लिप्त हो जाता है। इस प्रकारके बन्धको द्रव्य बन्ध कहते हैं।'
दूसरे शब्दोंमें यह भी कहा जा सकता है कि मन, वचन और कायकी क्रियाओंसे, आत्मा चुम्बकके समान, पौद्गलिक कर्म द्रव्य को आकर्षित करता है। आत्मामें प्रवेशकर यह कर्म द्रव्य आत्माके गुणों को आच्छादित कर देता है। क. अमूर्त जीवसे मूर्त कर्मों का संबंध कैसे
पुद्गलके विवेचनसे स्पष्ट है कि कर्म पुद्गल रूप होने के कारण मूर्तिक हैं और जीवको जैन दर्शनमें अमूर्तिक कहा गया है । मूर्त अग्नि और जलका अमूर्त आकाशपर जिस प्रकार प्रभाव नहीं पड़ता, उसी प्रकार मूर्त कर्मोंका अमूर्त जीव पर प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए परन्तु अमूर्त जीव पर मूर्त कर्मों का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । इसका समाधान करते हुए कर्मसिद्धान्त मर्मज्ञोंने कहा है कि ज्ञान आत्माका गुण होनेके कारण अमूर्त है, परन्तु मदिरा सेवन कर लेनेसे आत्माका ज्ञान गुण लुप्त हो जाता है। अमूर्त गुणोंपर मूर्त मदिराका प्रभाव जिस प्रकार स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, उसी प्रकार अमूर्त जीवसे मूर्त कर्मों का संबंध भी संभव है। १. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ८, सूत्र २. २. आत्ममीमांसा, पृ०६२ ३. एकीभाव गत इव मया य: स्वयं कर्मबन्धो वादिराज आचार्य, एकीभावस्तोत्र, श्लोक १ ४. दास गुप्त, भारतीय दर्शनका इतिहास, पृ० २०३ ५. “कम्मादपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो", द्रव्य संग्रह गाथा ३२ ६. दास गुप्त, भारतीय दर्शनका इतिहास, पृ० २०३ ७. जैन तत्त्व कलिका, षष्ठ कलिका, पृ० १५५
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