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________________ ९४ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन जातिके कर्मपुदगलोंका नीर क्षीरके समान अथवा लोहाग्निके समान एक हो जाना ही बन्ध है । राजवार्तिक के अनुसार-“आत्मकर्मणोरन्योन्य प्रवेशलक्षणो बन्ध:"१ अर्थात् जैसे लोहे और अग्निका एक ही क्षेत्र है और नीर तथा क्षीर मिलकर एक क्षेत्रावगाही हो जाते हैं उसी प्रकार आत्माके साथ बन्धको प्राप्त होकर, सूक्ष्म पुद्गल एक क्षेत्रावगाही हो जाते हैं । जीवके एक-एक प्रदेश पर कर्मों के अनन्त प्रदेश, अत्यन्त सघन और प्रगाढ रूपसे अवस्थित होकर रहते . श्री जितेन्द्र वर्णी ने बन्धके संश्लेष संबंधकी व्याख्या करते हुए कहा है कि बन्धको प्राप्त मूल पदार्थ, भले ही वे जड़ हों या चेतन अपने शुद्ध स्वरूपसे च्युत होकर एक विजातीय रूप धारण कर लेते हैं। अपने कथनको स्पष्ट करते हुए उन्होंने आक्सीजन और हाईड्रोजनका उदाहरण दिया है । आक्सीजन और हाईड्रोजन दोनों ही गैसें अग्निको भड़काने की शक्ति रखती हैं, परन्तु परस्पर बन्धको प्राप्त हो जाने पर जलका रूप धारण कर लेती हैं। दोनों गैसें संश्लेष संबंधको प्राप्त होकर, यद्यपि विजातीय रूप धारण कर लेती हैं, परन्तु वस्तुके स्वाभाविक गुण उस अवस्था में भी नष्ट नहीं होते अव्यक्त या तिरोभूत अवश्य हो जाते हैं जिन्हें पुन: व्यक्त या आविर्भूत किया जा सकता है। जैसे प्रयोग विशेष द्वारा जलको पुन: आक्सीजन और हाईड्रोजनमें बदला जा सकता है, वैसे ही आत्मा और कर्मका संश्लेष संबंध यद्यपि विजातीय हो जाता है परन्तु इस बन्ध अवस्थामें भी जीव और पुद्गलके गुण तिरोहित भले ही हो जाते हैं, परन्तु नष्ट नहीं होते। जीव कर्मपुद्गलोंका ग्रहण क्यों करता है ? इसके उत्तरमें कहा जा सकता हे कि जीव अनादि कालसे ही कर्मसे संबंधित है, जैसे खानसे निकले स्वर्ण और पाषाणका संबंध अनादि कालसे है उसी प्रकार जीव और कर्मका संबंध भी अनादिकालसे है । अनादिकालसे कर्म बद्धजीव ही रागद्वेषादि भाव कर्मों के कारण द्रव्य कर्म रूप सूक्ष्म पुद्गलोंको ग्रहण करता है - १. राजवार्तिक, पृ०२६ २. जीवपएसेक्कक्के कम्मपएसाह अंतपरिहीणा। होति घणणिविडभूओसंबधो होइ णायव्वो। कर्म प्रकृति, गाथा २२ ३. जिनेन्द्र वर्णी, कर्म सिद्धान्त, पृ० ३७ ४. कनकोपले मलमिव स्वर्णपाषाणे स्वर्णपाषाणयोः । संबंधस्य अनादिरिव “गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा २ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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