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कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें
९३.
अवस्था है, जिसमें द्रव्य कर्म और भाव कर्मकी अविच्छिन्नं धाराको रोक दिया गया है ।
५.
कर्म की विविध अवस्थायें
जैन कर्म सिद्धान्त कर्मकी विविध अवस्थाओंका अति सूक्ष्म वर्णन किया गया है । सैद्धान्तिक भाषामें इन अवस्थाओंको 'करण' कहा जाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशर्मे करणकी परिभाषा करते हुए कहा गया है कि, "जीवके शुभ अशुभ आदि परिणामोंकी करण संज्ञा है ।' गुणोंकी अवस्थाको "परिणाम" कहा जाता है । यह प्रतिक्षण परिणमनशील रहता है । आत्माके परिणामों को संज्ञा देनेका कारण बतलाते हुए धवलाकारने कहा है कि 'जीवके शुभ-अशुभ परिणाम ही कर्मों की विविध अवस्थाओं का मूल कारण है,' इसीलिए साधकतम भावकी विवक्षामें भी परिणामोंको 'करण' कहा जाता है ।
नथमल टॉटियाने कहा है कि क्रियाओंकी विभिन्नता का कारण, जीवकी वीर्य अर्थात् ऊर्जा शक्तिकी हीनाधिकता है । इस विभिन्नताके कारण ही कर्मपुद्गलों की विभिन्न अवस्थायें हो जाती हैं, जिन्हें जैन पारिभाषिक शब्दावली में 'करण' कहा जाता है । "
करण दस होते हैं - बन्ध, उदय, सत्व, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उपशम, उदीरणा, निधत्त और निकाचित । ये दस करण प्रत्येक कर्म प्रकृतिमें होते हैं ।' कर्मके विशेष स्वभावको प्रकृति कहते हैं, जिनका विस्तार कर्मबन्ध अधि कारमें किया जायेगा । यहाँ क्रमशः दस करणों का पृथक्-पृथक् विवरण देना इष्ट है |
(१) बन्धकरण
सभी भारतीय दर्शनोंमें कर्म बन्धके संसरणको एक आवश्यक सिद्धान्तके रूपमें स्वीकार किया गया है। ज्ञान, ध्यान और तप रूप समस्त साधनायें, इस बन्धनसे मुक्तिके लिए ही की जाती हैं। बन्धनके स्वरूपके विषयमें जैन दर्शनकी अपनी विशिष्ट विचारना है। इस विचारना के अनुसार आत्माके साथ सूक्ष्म
१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग दो, पृ० ४ २. परिणामोऽवस्था, पंचाध्यायी, पूर्वार्ध, श्लोक ११७
३. षटखण्डागम, धवला टीका ६ / १ पृ० २१७
४. स्टडीजज़ इन जैन फिलॉसफी, पृ० २५४
५. बंधुक्कड्ढणकरण संकममोकद्दुदीरणा सत्तं ।
उदयुवसामणिधत्ती णिकाचणा होंति पड़िपयड़ी | गोम्मटसार, कर्मकाण्ड गाथा ४३७
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