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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन जैन दर्शनमें भी स्वीकार किया गया है ।
यद्यपि सन्ततिके दृष्टिकोणसे भावकर्मऔर द्रव्यकर्मका कार्य कारण भाव अनादि है, परन्तु व्यक्तिश: विचार करने पर, किसी एक द्रव्य कर्मका कारण, एक भावकर्म ही होता है। अपने राग द्वेष रूप परिणामों के कारण ही जीव, द्रव्यकर्मके बन्धनमें बद्ध होता है और उसीके फलस्वरूप संसारमें परिभ्रमण करता है। दलसुख मालवणियाने दोनोंके कार्य कारण और निमित्त नैमित्तिक संबंध का निरूपण करते हुए स्पष्टीकरण किया है कि- जैसे घट को बनाने में मिट्टी उपादान कारण और कुम्हार निमित्त कारण है, इसी प्रकार द्रव्यकर्मका उपादान कारण पुद्गल और निमित्त कारण भाव कर्म है । जैसे यदि कुम्हार न हो तो मिट्टी स्वयं घट रूपमें परिणत नहीं हो सकती, उसी प्रकार यदि भाव कर्म न हो तो पुद्गल द्रव्यकर्ममें परिवर्तित नहीं हो सकता । इसी प्रकार द्रव्यकर्म भी भाव कर्मका निमित्तकारण है। इस प्रकार द्रव्यकर्म और भाव कर्मका कार्यकारण भाव निमित्त नैमित्तिक रूप हैं ।२
यद्यपि जीव और कर्मका संबंध अनादि है और कार्य कारण रूपसे यह चक्र चलता रहता है, परन्तु विशेष अभ्यास और आत्मिक शक्तिसे इस चक्रको रोका जा सकता है। द्रव्यकर्म और भावकर्मका कार्यकारण संबंध अनादि होते हुए भी अनन्त नहीं है। जैसे खानसे निकले सोने में, सोने और मिट्टीका संबंध अनादि कालसे है, परन्तु आगमें तपानेसे उस अनादि संबंधका विच्छेद हो जाता है। इसी प्रकार जब जीव, निरन्तर अभ्यास द्वारा, भावकों पर नियंत्रण कर लेता है, तब द्रव्यकर्म तथा भावकों का यह अनादि प्रवाह रुक जाता है। आगम प्रमाण से सिद्ध है कि अनेक आत्माओंने ज्ञान, ध्यान, तप आदिकी विविध साधनाओंके द्वारा इस अनादिसंबंधका विच्छेद किया है। इसी कारण द्रव्य कर्म तथा भावकर्मका संबंध अनादि होते हुए भी सान्त है।
उपरोक्त कथनका सारांश यह है कि जीवके योग अर्थात् मन वचन कायकी क्रिया मात्रसे कर्मशक्ति उत्पन्न नहीं होती, अपितु जीवके उपयोग अर्थात् राग, द्वेष, मोह आदि परिणामोंसे समीपवर्ती सूक्ष्म परमाणुओंका आकर्षण होता है, जिससे वे जीवके सम्पर्कमें आकर कर्म रूपमें परिणत हो जाते हैं । इस प्रकार रागद्वेषादि परिणाम रूप भावकर्मसे द्रव्यकर्म उत्पन्न होते हैं । यदि मन, वचन, कायकी क्रिया, भाव निरपेक्ष हो तो द्रव्यकर्मका संचय नहीं होता। जैनमान्य अर्हन्त अवस्था जिसे अन्य दर्शनोंमें जीवनमुक्त अवस्था कहा गया है, ऐसी ही १. पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, श्लोक ५५ २. आत्म मीमांसा, पृ०९७ ३. “कम्ममलविप्पमुक्को" पंचास्तिकाय, गाथा २८
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