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________________ कर्म तथा कर्मकी विविध अवस्थायें ९१ पुरस्कार देने की आवश्यकता होती है । वस्तुत: स्वयं कार्यों के अन्दर ही उनके प्रतिफल और परिणाम निहित होते हैं । ' इस प्रकार उपरोक्त कथनसे यह निश्चित है कि जैन दर्शनमें कर्मकी व्याख्या इस ढंग से की गई है कि ईश्वर, ब्रह्म, विधाता, दैव और पुराकृतकर्म, सब कर्म रूपी ब्रह्मा के पयार्यवाचक हो गए हैं । ४. द्रव्य कर्म और भावकर्म जैन परम्परामें कर्मका, केवल क्रिया रूप ही मान्य नहीं है, अपितु क्रिया द्वारा आत्माके संसर्ग में आनेवाले एक विशेष जातिके सूक्ष्म पुद्गलको भी द्रव्य कर्मके रूपमें माना है। इस प्रकार जैन दर्शनमें कर्म के दो रूप माने गये. -भाव कर्म और द्रव्य कर्म । जीवकी क्रिया भाव कर्म है और उसका फल द्रव्य कर्म है । कर्मकी I जीवसे संबंधित क्रिया भावात्मक होने के कारण "भावकर्म” कहलाती है और कर्मकी पौद्गलिक अवस्था द्रव्यात्मक होने के कारण " द्रव्यकर्म” कहलाती है। भाव कर्म जीवके उपयोग रूप होता है। मोह राग और द्वेषको भाव कर्म कहा जाता है । (इनका विस्तार चारित्र मोहनीयके प्रकरण में किया जायेगा ) पुद्गल वर्गणाओंके पारस्परिक बन्धसे जो स्कन्ध बनते हैं, वे द्रव्य कर्म हैं। ये द्रव्य कर्म, वर्गणा भेदसे पांच प्रकारके कहे गये हैं । (देखिये अध्याय ३) इनसे ही स्थूल और सूक्ष्म शरीरोंका निर्माण होता है । जीवका योग या प्रदेश परिस्पन्दन, द्रव्यकर्म और भाव कर्मके मध्यकी सन्धि है ।" इन दोनोंमें परस्पर कार्य कारण संबंध है । भाव कर्म कारण और द्रव्य कर्म कार्य है परन्तु द्रव्य कर्मके अभावमें भावकर्मकी भी निष्पत्ति नहीं होती, इसी कारण द्रव्यकर्म भी भाव कर्मका कारण है। मुर्गी और अण्डे के समान भाव कर्म और द्रव्य कर्मका कार्य कारण भाव अनादिसे ही है ।" यह संबंध कहाँसे प्रारम्भ हुआ, यह कहना कठिन है, क्योंकि जैन मतानुसार जीव और पुद्गलका संबंध अनादि कालसे है। टॉटियाके अनुसार यह एक दृढ यथार्थ है, जिसे अन्य सभी दर्शनोंने भी स्वीकार किया है। कर्मोंकी अनादिकालीन सत्ता को अन्य दर्शनोंकी भाँति १. पुरोधा, दिसम्बर १९७८, पृ० १८, अरविन्द सोसाईटी, पांडीचेरी २. महापुराण, ४.३७ ३. आप्त परीक्षा, श्लोक ११३-११४ ४. कर्म सिद्धान्त, पृ० ४७ सन् १९८१ ५. आत्म मीमांसा, पृ० ९६ ६. स्टडीज इन जैन फिलॉसफी, पृ० २२७ · Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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