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जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन
मूर्त अमूर्त के संबंध में दूसरा हेतु यह भी दिया जा सकता है कि जैन दर्शनमें जीवकी शुद्धावस्थाको यद्यपि अमूर्त माना गया है, परन्तु संसारावस्थामें भ्रमण करते हुए जीवको अनादिकालसे ही कर्मों से बद्ध माना गया है।' कर्म आत्माको स्वर्ण पर लगे मै लकी भाँति आच्छादित कर लेते हैं। इस अपेक्षासे संसारी जीवको मूर्त भी कहा जाता है । संसारी जीवोंके मूर्तत्वका कारण कर्म है, क्योंकि कर्म से लिप्त मूर्त संसारी जीवों से ही, पुनः पुनः मूर्त कर्मों का संबंध होता है । कर्मसे मुक्त अमूर्त सिद्धजीवों में, तीन कालमें भी कर्मों का संबंध होना संभव नहीं है । कर्मबन्ध अनादि कालसे है -
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ख.
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जीव तथा कर्मका यह बन्ध कबसे हुआ ? इस पर सभी दर्शनकारों ने विचार किया है और एकमतसे यह स्वीकार किया है कि जीव और कर्मका यह बन्ध अनादिकालसे चला आ रहा है। दलसुख मालवणियाने विभिन्न मतों का विवरण देते हुए आत्ममीमांसामें कहा है कि शंकराचार्यने ब्रह्म और मायाका संबंध अनादि माना है, रामानुजने भी जीवको अनादिकालसे ही बद्ध स्वीकार किया है, निम्बार्क और माध्वाचार्यने भी कर्म के कारण जीवका संसार माना है और कर्मको अनादि माना है । वल्लभके मतानुसार जिस प्रकार ब्रह्म अनादि है, उसी प्रकार उसका कार्य जीव भी अनादि है । अत: जीव तथा अविद्या का संबंध भी अनादि है । " सांख्य मतानुसार भी प्रकृति और पुरूषका संयोग ही बंध है और वह अनादिकालसे चला आ रहा है। प्रकृतिसे उत्पन्न लिंगशरीर अनादि है और यह अनादि कालसे ही पुरूषके साथ संबद्ध है ।" इसी प्रकार योगदर्शनानुसार भी दृष्टा पुरूष और दृश्य प्रकृतिका संयोग अनादिकालीन है और वही बन्ध है ।
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जैन दर्शनमें भी जीव और कर्म के संबंधको अनादि माना गया है । यह संबंध कैसे हुआ, कहांसे प्रारम्भ हुआ और किसने किया, यह प्रश्न आकाश पुष्प की तरह व्यर्थ है
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तथानादि स्वतो बन्धो जीव पुद्गल कर्मणोः
कुतः केन कृतः कुत्र प्रश्नोऽयं व्योमपुष्पवत् ॥७
१. जीवकर्मणोरनादि संबंध इत्युक्तं भवति । सर्वार्थ सिद्धि, पृ० ३७७
२. संसारावत्थाए जीवाणममुत्तत्ताभावादो. षटखण्डागम, धवला टीका पुस्तक १३, खण्ड ५, पृ० ११ ३. जीवस्स मुत्ततणिबंधणकम्माभावे तज्जनिदमुत्तत्तस्स वितत्थ
अभावेण सिद्धाणनममुत्तभाव सिद्धीदो, वही, पृ० ११
४. आत्ममीमांसा, पृ० ६३
५. सांख्यकारिका, ५२
६. योगदर्शन, २. १७ ७. पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, श्लोक ५५
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