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कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा स्वीकार किया है और इन्हें साधना पथका मूल माना है। ४. धर्म
रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें धर्मका लक्षण करते हुए कहा गया है - देशयामि समीचीनं धर्म कर्म निर्वहणम् । संसार दु:खत: सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥२
समीचीन रूपसे कर्मों का नाश करके, जो प्राणियोंको संसार के दु:खोंसे हटाकर, उत्तम मोक्षसुखमें स्थापित करता है, वही धर्म कहा जाता है। पूज्यपादजीने भी कहा है – “इष्टस्थाने धत्ते इति धर्म:” जो इष्टस्थान अर्थात् मोक्षमें पहुंचाता है, उसे धर्म कहते हैं । कुन्दकुन्दाचार्यने भावपाहुड़में कहा है - ___मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो धम्मो ।” मोह अर्थात् रागद्वेषादि, क्षोभ अर्थात् योगोंका चांचल्य इनसे रहित आत्माके परिणामको ही धर्म कहते हैं । यह धर्म कमों के प्रवाहको रोकने में साक्षात् कारण होता है। इस धर्मको दसलक्षणोंसे युक्त माना गया है। धर्मके ये दश लक्षण उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य हैं। ख्याति, लाभ, पूजादिके अभिप्राय से धारण किया गया क्षमादि धर्म उत्तम नहीं कहा जाता । इसी कारण ख्याति, पूजादिकी भावनाकी निवृत्तिके लिए ही उत्तम विशेषण लगाया गया है।
क्रोधको उत्पन्न कराने वाले बाह्य निमित्त मिलने पर भी क्रोध न करना उत्तमक्षमा है, उस समय जीव यह सोचता है कि बाह्य कारण तो निमित्त मात्र हैं, वास्तवमें यह सब मेरे अपने ही पूर्वकृत कर्मों का परिणाम है। चित्तमें मृदुता और व्यवहारमें भी नम्रवृत्तिका होना मार्दव है । उत्तम मार्दव धर्मको धारण करने वाला जीव जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य, बुद्धि, प्रज्ञा, लाभ, शक्ति आदिको विनश्वर मानकर अभिमानके काँटेको निकाल देता है । मन, वचन और कर्मकी एकता ही उत्तम आर्जव है, इससे कुटिलता तथा मायाचारीके दोषों का निवारण होता है । १. राजवार्तिक, पृ० ५९४ २. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, गाथा २ ३. सर्वार्थसिद्धि, पृ०४०९ ४. भावपाहुड, गाथा ८३ ५. दशलक्ष्मयुतंसोऽयं जिनधर्म; प्रकीर्तितः, ज्ञानार्णव, अधिकार २, श्लोक १० ६. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९, सूत्र ६ ७. चारित्रसार, पृ०५८
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