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________________ कर्मबन्धके कारण तथा भेदप्रभेद १३७ अप्रत्याख्यानावरणी मायाकी वक्रता मेषके सींगके समान होती है जिसे कठिनतासे अनेक उपायोंके द्वारा दूर किया जा सकता है। ऐसा मायाचारी जीव तिर्यञ्च गति कर्मका बन्ध करता है । प्रत्याख्यानावरणीमायाकी वक्रता गोमूत्रकी वक्रताके समान है । जैसे चलती हुई गायका मूत्र शीघ्र ही अपनी वक्रताको छोड़ देता है, उसी प्रकार प्रत्याख्यानावरणी मायाकी वक्रता थोड़े परिश्रमसे ही दूर हो जाती है । ऐसा जीव मनुष्य गति कर्मका बन्ध करता है । संज्वलनी माया की वक्रता बांसके छिलके जैसी होती है, जो बिना परिश्रमके दूर हो जाती है। ऐसा जीव देवगति कर्मका बन्ध करता है । लोभ चतुष्क धन आदिकी तीव्र आकांक्षा या गृद्धि लोभ है' यह भी अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलनके भेद से चार प्रकारका है । इनकी उपमा क्रमश: किरमजीका दाग, पहियेकी कीचड़, काजल और हल्दी के रंगसे दी गई है। इनका प्रभाव उत्तरोत्तर मन्द होता जाता है । इनका फल भी क्रमश: नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गतिकी प्राप्ति है । घ. अनन्तानुबन्धी लोभ किरमजीके रंग सदृश है, जो किसी भी उपायसे नहीं छूटता । अप्रत्याख्यानावरणलोभ गाड़ीके पहिये की कीचड़ जैसा है, जिसका दाग अतिकठिनतासे छूटता है । प्रत्याख्यानावरण लोभ सामान्य कीचड़ अथवा के रंग सदृश होता है, जो अल्प परिश्रमसे छूट जाता है । संज्वलन लोभ हल्दी के रंग सदृश है, जो सहज ही छूट जाता है । उपरोक्त सोलह कषायोंकी शक्तियोंके दृष्टान्त निम्न तालिका द्वारा प्रदर्शित किये जा सकते हैं। कषाय की अवस्था क्रोध अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान संज्वलन १. २. ३. शक्तियोंके दृष्टान्त माया वेणुमूल मान शिलारेखा शैल बालुरेखा अस्थि मेषश्रृंग धूलिरेखा दारू (काष्ठ) गोमूत्र जलरेखा वेत्र Jain Education International 2010_03 लोभ किरमजी का रंग, (दाग) चक्रमलरंग तिर्यञ्च कीचड़ मनुष्य देव खुरपा, लेखनी हल्दी राजवार्तिक, पृ० ५७४ (क) किमिरायचक्कमलकद्दमो य तह चेय जाण हारिदं । णिरतिरणरदेवत्तं उर्विति जीवा हु लोहवसा ॥ पंचसंग्रह प्राकृत, अधिकार १ गाथा ११४ (ख) "लोहो हलिदखंजणकद्दमकिमिरागसामाणो” कर्मग्रन्थ, प्रथम भाग, गाथा २० जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, पृ० ३८ For Private & Personal Use Only फल नरक www.jainelibrary.org
SR No.002576
Book TitleJain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManorama Jain
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year1993
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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