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जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त-एक अध्ययन
भी अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से चार प्रकार का है जो उत्तरोत्तर मन्द होता जाता है। इसकी उपमा, शैल, अस्थि, काष्ठ और बेंत से दी जाती है । इनका फल क्रमश: नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गति की प्राप्ति है । इनका संक्षिप्त स्पष्टीकरण इस प्रकार किया जा सकता है
अनन्तानुबन्धी मान शैल स्तम्भके समान होता है, ऐसे मानको अत्यधिक उपायों के द्वारा भी झुकाया नहीं जा सकता। ऐसा मानी जीव नरकगति कर्मका बन्ध करता है । अप्रत्याख्यानावरण मान अस्थिके समान होता है, जो बहुतसे उपायोंसे झुकाया जा सकता है, ऐसा मानी जीव तिर्यंच गति कर्मका बन्ध करता है। प्रत्याख्यानावरण मान काष्ठकी तरह से होता है, जो थोड़ेसे परिश्रमसे ही झुक जाता है। ऐसा मानी जीव मनुष्य गति कर्मका बन्ध करता है । संज्वलन मान वृक्षकी लता अथवा बेंतके समान होता है जो शीघ्र ही झुक जाता है इसी प्रकार संज्वलन मानी जीव आग्रहको छोड़कर शीघ्र ही झुक जाता है । इस प्रकारके सरल भावसे देवगतिकी प्राप्ति होती है। ग. माया चतुप्क
मायाका अर्थ है, कपटाचार अथवा स्वभावका टेढ़ापन । सर्वार्थ सिद्धिमें कहा गया है- “आत्मन: कुटिलभावो माया निकृति: २ मायाका दूसरा नाम निकृति या वंचना है । माया भी अनन्तानुवन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलनके भेदसे चार प्रकारकी है। इनकी उपमा क्रमश: वेणु मूल अर्थात् बांसकी गंटीली जड़, भेड़का सींग, गोमूत्र और खुरपेसे दी गई है, ये उत्तरोत्तर मन्दताको प्राप्त होती जाती है । इनका फल भी क्रमश: नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गतिकी प्राप्ति है। इनका संक्षिप्त स्पष्टीकरण इस प्रकार किया जा सकता है -
अनन्तानुबन्धिनी माया गठीली बांसकी जड़के टेढेपनके समान है, जो किसी भी प्रकार दूर नहीं किया जा सकता। ऐसा मायाचारी जीव नरकगति कर्मका बंध करता है। १. (क.) सेलसमो अटिठसमो दारू समो तह य जाण वेत्तसभो।।
णिर, तिर णर देवत्तं उविति जीवाह माणवसा ।। पंचसंग्रह प्राकृत, अधिकार १ गाथा ११२ (ख.) “तिणिसलयाकट्ठठियसेलत्थंभोवमो माणो।" कर्मग्रन्थ, प्रथमभाग, गाथा १९ सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३३४ (क)वंसीमूलं मैसस्स सिंग गोमुत्तियं च खोरूप्यं । णिर तिर णर देवतं उविंति जीवा हुमायवसा।। पंचसंग्रह, प्राकृत, अधिकार १, गाथा ११३ (ख) मायावलेहिगोमुतिमिढ सिंगधणवंसिमूलसमा। कर्म ग्रन्थ, प्रथम भाग, गाथा २०, पृ०५१
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