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कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद
१३५ १. कषाय मोहनीय
चारित्रको घात करने वाले कषाय चार होते हैं - क्रोध, मान, माया और लोभ । प्रत्येक कषाय पुन: चार प्रकारका हो जाता है- अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन । क्रोध, मान, माया तथा लोभ आदि का विवेचन यद्यपि योगादि अन्य दर्शनों में भी प्राप्त होता है, परन्तु इनके अनन्तानुबन्धी आदि चार भेदों के द्वारा जैसा सूक्ष्म प्रतिपादन जैन दर्शनमें किया गया है, वैसा अन्यत्र नहीं पाया जाता । इन सबका संक्षिप्त परिचय आवश्यक है, जो निम्न प्रकार है(क.) क्रोध चतुष्क
अपना और परका अनुपकार करने के क्रूर परिणाम क्रोध हैं । जिस क्रोध के कारण जीव अनन्त काल तक संसार में भ्रमण करता है, वह अनन्तानुवन्धी क्रोध है । इसका दृष्टान्त पर्वतकी गहरी दरारसे दिया जाता है, जो फटनेपर पुन: नहीं मिलती । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी क्रोध किसी भी उपायसे शान्त नहीं होता। ईषत् प्रत्याख्यानम् = अप्रत्याख्यानम् । “अनागतदोषापोहनं प्रत्याख्यानम्" जिस के उदयसे थोड़ा ही प्रत्याख्यान होता है, उसे अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी उपमा सूखे तालावमें मिट्टी के फट जाने से जो दरार हो जाती है, उससे दी जा सकती है। जैसे वर्षा होने पर मिट्टीकी दरार पुन: मिल जाती है, उसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण क्रोध विशेष परिश्रमसे शान्त हो जाता है। प्रत्याख्यानावरण क्रोध रेत की लकीर के समान मन्द होता है, जैसे रेत की लकीर हवा से तुरन्त भर जाती है, उसी प्रकार यह क्रोध शीध्र शान्त हो जाता है परन्तु यह महाव्रत में बाधा पहुंचाता है ।
संज्वलन क्रोध वह मन्दतम कषाय है, जो पानीकी लकीर के समान शीघ्र मिट जाता है, ऐसा क्रोध प्राय: साधुओं को होता है । इन चारों का फल क्रमश: नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति की प्राप्ति है ।२ (ख) मान चतुष्क
___ अभिमान के कारण दूसरे के प्रति नमने की वृत्ति न होना मान है। मान
२.
राजवार्तिक, पृ०५७४ (क.) जलरेणुपुदवीपव्वराई सरिसो चउव्विहो कोहो, कर्मग्रन्थ, भाग प्रथम, गाथा १९ (ख.)सिलभेयपुढविभेयाधूलीराई यउदयराइसमा। णिर तिरणरदेवत्तं उविंति जीवाह कोहवसा।।
पंचसंग्रह, प्राकृत, अधिकार १ गाथा १११ राजवार्तिक, पृ० ५७४
३.
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