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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन केवलज्ञानको आवरण करने वाले कर्मों को केवलज्ञानावरणीय कहते हैं, केवलज्ञानावरणीय कर्मकी केवल एक प्रकृति है, यह पूर्णज्ञानकी प्रतिबन्धक होनेके कारण सर्वघाती कहलाती है। २. दर्शनावरणीयकर्म
दर्शनगुणका आवरण करने वाला दर्शनावरणीय कर्म है, अर्थात् जो पुद्गल स्कन्ध, जीवके साथ संश्लेषात्मक संबंधको प्राप्त होकर, दर्शन गुणको रोकता है, अर्थात् अर्थका अवलोकन नहीं होने देता, वह दर्शन गुणको घातने वाली दर्शनावरणीय प्रकृति कहलाती है। राजद्वार पर बैठा हुआ प्रतिहारी जिस प्रकार राजाके दर्शन नहीं होने देता वैसे ही दर्शनावरणीय कर्म दर्शन गुणको आच्छादित करता है।' दर्शनावरणीय प्रकृतिबन्धके कारण
ज्ञानावरणीय कर्मके समान ही दर्शनावरणीय कर्मके भी वही छ: कारण बतलाये गये हैं । तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा गया है -
“तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयो:"५
दूसरेके ज्ञानमें दोष निकालना, अपने ज्ञानको छिपाना, ज्ञानीके प्रति ईर्ष्या भाव रखना, ज्ञान तथा ज्ञान प्राप्तिके साधनों में बाधा डालना अथवा अन्य कारणसे विनाश करना, किसीकी आँखें फोडना, विपरीत प्रवृत्ति करना, दृष्टिका गर्व करना, दीर्घ निद्रा लेना, दिनमें सोना, आलस्य करना, सम्यग्दृष्टिमें दूषण लगाना, हिंसा करना और यतिजनों के प्रति ग्लानिभाव आदि करनेसे दर्शनावरणीय कर्मका आश्रव होता है। दर्शनावरणीय कर्मकी उत्तर प्रकृतियाँ
दर्शनावरणीय कर्मकी नो प्रकृतियाँ हैं – चार आवरण रूप और पांच निद्रायें। इनका निर्देश निम्न चार्ट में किया गया है -
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१. कर्मग्रन्थ, भाग १, गाथा ९, पृ०३० २. केवलणाणावरणीयस्स कम्मस्स एकाचैव पयड़ी, षट्खण्डागम, धवला, १३, भाग ५, पृ० ३४५ ३. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ३७८ ४. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा २० ५. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ६, सूत्र १० ६. राजवार्तिक, पृ०५१९ ७. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, जीव तत्त्वप्रदीपिका, गाथा ३३
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